Friday, March 1, 2024

फ़रवरी २४

१/२/२४ आत्मा और शरीर के मध्य में ये मन अपने खेल दिखाये। जो इस मन में शिव को बसाए वो बस में करे मन को योगी हो जाए। यत् गच्छति न कालं न जीवनम्। अकार आदि वर्णो के समुदाय को क्रम या व्‍यतिक्रम से उच्‍चारण करने पर जो वस्‍तु प्रकाशित होती है, उसे ‘शब्‍द’ जानना चाहिये और उस शब्‍द से जिस अभिप्राय की प्रतीति हो, उसका नाम ‘अर्थ’ है। श्वेतकेतु कहते हैं- शब्‍द और अर्थ में एक प्रकार से कोई नियत सम्‍बन्‍ध नहीं है। कमल के पत्‍ते पर स्थित जल की भाँति शब्‍द एवं अर्थ का अनियत सम्‍बन्‍ध है, ऐसा जानो। सुवर्चला बोली- महाप्राज्ञ! अर्थ पर ही शब्‍द की स्थिति है, अन्‍यथा उसकी स्थिति नहीं हो सकती। साधु शिरोमणे! यदि बिना अर्थ का कोई शब्‍द हो तो उसे बताइये। श्‍वेतकेतु ने कहा- अर्थ के साथ शब्‍द का वाचकत्‍वरूप सम्‍बन्‍ध है और वह सम्‍बन्‍ध नित्‍य है। यदि शब्‍द है तो उसका अर्थ भी सदा है ही। विपरीत क्रम से उच्‍चारण करने पर भी शब्‍द का कुछ-न-कुछ अर्थ होता ही है (जैसे नदी, दीन इत्‍यादि)। सुवर्चला बोली- शब्‍द अर्थात् वेद का आधार है अर्थभूत परमात्‍मा। २/२/२४ घटनाओं में सुख, सौंदर्य और सफलता नहीं है, घटनाओं के प्रस्तुतीकरण में सौंदर्य सुख है, आह्लाद है। प्रस्तुतीकरण किसी पक्ष का हो, अगर उसमे रंजकता और स्थायित्व है तो वह ध्यानाकर्षक ही होगा। घटनाएँ होती रहती हैं, आप हम घटना के किसी पक्ष में खड़े होते हैं या विरोध में होते हैं, वह अच्छी या बुरी लगती है, उसका कुल कारण यही है कि उसका प्रस्तुतीकरण कैसे हुआ है या उसे हमने कैसे समझा है। ५/२/२४ साधनानाम् अनेकता’ अर्थात् साधना अनेक प्रकारकी होती है । गुरुकृपा हि केवलं शिष्यपरममङ्गलम् ।’ ६/२/२४ किं कुर्वन्ति ग्रहा सर्वे यस्य केन्द्रो बृहस्पतिः। मत्तमातंगयूथानां भिनत्तयेकोऽपि केशरी। (मानसागरी) ज्योतिष जीपीएस की तरह है, गंतव्य की दिशाएं सुझाता है। वह अंतिम और एकमेव पथ नहीं, संभावना मात्र है। काल में ज्योतिष रहता है, महाकाल से जुड़ने पर काल की अनुकूलता हो जायेगी। Vशून्य ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ एक अवधारणा शून्य > जो है , जो नहीं है , लेकिन जो . है . भी नहीं है और जो . नहीं . भी नहीं है । जो >>है और नहीं << का निषेध भी नहीं है । >>>आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी प्रकृति में मन बुद्धि शरीर सब एक लय में रहते हैं, विकृति में इनमें गड़बड़ हो जाती है। प्रकृति की लय बनी रहे, इसके लिए संस्कृति होती है। छोड़ना नहीं, छूटना वैराग्य है। मंत्र की तरंग होती है, अर्थ समझ आए, न आए। तरंग में अर्थ होगा ही। मंत्र अगर जागृत हो तो उसका असर अवश्य होगा। मोबाइल है, बैटरी है, पर वह रिचार्ज न हो तो वह नहीं चल पाएगा। श्लोक का अर्थ होता है। शिव समूचे अस्तित्व की पहचान है, लिंग उसका विग्रह है या मूर्तमान स्वरूप है। बाद में उसकी पहचान जननेन्द्रिय से जोड़ दी गई। कहानी या कथा से हम मंत्र के अर्थ को जानने का प्रयत्न करते हैं। ७/२/२४ जैसे कोई प्रकाश कौंधता है, शब्द उसी तरह होता है। उस प्रकाश में जो कुछ दिखता है, वह उस शब्द का अर्थ है। प्रकाश के कौंधने में जो आवाज होती है, वह ध्वनि या स्फोट है। कौंधता हुआ प्रकाश आकाश का एक हिस्सा है। शब्द आकाश का ही तो गुण है। कोई वस्तु हो, उसका आकाश अवश्य होगा। निराकाश में या बिना आकाश के किसी वस्तु का होना संभव नहीं है। घट का आकाश उसका आयतन है। शब्द की आवाज ध्वनि है, इसे सुनना दुष्कर है। आकाश को सुनना शब्द सुनना है। आभास जहां शुरू होता, वहाँ से शब्द की सत्ता आरंभ होती है। यह ध्वनि कौंधते हुए प्रकाश की आवाज के मानिंद है। स्थूल कानो से इसे नहीं सुन पाते। वायु की आवाज स्थूल कानों से सुनी जा सकती है। अग्नि की ध्वनि और स्थूल होती है, जल और पृथ्वी की ध्वनियाँ भी सुनी जा सकती हैं। हर वस्तु का अपना आकाश है, अपना शब्द है। परम शब्द में सब शब्दों का समाहार है। उस परम् या तत्व से सब शब्दों का निर्गमन होता है। तत्व ही उसे इसीलिए कहा गया कि बस वह है, क्या है, कैसे है, उसका निर्वचन संभव नहीं। ध्यान के दौरान पाँचों महाभूतों का सही मिश्रण तैयार हो जाता है, इस मिश्रण के परिणामस्वरूप दैनन्दिन कार्यों पर उसका सकारात्मक असर पड़ना स्वाभाविक है। एक सामरस्य बन जाने से जीवन समस्वर हो जाता है। ९/२/२४ जो व्यक्ति जितनी बड़ी राजधानी में निवास करता है, वह उतने बड़े हृदय का होता है, या कहें उसे ऐसा होना चाहिए। बड़ी राजधानी के व्यक्ति में डाह और ईर्ष्या का स्तर उतना कम होना चाहिए। कोई ज़िला मुख्यालय जनपद वासियों की राजधानी है। तहसील मुख्यालय तहसील वासियों की राजधानी है तो जो जितनी छोटी बड़ी प्रशासनिक इकाई है वह उतने समूह की राजधानी है। राजधानी का अर्थ है व्यक्ति उतनी बड़ी संख्या में प्रत्यक्ष तौर पर दूसरों के आने जाने और व्यवहार बर्ताव को देखता समझता है। इस प्रकार विभिन्न व्यक्तियों की रहनी से उसे जीवन जीने का सीधा ज्ञान प्राप्त होता है। बिना पुस्तकों को पढ़े, यह एक प्रकार का सत्संग है। ९/२/२४ आज ध्यान में आया श्लोक, जो खोजने पर पता चला श्वेताश्वतर उपनिषद की ऋचा है। वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥ मैं उस परम पुरुष को जान गया हूँ जो सूर्य के समान देदीप्यमान है और समस्त अन्धकार से परे है। जो उसे अनुभूति द्वारा जान जाता है वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है। जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा का कोई अन्य मार्ग नहीं है। ११/२/२४ अपना क्या है इस जीवन में सब तो लिया उधार सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार॥ अरुण कमल प्रकृति नित्य परिवर्तनशील है। आज का विकास कल बासी हो जाता है, उसकी जगह कोई नया प्रतिरूप बन जाता है। हम समझते हैं, उसका अच्छा हो गया। उसने उत्थान कर लिया। नित्य बदल रही प्रकृति में यह सब होना स्वाभाविक है। राधा उल्लसित है, हम उससे प्रेम करें। हम उल्लसित राधा को देखकर आनंदित हों कि अतीत से उपजे अवसाद और भविष्य की झूठी कल्पनाओं के ज्वार में डूबे रहें। मौन के अतिरिक्त सब कल्पना ही है। Silence is essential. We need silence just as much as we need air, just as much as plants need light. If our minds are crowded with words and thoughts, there is no space for us. ~Thich Nhat Hanh १२/२/२४ प्रेम चेतना का परम विस्तार है। परम तक पहुँचने के बाद यह प्रेम रीतता नहीं है। यह क्षीण नहीं