Thursday, January 5, 2023

दिसंबर २०२२

३/१२/२२ You will learn by reading, But you will understand with LOVE. Rumi Silence is an ocean. Speech is a river. When the ocean is searching for you, don’t walk into the river. Listen to the ocean. Rumi ६/१२/२२ शताक्षरी मंत्र - ‘‘|| ह्लीं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ग्लौं ह्लीं वगलामुखि स्फुर स्फुर सर्व-दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय स्तम्भय प्रस्फुर प्रस्फुर  विकटांगि घोररुपि जिह्वां कीलय महाभ्मरि बुद्धिं नाशय विराण्मयि सर्व-प्रज्ञा-मयी प्रज्ञां नाशय, उन्मादं कुरु कुरु, मनो-पहारिणि ह्लीं ग्लौं श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं ह्लीं स्वाहा ७/१२/२२ दो स्वरों के बीच एक महीन सुर को श्रुति कहते हैं। इसे साधारण कानों से नहीं सुना जा सकता। जो मुझे समझ सका उसे हक़ है मुझे बुरा कहने का, जो मुझे जान लिया वह मुझ पर जान देता है। ७/१२/२२ spiritual discipline is man's real work. ९/१२/२२ Talk 231. A visitor asked: ‘What is mouna (silence)?’ Maharshi.: Mouna is not closing the mouth. It is eternal speech. Devotee: I do not understand. Maharshi: That state which transcends speech and thought is mouna. Devotee: How to achieve it? Maharshi: Hold some concept firmly and trace it back. By such concentration silence results. When practice becomes natural it will end in silence. Meditation without mental activity is silence. Subjugation of the mind is meditation. Deep meditation is eternal speech. Devotee: How will worldly transaction go on if one observes silence? Maharshi: When women walk with water pots on their heads and chat with their companions they remain very careful, their thoughts concentrated on the loads on their heads. Similarly when a sage engages in activities, these do not disturb him because his mind abides in Brahman. Talk 232. The Master said on another occasion: “Only the sage is a true devotee.” - Talks with Sri Ramana Maharshi. Talk 231 & 232. अर्थ उतना उपयोगी जितने में उससे उपराम हो जाए. पेट भरने के लिए आवश्यक अर्थ तो प्राप्त हो ही जाता है. अतः अर्थ की सीढ़ी पर चढ़ते जाएं चढ़ते जाएं, वहां तक जहां से उसकी आवश्यकता तिरोहित होने लगे. परिवर्तन ही दुःख है। परिवर्तन अवश्यंभावी है। परिवर्तन को देखना न दुःख है, न सुख, वह तो परिवर्तन के साथ होना भर है। यह होना ही संसार है और न होना शिव है। सबके साथ और सबमें होना भी शिव है। यहां शिव और शक्ति का साहचर्य है, उनके सामरस्य में शिव और शक्ति दोनो निविष्ट हैं। हों सॉ में एक से सांस आ रही, दूसरे से जा रही है, अं ही पर्दा है, क्योंकि आने जाने वाली सांस तो एक ही है। वह एक जगह से ही आ रही है और वहीं पहुंच भी रही है। १२/१२/२२ झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥ जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥ जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है। यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धे: परं गत:।
