Tuesday, February 23, 2016

बुंदेलखंड की साहित्यिक परंपरा

बंुदेलखंड की साहित्यिक परंपरा के विविध पक्ष
डाॅ राकेश नारायण द्विवेदी
बुंदेलखंड में साहित्यिक परंपरा के दो रूप दिखाई देते हैं, एक को हम मुख्यधारा का साहित्य कह सकते हैं, क्योंकि यह समूचे हिंदी अंचल में पढ़ा-समझा जाता है। यह धारा जगनिक के परमाल रासो से प्रारंभ होती है। इसे आल्हखंड के नाम से भी जानते हैं, जो बुंदेलखंड के जनजीवन से जुड़ा काव्य है। दूसरी परंपरा को यदि हम लोक साहित्य की परंपरा कहें तो प्रश्न उठता है कि फिर क्या कोई साहित्य लोकेतर भी है। सब कुछ लोक का ही तो है, किंतु बुंदेली की जो साहित्य परंपरा बुंदेली बोली में लिखित है और अपनी ही अनुभूति को अभिव्यक्त करती है, भले ही वह साहित्य के अनुशासन को न मानती हो; उसे यहां हम दूसरी परंपरा अभिहित कर रहे हैं। इस परंपरा में यहां बहुत भावपूर्ण साहित्य का सृजन हुआ है। ईसुरी इस परंपरा के प्रतिनिधि कवि हैं।
बुंदेलखंड के मुख्यधारा के साहित्य ने हिंदी की विविध विधाओं को समृद्ध किया है। यहां की साहित्यिक परंपरा एक ओर जहां राष्ट्र की मुख्य चिंताओं और सरोकारों से अपने को संलग्न ही नहीं करती, अपितु दिशा एवं नेतृत्वदायी भी बनती है। जगनिक का 12वीं सदी में रचा आल्हखंड हिंदी साहित्य की प्रारंभिक रचनाओं में अपना स्थान रखता है। जब अपभ्रंश रचनाओं का कालखंड समाप्त होता है और साहित्य की विविध प्रवृŸिायों को हिंदी में अभिव्यक्त किया जाने लगा, तभी से बुंदेलखंड में भी साहित्य की परंपरा प्राप्त होने लगी थी। विभिन्न रासो ग्रंथ बुंदेलखंड की साहित्यिक परंपरा से अविच्छिन्न रूप में जुड़ते हैं। आल्हखंड के गीत उनके घटनाकाल से ही यहां के आमजन में बहुप्रचलित रहे, पर इन्हें सबसे पहले फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर मि0 चाल्र्स इलियट ने संग्रहीत करके छपवाया था। मि चाल्र्स (1895) ने इस ग्रंथ में मात्र बाइस लड़ाइयांे का उल्लेख किया है, जबकि बहुतायत में बावन लड़ाइयों की परंपरा श्रुति से प्राप्त होती है। इतिहास से प्रमाणित होता है कि कालिंजर या महोबा के चंदेल राजा परमर्दिदेव या परमाल से कन्नौज के सम्राट जयचंद का मैत्री संबंध होने के कारण ही पृथ्वीराज ने परिमर्दिदेव चर चढ़ाई की थी। भट्ट केदार ने ‘जयचंदप्रकाश’ नाम का एक महाकाव्य लिखा, जिसमें जयचंद के बल और पराक्रम का विस्तार से वर्णन मिलता है। ‘जयमयंक जसचंद्रिका’ में मधुकर कवि ने भी इसी प्रकार जयचंद का वर्णन किया है। उस समय जिस प्रकार पृथ्वीराज का प्रभाव राजपूत राजाओं पर था, उसी प्रकार जयचंद का प्रभाव बुंदेलखंड के राजाओं पर था। जयचंद की राजधानी कन्नौज थी। जिस प्रकार चंदबरदाई ने पृथ्वीराज के शौर्य वर्णन को महत्व दिया है, उसी प्रकार भट्टकेदार और मधुकरकवि ने जयचंद की प्रशस्ति की है। 13वीं शताब्दी में इन दो राजाओं के बीच सŸााओं का ध्रुवीकरण हुआ था।