होता, अपितु दिन दिन बढ़त सवायो। सांसारिक प्रेम उस परम तक पहुँचने का माध्यम है। संसार के संबंधों के प्रेम से परम प्रेम का विस्तार उपलब्ध होता है। संसार का प्रेम किसी से हो, वह अपनी आत्यंतिक दशा तक पहुँच जाए तो परम उपलब्ध हो जाता है। आत्यंतिक दशा के प्रेम में प्रेमी की भी आवश्यकता नहीं रह जाएगी, सब कुछ प्रेममय हो जाएगा। उस प्रेम में जो अपने हैं, वे हैं, जो नहीं हैं, वे पराये नहीं रह जाएँगे। हमें अब आलंबन की आवश्यकता नहीं, हर क्षण उद्दीपन है, यह उद्दीपन ही आलंब हो गया है। हम सदा स्थायी भाव में हो जाते है। केवल वासनागत शारीरिक भूख मिटाने के लिए बनाये गये संबंध प्रेम नहीं है। किसी भी तरह की भूख की इच्छा से पार जाये बिना प्रेम स्थायी नहीं हो सकता। स्त्री और पुरुष अथवा दो प्रेमियों को उस परम प्रेम को उपलब्ध होने की दिशा में सतत प्रयत्न करना चाहिए। संसार में दो प्रेमियों को रहते हुए किसी से कोई माँग और शिकायत नहीं करनी चाहिए। वासनागत प्रेम और वास्तविक प्रेम में अंतर करना कोई मुश्किल नहीं है। यदि दो में से कोई एक वास्तविक प्रेम का पुजारी हुआ तो दूसरे के वासनागत प्रेम को तुरंत भाँप जाएगा। वास्तविक प्रेम के पुजारी के लिए वासनागत प्रेम से कोई घृणा नहीं होगी, करुणा ही बरसेगी। १३/२/२४ जो देव में बस गया या जिसमें देव बस गया, वह वासुदेव है। भगवान की यह अद्वैत सूचक उपाधि है। 'परा' शब्द परमात्म तत्व है। 'पश्यन्ति' शब्द आत्म तत्व है। 'मध्यमा' का आधा अंश मनस्तत्व है। ये सभी तत्व मध्यमा के शेष आधे रूप 'बैखरी' शब्द में आकर व्यक्त होते हैं। इस प्रकार तीसरा तत्व भी पूर्ण हो जाता है। मौलिक रूप से तीन तत्व हैं और तीन वर्ण (अक्षर या ध्वनियाँ) हैं। बैखरी तो तीनों की स्थूल अभिव्यक्ति मात्र है। वेदों में इन तीनों को 'त्रयी विद्या' के नाम से विभूषित किया गया है। त्रयी विद्या युक्त तत्व 'ॐ' है जो 'अक्षरब्रह्म' का स्वरुप समझा जाता है जिसे मंत्र-शास्त्र में 'प्रणव' की संज्ञा मिली है। उसी के अनुसार 'परा' घोर तुरीयावस्था है और पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी क्रमशः सुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत अवस्थाएं हैं। आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानसिक अवस्था का जो सूक्ष्म अर्थ है, वह एक प्रकार का संस्कार या प्रतिबिम्ब है, जब मनुष्य सुषुप्ति अवस्था के संस्कारों अथवा प्रतबिम्बों के माध्यम से विगत बातों का स्मरण करता है। प्रश्न यह है कि उन संस्कारों अथवा प्रतिबिम्बों का कारण क्या है ? क्योंकि संस्कार जब कार्य है तो उसका कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए। इसका कारण है शब्द या नाम। सम्पूर्ण जगत शब्द, अर्थ और नाम रूप है। यही वह स्थान है जहाँ से मंत्र-शास्त्र का आविर्भाव होता है। इस बात को गहराई से समझने के लिए निम्न तथ्य जानना आवश्यक है- मध्यमा वाणी और उसका अर्थ दोनों सूक्ष्म हैं। वह लिंग शरीर से सम्बद्ध है। किसी शब्द के अर्थ को ग्रहण करने की दिशा में मन दो कार्य करता है। उसका एक अंश तो सूक्ष्म शब्द के साथ एकाकार होता है दूसरा अंश बाह्य वस्तु के रूप में आकार ग्रहण करता है। यही सूक्ष्म अर्थ है। क्योंकि जैसे ही हम कोई