Saturday, July 19, 2025

रामायण में रूपक योग

रामायण में रूपक योग विदित है कि विश्व का आदि महाकाव्य रामायण रचने की प्रेरणा महर्षि वाल्मीकि को तब हुई, जब एक आखेटक द्वारा मैथुनरत क्रोंच युगल में से नर क्रोंच को मार दिया गया और इसे वाल्मीकि ने देखा। इस संताप से दुःखी अंतर्मन से अयोध्या की निर्मिति की कल्पना आदि कवि में सृजक मन में उदित हुई। अयोध्या वह है, जहां चंचल मन शांत होकर निर्द्वंद्व एवं वृत्तियुद्ध विहीन हो जाए। साधक को साध्य से मिलने की तड़पन तब अधिक तीव्र हो जाती है, जब नर क्रोंच (आत्मा) और मादा क्रोंच (शरीर) के मधुर मिलन के दौरान आत्मा अर्थात् नर क्रोंच का बध कर दिया गया हो। अयोध्या नगरी की स्थापना मनु अर्थात्् मन की उच्चतर अवस्था द्वारा हुई। मन सदा वृत्तियों के युद्ध से पीड़ित रहता है। मन जब निर्द्वंद्व एवं वृत्तियुद्ध विहीन होता है, रामायणकार तब उस दशा को अयोध्या कहते हैं। अयोध्यापुरी का विस्तार दस और दो अर्थात् दस इंद्रियों एवं मन और बुद्धि के संयोग से किया गया है। पुरुष सूक्त में त्यत्तिष्ठद्दशांगुलम् को भी इसी अर्थ में ग्रहण करना चाहिए। तंत्रशास्त्र में बार-बार द्वादशांत का उल्लेख हुआ है, उसे श्वांस-प्रश्वांस के बारह अंगुल बाहर और भीतर के आकाश को निरूपित करते हैं। यह भी प्रकारांतर से अयोध्या ही है। अयोध्यापुरी का विस्तार द्वादश पर्यंत ले जाने की योजना की गई है। यह योजना ही योजन है। संत ज्ञानेश्वर के एक अभंग में आया है- शब्द बिना संवाद बिना दूसरे के अनुवाद- इसका आशय है कि मेरी आंखें बंद थीं। कान सुन रहे थे, परंतु शब्दों के आशय न समझकर मेरे मनःचक्षुओं के सामने उन घटनाओं के चित्र सरकते थे। रामायण में आया चित्रकूट इसी अवस्था का अभिधान है। श्रीमती त्रीणि अर्थात् तीन मुख्य नाड़ियां योग मार्ग के रास्ते हैं- इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्णा। इस नगरी के राजा दशरथ है। कठोपनिषद 1.3.3 में दिए गए एक रूपक के अनुसार यह शरीर एक रथ है, बुद्धि उसका सारथी और मन लगाम है। शरीर रूपी इस रथ का स्वामी आत्मा है। एक इंद्रिय का स्वामी एक रथ है तो दस इंद्रियों के स्वामी दशरथ हैं। दशरथ रूप पिण्ड का आत्मानंद रूप ‘राम’ पुत्र है। योगियों के चित्त में रहने वाले आत्मानंद को ‘राम’ कहते हैं। रमंते योगिना चित्तस्य इति रामः। राम जैसे पुत्र की प्राप्ति साधना रूप यज्ञ के परिणामस्वरूप होती है। जीवन यज्ञ में अर्पण का साधन, जिसे पूजा पद्धति में स्रुवा कहा जाता है, वह ब्रह्म है। हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म हैं तथा ब्रह्मरूप क्रिया भी ब्रह्म है। उस ब्रह्म कर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही है। राजा दशरथ के अष्ट प्रधान सलाहकार अष्टांग योग की आठ साधनाएं हैं। राजा दशरथ की तीन रानियां कुशलता से साधना करने वाली वृत्ति कोसल्या हैं, कायाभाव से ऊपर रहने वाली वृत्ति कैकेयी तथा सभी से प्राणि भाव से मित्रता का बर्ताव