Sunday, October 1, 2023

सितंबर २३

१/९/२३ नीला और लीला ध्वनि विज्ञान के अनुसार एक ही शब्द होने चाहिए। परंतु दोनों के अर्थ अलग अलग प्रचलित हैं। नीला ब्रह्मांड का रंग है, लीला भी ब्रह्मांड की घटना पटीयसी है। इसी से लील जाना यानि निगल जाना। इस दृश्यमान जगत् को पचा जाना लीलना है। लीला अद्भुत शब्द है। लीला रचने वाले, उसे पचने वाले और पचाने वाले सब एक हैं। इसलिए लीला धारी की लीला का आनंद उठाना ही जीवन का ध्येय है। लीला में अपनी भूमिका का निर्वाह करना शरीर का गुणधर्म है। इस लीला का निर्देशक ईश्वर है, पर कैसे यह लीला या अभिनय किया जाना है, यह तो व्यक्ति को ही निर्धारित करना है। रमेश कुंतल मेघ जी और उनके अनुज शिवकुमार जी रोहिताश्व जी के संयोजन में गोवा के एक रीफ़्रेशर कोर्स में तीन दिन रुककर रिसोर्स पर्सन रहे। मिथक शास्त्र उनके व्याख्यान का विषय रहा। यद्यपि उनके अनुज के व्याख्यान अधिक बोधगम्य और सहज थे, पर मेघ जी की बालों की चुटिया और एक टांग में समस्या के कारण लचककर बोर्ड के सामने सेमेट्री बनाकर पढ़ाने और समझाने का उनका अंदाज़ निराला था। उस समय उनसे मैंने अपनी संपादित एक किताब भेंट की, उसमे बाईस भुजी नृत्य गणपति का एक चित्र दिया हुआ है, उसके बारे में सविस्तार जानने को उत्सुक हुए, उस स्थान पर जाने की हद तक। उनसे बच्चों की सी बालसुलभता रही। उनसे उनके नाम का निहितार्थ पूछा, उन्होंने यह बताया भी। नाम के अनुरूप unhone बालों का संयोजन कर रखा था। सौन्दर्यशास्त्री तो थे ही। बाद में मिथकों पर प्रकाशक से एक किताब मिथक और यथार्थ मंगायी, पर मिथक और स्वप्न करके मेघ जी की पुस्तक आ गई। उसे भी पढ़ा गया। गत वर्ष ललितपुर आया तो यहाँ उनके सहपाठी श्री लक्ष्मी नारायण तिवारी मिले। पेशे से वकील हैं, उनके पास एक दिन बैठकी में उन्होंने अपनी एक किताब दिखायी, जिसमें मेघ जी द्वारा भूमिका लिखी गई है। मेघ जी अब नहीं हैं। उन्होंने दीर्घायुष्य पाकर हिंदी आलोचना की श्रीवृद्धि की है। उन्हें विनत श्रद्धांजलि। २/९/२३ ज्यों मुख मुकुर मुकुर निज पानी। गहि न जाइ अस अद्भुत बानी।। परा, पश्यंती आदि वाणी के स्तर हैं। सरस्वती वाणी की देवी है। वाक्देवी। भाषा शब्द और अर्थ में व्यक्त होती है, पर वाणी कहे और अनकही दोनों में उपस्थित रहती है। वाणी, वीणा, वचन, बैन एक ही मूल के रूप हैं। शब्द और अर्थ तो मात्र उपकरण हैं, करण तो वाणी है। सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे। बिहंसे करुणा ऐन चितै जानकी लखन तन॥ कबीर भी कहते हैं ऐसी बानी बोलिये मन का आपा खोय। बानी में ही वह ताक़त है जो औरों को शीतल करती है और स्वयं भी शांत रस में आप्लावित रहती है। ब्रह्म ज्ञान प्रतिबोध से सम्भव है। जब इन्द्रियों का संबंध अपने विषयों से अर्थात बाहर की ओर होता है तो जो ज्ञान होता है उसे बोध कहते है। जब इंद्रियां विषयों की ओर जाना बंद कर दे और व्यक्ति भीतर की ओर खोजता है तो मन की चंचलता समाप्त हो जाती है। भौतिक आकर्षण उसे विचलित नहीं करते, उस समय का आंतरिक अनुभव जो उसे धारणा, ध्यान, समाधि द्वारा प्राप्त होता है उसे प्रतिबोध कहते हैं । उसी से अमृत प्राप्त होता है। ईशानी सिंह फ़ितूर होते हैं हर उम्र में जुदा खिलौने माशूक़ा रुतबा और ख़ुदा। मैं तो इस वास्ते चुप हूँ कि तमाशा न बने तू समझता है तो तुझसे मुझे गिला कुछ भी नहीं। ४/९/२३ ऐसे भी नास्तिक हो सकते हैं, जिन्होंने ईश्वर को जान लिया हो। ईश्वर को जानने के बाद आस्तिक और नास्तिक का भेद नहीं रहना चाहिए। आस्तिकता एक सरणि है, पाथेय नहीं। ५/९/२३ हर दिखाई देने वाला रूप प्रकाश है। प्रत्येक सुनाई देने वाला शब्द ध्वनि है। ॐ नाम का वाचक है तो फिर रूप का वाचक क्या हुआ! रूप का वाचक पंच महाभूत है। यह वाचक नहीं वाच्य है, दृश्य है। ॐ महाभूतों से निःसृत हो रहा है तैलधारवत् तो इन महाभूतों में ही वह लीन हो रहा है रज्जु सर्पवत। रज्जु में सर्प की प्रतीति का भान ज्ञात हो जाने पर सर्प का अस्तित्व नहीं रह जाता। प्रकाश में रूप बदलते रहते हैं। ध्वनि में शब्द बदलते जाते हैं। रूप अर्थात्मक नाम है तो नाम शब्दात्मक रूप। कौन पहले कौन बाद में, यह बहस मुर्गी पहले या अंडा जैसी बहस है। एक को जान लेंगे तो दूसरी जान ली जाएगी। बहस नहीं जानने से सत्य प्रकट होगा। दोनों में एक दूसरे का अस्तित्व जल और लहर की भाँति बना हुआ है। बीज और वृक्ष की भाँति इसका सातत्य सदा अवस्थित है। शरीर और उसकी छाया का जो संबंध है, शिव और शक्ति का जो संबंध है, वही संबंध नाम और रूप, शब्द और अर्थ, प्रकाश और ध्वनि के बीच है। निषेधशेषो जयतादशेषः। भागवतम् सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बचा रहता है, वह भगवान का स्वरूप है। एष धर्मों सनातनम्। न ही वेरेन वेरानि, सम्मन्तीध कुदाचनं अवेरेन च सम्मन्ति, एस धम्मो सनन्तनो।धम्मपद (वैर से वैर शांत नहीं होते, बल्कि अवैर से शांत होते हैं। यही सनातन धर्म हैं।) मनुस्मृति: अध्याय 4, श्लोक 138, सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥138॥ 🔥 एष धर्मः सनातनः (१) ~~~~~~~~~~~ हिन्दू धर्म शाश्वत और सार्वभौम सत्य है _______________________________ जिस धार्मिक संस्कृति को हम आज हिन्दू धर्म के नाम से पुकारते हैं... उसने अपना कोई नाम नहीं रखा, क्योंकि उसने स्वयं अपनी कोई साम्प्रदायिक सीमा नहीं बाँधी। उसने सारे संसार को अपना अनुयायी बनाने का दावा नहीं किया। किसी एक ही सिद्धान्त की स्थापना नहीं की, मुक्ति का कोई एक ही संकीर्ण पथ या द्वार निश्चित् नहीं किया। वह किसी मत या पंथ की अपेक्षा कहीं अधिक आत्मा के ईश्वरोन्मुख प्रयास की एक सतत-विस्तारशील परम्परा थी। आध्यात्मिक आत्मनिर्माण और आत्म-उपलब्धि के लिये एक बहुमुखी और बहु-स्तरीय विशाल व्यवस्था होने के कारण उसे अपने विषय में 'सनातन धर्म' के उस एक मात्र नाम से, कुछ कहने का अधिकार प्राप्त था। हिन्दू धर्म कोई सम्प्रदाय या कट्टरपंथी मत नहीं है, सूत्रों का गट्ठर नहीं है, सामाजिक नियमों की आचार संहिता नहीं है, बल्कि यह है एक शक्तिशाली, शाश्वत और सार्वभौम सत्य। इसने भगवान् की अनंतता के साथ तादात्म्य के अंतिम लक्ष्य के लिये मनुष्य की आत्मा को तैयार करने का रहस्य जान लिया है। श्री अरविन्द _________ 🔥 एष धर्मः सनातनः(२) ~~~~~~~~~~~ हिन्दू धर्म क्या है? _____________ हिन्दू धर्म है क्या? यह धर्म क्या है जिसे हम सनातन कहते हैं। यह हिन्दू धर्म मात्र इसलिये कहलाया क्योंकि यह हिन्दू राष्ट्र में बढा, क्योंकि इस प्रायद्वीप में यह समुद्र और हिमालय से घिरे होने के कारण एकान्त में विकसित हुआ, क्योंकि इस पावन और प्राचीन भूमि में इसे युगों तक सुरक्षित रखने का कार्यभार आर्यजाति को सौंपा गया था। लेकिन यह किसी एक देश के सीमान्तों में सीमाबद्ध नहीं है। यह विश्व के किसी भी देश की सदा के लिये निजी बपौती नहीं है। जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं , वह वास्तव में सनातन धर्म है, क्योंकि यह सार्वभौमिक धर्म ही है जो अन्य सबको गले लगाता है। यदि कोई धर्म सार्वभौमिक नहीं है, तो वह सनातन नहीं हो सकता। एक संकीर्ण धर्म, साम्प्रदायिक धर्म , ऐकान्तिक धर्म का उद्देश्य और अवधि सीमित ही होती है। यही एकमात्र ऐसा धर्म है जो विज्ञान के आविष्कारों और दर्शनशास्त्र के चिन्तन को सम्मिलित करते हुए और उनका पूर्वानुमान करते हुए भौतिकवाद पर विजय पा सकता है। यही एक मात्र वह धर्म है जो बराबर मानव जाति को यह कहता है कि भगवान् हमारे समीप हैं और उन तक पहुँचने के सभी सम्भव उपायों को अपनाता है। श्री अरविन्द _________ सतगुरु मैं तेरी पतंग, बाबा मैं तेरी पतंग, हवा विच उडदी जावांगी, हवा विच उडदी जावांगी । साईयां डोर हाथों छोड़ी ना, मैं कट्टी जावांगी ॥ तेरे चरना दी धूलि साईं माथे उते लावां, करा मंगल साईंनाथ गुण तेरे गावां। साईं भक्ति पतंग वाली डोर, अम्बरा विच उडदी फिरा ॥ बड़ी मुश्किल दे नाल मिलेय मेनू तेरा दवारा है । मेनू इको तेरा आसरा नाले तेरा ही सहारा है । हुन तेरे ही भरोसे, हवा विच उडदी जावांगी, साईंया डोर हाथों छोड़ी ना, मैं कट्टी जावांगी ॥ ऐना चरना कमला नालो मेनू दूर हटावी ना । इस झूठे जग दे अन्दर मेरा पेचा लाई ना । जे कट गयी ता सतगुरु, फेर मैं लुट्टी जावांगी, साईंया डोर हाथों छोड़ी ना, मैं कट्टी जावांगी ॥ अज्ज मलेया बूहा आके मैं तेरे द्वार दा । हाथ रख दे एक वारि तूं मेरे सर ते प्यार दा । फिर जनम मरण दे गेडे तो मैं बच्दी जावांगी, साईंया डोर हाथों छोड़ी ना, मैं कट्टी जावांगी ॥ आज शिक्षक दिवस पर यदि मैं अपने शिक्षकों को याद करूँ तो सबसे पहले प्राइमरी विद्यालय के गुरसराय के सर्व श्री नाथूराम अहिरवार और बानपुर के नन्दराम बरार याद आते हैं। उच्च प्राथमिक या जूनियर हाई स्कूल के सर्व श्री मनोहर लाल पुष्पकार, रामशंकर द्विवेदी, हज़ारी लाल नामदेव, गंगेले जी की याद आती है। हाई स्कूल और इंटरमीडिएट के उस समय के शिक्षक भदौरा जी, अध्वर्यु जी का स्मरण है। स्नातक कक्षाओं के प्रोफ़ेसर जटाशंकर सर, हरिशंकर उपाध्याय सर, हर्ष कुमार सर, योगेन्द्र प्रताप सिंह सर, राजेंद्र कुमार सर, रामकिशोर सर, निर्मला मैडम, मीरा दीक्षित मैडम आदि बहुत याद आते हैं। एम ए के अध्ययन के दौरान प्रोफ़ेसर भगवत् नारायण शर्मा जी का संस्मरण नहीं भूलता और पीएचडी के गाइड प्रोफ़ेसर श्यामलाल यादव सर, आरबीएस कालेज के ही प्रोफ़ेसर वी के सिंह, सुषमा सिंह, उमा अवस्थी, युवराज सिंह की याद आती है। फिर अध्यापन काल प्रारंभ होता है। उससे पहले सचिवालय में सेवा करते हुए शिक्षक न सही, पर अपने वरिष्ठ सहकर्मी खूब याद आते हैं, ख़ान साहब, पंडित जी, जयप्रकाश, रणवीर आदि। अध्यापन काल में उरई के प्रोफ़ेसर दिनेश चंद्र द्विवेदी, आर एन शर्मा जी, वी के सिंह, कनिष्ठ शिक्षक साथियों के नाम नहीं दे रहे हैं। दूसरे कॉलेज के अनिल श्रीवास्तव सर, राजेंद्र कुमार सर, सत्य प्रकाश सर, आदित्य कुमार जी, फिर यहाँ ललितपुर में नेहरू महाविद्यालय के शिक्षकों में अपने विषय की प्रतिभा के दर्शन होते हैं। आप सब और हमारे होनहार छात्र छात्राओं को हार्दिक शुभकामनाएँ। ६/९/२३ पाँच में से किसी एक इंद्रिय को जय कर लेने से मन नियंत्रित होता है। कहीं कहीं दीक्षा ग्रहण के समय या तीर्थाटन पर कोई खाने पाइन की चीज छोड़ देने का संकल्प लेकर लौटते हैं। उससे मन एयर वासना पर नियंत्रण का अभ्यास होता है। मन पर नियंत्रण ब्रह्म में रमण करने की योग्यता तय करता है। ब्रह्मचारी बनाता है। खाने पीने की कोई चीज छोड़ देने का उतना प्रभाव नहीं होगा, जितना शब्द स्पर्श रूप रस और गंध इन पाँच तन्मात्राओं में से किसी एक को छोड़ देने का प्रभाव होगा। यहाँ तक कि इन तन्मात्राओं को ग्रहण करने वाली कर्मेन्द्रियों में से कोई एक न रहने पर उस व्यक्ति के भीतर विलक्षण प्रतिभा का दर्शन होता है। संसारोsयमतीव विचित्रः। यह संसार अति विचित्र है। मुझे याद नहीं कि प्रत्यक्ष संपर्क में आया कोई व्यक्ति हमसे सदा प्रसन्न रहा हो, कभी न कभी, पहले या बाद में वह नाराज़ अवश्य हुआ। वे चाहे संबंधी हों, परिवारीजन हों या मित्रजन। जब हम यह देख रहे हों कि संसार में हम किसी को ख़ुश नहीं कर पाते, फिर उसका जतन किसलिए! किसी का कुछ छीना नहीं, किसी को दबाया और सताया नहीं, पीड़ित और शोषित नहीं किया, धन संग्रह नहीं किया, जो हुआ वह स्वतः, अनायास और बिना भागम भाग के। फिर लोग परेशान क्यों रहते हैं! जो दूसरों को छल कर या भ्रष्टाचरण से जो कुछ अर्जित करते हैं, क्या उनसे उनके संपर्कीजन सदा प्रसन्न रहते हैं, हम जानते हैं, कदापि नहीं। यह तक के लिए कि वे जिनके लिये ऐसा करते हैं, वे भी नहीं। फिर कदाचरण क्यों! फिर प्रश्न उठ सकता है कि हम आख़िर करें क्या! हम प्रसन्न रहें, आनंदित रहें, और इतने कि वह छलकता रहे, आप किसी अन्य को प्रसन्नता और आनंद प्रदान नहीं कर सकते हैं, आपकी छलकन से वे यदि और जब चाहें तो प्रसन्न और आनंदित हो सकते हैं। पुष्पों के मानिंद, वे दूसरों की प्रसन्नता के लिए नहीं खिलते हैं, अलबत्ता कोई सौंदर्यग्राही उन्हें देखकर जब तब आनंदित हो जाता है। झाड़ी या पौधे से उगे फूल उसकी प्रेमपूर्ण तपस्या से खिलते हैं। अपनी बास बिखेरते हैं, यहाँ तक कि कोई उन्हें मसल दे तो भी अपने गुणों से पृथक् नहीं होते। नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च। यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥ मैं तत्व को भलीभांति जानता हूँ- मैं नहीं मानता और न मानता हूं कि मैं तत्व को नहीं जानता। तत्व को जानता हूँ या नहीं, ऐसा सन्देह भी नहीं है। हममें से जो कोई उस तत्व को जानता है, वही इस वचन के तात्पर्य को जानता है। केनोपनिषद 2/2 'केनेषितं पतति प्रेषितं मनः' "किसके द्वारा उत्प्रेरित होकर मन अपने विषयों पर नीचे उतरता है?" ७/९/२३ कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्। भगवान श्री कृष्ण जगद्गुरु हैं, जगद्गुरु की पात्रता समझनी हो तो कृष्ण को जानना आवश्यक होगा। कृष्ण हमारे योगक्षेम को वहन करने वाले हैं। उनकी ही शरण में जाने पर गंतव्य प्राप्त हो सकता है। कृष्ण कर्मयोगी हैं और उसी के लिए हम सबको अर्जुन बनाते हैं। ज्ञान, भक्ति और कर्म की त्रिवेणी का योग कृष्ण में होता है। इसीलिए वे योगेश्वर हैं, जहां योगेश्वर हैं वहाँ विजय होनी सुनिश्चित है। "येन केन प्रकारेण मनः कृष्णे निवेशयेत"- यह रूप गोस्वामी का निर्देश है। "किसी भी रीति-भाँति से मन को कृष्ण में स्थिर करो!" कृष्ण के जीवन से हमें प्रेमपूर्वक संघर्ष करना सीखने को मिलता है तो उनके गीतोपदेश से इससे पार जाने का उपाय प्राप्त होता है। रासलीला क्या है! यह हृदयंगम कर लेने पर उसका अर्थ विदित होता है। कृष्ण राधा और गोपियों के साथ रासलीला रचते हैं। यह प्रकृति के साथ पुरुष का सहचर है, जो वेदांतियों और शून्यवादियों से आगे का रस है।'लीला' भारतीय मनीषा का बीज शब्द है। अन्य भारतीय भाषाओं में इसके समानार्थी शब्दों की पड़ताल की जानी चाहिए। नीला और लीला ध्वनि विज्ञान के अनुसार एक ही शब्द होने चाहिए। परंतु दोनों के अर्थ अलग अलग प्रचलित हैं। नीला ब्रह्मांड का रंग है, लीला ब्रह्मांड की घटना पटीयसी है। इसी से लील जाना यानि निगल जाना शब्द विकसित हुए हैं। इस दृश्यमान जगत् को पचा जाना लीलना है। लीला अद्भुत शब्द है। लीला रचने वाले, उसे पचने वाले और पचाने वाले सब एक हैं। इसलिए लीला धारी की लीला का आनंद उठाना ही जीवन का ध्येय है। लीला में अपनी भूमिका का निर्वाह करना शरीर का गुणधर्म है। इस लीला का निर्देशक ईश्वर है, पर कैसे यह लीला या अभिनय किया जाना है, यह एक जीवन सत्य है, जो व्यक्ति को उपलब्ध करना है। नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव॥ आप सबको श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ। ८/९/२३ ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में मौर्य साम्राज्य के दौरान यूनानी इतिहासकार मैगस्थनीज़ भारत आया, उसने इंडिका नाम से इतिहास की दृष्टि से एक बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी। इंडिया नाम का आधार यही पुस्तक है। मैगस्थनीज़ ने इंडिया नाम सिंधु नदी के किनारे बसी सभ्यता को नाम देते हुए दिया था। सिंधु को यूनानी इंडस कहते थे। इसी सिंधु नदी के उच्चार कारणों से हिंदू शब्द का विकास फ़ारसियों द्वारा हुआ। कोई स्थान नाम देने के पीछे भौगोलिक और ऐतिहासिक मुख्य आधार होते हैं। इस तरह यह नाम देने में हीनता तो नहीं दिखती, परंतु इंडियन नाम का अर्थ ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी में पहली मीनिंग के रूप में अ पर्सन फ्रॉम इंडिया दिया हुआ है पर दूसरी मीनिंग ओल्ड फ़ैशंड, ऑफ़ेंसिव दी गई है। आपत्ति का मूल यहाँ से शुरू होता है। अब हम इंडिया नाम से पीछा तो नहीं छुड़ा सकते हैं, भारत एकमेव नाम देकर भी दुनिया के देशों में भारत का पढ़ाया जा रहा इतिहास कैसे बदला जा सकता है। इंडोनेशिया, वेस्ट इंडीज, रेड इंडियन जैसे देशों के दिए गए नामों के पीछे क्या निहितार्थ हैं! भारत नाम देकर भी हम अमेरिका के रेड इंडियन, और ऐसे नामों के अर्थ नहीं बदल सकते हैं। यद्यपि इंडिया ध्वनि मूल के इंडिजेनस शब्द का अर्थ बड़ा अच्छा है। इसका अर्थ स्वदेशी है। मूल स्थान से संबंधित होना इसका अर्थ है। संस्कृति के रूप में इंडिया मूलार्थवाची है। इस मूलावस्था को कतिपय इतिहासकारों ने ओल्ड फ़ैशंड और आक्रामक समझा। अतएव भारत का विकास सर्वविध होकर जो उसके बारे में जो हीन मान्यताएँ रखीं गयीं, उनका प्रतिस्थापन किया जा सकता है। अपने देश का भारत एकमात्र नाम देने से कोई हानि नहीं। इस नाम परिवर्तन का अर्थ यही माना जाना चाहिए कि कोई अप्रिय अतीत यदि इस देश के नाम से या इस नाम के मूल से किसी के मन में जुड़ा हो तो वह उसका परिमार्जन कर ले। दुनिया के दर्जनों देशों ने अपने नाम बदले हैं, यह कोई नया काम नहीं है. सांस्कृतिक कारणों से इंडिया नाम रखा गया, उसी कारण उसका नाम केवल भारत किए जाने की चर्चा है, इसमें क्या अस्वाभाविक है। संस्कृति कोई जड़ वस्तु तो है नहीं। नाम का कोई शब्द हो उसमे अर्थ भरने वाले उसके प्रयोक्ता व्यक्ति ही होते हैं। हमें उस अर्थ के प्रति सचेत रहना चाहिए.... १०/९/२३ बारिश के समय ध्यान करने से अनुभूतियों को सघनता मिलती है। बारिश के बीच पहले बिजली चमकती है, फिर मेघ गर्जन होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रकाश की सत्ता पहले है, ध्वनि की बाद में। ये दोनों इतने पूर्वापर हैं कि इनका क्रम भी सामान्यतः ज्ञात नहीं हो पाता। हैं तो यह दोनों एक ही, पर किसकी सत्ता पहले। बीज और वृक्ष की भाँति, शब्द और अर्थ तथा जल और उसकी लहर के संबंधवत इनका क्रम है। वस्तुतः प्रकाश की ही ध्वनि है और ध्वनि का ही प्रकाश है। शब्द अर्थ में भासित होता है और अर्थ शब्द में उपस्थित रहता है। जल से लहर पैदा होती है और वह लहर जल में ही विलीन हो जाती है। प्रकाश और ध्वनि के संबंध की भाँति बाद के स्तरों का नियोंजन होता रहता है, जिनसे जगत् व्यापार चलता है। मूल में प्रकाश ही है। जे पहुंचे ते कहि गए, तिनकी एकै बात। सबै सयाने एकमत, उनकी एकै जात।। 12/9/23 अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च |
निर्ममो निरहङ्कार: समदु:खसुख: क्षमी || 12-13||
सन्तुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय: |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय: || 14|| 13/9/23 ध्वनि सदा यथा नाम या शब्द ग्रहण नहीं हो पाती। शब्द कुछ बोला गया है ध्वनि कुछ ग्रहण की गई। अक्सर फेरी लगाने वाले जब अलग अलग स्टाइल से अपने उत्पाद बेचते हैं तो दूर से सुनने वाले कुछ का कुछ समझ लेते हैं। फेरीवाले यह स्टाइल जान कर प्रयुक्त करते हैं, जिससे ग्राहक सुनने और जानने की चेष्टा करे। नाम और रूप की श्रृंखला बनती है। जो ध्वनि है वह अव्यक्त नाम है। ध्वनि भी शब्द या नाम बाद में बनते हैं। ऐसी ध्वनि के बाद बने नाम का अर्थ या रूप बनता है। शिव अगर नाम है तो शक्ति रूप। यह क्रम सर्वत्र, सर्वरूप और सब कालों में है। शिव He is तो शक्ति She does हैं। अतः जहां शिव हैं, नाम है वहाँ शक्ति या रूप भी है। नाम बिना रूप के अनभिव्यक्त रहता है और रूप बिना नाम के बोधगम्य नहीं। अनभिव्यक्त रूप में नाम और रूप एक ही रहते हैं। शिव और शक्ति में पार्थक्य नहीं। नाम और रूप को क्रमशः शब्द और अर्थ, बीज और वृक्ष, अण्ड और मुर्गी की तरह भी ले सकते हैं। यह सैद्धांतिक बात हुई। अब प्रश्न इसकी व्यावहारिक समझ का है। इन दोनों के एकरूप होने और पार्थक्य होने, फिर एक होने की प्रक्रिया क्या है, यह कैसे घटित हो रही है। नाम अव्यक्त से व्यक्त स्वरूप में जब प्रकट होता है तो उसमें समाया हुआ रूप खुलने लगता है, जैसे किसी पौधे की कली से उसका फूल विकसित हो रहा हो। कली से विकसित फूल या बीज से उत्पन्न हो रहे अंकुर की ठीक ठीक प्रक्रिया को हम देख नहीं पाते, पर यह होता है यह तो जानते ही हैं। यही प्रक्रिया सतत् और सर्वत्र संचरित है, प्रतिक्षण घटित हो रही है। हम सब उस प्रक्रिया के घटक मात्र हैं। यानि हम प्रकृति हैं और इसे जो देखे वह पुरुष है। यह देखना लीला है। साक्षी भाव है। करुणा है, प्रेम है, आनंद है। शांति है। परम है। बोध प्राप्ति इसे ही कहते हैं। प्रत्येक जीव को बोध प्राप्ति के उपाय अपनाने की महती आवश्यकता है। जब और जिस भाँति मिले, सदा सचेष्ट रहना होता है। गुरु कृपा हि केवलं। उक्त विवरण में बहुत सी बातें नहीं कही गई हैं, कही भी नहीं जा सकती। उन बातों को ग्रहण करने का काम आपका है। बल्कि जो नहीं कहा गया, उसी को पकड़ना है। आप इस कहे हुए या अन्य कहे हुए के माध्यम से भी ऐसा कर सकते हैं, पर बोधव्य वही है। वस्तुतः बोधव्य प्राप्ति के बाद इस या उस कुछ रहता नहीं। दूसरे बोधि का कहा हुआ पहले बोधि के कहे से तत्व रूप में भिन्न नहीं होता, उनकी कहन अलग अलग अवश्य रहेगी। ishani sinh की फ़ेसबुक पोस्ट पर की गई टिप्पणी संतति का भाव आने पर काम की आवश्यकता समाप्त हो जायेगी। सब में सब हैं तो संतति भी है। परंतु उस संतान का उदय करना होगा। ऐसी संतान जब जन्म लेती है तो कोई सौतेला और पराया नहीं रह जाता। पितृ ऋण यह संतान उदय करके ही चुकता है। जिस प्रकार भूख लगने पर किसी न किसी प्रकार शरीर भोजन ले लेता है, उसी प्रकार पुत्र पुत्री आदि भी प्रकृति पैदा करवा लेती है। उसमें कोई विशेष बात नहीं। इसका कारण नितांत प्राकृतिक है। इसमें व्यक्ति का कर्तापन कुछ नहीं है। परंतु, संतति का भाव आने पर काम की आवश्यकता समाप्त हो जायेगी। उसका बाहरी लक्षण भी दिखता है जब पुत्र पुत्री जन्म होने के बाद पति पत्नी के बीच वैसे संबंध घट जाते हैं। वस्तुतः सब में सब बनकर आप जो विराजते हैं, उसका अवबोध संतान का उदय होना है। ऐसी संतान जब जन्म लेती है तो अयं निजः परोवेत्ति चला जाता है। पितृ ऋण यह संतान उदय करके ही चुकता है। पितृ ऋण इतना सस्ता नहीं, जैसा प्रायः ग्रहण किया जाता है। दूसरे को जन्म देने की वासना काम बन जाती है; और अपने को बचाने की वासना लोभ बन जाती है। जवानी की बीमारी, काम; बुढ़ापे की बीमारी, लोभ। १४/९/२३ हिंदी दिवस इस नाते मनाना अच्छा है कि इस दिन हिंदी के बारे में हिन्दी भाषा भाषी और हिंदीतर भारतीय भाषा भाषी व्यक्ति अपनी भावनाओं को व्यक्त कर लेते हैं। लोग हिंदी दिवस के कार्यक्रमों में हिंदी के प्रति अपनी वेदना व्यथा और गौरव गान करते हुए पाये जाते हैं। दोनों का अपनी अपनी जगह एक स्थान है। हिंदी को या तो एक सुदृढ़ स्थिति संवैधानिक राजव्यवस्था शुरू होने के समय मिल जाती, जिससे वह राजकाज चलाने योग्य समझ ली जाती। हमें भरोसा है कि अब तक की संचालित शासन व्यवस्था के बाद यह साबित भी हो जाता। या फिर अब उसका स्थान मिल जाये, जब वह अपने को अपनी प्रतिस्पर्धी भाषा से अधिक योग्य सिद्ध कर दे। हिंदी की प्रतिस्पर्धा अंग्रेज़ी से है, किसी अन्य भारतीय भाषा से नहीं। और हाँ अंग्रेजी से हिंदी की प्रतिस्पर्धा ही है, वैर नहीं। भाषाएँ तो वे खिड़कियाँ हैं जो हमारे भीतर प्रकाश का संचरण करने का निमित्त बनती हैं। निःसंदेह बाज़ार की दृष्टि से हिंदी बहुत संपन्न भाषा है। चीनी भाषा के बाद दुनिया में हिंदी सबसे अधिक बोली समझी जाने वाली भाषा है। परंतु बाज़ार के लिए बनी भाषा का भविष्य बाज़ार से ही निर्धारित होता है। भाषा की समृद्धि उसके साहित्य से तय होती है। अतः हम हिंदी साहित्य के गंभीर अध्येता बनें, हिंदी के प्रति आपकी सेवा हो जाएगी। १५/९/२३ ऊँचाई और गहराई देखने में दो हैं, वास्तव में वे एक वृत्त के दो सिरे हैं। इस वृत्त के जिस केंद्र पर आप होंगे, वहाँ से ही ऊँचाई और गहराई होगी। दोनों समान रूप में हैं। यह हमें समझना है कि हम कहाँ पहुँच रहे हैं। उस वृत्त को पूरा देख पा रहे या नहीं। वृत्त के पार तभी जा पाएंगे। हृदय की बात भारतीय वांगमय में बहुत आई है। पर यह का एक अंग विशेष मात्र नहीं। यह जागरूकता का केंद्र है। यह शरीर में सर्वत्र उपस्थित है। १६/९/२३ Bhairavī means, uninterrupted awareness. मरुतोऽन्तर्बहिर्वापि वियद्युग्मानिवर्तनात् । भैरव्या भैरवस्येत्थं भैरवि व्यज्यते वपुः ॥