हिंदी साहित्य में जब ऐसी रचनाएं की जा रहीं थीं, जिनके कारण उस युग को स्वर्ण युग के रूप मूल्यांकित किया गया; भक्तिकाल। भक्तिकाल के सिरमौर कवि गोस्वामी तुलसीदास (सं0 1589-1680) का संबंध इसी बुंदेलखंड से है। तुलसी के जन्मस्थान के बारे में भले ही विद्वानों के बीच मतभेद हों, क्योंकि इतने बड़े रचनाकार को कोई क्यों न अपना माने! विद्वानों का कोई वर्ग इनका जन्म स्थान गोंडा तो कोई सोरों और बहुत से विद्वान राजापुर चित्रकूट मानते हैं। सबके अपने-अपने तर्क और सम्मतियां हैं, पर एक बात निर्विवाद है कि तुलसी के सर्वप्रधान ग्रंथ श्रीरामचरितमानस और अन्य रचनाओं में बुंदेली के बहुत से ऐसे शब्दों का सन्निवेश हुआ है, जिन्हें कोई बाहर का व्यक्ति समझ न पाता। तुलसी ने चित्रकूट में बहुत समय व्यतीत किया था; इसमें कोई दो राय नहीं है। तुलसी रामायण अपनी उत्कृष्टता के कारण                                                                                                                                 उŸार भारत की जनता के गले का हार बनी। तुलसी कलिकाल के बाल्मीकि और गौतम बुद्ध के बाद सबसे बड़े लोकनायक माने गए।
रीतिकाल में महाकवि केशवदास (सं0 1612-1674) इसी अंचल से हुए। तुलसी का रामचरितमानस सं0 1631 में रचा गया, जबकि केशव की रामचंद्रिका सं0 1658 में आई। तुलसी ने सामान्य जनजीवन के लिए व्यापक लोकमंगलवाद की स्थापना की, तो आचार्य केशवदास में नरभाषा (हिंदी) को अपनी प्रतिभा, सामथ्र्य एवं व्युत्पन्नता द्वारा देवभाषा (संस्कृत जैसी प्रतिष्ठा) दिलाने के लिए प्रतिबद्धता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं ‘केशव की रचना में सूर, तुलसी आदि की सरसता और तन्मयता चाहे न हो पर काव्यांगों का विस्तृत परिचय कराकर उन्होंने आगे के लिए मार्ग खोला। जैसा प्रो योगेंद्र प्रताप सिंह ने कहा है ‘आचार्य केशवदास शास्त्रकवि जबकि गोस्वामी तुलसीदास ऋषि कवि थे। बुंदेलखंड की ऋषि कवि की यह परंपरा तब तक चलती रहेगी, जब तक मानव जाति इस पृथ्वी पर शेष रहेगी। बुंदेलखंड की ऋषि संस्कृति की यह अभूतपूर्व देन सदा-सदा स्मरण की जाती रहेगी।’(गोस्वामी तुलसीदास एवं आचार्य केशवदास- बुंदेलखंड के दो महाकवि, हिंदी अनुशीलन, पृ 186 जनवरी-दिसंबर 2014) आचार्य केशवदास रीतिकाल के उद्भव काल में उपजे हिंदी खड़ी बोली के आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं और उन्हीं के प्रयासों का यह प्रतिफल रहा कि हिंदी में सन् 1600 से 1900 तक ब्रज भाषा रीति कविता हिंदी में अपने शीर्ष स्तर पर स्थित रहीं। हिंदी खड़ी बोली कविता की भाषा को काव्यभाषा बनाने में उसका कुछ-न-कुछ योगदान अवश्य है। रीतिकाल के ही प्रमुख कवि पदमाकर बुंदेलखंड से ही हुए हैं। रीतियुग में ओरछा नरेश मधुकरशाह के राजगुरु हरिराम व्यास का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने हितहरिवंश का शिष्यत्व स्वीकार किया था। इनका काव्यकाल 1563 ई माना जाता है। बाद में ये वृंदावन ही बस गए थे और महाराज मधुकरशाह के बुलाने पर भी ओरछा वापस नहीं लौटे।
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में बुंदेलखंड से अनेक कवि हुए हैं। मैथिलीशरण गुप्त, नाथूराम माहौर, घासीराम व्यास, मुंशी अजमेरी, सियारामशरण गुप्त, मदनेशजी आदि। मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं ने हिंदी साहित्य को व्यापक आधार भूमि प्रदान की। उन्होंने 1912 ई में भारत-भारती लिखकर देशवासियों का ध्यान वर्तमान दुर्दशा की ओर आकृष्ट किया और अतीत की गौरवमयी झांकी प्रस्तुत करके उन्हें पराधीनता की बेडि़यों से मुक्त होने की ओर प्रोत्साहित किया। मैथिलीशरण गुप्त ने अपने साहित्य में इतिहास की सभी प्रमुख युगीन घटनाओं पर अपनी लेखनी चलाई है।
