Thursday, November 30, 2023

नवंबर २३

१/११/२३ महाभारत के शान्‍ति पर्व में वर्णित है - ‘‘ मैं रुद्र नारायण स्‍वरूप ही हूँ। अखिल विश्‍व का आत्‍मा मैं हूँ और मेरा आत्‍मा रुद्र है। मैं पहले रुद्र की पूजा करता हूँ। आप अर्थात्‌ शरीर को ही नारा कहते हैं। सब प्राणियों का शरीर मेरा ‘अयन' अर्थात्‌ निवास स्‍थान है, इसलिए मुझे ‘नारायण' कहते हैं। सारा विश्‍व मुझमें स्‍थित है, इसी से मुझे ‘वासुदेव' कहते हैं। सारे विश्‍व को मैं व्‍याप लेता हूँ, इस कारण मुझे ‘विष्‍णु' कहते हैं। पृथ्‍वी, स्‍वर्ग एवं अंतरिक्ष सबकी चेतना का अन्‍तर्भाग मैं ही हूँ, इस कारण मुझे ‘दामोदर' कहते हैं। मेरे बाल सूर्य, चन्‍द्र एवं अग्‍नि की किरणें हैं, इस कारण मुझे ‘केशव' कहते हैं। गो अर्थात्‌ पृथ्‍वी को मैं ऊपर ले गया इसी से मुझे ‘गोविन्‍द' कहते हैं। यज्ञ का हविर्भाग मैं हरण करता हूँ, इस कारण मुझे ‘ हरि' कहते हैं। सत्‍वगुणी होने के कारण मुझे ‘सात्‍वत' कहते हैं। लोहे का काला फाल होकर मैं जमीन जोतता हूँ और मेरा रंग काला है, इस कारण मुझे ‘कृष्‍ण' कहते हैं। '' 4/11/23 परमपिता अव्यक्त है, वह काम तत्व है, इच्छा में निवास करता है, परंतु उसे मूर्तमान् होने के लिए माता के गर्भ से आना होगा, इसलिए वैयाकरणों ने पितासूचक शब्दों को पहले स्थान दिया है। पुलिंग सूचक शब्द व्याकरण में पहले गिने गये हैं, स्त्रीलिंग शब्द बाद में। काम तत्व के बाद विष तत्व आता है। विष वह जो व्याप्त हो। काम जब सिर चढ़ जाता है तो वह विष बन जाता है, पर इस विष में जो सदा अवस्थित हो जाए, वह निरंजन हो जाता है, अन्यथा विष रूपी विश्व में ही रहने को विवश रहता है। ५/११/२३ Rashmi Bhardwaj की पोस्ट पर ... एक साधक और उपासक के भीतर क्षमा भाव होना अत्यावश्यक है, अन्यथा अहिंसा की रक्षा नहीं होगी और अहिंसा के बिना सत्य की उपलब्धि नहीं होगी। हाँ! डॉक्टर की गलती अवश्य है, पर उसका निर्णय सभ्य समाज को करना चाहिए। ७/११/२३ रात्रि में लगा एक सर्प अंडरवियर में अंडकोष से सटकर घुस गया। उसकी ठंडक का अहसास हुआ, अब उसके डसने की आशंका होने लगी, अपने को ध्यान में समय की अवस्था में ले जाने लगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। फिर सो गया। जाग़ने पर अंडरवियर से ही कागज का गत्ता निकाला, उसमे से सर्प बाहर निकल गया। वास्तव में ऐसा कुछ नहीं था। स्वप्निक अनुभूति , पर ध्यानमय। ध्यानमंगलम्। ८/११/२३ ध्यान अवस्था से पूर्व या उसके दौरान कभी कभी विचारों के प्रवाह के क्रम में हल्की सी घुटन, संत्रास या मानसिक पीड़ा होने लगती है, पर यह स्थिति आँख खोलने पर जाती रहती है और ध्यान जैसा आनंद आँख खुले होने पर मिलता है। अतएव ध्यान में आँख खुली रह सकती है, बंद रह सकती है। ध्यान एक अवस्था है, जिसमें हम काम करते हुए, उससे उपराम होकर किसी भी स्थिति में रह सकते हैं, किंतु होश रहना अपरिहार्य है। जागरण के बिना ध्यान का ज्ञाता और भोक्ता कौन होगा, भुक्ति या दृश्य कैसे निर्मित होगा। यह दृश्य लीला है, अहैतुक आनंद है। १०/११/२३ दुनिया भर के लिए काम ऊर्जा एक टैबू बना हुआ है, यह एक ऐसा कौतुक है, जिसके घेरे में मनुष्य घिरा ही रहता है। इससे बाहर आने के लिए काम शिक्षा पर बल दिया जाता है, वह बस इतनी ही है न कि स्त्री और पुरुष के समागम से संतान का जन्म तय होता है। xx गुणसूत्र से पुत्री और xy से पुत्र निर्धारित होता है, परंतु इन गुणसूत्रों को नियंत्रित या परिवर्तित नहीं किया जा सकता। समागम का डिटेल पढ़ाने की आवश्यकता नहीं है, वह प्रकृति स्वयमेव ज्ञात करा देती है। अपने प्राकृत रूप में यह काम ऊर्जा बड़ी रहस्यपूर्ण है। यह वह राधा है, जिसकी धारा में व्यक्ति को बहना होता है। इस प्रवाह में विष है जिससे विश्व बनता है और वह व्याप्ति भी है, जो ज्ञान का हेतु बनता है। इस रहस्य में विश्व और ब्रह्मचर्य दोनों निहित हैं। विश्व में यह विष व्याप्त हो रहा है और यही विष ब्रह्ममय होकर व्यक्ति को ब्रह्मचारी बनाता है। काम सर्वथा जैविक नहीं है। अगर यह भूख प्यास की भाँति होता तो इसके बिना व्यक्ति के प्राण छूट जाने चाहिए, परंतु ऐसा नहीं देखा जाता। भूख और प्यास के कारण व्यक्ति कालकवलित हो जाते हैं। पश्चिमी जगत ने इसे जैविक मानकर हल्का करने का प्रयत्न किया है, परंतु यह उतना हल्का भी नहीं है, न यह इतना त्याज्य विषय ही है कि इसे गर्हित मान लिया जाये। काम पुरुषार्थ चतुष्ट्य में आता है। इस चातुष्ट्य में काम की व्याप्ति सेक्स जैसी सीमित नहीं है। सेक्स को काम का अनुवाद के रूप में लिया जाता है, पर यह अनुवाद पूरा अर्थ व्यक्त नहीं करता है। हिंदी के कतिपय शब्दों के अनुवाद अंग्रेजी में यथारूप नहीं जा पाते हैं, रस , धर्म, ध्यान इत्यादि ऐसे ही शब्द हैं। काम वह ऊर्जा है, जो व्यक्ति को संचालित करती है, गतिमान रखती है। निर्माण प्रक्रिया का यह प्रथम सोपान है, उद्गम है। हिंदी के ही इच्छा शब्द के माध्यम से इसे अधिक निकट भाव में समझा जा सकता है। शैव ग्रंथों में आता है इच्छा कामं विषं ज्ञानं क्रिया देवी निरंजनम्। यह काम जब अहैतुक हो जाए तब प्रेम का उदय होता है। प्रेम की आत्यंतिक शर्त अहैतुक होना ही है। असल प्रेम के बाद ही आनंद प्राप्त होता है। जिसमें किसी पर कब्ज़ा करने का भाव भी नहीं रह जाता। यहाँ पहुँचने पर सब जैविक मात्र रह जाता है। मात्र दर्शन ही बचता है। दृष्टा और दृश्य उसमें अंतर्लीन हो जाते हैं। अपितु कौन दृष्टा है, कौन दृश्य है और क्या दर्शन है, इसका भेद भी नहीं रहता। धन वही जो हमें धन्य करे। अर्थ वह जो शब्द को प्रकाशित करे। वित्त जो चित्र वितान का प्रसार करे। मुद्रा वह जो चित्त को मुदित करे। धातु व्यक्ति को धारण करने वाला तत्व है। जो समस्वर करे, वह संपदा है। सम में हमें जो स्थापित करे, वह संपत्ति है। श्री, लक्ष्मी आदि भी धन के रूप हैं। अष्ट संपदा कही गई है... १-हमारे मूल का ज्ञान, स्रोत का ज्ञान हो जाना ही आदि लक्ष्मी है। २-धन का सदुपयोग करके उसका सम्मान होता है। यह धनलक्ष्मी है। ३-आप लक्ष्मी और सरस्वती के चित्र देखते हैं तो आप देखेंगे कि लक्ष्मी को ज्यादातर कमल में पानी के उपर रखा है। पानी अस्थिर है यानी लक्ष्मी भी पानी की तरह चंचल है। विद्या की देवी सरस्वती को एक पत्थर पर स्थिर स्थान पर रखा है। विद्या जब आती है तो जीवन में स्थिरता आती है। विद्या का भी हम दुरुपयोग कर सकते हैं। सिर्फ पढ़ना ही किसी का लक्ष्य हो जाए तब भी वह विद्या लक्ष्मी नहीं बनती। पढ़ना है, फिर जो पढ़ा है उसका उपयोग करना है तब वह विद्या लक्ष्मी है। ४-धन तो है मगर कुछ खा नहीं सकते - रोटी, घी, चावल, नमक, चीनी खा नहीं सकते। इसका मतलब धन लक्ष्मी तो है मगर धान्य लक्ष्मी का अभाव है। गांवों में आप देखें खूब धान्य होता है। वे किसी को भी दो-चार दिन तक खाना खिलाने में संकोच नहीं करते। धन भले ही ना हो पर धान्य होता है। ५-जिस मात्रा में धैर्य लक्ष्मी होती है उस मात्रा में प्रगति होती है। चाहे बिजनेस में हो, चाहे नौकरी में हो। धैर्य लक्ष्मी की आवश्यकता होती ही है। ६- जिस संतान से तनाव कम होता है या नहीं होता है वह संतान लक्ष्मी है। ७- कुछ लोगों के पास सब साधन, सुविधाएँ होती हैं, फिर भी किसी भी काम में उनको सफलता नहीं मिलती। सब-कुछ होने के बाद भी किसी भी काम में वो हाथ लगाएं, वह चौपट हो जाता है। काम होगा ही नहीं। यह विजय लक्ष्मी की कमी है। ८- कुछ लोगों के पास सब साधन, सुविधाएँ होती हैं, फिर भी किसी भी काम में उनको सफलता नहीं मिलती। सब-कुछ होने के बाद भी किसी भी काम में वो हाथ लगाएं, वह चौपट हो जाता है। काम होगा ही नहीं। यह विजय लक्ष्मी की कमी है। यह आठ प्रकार के धन सभी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं प्रत्येक व्यक्ति में यह आठ धन अधिक या कम मात्रा में होते हैं। १२/११/२३ सूर्य, चंद्र और तारे प्रकाश देते हैं, सदा अस्तित्वमान रहते हैं. पर दीपक अनथक प्रकाश देता है और प्रकाश देते हुए वह स्वयं को अर्पित कर देता है. यह जलता हुआ दीपक जीवन का प्रतीक है. जलते हुए दीपक में जैसी अस्थिरता है, उसी की भाँति हमारा जीवन चलता है.  दीपक की बाती इच्छा का प्रतीक है. दीपक की लौ का शीर्ष भाग ज्ञान का तो उसका ऊष्म भाग प्रेम और भक्ति का प्रतीक है. यह ऊष्मा दीपक में तेल या घी के स्नेह से आती है। ज्ञान भाग में ही हमारे गुरुदेव निवास करते हैं. चिंगारी लगाने वाले तो वही हैं। दुष्यंत कुमार कहते हैं.... एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो इस दिए में तेल से भीगी हुयी बाती तो है! सत्याधारस्तपस्तैलं दयावर्ति: क्षमाशिखा । अंधकारे प्रवेष्टव्ये दीपो यत्नेन वार्यताम् ॥ दिए की दीवट सत्य की हो, उसमें तेल तप का हो, उसकी बत्ती दया की हो और लौ क्षमा की हो। दीपक को यत्न पूर्वक वारना है, क्योंकि उसे अंधकार में प्रविष्ट होना है। दिया बारा जाता है, यह बारने की क्रिया विलक्षण है, यह अंग्रेज़ी में बर्न हो गई, बिहार में गाते हैं जगदंबा घर में दियरा बार अईनी हे! बुंदेली ब्रज में गाया जाता है गिरधारी मोरो बारो गिर न परे, इसमें बारो का अर्थ छोटा है, जिससे उसे संभालने का आशय इस पद में है। तिब्बतियों के यहाँ बारदो अनोखा कर्मकांड है। मृत्यु के समय आत्मा का संक्रमण इस विधि से कराया जाता है। बुंदेली में दिया को उजियारना कहते है, यह अधिक समीप का भाव है, उज्ज्वल करने का आशय इससे ग्रहण होता है। जलाने की क्रिया तो नष्ट करने के लिए भी प्रयुक्त होती है, उजियारना नष्ट करना नहीं, वरन् आलोकित होना है। राम-नाम-मनि-दीप धरु, जीह देहरी द्वार। ‘तुलसी’ भीतर बाहिरौ, जौ चाहसि उजियार॥ p दीपपर्व हम सबको आलोकित करे। शुभकामनाएँ🙏🌹 बहिरंतः स्फुरज्ज्योतीरत्न कुंभ प्रदीपवत्। स्वप्रकाशात् यथैवैकं स्वरूपमात्मनस्तथा॥ यो वा ९-१८ Just as a big lamp kept inside a vessel made of precious stones illumines by its light both outside and inside, so also the one Self illumines (everything). श्रीराम-सदृश:शिष्य: वशिष्ठ-सदृशो गुरु:। वाशिष्ठ-सदृशं ज्ञानं न भूत़ो न भविष्यति।। बहिः कृत्रिम-संरम्भो हृदि संरम्भवर्जितः। कर्ता बहिरकर्तांतर्लोके विहर राघव ॥ यो वा ७-१ interpretation1- Dear Raghav! you roam around the world being free from effort inwardly while apparently energetic outside, keeping the strong conviction of non-doership within while behaving outwardly as doer. 2 O Raghava, be outwardly active but inwardly inactive, outwardly a doer but inwardly a non-doer, and thus play your part in the world. अंतः संत्यक्तसर्वाशो वीतरागो विवासनः । बहिः सर्वसमाचारो लोके विहर राघव॥ यो वा ७-२ interpretation 1- Dear Raghav, you roam around in this world performing all types of actions outwordly, being free from all types of hankering, bereft of longing for all worldly objects, and devoid of all desires inwardly. 2- O Raghava, abandon all desires inwardly, be free from attachments and latent impressions, do everything outwardly and thus play your part in the world. योग वासिष्ठ प्रथमा प्रतिमापूजा जपस्तोत्राणि मध्यमा। उत्तमा मानसी पूजा सोsहँ पूजोत्तमोत्तमा॥ उत्तमो ब्रह्मसद्भावो ध्यानभावस्तु मध्यमः। स्तुतिर्जपोsधमो भावो बाह्यपूजाsधमाधमा॥ तत्व निर्णय उत्तमा तत्वचिन्तैव मध्यमं शास्त्रचिन्तनम्। अधमा मंत्रचिंता च तीर्थ-भ्रांत्यधमाधमा॥ मैत्रेयी उपनिषद् १३/११/२३ कर्मफल सिद्धांत भारतीय चिंतन की विश्व को अपूर्व देन है। इसे प्रकारांतर से सभी स्वीकार करते हैं। अगर यह न हो तो जीवन निरुद्देश्य हो जाये, भीतर के कार्यकारण सिद्धांत की आधारभूमि ही तिरोहित हो जाएगी। यह कुछ उदाहरणों में स्पष्ट दिखता है, जब छोटे बच्चे अपनी आयु से अधिक ज्ञान ता कौशल धारणकरते हैं। कुछ उदाहरण अनुभूतियों में भी उतरते हैं। कर्मफल सिद्धांत पर संदेह करना नहीं बनता। संदेह कर भी लें और फिर भी उस पर विश्वास करें तो भी लाभ ही है, क्योंकि यह नैतिकता के लिए बहुत आवश्यक है। बाहरी विधिजन्य नैतिकता उतनी असरकारी नहीं है। १४/११/२३ अनंत रूपी अस्तित्व प्रकट होने के कारण व्यक्ति अलग या विलक्षण होने के सौंदर्य का सदा आकांक्षी बना रहता है। कुछ भी उपलब्ध हो, उसे उसमें या उससे फिर अलग होने का सुख दिखायी देने लगता है। यह अस्तित्व के अनंत होने के कारण है। वह सदा और प्रतिक्षण नये नये रूप में व्यक्त होता रहता है, व्यक्ति इसे लेकर चमत्कृत हो जाता है। व्यक्ति को कुछ तो अवश्य मिलता ही है दुनिया में आकर, वह मिला हुआ कुछ ही बड़ा चमत्कारी है, फिर वह चमत्कारों की भूलभुलैया में खोया रहता है। अगर वह इसमें खो न जाये, बेहोश न बना रहे, जाग्रत दशा में रहे तो आनंद को उपलब्ध हो जाता है। फिर वह स्थायी हो जाता है और उसका हर सुख और हर दुःख उस आनंद में पर्यवसित होने लगता है। १८/११/२३ साक्षी भाव या ऑब्सर्व्ड माइंड अहंकार से रहित होने की दशा है। यह संसार में रहने की सर्वोत्तम दशा है। इससे आगे तथाता अवस्था है, जिसमें व्यक्ति काष्ठवत् या लोष्ठवत् हो जाएगा। सा काष्ठा सा परमगति। उस दशा में रहकर संसार का निर्वाह नहीं हो पाएगा। पर यह अंतिम और प्राप्य दशा है। संसार में जब तक हम हैं, साक्षी दशा में रहें। साक्षी भाव में रहना भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। जितनी देर हम अ साक्षी होकर रहते हैं, उतनी देर भगवान से विलग रहते हैं। जितनी देर भगवान से विलग रहेगे, उतने समय अहंकारी होकर रहेंगे। सुविधा और मानसिक स्थिति को देखते हुए अहंकार को महात्माओं ने दो प्रकार से विभाजित किया है। एक अहं से व्यक्ति पर कर्ता भाव आच्छन्न रहता है, दूसरे में व्यक्ति का कर्तृत्व विलीन होकर वह ईश्वर मय हो जाता है। अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥ आगे, जब यह दूसरे प्रकार का अभिमान भी विगलित हो जाये तो फिर अस्तित्व है या नहीं, इसका भी बोध नहीं रहेगा। यह बोध रहित, अव्यक्त और आदिम अवस्था है। यहाँ कल्पना और यथार्थ एक हो जाते हैं। व्यक्त दशा में ही लीला है, करुणा है, शांति, प्रेम और आनंद है। अव्यक्त दशा अगोचर, अनाविल और अनिर्वचनीय है। 22/11/23 प्रकाश भी पीड़ा ही है, क्योंकि वह उसी से होकर आता है। इसीलिये सत्व में भी नहीं रहना। अव्यक्त से निष्पन्न होने वाला तत्व मात्र अग्राह्य है। तत्व से होकर गुजरना अवश्य पड़ता है, अतत्व होने के लिए। होने के लिए भी क्या, वही तो अंतिम गति है तत्व की। एक नशा तारी होता रहता है, लोग कहते हैं यह सीधापन है, इसका कुटिलजन अनुचित लाभ उठाते हैं, उन्हें क्या पता यह आनंद और आह्लाद के उस सरोवर में रहना है, जिसमें हम सराबोर रहकर करुणामय हो जाते हैं। २३/११/२३ अगर कोई इच्छा पूरी होने पर दूसरी इच्छा का उदय नहीं होता तो ऐसी इच्छा स्वीकार्य है। त्रयोदशी क्या है.... सृष्टि के भीतर सृष्टि, स्थिति, संहार और तुरीय- ये चार अवस्थाएँ हैं. इसी प्रकार स्थिति और संहार - इनमे भी प्रत्येक में ये चारों अवस्थाएँ रहती हैं. इस प्रकार सब मिलाकर बारह शक्ति या देवी के खेल दिखलाई पड़ते हैं. ये बारह शक्तियाँ जिस महाशक्ति से निकलती हैं तथा जिनमें लीन होती हैं उन्ही को त्रयोदशी कहते हैं. वस्तुतः यह त्रयोदशी सबमें अनुस्यूत तुरीय के साथ सम्मिलित भासा के सिवा और कुछ नहीं है. आलेख - 'तांत्रिक पूजा का परम आदर्श' महमहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज २३/११/२१ की फ़ेसबुक पोस्ट २४/११/२३ गुरुदेव ने कहा है अपने जीवन के उद्यान में प्रतिदिन किसी आध्यात्मिक पुष्प की अपेक्षा न रखें। इसलिए प्रतिदिन दैनंदिनी नहीं लिखी जा पाती है। जिन दिनों में कुछ आशीर्वाद पाया, उनमें से जो लिखना संभव हुआ, वही पुष्प इस दैनंदिनी में आये हैं। यह पुष्प सुबासित हों, यह भी आवश्यक नहीं, पर आप इन्हें देखने के अपने सुख से जुड़कर और उन पर अपनी प्रतिक्रिया देकर सुबास अवश्य भर सकते हैं। दैनंदिनी के किसी किसी दिन एक से अधिक अलग अलग प्रकार की अनुभूतियां आई हैं। भावशबलता के कारण अथवा आगे वे अनुभूतियाँ हम भूल न जाएँ, उस मोह से एक दिन की दैनंदिनी में पृथक पृथक् भाव अनुस्यूत हुए हैं। श्रीमद्भागवतम का सार है दशम स्कंध के पूर्वार्ध के रास पंचध्यायी के वे पाँच अध्याय, जिनमें महारास का वर्णन एक अपूर्व साहित्यिक कौशल और भावोद्रेकी दशा में हुआ है। इस वर्णन की भाषा को समाधि भाषा और संध्या या संधा भाषा कह सकते हैं। समाधि में जाए बिना केवल कला प्रदर्शन के लिए इस प्रकार के भाव और शैली नहीं बन सकती है। संध्या में समय के दो अंतरालों का मिलन होता है। लौकिक संसार और पारलौकिक जगत् के आनंद को समेटे हुए इन अनुभूतियों को कश्मीर में संध कहा जाता है, संध का अर्थ संधि नहीं, जो संध्या में समझा जाता है, अपितु उसका अर्थ है संधान या खोज। यह खोज करते करते व्यक्ति खो जाता है, खोने से पूर्व जानने योग्य विषय जान लिया जाता है, पर उस तत्व को अज्ञेय ही कहना पड़ता है, क्योंकि वह पूरा नहीं जाना जा पाता। अंतरालों में यह खोज हो पाती है, प्राणायाम भी अंतराल में रहकर ही किया जाता है। मध्यम प्रतिपदा बुद्ध दर्शन का सूत्र है। मध्य में रहना, असाध्य वीणा में अज्ञेय दिखाते हैं, जो बुद्ध ने कहा कि हम वीणा के तारों को इतना न खींचें कि वे टूटने लगे। और इतना ढीला भी न छोड़ें कि उनसे स्वर न उत्पन्न हो। बिटवीन द लाइंस का महत्व एक पाठक के लिए सर्वाधिक है, वह अंतराल तुरीयावस्था है, जो सर्वत्र होते हुए भी दिखाई नहीं देती, परंतु असर उसी का सब अवस्थाओं पर रहता है। रास पंचध्यायी में सबसे प्रमुख गोपी गीत है। गोपी गीत भागवतम का सर्वस्व है, इस गोपी गीत में भी बीज शब्द देखना हो तो वह है ध्यानमंगलम्। यहीं से सब कुछ दिखना प्रारंभ होता है। यही हमारे जीवन का ध्येय है। Lord Make Me an Instrument of Thy Peace( प्रभु मुझे अपनी शांति का एक साधन बनायें) सेंट फ़्रांसिस २५/११/२३ संसार अगर निर्वाह करना हो तो उसकी शून्यता का अनुभव करना ही होगा। अन्यथा भटकते रहेंगे। शून्यता का अनुभव करने के बाद उसकी पूर्णता प्रतीत होने लगेगी। उससे पहले अधूरापन लगता रहेगा। उर्ध्वे बिंद्वावृतिर्दीप्ता तत्र पद्मं शशिप्रभम्। शांत्यतीतः शिवस्तत्र तच्छक्त्युत्संगभूषितः॥ तंत्रालोक ८/३२ बिंदु अनंत सूचक है। पंक्ति का अंत सुनिश्चित है। पंक्ति बिंदु में पर्यवसित होती है। बिंदु में सब सम्मिलित है। पंक्ति में मात्र पंक्ति है। पंक्ति में बिंदु उपस्थित अवश्य है, और वह हर क्षण मौजूद है। पंक्ति शक्ति है और बिंदु शिव है। शक्ति गति है, शिव मौन है। संसार पंक्ति है, मौन बिंदु है। संसार शक्ति है और मौन शिव है। २६/११/२३ महाकाली का लौकिक विज्ञान ******************************** महाकाली रूप को भयानक असुर विनाशक माना जाता है। क्यूँ ? काली नाम ध्यान आते लगता है अब तो कोई असुर नहीं बचेगा और काली आती भी हैं और सभी असुरों को मार देती हैं। रक्तबीज जैसे असुरों को भी मार दिया। रक्तबीज अर्थात उसका रक्त जहाँ जहाँ गिरता था था वहाँ वहाँ रक्त से असुर उत्पन्न हो जाते थे। परन्तु काली रूप असुर को भी मारती हैं और रक्त से उत्पन्न होने वाले सभी असुरों को भी मार देती हैं। काली हैं कौन ? काली पार्वती जी की एक अवस्था हैं ,पार्वती ही क्रोध में काली बन जाती हैं। पार्वती कौन हैं ? पार्वती जी एक आध्यात्मिक साधिका हैं ,महादेव को पाने निकली हैं ,सिर्फ पाना ही नहीं उनसे विवाह करना है उन्हें। पहले जब साधना कर रही थीं तब उन्हें चण्ड मुंड परेशान कर रहे थे अर्थात चाह मोह (चाह अंधे = चण्ड ,मोह अंधे = मुण्ड ) परेशान कर रहे थे जिन्हें उन्होंने दुर्गा रूप से मारा अब और असुर परेशान कर रहे हैं ये असुर कोई भौतिक देहधारी असुर नहीं हैं ये आध्यात्मिक असुर हैं। आध्यात्म मन में उत्पन्न होता है अतः ये असुर भी साधिका अर्थात पार्वती जी के मन में उत्पन्न हो रहे हैं। ये असुर कह रहे हैं यह ले आ , वह ले आ इससे साधिका की साधना बाधित हो रही है अतः साधिका काली रूप धरती है और कहती है "का ली " क्या लूँ ,क्या लूँ..... का ली ? क्या लिया जाय ,इस संसार में महादेव के सिवा कुछ भी पाने योग्य नहीं है। जब मन में ऐसा भाव आता है अर्थात काली रूप आता है तो समस्त असुर जो कह रहे थे यह ला वह ला स्वतः ही मर जाते हैं। अतः काली रूप भयानक असुर विनाशक है ,काली भाव समस्त इच्छाओं का नाश कर देती है जिससे धरती पर जीवन ही प्रभावित हो सकता है ,लोग जीने की इच्छा ही छोड़ देंगे यदि उनमे कोई इच्छा ही न हो तो अतः लोग मरने लगेंगे और सृष्टि ही समाप्त होने लगेगी अर्थात महादेव ही मरने लगेंगे तभी महादेव को उनके पाओं के नीचे दिखाते हैं जिससे उन्हें अनुभव होता है नहीं नहीं सभी इच्छाओं को नहीं मारना है ,यदि सभी इच्छाओं को मार दिया (अर्थात सभी असुरों को मार दिया ) तो महादेव ही संकट में आ जायेंगे अतः उन्हें अपराध बोध होता है और जीभ बाहर निकल आती है। अतः काली का पांव महादेव पर दिखाते हैं तब वो शान्त होती हैं। तो काली रूप लगभग सभी इच्छाओं का नाश है इससे मन में उत्पन्न होने वाले सभी असुर मरने लगते हैं। असुर जो मन को परेशान करते हैं यह ले आ यह बड़ा अच्छा है ,वह ले आ वह बड़ा अच्छा है और काली कहती हैं का ली ? क्या लिया जाय। जब मन में भाव उत्पन्न किया कि कुछ भी लेने योग्य नहीं तब ये मन के असुर स्वतः ही मर गए। परन्तु सबको न मारो ,जीवन ही नष्ट हो जायेगा ,जीने का उद्देश्य ही मिट जायेगा। यह संसार कुछ न कुछ पाने की इच्छा से ही बना हुआ है ,यदि कुछ भी पाने की इच्छा रोक दोगे तो संसार ही समाप्त हो जायेगा। महादेव काली के पैर के नीचे आ जायेंगे । अचानक काली को बोध होता है समस्त इच्छाएं छोड़ने पर तो महादेव (अर्थात उनकी सृष्टि ) ही संकट में आ जायेंगे अतः पश्चाताप में जीभ बाहर निकल आयी। समस्त इच्छाओं को न मारो ,कुछ आवश्यक इच्छाओं को जीवित रहने दो। यदि धरती के सारे लोग नंगे रहने लगें तो करोड़ों लोग जो कपडे के धंधे से जुड़े हैं भूंख से मर जायेंगे। अतः कपड़े की इच्छा को नियंत्रित करो ,अत्यधिक महंगे कपड़े के पीछे न भागो पर कपडे पहनने की इच्छा को न मिटाओ। हमारी परस्पर इच्छाओं से इस संसार में रोजगार उतपन्न हो रहा है जिससे हम सब जी रहे हैं हाँ ऐसा न हो कि इतनी इच्छाएं पाल लो कि वो इच्छाएँ महादेव की साधना ही न करने दें। काली का अर्थ है सभी इच्छाओं को मारना जिससे सभी प्रकार के रोजगार नष्ट हो सकते हैं अतः उनकी कमर पर कटे हाथों की माला है।रोजगार नष्ट होना अर्थात हाथ काट देना। इच्छाओं को मिटाओ नहीं नियंत्रित करो ,साधना भी बाधित न हो संसार भी चलता रहे। गले में नर मुंड की माला है अर्थात इस रूप के कारण लोग मरने लगे, जब सभी लोग सभी इच्छाएँ मिटा देंगे तो रोजगार नहीं रहेंगे ,रोजगार नहीं रहे अर्थात हाथ काट गये ,लोग मरने लगे अतः गले में नर मुंड की माला। चरणों में महादेव का आ जाना यह भी दर्शाता है, कि मन के सभी असुर न मारो , महादेव तमोगुणी सृष्टि का निरूपण भी करते हैं ,तमोगुण में ही असुर जन्म लेते हैं। सबको न मिटाओ। अष्टावक्र वैदिक विज्ञान संशोधन मन की गति और उसकी वक्रता ध्यान के दौरान स्पष्ट देखी जाती है। आँखें बंद हैं, पर मन चलता जा रहा है, नहीं रुक रहा, सरपट भाग रहा, फिर आँख खोली तो मन में चल रहे दृश्य स्वप्नवत् तिरोहित और अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित। जी हाँ! जो काम आँख बंद करने पर प्रायः होता है, वह आँख खुले होने पर भी होता है। आँख खुले होने पर संसार का आकर्षण प्रत्यक्ष हुआ रहता है, उसमे विचलन बढ़ा रहता है, पर यही विचलन आँख बंद करने पर भी होता रहता है, ध्यान में तब वह विचलन आँख खोलने पर जाता रहता है। ध्यान करने के बाद संसार में रहने पर स्वरूप में प्रतिष्ठित रहने की स्थिति जब तब याद आती रहती है। किसी कठिनाई में तो अक्सर। आपका क्रोध और लिप्सा न्यूनतम हो जाता है। 27/11/23 उत्तर से दक्षिण तक कार्तिक परंपरा के कतिपय सूत्र... दक्षिण भारत में प्रत्येक माह को मासिक कार्तिगाई का व्रत रखा जाता है और दीप जलाकर भगवान कार्तिकेय और शिव को प्रसन्न किया जाता है। कार्तिकेय को मरुगन भी कहते हैं। हिंदी क्षेत्र में ये गणेश के बड़े भाई स्वामी कार्तिक नाम से जाने जाते हैं। कार्तिक दीपम को कार्तिकेय के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है।इस पर्व को ब्रह्मोत्सव के नाम से भी जाना जाता है। जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच श्रेष्ठता को लेकर विवाद हुआ तो शिवने ज्योति स्तंभ रूप में प्रकट होकर दोनों से इसके प्रारंभ और अंत को खोजने को कहा था। कार्तिगाई दीपम पर भगवान शिव के इसी ज्योति स्वरूप का पूजन किया जाता है। हर माह जब भी कृतिका नक्षत्र आता है तब यह पर्व मनाया जाता है। कृतिका नक्षत्र के नाम पर ही इसका नाम कार्तिगेय रखा गया है। कार्तिकाई तिपम तमिल लोगों द्वारा मनाए जाने वाले सबसे पुराने त्योहारों में से एक है। शिव ने अपनी तीसरी आंख से कार्तिकेय (मुरुगन) को बनाया , या उनके छह प्राथमिक चेहरे (तत्पुरुषम- छुपी हुई कृपा का चेहरा, अघोरम- विनाश का मुख, सद्योजातम- सृष्टि का चेहरा, वामदेवम- संरक्षण/उपचार/विघटन/कायाकल्प का चेहरा, ईशानम्- द फेस ऑफ रिवीलिंग ग्रेस और अधोमुखम- द फेस ऑफ़ कंसीलिंग। ऐसा माना जाता है कि ये छह चेहरे छह बच्चों में बदल गए, और उनमें से प्रत्येक को छह कार्तिक अप्सराओं (शिव, संभूति, प्रीति, सन्नति, अनसूया, और क्षमा) द्वारा पाला गया, इन्हें दुला, नितातनी, अभ्रयंती, वर्षयंती मेघयंती, और चिपुनिका के नाम से भी जाना गया है। बाद में यह अप्सराएँ उनकी मां पार्वती में विलीन हो गईं । इन छह अप्सराओं को कार्तिक नक्षत्र बनाने वाले छह सितारों के समूह का प्रतिनिधित्व करने वाला माना जाता है । जैसा कि छह अप्सराओं ने बच्चे के पालन-पोषण में मदद की थी, कहा जाता है कि शिव ने छह अप्सराओं को अमरता प्रदान की। इन छह सितारों की की गई कोई भी पूजा स्वयं मुरुगन की पूजा के बराबर मानी जाती है, और इसलिए ये शैवों के लिए पवित्र हैं। कार्तिक पूर्णिमा से ठीक पहले के पाँच दिन भीष्म पंचक कहे जाते हैं। कार्तिक नहान करने वाली स्त्रियाँ और बहनें इन पाँच दिनों में और कठिन व्रत करती हैं। किरकिचियाँ उक्त अप्सराओं और मुरूगन या कार्तिकेय के छः रूप हैं। कश्मीर शैवों में षड्कंचुक होते हैं, जो अंतस्थ वर्णों य र ल एवं व मातृका वर्णों से व्यक्त होते हैं। यह कंचुक कतकारियों की किरमिचियाँ ही हैं। इस प्रकार कतक्यारियों के यहाँ तमिल और समूचे दक्षिण भारत की ढाई हज़ार वर्ष पुरानी परंपरा से लेकर धुर उत्तर में स्थित कश्मीर की परंपरा मिलती है। कार्तिक माह की यह समृद्ध परंपरा की सूत्रबद्धता चतुर्दिक भारत में विद्यमान है। कार्तिक शुक्ल एकादशी तुलसी शालग्राम विवाह का दिन है। कुशध्वज की पुत्री तुलसी हरि की परम भक्त थी, उनका विवाह जलंधर नाम के दैत्यगुणी राजा से हुआ, जो जल में निवास करने वाले समस्त जलचर प्राणियों पर अपना आधिपत्य जमाता था, इसे लेकर देवता परेशान हुए। वे जलंधर को युद्ध में उसकी हरिभक्त पत्नी के तप के कारण शंकर के साथ मिलकर भी नहीं हरा पाये तो भगवान विष्णु के पास गए। विष्णु ने जलंधर का छलरूप धारण कर तुलसी के सतीत्व को स्खलित करने की कोशिश की और तब जलंधर को पराजित किया जा सका। पर तुलसी ने विष्णु को शाप दिया कि इस छल के कारण तुम पत्थर हो जाओगे। तब से विष्णु शालग्राम के रूप में पूजे गए हैं। नेपाल की गंडकी नदी में उनका वास होगा। विष्णु ने तुलसी को पौधे के रूप में बन जाने का प्रतिशाप दे दिया, पर यह वरदान भी दिया कि इस पत्र के बिना हमें (हरि को) नैवेद्य स्वीकार नहीं होगा। बैकुंठ में तुलसी सदा विष्णु के साथ रहती हैं। कार्तिक पूर्णिमा सिख धर्म के लिए भी बहुत महत्व का दिन है। इस दिन सिखों के प्रथम गुरु गुरुनानक का जन्म हुआ। सिख यानि शिष्य, यह शिष्य का धर्म है, जो अपने गुरुग्रंथ और उसकी बानियों से चलता है। यह दिन देव दीपावली या छोटी दिवाली के रूप में भी मान्य है। १९९९ में सद्गुरू ने इसी दिन दुनिया को ध्यानलिंग अर्पित किया। कार्तिक पूर्णिमा के दिन, पहाड़ी पर (तमिलनाडु के तिरुवन्नामलाई या अरुणाचलम शिखर, जिस पर रमण महर्षि रहे हैं और श्रीलंका के कोणेश्वरम मंदिरों में) एक विशाल अग्नि दीपक जलाया जाता है, जो आसपास कई किलोमीटर तक दिखाई देता है। अग्नि (दीपम) को महादीपम कहा जाता है। बहिरंतः स्फुरज्ज्योतीरत्न कुंभ प्रदीपवत्। स्वप्रकाशात् यथैवैकं स्वरूपमात्मनस्तथा॥ Just as a big lamp kept inside a vessel made of precious stones illumines by its light both outside and inside, so also the one Self illumines (everything). यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । स्पंद कारिका में कहा गया है: यस्मात्सर्वमयो जीवः सर्वभावसमुद्भवात्।
तत्संवेदनरूपेण तादात्म्यप्रतिपत्तितः॥३॥
तस्माच्छब्दार्थचिन्तासु न सावस्था न या शिवः।
भोक्तैव भोग्यभावेन सदा सर्वत्र संस्थितः॥४॥Because (yasmāt) the individual soul (jīvaḥ) is identical (mayaḥ) with all (sarva) since all entities arise (sarva-bhāva-samudbhavāt) (from him, and) inasmuch as he has the feeling or perception (pratipattitaḥ) of identity (tādātmya) (with those entities) due to the knowledge (saṁvedanarūpeṇa) of them all (tad), therefore (tasmāt), there is no (na) state (sā avasthā) that (yā) is not (na) Śiva (śivaḥ), (whether) in word (śabda), object (artha) (or) thought --cintā-- (cintāsu). The experient (bhoktā) himself (eva), always (sadā) (and) everywhere (sarvatra), remains (saṁsthitaḥ) in the form (bhāvena) of the experienced (bhogya)||3-4|| (jaideva) - Since the limited individual Self is identical with the whole universe, inasmuch as all entities arise from him, and because of the knowledge of all subjects, he has the feeling of identity with them all, hence whether in the word, object or thought, there is no state which is not Siva. It is the experient himself who, always and everywhere, abides in the form of the experienced i.e. it is the Divine Himself who is the essential Experient, and it is He who abides in the form of the universe as His field of experience. यदुक्तं श्रीविज्ञानभैरवे यत्र यत्र मनो याति बाह्ये वाभ्यन्तरे प्रिये।
तत्र तत्र शिवावस्था व्यापकत्वात्क्व यास्यति॥ (११६) Chanakya Neeti - Chapter 13 - Shlok 13 देहाभिमाने गलितं ज्ञानेन परमात्मनि । यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः ॥ जो आत्म स्वरुप का बोध होने से खुद को शरीर नहीं मानता, वह हरदम समाधि में ही रहता है भले ही उसका शरीर कही भी चला जाए. ग्राह्य-ग्राहक-सम्बन्धे ........सामान्ये सर्वदेहिनाम्। योगिन:सावधानत्वं ........ यत् तदर्चनमात्मन:।। .. -योगवासिष्ठ आशय यह है कि ग्राह्य(ग्रहण करने योग्य-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध गुणों)का ग्राहक(ग्रहण करने वाली --कर्ण,त्वचा, नेत्र,जिह्वा और नासिका इन्द्रियों)से जो सम्बन्ध है-वह सभी जीवों में एक सा होता है। परमाणुओं का मूल स्थान जैसे सूर्य है , वैसे ही अणुओं का मूल स्थान वही चन्द्र है । परमाणु योगनिद्रा में पतित होकर अणुओं के संसर्ग से अपने उज्जवल भाव और आत्मबोध को आच्छन्न कर लेता है । वास्तव में चित् - रूप इस भूमि में आकर जड़ के वेष्टन से घिरकर सुप्तवत और आत्मविस्मृत हो जाता है । जीवभाव का उदय वस्तुतः यहीं होता है । बहुत से लोग जिसे कारणदेह कहते हैं , चैतन्य के साथ उसका योग यहीं होता है । इसके बाद योगनिद्रा से परमाणु मातृगर्भ में प्रवेश करता है । जीवत्व जा आवेष्टन उसके साथ ही रहता है । इस प्रकार जीव काया सम्पन्न नहीं हो सकने से परमाणु के लिए मातृगर्भ में प्रविष्ट होना कठिन है । मातृगर्भ में मनोमय आवरण से वेष्टित होकर प्राण का अंश अणु सम्बद्ध रूप में प्रविष्ट होता है और वहाँ माता पिता के देहांश द्वारा अर्थात रज - वीर्य से पुष्ट होकर क्रमशः परिणत अवस्था में गर्भ से बाहर होता है । खण्डमाता मोहमाया स्वरूप है । जीव योगनिद्रा से मोहमाया में आश्रय लेता है और मातृगर्भ से प्रसव के बाद बाहरी जगत में आता है यह कालरात्रि का राज्य है । साधक और योगी पृष्ठ 8 इस प्रकार , यह देखने में आता है कि प्रत्येक मनुष्य का विश्लेषण करने से उसमें कई पृथक पृथक अंशों का पता चलता है -- परमाणु , मन , अणु और काया । अणु एवं काया से काल का घनिष्ठ संबंध है । अणु स्वरूपतः एक होने पर भी कार्यतः विभिन्न प्रकार का है । जिस अणु को जीव अपने साथ लाता है और जो प्रत्येक जीव में जीवत्व का सम्पादक है , उसकी संख्या उननचास 49 है । वायु उननचास हैं , इसीलिए अणु भी उननचास हैं । इन अणुओं की समष्टि जीव के जीवत्व -सम्पादक अंतरतम कोष - रूप में विद्यमान रहती हैं । साधक और योगी // पृष्ठ 8 शाक्तों के अनुसार - यं वायु बीज पाप पुरुष का शोषण रं अग्नि बीज पाप पुरुष का दहन वं जल बीज रेचन या प्लावन लं पृथ्वी बीज- जिसमें पाप पुरुष भस्मीभूत किया जाता है। फिर महदादि क्रम से दिव्य देह का निर्माण होता है। २८/११/२३ The universe does not speak any language, it speaks frequency. शान्तितुल्यं तपो नास्ति ,तोषान्न परमं सुखम् । नास्ति तृष्णापरो व्याधि: ,न च धर्मो दया पर: ।। -विदुर नीति शान्ति के समान कोई तप नहीं है । संतोष के समान कोई सुख नहीं है । तृष्णा के समान कोई व्याधि नहीं है । दया के समान कोई धर्म नहीं है । २९/११/२३ "Think of God all the time. You must not let your life run in the ordinary way; do something that nobody else has done, something that will dazzle the world. Show that God's creative principle works in you. Making others happy, through kindness of speech and sincerity of right advice, is a sign of true greatness."