तावुभौ सुखमेधेते क्लिश्नात्यन्तरितो जन:॥ श्रीमद्भागवतम् Only the one who is totally ignorant and the other who has transcended body awareness are happy in this world. The person different from these two categories suffers to a large extent. संसार में जो अत्यंत मूढ़ हैं और जो देहबुद्धि के परे जा चुका हो, इन दोनो तरह के लोग सुखी रहते हैं। परंतु जो इन दोनों तरह के व्यक्तियों से अलग हैं, वह दुखी रहता हैं। ज़िंदगी समझ में न आए तो मेले में अकेला! ज़िंदगी ग़र समझ आये तो अकेले में मेला। i "इच्छामात्रं प्रभो: सृष्टि:” अर्थात इच्छा मात्र से ही सृष्टि होती है। इच्छा का उदय होने से ही सृष्टि का उदय होता है। किंतु किसकी इच्छा? वह है, आत्मा की इच्छा.. आत्मा है शिव स्वरूप अर्थात सत्, चित‌्, आनंद स्वरूप.. इसमें चित‌् और आनंद सदा स्फुरित होते रहते है। आनंद में क्षोभ होने से ही इच्छा का आविर्भाव होता है। अगर आनंद क्षुब्ध नहीं है, तो किसी भी प्रकार की इच्छा प्रकट नहीं हो सकती। अर्थात चरम दृष्टि से आनंद ही सृष्टि का मूल है। परमेश्वर अपनी तिरोधान शक्ति के कारण ही वे स्वातंत्र्यवश आत्म–संकोच करके जीवभाव ग्रहण करते है। यह उनकी निरपेक्ष स्वाधीन इच्छाशक्ति से होता है। उन्होंने जीवभाव क्यों ग्रहण किया? शास्त्र कहते है.. यह उनकी स्वातंत्र्यवश लीला के कारण होता है.. अर्थात जब वे इच्छा करते है, तब यह सृष्टि प्रकाशित होती है। 🙏🌹 जय गुरु १३/१२/२२ उड़ जाएगा हंस अकेला,जग दर्शन का मेला, जैसे पात गिरे तरुवर से,मिलना बहुत दुहेला, ना जाने किधर गिरेगा,लगाए पवन का रेला, जब होवे उम्र पूरी,जब छूटेगा हुकुम हुज़ूरी, जमके दूत बड़े मज़बूत, जम से पड़ा झमेला,  दास कबीर हर के गुण गावे,वा हर को पारण पावे, गुरु की करनी गुरु जाएगा, चेले की करनी चेला। 18/12/22 संस्कृत दक्षिणा शब्द के अनेक अद्भुत अर्थ हैं। द का अर्थ अर्पित करना या देना क्षि का अर्थ निवास करना या उसमें रहना और णा सूचित करता है ज्ञान को। अतः दक्षिणा वह भेंट है जो एक शिष्य अपने गुरु को अर्पित करता है और जिसके द्वारा वह उस ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जाता है जो उसे प्रदान किया गया है। दक्षिणा श्रद्धापूर्वक लेने और देने का भाव है। इसी अर्थ के आसपास दक्षिणा के सारे अर्थ घूमते हैं। एक शब्द का एक ही अर्थ होता है, वह तो समय के साथ यात्रा करते हुए अनेक अर्थों में विभक्त हो जाता है। दक्षिणा अर्पित करने से गुरु शिष्य संबंध शाश्वत बना रहता है। प्रदक्षिणा का उद्देश्य भी इस संबंध को सनातन बनाने से है। दक्षिण धर्म अगर वामाचार के उलट देखें तो अभीष्ट धर्म है। दक्षिणामूर्ति भगवान सदाशिव और गुरु के लिए कहा गया है। दक्ष प्रजापति का सिर बकरे का है। बकरे की बलि देने की प्रथा रही है, वह भी अर्पित करना है। दक्ष का अर्थ निष्णात या चतुर होता है। दक्ष प्रजापति ने देवता, मनुष्य और असुर तीनों को द दिया, एक ही शब्द से तीनों ने अपने अपने गुण धर्म और आवश्यकता के अनुसार उसका अर्थ ग्रहण किया। देवताओं ने इसका अर्थ लिया दमन यानि आत्म संयम, मनुष्यों ने दान से इसका अर्थ लिया तो असुरों ने दया से इसे समझा। यही अर्थ दक्ष प्रजापति समझाना चाहते थे। दक्षिणा देने का भाव आने मात्र से व्यक्ति परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। छांदोग्य उपनिषद् में सत्यकाम जाबाल की इस कथा से यह स्पष्ट हो जाता है। अत्यंत निर्धन लेकिन सद्गुणों से सम्पन्न एक स्त्री थी ,जिसका नाम जबाला था। उसके एक पुत्र था, जिसे सभी सत्यकाम कहते थे। एक दिन उसके मन में गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करने की इच्छा पैदा हुई। वह चाहता था कि परमपिता परमात्मा के विषय में वह जाने। उसने अपनी माता से अपनी