आधुनिक काल के राष्ट्रीय भाव को केंद्र में रखकर साहित्य सृजन करने वाले बुंदेलखंड से संबद्ध साहित्यकारों में वियोगी हरि (छतरपुर), निबंध एवं एकांकीकार डाॅ रामकुमार वर्मा, उपन्यासकार वृंदावनलाल वर्मा आदि का नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने बुंदेलखंड की संस्कृति और प्रकृति को केंद्र में रखकर साहित्य सृजन किया। समीक्षक एवं लेखक लाला भगवानदीन का प्रारंभिक जीवन बुंदेलखंड में ही बीता था, जो बाद में छतरपुर से काशी चले गए थे। उनकी रचनाओं में बुंदेलखंड की संस्कृति और धरती से मोह प्रतिबिंबित हुआ है। यहां की ऋतुआंे और त्योहारों का चित्रण ‘दीन’ जी के साहित्य में मिलता है। वृंदावनलाल वर्मा हिंदी के उन साहित्यकारों में हैं, जिन्होंने हिंदी साहित्य को उपन्यास, नाटक और कहानी विधा से सतत समृद्ध और गौरवान्वित किया है। वर्माजी का सर्वाधिक प्रसिद्ध उपन्यास ‘झांसी की रानी लक्ष्मीबाई’ 1846 ई में प्रकाशित हुआ। यह ऐतिहासिक उपन्यास है, किंतु इतिहास के साथ-साथ कल्पना, लोकजीवन उसकी आशा, आकांक्षा और भावनाओं का अद्भुद संगम इस उपन्यास में मिलता है। वर्माजी ने इस उपन्यास के परिचय में स्पष्ट लिखा है ‘उपन्यास लिखूंगा ऐसा जो इतिहास के रंग रेशे से सम्मत हो और उसके संदर्भ में हो। इतिहास के कंकाल में मांस और रक्त का संचार करने के लिए मुझको उपन्यास ही अच्छा साधन प्रतीत हुआ।’ वर्माजी ने उपन्यासों में बुंदेलखंड को अमर कर दिया है। उनके अधिकांश उपन्यास बुंदेलखंड से संबंधित हैं। बुंदेलखंड का समस्त वैभव उनके उपन्यासों में स्वाभाविकता के साथ अंकित है। वे यह दिखाना चाहते थे कि यहां की प्रकृति, झीलें, नदियां जैसी मनोहर हैं, यहां के पहाड़ व मैदान भी वैसे ही मनोहर हैं। बुंदेलखंड का इतिहास भी शक्तिशाली और स्फूर्तिदायक है। यहां के जीवन को मूर्त करने के लिए इन्होंने अपनी रचनाओं में बुंदेली शब्दों, लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग किया है।
बुंदेलखंड के समकालीन कथाकारों में मैत्रेयी पुष्पा अग्रगण्य हैं। प्रसिद्ध समीक्षक और ‘हंस’ के संपादक रहे राजेंद्र यादव ने कहा है, अगर मैं कहता हूं कि स्वतंत्रता के बाद रांगेय राघव और फणीश्वरनाथ रेणु के साथ मैत्रेयी तीसरा नाम जो कथा साहित्य में धूमकेतु की तरह आया है, तो न किसी पर अहसान कर रहा हूं, न नए नक्षत्र की खोज का श्रेय लेना चाहता हूं। सिर्फ उस लेखन से जुड़ना चाहता हूं, जो हिंदी के संकुलित कलम का विस्तार कर रहा है।(कस्तूरी कुंडल बसै, मैत्रेयी पुष्पा, पृ 176)
भारत का हृदयस्थल बुंदेलखंड त्याग और बलिदान का क्षेत्र है। यह क्षेत्र अपनी संस्कृति, कला और भाषायी अस्मिता के लिए विशिष्ट महत्व रखता है। संस्कृत साहित्य में श्रेष्ठतम ग्रंथ रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि, अष्टादश पुराण और महाकाव्य के रचनाकार वेदव्यास भी इसी बुंदेली भूमि की देन है। बुंदेलखंड के शासक स्वयं कवि तथा कविता प्रेमी रहे। इसीलिए उनके राजदरबारों में कवियों को सम्मान और आश्रय प्राप्त था। राजा छत्रसाल, इंद्रजीत सिंह, मधुकरशाह, वीरसिंह, जगतसिंह, हिंदूपति, हिम्मत बहादुर तथा पन्ना नरेश इन गुणग्राही शासकों में प्रमुख थे।