--- Paramhansa Yogananda-- ब्रह्मचर्य है सदा संभोगी होना। शिव शक्ति साहचर्य जैसे। प्रत्यक्ष में भी निर्माण और ध्वंस साथ साथ चलता हुआ दिखता है पोर पोर में, कण कण में। जो मनुष्य के प्रजनन अंगों तक सीमित रहकर ब्रह्मचर्य समझता है, वह एकांगी दृष्टि का शिकार है। अन्यथा तो बारिश भी ईश्वर के वीर्य की भाँति लगती है, जिसका पृथ्वी के गर्भ में निश्चेषन होता है और हम सब जीवन पाते हैं। कुमार ही मूल है। कुमार का अर्थ खेलना है, या 'कू' का अर्थ माया की स्थिति हो सकता है जो अंतर की भावना लाता है और मारी का अर्थ वह हो सकता है जो नष्ट कर देता है, अर्थात, जो माया की शक्ति को फैलने नहीं देता है। कुमारी (कुंवारी) वह है जो हमेशा भोक्ता की स्थिति में रहती है, भोक्ता को कभी भी दूसरों द्वारा आनंद नहीं मिलता है। कुंवारापन एक रहस्य है। रहस्य का उत्तर खोजना होता है उसमे रहकर, कोई बताएगा तो सीधे उतरेगा नहीं। कुंवारापन या ब्रह्मचर्य एक समस्या नहीं, जिसका समाधान हो, यह एक रहस्य है, जिसे जीकर उपलब्ध हुआ जाता है। इसका अर्थ किसी व्यभिचारी वृत्ति से न लगाया जाए। व्यभिचार तो मन की यायावरी है, इससे जितने जल्दी बाहर आ जाएँ, उतना अच्छा। कामवासना बड़ी ही निर्दयी है!* *जो मरे को भी मारती है* 🔥 कृशः काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकलो व्रणी पूयक्लिन्नः कृमिकुलशतैरावृततनुः॥ क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरककपालार्पितगलः शुनीमन्वेति श्वा! हतमपि च हन्त्येव मदनः॥ _~ ऋषि भर्तृहरि, श्रृंगार शतकम (63)_ काना, लंगड़ा, कनकटा और दुमकटा कुत्ता, जिसके शरीर में अनेक घाव हो रहे हैं, दुर्गन्ध का ठिकाना नहीं है, घावों में हजारों कीड़े पड़े हैं, जो भूख से व्याकुल हो रहा है और जिसके गले में ज़ंजीर पड़ी हुई है, वासना में अँधा होकर कुतिया के पीछे-पीछे दौड़ता है। धर्म का सार दान है और दान का मूल है प्रेम। प्रेम का अर्थ है निरहंकार। दान का अर्थ है जीवन को बाँटो। दान का कोई अनिवार्य संबंध धन से नहीं है। दान का संबंध जीवन की एक शैली से है। जीवन को सिकोड़ो मत, फैलाओ। जीवन की प्याली से दूसरे की प्याली में जितना रस बाहर, बहने दो।कृपण न हो।हंसी दे सकें, हंसी दो। नाच दे सको नाच दो। आलिंगन दे सकते हो, आलिंगन दो। किसी का हाथ हाथ में लेकर बैठ सकते हो और उसे राहत मिलेगी तो राहत दो। किसी के दुःख में रोओ, दो आंसू गिराओ। किसी की ख़ुशी में नाचो, मगन हो जाओ। यह सब दान है। दान की अनंत संभावनाएँ हैं। उक्त रीति से किए गये दान में ज़बरदस्ती नहीं होती। ऐसे किया गया दान हमें प्रफुल्लित करता है। ३०/११/२३ कंदुक क्रीड़ा का खेल आज ध्यान के बाद उतरा। हम गेंद हैं, विश्व भी एक गेंद है। विश्व की आकृति भी कंदुकवत् ही है। इस कंदुक से भगवान और उनके सखा खेल रहे हैं। किंतु वे इसकी रक्षा भी कर रहे हैं। गेंद अगर कालियनाग के राज्य में पहुँच गई है तो भी वहाँ से निकाल लाते हैं। यह गेंद खेलने के लिए बनी है। परवाह क्या कि यह कहाँ गिरती है, जहां वह गिरेगी, गोपों पर अनुग्रह और उनके आग्रह से वह निकाल लाएँगे। फ़िक्र क्या करनी! बस खेलते जाएँ, खिलते जाएँ। खिलना यानि खेल का उपकरण बनना है। तभी पुष्प आएँगे, प्रेम का उदय होगा। शांति छाएगी, करुणा बरसेगी, आनंदमग्न होंगे। 🙏मंत्र' का अर्थ होता है मन को एक तंत्र में बांधना। यदि अनावश्यक और अत्यधिक विचार उत्पन्न हो रहे हैं और जिनके कारण चिंता पैदा हो रही है, तो मंत्र सबसे कारगर औषधि है। हम जिस भी ईष्ट की पूजा, प्रार्थना या ध्यान करते हैं उसी के नाम का मंत्र जपा करें।।🙏 डॉ इंदुशेखर उपाध्याय

Tuesday, October 31, 2023

अक्टूबर २३

१/१०/२३ यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।

योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।।6.19।। जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, योगका अभ्यास करते हुए यतचित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है।। परमार्थसार दर्पण बिंबे यद्वन् नगरग्रामादि चित्रमविभागि। भाति विभागेनैव च परस्परं दर्पणं च॥१२ विमलतम परम भैरव- बोधात् तद्वद् विभागशून्यमपि। अन्योन्यं च ततोऽपि च विभक्तमाभाति जगदेतत्॥ १३ One sloka-in this, there are two Slokas-one sloka is the example, and the other sloka is the actual state of Parabhairava, how the actual state of Parabhairava is existing. And, for this, he gives an example. Darpana bimbe yadvat. Take an outside mirror, keep the mirror in your room here, darpana bimbe, and see-but keep well-cleaned mirror-nagaragramadi citram avibhagi, nagar-gram, whatever is reflected in it, you see everything is reflected in the mirror, which is only two feet by two feet-two feet length and two feet height, bas,only this much-and inthis [mirror, will feel the reflection of this house, the reflection of that house, the reflection of those trees, big trees, the reflection of everything, whatever you . . . it is reflected on this. Citram me [that the various reflections are] not put in one ball there [in the mirror], because the dimension of this mirror is only two feet howo feet. [The actual objects that are reflected] can't come in two feet by two feet. It seems separate; bhâti vibhagenaiva ca, and it seems separate. Nacaya etat dharmanasya prasyato yujyate. You can't [understand even] after investigation what has happened to this, hiw these trees seem to exist away from the [surface] of the mirror, back [i.e., behind the mirror]. But, after investigating what it he back, there is nothing, There is nothing. Only distance seen, distance is observed. And, at the same time, there is also no weight in this [reflection]. For instance, a big tree trunk been] reflected in this mirror. If the weight of the m i r r o r was one kilo, after the reflection of this tree of a hundred kilos, it does not create .. . JONATHAN: Extra weight. SWAMIJI: .. . extra weight. [The mirror remains] the same weight. [Otherwise] you couldn't move [the mirrorl; then you couldn't move it [laughter]. Dharmano'pi achalasyat, he has said Abhinavagupta has said, that dharmano 'pi achalasyat, you could not move it! In weight also, [the mirror remains] the same weight. It is only one kilo. So this is the glamour of reflection. [The reflections] are separate from each other and separate from the mirror also what[ever] is reflected in this. This is an example. Now, the main thing which is to be understood: In the same way, vimalatama-parama-bhairava- bodhätt a t u a d vibhāga-sünyam-api /1 3 a [repeated] In the same way, that which is absolutely most pure, the purest element, i.e., Parabhairava (Parabhairava is the purest element of the supreme mirror), and in that supreme mirror, which is the purest element of Bhairava, in that Bhairava, vibhaktamajagad eat, [all of] this from Siva to prthur (earth), all of this universe, you perceive that universe absolutely separate from Bhairava, from that mirror, from Parabhairava. It [seems] absolutely separate from Parabhairava. And not only that. It is separate from each other; prthur (earth) is separated from jala (water),jala is separated from agni (fire), agni is separated from vayu(wind), vayu is separate, akasa (ether) is separate,the antahkaranas (mind, intellect, and ego) are separate, sabda (sound), sparsa (touch), rüpa (form), rasa (taste), and gandha (smell) a r e separate; prakrti, prthur, jala, and maya, sud- dhavidya, isvara, and sadâsiva are all separate. Vibhaktamäb- hati, in the same way, this whole universe shines in the mirror of Parabhairava. "Just as in a clear mirror, varied images of city, village etc. appear as different from one another and from the mirror though they are non-different from the mirror, even so the world, though non-different from the purest consciousness of Parama Siva, appears as different both in respect of its varied obiects and that Universal Consciousness.' जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्बित प्रतिबिम्ब दर्पण से किसी भी प्रकार भिन्न नहीं होते, बल्कि दर्पण और एक-दूसरे से भिन्न दिखाई देते हैं, उसी प्रकार ये आभास पराशिव या सार्वभौमिक चेतना से भिन्न नहीं होते हुए भी भिन्न प्रतीत होते हैं। अथवा इस प्रकार सार्वभौम चेतना के दर्पण में प्रतिबिम्बित संपूर्ण विश्व ऐसा प्रतीत होते हुए भी उससे भिन्न नहीं है। उक्त विवेचन के बाद अब बृहदारण्यक उपनिषद के इस श्लोक ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ का अर्थ ग्रहण हो पाएगा। २/१०/२३ महात्मा गांधी सदा सत्य बोले, उस पर चले और उसी के कारण एक दिन उनकी हत्या भी हुई। गांधी के सत्य से कोई सहमत या असहमत हो, पर उन्होंने जिसे सत्य समझा, उस पर वे आजीवन चलते रहे। उनका सत्य किसी के आड़े नहीं आता था। सत्य किसी के आड़े आता भी नहीं, कोई सत्य के आड़े खूब आ जाए। यह भी सही है कि आड़े खूब कोई आ जाए, अंततः सत्य ही भासमान होता है। भारत के राष्ट्रीय पर्व के रूप में गांधी जयंती उनकी ७५ वर्ष पूर्व हुई मृत्यु के बाद भी मनाई जा रही है। गांधी ने अहिंसा को परमधर्म स्वीकार किया, वास्तव में अहिंसा ही सत्य की रक्षक और प्रकाशक होती है। लोग ईश्वर को सत्य कहते हैं, उन्होंने सत्य को ही ईश्वर समझा। उन्होंने स्वच्छता का संदेश दिया, इसे भी उन्होंने मन, वचन और कर्म से करके दिखाया। सत्याग्रह का मारक अस्त्र प्रदान किया। स्वावलंबन का मार्ग दिखाया। यह सब ऐसे दाय हैं, जो कभी फीके नहीं पड़ेंगे। जयंती पर उन्हें नमन🌹🌹 “Truth resides in every human heart, and one has to search for it there and to be guided by truth as one sees it. But no one has a right to coerce others to act according to his own view of truth.” — Mahatma Gandhi परं परस्थं गहनाद् अनादिम् एकं निविष्टं बहुधा गुहासु। सर्वालयं सर्व चराचकस्थं त्वामेव शंभुं शरणं प्रपद्ये॥ ४/१०/२३ आख़िर लोक का भी कोई पाथेय होता है, श्रीविद्या उस पाथेय की प्राप्ति के लिए सहायक है। नाम कुछ भी लें, श्री विद्या, आत्मविद्या, ब्रह्मविद्या; लोकालोकगमन के लिए ही हैं, लोक और इन विद्याओं में कोई परस्पर विरोध नहीं, अपितु एक संगति ही है। ध्यानमंगलम् viharanam cha te dhyaana Mangalam Your intimate pastimes with us (viharanam), and Your loving talks with us in solitary places fills our hearts with pain. viharanam means ‘a special kind of theft.’ The Sanskrit verb hå means ‘to steal.’ According to this specific definition, viharanam refer to stealing the heart. In this connection viharanam also denotes ‘to walk with friends’ and ‘to walk with a lady.’ In this instance, Krishna casually walks along with His friends, and His walking like this is only to show His desire to meet with them. He ambles along, nonchalantly resting one hand on the shoulder of a friend and twirling a lotus in the other. In this way, He intentionally pulls at their hearts. Seeing this, they lose awareness of everything else and thus become mad with love. Dyaana is ‘Meditation’.  The Gopis’ remembrance is not like a yogi’s meditation. When they remember Krishna, they forget everything else. Whatever they are doing, whether it is walking, talking or cooking, they are always immersed in sahaja-samädhi, a natural, deep absorption in Sri Krishna. The word sahajäyate means ‘to come naturally, from birth.’ Their full absorption in anything related to Krishna comes automatically and naturally. They never come out of samädhi; they simply go deeper and deeper into it. Their samädhi deepens when they see Krishna, and it further deepens as they remember Him when He is out of sight. विराट पुरुष हजारों साल पहले भारत की मेधा ने विराट-पुरुष की संकल्पना की थी >.. जो सहस्रशीर्ष है , सहस्रनेत्र है , सहस्रबाहु है , सहस्रपाद है ।उसमें कोटि-कोटि युगों का अन्तर्भाव है ।विभिन्न जाति, वर्ग, वर्ण , धर्म आदि उसके हाथ-पैर, नाक-कान -आंख ,पेट इत्यादि अंग-प्रत्यंग हैं परन्तु वे सभी अंग अविच्छिन्न हैं और एक-दूसरे के लिये हैं । वे सब के लिये सब हैं ।इस >सब < के बीच जो नाम-रूप का भेद और असमानता है, वह दृश्यमान है, तात्विक नहीं ।उसकी एकात्मसत्ता ही सर्वजन सत्ता है , जिसे हम लोक कहते हैं । व्यक्ति, वर्ग, राज्य आदि आज हैं किन्तु लोक कल भी था , आज भी है और कल भी रहेगा ॥ वह निरन्तरता है । ६/१०/२३ पितृदेवो भव! परमहंस योगानंद द्वारा लिखित विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक *“योगी कथामृत”,* मूल अंग्रेजी पुस्तक Autobiography of a Yogi का हिन्दी अनुवाद है। इसमें परमहंस योगानन्द कहते हैं कि *मेरे गुरुदेव परमसमाधि लेने के बाद एक दिन रक्त- मांस के (दिव्य) शरीर में मेरे सामने प्रकट हुए।उन्हें देखकर मैं हर्षोन्मत्त हो उठा।उनके पूछने पर गुरुदेव ने कहा कि मैंने महाव्योम परमाणुओं से ठीक उसी प्रकार के नये शरीर की सृष्टि की है। तुम्हारी दृष्टि में यह रक्त- मांस का भौतिक शरीर है, यद्यपि मेरी दृष्टि में सूक्ष्म है।* उन्होंने आगे कहा कि जिस प्रकार कर्मभोग में सहायता करने के लिए महापुरुषों को पृथ्वी पर भेजा जाता है, उसी प्रकार मुझे एक सूक्ष्म जगत् में त्राता के रूप में कार्य करने के लिए ईश्वर से आदेश मिला है।उस जगत् का नाम हिरण्यलोक है। *पृथ्वी पर मनुष्य भौतिक इन्द्रियानुभूतियों से युक्त रहता है।सूक्ष्म पुरुष चैतन्य भावनाओं और प्राणकणिकाओं (Lifetrons) से निर्मित शरीर लेकर कार्य करता है।* उस जगत् के निवासी एक ग्रह से दूसरे ग्रह की यात्रा के लिए सूक्ष्म वाहनों या आलोक पुंज का उपयोग करते हैं। ये साधन विद्युत या तेजसक्रिय (रेडियोधर्मी) शक्तियों से भी अधिक द्रुतगति वाले हैं। परमहंस योगानंद के गुरु स्वामी युक्तेश्वर गिरी महावतार बाबा के प्रत्यक्ष शिष्य लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे, जिन्होंने प्रत्यक्षदर्शी गुरु के रूप में विभिन्न लोकों का विस्तार से वर्णन किया है। इससे यह प्रमाणित होता है कि *सूक्ष्म शरीरधारी जीव अनेक लोकों में गमन करता है।