Monday, October 31, 2022

अक्टूबर 2022

२/१०/२२ लश्कर-ए-गांधी को हथियारों की कुछ हाजत नहीं, हां मगर बेइंतिहा सब्र-ओ-कनाअत चाहिए गुरु कहे सो कीजिए करे सो कीजिए नाहि ४/१०/२२ मेधा ऋषि राजा सुरथ और समाधि नामक वैश्य को भगवती की महिमा बताते हुए मधु कैटभ वध का प्रसंग सुनाते हैं। देवी भगवती महिषासुर की सेना और उसका वध करती हैं। फिर भगवती घोषणा करती है- जो मुझे संग्राम में जीत लेगा, मेरा दर्प दूर करेगा, मेरे समान बलवान होगा, वही मेरा भर्त्ता होगा। अतः शुम्भ या निशुम्भ कोई भी आकर मुझे जीतकर पाणिग्रहण कर ले”- “यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्प व्यपोहति। यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्त्ता भविष्यति।। इसके बाद भगवती शुंभ निशुंभ के सेनानी धूम्रलोचन, चंड और मुंड, रक्तबीज, निशुंभ एवं शुंभ आदि असुरों का संहार करती हैं। इसका सीधा अर्थ है कि मनुष्य के विकार रूप बड़े - बड़े असुर भी सूर्य, चंद्र और अग्नि नेत्र रूपा भगवती को परास्त नहीं कर सकते। मां के साथ सहचर हुआ जा सकता है बस, शिव बनकर। कथा के अनुसार देवी के वरदान से यह सुरथ (यानि अच्छे रथ पर सवार) क्षत्रिय ही सावर्णि (यानि स (उस) वर्ण के) मनु हुए। नवरात्रोपासना के उपरांत जब दस रथ की सवारी करके अर्थात् दशद्वार से उत्पन्न राम की चेतना मनुष्य में जाग्रत होती है तभी रावण जैसे महा असुर का संहार होता है। मधु का अर्थ राग, कैटभ का अर्थ द्वेष है। रक्तबीज हमारी नकारात्मकता और वासनाएँ है। महिषासुर का अर्थ जड़ता है। शुंभ का अर्थ है स्वयं पर संशय जबकि निशुंभ का अर्थ है सब पर संशय। नवरात्र के नौ दिनों में तीन तीन दिन तीन गुणों के अनुरूप हैं। हमारी चेतना तामस और रजस के बीच बहते हुए अंत के तीन दिनों में सत्व गुण में प्रस्फुटित होती है। सत्व गुण बढ़ने पर ही विजय की प्राप्ति होती है। इनमे से किसी पात्र को इतिहास और जाति में मत खोजिए। यह सब हर मनुष्य के भीतर उपस्थित अंतर्द्वंद्व हैं. वैश्य उदर चेतना तो क्षत्रिय कर्म चेतना को अभिव्यक्त करने वाले वर्ग हैं। आप सबको नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएँ... मंत्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी । ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी । यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ॥ ६/१०/२२ बद्धो हि को यो विषयानुरागी को वा दरिद्रो हि विशालतृष्णः श्रीमांश्च को यस्य समस्ततोषः। विद्या हि का या ब्रह्मगतिप्रदा या  बोधो हि को यस्तु विमुक्तिहेतुः । को लाभ आत्मावगमो हि यो वै जितं जगत्केन मनो हि येन । ११ । विषाद्विषम् किं विषयाः समस्ता  दुःखी सदा को विषयानुरागी।   धन्योस्ति को यो परोपकारी  कः पूजनीयः शिवतत्वनिष्ठः। १३ । संसारमूलं हि किमस्ति चिंता। लघुत्वमूलं च किमर्थितैव गुरुत्वमूलं यदयाचनं च । जातो हि को यस्य पुनर्न जन्म को वा मृतो यस्य पुनर्न मृत्युः । १८ । विद्युच्चलं हि धन यौवनायु १४/१०/२२ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् |
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम | यजु. १३/४ Hiranyagarbha was the only one at the beginning of the Universe who was the guardian of everything. He/it used to hold the earth and space, let us worship that Deity by offering Havi. १९/१०/२२ यस्मिंसर्वः यतं सर्वः यत्सर्वः सर्वत:च यत | 
ब्रह्म तस्मिनमहाभाग कीन संभाववत: ही || 36 || वह जिसमें सब वस्तुएँ निवास करती हैं, और जिससे सब कुछ उत्पन्न होता है; जो सब में है; और जो कहीं सब में हो, वही हो जिसे तुम सब कह सको, और जिसके अतिरिक्त कोई न हो। एको भावः सर्वभावस्वभावः सर्वे भावा एकभावस्वभावाः । एको भावस्तत्त्वतो येन दृष्टः सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन दृष्टाः ॥ Eko bhāvaḥ, one Being (one Being, that is Śiva, Lord Śiva, Parabhairava) has become sarva bhāva svabhāva, He has become many; many, right from that insect to śānta kala.86 He has become so many. Sarve bhāvā eka bhāva svabhāvā, and all these are actually eka bhāva svabhāvā, actually this is only the drama of One, i.e., Parabhairava, bas. It is only eka bhāva (one Being). All are one. One are many; The One has become many. २१/१०/२२ "तपस्वी, क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह! तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल। ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल। विषमता की पीडा से व्यक्त, हो रहा स्पंदित विश्व महान। यही दुख-सुख विकास का सत्य, यही भूमा का मधुमय दान। (कामायनी) इंद्र - प्रकाश दाता, दैवीय मन अग्नि - प्रकाशित इच्छा, डैवीय इच्छा शक्ति सूर्य सावित्री- सर्जक और विकासक भग सावित्री- आनंद भोक्ता वायु- जीवनी ऊर्जा का नियामक बृहस्पति- आत्मा की शक्ति अश्विन- आनंद के देवता रिभु- अमरत्व के कारीगर विष्णु- सर्व व्यापक प्रधानदेव सोम- आनंद और और अमरत्व के भगवान वरुण- प्रेम की प्रकाशमान शक्ति. आत्मा को घेरे हुए चतुर्दिक सागर, उच्चतम स्वर्ग मित्र- विचारों और कार्यों की एकता का देव सूर्य- प्रकाश का संरक्षक पूषन- विकासक सावित्री- सर्जक आर्यमन- पथ यात्री, डैवीय यज्ञों के द्वारा अमरता के आराधक, प्रकाश में चमकते शिशु, सत्योपासक, अंधकार से संघर्ष करने वाले, मानवता का पथ प्रशस्त करने वाले भग- मनुष्य का दैवीय आनंद गाय- ज्ञान रूप में चेतना, प्रकाश की प्रतीक, उषा काल का प्रकाश (आंतरिक प्रकाश) अश्व- शक्ति रूप में चेतना हिरण्य- उच्चतम प्रकाश, सुनहरा प्रकाश अंगिरस ऋषि- - सत्य के पुत्र उषा- गाय की माँ दस्यु- स्वाभाविक शत्रु Kaviraj ji has given a beautiful meaning of 'Hare Krishna ' Ha - Shiva Ra - Shakti (Tripurasundari) E - Yoni K - Kama Ru - Paramashakti (Ka + Ru = Kamakala) Sa - Moon with 16 Kalas Na - Nivritti or Ananda All combined become Tripurasundari 🙏 २२/१०/२२ धन वह जो धन्य करे। इसकी इकाई का अन्य नाम मुद्रा है, जो मुदित करती है। वित्त भी इसका अपर नाम है, इससे प्रसार का बोध होता है। धन का अर्थ निरंकारी इस तरह करते हैं.. ध= कहते है धरती को, न= कहते है नव को आकाश को। न निवृत्ति या आनंद को कहा जाता है। उनके यहाँ धन निरंकार एक अभिवादन है। धनतेरस के दिन धन से धातु लायी जाती है, धातु जिसे हम धारण करते हैं, धातु पर ही शरीर अवलंबित है। धातु या धारण करने के कारण धनतेरस का दिन आयुर्वेद से जुड़ा है। आयु को भी हम धारित करते हैं, इसका परिज्ञान करना आयुर्वेद है। जन्म और मरण के बीच का कालखंड आयु है। आयु ही जन्म और मरण का बोध कराती है। धनतेरस की आप सबको शुभकामनाएँ। प्रसरद्विन्दुनादाय शुद्धामृतमयात्मने । नमोऽनन्तप्रकाशाय शंकरक्षीरसिन्धवे ॥३॥ prasaradbindunādāya śuddhāmṛtamayātmane / namo’nantaprakāśāya śaṅkarakṣīrasindhave //3// "He is the Light of all Darkness, all Ignorance of Light. All absence of Light and Presence of Light Have come out from that Light. Swami Lakshmanjoo I bow to that Śaṅkara,3 who is just like the ocean of milk, a milk ocean. I bow to that Śaṅkara who is just like a milk ocean, a vast milk ocean, and prasarat bindu nādāya, where there are flows, two-fold flows, of bindu and nāda. Bindu is prakāśa and nāda is [vimarśa].4 Bindu is I-consciousness; nāda is to observe I-consciousness.5 Consciousness is bindu; “I am consciousness, I am God consciousness,” this is nāda. For instance, this prakāśa of sūrya (sun), the prakāśa of the light of the moon, [the prakāśa of] the light of fire, it is bindu, but there is no nāda in it, there is no understanding power of that prakāśa. There is prakāśa in the sun, but [the sun] does not know that, “I am prakāśa.” He is just a [star].6 He does not understand that, “I am filled with this prakāśa.” गुरुग्रंथ साहिब में कहा गया है अव्वल अल्ला नूर उपाया, क़ुदरत के सब वंदे First, God created the Light; then, by His Creative Power, He made all mortal beings. न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक: ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥

