Friday, May 3, 2024

अप्रैल २४

अप्रैल २०२४ बृहदारण्यक उपनिषद सबसे पुराने और बड़े उपनिषदों में मान्य है। इसमें संवत्सर का प्रयोग इस प्रकार आया है सोऽकामयत, द्वितीयो म आत्मा जायेतेति; स मनसा वाचं मिथुनं समभवदशनाया मृत्युः; तद्यद्रेत आसीत्स संवत्सरोऽभवत् । न ह पुरा ततः संवत्सर आस; तमेतावन्तं कालमबिभः, यावान्संवत्सरः; तमेतावतः कालस्य परस्तादसृजत । तं जातमभिव्याददात्; स भाणकरोत्, सैव वागभवत् ॥ १/२/४ ॥ मृत्यु कुछ और नहीं, वरन् वह हमारी भूख का नाम है। सृष्टि उत्पत्ति के क्रम में मृत्यु ने दूसरा रूप निर्मित करने की इच्छा की, यहाँ से प्रजापति द्वारा संवत्सर का अभ्युदय हुआ, इससे पूर्व वर्ष या सम्वत्सर नहीं था। मृत्यु या हिरण्यगर्भ ने जल प्रक्षेपित करके वर्ष निर्माण किया। इसे संवत्सर कहा गया। विराज भी इसे कहा गया है। जल की उत्पत्ति अग्नि से और अग्नि की उत्पत्ति जल से होने के अलग अलग वर्णन मिलते हैं। जल में अग्नि समाहित है। जन्म और लय उसमे लीन हुए रहते हैं। तज्जलानिति। जल ही किसी रचना का हेतु है। इसीलिए पूजा पद्धति में जल का प्रयोग सर्वप्रथम किया जाता है। संवत्सर या वर्ष जन्म से लेकर मृत्यु तक का कालखंड है। संवत्सर ऊँचा पद है। आज चैत्र शुक्ल प्रतिपदा है। चैत्र का अर्थ है चित्त का उन्मेष जो करे और प्रतिपदा का अर्थ प्रतिपादन करने से है। आज नव संवत्सर विक्रम वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा २०८१ आरंभ हो रहा है। आप सबको हार्दिक शुभकामनाएँ। 10/4/24 भागवत में आया है- सत्ययुग में ध्यान से, त्रेता में यज्ञ से और द्वापर में अर्चा-पूजा से जो फल मिलता है, कलियुग में वह केवल भगवन्नाम से मिलता है। इससे स्पष्ट है कि अपने स्वरूप को जानने के लिए ध्यान सर्वोत्तम साधन है। अपना स्वरूप जानना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। ध्यान की अलग अलग विधियां हमारे संत महापुरुष देते हैं, जिन विधियों में ध्यान के तरीके शास्त्र सम्मत ढंग से दिए गए हैं, वे सब उपयोगी हैं, बस उनमें से जो हमें गुरुदेव बताएं उस पर श्रद्धापूर्वक आगे बढ़ते रहें। गुरु को ध्यानमूल कहा गया है ध्यानमूलं गुरुः मूर्ति। वैसे अगर शांतचित्त होकर सिर और रीढ़ सीधी करके ही बैठने का अभ्यास बना लिया जाए तो भी बहुत उपयोगी है, अच्छे अर्थों में रीढ़ सीधी रखने का मुहावरा यूं ही नहीं चल रहा है। ध्यान की कुछ तकनीकें अवश्य ऐसी हैं, जिन पर चलने से व्यक्ति गन्तव्य तक शीघ्र पहुँचता है... मनुष्यों के लिए जितनी बातें सुनने, स्मरण करने या कीर्तन करने की हैं, उन सबमें ध्यान की विधियों को जानने का राजा परीक्षित का प्रश्न श्री शुकदेव स्वामी ने सर्वोत्तम बताया है। आगे श्री शुकदेव जी ने कहा है.. अभ्यसेन्मनसा शुद्धं त्रिवृद्ब्रह्माक्षरं परम्। मनो यच्छेज्जितश्वासो ब्रह्मबीजमविस्मरन्।।2/1/17 फ़ेसबुक से २०२० में आज की पोस्ट ११/४/२४ भेद से अभेद दशा का नाम मोक्ष है। भेद से अभेद को प्राप्त होकर भेद में होना प्रेम है। अर्थात् प्रेम बिना मुक्ति के संभव नहीं है। गुरु व्यक्ति नहीं, न कोई व्यक्ति ही गुरु हो सकता है। अखंड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरं। तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः॥ १६/४/२४ सापेक्ष जगत् में वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति निरपेक्ष होकर रहना वस्तुतः जीवन का रहस्य है। ध्यान में बैठे बिना व्यक्ति को वास्तव में समस्या क्या है! इसी का पता नहीं चल पाता है। जब तक समस्या ज्ञात नहीं होगी, उसका निदान कैसे संभव है! १७/४/२४ रामचरित चिंतामणि चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥ जग मंगल गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥ श्री रामचन्द्रजी का चरित्र सुंदर चिन्तामणि है और संतों की सुबुद्धि रूपी स्त्री का सुंदर शृंगार है। श्री रामचन्द्रजी के गुण-समूह जगत्‌ का कल्याण करने वाले और मुक्ति, धन, धर्म और परमधाम के देने वाले हैं॥ सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥ भावार्थ- ज्ञान, वैराग्य और योग के लिए सद्गुरु हैं और संसाररूपी भयंकर रोग का नाश करने के लिए देवताओं के वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये सीताराम के प्रेम के उत्पन्न करने के लिए माता-पिता हैं और संपूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के बीज हैं। We often translate Rashtra as a nation. But these are not the same. Our concept of Rashtra has evolved over a period of 7,000 years or more. For us, Rashtra is not defined or determined by mundane political or territorial boundaries. Rashtra is a cultural and spiritual entity that transcends beyond the political boundaries. Rashtra etymologically means an instrument or tool to attain moksha. It has a universal purpose also. नाध्यात्मेन विना बाह्यं नाध्यात्मं बाह्यवर्जितं ।
सिद्धये ज्ञानक्रियाभ्यां तद्द्वितीयं संप्रकाशते ॥ पादांगुष्ठाग्रतो व्यक्ता नाभितो हृदयं गता ।
सुषुम्ना नाम सा ज्ञेया ब्रह्मरन्ध्राब्ज निर्गता ॥ अनायासेन मरणम्, बिना दैन्येन जीवनम्। देहान्त तव सानिध्यम्, देहि मे परमेश्वरम्।। अनायास ही मृत्यु, बिना दैन्य(दीनता,गरीवी,किसी चीज की कमी) अर्थात् दैन्यहीन जीवन हो। और जब भी मृत्यु आये तो वह भी आपके सानिद्य में आये। हे प्रभु!यह मुझे प्रदान करें। १८/४/२४ गोरखपुर का गोरखनाथ के नाम से चाहे जितना नाम हो, पर योग को पश्चिमी जगत् में पहुँचाने का श्रेय परमहंस योगानंद जी को ही जाता है। गोरखपुरवासी नागरिकों को चाहिए कि देशवासी उनके सपूत के इस अवदान को याद करें। उनकी योगी कथामृत जब से छपी है, श्रेष्ठ और बेस्ट सेलर में बनी हुयी है। गोरख बाबा के योग को दुनिया से व्यावहारिक रूप में परिचय तो वस्तुतः योगानंद जी ने ही कराया है। बहुत कम ऐसा देखा जाता है, उनकी पद्धति उनके जाने के बाद भी व्यवस्थित ढंग से चल रही है। 🙏 १९/४/२४ आत्मा की परमात्मा से मिलन की आकांक्षा को सूफ़ी संतों ने कितने ढंग से उकेरा है कि वे लोकगीत बन गए....आज भी जगह जगह गाए जा रहे हैं। फ़िल्मों से होते हुए वे विवाह गीत बन गए हैं। काहे कों ब्याही रे बिदेस रे सुन बाबुल मोरे। हम तौ बबुल तोरे अंगना कौ कूरा झरि-पुछि कें फिक जांय रे । सुन बाबुल मोरे। हम तौ बबुल तोरे बाग की कोयल कूकत पर घर जांय रे । सुन बाबुल मोरे। हम तौ बबुल तोरे खूंटा की गैयां, जित हांकौ हंकि जांय रे । सुन बाबुल मोरे। हम तौ बबुल तोरे खेत की चिरियां,चुगि-चुगि कें उड जांय रे । सुन बाबुल मोरे अमीरखुसरो २१/४/२४ सफलता वास्तव में क्या है! यह है जो कार्य अधूरे हैं, जिनका अंतराल है, उन्हें पूरा करना। 22/4/24 अनुत्तराष्टिका सङ्क्रामोऽत्र न भावना न च कथायुक्तिर्न चर्चा न च ध्यानं वा न च धारणा न च जपाभ्यासप्रयासो न च । तत्किं नाम सुनिश्चितं वद परं सत्यं च तच्छ्रूयतां न त्यागी न परिग्रही भज सुखं सर्वं यथावस्थितः ॥ १॥ संसारोऽस्ति न तत्त्वतस्तनुभृतां बन्धस्य वार्तैव का बन्धो यस्य न जातु तस्य वितथा मुक्तस्य मुक्तिक्रिया । मिथ्यामोहकृदेष रज्जुभुजगच्छायापिशाचभ्रमो मा किञ्चित्त्यज मा गृहाण विलस्वस्थो यथावस्थितः ॥ २॥ पूजापूजकपूज्यभेदसरणिः केयं कथानुत्तरे सङ्क्रामः किल कस्य केन विदधे को वा प्रवेशक्रमः । मायेयं न चिदद्वयात्परतया भिन्नाप्यहो वर्तते सर्वं स्वानुभवस्वभावविमलं चिन्तां वृथा मा कृथाः ॥ ३॥ आनन्दोऽत्र न वित्तमध्यमदवन्नैवाङ्गनासङ्गवत् दीपार्केन्दुकृतप्रभाप्रकरवत् नैव प्रकाशोदयः । हर्षः सम्भृतभेदमुक्तिसुखभूर्भारावतारोपमः सर्वाद्वैतपदस्य विस्मृतनिधेः प्राप्तिः प्रकाशोदयः ॥ ४॥ रागद्वेषसुखासुखोदयलयाहङ्कारदैन्यादयो ये भावाः प्रविभान्ति विश्ववपुषो भिन्नस्वभावा न ते । व्यक्तिं पश्यसि यस्य यस्य सहसा तत्तत्तदेकात्मता- संविद्रूपमवेक्ष्य किं न रमसे तद्भावनानिर्भरः ॥ ५॥ पूर्वाभावभवक्रिया हि सहसा भावाः सदाऽस्मिन्भवे मध्याकारविकारसंकरवतां तेषां कुतः सत्यता । निःसत्ये चपले प्रपञ्चनिचये स्वप्नभ्रमे पेशले शङ्कातङ्ककलङ्कयुक्तिकलनातीतः प्रबुद्धो भव ॥ ६॥ भावानां न समुद्भवोऽस्ति सहजस्त्वद्भाविता भान्त्यमी निःसत्या अपि सत्यतामनुभवभ्रान्त्या भजन्ति क्षणम् । त्वत्संकल्पज एष विश्वमहिमा नास्त्यस्य जन्मान्यतः तस्मात्त्वं विभवेन भासि भुवनेष्वेकोप्यनेकात्मकः ॥ ७॥ यत्सत्यं यदसत्यमल्पबहुलं नित्यं न नित्यं च यत् यन्मायामलिनं यदात्मविमलं चिद्दर्पणे राजते । तत्सर्वं स्वविमर्शसंविदुदयाद् रूपप्रकाशात्मकं ज्ञात्वा स्वानुभवाधिरूढमहिमा विश्वेश्वरत्वं भज ॥ ८॥ ॥ इति श्रीमदाचार्याभिनवगुप्तपादैर्विरचितानुत्तराष्टिका समाप्ता ॥ 23/4/24 शास्त्र से ज्ञात होता है कि ब्रह्म एक , अखण्ड और अद्वैत होने पर भी परब्रह्म और शब्दब्रह्म इन दो विभागों में कल्पित होता है । शब्दब्रह्म को भलीभाँति जान लेने से परब्रह्म की प्राप्ति होती है । " शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्मादिगच्छति ।" शब्दब्रह्म का स्वरूप जानना और उसे जानकर उसका अतिक्रमण करना , यही मुमुक्षु का एकमात्र लक्ष्य है । उसका अतिक्रमण किये बिना विशुद्ध परमतत्व रूप चैतन्य का साक्षात्कार सम्भव नहीं है । जिसे प्रणव या ॐकार कहते हैं , यही शब्दब्रह्म है । उपनिषद , शाक्त - शैवागम योग शास्त्र आदि में लिखा है कि प्रणव को भलीभाँति जानना आवश्यक है , क्योंकि वह परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय तो है ही , साथ ही परब्रह्म से अभिन्न रूप भी है । माण्डूक्योपनिषद में इसका काफी वर्णन है । ॐकार में मात्राएँ हैं और उसका अमात्रक अर्थात मात्राहीन शुद्ध रूप भी है । उसकी मात्रायुक्त अवस्था के भी दो भेद हैं -- एक शुद्ध , दूसरा अशुद्ध । उसके मात्रायुक्त शुद्ध -रूप का परिचय योगियों को मिलता है । अमात्रक -अवस्था अप्रमेय , अखण्ड है , उसके आदि अन्त का निर्णय नहीं हो सकता । ॐकार - साधन पृष्ठ 414 भारतीय संस्कृति और साधना ३०/४/२४ " भारत दार्शनिक देश है "यानी भारत का अत्यन्त साधारण आदमी भी चाहे जितना व्यभिचारी , इन्द्रिय-लोलुप क्यों न हो,पुराने जमाने से चली आयी विचारमालिका को दुहराता रहता है। 'जीवन क्या है ?मृगतृष्णा है' ;'जीवन क्या है ?आखिर मरना है!'- इस तरह के उदगार यदि आत्मा की सफलता के चिह्न हैं तो उनकी कीमत भी है।परन्तु साधारणतःवे साधारण दार्शनिक वाक्य जन-साधारण के लिए ऐसे नहीं होते। उनका अर्थ अनुभूति द्वारा ग्रहण नहीं किया जाता। ऐसी परिस्थिति में फिलासफी कभी भी जन-साधारण को सत्पथ पर नहीं चला सकती,ऐसा मेरा ख्याल है।"- मुक्तिबोध