२५॥ विज्ञान भैरव Antar bahir, internally or outwardly (vāpi means “or”), internally or outwardly, marutaḥ, this energy of breath, when [it] is followed by two voids by returning back to two ethers, viyat yugma ānuvartanāt, by maintaining the uninterrupted awareness there–[that] means “bhairavyā”, by means of Bhairavī (Bhairavī means, uninterrupted awareness)–when You maintain uninterrupted awareness in these two voids (internally and externally; there is an internal void and an external void), ithaṁ, by this way of treading on this process (ithaṁ, by this way), bhairavasya vapuḥ vyajyate, the formation of the svarūpa [nature] of Bhairava is revealed (vyajyate). सर्वं सर्वेन भावितम् महान्‌ कलाविद आनन्द के कुमारस्वामी ने विद्यापतिपदावली की भूमिका में लिखा था कि जैसे रस का पर्यायवाची कोई शब्द अंग्रेजी में नहीं है , वैसे ही काम शब्द का भी कोई पर्यायवाची नहीं है ! सेक्स तो मनुष्य की जैविक-प्रवृत्ति को ही व्यक्त कर सकता है ! कमनीयता , कामना , काम्य जैसे शब्द भी तो काम शब्द के ही पारिवारिक हैं ! यदि काम सेक्स का ही पर्याय होता तो भला काम को पुरुषार्थ क्यों माना जाता ? भाषा और जीवन:::समग्र दृष्टिकोण ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ संसार की किसी भी भाषा का अध्ययन आप करिये , भाषा को वहाँ के जीवन और जीवन की निरन्तर परंपरा से या जीवन की अविच्छिन्न धारा से अलग करके नहीं समझा जा सकता ! भाषा का एक एक शब्द आपको अपने परिवेश की कहानी सुना सकता है ! एक एक शब्द का अपना भूगोल होता है , अपना सामाजिक- आर्थिक-सांस्कृतिक परिवेश होता है ! उस भाषा में किन किन संस्कृतियों की अन्तर्भुक्ति हुई है , क्यों उसमें अन्य संस्कृतियों से आगत शब्द हैं ? आदमी है तो उसके पास उसकी भाषा भी है , जो उस आदमी की जिन्दगी में समायी हुई है , आदमी चलता है तो उसके साथ उसकी भाषा चलती है , दो आदमी मिलते हैं तो दो भाषाएं भी मिल जाती हैं , एक आदमी शक्तिशाली है , दूसरे को प्रभावित कर सकता है तो उसकी भाषा भी दूसरे आदमी को प्रभावित करेगी ही ! इसी प्रकार से एक जाति दूसरी जाति से मिलती है तो उनकी भाषाएं भी मिल जायेंगी ! जो जाति जितनी उन्नत होगी , उसकी शब्दावली भी उतनी ही विस्तृत होगी ! उन्नत भाषा के शब्द अन्य भाषाओं में समा जायेंगे ! इस लिए भाषा को उन्नत करने का सवाल उस जाति को उन्नत करने से जुड़ा हुआ है ! जिस मानव जाति के ज्ञान में विज्ञान में नये नये पुरुषार्थ होंगे तो उसके पास भाषा का भी उतना ही बड़ा पुरुषार्थ होगा ! भाषा का इतिहास उस जाति का इतिहास होता है ! इतिहास के मोड़ भाषा को भी दिशा देते हैं ! विजेता जाति की भाषा पराजित जाति की भाषा को उसी अनुपात में प्रभावित करती है ! उदाहरण के लिये आप एक गाँव की ही बोली का अध्ययन करके वहाँ के समाजशास्त्र और अर्थव्यवस्था ,वहाँ की संस्कृति को समझ सकते हैं । राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी भारत का तत्वबोध स्पष्ट करता है कि इस विराट में कुछ भी विच्छिन्न नहीं है ।जैसे समुद्र में एक लहर से दूसरी लहर जुडी है, उसी प्रकार जीवन में सबकुछ सबकुछ से जुडा है ।भाषा ,कला , साहित्य ,संस्कृति,दर्शन,ज्ञान-विज्ञान में ऐसा कुछ भी नहीं है , जो उस समग्रता से भिन्न या विच्छिन्न हो । ज्ञान का आँगन एक है, वहाँ कोई लकीर नहीं है, यदि विश्वविद्यालयों ने बनायीं हैं तो वे उनकी सुविधा की बात है, ये कृत्रिम हैं , इनको हम नहीं मानते. हमको समझना है कि धरती और बीज के सम्बन्ध का मनुष्य पर और समग्र परिवेश पर क्या प्रभाव पड़ा? प्रो कपिला वात्स्यायन और प्रो राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी लोक और वेद की दोनों धाराओं में हमारे पास ज्ञानविज्ञान की अथाह संपदा है ,हमने मैथोडोलोजी [ अध्ययन-अनुसंधान की विश्वस्तरीय -प्रणालियाँ ] विकसित नहीं की ।-हम अपने ज्ञानविज्ञान की अथाह संपदा की महिमा का चाहे जितना कीर्तन करते रहें किन्तु जब तक हमारे पास आधुनिक और विश्वस्तरीय - मैथोडोलोजी नहीं होगी तब तक हम अपने ज्ञानविज्ञान की अथाह संपदा को विश्वस्तर पर प्रतिष्ठित नहीं कर सकेंगे ।"उधर पश्चिम के मनीषी अपनी अध्ययन-अनुसंधान की प्रणालियाँ विकसित करते चले गये । परंतु! विधियां अवैयक्तिक होती हैं। जबकि अनुभव वैयक्तिक। अनुभवप्रसूत ज्ञान की क्या बनी बनायी प्रणाली हो सकती है। फिर भी अनुभवों की गहनता और उनकी सामान्यता को लेकर प्रणाली का सिरा तो पकड़ा ही जा सकता है। यह चुनौती भारत विद्या और उसे पसंद करने वाले व्यक्तियों के लिए स्वीकार करनी चाहिए। पश्चिम ने विधियाँ बनायीं, उनसे उनका भौतिक जीवन आसान हुआ है, इसमें कोई संदेह नहीं। भारत यदि अपने अनुभव को विधियों में ढाल ले तो यह सर्वोत्तम स्थिति होगी। १७/९/२३ आजकल वृंदावन में एक संत स्वामी प्रेमानंद जी महाराज की रील और क्लिप्स खूब सुनने को मिल रही हैं। पीले वस्त्रों और मस्तक पर्यंत पीले तिलक लगाये स्वामी जी कोई कथा नहीं करते, बस भक्तों के चरित्र सुनाते हैं, संस्कृत और भक्ति के पद गाते हैं, उनकी व्याख्या करते हैं और नाम महिमा कहते हैं। वे वृंदावन और राधा दोनों की महिमा में आकंठ और सतत् निमग्न दिखते हैं। राधा जिन्हें उनके श्री राधाबल्लभीय संप्रदाय में श्रीजी और कृष्ण को प्रियालालजू कहते हैं। श्री राधाबल्लभ संप्रदाय १६वीं शताब्दी में श्री हितहरिवंश जू द्वारा प्रवर्तित हुआ, उस संप्रदाय के यह संत श्रद्धालुजन को बहुत प्रभावित कर रहे हैं। वे परम दशा को उपलब्ध हुए जान पड़ते हैं। उनके मुखारविंद से केवल भगवन्नाम महिमा सुनने को मिलती है, जो शास्त्रसम्मत और अनुभवसिद्ध है। वे राजनीतिक बातें कहते हुए नहीं सुने जाते। किसी से कोई याचना नहीं करते हैं और नाम साधना के अतिरिक्त न किसी को कोई प्रवृत्ति प्रदान करते हैं। उनके बड़े-बड़े पंडाल नहीं लगे होते। मुँह पर मास्क लगाए हुए ७-८ भद्र व्यक्तियों के साथ नियत समय पर प्रश्नोत्तर शैली में वे एकांत सत्संग करते हैं। उनकी दिनचर्या नियमित है। रात ढाई तीन बजे जब वृंदावन में सैर करने निकलते हैं, उनके आम दर्शन केवल तब ही हो पाते हैं। उनकी दोनों किडनियाँ ख़राब हो चुकी हैं। पर उनके भीतर करुणा और प्रेम जिस प्रकार हिलोरें भरता है और उबाल मारता है, उसके छींटे पाने की अभिलाषा हर श्रद्धावान के भीतर जागती रहती है। मेडिकल डॉक्टर तो उन्हें १७-१८ वर्ष पहले उनके मात्र डेढ़ दो वर्ष जीवन रहने की घोषणा कर चुके थे, पर तब से वे डायलिसिस पर चल रहे हैं। ऐसे अद्भुत संत के दर्शन करने की चर्चा हम अपने लोगों के बीच किया करते हैं, दर्शन जब हों जैसे हों, पर हमें उनके प्रवचन इंटरनेट के माध्यम से नित्यप्रति सुनने का अवसर मिल जाता है। हम सब श्रीजी और अपने अपने इष्टदेव से उनके मंगल स्वास्थ्य की कामना करते हैं। वे इसी तरह भारतजन को अपनी भक्ति प्रदान करते रहें। आज का दिन कुछ विशेष है क्या! सुबह के ध्यान me आचार्य शंकर की पंक्तियाँ याद आई इह संसारे खलु दुस्तारे कृपया पारे पाहि मुरारे.. फिर मोबाइल देखा तो फ़ेसबुक आज के दिन की तीन वर्ष पहले की यह पोस्ट स्मरण करा रहा था. संसारोsयमतीव विचित्रः। संसारीजन अपने सुख और दुःख में खींचते है। इनसे जब अपेक्षा रखेंगे तो नहीं मिलेगा, जब नहीं मांगेगे तो ज़बरदस्ती देंगे। ज्ञाते तत्वे कः संसारः #आत्मबोध_विमर्श - 40....