उस (आत्मज्योति)-को न सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसको प्राप्त होकर फिर नहीं लौटते, वह मेरा परम धाम है। All the lights of the world cannot be compared even to a ray of the inner light of the Self. Merge yourself in this light of lights and enjoy the supreme Deepavali. …. भगवान् कृष्ण का एक नाम है 'सत्कृति' भगवान् कृष्ण का एक नाम है 'सत्कृति'। सत्कृति का अर्थ है जो अपने भक्त के निर्याण (शरीर त्यागने के) समय में उसकी सहायता करते हैं। वराह पुराण में भगवान् हरि कहते हैं-- वातादि दोषेण मद्भक्तों मां न च स्मरेत्। अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्।। “यदि वातादि दोष के कारण मृत्यु के समय मेरा भक्त मेरा स्मरण नहीं कर पाता तो मैं उसका स्मरण कर उसे परम गति प्राप्त करवाता हूँ।“ 🙏🙏 २४/१०/२२ अगर दिया जल गया तो सब पारदर्शी होकर दिखने लगता है। इस दिए के प्रकाश में देखने वाला दिखता है और दिखने वाला दृश्य भी दिखता है। फिर देखना कुछ शेष नहीं रह जाता है, दृष्टा में दृष्टि एकमेक हो जाती है। इसमें दीपक की मिट्टी, बाती और तेल बदलता रहता है। दीपक की मिट्टी से, तेल से, बाती से रोशनी दिखेगी और बने हुए तेल बाती युक्त दीपक से भी प्रकाश दर्शन होगा। फिर तो उस प्रकाश दर्शन में दीपक की मिट्टी, बाती और तेल कैसे बन रहे हैं, बदल रहे हैं, यह भी दिखेगा। तो हमें अपने प्रकाश को जाग्रत करना है, जिससे हम दृष्टा होने का अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर सकें। तमसो मा ज्योतिर्गमय। यः प्रकाशः स सर्वस्य प्रकाशत्वं प्रयच्छति | न च तद्व्यतिरेक्यस्ति विश्वं सद्वावभासते || That Prakāśa offers its luminosity to all. Apart from that Prakāśa, there is nothing in the world. Indeed, whatever is there in the world is the luminosity of the Prakāśh. All the lights of the world cannot be compared even to a ray of the inner light of the Self. Merge yourself in this light of lights and enjoy the supreme Deepavali. …. दीपावली की शुभकामनाएँ। न निर्मिता केन न दृष्टपूर्वा न श्रूयते हेममयी कुरङ्गी । तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धिः॥ Shatavdhani | Samhita भावार्थ : सोने की हिरणी न तो किसी ने बनायी, न किसी ने इसे देखा और न यह सुनने में ही आता है कि हिरणी सोने का भी होती है । फिर भी रघुनन्दन की तृष्णा देखिये ! वास्तव में विनाश का समय आने पर बुद्धि विपरीत हो जाती है । २५/१०/२२ It is as if the earth meditated, the atmosphere meditated
It is as if the sky meditated, the water meditated
It is as if the mountains meditated”   Chandogya Upanishad २६/१०/२२ कदा नवरसार्द्रार्द्र संभोगास्वादनोत्सुकं। प्रवर्तेत विहान्यान्यन् मम त्वत्स्पर्शने मनः॥ शिवस्तोत्रावली त्वदेकरक्तस्त्वत्पादपूजामात्र महाधनः। कदा साक्षात्करिष्यामि भवंतमयमुत्सुकः॥ २८/१०/२२ "When in deep sleep he does not know, yet he is knowing, because knowing is inseparable from the Knower, because it is indestructible. But there is, then, no second thing, nothing else different from him that he would know" 🕉 Brihadaranyaka Upanishad ३०/१०/२२ ''When there is complete knowledge and complete absence of knowledge – that is complete knowledge – that is fullness of knowledge. Fullness of knowledge is not fullness of knowledge. Fullness of knowledge is: when you are full and you are not full – both – that is full.'' उक्त कथन ईशोपनिषद के इस मंत्र का विस्तार लगता है... यः विद्यां च अविद्यां च तत् उभयं सह । वेद अविद्यया मृर्त्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते ॥ जो तत् को इस रूप में जानता है कि वह एक साथ विद्या और अविद्या दोनों है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमरता का आस्वादन करता है। ३१/१०/२२ किसी अमीर आदमी के परमात्मा के देश में प्रवेश पाने ऊँट का सुई के नाके या छेद में से निकल जाना कहीं आसान है। ईसा मसीह मैं अपने प्यारे भक्तों तीन दुर्लभ उपहार देता हूँ ग़रीबी, अमीरी और निरादर। भागवत में कृष्ण उद्धव से आने वाली विपत्ति का डर हमें खुद उस विपत्ति से कहीं अधिक दुःखी कर देता है। शेक्सपीयर अगर मुझे किसी की निंदा करनी हो तो मैं अपनी माता की ही निंदा करूँगा, ताकि मेरे अच्छे कर्मों का फल यदि किसी को मिलना है तो वह मेरी माँ को ही मिले।शेख़ सादी रत्ती भर अभ्यास मन भर ज्ञान से कहीं अच्छा है।

Saturday, October 22, 2022

सितंबर २०२२

६/९/२२ शिशु गर्भस्थ हो, वह ईश्वरीय अवस्था है। फिर तो क्रमशः तम राज और सत्व गुण में उसका विकास होता है। पुनः गर्भस्थ आनंद में लौटना घर की ओर जाना है। ८/९/२२ सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥ Forsaking all other dharmas (duties), remember Me alone; I will free thee from all sins (accruing from nonperformance of those lesser duties). Do not grieve! A PROSAIC INTERPRETATION OF THIS COUNSEL unequivocally advises the deeply devoted Arjuna, and all true renunciants, to relinquish worldly duties entirely in order to be single-pointedly with God. “O Arjuna, forsake all lesser duties to fulfill the highest duty: find your lost home, your eternal shelter, in Me! Remember, no duty can be performed by you without powers borrowed from Me, for I am the Maker and Sustainer of your life. More important than your engagement with other duties is your engagement with Me; because at any time I can recall you from this earth, canceling all your duties and actions. THE WORD DHARMA, DUTY, comes from the Sanskrit root dhri, “to hold (anything).” The universe exists because it is held together by the will of God manifesting as the immutable cosmic principles of creation. Therefore He is the real Dharma. Without God no creature can exist. The highest dharma or duty of every human being is to find out, by realization, that he is sustained by God. Dharma,therefore, is the cosmic law that runs the mechanism of the universe; and after accomplishing the primary God-uniting yogadharma (religious duties), man should perform secondarily his duties to the cosmic laws of nature. As an air-breathing creature, he should not foolishly drown himself by jumping into the water and trying to breathe there; he should observe rational conduct in all ways, obeying the natural laws of living in an environment where air, sunshine, and proper food are plentiful. Man should perform virtuous dharma, for by obedience to righteous duty he can free himself from the law of cause and effect gov. erning all actions. He should avoid irreligion (adharma) which takes him away from God, and follow religion (Sanatana Dharma), by which he finds Him. Man should observe the religious duties (yoga-dharma) enjoined in the true scriptures of the world. Sri Paramahansa Yogananda, 18/66, God talks with Arjuna, The Bhagavad Gita. ९/८/२२ ŚRIMAD BHAGVATAM 10.14.58 समाश्रिता ये पदपल्लवप्लवं
महत्पदं पुण्ययशो मुरारे: ।
भवाम्बुधिर्वत्सपदं परं पदं