उसके उर्ध्वगमन के अनेक माध्यम हैं। किसी मनुष्य को स्वयं ही अपने जीवन में स्थूल से होकर सूक्ष्म और कारण जगत् की यात्रा कर लेनी चाहिए। कोई अगर ऐसा नहीं कर पाता तो उसे अपनी संतति से ऐसी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि वे यह यात्रा कराएंगे। किंतु संतति को अपने पितरों के प्रति श्रद्धा भाव अवश्य रखना चाहिए। पितर किसी भी रूप में मौजूद हो सकते हैं। इसलिए श्रद्धा के उदय से व्यक्ति अंतर्यामी होकर परम् विस्तार को उपलब्ध हो जाता है। श्रद्धा और विश्वास के बिना अंतःकरण में मौजूद ईश्वर का दर्शन नहीं किया जा सकता। संतति यदि आत्मदर्शन कर ले तो उसके पितर अपनी संतति के लिए दोष नहीं दे सकेंगे, क्योंकि पितर संतति के आत्म के बाहर नहीं हैं। असल बात आत्मदर्शन की है। इसके बिना कोई चारा नहीं। पितरों की वासना बिना उन्हें भोगे क्षीण कैसे हो और संतति यदि वासना और भोग के मूल में सन्निविष्ट हो जाये तो पितरों की वासना पूरी कैसे हो! यह एक यक्ष प्रश्न है। इस दृष्टि से पूरे जगत् की दो ही कोटियाँ हैं- एक पितरों की और दूसरी उसकी संतति की। एक वसन की और दूसरी निर्वसन की। पितृदेवो भव! ८/१०/२३ विराट शब्द भंडार को ज्ञान समझने की भूल न करें। यदि एक एक श्लोक को धीरे धीरे समझकर आत्मसात किया जाए तो धर्मशास्त्र अंतरानुभूति की इच्छा को प्रेरित करने की दृष्टि से लाभकर होते हैं, अन्यथा अनवरत बौद्धिक अध्ययन से मिथ्याभिमान, झूठा संतोष और अपरिपक्व ज्ञान से अधिक कुछ और प्राप्त नहीं होता। स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरि जी। पीड़ा के माध्यम से प्रकाश का उदय होता है, इसीलिए संतजन पीड़ा को गर्हित और वर्जित नहीं, अपितु आवश्यक मानते हैं। कुंती ने कृष्ण से सदा दुःख पाने की बात कही, जिससे वे कृष्ण को कभी न भूलें। सुख में जो प्रकाश उदय हो सकता है, उसे हम प्रायः भूल जाते हैं। जिनके भीतर सुखावस्था के दौरान प्रकाश फैला रहता है, वे उस सुख को भी दुःखरूप ही ग्रहण करते रहते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हम सुविधाओं को त्याज्य कहकर एक निर्वासित जीवन बिताने लगें। हमें बस सुख के पीछे के दुःख को विस्मृत नहीं करना है। फिर सुख में हम पाथेय को याद करते रहेंगे। जर्मनी के दार्शनिक कांट का अपने नौकर को निर्देश था कि रात दस से चार के बीच नहीं उठाना, भूकंप आये तो भी। एक रात साढ़े ग्यारह बजे तार आया कि उन्हें कुलपति नियुक्त किया गया है, नौकर फूला न समाया, उसने सोचा भूकंप के लिए न जगाने के लिए कहा था, उसने इमैनुअल कांट को उसी समय जगा दिया। कांट को यह नागवार गुजरा, उन्होंने उसे चाँटा मारा और फिर सो गए। सुबह नौकर से कहे, और फिर नियुक्ति प्राधिकारी को लिखे कि ऐसी चीज के प्रति सतर्क रहो, जो तुम्हें भ्रमित कर दे। जिसने केवल नियुक्ति मात्र से रात की नींद भंग कर दी हो, उस काम में कितना उद्वेलन न होगा। उन्होंने कुलपति पद लेने से अस्वीकार कर दिया। ९/१०/२३ श्राद्ध पक्ष चल रहे हैं ऐसे में श्राद्ध को लेकर अजीब अजीब बातें सुनने को मिलती हैं कोई इसे अंधविश्वास बोलता है तो कोई श्रद्धा, कोई कौओं को पूर्वज बोलता है तो कोई पूर्वजों को छोड़ जीवित माता पिता पर ध्यान देने को कहता है, तर्क कोई भी हों फिर वे भले पक्ष में दिए जाएं या विपक्ष में परन्तु इनसब में असली बात कहीं छूट ही जाती है। अगर आप चाहो तो अपने जिंदा पड़ोसी को भी श्राद्ध जैसी किसी प्रक्रिया से लाभ पहुंचा सकते हो पर हम ऐसा नहीं करते, यह किसी खाते पीते व्यक्ति को ग्लूकोज की इंट्रा वेनस ड्रिप लगाने जैसा होगा जिसकी उसे जरूरत नहीं है, पर ऐसा किया जरूर जा सकता है, क्योंकि उस इनसान के पास पहले से एक शरीर है और शरीर मे होना भर काफी है कर्मों को खत्म करते रहने के लिए, वह इनसान अनेक अनुभव सुख दुख रोग आदि भोग कर अपने कर्म स्मृति अनुभवों को खत्म करता रहेगा और साथ ही साथ कुछ कर्म इकट्ठे भी करेगा पर चूंकी अभी वह सक्षम है तो हम किसी की जीवन प्रक्रिया के साथ कोई छेड़खानी नहीं करते हैं। चूंकि एक जीवित व्यक्ति के पास एक शरीर होता है तो ऐसे में उसके पास मौका है कि वह खुद को अशांति से मुक्त कर ले परन्तु शरीर छूट जाने के बाद बात इतनी आसान नहीं रह जाती, आपके अंदर चित्त परिवर्तन कर सकने की क्षमता शरीर छोड़ने के साथ ही नष्ट हो जाती है, ऐसे में जो भी आप अनुभव कर रहे हो उसे आप बस भोग सकते हो परन्तु अपनी इच्छा से उसमें कोई परिवर्तन आप नहीं कर सकते ऐसे में अगर अशांति अधिक हो तो अगला शरीर मिलना मुश्किल हो जाता है औऱ ऐसे में दिवंगत की प्रवर्ति नुकसान पहुचाने की रही हो तब उस ऊर्जा का नकारात्मक प्रभाव पहले उस ऊर्जा से जुड़े व्यक्तियों पर ही होगा। अगर कोई व्यक्ति ध्यान करता है तो यह प्रयोग करके देखा जा सकता है कि किसी दिन चित्त अशांत हो तो शांत बैठ कर अपने गुरु या मित्र से ऊर्जा ग्रहण करने पर मिनिटों में मनःस्तिथि में परिवर्तन कर सकता है, अशांति और अवसाद का सीधा सा मतलब है कि प्राण ऊर्जा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं है बस पितरों के लिए भी यही सिद्धांत काम करता है और इस एनर्जी ट्रांसमिशन का माध्यम बनती हैं कुछ सामग्रियां और प्रक्रियाएं, एक जीवित व्यक्ति चाहे तो कुछ प्रक्रियाओं द्वारा अशांत जीव को प्राण ऊर्जा प्रेषित कर सकता है जिससे उस जीव के कुछ कर्म जल जाएंगे और वह पहले से थोड़ी बेहतर स्तिथि में होगा, बाकी कर्मानुसार जो यात्रा उसे करनी है वह तो करनी ही पड़ेगी, यह ऐसा है कि आपका कोई रिश्तेदार जनरल का टिकट लेकर ट्रेन में बैठ गया है तो आप उसके लिए खाने पीने का इंतजाम कर दो जिससे उसे असुविधा कम से कम हो। यानी श्राद्ध द्वारा वह भोजन किसी तक नही पहुचता और न ही किसी दिवंगत के पसन्द का भोजन बनाने से कुछ होने वाला है असली बात है प्राण ऊर्जा की कि उसे आप कितनी अच्छी तरह से प्रेषित कर सकते हो, यदि आप कोई शक्तिशाली साधना रोज कर रहे हो तब आपके बिना कुछ करे ही आपके अशांत पितरों को इस ऊर्जा का भाग मिल जाता है। यह सब विज्ञान के नियमों की तरह ही काम करता है बस फर्क इतना है कि आप इसे बाहरी रूप से गणितीय सिद्धांतों के द्वारा सार्वजनिक रूप सिद्ध नहीं कर सकते क्योंकि सब लोगों की ग्रहणशीलता वैसी नहीं होती। आपके सम्पर्क में आने वाली हर वस्तु आपकी विशिष्ट ऊर्जा से युक्त हो जाती है जैसे कपड़े, वस्तुएं आदि, लोग अभिचार आदि ऊर्जा के दुरुपयोग ऐसे ही करते हैं, तो ऐसे में आप जिस कुल में पैदा हुए हो तो उस कुल की ऊर्जा से आपका अस्तित्व प्रभावित रहता ही है बस ऐसे में ध्यान यह रखना है कि ऊर्जा और कर्मों की इस साझेदारी का ऋण आपके ऊपर न चढ़े । जहां तक कौओं की बात है तो किसी के पितर कौए बन कर नहीं आते, जिन्हें उस कष्टकारी अवस्था से मुक्ति के लिए बाहरी सहायता चाहिए वे इतने समर्थ नहीं होते कि कुछ बन कर आ सकें, पितरों की ऊर्जा से युक्त अन्न को कौओं और गायों को खिलाने का उद्देश्य कुछ अलग होता है, ये दोनों ही जीव अति नकारात्मक ऊर्जा से युक्त भोजन नहीं करते, अगर आपने इन्हें वह अन्न खिलाना चाहा और इन्होंने वह नहीं खाया तो इसका अर्थ है कि पितर बहुत अधिक अशांति में हैं तो ऐसे में आपको उन्हें ऊर्जा प्रेषित करने हेतु अतिरिक्त श्रम करना पड़ेगा। लोग बोलते हैं कि जिन देशों या समुदायों में श्राद्ध नहीं होते तो उनके यहां क्या पितृ दोष नहीं होते फिर हम क्यों ये सब करें ? तो बात यह है कि जब अस्पताल आदि नहीं थे स्वास्थ्य सुविधाएं कम थीं जीवन तब भी चलता था, नजर के चश्मों के आविष्कार से पहले भी लोगों को दृष्टि दोष होता था तो वे बस इसे झेलते थे, तो बस बात इतनी है कि आपके पास एक सुविधा है अब ये आपके ऊपर है कि आप इसका उपयोग करो या न करो, बाहर देशों में खासकर यूरोप में भयंकर नकारात्मक जगहें आज भी हैं, लोग उनसे प्रभावित भी होते हैं पर जीवन चलता रहता है, लोग अशांत बने रहते हैं पैसे कमाते हैं और जैसे तैसे जीवन काट लेते हैं उनमें से कुछ अतिरिक्त विकल्पों को भी चुनते हैं, बस इतनी सी बात है। तो श्राद्ध का अर्थ बस पूर्वजों को याद करना और उनके प्रति अपनी श्रद्धा भर व्यक्त करना नहीं है, सही से की जाए तो यह अनेआप में एक सम्पूर्ण प्रक्रिया है जीवन के उस पार के आयाम को सहायता पहुचाने की, और पितर केवल पितृ लोक में फस कर ही नही रहते उनमें से अधिकांश पुनर्जन्म ले लेते हैं और कुछ उच्च लोकों में भी पहुंचते हैं जो वास्तव में उल्टे आपके लिए सहायक हो सकते हैं बाकी जो अक्षम हैं उनकी सहायता तो एक सभ्य समाज के तौर पर हमें अवश्य करनी चाहिए। केवल भौतिक शरीर और विचारों को स्वयं मान लेना यानी जीवन के एक बड़े भाग से अनिभिज्ञ रह आधा अधूरा जीवन जीना, दरसल हम अपने अस्तित्व अपने वजूद के एक महत्वपूर्ण भाग को बहुत बुरी तरह से भुला बैठे हैं इसलिए हमें श्राद्ध या पूजापाठ या तो केवल परम्परा भर लगती है या फिर अंधविश्वास, हम अपने बाकी क्रिया कलाप जैसे काम पर जाना, पार्टी करना, इलाज करवाना आदि को परम्परा या अंधविश्वास नहीं मानते क्योंकि ये चीजें हमारे अपने अनुभव में हमारे शरीर और मन के द्वारा आसानी से आजाती हैं, पर हम शरीर और मन से परे भी बहुत कुछ हैं, हमारी हालात ऐसी है जैसे कोई अंधा प्रकाश के आस्तित्व को विश्वास या अंधविश्वास में वर्गीकृत कर दे, यहां यह दोनों ही विकल्प गलत होंगे, यह न तो श्रद्धा है और न ही अंधविश्वास, हम अपने अस्तित्व के ऊर्जा आयाम के प्रति अंधे हो चुके हैं और इसीलिए हमें जीवंत अनुभव को छोड़ मान्यताओं की बैसाखियों की आवश्यकता महसूस होती है। ~ अनिरुद्ध ११/१०/२३ राम नाम की खूँटी गाड़ी सूरज ताना तंता। चढ़ते उतरते दम की ख़बर ले फिर नहीं आना बनता॥ Meaning - Erect the loom of Ram's name, The sun its fibers & threads, Be aware of your breath which is arising and passing, You won't be coming back again. अलिफल्ला चंबे दी बूटी मेरे मुर्शिद मन बिच लाई हू। नफ़ी अस्बात द पानी मिल्या हर रगे हरजाई हू। अंदर बूटी मुश्क मचाया जान फुलन ते आई हू। जीवे मुर्शिद कामिल बाहू जे बूटी मन लाई हू। "माला जपूँ ना कर जपूँ ,मुख से कहूँ ना राम राम हमारा हमें जपे है , हम पायो विश्राम ।" -कबीर साहब हद हद करते सब गए बेहद गयो न कोई अरे अनहद के मैदान में रहा कबीरा सोये हद हद जपे सो औलिये, बेहद जपे सो पीर हद अनहद दोनों जपे सो वाको नाम फ़कीर १३/१०/२३ अर्थ के तल पर कोई अभिव्यक्ति शब्द को खोलती हुई सर्वथा निर्दोष और निरापद नहीं हो सकती। उसमें कई अर्थ व्यंजित होंगे। इसमें सही और ग़लत जैसा निर्णय नहीं निकल पाता। पर कोई योगी जब कुछ व्यक्त करता है तो वह दर्पण की भाँति होता है, जिस्में अपना आत्म दिख जाता है। अपना आत्म देखने की ही हर किसी को आवश्यकता है। यही ओशो के कथन का आशय है, जिसमें वे ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए योगी के बारे में अपना मंतव्य व्यक्त कर रहे हैं कि योगी की आत्मकथा हो ही नहीं सकती, क्योंकि वह तो समग्र होता है, उसे व्यक्त किया ही नहीं जा सकता। १४/१०/२३ पितृपक्ष अनुपस्थित की उपस्थिति है। अस्तित्व के बाद का काव्यात्मक नैरन्तर्य । एक डोर जो टूटती नहीं, एक धारा जो अजस्र है। जो नहीं रहे, वे रहते हैं। वे प्रतीक्षा करते हैं। वे आते हैं। देह नहीं रहती । सम्बन्ध रहते हैं। कर्त्तव्य रहते हैं। अपेक्षाएँ रहती हैं। जीवन के बाद एक लोकोत्तर जीवन रहता है। प्यास रहती है। जल रहता है। आशुतोष दुबे https://cinemanthan.com/2013/10/14/tumekgorakhdhandha/ १५/१०/२३ ईसा मसीह यहूदी थे और यहूदियों ने ही उन्हें कठोरतम यातनाएँ देकर सलीब पर लटकाकर मार दिया। यहूदियों और ईसाइयों का यही झगड़ा है। ईसा मसीह को मारने के पाप से यहूदी तभी मुक्त होंगे, जब ईसा मसीह के संदेश को वे धारण करेंगे। किंतु जब अरबों या इस्लाम से उनका झगड़ा होता है तो यहूदी और ईसाई एक हो जाते हैं। यही कारण है कि अत्यंत सीमित संख्या में होने के बाद भी इज़राइल के यहूदियों के साथ समूची ईसाई दुनिया खड़ी रहती है। इसके पीछे ईसाइयों की एक और धारणा है कि ईसा का जन्म एक बार और यरूशलम में ही होगा, जिससे पूरी ईसाईयत स्वर्ग में पहुँच जाएगी। यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों एक ही देवदूत इब्राहिम से निकले अलग अलग संप्रदाय हैं। इन्हें सामी धर्म कहा गया है। इब्राहिम के पुत्र इस्माइल या इशाक के पैर से आबे जमज़म का झरना फूटा, जो इस्लाम के अनुयायियों के लिए गंगाजल के समान है। इब्राहिम के बाद अलग अलग कबीलों में बंटे समाज को पहले ईसा मसीह ने और फिर पैग़म्बर मोहम्मद ने इकट्ठा किया। ईदुलज़ुहा इन तीनों धर्मों में अपनी अपनी तरह से मनायी जाती है। फ़िलिस्तीन की जगह इन तीनों धर्मों के लिए भगवान की जन्मभूमि के समान महत्व रखती है, इसलिए इज़राइल और फ़िलिस्तीन का संघर्ष कभी समाप्त होता नहीं दिखता, जिसका जब ज़ोर होगा, वह वहाँ कब्ज़ा करना चाहेगा। यही अब तक वहाँ के इतिहास में होता आया है। किंतु इस ज़मीन के क़ब्ज़े से स्वर्ग पहुँचने की मान्यता खोखली है। ईसाई लोग इस झगड़े से थोड़ा दूर रहते हैं, इसलिए वे अपना उत्थान करते आये हैं। आज वे दुनिया में सर्वाधिक हैं और सबसे अधिक शक्ति धारण करते हैं। यहूदी ईसाइयों के पूर्वज हैं। वे भारत में छठी शताब्दी ईसा पूर्व में सबसे पहले और फिर ७० ईसवी से आकर यहाँ रह रहे हैं। भारत को वसुधैव कुटुंबकम् का नेता और विश्व गुरु यूँ ही नहीं कहा गया है। यहूदियों को सबसे पहले मिस्र से मोसेस के समय से निर्वासित किया गया है। यहूदियों का अस्तित्व बना रहना आवश्यक है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरे संप्रदाय की क़ीमत पर ऐसा करना पड़े। यरूशलम की उस भूमि पर सात परिक्रमा का बड़ा महत्व है, यह सात की संख्या सनातन धर्म में विशेष स्थान रखती है। यह सांकेतिक और रहस्यात्मक संख्या और तौर तरीक़े हैं, इन्हें मात्र उस ज़मीन में ही देखने से बचना चाहिए। सभी संप्रदायों का जब योग होगा, तब वास्तव में धर्म का उदय होगा। यह धर्म सनातन है। मेधा ऋषि राजा सुरथ और समाधि नामक वैश्य को भगवती की महिमा बताते हुए मधु कैटभ वध का प्रसंग सुनाते हैं। देवी भगवती महिषासुर की सेना और उसका वध करती हैं। फिर भगवती घोषणा करती है- जो मुझे संग्राम में जीत लेगा, मेरा दर्प दूर करेगा, मेरे समान बलवान होगा, वही मेरा भर्त्ता होगा। अतः शुम्भ या निशुम्भ कोई भी आकर मुझे जीतकर पाणिग्रहण कर ले”- “यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्प व्यपोहति। यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्त्ता भविष्यति।। इसके बाद भगवती शुंभ निशुंभ के सेनानी धूम्रलोचन, चंड और मुंड, रक्तबीज, निशुंभ एवं शुंभ आदि असुरों का संहार करती हैं। इसका सीधा अर्थ है कि मनुष्य के विकार रूप बड़े - बड़े असुर भी सूर्य, चंद्र और अग्नि नेत्र रूपा भगवती को परास्त नहीं कर सकते। मां के साथ सहचर हुआ जा सकता है बस, शिव बनकर। कथा के अनुसार देवी के वरदान से यह सुरथ (यानि अच्छे रथ पर सवार) क्षत्रिय ही सावर्णि (यानि स (उस) वर्ण के) मनु हुए। नवरात्रोपासना के उपरांत जब दस रथ की सवारी करके अर्थात् दशद्वार से उत्पन्न राम की चेतना मनुष्य में जाग्रत होती है तभी रावण जैसे महा असुर का संहार होता है। इनमे से किसी पात्र को इतिहास और जाति में मत खोजिए। यह सब हर मनुष्य के भीतर उपस्थित अंतर्द्वंद्व हैं. वैश्य उदर चेतना तो क्षत्रिय कर्म चेतना को अभिव्यक्त करने वाले वर्ग हैं। मंत्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी । ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी । यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ॥ आप सबको नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएँ... १७/१०/२३ संकल्प कामनाओंका कारण है और कामना संकल्पोंका कार्य है। संकल्प और कामना--ये दोनों कर्मके बीज हैं। संकल्प और कामना न रहनेपर कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् कर्म बाँधनेवाले नहीं होते। विषयोंका बार-बार चिन्तन होनेसे, उनकी बार-बार याद आनेसे उन विषयोंमें 'ये विषय अच्छे हैं, काममें आनेवाले हैं, जीवनमें उपयोगी हैं और सुख देनेवाले हैं'--ऐसी सम्यग्बुद्धिका होना 'संकल्प' है और 'ये विषय-पदार्थ हमारे लिये अच्छे नहीं हैं, हानिकारक हैं'--ऐसी बुद्धिका होना 'विकल्प' है। ऐसे संकल्प और विकल्प बुद्धिमें होते रहते हैं। जब विकल्प मिटकर केवल एक संकल्प रह जाता है, तब 'ये विषय-पदार्थ हमें मिलने चाहिये, ये हमारे होने चाहिये'--इस तरह अन्तःकरणमें उनको प्राप्त करनेकी जो इच्छा पैदा हो जाती है, उसका नाम 'काम' (कामना) है। कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषमें संकल्प और कामना--दोनों ही नहीं रहते अर्थात् उसमें न तो कामनाओंका कारण संकल्प रहता है और न संकल्पोंका कार्य कामना ही रहती है। अतः उसके द्वारा जो भी कर्म होते हैं, वे सब संकल्प और कामनासे रहित होते हैं। त्यागी शोभा जगतमें करता है सब कोय।