शब्द सुनते है और उसका अर्थ सामने आता है, वैसे ही वस्तु का आकार प्रकट हो जाता है। इस प्रकार सूक्ष्म शब्द और सूक्ष्म अर्थ दोनों मन के ही दो रूप हैं। इसे एक उदाहरण से और समझा जा सकता है। किसी ने कोई शब्द या शब्द समूह या वाक्य बोला और दूसरे ने सुना। लेकिन उसकी समझ में नहीं आया। इसका मतलब यह हुआ कि उसके मन से उसका तादात्म्य ठीक से नहीं जुड़ पाया या उसने उसे ठीक से पकड़ नहीं पाया। तो वहाँ पर अर्थ के रूप में किसी वस्तु का आकार नहीं बनेगा। मनुष्य के शरीर में षट्चक्र हैं जिनमें पचास दल हैं। प्रत्येक दल पर संस्कृत वर्णमाला का एक-एक अक्षर है जो सूक्ष्म है और शरीर के भीतर स्थित कण्ठ, तालु आदि स्थानों के आघात से बैखरी आधार ग्रहण करता है। उन्हीं सूक्ष्म अक्षरों को 'मातृका' कहा गया है। 'मातृका' पराशक्ति या परावाक् के पचास रूप समझी जाती है। अतः पचास वर्ण मातृका बीजरूप भी हैं। जिस चक्र के दलों पर जितनी बीजरूप वर्ण-मातृकाओं की स्थिति है, वे आपस में मिलकर बीजाक्षर मन्त्र कहलाते हैं। प्रत्येक बीजाक्षर मन्त्र से शरीर में मन्त्र-तत्वों में से एक-एक तत्व का उदय होता है। बाद में उस बीजाक्षर मन्त्र को उसी तत्व से सम्बंधित बतलाया जाता है। जब कोई बीजाक्षर बैखरी का रूप धारण करेगा तब अपने से उत्पन्न होने वाले तत्व को भी साथ साथ व्यक्त करेगा। तंत्र-शास्त्र में केवल छः चक्रों की चर्चा की गयी है। किन्तु योग पर जो तंत्र आधारित है, उसने छः चक्रों के आलावा एक सातवें चक्र की भी कल्पना की है जिसे 'सहस्रार' कहा जाता है। सहस्रार चक्र में एक हज़ार दल हैं। किन्तु उन दलों पर मातृकाओं की स्थिति नहीं है, बल्कि मातृकाओं से सम्बंधित लोकों, देवताओं और तत्वों के दर्शन होते हैं। सहस्र दलों के बीच जो कर्णिका है, वह विश्वब्रह्माण्ड का केंद्र है। वहाँ पहुँचने पर मन पूर्ण स्थिर, निर्विकार और शान्त होकर आत्मा में विलीन हो जाता है, मन का अस्तित्व ही एक प्रकार से ख़त्म हो जाता है और उसके बाद मन से मुक्त आत्मा परमात्म तत्व में विलीन हो जाती है जिस विलिनीकरण प्रक्रिया के लिए आचार्य, इष्ट और परमात्म तत्व की पूर्व स्वीकृति अनिवार्य है। री का अर्थ गति, ऊर्जा या संभावना है। स्त्री शब्द का विकास इसी से हुआ है। १५/२/२४ ओशो के प्रति निरादर न रखते हुए भी यह बात कहना चाहता हूँ कि अमेरिका गये शुरुआती सन्यासियों के दिखाए मार्ग में अगर खोट है या झूठ है तो कौन सा मार्ग हमारा पाथेय बन सकता है। ओशो की एक रील पर टिप्पणी जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी।।
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी।। 
जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।। जो पराई स्त्री को माता के समान समझते हैं और पराया धन जिन्हे विष से भी भारी विष है । जो दूसरों की संपत्ति को देख कर खुश होते हैं और दूसरे की विपत्ति देख विशेष रूप से दुखी होते हैं और हे राम जी ! जिन्हे आप प्राणों के समान प्यारे हैं उनके मन आप के लिए रहने योग्य शुभ भवन हैं । रस को बनते हुए जानने की एक पद्धति है और दूसरी रस का पुनरुत्पादन करके उसे भोगने की प्रवृत्ति है। पहली पद्धति भारत की है तो दूसरी पश्चिम की है। दोनों का होना सामरस्य के लिए आवश्यक