इच्छा प्रकट की। माँ बहुत प्रसन्न हुई और उन्होंने सहर्ष गुरुकुल में अपने पुत्र को जाने तथा अध्ययन करने की स्वीकृति प्रदान कर दी। जिस समय सत्यकाम जाने लगा, उसने अपनी माता से पूछा, 'यदि आचार्य उससे उसका गोत्र पूछेंगे तो वह क्या जवाब दे, क्योंकि उसने तो अपने पिता को देखा ही नहीं है और न उसका गोत्र ही वह जानता है। माँ बोली, 'बेटे, मुझे भी तुम्हारे गोत्र का पता नहीं है, क्योंकि जब तुम पैदा हुए थे तो घर अतिथियों से भरा रहता था। मैं सारे दिन उन्हीं की सेवा में लगी रहती थी, तुम्हारे पिता भी इतने व्यस्त रहते थे कि मुझे कभी यह फुर्सत ही नहीं मिली कि उनसे उनका गोत्र पूछ सकूं। इसलिए तुम अपने आचार्य से इतना कह देना कि मैं अपनी माँ जबाला का पुत्र सत्यकाम हूं।' सत्यकाम इस उत्तर से सतुष्ट होकर आश्रम के लिए चल पड़ा। वह हारिद्रमत गौतम के आश्रम में पहुँचा और उनसे परमपिता परमात्मा को जानने की शिक्षा देने का आग्रह किया। ऋषि ने उससे उसका गोत्र पूछा। ब्राहाण बालक ने माँ के द्वारा बताया गया वही उत्तर कि वह 'सत्यकाम जाबाल' है, बता दिया तथा बोला कि उसे अपने गोत्र का ज्ञान नहीं है। ऋषि उसके सत्य बोलने पर अत्यन्त प्रसन्न हुए और बोले, 'तुम किसी बहुत ही सज्जन माता-पिता की संतान हो, अतः जाओ, पहले कुछ समिधाएं लेकर आओ ताकि मैं तुम्हारा उपनयन संस्कार करूं, फिर शिक्षा की बात करेंगे।' इस संस्कार द्वारा सत्यकाम को उन्होंने यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करवाया तथा अपने आश्रम में रख लिया। कुछ दिनों बाद उन्होंने आश्रम की गायों में से चार सौ दुर्बल गांए छांटी और उन्हें सत्यकाम को सौंपते हुए कहा, 'वत्स! इन गायों को लेकर पास के ही वन में चले जाओ और जब यह बढ़कर पूरी हो जाएं तब वापस आना। उस समय मैं तुम्हें ब्रह्म के विषय में बताऊंगा।' सत्यकाम तुंरत तैयार हो गया और उन गायों को लेकर वन में चला गया। दिन, माह और वर्ष बीतते चले गए लेकिन सत्यकाम को गुरु की आज्ञापालन अर्थात गौओं की सेवा के अतिरिक्त और कोई काम नहीं था। वह चौबीस घंटे, दिन और रात गायों का ध्यान रखता। उनकी सुरक्षा और उनकी देखभाल यह उसकी तपस्या थी। हिंसक जानवरों से उन्हें बचाना तथा उनकी भूख-प्यास का ध्यान रखना यही उसका धर्म, पूजा-पाठ तथा योग साधना थी। जब एक जगह की घास समाप्त हो जाती तो वह उन्हें लेकर दूसरी जगह पहुँच जाता और वहीं डेरा डाल देता। उसके पास रहने का कोई स्थान नहीं था। वृक्षों के साए और गुफ़ांए ही उसका घर थे तथा शरीर पर जो वस्त्र पहन कर वह चला था वही उसके वस्त्र थे। भोजन का कोई ठिकाना न था। गायों का दूध और जंगल के फल ही उसका भोजन थे। धीरे-धीरे समय के साथ-साथ गायों की संख्या भी बढ़ रही थी और एक दिन उसने देखा कि गायों की संख्या पूरी एक हज़ार थी। सभी गाएं स्वतत्रं विचरण, जंगल की खुली हवा तथा नदियों के स्वच्छ पानी एवं हरी-भरी ताजा घास-फूस खाने के कारण पूरी तरह स्वस्थ हो गई थीं। अब सत्यकाम उन्हें लेकर अपने गुरु के आश्रम की ओर चल दिया। गायों का निंरतर ध्यान, शुद्ध एवं शांत वातावरण, गौदुग्ध एवं फलों के आहार ने सत्यकाम को पूरी तरह एकाग्र एवं अतंर्मुखी बना दिया था। एकाकी रहकर दिन रात गायों का ध्यान एवं सेवा रूपी तपस्या से सभी ब्रह्म के विषय में उपदेश दिए। सर्वप्रथम एक सांड गायों में से ही आया फिर अग्निदेव, हंस तथा जलमुर्ग एक-एक करके उसके पास आए और बताया कि इस सारी सृष्टि इस ब्रह्माण्ड का रचयिता ब्रह्म कौन है। उन्होंने उसे साक्षात अनुभव भी कर दिया तथा अन्तर्धान हो