अनु में अनंत 😇 ------------- * अनंत अनु में व्याप्त होता है। अनु है सबसे लघु और अनंत है सबसे बृहद्, 'अ' द्योतक है पूर्व/आदि काल का। 'न्' द्योतक है बहुवचन या अनंत का। 'उ' द्योतक है उर्ध्व लोक का। अर्थात्, * 'अनु' आदिकाल से ही उस अनंत को धारण करता ‌है, जिसका बोध उर्ध्वरेता ध्यान-योगी करता है ध्यान में, उर्ध्वलोक में। -- इस अनु को ही बिन्दु, अव्यक्त ब्रह्म, कहा गया है उपनिषद् में, जिससे सृष्टि का प्राकट्य, संचालन व लोप होता है। * यह प्रक्रिया निरंतर घटित होती रहती है ब्रह्मांड में। नवीन सूर्य (तारे) बनते रहते हैं अपने ग्रहमंडलों के साथ और उनका क्षय भी होता रहता है कालावधि पूर्ण होने पर। * पृथ्वी पर जगत् का प्रादुर्भाव सूर्य की रश्मियों से हुआ ‌है और ‌इसका लय भी होगा यथा समय। सूर्य को जगत् का आत्मा कहा गया है यजुर्वेद (7/42) में, यथा, "#सूर्य_आत्मा_जगतस्तस्थुषश्च" * 'अनु' का बोध ध्यान में जिस योगी को हो‌ जाता है, वह‌ जीवन्मुक्त हो जाता है, स्वयं की प्रकृति ‌का ‌स्वामी हो जाता है। -- स्वयं की प्रकृति के‌ स्वामी को पुरुष संज्ञा ‌से विभूषित किया गया है, पुरुष है पुर् + उष !! -- पुर् को‌ पंचभूतात्मक शरीर कहते हैं जिसमें जीव-आत्मा का वास है। जीव त्रिगुणात्मिका प्रकृति है अंत:करण चतुष्टय, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त, के साथ। * चित्त में वृत्तियों का, सूक्ष्म संस्कारों के रूप में, संचय ‌होता है। यह संस्कार कर्मफल हैं और जन्म-मृत्यु चक्र में बांधते ‌हैं जीव को। * ध्यान-योग, प्राणायाम आदि, के अनुशीलन से साधक-योगी सभी जन्म-जन्मांतरों की वृत्तियों का भोग करता है ध्यान में ही, जिससे वह कर्म में परिवर्तित नहीं होती हैं। इस तरह से चित्त निर्मल हो जाता है और होता है अपने चैतन्य स्वरूप में प्रतिष्ठित। -- यह चैतन्य स्वरूप ‌चित्त‌ ही आत्मा कहा जाता है, जो सदा अव्यक्त है और ‌बिन्दु स्वरूप में ही दीख पड़ता‌ है ध्यान में। * यह बिन्दु ‌उष् है, जिसके प्राकट्य को उषा कहा गया है ऋग्वेद में। ध्यान में भी उष् से आदित्य की प्रभा उदित होती है। आदित्य की रश्मियों से जगत् का, विश्व का, संसार का, संचालन संभव होता है। * आदित्य द्वादश हैं, जिनमें एक की संज्ञा विष्णु है। इसी आदित्य विष्णु के अवतार हैं श्रीराम व श्रीकृष्ण। धर्म की पुन: स्थापना के लिए, अधर्म का नाश करने के लिए, साधु पुरुषों, जो साधना में रत हैं, की रक्षा के लिए, आदित्य विष्णु का अवतार के रूप में आविर्भाव होता है जगत् में, जब अधर्मियों का प्रभुत्व स्थापित होने लगता है विश्व में। * श्रीमद्भगवद्गीता (4/8) का कथन है, "#परित्राणाय_साधूनां_विनाशाय_च_दुष्कृताम्। #धर्म_संस्थापनार्थाय_संभवामि_युगे_युगे"॥ * अनु भव, कि, अनु हो‌ जाओ, सर्वोत्तम आशिर्वाद होगा एक ब्रह्मगुरू का किसी योग्य ध्यान-योगी शिष्य के लिए !! #सुशील_जालान, 11.08.2021.😇 ------------ १८/९/२३ जगत्विख्यात महर्षि पतंजलि दूसरी से चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में हुए हैं। इनके तीन बड़े काम हैं योगसूत्र, पाणिनि के व्याकरण का भाष्य और रसायन विद्या।योग का जनक इन्हें कहा गया है। तमिल परंपरा में पतंजलि १८ सिद्धों में से एक हैं। यौगिक परंपरा में सर्प सोयी हुई शक्ति का प्रतीक है। पतंजलि ऋषि का स्वरूप साढ़े तीन वलय के भुजंग पर बैठे हुए मिलता है, जिसे सहस्र फ़नों से ढँका हुआ चित्रित किया जाता है। पतंजलि रहस्यपूर्ण ऋषि हुए हैं। इनके नाम और काम से भारत एक बनता है। उत्तर में अफ़ग़ानिस्तान से लेकर दक्षिण में तमिलनाडु तक यह पूज्य हैं। इनका अवतरण योग विद्या के प्रसार के निमित्त हुआ। एक छोटे सर्प के रूप में यह कुमारी माता गोनिका की अंजलि में गिरे थे, इसी से इनका नाम पतंजलि पड़ा। यह माता स्वयं शक्तिशाली योगिनी थी। पतंजलि को सहस्र मुखी शेषनाग या अनंत का अवतार माना जाता है। कश्मीर में अनंत भट्टारक पतंजलि से साम्य रखते हैं। इनके सर्प वलय भगवान विष्णु के कार्य किया करते हैं। नाग परंपरा में भी यह समादृत हैं। कल एक अंत्येष्टि संस्कार में ललितपुर के गाँव सैदपुर जाना हुआ, वहाँ लौटते हुए हमारे फूफा जी प्रबुद्ध अधिवक्ता अरविंद नायक जी ने नाग देव जी के नाम से तालाब किनारे प्रसिद्ध मंदिर के चलते चलते दर्शन कराये। पतंजलि का विग्रह घर में जो था, उसी से मिलता हुआ विग्रह उस मंदिर में है। योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन। योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि॥ I bow with my hands together to the eminent sage Patañjali, who removed the impurities of the mind through yoga, of speech through grammar, and of the body through medicine. वैदिक मान्यताएं उपसंहार (भाग 2) 88) उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत। (उठो, जागो, श्रेष्ठ पुरुषों से संपर्क कर, परमात्म- तत्त्व को जानो) यह हमारा सौभाग्य है कि हमने पृथ्वी के स्वर्ग सरीखे भूभाग भारतवर्ष में जन्म लिया तथा मां के दूध के साथ ही अमृतमयी वैदिक संस्कृति का पान किया। वैदिक (प्राच्य भारतीय) संस्कृति की महानता इसका आध्यात्मिक दृष्टिकोण है जो कण-कण में परमात्मा को एवं प्राणीमात्र में आत्मवत् तत्त्व को व्याप्त मानता है। यही आध्यात्मिक दृष्टिकोण इसे विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति तथा भारत को विश्व गुरु का सम्मान प्राप्त कराता है। इसी आध्यात्मिक दृष्टिकोण के कारण महर्षि मनु, औरंगजेब के बड़े भाई दारा शिकोह तथा विश्व विख्यात दार्शनिक मैक्स मूलर, शोपनहार, विल्ड्युरां, मार्क ट्वैन आदि भारत की भूरि भूरि प्रशंसा करते हैं : i) " एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवा:।। " --- मनुस्मृति 2.20 अर्थात इस देश में उत्पन्न हुए पूर्व जनों के विचारों से, पृथ्वी के सभी लोग अपने-अपने चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा प्राप्त करें। ii) " अध्यात्म विद्या के मैंने बहुत ग्रंथ पढ़ें, पर परमात्मा की खोज की प्यास कहीं नहीं बुझी। ... मैंने कुरान, तैरेत, इंजील, जबूर अधिक पढ़ें, उनमें ईश्वर संबंधी जो वर्णन है, उनसे मन की प्यास नहीं बुझी। तब हिंदुओं की ईश्वरीय पुस्तकें पढ़ी। इनमें उपनिषदों का ज्ञान ऐसा है जिससे आत्मा को शाश्वत शान्ति तथा सच्चे आनन्द की प्राप्ति होती है। " --- दारा शिकोह ( उपनिषदों के फारसी अनुवाद की भूमिका ) iii) " समस्त संसार में कोई भी अध्ययन इतना हितकर और इतना उन्नत करने वाला नहीं जितना कि उपनिषदों का अध्ययन। इनके अध्ययन ने मुझे जीवन में शान्ति दी है -- इनका अध्ययन मुझे मृत्यु समय भी शान्ति देगा। --- शेपनहार iv) " यदि कोई मुझसे पूछे कि गगन के किस भाग के नीचे मानव-मानस ने दैवी देन को पूर्णतः विकसित किया है, जीवन की गहन समस्याओं पर गंभीरता से विचार किया है तथा उनमें से कुछ का समाधान भी ढूंढा है, जो प्लेटो और कांट के अध्ययन - कर्त्ताओं का भी ध्यान आकर्षित करता है, मैं भारत की ओर संकेत करूंगा। " -- मैक्स मूलर ( इंडिया : वट कैन इट टीच अस ? - पृष्ठ 4 ) v) " भारत माता कई मायनों में हम सब की माता है।" -- विल्ड्युरां vi) " भारत मानव जाति का पलना है, मानव भाषा की जन्मस्थली है, इतिहास की मातृ , जनश्रुति की मातृमही एवं परम्परा की परमातृमही है। " -- मार्क ट्वेन vii) " हे प्रभो ! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत निवास को दे दो, क्योंकि वहां पहुंचकर मनुष्य जीवन मुक्त हो जाता है। " ‌ -- उमर बिने हश्शाम ( उपनाम : ' अबुल हकम '-- ज्ञान का पिता) / हज़रत मुहम्मद के चाचा ) ऐसी महान संस्कृति जो विश्व में सर्वाग्रगण्य है ,सम्मानित है, और जिसके प्रति विश्व में दिग्दर्शन कराने की प्रत्याशा है, इसे अक्षुण्ण रखने का दायित्व इसकी वर्तमान पीढ़ी का है। इस संस्कृति के जीवन मूल्यों को न केवल हमने अपने जीवन में डालना है, अपितु अपनी सन्तति के जीवन में भी इनका संचार करना है। यह एक पितृऋण है जिससे उऋण होने का केवल एक ही मार्ग है कि परम्परागत जीवन मूल्यों पर स्वयं चले एवं अपनी सन्तति को इस पर चलने के लिए प्रेरित करें। ऐसा न हो कि भविष्य में कोई चिंतक स्वामी विवेकानन्द की भान्ति भारतीय संस्कृति के प्रति वही पीड़ात्मक शब्द दोहराए जो उन्होंने रोम की महान् संस्कृति ( Roman Civilisation) के विषय में कहे थे : "Spider weaves the web where Caesar ruled." अर्थात् जहां सीज़र ने राज्य किया वहां आज मकड़े जाला बुन रहे हैं। कहने का भाव यह कि वह संस्कृति अब लुप्त-प्राय हो गई है। मिस्र में पांच सहस्र वर्ष से पिरामिड आज भी गर्व से सिर उठाए खड़े हैं ; पर दुर्भाग्यवश आज मिस्र के लोग रेखा गणित एवं शिल्प विद्या के उन रहस्यों से अनभिज्ञ है। प्राचीन मिस्र के मृतकों के शव आज भी अपने जीवित शरीर की आकृति का आभास करा सकते हैं परन्त दुर्भाग्यवश यह अद्भुत रहस्य भी मिस्र के लोगों को आज ज्ञात नहीं। वह संस्कृति भी लुप्त-प्राय हो गई है। यह हमारा सौभाग्य है के प्राचीन भारत की महान् संस्कृति के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। हमारी संस्कृति के आधारभूत मूल्य आज भी जन जनार्दन के मानस पटल पर समुचित प्रभाव बनाए हुए हैं। तभी तो किसी पाश्चात्य विद्वान ने कहा है : " Every Indian is a born philosopher." अर्थात् प्रत्येक भारतीय एक जन्मजात दार्शनिक है। स्वामी विवेकानन्द के निम्न शब्द जहां भारतीय सभ्यता की अमरता के प्रति आश्वस्त करते हैं, वहां इन पर निष्ठापूर्वक आचरण के लिए सावधान भी करते हैं : " भारतीय राष्ट्र को मिटाया नहीं जा सकता। यह अ-मृत रहा है और अ-मृत रहेगा, जब तक इसकी आत्मा इसका आधारभूत रहेगी ; जब तक भारतवासी अपनी आध्यात्मिकता को नहीं छोड़ देते।" निष्कर्ष वैसे तो हमने पूर्व सभी लेखों में इस महान् भारतीय संस्कृति का विस्तार से वर्णन किया है, फिर भी संक्षिप्त रूप में, इसका सारांश यहां देना संदर्भ संगत है। वैदिक संस्कृति के दो आधारभूत स्तम्भ है : यज्ञ और योग। यज्ञ का अर्थ केवल अग्निहोत्र या हवन नहीं है; यह केवल प्रतीकात्मक है। हर श्रेष्ठ कार्य जो मानव मात्र के कल्याण के लिए किया जाता है , वह यज्ञ है। गीता (5.25) आश्वस्त करती है: " लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणं.... सर्वभूतहिते रता:।" अर्थात जो लोग प्राणी मात्र के हित में कार्यरत रहते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं, ईश्वर का साक्षात्कार करते हैं। ऋग्वेद (10.26.5) का मंत्राश है : " ऋषि: स यो मनुर्हित:।" अर्थात ऋषि वह है जो मानव मात्र का हित करता है। यज्ञ की आत्मा है " इदन्न मम "-- यह मेरा नहीं है, सब कुछ ईश्वर का है। नि:स्वार्थ भाव से, त्यागभाव से परोपकार के कार्य करने चाहिए। यजुर्वेद का उपदेश है : " मनो यज्ञेन कल्पताम् ... आत्मा यज्ञेन कल्पताम्।" अर्थात् मन को , आत्मा को यज्ञ से पवित्र करो; पुष्ट करो। गीता (3.9) का उपदेश है : " यज्ञार्थात् कर्मणोsन्यत्र लोकोsयं कर्मबन्धन:।" अर्थात यज्ञ की भावना से, ईश्वर समर्पित भाव से किए गए कर्मों के अतिरिक्त कर्म करने से मनुष्य कर्मों द्वारा बन्ध जाता है। यज्ञभाव से किया कर्म, निष्काम कर्म है, कर्म योग है। योग की पद्धति ज्ञानयोग और भक्तियोग का समन्वय है। पूर्व लेख में हमने बताया कि योग भारतीय संस्कृति की कार्यशाला है। इस से सत्य के दर्शन होते हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने योग की परिभाषा इस प्रकार की है : " संयोगो योग: इति उक्तो जीवात्मपरमात्मनोरिति। " अर्थात् आत्मा और परमात्मा का संयोग योग कहलाता है। यज्ञ भी ईश्वर का रूप है : यज्ञो वै विष्णु:। यज्ञ और योग दोनों से इहलोक और परलोक, अभ्युदय व नि:श्रेयस की सिद्धि होती है -- सांसारिक सुख - सुविधाएं, मनोकामनाएं की पूर्ति होती है, तथा परम आनन्द व मोक्ष की प्राप्ति होती है। कालान्तर में जब यज्ञ और योग की अवहेलना होने लगी, त्याग यज्ञ का और तपस्या योग का प्रतीक बन गए। भारतीय संस्कृति त्याग और तपस्या की संस्कृति के रूप में जानी जाने लगी। अब योग पुनः अपनी आभा के साथ विश्व में प्रतिष्ठित होने लगा है। आशा है कि शीघ्र ही भोगवाद से संतप्त विश्व, " तेन त्यक्तेन भुंजिथा "-- (त्याग भाव से ईश्वर प्रदत्त साधनों का प्रयोग करो) के महत्त्व को पहचानेगा और तदानुसार प्रकृति संसाधनों का विवेकपूर्ण उपभोग करेगा और भातृभाव से प्रेरित होकर वंचितों की सहायता के लिए उद्यत होगा। किसी पाश्चात्य विद्वान का सटीक परामर्श है : " One should warm the hands without burning them." अर्थात् हाथों को गर्म करते समय ध्यान रखो कि वे जलें नहीं।" कहने का अभिप्राय यह कि भोग्य पदार्थों के असंयमित भोग से जहां आप अन्यों के लिए अभाव की स्थिति उत्पन्न करते हैं, आप अपना भी अहित करते हैं। त्याग और तपस्या की भारतीय संस्कृति के महत्त्व को रेखांकित करते हुए अमेरिकी दार्शनिक मार्क ट्वेन के शब्द अनुकरणीय हैं : " मानव इतिहास के इस सबसे अधिक भयावह काल में मुक्ति का एकमात्र उपाय प्राच्य हिन्दू जीवन पद्धति है।" अतः यह हमारा कर्तव्य बनता है कि हम इस महान् सांस्कृतिक निधि को, आध्यात्मिक जीवन पद्धति को, आगामी पीढ़ियों के लिए अक्षुण्ण रखें। तदर्थ आत्मविश्वास से, दृढ़ संकल्प होकर, हम अपने कर्तव्य का पालन करें। तभी भारत के विश्वगुरु बनने का सपना भी साकार हो पाएगा। विश्व तो हमारी ओर लालायित दृष्टि से देख रहा है परन्तु हमें भी तो अपनी संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिए कर्मठ होना होगा। ब्रिटेन देश के सम्मानित लार्ड फलिंच के भारत के प्रति श्रद्धाभाव स्वर्णिम अक्षरों में अंकित होने योग्य है : " हे भारत माता क्या हमारी सहायता नहीं करोगी ? हमारे प्रति सहिष्णु बनो, हम तुम्हारे ही पुत्र हैं। तू हमारे आविर्भाव से पहले उन्नति की चरम सीमा पर पहुंच चुकी हो। हमारा मार्ग घातक और सकण्क है, सहायता करो भारत माता। हम तुम्हारे वास्तविक वैदिक पुत्र, अपनी मातृभूमि पर टकटकी लगाए हुए हैं। हम मिलकर, संसार में पुनरुत्थान और नैतिकता के शक्तिपुंज बन सकते हैं।" -- लार्ड फलिंच ( यह वैदिक मान्यताएं की ' इति ' नहीं, आरम्भ है ! ) ................ पादपाठ 1) Oh India ! Will you not help us? Be patient with us, India ! Remember we are your children. You are old and learned and wise before we existed. Our path is steep and thorny. Help us, Mother India ! We, your real Vedic children, are turning our gaze to our motherland, together We can be come the great regenerating and moralising force of this world. --- Lord Flint. 2) " व सहबी केयाम फ़ीमकामिल हिन्दे यौमन। व यक़ुलून लातहज़न फ़इन्नक तवज्जरू।। " --- उमर बिने हश्शाम ( से अरुल ओकुल पृष्ठ 235) / ( बिरला मंदिर दिल्ली प्रस्तर लेख ) 3) " यूनान मिश्र रोमा सब मिट गए जहां से, अब तक मगर है बाकी नामोनिशान हमारा। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा।। -- मोहम्मद इकबाल 4) "The Indian nation cannot be killed. Deathless it stands and it will stand, so long as that spirit shall remain as the background , so long as her people do not give up their spirituality." --- Swami Vivekananda 5) Study the past if you would divine the future . ---Confucius भूतकाल का अध्ययन करो यदि भविष्य को दिव्य बनाना चाहते हो। -- कन्फ्युशस 6) Awake, arise or be forever fallen. --John Milton (The Paradise Lost ) जागो, उठो अथवा सदा के लिए गर्त में पड़े रहो। --- मिल्टन ( पैराडाइज लास्ट ) 7) " At this extremely dangerous moment in human history , the only way of salvation is the ancient Hindu way. --- Mark Twain ............ Its English version is available on our page The Vedic Trinity The Epilogue ( Part 2 ) 88) Arise, Awake, Approach the wise and Know Thyself. ............... Best Wishes Vidya Sagar Verma Former Ambassador ................ २०/९/२३ गणेश और हनुमान शुक्ल यजुर्वेद 23/19 में यह प्रसिद्ध और बहुप्रयुक्त ऋचा आई है... ॐ गणानांत्वा गणपति ग्वं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ग्वं हवामहे निधीनां त्वा निधिपति ग्वं हवामहे वसो मम । आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम् ॥ हे गणपते ! गणों के मध्य में गणों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं। हे प्रियों के मध्य में प्रियों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं । हे सुखनिधियों के मध्य में सुख निधियों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं । हे वसो! हे प्रजापते! व्यापक होकर संपूर्ण संसार में निवास करने के कारण आप मेरे पालक हों। जिस प्रकार पत्नी अपने पति को जानती है, उसी प्रकार मैं भी आपको जानूँ। मैं आपके निकट से निकटतर होता जाऊँ।। अधर पान करते हुए आपके शरीर के जीवन सत्व का रसास्वादन लूँ तथा आपके आत्मज को प्रकट करूँ। पञ्चप्राणों के पाँच सौम्य , और पाँच उग्र रूप -- दस महाविद्याएँ हैं। ये पञ्चप्राण ही गणेश जी के गण हैं, जिनके वे ओंकार रूप में अधिपति हैं। यहाँ उनके नाम के साथ श्री शब्द है जो रिद्धी सिद्धि का प्रतीक है। वे रिद्धी-सिद्धि के भी स्वामी हैं। वे परमात्मा के वाचक एकाक्षर ओंकार "ॐ" हैं, यानि वे प्रणव रूप में परमात्मा के वाचक हैं। ॐ ॐ विश्वास (शिव) एवं श्रद्धा (शक्ति) के संयोग से ज्ञानरूपी गणेश का प्राकट्य होता है। हनुमान" और "हनुमत" शब्द को समझने के लिए सब तरह के "मान" यानि अहंभाव से मुक्त होना पड़ेगा। अहंभाव से मुक्त हुये बिना न तो उनको समझ सकते है, और न ही उनके बीजमंत्र "हं" को। अहंभाव से युक्त रहते हुए -- तत्व की बात समझ में नहीं आयेगी। यह साधना का विषय है जो उनकी कृपा से ही हो सकती है। इसे समझना भी बहुत आवश्यक है क्योंकि हमें निज जीवन में राम जी को प्राप्त करना है। इसके लिए एक उच्चतर से भी अधिक उच्चतर चेतना में स्थित होना होगा जो उनके अनुग्रह के बिना संभव नहीं है -- "राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे"। यहाँ पैसारे का अर्थ प्रवेश है, न कि रुपया पैसा। २२/९/२३ ज्ञान को jnana तो लिखा ही जाता है। यह जानना और जागना भी है। jnana और ध्यान भी मिलते हुए पद हैं। 23/9/23 संन्यास (१) श्रुति ने "न्यास: ब्रह्म:" संन्यास को ब्रह्मस्वरूप कहा है । संन्यास क्या है ? क्रमानुसार इच्छाओं के त्याग का नाम संन्यास है । विष्णुसहस्त्रनाम में भी संन्यास विष्णु भगवान् के हजार नामों में एक नाम कहा गया है । वृहदारण्यक उपनिषद् के तीसरे अध्याय के पांचवें ब्राह्मण के भाष्य में भाष्यकार श्रीशंकराचार्य जी लिखते हैं कि जीव को जन्म-मरण रूपी बन्धन की प्राप्ति कारण सहित है ; इसका कारण अध्यास या भ्रान्ति है । यह अनेकों प्रकार का है , उनमें एक देहाध्यास है । इस अध्यास की निवृत्ति आत्मा-अनात्मा के विवेक सहित भोगों के उपरामता बिना नहीं होती । इस बन्धन-मुक्ति का साधन संन्यास सहित आत्मज्ञान है । अतः कौषीतकि ऋषि के पुत्र कहोल ने याज्ञवल्क्य जी से आत्मा के सम्बन्ध में पूछा , तब उन्होंने उत्तर देते हुए कहा --- "आत्मा सर्वान्तर है तथा सूक्ष्म तथा सर्वरूप है ।" कहोल ने पूछा --- "सर्वान्तर आत्मा कौन है ?" महर्षि उत्तर देते हैं --- "योऽशनायापिपासे शोकं मोहं जरां मृत्युमत्येति । एतं वै तमात्मानं विदित्वा ब्राह्मणाः पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति । या ह्येव पुत्रैषणा सा वित्तैषणा या वित्तैषणा सा लोकैषणा । उभे ह्येते एषणे एव भवतः । तस्माद्ब्रामणः पाण्डित्यं निर्विद्य बाल्येन तिष्ठासेत् । बाल्यं च पाण्डित्यं च निर्विद्याथ मुनिः । अमौनं च मौनं च निर्विद्याथ ब्राह्मणः । स ब्राह्मणः केन स्याद्येन स्यात्तेनेदृश एव । अतोऽन्यदार्तम् । ततो ह कहोलः कौषीतकेय उपरराम ॥" (वृहदारण्यक ३/५/१) "जो भूख-प्यास-शोक-मोह-बुढापा तथा मृत्यु का अतिक्रमण करता है , ब्राह्मण पुत्र-धन तथा लोक कामना का त्याग करके इस आत्मा को जानकर भिक्षावृत्ति (संन्यास) से निर्वाह करते हैं । जो पुत्र की इच्छा है , वही धन की इच्छा है , वही लोकेच्छा है ; यह तीनों ही इच्छायें जिसमें है ; उसका त्याग करके ब्राह्मण पाण्डित्य का त्याग कर बालभाव से युक्त हो । आत्मा का बल ही बालभाव है , मुनि पाण्डित्य मौन तथा अमौन का जो त्याग करता है , वह ब्राह्मण है । ब्राह्मण किससे होता था ? इसका उत्तर दिया । इसके अतिरिक्त सब मिथ्या है । महर्षि का यह वचन सुनकर कौषीतकिनन्दन कहोल मौन हो गये ।" इस मन्त्र पर आचार्य शंकर भाष्य करते हुए कहते हैं कि -- एक ही आत्मा तीनों भेदों से रहित अखण्डमण्डलाकार सर्वव्यापी होने पर भी तीन शरीर , प्राण की उपाधियों से दो प्रकार का है। एक ब्रह्मात्मा तथा दूसरा जीवात्मा । ब्रह्मात्मा देश-काल-वस्तु के परिच्छेद से रहित होने के कारण सुख-दुःख-भूख-प्यास-शीत-उष्ण-मोह-भय आदि से रहित है । जीवात्मा तीन शरीर की उपाधियों को प्राप्त करके जन्म-मरण , भूख-प्यास आदि की संग भ्रांति से प्रतीत होता है। २५/९/२३ जो क्षण की नवता का दर्शन करता है, उस तत्व का नाम सौंदर्य है। बिना चेतना के सौंदर्य दर्शन संभव नहीं और बिना सौंदर्य के चेतना नहीं। भीड़ का दर्शन समझना हो तो स्वतः स्फूर्त भीड़ का दर्शन करना चाहिए। ऐसे में भीड़ के बाहर नहीं, भीड़ का होकर रहना आवश्यक है। दर्शन की भीड़ बनना होगा। ग्यारस या एकादशी का समय कुछ अलग होता है, आज की एकादशी परिवर्तन की एकादशी है, डोल ग्यारस; जिसमें भगवान भी मंदिरों से बाहर आते हैं, विहार करते हैं, मानो वे भी इस भीड़ समाज में एकाकार होने को आतुर हों। ललितपुर में जल विहार दर्शन पहली बार हुआ है। यहाँ सायंकाल के तीन चार घंटे में ३०-४०००० से ऊपर श्रद्धालुओं का मूवमेंट होता है। घर से विमानों में भगवान की शोभा यात्रा निकाली जाती है। लोग विमान के नीचे से निकलने में अपना सौभाग्य मानते हैं। स्वतः स्फूर्त इस भीड़ के पीछे जो तत्व काम कर रहा है, उसका दर्शन करना ही भक्त का उद्देश्य है। भीड़ से पृथक कोई गोट गाने में मगन हैं तो कोई गीत और भजन में तो कोई मंच से पुकारने के लिए आतुर अपने अपने नाम में तो कोई इन सबको आत्मसात् करने में। ऐसे पर्वों पर नेपथ्य में अगर किसी विशुद्ध राग में राम धुन या शबद बजता रहे तो और अच्छा। गाँव में जलविहार के अवसर पर निकले विमान छेड़े जाते थे, पंद्रह पंद्रह दिनों तक भगवान किसी के घर अथवा सार्वजनिक स्थान पर विराजते, उनकी पूजा मंदिर की भाँति ही होती। इस पर्व को देखकर लगता है, भगवान को और न उनके भक्तों को किसी मंदिर भर का होकर रहना नहीं सुहाता। बल्कि भक्त उन्हें अपने धाम से ही उतार लाता है। सनातन धर्म की परंपरा ईश्वर को कितनी कितनी तरह से आत्मसात् कर लेती है, कोई अंदाज़ा नहीं है। २६/९/२३ सच्चे अर्थों में दानी कोई योगी ही हो सकता है। योगिजन मात्र दर्शन और स्पर्श करके ही अपने शिष्यों को बोधि प्रदान करते हैं। किसी को कुछ देना ही तो दान है। दान देने और लेने की पात्रता विकसित करना असल काम है। चेतनापूर्ण व्यक्ति, जो माया, गुण और गो पार हो गया, केवल वही दान देने का पात्र है। वह जो कुछ करेगा, वह दान देना होगा। दान देने के अतिरिक्त और कुछ उसके जीवन का ध्येय नहीं। दानमात्मज्ञानं। दूसरी तरफ़ दान लेने की भी पात्रता विकसित करनी पड़ती है। जो यज्ञ कर्म क्या हैं, यह जानने की ओर बढ़ गया हो। जो साधक प्रयत्न करने के लिए उद्यत हुआ हो। दृश्य ही शरीर है, यह जानकर जिसने शरीर को हवि बना लिया हो। मातृका चक्र का संबोध प्राप्त किया हो। और सबसे बड़े उपाय के रूप में जिसने गुरु तत्व को मान लिया हो। गुरूरूपायः। २७/९/२३ कामना कल्पना से उत्पन्न होती है, इसका मूल स्वर असंतोष है। सारे फ़साद की जड़ यही है। बल से ही बालक बनता है। बालक वह जो बल संपन्न हो। बल की उपासना करने के लिए कहा गया है, जिससे बालक तैयार हों। ‘नास्ति सांख्य समं ज्ञानं , नास्ति योग समं बलं ‘। महाभारत ।