बुंदेलखंड की दूसरी साहित्यिक परंपरा को पहचान बाद में मिली। अभी भी यह बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि रीतिकाल में जब ब्रजभाषा साहित्य की मुख्य भाषा के रूप में पूरे हिंदी क्षेत्र में प्रचलित थी और साहित्य मुख्यतः काव्य में रचा जा रहा था, गद्य की भाषा की अभी पड़ताल भी नहीं हो पाई थी और खड़ी बोली का अभ्युदय गद्य भाषा के लिए नहीं हुआ था, उस समय बुंदेली गद्य यहां की राजभाषा थी। इतिहास में राजाओं के अनेकों पत्र सुरक्षित हैं, जिनमें ललित गद्य का प्रयोग मिलता है। बुंदेली लोकगीतों का भी साहित्यिक परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक स्थान पर लिखा है ‘ग्राम्य गीत आर्येतर सभ्यता के वेद (श्रुति) हैं। (छŸाीसगढ़ी लोकगीतों का परिचय, भूमिका पृ 5) लोकगीत रचने वाले का नाम भी नहीं प्राप्त होता। लोक ने सामूहिक रूप में ही इन्हें रचा और लोक को ही समर्पित कर दिया। किसी व्यक्ति को अपना नाम आगे करने की लालसा नहीं। यह विशेषता भक्त कवियों में भी मिलती है। इनमें आस्था है, विश्वास है और ईष्र्या-द्वेष नहीं है। लोक की यह बहुत बड़ी विशेषता है, गीत-संगीत ही नहीं, समूची संस्कृति में यह लोक अपना बहुमूल्य योगदान देता है और कोई व्यक्ति इसका श्रेय नहीं लेता। लोकगीतों के प्रखर संप्रेषण के कारण लोक से पृथक विरक्त संन्यासियों के लिए लोकगीत सुनने का निषेध तक किया गया ‘न शृणुयाद् ग्राम्यगीतानि’ लेकिन लोक की जो व्याप्ति और स्वीकार्यता है, उसका महत्व भी शास्त्रकारों ने निरूपित किया है और इसीलिए कहा है ‘यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्ध ना कथनीयम् नाचरणीयम्’ आचार्य चाणक्य ने लोक की महिमा गाई है कि जो शास्त्र को जानता है; लोक को नहीं जानता, वह मूर्खतुुल्य है’ - शास्त्रज्ञोऽप्य लोकज्ञो भवेन्मूर्खतुल्यः।
लोकगीत अपने को कला, काव्य, नृत्य अथवा संगीत के नियमों नहीं बांधता। इनमें कृत्रिमता नहीं होती। लोकजीवन का सुंदर प्रतिबिंब इनमें दिखता है। बुंदेलखंड के लोकगीतों ने प्रकृति को सुकुमार सौंदर्य एवं प्रेम को तो वाणी दी ही है, वे व्यक्ति के विविध संस्कारों और अवसरों को तद्युगीन परिवेश के साथ उपस्थित कर देते हैं। इनमें वेदना के कई रूप प्रकट होते हैं। विदा के समय एक बेटी कहती है-
कच्ची ईंट बाबुल देहरी न धरियो बेटी न दियो परदेस मोरे लाल।
डोला में बैठी बन्नी बिसूरे, का हमने कीने कसूर मोरे लाल।
भइया भाभी खों दीनी चंदन अटरियां, हमखों दई परदेस मोरे लाल।
रोवत रोवत डोला उठा लए, घर सें दए हैं निकार मोरे लाल।
गैला में मिल गए गांव के बरेदी, एक संदेशो लयं जाव मोरे लाल।
जा कइयो तुम हमरी माई सों, करो जिन सोच बिचार मोरे लाल।
हमरे खेलत की धरी हैं पुतरियां, गंगा में दैहें सिराय मोरे लाल।
इतनी सोच बहनी मन मे न ल्याओ, काए देहें गंगा बहाय मोरे लाल।
अपनी पठाई बहनी और की बुलाई, दुनिया की जेई है रीत मोरे लाल।