हरिया गृहस्थी संतका भेदी बिरला होय।। नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट। लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।। हनुमानजी ने कहा- आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही किवाड़ है। नेत्रों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं यही ताला लगा है, फिर प्राण जाएं तो किस मार्ग से? शब्दात्मिका सुविमलर्ग्यजुषाम् निधान- मुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम् । देवि त्रयी भगवती भवभावनाय वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री ॥ शब्दात्मिका = शब्दों की आत्मा सुविमलर्ग्यजुषाम् सुविमल ऋग् यजुषाम् = अत्यंत निर्मल ऋग्वेद और यजुर्वेद निधानम् = निधि, खजाना उद्गीथ रम्यपद पाठवतां = उद्गीथ के मनोहर पदों के पाठों च = और साम्नाम् = सामवेद देवि = देवी त्रयी = त्रयी (तीनों वेद ) भगवती = भगवती हैं भवभावनाय = संसार के पालन के लिए वार्ता = वार्ता (खेती और आजीविका ) च = और सर्वजगतां = सारे संसार की परम आर्तिहन्त्री= पीड़ाओं को हरने वाली हे देवी आप अत्यंत निर्मल ऋग्वेद और यजुर्वेद के शब्दों की आत्मा उद्गीथ के मनोहर पदों के पाठों और सामवेद का खज़ाना ,संसार के पालन के लिए वार्ता (खेती और आजीविका ), सारे संसार की पीड़ाओं को हरने वाली त्रयी (तीनों वेद ), भगवती हैं । १८/१०/२३ Ana Means -> In Breathe Apana Means -> Out Breathe Sati Means -> Be with it as one. In the begining, before the world was created, was HE, who is the WORD. HE was near to GOD and in everything equal to god. From the begining he was with GOD. Through HIM everything was created; nothing was created without HIM. In all created things he was the life, and for the people HE was the light. The light shines in the darkness, and the darkness has not been able to extinguish is. (Gosple of John, 1,1-5 ) "In the beginning PTAH spoke words, und the world was created.....Thus Ptah was satisfied after he had made all things and all divine words. " (Antique nubian stone-board with hyroglyphs.) (Prajapati vai idam agre asit tasya vak dvitiya asit vak vai param brahma ) or : "In the begining was Prajapati. With HIM was VAK (the WORD), and VAK was verily the highest Brahman."(Rig Veda) Ann.: In Hinduism the Sabda or pranava is the highest origin of the Mantras. शब्द साउंड को कह सकते हैं। अव्यक्त से साउंड या स्वर निकला, उससे फिर वर्ण बना, अक्षर हुआ, फिर पद और आगे वाक्य। शब्द भाषा नहीं है, भाषाएं अलग अलग हैं, क्योंकि उस अनंत रूप शब्द को हम समग्र में ग्रहण नहीं कर पाते हैं, पर भाषाओं के मूल में शब्द ही हैं। शब्द सृष्टि का मूल है। शब्द प्रकाश है, जिसके आलोक में छवियां तिरती हैं। इन छवियों को हम अर्थ कहेंगे। शब्द और उनके अर्थ अलग अलग दिखने का कारण है मूल शब्द, जो अनंत रूप व्यक्त हो रहा है। कोई सिरा पकड़ें, मूल तक जा सकते हैं। है सिरा पूर्ण है, जिसमे वह पूर्व उपस्थित है और पूर्ण ही व्यक्त हो रहा है। अनंत का हर अंश पूर्ण है, उसके किसी अंश में विरोध नहीं है। बस उनमें विरोधाभास होता है। अनंत के अंश व्यक्त ही क्यों होते हैं, क्या वे खंड खंड होने को अभिशप्त हैं, नहीं। वह परम तत्व अनंत में व्यक्त होकर लीला विनोद कर रहा है, इस लीला का सहभागी होकर हमें उसी लीला स्वभाव से रहना है। दुर्गा सप्तशती का आध्यात्मिक विज्ञान *************************** श्री दुर्गा सप्तशती के सात सौ मन्त्र ब्रह्म की शक्ति चण्डी के मंदिर की सात सौ सीढियाँ है, जिन्हें पारकर साधक मंदिर में पहुँचता है। मार्कण्डेय पुराणोक्त 700 श्लोकी श्री दुर्गा सप्तशती मुख्यतः 3 चरित्रों में विभाजित है- 1. प्रथम चरित्र ( मधु-कैटभ-वध) 2. मध्यम चरित्र ( महिषासुर वध) 3. उत्तम चरित्र (शुम्भ-निशुम्भ-वध) ये तीनो चरित 3 प्रकार के कर्म संस्कारो या वासनाओं - 1.सञ्चित 2.प्रारब्ध 3.भविष्यत् अथवा तीन गुणों - 1.सत्व 2.रज 3. तम अथवा तीन ग्रंथियों - 1.ब्रह्म ग्रन्थि 2. विष्णु ग्रन्थि 3. रूद्र ग्रन्थि के प्रति न केवल हमारा ध्यान आकर्षित करते है अपितु एक सुंदर कथा के माध्यम से इनके मूल में हमारा प्रवेश भी करा देते है और जैसे ही मनुष्य उक्त तीनो के मूल में पहुँचता है, वैसे ही वह ब्रह्म की शक्ति भगवती चण्डिका के मन्दिर अर्थात सान्निध्य में पहुँच जाता है। सप्तशती के 700 श्लोक रुपी सीढियाँ ब्रह्म की शक्ति भगवती चण्डिका के पास पहुँचने के माध्यम है। श्री दुर्गा सप्तशती के तीनों चरितो के विनियोग से ही इस विषय का स्पष्ट आभास होता है। प्रथम चरित (मधु कैटभ वध) के ऋषि ब्रह्मा है। जिस मन्त्र के जो प्रथम द्रष्टा होते है, वे ही उस मन्त्र के ऋषि होते है। इस प्रकार "मधु कैटभ वध" रुपी प्रथम चरित के मन्त्रो के प्रथम द्रष्टा श्री ब्रह्मा है। "मधु-कैटभ-वध" अथवा "सतो गुण" का प्रलय विराट मन में ही संघटित होता है। मन के ही द्वारा सृष्टि होती है। विराट मन ब्रह्मा है और यही विराट मन अर्थात सृष्टि कर्ता ब्रह्मा प्रथम चरित के प्रथम दर्शक है। कथा में भी ऐसा वर्णित है कि ब्रह्मा ही मधु कैटभ वध के प्रथम कारण है।"महाकाली" देवता है। प्रलयंकारी तामसी शक्ति के अंक में ही सत्त्वादि गुणों का अवसान होता है। "गायत्री"- छंद है। प्राण का प्रवाह अथवा स्पंदन ही छंद कहलाता है। "प्रथम चरित" में प्रविष्ट साधक का प्राण स्पंदन ठीक वेद- माता गायत्री के समान होता है, इसीलिए इसका छंद गायत्री है। नन्दा या ह्लादिनी इसकी शक्ति है- यह विष्णु की शक्ति है जिसके द्वारा विष्णु ने "मधु कैटभ का वध" किया था। रक्त दन्तिका अर्थात परा-प्रकृति का रक्त- वर्णात्मक रजो- गुणात्मक चित्त ही इसका बीज है। रजो गुण की क्रियाशीलता द्वारा ही सतो गुण का लय होता है। अग्नि या तेजस तत्व में ही सभी भावो का लय होता है, अतः अग्नि ही इसका तत्व है। अग्नि या तेजस से ऋक या वाक् का आविर्भाव होता है। अतः ऋग्वेद इसका स्वरुप है। महाकाली प्रीत्यर्थे अर्थात प्रलयंकारी तामसी मूर्ति में साधक की प्रीति या आसक्ति के लिए ही प्रथम चरित का पाठ रूप कार्य अथवा विनियोग है। क्रमशः ..... दुर्गा सप्तशती का आध्यात्मिक विज्ञान - २ ※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※ गतांक से आगे... मध्यम चरित ( महिषासुर-वध) के ऋषि विष्णु है। जिस समष्टि प्राण के कारण यह विराट ब्रह्माण्ड स्थित है, वे ही विष्णु है। रजो गुण का बहिर्मुख विक्षेप रूप "महिषासुर" इसी महाप्राण के अंक में विलय को प्राप्त होता है, अतः विष्णु ही मध्यम चरितके द्रष्टा या ऋषि है। "महालक्ष्मी" देवता है। लक्ष्मी प्राण शक्ति का दूसरा नाम है। जब तक देह में प्राण शक्ति विराजित रहती है, तभी तक हम सबके नामो के आगे लक्ष्मी का दूसरा पर्याय श्री शब्द प्रयुक्त होता है। व्यष्टि प्राण शक्ति का नाम लक्ष्मी है एवं समष्टि प्राण शक्ति का नाम महालक्ष्मी है। यह ब्रह्म की शक्ति भगवती चण्डिका की रजो-गुणात्मिका महती शक्ति है। इन्ही के द्वारा विषयासक्ति रूप विक्षेप नियंत्रित अथवा निहत होता है।इसलिए "महालक्ष्मी" ही मध्यम चरित की देवता है। उष्णिक इसका छंद है। इस चरित में प्रविष्ट साधक का प्राण प्रवाह उष्णिक नामक छन्द के समान स्पन्द युक्त होता है। शाकंभरी मध्यम चरित की शक्ति है। शाकम्भरी के संबंध में श्री दुर्गा सप्तशती में माँ स्वयं कहती है -- ततो$हमखिलं लोकमात्म-देह-समुद्भावै:। भरिष्यामि सुरा: शकीरावृषटे: प्राण धारकै:।। शाकम्भरीति विख्यातिं, तदा यास्याम्यहं भुवि । अर्थात जगत में एक ऐसा समय आयेगा जब अनावृष्टि से अर्थात ब्रह्म रस धारा के अभाव में जीव गण अतिशय दुखित और संतप्त हो पड़ेंगे, जब स्थूल जगत आत्म रस को खोज नहीं पायेगा, आत्मा को जगदातीत कह कर पूर्ण रूप से बहिर्मुखी हो जाएगा, तब मेरा आविर्भाव शाकंभरी मूर्ति में होगा। यह विश्व ही हमारा देह है, इसे जीव गण को समझा दूंगी । विश्व का प्रत्येक पदार्थ प्राणमय है, एक मात्र चैतन्य वस्तु ही इस विश्व का उपादान है, यह उस समय जीव गण सहज ही अनुभव करने लगेंगे। एक मात्र सर्व व्यापी चैतन्य शक्ति को खोज कर ही तब मनुष्य स्वयं को पुष्ट कर सकेंगे। शाकंभरी मूर्ति के अवतरण का यही रहस्यार्थ है। मध्यम चरित का बीज दुर्गा है। इस संबंध में भी "श्री दुर्गा सप्तशती" में स्वयं भगवती उक्त श्लोक के बाद कहती है - तत्रैव च वदिष्यामि, दुर्गमाख्यं महा$सुरम् । दुर्गा देवीति विख्यातं, तन्मे नाम भविष्यति ।। अर्थात शाकंभरी मूर्ति से ही दुर्गम नामक असुर का वध कर मैं दुर्गा देवी नाम से विख्यात होऊँगी। जो संपूर्ण दुर्गति का हरण करती है, वे ही दुर्गा है। इस प्रकार दुर्गति हरण ही मध्यम चरित का बीज या मूल कारण है। वायु तत्व अर्थात प्राणशक्ति जब आत्म प्रकाश करती है तब वायु रूप में उसकी अभिव्यक्ति होती है और वायु तत्व की अनुभूति होने पर ही यजुर्वेद रूप यज्ञ मय शब्द राशि का प्रादुर्भाव होता है। इसीलिए वायु देवता के मन्त्र से ही यजुर्वेद का आरंभ होता है। संक्षेप में महालक्ष्मी की प्रीति अर्थात महाप्राण मयी माँ के प्रति महती प्रीति प्राप्त करने का उद्देश्य ही मध्यम चरित का विनियोग है। दुर्गा सप्तशती का वैदिक विज्ञान *************************************** ब्रह्म सत्-चित् और आनन्द रूप से त्रिभाव द्वारा माना जाता है | जिस प्रकार कारण ब्रहम में तीन भाव हैं उसी प्रकार कार्य ब्रह्म भी त्रिभावात्मक है | इसीलिये वेद और वेदसम्मत शास्त्रों की भाषा भी त्रिभावात्मक ही होती है | इसी परम्परा के अनुसार देवासुर संग्राम के भी तीन स्वरूप हैं | जो दुर्गा सप्तशती के तीन चरित्रों में वर्णित किये गए हैं | देवलोक में ये ही तीनों रूप क्रमशः प्रकट होते हैं | पहला मधुकैटभ के वध के समय, दूसरा महिषासुर वध के समय और तीसरा शुम्भ निशुम्भ के वध के समय | वह अरूपिणी, वाणी मन और बुद्धि से अगोचरा सर्वव्यापक ब्रह्म शक्ति भक्तों के कल्याण के लिये अलौकिक दिव्य रूप में प्रकट हुआ करती है | ब्रह्मा में ब्राह्मी शक्ति, विष्णु में वैष्णवी शक्ति और शिव में शैवी शक्ति जो कुछ भी है वह सब उसी महाशक्ति का अंश है | त्रिगुणमयी महाशक्ति के तीनों गुण ही अपने अपने अधिकार के अनुसार पूर्ण शक्ति विशिष्ट हैं | अध्यात्म स्वरूप में प्रत्येक पिण्ड में क्लिष्ट और अक्लिष्ट वृत्तियों का संघर्ष, अधिदैव स्वरूप में देवासुर संग्राम और अधिभौतिक स्वरूप में मृत्युलोक में विविध सामाजिक संघर्ष तथा राजनीतिक युद्ध – सप्तशती गीता इन्हीं समस्त दार्शनिक रहस्यों से भरी पड़ी है | यह इस कलियुग में मानवपिण्ड में निरन्तर चल रहे इसी देवासुर संग्राम में दैवत्व को विजय दिलाने के लिये वेदमन्त्रों से भी अधिक शक्तिशाली है | दुर्गा सप्तशती उपासना काण्ड का प्रधान प्रवर्तक उपनिषद ग्रन्थ है | इसका सीधा सम्बन्ध मार्कंडेय पुराण से है | सप्तशती में अष्टम मनु सूर्यपुत्र सावर्णि की उत्पत्ति की कथा है | यह कथा कोई लौकिक इतिहास नहीं है | पुराण वर्णित कथाएँ तीन शैलियों में होती हैं | एक वे विषय जो समाधि से जाने जा सकते हैं – जैसे आत्मा, जीव, प्रकृति आदि | इनका वर्णन समाधि भाषा में होता है | दूसरे, इन्हीं समाधिगम्य अध्यात्म तथा अधिदैव रहस्यों को जब लौकिक रीति से आलंकारिक रूप में कहा जाता है तो लौकिक भाषा का प्रयोग होता है | मध्यम अधिकारियों के लिये यही शैली होती है | तीसरी शैली में वे गाथाएँ प्रस्तुत की जाती हैं जो पुराणों की होती हैं | ये गाथाएँ परकीया भाषा में प्रस्तुत की जाती हैं | दुर्गा सप्तशती में तीनों ही शैलियों का प्रयोग है | जो प्रकरण राजा सुरथ और समाधि वैश्य के लिये परकीय भाषा में कहा गया है उसी प्रकरण को देवताओं की स्तुतियों में समाधि भाषा में और माहात्म्य के रूप में लौकिक भाषा में व्यक्त किया गया है | राजा सुरथ और समाधि वैश्य को ऋषि ने परकीय भाषा में देवी के तीनों चरित्र सुनाए | क्योंकि वे दोनों समाधि भाषा के अधिकारी नहीं थे | तदुपरान्त लौकिक भाषा में उनका अधिदैवत् स्वरूप समझाया | और तब समाधि भाषा में मोक्ष का मार्ग प्रदर्शित किया : ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा, बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति || तया विसृज्यते विश्वं जगदेतच्चराचरम्, सैषा प्रसन्ना वरदा नृणाम् भवति मुक्तये || सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी, संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी || प्रथम चरित्र में भगवान् विष्णु योगनिद्रा से जागकर मधुकैटभ का वध करते हैं | भगवान् विष्णु की यह अनन्त शैया महाकाश की द्योतक है | इस चरित्र में ब्रह्ममयी की तामसी शक्ति का वर्णन है | इसमें तमोमयी शक्ति के कारण युद्धक्रिया सतोगुणमय विष्णु के द्वारा सम्पन्न हुई | सत्व गुण ज्ञानस्वरूप आत्मा का बोधक है | इसी सत्वगुण के अधिष्ठाता हैं भगवान् विष्णु | ब्राह्मी सृष्टि में रजोगुण का प्राधान्य रहता है और सतोगुण गौण रहता है | यही भगवान् विष्णु का निद्रामग्न होना है | जगत् की सृष्टि करने के लिये ब्रह्मा को समाधियुक्त होना पड़ता है | जिस प्रकार सर्जन में विघ्न भी आते हैं उसी प्रकार इस समाधि भाव के भी दो शत्रु हैं – एक है नाद और दूसरा नादरस | नाद एक ऐसा शत्रु है जो अपने आकर्षण से तमोगुण में पहुँचा देता है | यही नाद मधु है | समाधिभाव के दूसरे शत्रु नादरस के प्रभाव से साधक बहिर्मुख होकर लक्ष्य से भटक जाता है | जिसका परिणाम यह होता है कि साधक निर्विकल्पक समाधि – अर्थात् वह अवस्था जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय में भेद नहीं रहता – को त्याग देता है और सविकल्पक अवस्था को प्राप्त हो जाता है | यही नादरस है कैटभ | क्योंकि मधु और कैटभ दोनों का सम्बन्ध नाद से है इसीलिये इन्हें “विष्णुकर्णमलोद्भूत” कहा गया है | मधु कैटभ वध के समय नव आयुधों का वर्णन शक्ति की पूर्णता का परिचायक है | यह है महाशक्ति का नित्यस्थित अध्यात्मस्वरूप | यह प्रथम चरित्र सृष्टि के तमोमय रूप का प्रकाशक होने के कारण ही प्रथम चरित्र की देवता महाकाली हैं | क्योंकि तम में क्रिया नही होती | अतः वहाँ मधु कैटभ वध की क्रिया भगवान् विष्णु के द्वारा सम्पादित हुई | क्योंकि तामसिक महाशक्ति की साक्षात् विभूति निद्रा है, जो समस्त स्थावर जंगमादि सृष्टि से लेकर ब्रह्मादि त्रिमूर्ति तक को अपने वश में करती है | दूसरे चरित्र में सतोगुण का पुंजीभूत दिव्य तेज ही तमोगुण के विनाश का साधन बनता है | महिषासुर वध के लिये विष्णु एवं शिव समुद्यत हुए | उनके मुखमण्डल से महान तेज निकलने लगा : “ततोऽपिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वद्नत्ततः, निश्चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च |” और वह तेज था कैसा “अतीव तेजसः कूटम् ज्वलन्तमिव पर्वतम् |” तत्पश्चात् अरूपिणी और मन बुद्धि से अगोचर साक्षात् ब्रह्मरूपा जगत् के कल्याण के लिये आविर्भूत हुईं | यह है शक्ति का अधिदैव स्वरूप | यों पाप और पुण्य की मीमांसा कोई सरल कार्य नहीं है | जैव दृष्टि से चाहे जो कार्य पाप समझा जाए, किन्तु मंगलमयी जगदम्बा की इच्छा से जो कार्य होता है वह सबी जीव के कल्याणार्थ ही होता है | इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देवासुर संग्राम है | युद्ध प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया है | यह देवासुर संग्राम प्राकृतिक शृंखला के लिये इस चरित्र का आधिभौतिक स्वरूप है | सर्वशक्तिमयी के द्वारा क्षणमात्र में उनके भ्रूभंग मात्र से असुरों का नाश सम्भव था | लेकिन असुर भी यदि शक्ति उपासना करें तो उसका फल तो उन्हें मिलेगा ही | अतः महिषासुर को भी उसके ताप के प्रभाव के कारण स्वर्ग लोक में पहुँचाना आवश्यक था | इसीलिये उसको साधारण मृत्यु – दृष्टिपात मात्र से भस्म करना – न देकर रण में मृत्यु दी जिससे कि वह शस्त्र से पवित्र होकर उच्च लोक को प्राप्त हो | शत्रु के विषय में भी ऐसी बुद्धि सर्वशक्तिमयी की ही हो सकती है | युद्ध के मैदान में भी उसके चित्त में दया और निष्ठुरता दोनों साथ साथ विद्यमान हैं | इस दूसरे चरित्र में महासरस्वती, महाकाली और महालक्ष्मी की रजःप्रधान महिमा का वर्णन है | इस चरित्र में महाशक्ति के रजोगुणमय विलास का वर्णन है | महिषासुर का वध ब्रह्मशक्ति