है। हैं तो दोनों एक, पर विकसित दो में होते हैं। मूलाधार और सहस्रार जब मिल जाते हैं तब इसकी अनुभूति होती है। १६/२/२४ बद्ध चित्त का लक्षण तदा बन्धो यदा चित्तं किंचिद्वांछति शोचति । किंचिन्मुंचति गृह्णाति किंचिद हृष्यति कुप्यति ! [अष्टावक्र गीता ] किसी से याचना करना , किसी से कुछ अपेक्षा करना , किसी से कुछ चाहना ,किसी बात पर दु:खी होना , किसी बात पर गुस्सा होना , किसी बात पर हर्षित होना , मैं ग्रहण कर रहा हूँ या मैं त्याग कर रहा हूँ , यह भाव मन में आना बद्ध-चित्त के लक्षण हैं ! मुक्त चित्त का लक्षण है >>> तदा मुक्तिर्यदा चित्तं न वांछति शोचति ! न मुंचति न गृह्णाति न हृष्यति कुप्यति ! [अष्टावक्र गीता ] अर्थात् चाह गयी ,चिन्ता मिटी मनुआँ बेपरवाह ! जाकों कछू न चाहिये , सो ई शाहंशाह ! यदा नाहं तदा मोक्षो यदाहं बन्धनं तदा ! मत्वेति हेलया किंचिन्मा गृहाण विमुंच मा ! अष्टावक्र जब न तो चित्त संग्रह में ही आसक्त होता है और न त्याग में ! मैं त्याग कर रहा हूँ , त्याग करने वाला >> मैं << हूँ , यह भी बन्धन है ! अहंकार अपने विविध बंधनों से चित्त को बाँधता है , इसलिए अहंकार बंधन है ! अहंकार जब बर्फ की तरह पिघल जाय , तब जल में लहरें आने लगती हैं , वह लहर ही मौज है और वही मुक्ति का स्वरूप है ! १७/२/२४ राधा प्रकृति का प्रतीक आश्रय है, नाम है, उसका हृदय कृष्ण है। कृष्ण को चोर कहा गया, क्योंकि वे प्रकृति के हृदय हैं और चित्त चुराते हैं। यह चोर न हो, आकर्षण न हो तो राधा जड़ हो जाएगी, शव ही रहेगी। दूसरी तरफ़ राधा यदि न हो तो वह लीला भूमि ही निर्मित नहीं होगी, जिस पर यह सारा अभिनय घटित हो रहा है। कृष्ण प्रकाश है और राधा पर्दा है। दोनों में से कोई एक न हो तो संसार का चलचित्र चल नहीं सकता। कोई पूछे फिर प्रकाश को प्रक्षेपित करने वाला या निर्देशक कौन है, वह भी कृष्ण ही है। निर्देशक कृष्ण है तो राधा उस लीला की उत्प्रेरक या उद्भाविका शक्ति है। १९/२/२४ रात में ध्यान के दौरान आज्ञा चक्र में गुदगुदी हो रही थी कि अचानक पूरा कपाल ठंडा होने लगा, जैसे किसी ने बर्फ का टुकड़ा डाल दिया हो। वह ठंडक पूरे ध्यान सत्र में बनी रही। सिर अचानक झटके से ऊँचा उठा। और इस प्रकार ध्यान पूरा हुआ। कोई क्रिया नहीं, कोई विधि नहीं। माटी मूक हो गई, पर स्वामी विद्यासागर महाराज जी महावीर होकर बोलते रहेंगे। ॐ शांति शांति। पूज्य महाराज जी का हंसता हुआ सौम्य चेहरा सदा याद रहेगा। उनका मूक माटी अनुभूतियों का महाकाव्य है, हम सबका पाथेय बना रहेगा। यदि तुम्हारा हृदय, प्रेम और करुणा से ओतप्रोत है तो तुम बहुत शक्तिशाली हो! श्रीश्री रविशंकर २२/२/२४ अक्सर, हम जो सोचते हैं, वह लिख नहीं पाते, कह भी नही पाते। एक लेखक उसे लिखता है, इसलिए वह बड़ा है। २३/२/२४ सुनो सहिष्णु बनकर देखो करुणा से और बोलो प्रेम से। २६/२/२४ A wise woman who was traveling in the mountains found a precious stone in a stream. The next day, she met another traveler who was hungry, and the wise woman opened her bag to share her food. The hungry traveler saw the precious stone and asked the woman to give it to him. She did so without hesitation. The traveler left, rejoicing