गए। सत्यकाम के चेहरे पर ब्रह्मज्ञान का अनुभव करके एक तेज़ प्रकट हुआ। उसके नेत्रों में चमक और वाणी धीर-गम्भीर हो गई। उसकी चाल-ढाल बदल गई। जब वह गायों को लेकर आश्रम में पहुँचा और उसने अपने आचार्य के चरण छूकर बताया कि गायों की संख्या उनके आदेशानुसार एक हज़ार हो गई है तथा वे सभी स्वस्थ, नीरोगी एवं ह्रष्ट-पुष्ट हैं। आचार्य अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने उसके चेहरे के तेज़ और आंखों की चमक को देखा और आश्चर्यचकित रह गए। सत्यकाम के यह कहने पर अब आचार्य उसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश करें। आचार्य ने कहा, 'अब तुम्हें उसकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तुम्हारे चेहरे से यह ज्ञात होता है कि तुम्हें सत्य का ज्ञान प्राप्त हो गया है। यह बताओ कि तुम्हें किसने सत्य का ज्ञान दिया।' सत्यकाम ने सारी घटना सुनाई और बताया कि कैसे देवताओं ने विभिन्न रूपों में आकर उसे सत्य का उपदेश दिया था, लेकिन वह फिर भी उससे संतुष्ट नहीं है, वह तो अपने आचार्य के मुख से ही सत्य को, ब्रह्म को जानना चाहता है, क्योंकि आचार्य के द्वारा जो विद्या प्राप्त होती है वास्तव में वही श्रेष्ठ है। इस प्रकार उसने देवताओं से भी अधिक अपने आचार्य को महत्त्व प्रदान किया था। इस प्रकार सत्यकाम पूर्ण ज्ञानी होकर वापस अपनी माँ के पास आ गया और शांति एवं संतोष के साथ अपने धर्म का पालन करने लगा । पुष्प अर्पित करना प्रेम करना है। फल भेंट करने का अर्थ है कर्म फल सौंप देना। दक्षिणा गुरु से सदा के लिए जुड़ जाना है। स्मरण रहे, गुरु और ईश्वर भिन्न नहीं हैं। Dakshina Dakshina is one of the four Vedic goddesses of Knowledge, the other three being Ila, Sarama, Saraswati. Ila is Truth vision, Saraswati is Truth audition, Sarama is Intuition and Dakshina gives right discernment. Dakshina in the historical Vedic religion is the term for the recompense paid by the sacrificer for the services of a priest, originally consisting of a cow. The term itself is derived from this, the feminine dakṣiṇā being a term for a cow able to calve and give milk in the Rigveda. Dakshina is personified as a goddess along with Brahmanaspati, Indra and Soma in RV 1.18.5 and RV 10.103.8, तैत्तिरीय उपनिषद् में आता है- श्रद्ध्या देयम्। अश्रद्ध्याsदेयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम्स। श्रद्धा के साथ दो। अश्रद्धा से कदापि मत दो। प्रचुरता से दो। नम्रता के साथ दो। अत्यंत आदरयुक्त भय के साथ दो। ऐसे हृदय से दो जो संविद् से अर्थात् जगमगाती हुई चिति से परिपूर्ण हो। SERVICE As the vital rays of the sun nurture all, so should you spread rays of hope in the hearts of the poor and forsaken, kindle courage in the hearts of the despondent, and light a new strength in the hearts of those who think that they are failures. When you realize that life is a joyous battle of duty and at the same time a passing dream, and when you become filled with the joy of making others happy by giving them kindness and peace, in God's eyes your life is a success. Sri Paramahansa Yogananda, in a "Para-gram २०/१२/२२ There’s no shame in admitting what you don’t know. The only shame is pretending you know all the answers. २४/१२/२२ हमने बेपर्दा तुझे माहजबीं देख लिया, अब ना कर पर्दा के ओ पर्दानशीं देख लिया, हमने देखा तुझे आंखों की सियाह पुतली में, सात पर्दों में तुझे पर्दानशीं देख लिया, हम नज़र-बाज़ों से तू छुप ना सका जान-ए-जहां, तू जहां जाके छुपा हमने वहीं देख लिया। - Jalaludin Rumi २५/१२/२२ काकचंचु पुटाकारं ध्यानधारणवर्जितम्। विषतत्वमनच्काख्यं तव स्नेहात्प्रकाशितम्।। तंत्रालोक ३/१६९ इच्छाकामो विषं ज्ञानं क्रिया देवी निरंजनम्। ऐतत्त्रयसमावेश शिवो भैरव उच्यते।।