करने वाली वृत्ति रानी सुमित्रा हैं। साधक द्वारा व्यवस्थित साधना करने पर भी प्रतिफल न मिलने पर वह बेचैन रहता है। यह प्रतिफल अपत्य या पुत्र प्राप्ति की इच्छा कही जाती है। तब साधक वाजिमेध अर्थात् कामना से किया जाने वाला अश्वमेध यज्ञ करते हैं। यह यज्ञ सरयू नदी के किनारे किया जाता है। ब्रह्म की ओर ले जाने वाले चित्त प्रवाह को रामायणकार सरयू कहते हैं। सरयू नदी का प्रवाह अयोध्या नगरी के समीप रहता है। साधना के लिए इष्ट वृत्तियां साधक में बसना आवश्यक हैं। इन्हें वसिष्ठ कहते हैं। इनके द्वारा यज्ञ करने का निर्देश किए जाने पर राजा दशरथ पुत्रकामेष्टि या अश्वमेध यज्ञ करते हैं। पुत्रकामेष्टि यज्ञ करने के लिए विभाण्डक ऋषि के पुत्र ऋष्यशृंग को बुलाया जाता है। विभाण्डक अर्थात् साधक की विशुद्ध अवस्था। इनका पुत्र ऋष्यशृंग अर्थात् ऋषियों में शृग अर्थात् उच्च अवस्था में हो। ऐसा उच्च ऋषि ही यज्ञ का मुख्य होता बनने के योग्य हो सकता है। ऋष्यशृंग को अयोध्या बुलाने के लिए राजा दशरथ ने वारवनिताओं को भेजा, उनमें से एक ने नादब्रह्म रूप गायन सुनाकर ऋष्यशृंग को आकर्षित किया। निर्द्वंद्व चित्त की ओर वृत्ति शून्य दशा में ब्रह्मानंद सूचक अनाहत नाद साधक को सुनाई देता है। इस प्रसंग में यह वेश्याएं अनाहत नाद हैं, जिनसे मोहित होकर ऋष्यशृंग अयोध्या में आते हैं। वैदिक परंपरा में ब्रह्मचारी व्यक्ति यज्ञ का पौरोहित्य नही ंकर सकते। यज्ञ करने का अर्थ है कुछ चाहना। जो ब्रह्म का आचरण करने वाले हैं, वे सदा अचाह रहते हैं, इसलिए वे पौरोहित्य कर्म नही ंकर सकते। तब ऋष्यशृग के विवाह के लिए एक शांता नामक लड़की खोजी जाती है। यह राजा दशरथ की दत्तक पुत्री थी। ऋष्यशृंग का शांता से विवाह कराया जाता है। शांता अर्थात् शांत वृत्ति। वैदिक परंपरा में सभी ऋषि मुनि विवाहित बताए गए हैं, तब भी वे ब्रह्मचारी हैं। आध्यात्मिक पुरुष के अंतःकरण में जा पशुभाव है, साधनरूप यज्ञ में उसकी बलि दी जाती है। पशुभाव से मुक्त होने के लिए तीन सौ बार अर्थात् अनेक बार उस पशुभाव रहित अवस्था को नियमित करने पर राजा दशरथ को उत्तम अश्व अवस्था प्राप्त होती है। पशूनां त्रिशतं तत्र युपेषु नियतं तदा में बलि देने का वास्तविक अर्थ उक्तवत ही है। श्व संस्कृत की एक अद्भुद घ्वनि या धातु है। श्वान कुत्ते को कहा गया क्योंकि उसमें रजस गुण की तीव्रता रहती है। वह अपनी श्वासं को गहराई से बार-बार लेता और छोड़ता है, उसमें बेचैनी देखी जाती है। श्वान को पालना इसीलिए निषिद्ध माना गया है। बिल्ली में तामसिक प्राण होते हैं, इसलिए उसके द्वारा रास्ता काटने पर कुछ पल ठहरकर यात्रा प्रारंभ करते हैं। सर्वाधिक सात्विक प्राण देसी गाय के गोबर में होते हैं। इसीलिए गाय का महत्व निरूपित किया गया है। चांडाल को श्वपाकी कहते हैं, क्योंकि वह अपनी श्वास विशेष या अवस्था विशेष पर अवलंबित रहता है। इसे इसीलिए वर्णबाह्य माना गया है। अश्व घोडे को कहा गया है। यह बल या ताकत का