योग को पहले हिरण्यगर्भ शास्त्र कहा जाता था। नास्ति मायासमं पापं नास्ति योगात्परं बलम् । नास्ति ज्ञानात्परो बन्धुर्नाहंकारात्परो रिपुः।। अर्थ- माया के समान दुनिया में कोई पाप नहीं और योग के समान दुनिया में कोई शक्ति नहीं। ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई बन्धु नहीं और अहंकार से बढ़ कर कोई शत्रु नहीं। ( घेरण्ड संहिता ।।4।।) 28/9/23 प्रस्तुत चित्र पांडव वन धाम के हैं, जिसे यहाँ पांडवन कहा जाता है, लोकमान्यता है कि पाण्डवों ने अपने वनवास काल में यहाँ समय बिताया था। एक रमणीक, पूर्णतः निर्जन और सुरम्य स्थान। कामायनी के शब्दों में ... मधुर विश्रांत और एकांत— जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन और चंचल मन का आलस्य! ललितपुर के दक्षिणी सीमांत गाँव पारौल से पाँच किमी ऊबड़ खाबड़ पहाड़ी रास्ते से होकर यहाँ कठिनाई से पहुँच पाते हैं। रास्ते की यह कठिनाई अगर न हो तो यहाँ की प्राकृतिक रमणीयता भी जाती रहे। इस रमणीयता को निर्दोष रखने की दृष्टि से एकांत और दूर के स्थानों पर सड़क या पहुँच मार्ग बनाने की आवश्यकता नहीं लगती। जहां तक बस्ती है, सड़कें वहीं तक बनें और अच्छी दशा में बनी रहें। विंध्याचल की पहाड़ियों से होकर जामनी नदी ज़िले की सीमा में सागर से आती हुई पांडवन से प्रवेश करती है। इसी नदी पर ऊपर सागर ज़िले में सुंदर दृश्यावलित कनकद्दर जल प्रपात है, जिसके चित्र कुछ दिन पूर्व साझा किए गये हैं। पांडवन ज़िला मुख्यालय से ६५-६६ किमी दूर दक्षिण में है। घने जंगलों और पहाड़ों के बीच यह स्थान है, पर जंगली जानवरों की आमद नहीं देखी जाती, पहले अवश्य रहे होंगे। कुछ लोगों ने कहा आपको वहाँ स्थानीय लोगों को लेकर जाना चाहिए। यहीं पास में जामनी बांध बना हुआ है। जामनी बेतवा की प्रमुख सहायक नदी है। बेतवा नदी पर ज़िले के पश्चिम में पहले राजघाट और फिर पश्चिमोत्तर में माताटीला बांध बने हैं। बेतवा बुंदेलखंड की प्रमुख नदी है, इसे बुंदेलखंड की सुरसरि कहा गया है। इसी नदी पर आगे झाँसी में पारीछा बांध बना है। हमीरपुर के पास बेतवा यमुना में मिल जाती है। जामनी ललितपुर जनपद की प्रमुख नदी है। बेतवा की यह प्रमुख सहायक नदी है। बेतवा ललितपुर ज़िले के किनारे से उसकी अशोकनगर और शिवपुरी मध्य प्रदेश की सीमा रेखा बनाती हुयी झाँसी और ओरछा की तरफ़ जाती है, जबकि जामनी या जामने ज़िले के बीच से होकर गुजरती है और पूर्व दिशा में टीकमगढ़ ज़िले की सीमा भी निर्धारित करती है। यह झाँसी में सुकवाँ ढुकवाँ बांध से पहले बेतवा में विलीन हो जाती है। जामनी नदी को ज़िला ललितपुर की गंगा कह सकते हैं। सदियों से ऐसी मान्यता है कि जामनी नदी का पानी फसलों पर छिड़कने से रोग व कीड़े नहीं लगते। जामनी बांध के अतिरिक्त इसी नदी पर एक और बांध भौरट में बन रहा है। इससे १६ हज़ार हेक्टेयर से अधिक भूमि की सिंचाई हो सकेगी। १२ हज़ार से अधिक किसानों को लाभ मिलेगा। १३ गेट लग चुके, १३ और लगने हैं। यह डबल गेट प्रणाली का बांध होगा। जामनी नदी के अतिरिक्त इसकी सहायक नदी सजनाम पर सजनाम और कचनौदा बांध बने हैं। सजनाम नदी चंदावली गाँव के पास जामनी में मिल जाती है। ललितपुर शहर से होकर शहज़ाद नदी पर शहर का गोविंद सागर बांध है तो और आगे हर्षपुर के पास शहज़ाद बांध है। शहज़ाद नदी भी जामनी में ज़िले के हजारिया गाँव के पास जाकर मिलती है। इसी जामनी में छोटी सी नदी जमडार भी कुंडेश्वर के पास अजयपार में मिलती है। जिसको प्राचीन काल में अजय अपार कहा जाता था। ऐसा इसलिए कि यहां पर कभी भी पानी की मात्रा कम नहीं होती थी। यह स्थान घने जंगलों के बीच है जिसके कारण यहां कई गुणकारी औषधियां भी पाई जाती हैं। समय के साथ आसपास का जंगल खेतों में बदल गया किंतु अभी भी नदी के किनारों पर कई औषधीय पौधे हैं। जमडार के मुहाने की यात्रा प्रसिद्ध साहित्यकार-पत्रकार राज्यसभा सदस्य बनारसीदास चतुर्वेदी ने की थी। वे प्रसिद्ध मधुकर पाक्षिक पत्र का कुंडेश्वर में रहते हुए संपादन करते रहे हैं। ललितपुर जनपद में उक्त बाँधों के अतिरिक्त उटारी नदी पर सूरी कलाँ गाँव के पास उटारी बांध, सजनाम नदी पर चंदावली गाँव के पास भावनी बांध, कुम्हेडी गाँव के पास जमड़ार बांध और मडावरा क्षेत्र में धसान की सहायक नदी रोहिणी पर रोहिणी एवं लोअर रोहिणी बांध निर्मित हैं। इस प्रकार ललितपुर ज़िले में शासन द्वारा निर्मित तेरह बांध/जलाशय हैं। भौरट में निर्माणाधीन बांध चौदहवाँ होगा। बाँधों की बहुतायत के कारण ललितपुर को बाँधों का ज़िला कहा जाता है। कोई नदी किसी एक जलधारा का परिणाम नहीं होती, उसमे कई छोटी छोटी जलधाराएँ एकमेक रहती हैं। छोटी छोटी जलधाराएँ जो नदी बनकर धरती पर सरकती है, कोई धारा भूमिसात् हो जाती है तो कोई और बड़ी नदी में जाकर मिल जाती है और अंततः सभी नदियाँ समुद्र में जाकर मिल जाती हैं। आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्। २९/९/२३ नदी बेतवा तीरे .... जखौरा से आगे बेतवा के मध्य करकरावल या ककरावल स्थान है। बेतवा यहाँ कई टापुओं में विभक्त हो गई है। यह स्थान नाम बेतवा के जलप्रवाह से हुए चिकने उसके बड़े बड़े पत्थरों के कारण पड़ा। पत्थर को यहाँ ककरा बोलते हैं। नदी का तेज बहाव है। जलप्रवाह एक अपूर्व और विलक्षण लय पैदा करता है। हर महाभूत तत्व का अपना नाद है। सहरिया या सौंर आदिवासी यहाँ अपने पूर्वजों का अस्थि विसर्जन करते है। उन्हीं के किशोर बच्चे मिल गये, वे अपने साथ रास्ता बताते हुए ढाई तीन किमी लंबे ऊबड़ खाबड़ पथरीले और अनिर्मित पथ से नदी की दूसरी धारा में ले गए। नदी के एक पाट से दूसरी धारा तक पहुँचने में एक घंटा लग गया। हम लोगों को यह रास्ता विदित नहीं था। ये बच्चे राहुल और सचेंद्र न मिलते तो वहाँ पहुँच भी न पाते। इनमे एक आठवी तक पढ़ा है, दूसरा नहीं पढ़ा। बताया इंदौर में बड़ी गाड़ी चलाता है। वापसी में वे बच्चे तैर कर आ गए। हम लोगों को उसी रास्ते आना पड़ा। यहाँ नर्मदा नदी के भेडा घाट की भाँति एक धारा से दूसरी धारा के बीच नाव या स्टीमर चलाकर पर्यटन विकसित हो सकता है। यहाँ नदी, पहाड़ और जंगल का संगम हुआ है। नदी ने अपनी गोद में पहाड़ और जंगल को समेट लिया है। नदी के बीच से चलकर पैदल पहुँचना एक अडवेंचरस यात्रा होती है, जैसा नीचे दिए चित्रों में देखा जा सकता है। 30/9/23 कोई ध्वनि अनाहत नहीं है। अनाहत जिसे हम समझते हैं, वह प्रकाश से टकराकर पैदा होती है। प्रकाशोदय भी ईश्वर और अव्यक्त से होता है। पंचमहाभूतों की ध्वनियाँ भी आहत स्पष्ट ही हैं। वे आपस में टकराने से उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु में आकाश रहता है। आकाश में मन और इसी प्रकार आगे क्रमशः।