पदं पदं यद् विपदां न तेषाम् ॥ For those who have accepted the boat of the lotus feet of the Lord, who is the shelter of the cosmic manifestation and is famous as Murāri, the enemy of the Mura demon, the ocean of the material world is like the water contained in a calf’s hoof-print. Their goal is paraṁ padam, Vaikuṇṭha, the place where there are no material miseries, not the place where there is danger at every step. कल रात ललितपुर से उरई पहुँचे। घर में बेटी पीयूषा से वार्ता हुयी। १५-२० दिन पहले ही उसने जीवन और जगत के अनेक प्रश्न मुझसे पूछे थे, पर आज स्थिति अलग थी। प्रश्न हम कर रहे थे उत्तर वह दे रही थी। ऐसे प्रश्न जिन्हें जानने समझने में जन्म जन्मांतरों की यात्रा करनी पड़ती है। उनके सारगर्भित उत्तर जानकर मुझे स्पष्ट हुआ कि उस पर गुरुदेव की अहैतुकी कृपा हुयी है। ललितपुर जाने से पहले उसे शारीरिक संचार व्यायाम बताकर गए थे और योगदा की वेब्सायट से पंजीकरण कराते हुए इसे अपने दैनन्दिन जीवन का अंग बनाने के आशय से बताए थे। बाद में उसने फ़ोन से योगदा के पाठों को पढ़ने में रुचि प्रकट की। उसका पाठमाला का रेजिस्ट्रेशन दो वर्ष पूर्व से ही है। उससे अनेक प्रकार के प्रश्नो ke उत्तर पाकर क्रिया लेशन पढ़ने का निर्देश भी कर दिया। अपने जवाबों में बार बार गुरुजी का नाम ले रही थी। कहती हमें गुरुजी मार्ग दिखाते हैं। महावतार बाबाजी के दर्शन हुए हैं। यह सब केवल पढ़ने से उपलब्ध हुआ नहीं जान पड़ता। अगर पढ़ने से भी है तो काम का ही है। काम ऊर्जा यानि लस्ट पर भी उसने क्या अद्भुत बातें की कि आत्मानंद के आगे उसका आनंद कुछ नहीं है।यह तो मात्र शरीर के तल का आनंद है। ईश्वर, माया, अन्य व्यक्तियों से संबंध, क्रोध, मोह, मोक्ष, दूसरों के द्वारा किए अपमान पर उसने सिद्ध महात्माओं की तरह बातें की. पिछले जन्म की बात की कि वह विगत जन्म में बहुत अमीर थी। गुरुदेव उसे अपनी शरण में लें, आप आशीर्वाद बनाए रखें। १०/८/२२ सफलता का अर्थ है अपने दिव्य स्वरूप अर्थात् आत्मा के अंतर्जात गुणों को अभिव्यक्त करना। स्वामी चिदानंद ईश्वर वह आनंद है, जिसे आप प्रत्येक वस्तु में खोज रहे हैं। स्वयं अपनी चेतना का शासक होना यथार्थ राजत्व है। प्रसन्नता इस बात पर अत्यधिक निर्भर करती है कि आप अपनी असफलताओं के पश्चात् कितने अच्छे ढंग से पुनः सामान्य अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर के लिए किया गया कार्य पूजा है। दीक्ष का अर्थ स्वयं को समर्पित करना है। मुझे इसकी चिंता नहीं है कि ईश्वर हमारे पक्ष में है या नहीं, मेरी सबसे बड़ी चिंता यह है कि क्या हम ईश्वर के पक्ष में हैं, क्योंकि ईश्वर सदा सही होते हैं। अच्छाई और बुराई को पृथक करने वाली रेखा अवस्थाओं, वर्गों अटगी राजनैतिक दलों के बीच से नहीं अपितु मानव हृदय के मध्य से होकर गुजरती है। विनम्रत का अर्थ है स्वयं को निरंतर दूसरों से अधिक श्रेष्ठ सिद्ध करने की आवश्यकता से मुक्ति, किंतु अहंकार एक छोटी- आत्मकेंद्रित, प्रतिस्पर्धात्मक और प्रतिष्ठा पिपासु- परिधि में एक हिंसक भूख है। आत्मसम्मान बाह्य विजय से नहीं, अपितु आंतरिक विजय से उत्पन्न होता है। स्वतं अपनी दुर्बलता के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए विनम्रत सबसे महान गुण होता है। विनम्रता आपको स्मरण कराती है कि आप ब्रह्मांड के केंद्र नहीं अपितु आप एक उससे भी बड़ी व्यवस्था के लिए कार्य कर रहे हैं। संघर्ष के मार्ग का आकार होता आगे बढ़ो- पीछे जाओ- आगे बढ़ो। u के आकार की भाँति। लड़खड़ाने में जीवन का सौंदर्य और अर्थ छिपा रहता है। विनम्रत से अपने आप को समझने की क्षमता उत्पन्न होती है। संभोग को रति क्रिया मात्र मानने से इसके वास्तविक अर्थ की ओर ध्यान नहीं जा पाया है. संभोग सभी इंद्रियों द्वारा सम्यक रूपेण किया गया आस्वाद है, कब्जा या अधिग्रहण नहीं। संभोग में सभी तत्व समन्वित रूप में क्रियाशील होते हैं. दूसरे शब्दों में, आत्मा और परमात्मा के योग का नाम संभोग है। ११/८/२२ सुरति समाँनी निरति मैं,  निरति रही निरधार। सुरति निरति परचा भया,  तब खूले स्यंभ दुवार॥ सुरति- निरति शब्द का अर्थ :-
*सुरति* = सु + रति = सु- सुनने में, रति- लगे हुए । *निरति* = नि + रति = निरखना, देखना; रति = लगे हुए । *१. सुरति* :-