in his good fortune. He knew the stone was worth enough to give him security for a lifetime. But a few days later he came back to return the stone to the wise woman. "I've been thinking," he said, "I know how valuable the stone is, but I give it back in the hope that you can give me something even more precious. Give me what you have within you that enabled you to give me the stone." २८/२/२४ कोई परम् सूक्ति का बार बार दोहराव कर्णकटु लगने लगता है। उत्तम संगीत को भी बार बार श्रवण करना अरुचिकर हो जाता है। किंतु ऐसे ऐसे कोई नाम बन जाये, उसे जप की भाँति अजपा तक पहुँच जाया जाए तो परमानंद की अनुभूति होने लग जाती है। वह आनंद तरह तरह का सौंदर्य बनकर हर अभिव्यक्ति में कौंध रहा है। नया नया बनकर व्यक्त हो रहा है, उसमें दोहराव नहीं, नवता है। वह स्रोत है, वह कोई एक वस्तु, व्यक्ति या अभिव्यक्ति नहीं है, पर उसमें वह समाया हुआ है। वह सबमें समाकर भी उनसे बाहर है। उसे पकड़कर क़ैद नहीं किया जा सकता, किसी विधि, मंदिर, मंत्र और ऋचा में भी। हाँ इनसे हम उसे अनुभव में अवश्य उतार सकते हैं। उस तत्त्व को अनुभव में उतारने के ही सभ्यतागत सारे जतन अपनाए जाते हैं। मानव इन युक्तियों की बार बार और अलग अलग खोज करता आया है और करता भी जा रहा है। २९/२/२४ ध्यान में कभी कभी किसी समस्या पर चिंतन चलता रहता है। उस पर सोचते सोचते भी कोई निष्कर्ष नहीं निकलता। फिर अचानक सब भूल जाते हैं। यानी वह कोई समस्या है ही नहीं। जैसा समय और परिस्थिति के अनुरूप बने, कर जायें। बस यही समाधान है। ध्यानोत्तर किए गए कार्यों में किसी प्रकार की समस्या नहीं रह जाती। ऐसा बहुधा होता है कि काम करते करते किसी अन्य के मुख से करणीय कर्तव्य व्यक्त हो गया, तदनुसार कार्य संपन्न करने से वह समस्या जाती रही। ध्यानोत्तर कार्य और कार्योत्तर ध्यान एक दूसरे को संपुष्ट करते हैं। MANTRA & PRANAYAMA Pranayama [controlled breathing] and mantra naturally go together and work best in combination. Using a mantra along with pranayama unites the mind and prana, drawing our attention and awareness into the breathing process. It can turn pranayama into meditation, as well as bring energy, vitality and wakefulness into the repetition of the mantra. Uniting prana (our power of action) with the mind (our power of knowledge) integrates us back into the source of our being. Prana gives shakti to the mantra and makes it alive and vibrating within our entire body. The sound of the breath is our most natural and constant outer mantra, we could say. The sound of our heartbeat, which is connected to the sound of the breath, is our most natural internal mantra. An important goal of mantra practice is to get one’s mantra to resonate with the breath, so that it is naturally repeated, strengthened and deepened along with every breath that we take—and then to get it to resonate with every heartbeat, so that our heartbeat is the beat of the mantra.§ वामदेव शास्त्री