के रजोगुणमय ऐश्वर्य से किया | इसीलिये इस चरित्र की देवता रजोगुणयुक्त महालक्ष्मी हैं | इस चरित्र में तमोगुण को परास्त करने के लिये शुद्ध सत्व में रज का सम्बन्ध स्थापित किया गया है | पशुओं में महिष तमोगुण की प्रतिकृति है | तमोबहुल रज ऐसा भयंकर होता है कि उसे परास्त करने के लिये ब्रह्मशक्ति को रजोमयी ऐश्वर्य की सहायता लेनी पड़ी | तमोगुण रूपी महिषासुर को रजोगुण रूपी सिंह ने भगवती का वाहन बनकर (उसी सिंह पर शुद्ध सत्वमयी चिन्मयरूपधारिणी ब्रह्मशक्ति विराजमान थीं) अपने अधीन कर लिया | तृतीय चरित्र में रौद्री शक्ति का आविर्भाव कौशिकी और कालिका के रूप में हुआ | वस्तुतः सत् चित् और आनन्द इन तीनों में सत् से अस्ति, चित् से भाति, और आनन्द से प्रिय वैभव के द्वारा ही विश्व प्रपंच का विकास होता है | इस चरित्र में भगवती का लीलाक्षेत्र हिमालय और गंगातट है | सद्भाव ही हिमालय है और चित् स्वरूप का ज्ञान गंगाप्रवाह है | कौशिकी और कालिका पराविद्या और पराशक्ति हैं | शुम्भ निशुम्भ राग और द्वेष हैं | राग और द्वेष जनित अविद्या का विलय केवल पराशक्ति की पराविद्या के प्रभाव से ही होता है | इसीलिये शुम्भ और निशुम्भ रूपी राग और द्वेष महादेवी में विलय हो जाते हैं | राग द्वेष और धर्मनिवेशजनित वासना जल एवम् अस्वाभाविक संस्कारों का नाश हो जाने पर भी अविद्या और अस्मिता तो रह ही जाती है | यह अविद्या और अस्मिता शुम्भ और निशुम्भ का आध्यात्मस्वरूप है | देवी के इस तीसरे चरित्र का मुख्य उद्देश्य अस्मिता का नाश ही है | अस्मिता का बल इतना अधिक होता है कि जब ज्ञानी व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त करने लगता है तो सबसे पहले उसे यही भान होता है कि मैं ही ब्रह्म हूँ | उस समय विद्या के प्रभाव से “मैं” इस अस्मिता के लोकातीत भाव तक को नष्ट करना पड़ता है | तभी स्वस्वरूप का उदय हो पाता है | निशुम्भ के भीतर से दूसरे पुरुष का निकलना और देवी का उसे रोकना या इसी भाव का प्रकाशक है | निशुम्भ के साथ उस पुरुष तक को मार डालने से अस्मिता का नाश होता है | और तभी देवी के निशुम्भ वध की क्रिया सुसिद्ध होती है | यही शुम्भ निशुम्भ वध का गूढ़ रहस्य है | वास्तव में यह युद्ध विद्या और अविद्या का युद्ध है | इस तीसरे चरित्र में क्योंकि देवी की सत्वप्रधान लीला का वर्णन है | इसलिए इस चरित्र की देवता सत्वगुणयुक्त महासरस्वती बताई गई हैं | इस चरित्र के सत्वप्रधान होने के कारण ही इसमें भगवती की निर्लिप्तता के साथ साथ क्रियाशीलता भी अलौकिक रूप में प्रकट होती है | सूक्ष्म जगत् और स्थूल जगत् दोनों ही में ब्रह्मरूपिणी ब्रह्मशक्ति जगत् और भक्त के कल्याणार्थ अपने नैमित्तिक रूप में आविर्भूत होती है | राजा सुरथ और समाधि वैश्य के हेतु भक्त कल्याणार्थ आविर्भाव हुआ | तीनों चरित्रों में वर्णित आविर्भाव स्थूल और सूक्ष्म जगत् के निमित्त से हुआ | वह भगवती ज्ञानी भक्तों के लिये ब्रह्मस्वरूपा, उपासकों के लिये ईश्वरीरूपा, और निष्काम यज्ञनिष्ठ भक्तों के लिये विराट्स्वरूपा है : त्वं सच्चिदानन्दमये स्वकीये ब्रह्मस्वरूपे निजविज्ञभक्तान् | तथेशरूपे विधाप्य मातरुपासकान् दर्शनामात्म्भक्तान् || निष्कामयज्ञावलिनिष्ठसाधकान् विराट्स्वरूपे च विधाप्य दर्शनम् | श्रुतेर्महावाक्यमिदं मनोहरं करोष्यहो तत्वमसीति सार्थकम् || शक्ति और शक्तिमान में अभेद होता है | सृष्टि में शक्तिमान से शक्ति का ही आदर और विशेषता होती है | किसी किसी उपासना प्रणाली में शक्तिमान को प्रधान रखकर उसकी शक्ति के अवलम्बन में उपासना की जाती है | जैसे वेद और शास्त्रोक्त निर्गुण और सगुण उपासना | इस उपासना पद्धति में आत्मज्ञान बना रहता है | कहीं कहीं शक्ति को प्रधान मानकर शक्तिमान का अनुमान करते हुए उपासना प्रणाली बनाई गई है | यह अपेक्षाकृत आत्मज्ञानरहित उपासना प्रणाली है | इसमें आत्मज्ञान का विकास न रहने के कारण साधक केवल भगवान् की मनोमुग्धकारी शक्तियों के अवलम्बन से मन बुद्धि से अगोचर परमात्मा के सान्निध्य का प्रयत्न करता है | लेकिन भगवान् की मातृ भाव से उपासना करने की अनन्त वैचित्र्यपूर्ण शक्ति उपासना की जो प्रणाली है वह इन दोनों ही प्रणालियों से विलक्षण है | इसमें शक्ति और शक्तिमान का अभेद लक्ष्य सदा रखा गया है | एक और जहाँ शक्तिरूप में उपास्य और उपासक का सम्बन्ध स्थापित किया जाता है, वहीं दूसरी ओर शक्तिमान से शक्तिभाव को प्राप्त हुए भक्त को ब्रह्ममय करके मुक्त करने का प्रयास होता है | यही शक्ति उपासना की इस तीसरी शैली का मधुर और गम्भीर रहस्य है | विशेषतः भक्ति और उपासना की महाशक्ति का आश्रय लेने से किसी को भी निराश होने की सम्भावना नहीं रहती | युद्ध तो प्रकृति का नियम है | लेकिन यह देवासुर संग्राम मात्र देवताओं का या आत्मोन्मुखी और इन्द्रियोन्मुखी वृत्तियों का युद्ध ही नहीं था, वरन् यह देवताओं का उपासना यज्ञ भी था | और जगत् कल्याण की बुद्धि से यही महायज्ञ भी था | और इस सबके मर्म में एक महान सन्देश था | वह यह कि यदि दैवी शक्ति और आसुरी शक्ति दोनों अपनी अपनी जगह कार्य करें, दोनों का सामंजस्य रहे, एक दूसरे का अधिकार न छीनने पाए, तभी चौदह भुवनों में धर्म की स्थापना हो सकती है | और बल, ऐश्वर्य, बुद्धि और विद्या आदि प्रकाशित रहकर सुख और शान्ति विराजमान रह सकती है | भारतीय मनीषियों ने शक्ति में माता और जाया तथा दुहिता का समुज्ज्वल रूप स्थापित कर व्यक्ति और समाज को सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया है | शक्ति, सौन्दर्य और शील का पुंजीभूत विग्रह उस जगज्जननी दुर्गा को कोटिशः नमन् | अष्टावक्र वैदिक विज्ञान संशोधन २०/१०/२३ क्या खोया क्या पाया, हम उसके हमसाया। सदा अतः हर्षाया। कुछ न जाया माया। क्या खोया क्या पाया। जीना और होना। होना और जीना। यही तो हम हैं ना!🙏 यह जानना ही तो सुख है कि जीवन दुःख है। जानने के बाद न सुख है, दुःख है। प्यारीजू! आप ये अनुभूतियाँ पहले पाती हैं, फिर फैलाती हैं, बहुत सुंदर। महामुद्रा तिरोहिता की पोस्ट पर 🙏🙏 २१/१०/२३ 💥A rare conversation between *Ramkrishna Paramahansa* & *Swami Vivekananda* 🔶 *1. Swami Vivekanand*:- I can’t find free time. Life has become hectic. *Ramkrishna Paramahansa*:- Activity gets you busy. But productivity gets you free. *2. Swami Vivekanand:-* Why has life become complicated now? *Ramkrishna Paramahansa:-* Stop analyzing life... It makes it complicated. Just live it. *3. Swami Vivekanand*:- Why are we then constantly unhappy? *Ramkrishna Paramahansa:*- Worrying has become your habit. That’s why you are not happy. *4. Swami Vivekanand:-* Why do good people always suffer? *Ramkrishna Paramahansa*:- Diamond cannot be polished without friction. Gold cannot be purified without fire. Good people go through trials, but don’t suffer. With that experience their life becomes better, not bitter. *5. Swami Vivekanand:*- You mean to say such experience is useful? *Ramkrishna Paramahansa*:- Yes. In every term, Experience is a hard teacher. She gives the test first and the lessons later. *6. Swami Vivekanand:-* Because of so many problems, we don’t know where we are heading… *Ramkrishna Paramahansa:-* If you look outside you will not know where you are heading. Look inside. Eyes provide sight. Heart provides the way. *7. Swami Vivekanand:-* Does failure hurt more than moving in the right direction? *Ramkrishna Paramahansa:*- Success is a measure as decided by others. Satisfaction is a measure as decided by you. *8. Swami Vivekanand:*- In tough times, how do you stay motivated? *Ramkrishna Paramahansa:*- Always look at how far you have come rather than how far you have to go. Always count your blessing, not what you are missing. *9. Swami Vivekanand:-* What surprises you about people? *Ramkrishna Paramahansa:*- When they suffer they ask, "why me?" When they prosper, they never ask "Why me?" *10. Swami Vivekanand:-* How can I get the best out of life? *Ramkrishna Paramahansa*:- Face your past without regret. Handle your present with confidence. Prepare for the future without fear. *11. Swami Vivekanand:*- One last question. Sometimes I feel my prayers are not answered. *Ramkrishna Paramahansa:*- There are no unanswered prayers. Keep the faith and drop the fear. Life is a mystery to solve, not a problem to resolve. Trust me. Life is wonderful if you know how to live. २१/१०/२३ देहोत्सर्ग ही बलि नहीं है। देह तो बलि चढ़ाने का स्थूल रूप है। दूसरे शब्दों में, बलि देह चढ़ा कर ही नहीं दी जाती। अतः देह उत्सर्ग केवल हाड़मांस के शरीर को प्राणविहीन कर देने भर का नाम नहीं है। बलि पूजा पर्व का समय चल रहा है। वास्तविक अर्थों में बलि करना यही है... मुक्तिबोध बहुत गहरे तल के कवि हैं, द्रष्टा हैं। उनकी एक कविता है - एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन, उसका अंश नीचे द्रष्टव्य है। यही एक आशा है कि मिट्टी के अंधेरे उन इतिहास-स्तरों में तब हमारा भी चिह्न रह जाएगा। नाम नहीं, कीर्ति नहीं, केवल अवशेष, पृथ्वी के खोदे हुए गड्ढों में रहस्यमय पुरुषों के पंजर और ज़ंग-खाई नोकों के अस्त्र!! xxx लेकिन, दबी धुकधुकियों, सोचो तो कि अपनी ही आँखों के सामने ख़ूब हम खेत रहे! ख़ूब काम आए हम!! आँखों के भीतर की आँखों में डूब-डूब फैल गए हम लोग!! आत्म-विस्तार यह बेकार नहीं जाएगा। ज़मीन में गड़े हुए देहों की ख़ाक से शरीर की मिट्टी से, धूल से। खिलेंगे गुलाबी फूल। सही है कि हम पहचाने नहीं जाएँगे। दुनिया में नाम कमाने के लिए कभी कोई फूल नहीं खिलता है ह्रदयानुभव-राग अरुण गुलाबी फूल, प्रकृति के गन्ध-कोष काश, हम बन सकें!- मुक्तिबोध 22/10/23 जिस भाषा में मूल रूप से जो कथन व्यक्त हुआ, उसी भाषा में वह अच्छी तरह ग्रहण होता है। आजकल माई के गीत गाए सुनाए जा रहे हैं, वे अगर बुंदेली में हों, या क्षेत्रीय भाषा में हों, उसी की लय और वाद्य संगीत हो तो अधिक प्रभाव पैदा करते हैं। यही स्थिति विवाह और अन्य अवसरों पर गाए जाने वाले गीतों की है, हमे पंजाबी या फिल्म के गीतों को क्या उधार लेना! वस्तुतः फिल्म जगत में बोलियों से ही गीत संगीत उठाए जाते हैं, बस उन्हें वे अपने ढंग से संयोजित और परिष्कृत करते हैं। बुंदेलखंड में जवारे बोए जाते हैं, उनके गीत सुनना भी एक अलग अनुभव से गुजरना है। अनेक पर्वों के अपने अपने गीत हैं, उनके तरीके हैं, उन्हें स्वाभाविक रूप में चलते रहने देना अच्छा है। उनमें रमना रुचिकर लगता है। तुलनात्मक रूप से नगरीय संस्कृति अनुकरण पर आधारित होती है, वह अधिक से अधिक परिष्कार किया करते हैं। ग्रामीण संस्कृति के पास अनुकरण करने के लिए अवकाश कम रहता है, इसलिए अनगढ़ ही सही, पर उनके माध्यम से नया सृजन होता आया है। यह नवता ही परिष्कृत होकर आगे जायेगी, अनुकरण छूट जायेगा। २३/१०/२३ ऊर्जा का रूपान्तरण चेतना में जब होता है, तब सभी चेतना संपन्न व्यक्ति एक धरातल पर आ जाते हैं। तभी ऐक्य की बात सही हो पाती है। उससे पहले खंड खंड एकतायें हैं, जिनमे मात्र क्षणिक सुख है, आनंद चेतनगत एकता के बाद ही संभव है। 🙏🙏 २४/१०/२३ ज्ञान एवं कर्म की दस इंद्रियां हैं और उनके दस देवता हैं- कान के देव दिशा, चक्षु के सूर्य, नासिका के अश्विनी कुमार, रसना के वरुण, त्वचा के वायु, वाणी के अग्नि, हस्त के इंद्र, चरण के उपेंद्र (विष्णु), उपस्थ के प्रजापति, निवृत्ति इंद्रिय के मृत्यु। यह दस देवताओं का योग करने और दसों इंद्रियों का निग्रह करने के कारण भगवान को हृषिकेश कहा जाता है। दसों इंद्रियों का निरोध करने के कारण दशहरा पर्व हुआ। इस अवसर पर राम चेतना का उदय और रावण वृत्तियों का शमन होता है। दशहरा पर्व नव रात्र साधना के पश्चात् आता है, अर्थात् नव द्वारों से पार कर दशम द्वार तक पहुँचा जा सकता है। दशम द्वार में प्रविष्ट होने ही बाद ही बीस दिन बाद दीप ज्योति प्रकाशित होती है यानि दीपावली आती है। आप सबको दशहरा पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ🌹🙏 योग वासिष्ठ भारतीय वांगमय की अद्भुत रचना है। आध्यात्म जगत् के जितने पुरस्कर्ता हुए हैं, यह रचना उन सबमें समादृत है। कहते हैं इसे वाल्मीकि ने लिखा, आठ वर्ष के राम के प्रश्नों के उत्तर देने के फलस्वरूप महर्षि वशिष्ठ द्वारा मूल रूप से इसकी रचना हुयी है। महर्षि वशिष्ठ की इस रचना का संकलन महर्षि वाल्मीकि द्वारा किया गया। इसे महारामायण कहा गया है। रामायण में जो बात प्रबंध गाथा के माध्यम से समझायी गई है, उसे इसमें छोटी छोटी कथाओं के माध्यम से दिया गया है। भगवान राम और सीता की कथा इसमें नहीं है, परंतु दो पंक्तियों में निबद्ध गूढ़ ज्ञान को सरलता से प्रस्तुत किया गया है। इसमें कोई योग संबंधी आसन और प्राणायाम की विधियाँ नहीं हैं, फिर भी इसे योग कहा गया। इस रामायण का जन सामान्य में वाल्मीकीय या तुलसी रामायण की भाँति प्रचार प्रसार न हो सका। पर यही रामायण हिंदी गद्य की जनक बनी। रामप्रसाद निरंजनी ने पटियाला की देसो रानी को सुनाने के बाद भाषा योग वासिष्ठ नाम से १७४१ में इसे प्रकाशित कराया। यह हिंदी की पहली गद्य रचना है। एक और रामप्रसाद बंगाल में हुए, अद्भुत गीतकार, उनके रचे गीत वहाँ के लोक में लोकगीतों और भजनों की तरह गाये जाते हैं। वहाँ के अन्य संत रामप्रसाद जी को उल्लिखित करते हुए माता के गीत गाते हैं। फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना सन् १८०० से पूर्व और लल्लू जी लाल की प्रसिद्ध रचना प्रेमसागर से पूर्व भाषा योग वासिष्ठ लिखा गया। योग वासिष्ठ संस्कृत में ३० हज़ार श्लोकों में निबद्ध बहुत बड़ी रचना है। यह रामायण से भी बड़ी रचना है। मूल महाभारत (जय) में भी २४ हज़ार श्लोक ही थे। अब महाभारत में एक लाख श्लोक हो गए हैं। देश की उत्तर से लेकर दक्षिण तक की अन्य भाषाओं और दुनिया के देशों तक यह योग वासिष्ठ प्रसारित हुई, पर हिंदी समाज में यह उतनी नहीं जानी जा पायी। योग वासिष्ठ की ही तरह अष्टावक्र गीता को भी हिंदी पट्टी समाज में उतना स्थान नहीं मिल पाया है। दोनों ग्रंथ पाठक को समृद्ध करते हैं। २६/१०/२३ और गहरी और गहरी उतरी हो बाबुशा। द्रष्टा या साक्षी भी कहाँ रहेगा! दृश्य या हुब्ब ही जब हो रहा हो। दृश्य में ही जब द्रष्टा सिमट गया हो। यह तथाता है, सा काष्ठा सा परमगति। तुम्हारी गति प्रणम्य है, स्तुत्य है🌹🙏❤️ २७/१०/२३ बाह्य कर्मकांड अज्ञान का विनाश नहीं कर सकता, क्योंकि ये दोनों परस्पर विरोधी नहीं हैं। शंकराचार्य अपरोक्षानुभूति में लिखते हैं `केवल अनुभूत ज्ञान ही अज्ञान को नष्ट करता है...प्रश्न विचार के अतिरिक्त किसी और उपाय से ज्ञान नहीं मिलता। मैं कौन हूं? यह सृष्टि कैसे उत्पन्न हुई? इसका सृष्टा कौन है? इसका भौतिक कारण क्या है? इस प्रकार के प्रश्नों से यहां तात्पर्य है। बुद्धि के पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है, इसीलिए ऋषियों ने ऐसे आध्यात्मिक प्रश्न विचार के लिए योग को विकसित किया। भगवद्गीता में जिस यज्ञ की महिमा का वर्णन किया गया है, वह यज्ञ क्रियायोग ही है। एकमेव अद्वितीय ईश्वर को समर्पित अद्वैत के हवन में योगी अपनी समस्त मानवीय इच्छा वासनाओं की आहुति डाल देता है, यही वस्तुतः सच्चा यज्ञ है जिसमें ईश प्रेम की ज्वाला में सारी गत वर्तमान इच्छा वासनाऐं जलकर राख हो जाती हैं। “ ‘‘परम ज्वाला’’ सभी मानवीय पागलपनों की आहुति स्वीकार कर लेती है और मनुष्य मलरहित होकर शुद्ध हो जाता है। लाक्षणिक तौर पर कहा जाय तो उसकी अस्थियों से वासनाओं का सारा मांस अलग हो जाता है, उसके कर्मों का अस्थिपंजर ज्ञानसूर्य की निर्जीवाणुकारी किरणों में सूखकर साफ हो जाता है और अंतत: पूर्ण शुद्ध-स्वच्छ बनकर वह मानव एवं भगवान की दृष्टि में निरापद बन जाता है।” क्रियायोग विज्ञान, अध्याय २६ योगी कथामृत यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह । मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ॥ What is here, the same is there and what is there, the same is here. He goes from death to death who sees any difference here. 