सुरति आत्मा की वह अवस्था है जो कि शब्द (सृष्टि में जो शब्द/रमा हुआ है) को सुनने की अवस्था को ही सुरति कहते हैं । 'सुरति' शब्द आम आदमी के लिये अपरिचित ही है । सत्संग में जब सुरति शब्द का प्रयोग प्रायः होता रहता है तो नये लोग सिर्फ़ मुंह ताकते रह जाते हैं कि आखिर यह किसके विषय में बात हो रही है....? जबकि निरति शब्द अक्सर पढने को मिल जाता है । मनुष्य की अपनी अज्ञानता के कारण उसकी सुरति 7 शून्य नीचे उतर आई है, इसीलिये मनुष्य को यह संसार अजीब और रहस्यमय दिखाई देता है...? अब सबसे पहले एक शून्य की बात करते हैं । प्रथम शून्य- यहां पर कुछ भी नहीं हैं, लेकिन बेहद अजीब बात यह है कि "इसी कुछ भी नहीं से ही है"....! सब कुछ हुआ है या कुछ नहीं ही सब कुछ है (Everything is nothing but nothing to everything)...! सतगुरु कबीर साहेब जी महाराज ने इसी विषय में कहा है कि:-
*"चाह गई चिंता गई,*
*मनुआ बेपरवाह ।*
*जाको कछु न चाहिए,*
*वो ही शहंशाह" ।।* पहले शून्य में थोडी हलचल या थोडा प्रकंपन (vibration) होता है। दुसरे शून्य में यह प्रकंपन (vibration) कुछ अधिक हो जाता है । तीसरे शून्य में कुछ और भी अधिक हो जाता है । चौथे शून्य में यह प्रकंपन (vibration) और भी बढ़ जाता है, फिर पांचवां शुन्य और उसके बाद छटा शून्य । अब सातवें शून्य में यह प्रकंपन (vibration) शब्द रूप में यानी निरंतर होने लगा । इसी तरह के एक विशेष ध्वनि रूपी प्रकंपन (vibration) से (जिसको शास्त्रों में शब्द कहा गया है) पूरी सृष्टि का खेल चल रहा है । इसी से सूर्य, चन्द्रमा, तारे आदि गति करते रहते हैं । इसी प्रकंपन (vibration) से मनुष्य़ का शरीर बालापन, जवानी और बुढ़ापा आदि को प्राप्त होता है । इसी प्रकंपन (vibration) से आज बनी एक मजबूत बिल्डिंग निश्चित समय बाद जर्जर होकर धराशायी हो जाती है । आधुनिक विज्ञान की समस्त क्रियायें इसी प्रकंपन (vibration) पर आश्रित हैं । जैसे मोबायल फ़ोन से बात होना, वायरलेस, इंटरनेट, टी. वी. आदि के सिग्नल । हमारी आपस की बातचीत । यानी हम हाथ भी हिलाते है तो वह भी इसी vibration की वजह से हिल पाता है । इसी को चेतना या करंट भी कह सकते हैं । शुद्ध रूप में यह *र्र्र्र्र्र्र्रर्र्रर्र्रर्र्र र्र्रर्र्रर्र्* इस तरह की धुन होती है । बाद में आदि शक्ति या महामाया द्वारा इसमें *म्म्म्म्म* जोड़ दिया गया । तब यह धुन *र्म्र्म्र्म्र्म र्म्र्म्र्म्र्म* इस तरह हो गई । सरलता से समझने के लिये *रररररर* हो रही धव्नि माया से अलग हो जाती है । लेकिन जब तक *रमरमरम* ऐसी धुनि है तब तक ये माया से संयुक्त हैं । इसीलिये परमपिता परमात्मा (सतपुरुष) को सबसे बडा माना जाता है । यही 'र' और 'म' पहले स्त्री पुरुष हैं । यही असली राम (सतपुरुष) है । संत या योगी इसी राम को पाने की या जानने की लालसा करते हैं । यही आकर्षण यानी कृष्ण या श्रीकृष्ण में भी है । मेरा अनुभव ये कहता है कि यदि आदमी संसार को निसार देखता है या कामवासना, धन, ऐश्वर्य को भोग चुका है और खुद की अपनी वास्तविकता जानना चाहता है तथा उसे सतगुरु के सान्निध्य में ध्यान का थोडा पूर्व अभ्यास है तो सिर्फ़ सात दिन में इस शुन्य को जाना जा सकता है । बस शर्ते यही है कि ये सात दिन उसे एकान्त में और सतगुरु द्वारा बताई गई विधि के अनुसार अभ्यास करना होगा । इस तरह सुरति इस शब्द या अक्षर को जान लेगी और यहां पहुंचकर सुरति निरति हो जायेगी यानी सुनना बन्द करके प्रकृति के रहस्यों या माया को देखने लगेगी...? क्योंकि यहीं से जुडकर आदि शक्ति यानी पहली औरत अपना खेल कर रही है । ये नारी रूपा प्रकृति अक्षर (निरंजन) से निरंतर सम्भोग करती रहती है । ये सब महज ज्ञान की बातें नहीं हैं । सुरति शब्द योग द्वारा इसको आसानी से जाना जा सकता है । *२.निरति :-*
*निरति* = नि + रति = निरखना, देखना; रति = लगे हुए । निरति आत्मा की उस अवस्था को कहते हैं जिसमें वह शब्द स्वरुप/ ज्योति स्वरूप यानि परमपिता परमात्मा को निरखने/ देखने में लीन रहने लग जाए। *सुरति और निरति = "श्रुति और निऋति"।*