पर्याय है। योग शास्त्र में स्पष्ट निर्देश है कि श्वास के अवलंब के बिना ही हम बलशाली हो सकते हैं। इसमें कुंभकों की विभिन्न दशाओं का निर्देश आता है। अश्व अवस्था से बाहर आने की क्रिया को अश्वमेध कहते हैं। घोड़े का बध करने से इसका वास्तविक आशय योग विज्ञान में समझ बढ़ाने के बाद ग्रहण हो पाता है। अश्वमेध प्राणायाम की क्रिया का हिस्सा है। प्राणायाम प्रक्रिया में सिद्ध होने पर साधक की श्वास का आना-जाना किसी समय ठहर जाता है। प्राणायाम में इसे केवल कुंभक, किंतु महर्षि वाल्मीकि एवं वेदव्यास इसे अश्व अवस्था कहते हैं। इसी अवस्था में साधक समाधि लाभ ग्रहण कर पाता है। और तभी वह वास्तव में ब्रह्मज्ञानी और ब्राह्मण बनता है। केवल कुंभक में मन विचलित होता है, परंतु शरीर को कुछ नुकसान नहीं होता। साधक मन की विचलन को भी नष्ट कर देना चाहता है, अश्वमेध इसी अवस्था को कहा जाता है। राम पुत्र प्राप्ति इसी अवस्था में हो पाती है। राजा दशरथ की तीन रानियां पूरी रात उसी अश्व की सेवा कर उससे समागम करती हैं। यह समागम अर्थात् वृत्तियों का समाधि अवस्था में जाना मध्य रात्रि में होता है, तत्पश्चात् देवताओं द्वारा पायस अर्थात् दिव्य शक्ति साधक को उच्च अनुभूति रूप पुत्र प्राप्ति कराती है। शरद पूर्णिमा अर्थात् आश्विन या क्वांर माह की पूर्णिमा की रात्रि खीर बनाकर ग्रहण कराने की परंपरा इसी का प्रतिस्मरण है। योगी जन रात्रि को कठिन साधनाएं करते हैं। गुफाओं में जाकर साधना करने का भी यही रहस्य है। पायस या खीर वृत्ति रूप रानियों ने ग्रहण की होती है। अधिक समय तक पशुभाव से विरहित अश्व अवस्था में स्पंदित होने साधक का शरीर स्वर्ण जैसा निर्मित हो जाता है, अर्थात् कंचन काया बन जाती है और अनेक अपत्य ‘पुत्र पौत्रान्’ की उपलब्धि होती है। राजा दशरथ को चार पुरुषार्थ बताने वाले चार पुत्र प्राप्त होते हैं। राम अर्थात् आनंद रमयति इति रामः। दूसरे भरत अर्थात् वैराग्य, ज्ञान, जो भ याने ज्ञान में रत हो। लक्ष्मण अर्थात् विवेक, लक्ष्यं$अनः जो अपने लक्ष्य की ओर स्पंदित है अर्थात् जाग्रत है। जिसका कोई शत्रु नहीं है, जिसने अपने मन से शत्रुत्व की भावना हटा ली है, हन- नष्ट कर ली है, उसे शत्रुघ्न कहते हैं। राम का भूमि से प्राप्त अर्थात् पुथ्वी से निकली सीता से स्वयंवर विवाह होता है। सीता शक्ति हैं और राम शिव। शक्ति बिना शिव का प्रकटन संभव नहीं और शिव के बिना शक्ति का आधान नहीं हो सकता। अर्द्धनारीश्वर की उपासना इसीलिए की जाती है। साधक यदि सीता रूपी अपने जड़ शरीर को सुख देगा तो वह कभी भगवान राम नहीं बन सकेगा। राम ने सीता रूपी जड़ शरीर को कष्ट दिया, फिर भी सीता राम से एकनिष्ठ रहीं। साधना रूपी कष्टमय जीवन के वनवास में भी राम से अलग नहीं रहीं। रामरूप साधक जब ज्ञानरूप भरत से एकरूप होता है तब उसकी भेंट चित्रकूट पर होती है। यह अपने अंदर की ज्ञानावस्था है। साधक यदि थोड़ा आमोद-प्रमोद में संलग्न हुआ तो उसका अहंकारी रूप रावण सीता रूपी