३/१७२ ब-१७३ अ when you digest each and every object in voidness, it becomes nothing. when there is nothing, it is full. केन नाम न रूपेण भासते परमेश्वर....१/९१ यतो नान्या क्रिया नाम ज्ञानमेव हि तत्तथा।१/१४९ the energy of action is not separate from the energy of knowledge. in fact, the energy of knowledge has become the energy of action that energy of knowledge has got entry in yoga. yoga is the last state of kriya. last in the sense of when yoga is in its full bloom. योगो नान्यः क्रिया नान्या तत्वारूढ़ा हि या मति। स्वचित्त वासनाशांतौ सा क्रियेत्यभिदीयते।१/१५० शोधना, बोधना, प्रवेशना, तब योजना २६/१२/२२ अ स्वर की रचना के बारे में वर्णोद्धारतंत्र में उल्लेख है। एक मात्रा से दो रेखाएँ मिलती हैं। एक रेखा दक्षिण ओर से घूमकर ऊपर संकुचित हो जाती है; दूसरी बाईं ओर से आकर दाहिनी ओर होती हुई मात्रा से मिल जाती है। इसका आकार प्राय इस प्रकार संगठित हो सकता है। “न भीतो मरणादस्मि, केवलं दूषितो यशः।” Teachings of Sufi Mevlana Jalaluddin Rumi What is poison? He replied with a beautiful answer: Anything which is more than our necessity is poison. It may be Power, Wealth, Hunger, Ego, Greed, Laziness, Love, Ambition, Hate or anything.... What is fear? Non acceptance of uncertainty. If we accept that uncertainty, it becomes adventure...! What is envy? Non acceptance of good in others. If we accept that good , it becomes inspiration...! What is anger? Non acceptance of things which are beyond our control. If we accept , it becomes tolerance...! What is hatred? Non acceptance of person as he is. If we accept person unconditionally, it becomes love...! २७/१२/२२ we achieved true cosmic vision only after seeing the unseeable. neil degrasse tyson काकचंच्वा पिबेद्वायु संध्ययोरुभयोरपि। कुण्डलिन्या मुखे ध्यात्वा क्षयरोगस्य शान्तये।।शिवसंहिता ८५ अहर्निश पिबेद्योगी काकचंच्वा विचक्षण। दूरश्रुतिर्दूरदृष्टिस्तथा स्याद्दर्शनं खलु। ८६ काकचंच्वा पिबेद्वायु शीतलं यो विचक्षण। प्राणापानविधानज्ञ स भवेन्मुक्तिभाजन।। ८१ 28/12/22 ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं तुम ने मिरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा! one who acts on this movable and immovable universe, which is unknowable - and casts aside the supreme Brahman, which is knowable-he is absorbed in the unknowable. shiva samhita ५/२१७ स्वे स्वे कर्मनि वर्तंते सर्वे ते कर्म संभवाह। निमित्तमात्र कर्णे न दोषोsस्ति कदाचन।।२२८ ३१/१२/२२ सु प्रदीप्ते यथा वह्नौ शिखा दृश्येत चांबरे। देहप्राणस्थितोsप्यात्मा तद्वल्लीयेत तत्पदे।। श्री स्वच्छंदे देहोत्थिताभिर्मुद्राभिर्यः सदा मुद्रितो बुधः। स तु मुद्राधरः प्रोक्तः शेषा वै अस्थिधारकाः ।। त्रिकसार