हर त्योहार और मांगलिक अवसर पर बुंदेली में ऐसे भावप्रवण लोकगीत उपलब्ध हैं, उन्हें आदिवासी लोककला अकादमी भोपाल द्वारा संग्रहीत करके प्रकाशित करा दिया गया है।
ईसुरी की फागों से बुंदेलखंड में भला कौन अपरिचित होगा-
रामायण तुलसी कही तानसेन ज्यों राग।
सोई या कलिकाल में कही ईसुरी फाग।।
ईसुरी की परंपरा को गंगाधर व्यास ने आगे बढ़ाया। इनके अतिरिक्त राठ के ख्यालीराम भी हुए, फागो के क्षेत्र में यह बुंदेली त्रयी के नाम से विख्यात है। ठेठ बुंदेली का पुनर्जागरण रामचरण हयारण ‘मित्र’ की कविता में देखा जा सकता है। ग्यारह वर्ष की अवस्था में रामधारी ंिसंह दिनकर से प्रशंसा प्राप्त कर चुके उरई के शिवानंद मिश्र बुंदेला का बुंदेली लोक साहित्य में विशिष्ट स्थान है। ‘अपनौ देस बुंदेलन वारौ’ नामक कविता में उनका राष्ट्रीय वीर रस का भाव झलकता है। हिंदी के प्रगतिवादी आंदोलन से प्रभावित होकर बुंदेली में रतिभान तिवारी ‘कंज’ ने विषमता के खिलाफ अपनी रचनाएं प्रस्तुत की। बुंदेली मंच के लोकप्रिय कवि जगदीश सहाय ‘जलज’ ने काव्य, नाटक एवं कहानियों के माध्यम से सामंतवादी प्रवृŸिा का जमकर विरोध किया। संतोष सिंह बुंदेला भवानी प्रसाद मिश्र से प्रेरणा पाकर चैकडि़या, फाग, सवैया आदि के माध्यम से बुंदेली गीत परंपरा को समृद्ध किया। अवध किशोर श्रीवास्तव ‘अवधेश’ ने दो दर्जन से अधिक पुस्तकें बुंदेली में लिखी। इन प्रसिद्ध पंक्तियों को इन्हीं ने लिखा है- बुंदेलों की सुनो कहानी आग यहां के पानी में। पानीदार यहां का पानी आग यहां के पानी में। बुदेली रचनाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए अवधेश सम्मान प्रदान करते हैं। डाॅ दुर्गेश दीक्षित, गुणसागर सत्यार्थी, रामरूप स्वर्णकार ‘पंकज’, डाॅ रामस्वरूप खरे, बुंदेली शब्दकोशकार डाॅ कैलाश बिहारी द्विवेदी एवं डाॅ रामनारायण शर्मा, कैलाश मड़वैया, डाॅ कामिनी, बाबूलाल द्विवेदी, आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल इत्यादि रचनाकार अपनी-अपनी तरह से बुंदेली साहित्य की परंपरा को आगे ले जाने के लिए सतत प्रयत्नशील हैं।
बुंदेलखंड में साहित्यिक परंपरा को प्रकाशित करने में यहां की पत्र-पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। 1 अक्टूबर 1940 ई से ‘मधुकर’ पाक्षिक पत्रिका बनारसीदास चतुर्वेदी जैसे मूर्धन्य संपादकाचार्य के संपादन में निकली। कृष्णानंद गुप्त ने ‘लोकवार्ता’ त्रैमासिक के संग्रहणीय अंक जून 1944 से निकाले। ‘बुदेली वार्ता’ कन्हैयालाल ‘कलश’ के संपादन में निकली। डाॅ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से ‘ईसुरी’ का प्रकाशन हुआ। वर्तमान में बुंदेली बसंत (छतरपुर), बुंदेली दरसन(हटा दमोह), अथाई की बातें (छतरपुर) जैसी पत्रिकाएं बुंदेली साहित्य और संस्कृति की संवाहिका का सबल माध्यम बनी हुई हैं।
बुंदेली साहित्य की परंपरा को बढ़ाने वाले कुछ उल्लेखनीय नाम इस आलेख में छूट गए होगे, लेकिन प्रवृŸिायों का समाहार स्थूल रूप में किया गया है। आलेख के प्रतिपाद्य में बुंदेली परंपरा का परिचय कराना ही अभीष्ट है।
एसोसिएट प्रोफेसर, शोध एवं स्नातकोŸार हिंदी विभाग
गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन) उप्र
मोबाइल 9236114604