जड़ शरीर का हरण कर लेता है। फिर भी सीता राम के प्रति एकनिष्ठ रहती है। अहंकारी रावण स्वयंवर के समय शिवधनुष भंग न कर पाने पर भी सीता का पीछा नहीं छोड़ता। पंच कमेंद्रियों से बनी पंचवटी में वह सीता को ले जाता है। राम के विरह मे सीता को पृथ्वीत त्व में पुनः प्रतिष्ठित हो जाती हैं। समाधि की श्रेष्ठ अवस्था पाने की इच्छा करने वाला बाली (बा अलम्) अपने पीछे पड़े हुए दुंदुभिनाद रूप राक्षस को मारने के लिए उसका पीछा करता है और उसको नष्ट कर अपनी राजधानी किष्किंधा रूप समाधि अवस्था में लौट आता है। मेघों का नाद सुनने वाला श्रेष्ठ साधक रावणपुत्र मेघनाद है, जो संयमी है, इसीलिए इंद्रजित है। साधक जब उच्च तत्व में प्रविष्ट होता है तो उसे कायारूपी सीता इसी पृथ्वी पर छोड़नी पड़ती है। सीता कभी सुखी नहीं रहीं। रावण चिल्ला चिल्लाकर अपना ज्ञान दूसरों को सुनाता था, उस पर राम ने नौ दिन शक्ति की आराधना करके विजयादशमी के दिन विजय प्राप्त की। आकाशतत्वीय राम के वाहक वायुतत्वीय वायुसुत हनुमान बने। राम ने राज्याभिषेक होने के बाद पुनः सीता रूपी पृथ्वीत त्व का त्याग कर स्वतः आत्मस्थ होकर सरयू में समाविष्ट होकर निर्वाण प्राप्त किया। सरयू के रूपक के बारे में ऊपर संकेत किया जा चुका है। रावण को अपने दस ग्रंथों का मुखोद्गत पाठ के अहंकार ने दसमुखी बनाया है, परंतु राम अपने दश इंद्रियों रूपी रथ पर सवार होकर रावण के दशों मुख काट दिए, फिर भी वह मरा नहीं, क्योंकि उसकी नाभि में अमृत जो था। प्राण रूपी अमृत नाभिदेश में रहता है, इसकी सूचना अहंकारी रावण के अन्य भाई सात्विक वृत्तिरूप विभीषण द्वारा ही राम को दी जाती है और वे उसमें वाण संधान करके रावण को मार देते हैं। मरने के बाद रावण की प्राण ज्योति राम में विलीन हो जाती है। रामायण और महाभारत की कथाओं को जो लोग काल्पनिक कहते है, वे ऐसा करके वस्तुतः उन महाकाव्यों के सार्वकालिक महत्व और मानव मात्र के लिए उसकी उपादेयता को तिरोहित करते हैं। अगर वह कल्पना है भी तो ऐसी कि जो सारे जीवन यथार्थ का परिज्ञान कराती है। इस कल्पना का हम सबको आश्रय लेना चाहिए। इन कहानियों के माध्यम से व्यक्ति को उसके जीवन की आदर्श और यथार्थ परिस्थितियों का सम्यक् परिशीलन होता है। जो वर्ग इनसे अपना संबंध जोड़ते हैं, उनके ऐसा करने पर किसी को कोई नुक़सान नहीं है। यह कथा जन गण के मन की ही है। जो उससे जुड़ेगे उनका लाभ ही है। रामायण के उक्त रूपक योग से उस कथा में अंतर्निहित महत्व का, घटनाओं की कालक्रमिकता का, बाह्य परिवेश से भीतरी चित्त का एवं भारतीय परंपरा का बोध प्राप्त होता है। रामायण, महाभारत, पुराण, भागवत इत्यादि महाकाव्यों में जड़ इतिहास खोजने की आवश्यकता नहीं है, वे तो वेदज्ञान सम्मत कथाएं हैं, जिनमें साहित्यिक उत्कर्ष का दर्शन भी होता है। रामायण के सारे कथा प्रसंग दिव्य साधना अवस्थाओं के रूपकात्मक वर्णन हैं। साधक इन्हें समझकर आत्मारूप राम के अयन याने उस मार्ग में अग्रसर होता है।