परवर्ती हठ-योगियों की परिभाषा में अन्तर्नाद सुनना और उसी में लीन हो जाना। (अर्थात् ससीम का असीम में या व्यक्त का अव्यक्त में समा जाना। रूपाली सक्सेना ११/८/२२ कुछ लोग कहते हैं जीवित व्यक्ति के प्रति श्रद्धा रखें, सुश्रूषा करें, उन्हें तृप्त रखें, फिर मरने के बाद तर्पण करने की आवश्यकता नहीं। पुरखों की सेवा और तृप्ति की बात ग़लत नहीं है। तर्पण और श्राद्ध क्रियाओं में देखा जाता है कि ब्रह्म और अन्य देवताओं की तृप्ति सर्वप्रथम करते हैं, उनके बाद पुरखों को जोड़ते हुए हवि अर्पित की जाती है। यह सीधा प्रमाण है कि हमारी मृत्यु नहीं होती, ब्रह्म में लय होता है बस। कर्मकांड पर किसी की आपत्ति हो सकती है, पर कर्मकांड से बाहर क्या है आख़िर! आप विशेष प्रकार के कर्मकांड से परहेज़ बरतें तो भी... अपने प्रकार का कर्मकांड करेंगे ही, जो आपको अनुकूल लगे। आप अपने स्रोत को याद किए बिना, उससे जुड़े बिना नहीं रह सकते। १३/८/२२ ब नामे ऊ कि ऊ नामे नदारद ब हर नामे कि ख़्वानी सर बरारद। मौलाना रूम १५/८/२२ स्वयं का पिंडदान --- . जब यह दृढ़ अनुभूति हो जाये कि मैं यह भौतिक शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हूँ, उसी समय हमारा स्वयं का पिंडदान हो जाता है। मूलाधारस्थ कुंडलिनी -- "पिंड" है। गुरु-प्रदत्त विधि से बार-बार कुंडलिनी महाशक्ति को मूलाधार-चक्र से उठाकर सहस्त्रार में भगवान विष्णु के चरण-कमलों (विष्णुपद) में अर्पित करना यथार्थ "पिंडदान" है। इसे श्रद्धा के साथ करना "श्राद्ध" है। . लेकिन शास्त्रों के आदेशानुसार गृहस्थों का दायित्व है कि परिवार में अपने से बड़े-बूढ़ों की सेवा करे, और पितृ-पक्ष में पूरी श्रद्धा से अपने पित्तरों का श्राद्ध करे। इस विषय पर मनु महाराज और याज्ञवल्क्य ऋषि के शास्त्रों में कथन ही अंतिम प्रमाण हैं। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !! कृपाशंकर मुद्गल १४ सितंबर २०२२ जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥ १७/९/२२ प्रधानता वनस्पति - जल कीड़ों मकोड़ों - वायु तथा अग्नि, उड़ने वाले कीड़ों में अग्नि और वायु, रेंगने वालों में पृथ्वी और अग्नि पशु- पृथ्वी जल अग्नि और वायु मनुष्य- सभी पाँच तत्व होते हैं। १८/९/२२ संसार मे जितने भी धर्म हैं सब के प्रवर्तक एक ही हैं । देश काल तथा अधिकारी भेद के कारण भिन्न भिन्न पथ का भेद परिलक्षित होता है । ईसाई मतानुसार अनन्त स्वर्ग एवं नरकों की स्थिति है । बौद्धगण भी ऐसा ही मानते हैं ।अब भिन्नता का वर्णन करता हूँ । बुद्धदेव जन्मांतर मानते हैं । जिन देशों में बुद्धधर्म का प्रचार हुआ है , वे सब भी जन्मांतर मानते हैं । एतद विपरीत ईसा मसीह ने जहाँ धर्म का प्रचार किया था ,वह देश इस गम्भीर तत्व को ग्रहण करने में समर्थ नहीं था । वहाँ पर तत्व को हृदयंगम करने योग्य जनमानस का उत्कर्ष नही हो सका था । अतः तत्वोपदेश देते समय श्रोता के सामर्थ्य को देखकर उतना ही उपदेश दिया गया ,जितना वहाँ का जनमानस समझ सकता था । अतएव आधारगत भिन्नता के कारण उपदेशगत भिन्नता परिलक्षित होने लगती है । शाश्वत स्वर्ग एवं नरक का सिद्धांत जिसे ईसाई गण स्वीकार करते हैं ,वह बौद्धधर्म का ही सिद्धांत है । महापथ पृष्ठ 70 २०/९/२२ बैखरी, जिसे जिह्वा और होंठों द्वारा बोला जाता है मध्यमा गले में चुपचाप उच्चारण किया जाता है पश्यंती मन ही मन (हृदय में) जाप किया जाता है परा जिसे योगी नाभि से हिपोर उठाकर उत्पन्न करते हैं। सुरत यानि आत्मा की शक्ति निरत अंतर में देखने की शक्ति जब तक निरत अर्थात् आत्मा की देखने की शक्ति जागृत नहीं होती, आत्मा अंतर में ऊपर नहीं चढ़ती। आत्मा की दोनों शक्तियों सुरत और निरत की सहायता के बिना आध्यात्मिक उन्नति सम्भव नहीं। सुनने पर बल देने की अपेक्षा अंतर में देखने शक्ति प्रबल है। निरत सबल होगी तभी शब्द भी साफ़ सुनाई देगा। पहला बंधन शरीर का दूसरा स्त्री का फिर संतान चौथा पोते पोतियों पाँचवाँ पड़पोते पड़पोतियों छठा धन संपत्ति सत्व अहंकार अपनी सदाचारिता के मान का आठवाँ रीति रिवाज और कर्मकांड का होता है २१/९/२२ अंजन माहिं निरंजन भेट्या, तिल मुप भेट्या तेलं । मुरति माहिं अमरति परस्या, भया निरतरि घेलं । गोरखबानी २३/९/२२ सच जानने वाले व्यक्ति के समक्ष झूठ का कार्य व्यापार करने वाले कितने निरीह और बेचारे जान पड़ते हैं। ज्ञानी और प्रेमी के आगे मूर्ख और ईर्ष्यालु व्यक्ति कितने असहाय दिखते हैं। इन सबके प्रति करुणा भाव उदित होना ही साक्षात्कार है, बोध है। Man is the expression of God and God is the reality of man. २४/९/२२ कर लूंगा जमा दौलत ओ ज़र उस के बाद क्या कर लूंगा जमा दौलत-ओ-ज़र उस के बाद क्या ले लूँगा शानदार सा घर उस के बाद क्या (ज़र = धन-दौलत, रुपया-पैसा) मय की तलब जो होगी तो बन जाऊँगा मैं रिन्द कर लूंगा मयकदों का सफ़र उस के बाद क्या (रिन्द = शराबी) होगा जो शौक़ हुस्न से राज़-ओ-नियाज़ का कर लूंगा गेसुओं में सहर उस के बाद क्या (राज़-ओ-नियाज़ = राज़ की बातें, परिचय, मुलाक़ात), (गेसुओं =ज़ुल्फ़ें, बाल), (सहर = सुबह) शे'र-ओ-सुख़न की ख़ूब सजाऊँगा महफ़िलें दुनिया में होगा नाम मगर उस के बाद क्या (शे'र-ओ-सुख़न = काव्य, Poetry) मौज आएगी तो सारे जहाँ की करूँगा सैर वापस वही पुराना नगर उस के बाद क्या इक रोज़ मौत ज़ीस्त का दर खटखटाएगी बुझ जाएगा चराग़-ए-क़मर उस के बाद क्या (ज़ीस्त = जीवन), (चराग़-ए-क़मर = चन्द्रमा का चराग़) उठी थी ख़ाक, ख़ाक से मिल जाएगी वहीं फिर उस के बाद किस को ख़बर उस के बाद क्या -ओम प्रकाश भंडारी "क़मर" जलालाबादी यह कथन भी पूरा नहीं लगता। क्योंकि अगर बोध हो गया तो उसके बाद और उसके पहले आनंद ही शेष रहता है। २७/९/२२ तुलसीदासजी ने लिखा है, 'सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।। गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी। तव प्रेरित माया उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।' काकभुशुण्डिजी ने कहा-हे गरुडज़ी सुनिए! समुद्र ने भयभीत होकर चरण पकड़कर श्रीरामजी से कहा मेरे सब अपराध क्षमा करें। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन सबकी करनी स्वभाव से जड़ है। आपकी माया से प्रेरित होकर ये सब उपयोगी बनते हैं।' जब परमात्मा हस्तक्षेप करता है तो हम इनका भरपूर फायदा उठा सकते हैं। सुरत आत्मा को कहते हैं, शब्द धुनात्मक नाम है और योग का अर्थ है जुड़ना। सुरत शब्द योग का अर्थ है आत्मा का शब्द के साथ जुड़ना। आत्मा का शब्द के प्रति सहज आकर्षण है, क्योंकि शब्द आत्मा का स्रोत है। शब्द एक आत्मिक राग है। ब्रह्मांड के छः चक्रों का प्रतिबिंब अंड में है। एंड के छः चक्रों का प्रतिबिंब पिंड में है। हरि रूठे गुरु ठौर है गुरु रूठे नहिं ठौर। कबीर शिवे रुश्ते गुरुस्त्राता गुरौ रुश्टे न कश्चन। ३०/९/२२ यज्ञ/हवन का वास्तविक तत्व ————————————— वैदिक दृष्टि के अनुसार अग्नि ही एक मात्र भोक्ता एवं सोम ही एकमात्र भोग्य है। कर्तृत्वाभिमान विगलित होने पर यह स्पष्ट रूप से देख सकते है कि हम कर्ता और भोक्ता दोनों ही नहीं है। कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों ही आरोपित होता है। जगत के जो एक मात्र भोक्ता है, वे सभी आधारों में रहते हुए भोग करते रहते है। इन सब आधारों के अभिमानी पुरुष अपने को व्यर्थ में ही भोक्ता समझते है। जगत के इस मूल भोक्ता को वैदिक ऋषियों ने अग्नि के रूप मे वर्णन किया है। इसी प्रकार भोग्य भी मूल रूप से एक ही वस्तु है। उसे सोम के रूप में वर्णन किया गया है। सोम का दूसरा नाम अमृत है। अतएव ये सोम अथवा अमृतकण ही जीव मात्र के लिए भोग का विषय है। सभी इसी का एकमात्र आहरण करते रहते है। इसीलिए इसे आहार या आहार्य कहा जाता है। जीव किसी भी प्रकार की खाद्य वस्तु ग्रहण करे,उसकी सार-सत्ता सोम ही है। सभी प्रकार के खाद्यों में मात्रा-भेद के अनुसार इसी सोम का अंश है। समग्र जगत इसी प्रकार अग्नि एवं सोम इन दो भागों में विभक्त है। ज्ञाता, ज्ञेय / कर्ता, कर्म जिस प्रकार संश्लिष्ट है, उसी प्रकार भोक्ता और भोग भी परस्पर संश्लिष्ट है। शिव और शक्ति के बीच जिस प्रकार नित्य सम्बन्ध स्वीकार किया गया है, ठीक उसी प्रकार भोक्ता-भोग्य के बीच भी नित्य सम्बन्ध विद्यमान है। यही यज्ञ है, यज्ञ वास्तव में नित्य सिद्ध परम भोक्ता के निकट भोग्य पदार्थ का अर्पण करने के अलावा और कुछ नहीं है। अग्नि में सोम की आहुति प्रदान करना यज्ञ का तत्व है। —जय गुरु 🙏💐🌹🌺🌺 (सनातन साधना की गुप्त धारा)