  'जो परब्रह्म यहां (है), वही वहां (परलोक में भी है)। जो वहां (है), वही यहां (इस लोक में) भी है। वह मनुष्य मृत्यु से मृत्यु को (अर्थात बारंबार जन्म-मरण को) प्राप्त होता है, जो इस जगत में (उस परमात्मा को) अनेक की भांति देखता है। हम इस जगत को अनेक की भांति देखते हैं। वृक्ष, पत्थर अलग, आप अलग, मैं अलग, पड़ोसी अलग; सब अलग; सब टूटे हुए, खंड-खंड। हमारी हालत ऐसी है जैसे रात चांद निकले और जमीन पर हजारों डबरे हैं, झीलें हैं, पानी के सरोवर हैं, और सब में चांद दिखाई पड़ता है। एक ही चांद होता है आकाश में, लेकिन सब पानी में हजारों-लाखों प्रतिबिंब बनते हैं, और हम एक-एक प्रतिबिंब को गिनते फिरें, और सोचें कि कितने चांद हैं! और नजर न उठाएं उस एक की तरफ, जिसके सब प्रतिबिंब हैं। इस जगत में जितना भी अस्तित्व है, जितने रूप हैं, वे एक के ही प्रतिबिंब हैं। आपके भीतर, एक सरोवर की भांति आपकी चेतना में, उस एक की ही छाया बनी है। यह सूत्र कहता है, जो यहां अनेक की भांति देखता है, वह भटकता है जन्म-मरण में। जो यहां भी एक की भांति देख लेता है उसे, वह तत्क्षण मुक्त हो जाता है। एक को पहचान लेना परम ज्ञान है। अनेक को देखते रहना अज्ञान है। पूजा वह, जो पवित्रता या प्यूरिटी उत्पन्न करे। प्रसाद का अर्थ है, जिसे प्रभु के सम्मुख रखा जाए। प्र का अर्थ है पार होना। पु स्वच्छ या पवित्र करने के आशय में आता है, पुष्प में पुस है, यानि जो पवित्रता को पोषण दे। पुण्य में भी पवित्रता ही झांक रही है। पुत्र यानि जो पवित्रता का रक्षण करता है। सभी पूर्णिमा और उनका प्रयोजन आश्विन पूर्णिमा - शरद पूर्णिमा, कोजागरी लक्ष्मी पूजा, टेसू पूनै, वाल्मीकि जयंती, कुमार पूर्णिमा, मीराबाई जयंती कार्तिक पूर्णिमा - देव दिवाली, पुष्कर मेला, गुरुनानक जयंती मार्गशीर्ष पूर्णिमा - अन्नपूर्णा जंयती, दत्त जयन्ती पौष पूर्णिमा स्नानदान और सूर्य को अर्घ्य माघ पूर्णिमा - रविदास जयंती, ललिता जयंती, मासी मागम, श्री भैरव जयंती फाल्गुन पूर्णिमा - होली / चैतन्य महाप्रभु जयंती / गौर पूर्णिमा, वसंत पूर्णिमा चैत्र पूर्णिमा - श्री हनुमान जन्मोत्सव वैशाख पूर्णिमा - बुद्ध पूर्णिमा ज्येष्ठ पूर्णिमा भगवान विष्णु चंद्र और बरगद के पेड़ की पूजा का दिन आषाढ़ पूर्णिमा - गुरू पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा श्रावण पूर्णिमा - रक्षाबन्धन, नारली पूर्णिमा भाद्रपद पूर्णिमा पितृ पक्ष आरंभ पाप का अर्थ होता है, जो आपके मार्ग को अवरुध्द कर दे, आपके जीवन की प्रगति रोक दे। मनुष्य पाँच तत्वों से बना है, भूत प्रेत चार तत्वों से बने होते हैं, इनमें पृथ्वी तत्व नहीं होता है। देवताओं का शरीर तीन और दो तत्वों से बना होता है। परमात्मा सिर्फ आकाश तत्व से बना होता है। परमात्मा को आकाश तत्व में निबद्ध मानते हैं, पर वह देखने की अभीप्सा के कारण है। वह आकाश से बाहर भी है। अदृश्य, उस आकाश के अन्यान्य नाम दिये जाते हैं, चिदाकाश, अन्तराकाश आदि। २९/१०/२३ what is love? love is the absence of judgement.. dalai lama आचार्य प्रशांत और सद्गुरू जग्गी वासुदेव द्वारा मंत्र पर... प्रशांत जी मंत्र के अर्थ को जानने पर बल देते हैं और सद्गुरू मंत्र के अर्थ को जानना आवश्यक नहीं कहते हैं। दोनों सही हैं। कोई ग़लत नहीं। मंत्र का अर्थ जानना प्रारंभिक प्रक्रिया है, फिर उस मंत्र में प्रविष्ट होने के बाद उसके अर्थ में बाहर भीतर कुछ बचता नहीं। शब्द एक है, अर्थ अनेक। आप अर्थ के सहारे शब्द तक पहुँचें या शब्द सत्ता में प्रवेश कर जाएँ, अपनी अपनी सामर्थ्य और गुरु कृपा है। ३०/१०/२३ कर्मकांड निष्णात आचार्यों के पास बहुमूल्य धरोहर है, उन्हें इसका पता हो, न हो। नौकरी की उपाधियाँ तभी महत्वपूर्ण हैं, जब उनसे आत्म का आलोचन होता हो। नौकरी तो इस उद्देश्य से की जा रही है कि ऊपर से कितना कमा लिया जाता है, ऐसे लोग स्वयं और समाज दोनों के लिए सिरदर्द हैं। जब तक व्यक्तित्व का रूपांतरण नहीं होता, कुछ उपयोगी नहीं रहेगा। संसार जैसा सब सरकता ही रहेगा। गौ और गंगा गाय और एक नदी में आरोपित किए गए, क्या भाषा के प्रभाव से। चाहे जिस प्रभाव से ऐसा हुआ हो, पर योग के बल से यह समझ आता है कि गं का अर्थ चलने से है, सदा गंतव्यमुखी चलने का नाम चिति है। यह चिति या जिसे दूसरे शब्दों में चेतना कहते हैं, मनुष्य को मनुष्य बनाती है। इसके प्रतीक ही गंगा, गो, गया और गायत्री हैं। इन्हें भौतिक प्रतीकों में तभी जान सकते हैं, जब वे अनुभव में उतर गए हों। अनुभव में उतार लेना ही ज्ञान की परिणति है, उसका सुफल है। तभी व्यक्ति भक्ति को प्राप्त होगा और तभी वह कर्मयोगी बन पाएगा।

Sunday, October 1, 2023

सितंबर २३

१/९/२३ नीला और लीला ध्वनि विज्ञान के अनुसार एक ही शब्द होने चाहिए। परंतु दोनों के अर्थ अलग अलग प्रचलित हैं। नीला ब्रह्मांड का रंग है, लीला भी ब्रह्मांड की घटना पटीयसी है। इसी से लील जाना यानि निगल जाना। इस दृश्यमान जगत् को पचा जाना लीलना है। लीला अद्भुत शब्द है। लीला रचने वाले, उसे पचने वाले और पचाने वाले सब एक हैं। इसलिए लीला धारी की लीला का आनंद उठाना ही जीवन का ध्येय है। लीला में अपनी भूमिका का निर्वाह करना शरीर का गुणधर्म है। इस लीला का निर्देशक ईश्वर है, पर कैसे यह लीला या अभिनय किया जाना है, यह तो व्यक्ति को ही निर्धारित करना है। रमेश कुंतल मेघ जी और उनके अनुज शिवकुमार जी रोहिताश्व जी के संयोजन में गोवा के एक रीफ़्रेशर कोर्स में तीन दिन रुककर रिसोर्स पर्सन रहे। मिथक शास्त्र उनके व्याख्यान का विषय रहा। यद्यपि उनके अनुज के व्याख्यान अधिक बोधगम्य और सहज थे, पर मेघ जी की बालों की चुटिया और एक टांग में समस्या के कारण लचककर बोर्ड के सामने सेमेट्री बनाकर पढ़ाने और समझाने का उनका अंदाज़ निराला था। उस समय उनसे मैंने अपनी संपादित एक किताब भेंट की, उसमे बाईस भुजी नृत्य गणपति का एक चित्र दिया हुआ है, उसके बारे में सविस्तार जानने को उत्सुक हुए, उस स्थान पर जाने की हद तक। उनसे बच्चों की सी बालसुलभता रही। उनसे उनके नाम का निहितार्थ पूछा, उन्होंने यह बताया भी। नाम के अनुरूप unhone बालों का संयोजन कर रखा था। सौन्दर्यशास्त्री तो थे ही। बाद में मिथकों पर प्रकाशक से एक किताब मिथक और यथार्थ मंगायी, पर मिथक और स्वप्न करके मेघ जी की पुस्तक आ गई। उसे भी पढ़ा गया। गत वर्ष ललितपुर आया तो यहाँ उनके सहपाठी श्री लक्ष्मी नारायण तिवारी मिले। पेशे से वकील हैं, उनके पास एक दिन बैठकी में उन्होंने अपनी एक किताब दिखायी, जिसमें मेघ जी द्वारा भूमिका लिखी गई है। मेघ जी अब नहीं हैं। उन्होंने दीर्घायुष्य पाकर हिंदी आलोचना की श्रीवृद्धि की है। उन्हें विनत श्रद्धांजलि। २/९/२३ ज्यों मुख मुकुर मुकुर निज पानी। गहि न जाइ अस अद्भुत बानी।। परा, पश्यंती आदि वाणी के स्तर हैं। सरस्वती वाणी की देवी है। वाक्देवी। भाषा शब्द और अर्थ में व्यक्त होती है, पर वाणी कहे और अनकही दोनों में उपस्थित रहती है। वाणी, वीणा, वचन, बैन एक ही मूल के रूप हैं। शब्द और अर्थ तो मात्र उपकरण हैं, करण तो वाणी है। सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे। बिहंसे करुणा ऐन चितै जानकी लखन तन॥ कबीर भी कहते हैं ऐसी बानी बोलिये मन का आपा खोय। बानी में ही वह ताक़त है जो औरों को शीतल करती है और स्वयं भी शांत रस में आप्लावित रहती है। ब्रह्म ज्ञान प्रतिबोध से सम्भव है। जब इन्द्रियों का संबंध अपने विषयों से अर्थात बाहर की ओर होता है तो जो ज्ञान होता है उसे बोध कहते है। जब इंद्रियां विषयों की ओर जाना बंद कर दे और व्यक्ति भीतर की ओर खोजता है तो मन की चंचलता समाप्त हो जाती है। भौतिक आकर्षण उसे विचलित नहीं करते, उस समय का आंतरिक अनुभव जो उसे धारणा, ध्यान, समाधि द्वारा प्राप्त होता है उसे प्रतिबोध कहते हैं । उसी से अमृत प्राप्त होता है। ईशानी सिंह फ़ितूर होते हैं हर उम्र में जुदा खिलौने माशूक़ा रुतबा और ख़ुदा। मैं तो इस वास्ते चुप हूँ कि तमाशा न बने तू समझता है तो तुझसे मुझे गिला कुछ भी नहीं। ४/९/२३ ऐसे भी नास्तिक हो सकते हैं, जिन्होंने ईश्वर को जान लिया हो। ईश्वर को जानने के बाद आस्तिक और नास्तिक का भेद नहीं रहना चाहिए। आस्तिकता एक सरणि है, पाथेय नहीं। ५/९/२३ हर दिखाई देने वाला रूप प्रकाश है। प्रत्येक सुनाई देने वाला शब्द ध्वनि है। ॐ नाम का वाचक है तो फिर रूप का वाचक क्या हुआ! रूप का वाचक पंच महाभूत है। यह वाचक नहीं वाच्य है, दृश्य है। ॐ महाभूतों से निःसृत हो रहा है तैलधारवत् तो इन महाभूतों में ही वह लीन हो रहा है रज्जु सर्पवत। रज्जु में सर्प की प्रतीति का भान ज्ञात हो जाने पर सर्प का अस्तित्व नहीं रह जाता। प्रकाश में रूप बदलते रहते हैं। ध्वनि में शब्द बदलते जाते हैं। रूप अर्थात्मक नाम है तो नाम शब्दात्मक रूप। कौन पहले कौन बाद में, यह बहस मुर्गी पहले या अंडा जैसी बहस है। एक को जान लेंगे तो दूसरी जान ली जाएगी। बहस नहीं जानने से सत्य प्रकट होगा। दोनों में एक दूसरे का अस्तित्व जल और लहर की भाँति बना हुआ है। बीज और वृक्ष की भाँति इसका सातत्य सदा अवस्थित है। शरीर और उसकी छाया का जो संबंध है, शिव और शक्ति का जो संबंध है, वही संबंध नाम और रूप, शब्द और अर्थ, प्रकाश और ध्वनि के बीच है। निषेधशेषो जयतादशेषः। भागवतम् सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बचा रहता है, वह भगवान का स्वरूप है। एष धर्मों सनातनम्। न ही वेरेन वेरानि, सम्मन्तीध कुदाचनं अवेरेन च सम्मन्ति, एस धम्मो सनन्तनो।धम्मपद (वैर से वैर शांत नहीं होते, बल्कि अवैर से शांत होते हैं। यही सनातन धर्म हैं।) मनुस्मृति: अध्याय 4, श्लोक 138, सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥138॥ 🔥 एष धर्मः सनातनः (१) ~~~~~~~~~~~ हिन्दू धर्म शाश्वत और सार्वभौम सत्य है _______________________________ जिस धार्मिक संस्कृति को हम आज हिन्दू धर्म के नाम से पुकारते हैं... उसने अपना कोई नाम नहीं रखा, क्योंकि उसने स्वयं अपनी कोई साम्प्रदायिक सीमा नहीं बाँधी। उसने सारे संसार को अपना अनुयायी बनाने का दावा नहीं किया। किसी एक ही सिद्धान्त की स्थापना नहीं की, मुक्ति का कोई एक ही संकीर्ण पथ या द्वार निश्चित् नहीं किया। वह किसी मत या पंथ की अपेक्षा कहीं अधिक आत्मा के ईश्वरोन्मुख प्रयास की एक सतत-विस्तारशील परम्परा थी। आध्यात्मिक आत्मनिर्माण और आत्म-उपलब्धि के लिये एक बहुमुखी और बहु-स्तरीय विशाल व्यवस्था होने के कारण उसे अपने विषय में 'सनातन धर्म' के उस एक मात्र नाम से, कुछ कहने का अधिकार प्राप्त था। हिन्दू धर्म कोई सम्प्रदाय या कट्टरपंथी मत नहीं है, सूत्रों का गट्ठर नहीं है, सामाजिक नियमों की आचार संहिता नहीं है, बल्कि यह है एक शक्तिशाली, शाश्वत और सार्वभौम सत्य। इसने भगवान् की अनंतता के साथ तादात्म्य के अंतिम लक्ष्य के लिये मनुष्य की आत्मा को तैयार करने का रहस्य जान लिया है। श्री अरविन्द _________ 🔥 एष धर्मः सनातनः(२) ~~~~~~~~~~~ हिन्दू धर्म क्या है? _____________ हिन्दू धर्म है क्या? यह धर्म क्या है जिसे हम सनातन कहते हैं। यह हिन्दू धर्म मात्र इसलिये कहलाया क्योंकि यह हिन्दू राष्ट्र में बढा, क्योंकि इस प्रायद्वीप में यह समुद्र और हिमालय से घिरे होने के कारण एकान्त में विकसित हुआ, क्योंकि इस पावन और प्राचीन भूमि में इसे युगों तक सुरक्षित रखने का कार्यभार आर्यजाति को सौंपा गया था। लेकिन यह किसी एक देश के सीमान्तों में सीमाबद्ध नहीं है। यह विश्व के किसी भी देश की सदा के लिये निजी बपौती नहीं है। जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं , वह वास्तव में सनातन धर्म है, क्योंकि यह सार्वभौमिक धर्म ही है जो अन्य सबको गले लगाता है। यदि कोई धर्म सार्वभौमिक नहीं है, तो वह सनातन नहीं हो सकता। एक संकीर्ण धर्म, साम्प्रदायिक धर्म , ऐकान्तिक धर्म का उद्देश्य और अवधि सीमित ही होती है। यही एकमात्र ऐसा धर्म है जो विज्ञान के आविष्कारों और दर्शनशास्त्र के चिन्तन को सम्मिलित करते हुए और उनका पूर्वानुमान करते हुए भौतिकवाद पर विजय पा सकता है। यही एक मात्र वह धर्म है जो बराबर मानव जाति को यह कहता है कि भगवान् हमारे समीप हैं और उन तक पहुँचने के सभी सम्भव उपायों को अपनाता है। श्री अरविन्द _________ सतगुरु मैं तेरी पतंग, बाबा मैं तेरी पतंग, हवा विच उडदी जावांगी, हवा विच उडदी जावांगी । साईयां डोर हाथों छोड़ी ना, मैं कट्टी जावांगी ॥ तेरे चरना दी धूलि साईं माथे उते लावां, करा मंगल साईंनाथ गुण तेरे गावां। साईं भक्ति पतंग वाली डोर, अम्बरा विच उडदी फिरा ॥ बड़ी मुश्किल दे नाल मिलेय मेनू तेरा दवारा है । मेनू इको तेरा आसरा नाले तेरा ही सहारा है । हुन तेरे ही भरोसे, हवा विच उडदी जावांगी, साईंया डोर हाथों छोड़ी ना, मैं कट्टी जावांगी ॥ ऐना चरना कमला नालो मेनू दूर हटावी ना । इस झूठे जग दे अन्दर मेरा पेचा लाई ना । जे कट गयी ता सतगुरु, फेर मैं लुट्टी जावांगी, साईंया डोर हाथों छोड़ी ना, मैं कट्टी जावांगी ॥ अज्ज मलेया बूहा आके मैं तेरे द्वार दा । हाथ रख दे एक वारि तूं मेरे सर ते प्यार दा । फिर जनम मरण दे गेडे तो मैं बच्दी जावांगी, साईंया डोर हाथों छोड़ी ना, मैं कट्टी जावांगी ॥ आज शिक्षक दिवस पर यदि मैं अपने शिक्षकों को याद करूँ तो सबसे पहले प्राइमरी विद्यालय के गुरसराय के सर्व श्री नाथूराम अहिरवार और बानपुर के नन्दराम बरार याद आते हैं। उच्च प्राथमिक या जूनियर हाई स्कूल के सर्व श्री मनोहर लाल पुष्पकार, रामशंकर द्विवेदी, हज़ारी लाल नामदेव, गंगेले जी की याद आती है। हाई स्कूल और इंटरमीडिएट के उस समय के शिक्षक भदौरा जी, अध्वर्यु जी का स्मरण है। स्नातक कक्षाओं के प्रोफ़ेसर जटाशंकर सर, हरिशंकर उपाध्याय सर, हर्ष कुमार सर, योगेन्द्र प्रताप सिंह सर, राजेंद्र कुमार सर, रामकिशोर सर, निर्मला मैडम, मीरा दीक्षित मैडम आदि बहुत याद आते हैं। एम ए के अध्ययन के दौरान प्रोफ़ेसर भगवत् नारायण शर्मा जी का संस्मरण नहीं भूलता और पीएचडी के गाइड प्रोफ़ेसर श्यामलाल यादव सर, आरबीएस कालेज के ही प्रोफ़ेसर वी के सिंह, सुषमा सिंह, उमा अवस्थी, युवराज सिंह की याद आती है। फिर अध्यापन काल प्रारंभ होता है। उससे पहले सचिवालय में सेवा करते हुए शिक्षक न सही, पर अपने वरिष्ठ सहकर्मी खूब याद आते हैं, ख़ान साहब, पंडित जी, जयप्रकाश, रणवीर आदि। अध्यापन काल में उरई के प्रोफ़ेसर दिनेश चंद्र द्विवेदी, आर एन शर्मा जी, वी के सिंह, कनिष्ठ शिक्षक साथियों के नाम नहीं दे रहे हैं। दूसरे कॉलेज के अनिल श्रीवास्तव सर, राजेंद्र कुमार सर, सत्य प्रकाश सर, आदित्य कुमार जी, फिर यहाँ ललितपुर में नेहरू महाविद्यालय के शिक्षकों में अपने विषय की प्रतिभा के दर्शन होते हैं। आप सब और हमारे होनहार छात्र छात्राओं को हार्दिक शुभकामनाएँ। ६/९/२३ पाँच में से किसी एक इंद्रिय को जय कर लेने से मन नियंत्रित होता है। कहीं कहीं दीक्षा ग्रहण के समय या तीर्थाटन पर कोई खाने पाइन की चीज छोड़ देने का संकल्प लेकर लौटते हैं। उससे मन एयर वासना पर नियंत्रण का अभ्यास होता है। मन पर नियंत्रण ब्रह्म में रमण करने की योग्यता तय करता है। ब्रह्मचारी बनाता है। खाने पीने की कोई चीज छोड़ देने का उतना प्रभाव नहीं होगा, जितना शब्द स्पर्श रूप रस और गंध इन पाँच तन्मात्राओं में से किसी एक को छोड़ देने का प्रभाव होगा। यहाँ तक कि इन तन्मात्राओं को ग्रहण करने वाली कर्मेन्द्रियों में से कोई एक न रहने पर उस व्यक्ति के भीतर विलक्षण प्रतिभा का दर्शन होता है। संसारोsयमतीव विचित्रः। यह संसार अति विचित्र है। मुझे याद नहीं कि प्रत्यक्ष संपर्क में आया कोई व्यक्ति हमसे सदा प्रसन्न रहा हो, कभी न कभी, पहले या बाद में वह नाराज़ अवश्य हुआ। वे चाहे संबंधी हों, परिवारीजन हों या मित्रजन। जब हम यह देख रहे हों कि संसार में हम किसी को ख़ुश नहीं कर पाते, फिर उसका जतन किसलिए! किसी का कुछ छीना नहीं, किसी को दबाया और सताया नहीं, पीड़ित और शोषित नहीं किया, धन संग्रह नहीं किया, जो हुआ वह स्वतः, अनायास और बिना भागम भाग के। फिर लोग परेशान क्यों रहते हैं! जो दूसरों को छल कर या भ्रष्टाचरण से जो कुछ अर्जित करते हैं, क्या उनसे उनके संपर्कीजन सदा प्रसन्न रहते हैं, हम जानते हैं, कदापि नहीं। यह तक के लिए कि वे जिनके लिये ऐसा करते हैं, वे भी नहीं। फिर कदाचरण क्यों! फिर प्रश्न उठ सकता है कि हम आख़िर करें क्या! हम प्रसन्न रहें, आनंदित रहें, और इतने कि वह छलकता रहे, आप किसी अन्य को प्रसन्नता और आनंद प्रदान नहीं कर सकते हैं, आपकी छलकन से वे यदि और जब चाहें तो प्रसन्न और आनंदित हो सकते हैं। पुष्पों के मानिंद, वे दूसरों की प्रसन्नता के लिए नहीं खिलते हैं, अलबत्ता कोई सौंदर्यग्राही उन्हें देखकर जब तब आनंदित हो जाता है। झाड़ी या पौधे से उगे फूल उसकी प्रेमपूर्ण तपस्या से खिलते हैं। अपनी बास बिखेरते हैं, यहाँ तक कि कोई उन्हें मसल दे तो भी अपने गुणों से पृथक् नहीं होते। नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च। यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥ मैं तत्व को भलीभांति जानता हूँ- मैं नहीं मानता और न मानता हूं कि मैं तत्व को नहीं जानता। तत्व को जानता हूँ या नहीं, ऐसा सन्देह भी नहीं है। हममें से जो कोई उस तत्व को जानता है, वही इस वचन के तात्पर्य को जानता है। केनोपनिषद 2/2 'केनेषितं पतति प्रेषितं मनः' "किसके द्वारा उत्प्रेरित होकर मन अपने विषयों पर नीचे उतरता है?" ७/९/२३ कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्। भगवान श्री कृष्ण जगद्गुरु हैं, जगद्गुरु की पात्रता समझनी हो तो कृष्ण को जानना आवश्यक होगा। कृष्ण हमारे योगक्षेम को वहन करने वाले हैं। उनकी ही शरण में जाने पर गंतव्य प्राप्त हो सकता है। कृष्ण कर्मयोगी हैं और उसी के लिए हम सबको अर्जुन बनाते हैं। ज्ञान, भक्ति और कर्म की त्रिवेणी का योग कृष्ण में होता है। इसीलिए वे योगेश्वर हैं, जहां योगेश्वर हैं वहाँ विजय होनी सुनिश्चित है। "येन केन प्रकारेण मनः कृष्णे निवेशयेत"- यह रूप गोस्वामी का निर्देश है। "किसी भी रीति-भाँति से मन को कृष्ण में स्थिर करो!" कृष्ण के जीवन से हमें प्रेमपूर्वक संघर्ष करना सीखने को मिलता है तो उनके गीतोपदेश से इससे पार जाने का उपाय प्राप्त होता है। रासलीला क्या है! यह हृदयंगम कर लेने पर उसका अर्थ विदित होता है। कृष्ण राधा और गोपियों के साथ रासलीला रचते हैं। यह प्रकृति के साथ पुरुष का सहचर है, जो वेदांतियों और शून्यवादियों से आगे का रस है।'लीला' भारतीय मनीषा का बीज शब्द है। अन्य भारतीय भाषाओं में इसके समानार्थी शब्दों की पड़ताल की जानी चाहिए। नीला और लीला ध्वनि विज्ञान के अनुसार एक ही शब्द होने चाहिए। परंतु दोनों के अर्थ अलग अलग प्रचलित हैं। नीला ब्रह्मांड का रंग है, लीला ब्रह्मांड की घटना पटीयसी है। इसी से लील जाना यानि निगल जाना शब्द विकसित हुए हैं। इस दृश्यमान जगत् को पचा जाना लीलना है। लीला अद्भुत शब्द है। लीला रचने वाले, उसे पचने वाले और पचाने वाले सब एक हैं। इसलिए लीला धारी की लीला का आनंद उठाना ही जीवन का ध्येय है। लीला में अपनी भूमिका का निर्वाह करना शरीर का गुणधर्म है। इस लीला का निर्देशक ईश्वर है, पर कैसे यह लीला या अभिनय किया जाना है, यह एक जीवन सत्य है, जो व्यक्ति को उपलब्ध करना है। नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव॥ आप सबको श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ। ८/९/२३ ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में मौर्य साम्राज्य के दौरान यूनानी इतिहासकार मैगस्थनीज़ भारत आया, उसने इंडिका नाम से इतिहास की दृष्टि से एक बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी। इंडिया नाम का आधार यही पुस्तक है। मैगस्थनीज़ ने इंडिया नाम सिंधु नदी के किनारे बसी सभ्यता को नाम देते हुए दिया था। सिंधु को यूनानी इंडस कहते थे। इसी सिंधु नदी के उच्चार कारणों से हिंदू शब्द का विकास फ़ारसियों द्वारा हुआ। कोई स्थान नाम देने के पीछे भौगोलिक और ऐतिहासिक मुख्य आधार होते हैं। इस तरह यह नाम देने में हीनता तो नहीं दिखती, परंतु इंडियन नाम का अर्थ ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी में पहली मीनिंग के रूप में अ पर्सन फ्रॉम इंडिया दिया हुआ है पर दूसरी मीनिंग ओल्ड फ़ैशंड, ऑफ़ेंसिव दी गई है। आपत्ति का मूल यहाँ से शुरू होता है। अब हम इंडिया नाम से पीछा तो नहीं छुड़ा सकते हैं, भारत एकमेव नाम देकर भी दुनिया के देशों में भारत का पढ़ाया जा रहा इतिहास कैसे बदला जा सकता है। इंडोनेशिया, वेस्ट इंडीज, रेड इंडियन जैसे देशों के दिए गए नामों के पीछे क्या निहितार्थ हैं! भारत नाम देकर भी हम अमेरिका के रेड इंडियन, और ऐसे नामों के अर्थ नहीं बदल सकते हैं। यद्यपि इंडिया ध्वनि मूल के इंडिजेनस शब्द का अर्थ बड़ा अच्छा है। इसका अर्थ स्वदेशी है। मूल स्थान से संबंधित होना इसका अर्थ है। संस्कृति के रूप में इंडिया मूलार्थवाची है। इस मूलावस्था को कतिपय इतिहासकारों ने ओल्ड फ़ैशंड और आक्रामक समझा। अतएव भारत का विकास सर्वविध होकर जो उसके बारे में जो हीन मान्यताएँ रखीं गयीं, उनका प्रतिस्थापन किया जा सकता है। अपने देश का भारत एकमात्र नाम देने से कोई हानि नहीं। इस नाम परिवर्तन का अर्थ यही माना जाना चाहिए कि कोई अप्रिय अतीत यदि इस देश के नाम से या इस नाम के मूल से किसी के मन में जुड़ा हो तो वह उसका परिमार्जन कर ले। दुनिया के दर्जनों देशों ने अपने नाम बदले हैं, यह कोई नया काम नहीं है. सांस्कृतिक कारणों से इंडिया नाम रखा गया, उसी कारण उसका नाम केवल भारत किए जाने की चर्चा है, इसमें क्या अस्वाभाविक है। संस्कृति कोई जड़ वस्तु तो है नहीं। नाम का कोई शब्द हो उसमे अर्थ भरने वाले उसके प्रयोक्ता व्यक्ति ही होते हैं। हमें उस अर्थ के प्रति सचेत रहना चाहिए.... १०/९/२३ बारिश के समय ध्यान करने से अनुभूतियों को सघनता मिलती है। बारिश के बीच पहले बिजली चमकती है, फिर मेघ गर्जन होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रकाश की सत्ता पहले है, ध्वनि की बाद में। ये दोनों इतने पूर्वापर हैं कि इनका क्रम भी सामान्यतः ज्ञात नहीं हो पाता। हैं तो यह दोनों एक ही, पर किसकी सत्ता पहले। बीज और वृक्ष की भाँति, शब्द और अर्थ तथा जल और उसकी लहर के संबंधवत इनका क्रम है। वस्तुतः प्रकाश की ही ध्वनि है और ध्वनि का ही प्रकाश है। शब्द अर्थ में भासित होता है और अर्थ शब्द में उपस्थित रहता है। जल से लहर पैदा होती है और वह लहर जल में ही विलीन हो जाती है। प्रकाश और ध्वनि के संबंध की भाँति बाद के स्तरों का नियोंजन होता रहता है, जिनसे जगत् व्यापार चलता है। मूल में प्रकाश ही है। जे पहुंचे ते कहि गए, तिनकी एकै बात। सबै सयाने एकमत, उनकी एकै जात।। 12/9/23 अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च |
निर्ममो निरहङ्कार: समदु:खसुख: क्षमी || 12-13||
सन्तुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय: |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय: || 14|| 13/9/23 ध्वनि सदा यथा नाम या शब्द ग्रहण नहीं हो पाती। शब्द कुछ बोला गया है ध्वनि कुछ ग्रहण की गई। अक्सर फेरी लगाने वाले जब अलग अलग स्टाइल से अपने उत्पाद बेचते हैं तो दूर से सुनने वाले कुछ का कुछ समझ लेते हैं। फेरीवाले यह स्टाइल जान कर प्रयुक्त करते हैं, जिससे ग्राहक सुनने और जानने की चेष्टा करे। नाम और रूप की श्रृंखला बनती है। जो ध्वनि है वह अव्यक्त नाम है। ध्वनि भी शब्द या नाम बाद में बनते हैं। ऐसी ध्वनि के बाद बने नाम का अर्थ या रूप बनता है। शिव अगर नाम है तो शक्ति रूप। यह क्रम सर्वत्र, सर्वरूप और सब कालों में है। शिव He is तो शक्ति She does हैं। अतः जहां शिव हैं, नाम है वहाँ शक्ति या रूप भी है। नाम बिना रूप के अनभिव्यक्त रहता है और रूप बिना नाम के बोधगम्य नहीं। अनभिव्यक्त रूप में नाम और रूप एक ही रहते हैं। शिव और शक्ति में पार्थक्य नहीं। नाम और रूप को क्रमशः शब्द और अर्थ, बीज और वृक्ष, अण्ड और मुर्गी की तरह भी ले सकते हैं। यह सैद्धांतिक बात हुई। अब प्रश्न इसकी व्यावहारिक समझ का है। इन दोनों के एकरूप होने और पार्थक्य होने, फिर एक होने की प्रक्रिया क्या है, यह कैसे घटित हो रही है। नाम अव्यक्त से व्यक्त स्वरूप में जब प्रकट होता है तो उसमें समाया हुआ रूप खुलने लगता है, जैसे किसी पौधे की कली से उसका फूल विकसित हो रहा हो। कली से विकसित फूल या बीज से उत्पन्न हो रहे अंकुर की ठीक ठीक प्रक्रिया को हम देख नहीं पाते, पर यह होता है यह तो जानते ही हैं। यही प्रक्रिया सतत् और सर्वत्र संचरित है, प्रतिक्षण घटित हो रही है। हम सब उस प्रक्रिया के घटक मात्र हैं। यानि हम प्रकृति हैं और इसे जो देखे वह पुरुष है। यह देखना लीला है। साक्षी भाव है। करुणा है, प्रेम है, आनंद है। शांति है। परम है। बोध प्राप्ति इसे ही कहते हैं। प्रत्येक जीव को बोध प्राप्ति के उपाय अपनाने की महती आवश्यकता है। जब और जिस भाँति मिले, सदा सचेष्ट रहना होता है। गुरु कृपा हि केवलं। उक्त विवरण में बहुत सी बातें नहीं कही गई हैं, कही भी नहीं जा सकती। उन बातों को ग्रहण करने का काम आपका है। बल्कि जो नहीं कहा गया, उसी को पकड़ना है। आप इस कहे हुए या अन्य कहे हुए के माध्यम से भी ऐसा कर सकते हैं, पर बोधव्य वही है। वस्तुतः बोधव्य प्राप्ति के बाद इस या उस कुछ रहता नहीं। दूसरे बोधि का कहा हुआ पहले बोधि के कहे से तत्व रूप में भिन्न नहीं होता, उनकी कहन अलग अलग अवश्य रहेगी। ishani sinh की फ़ेसबुक पोस्ट पर की गई टिप्पणी संतति का भाव आने पर काम की आवश्यकता समाप्त हो जायेगी। सब में सब हैं तो संतति भी है। परंतु उस संतान का उदय करना होगा। ऐसी संतान जब जन्म लेती है तो कोई सौतेला और पराया नहीं रह जाता। पितृ ऋण यह संतान उदय करके ही चुकता है। जिस प्रकार भूख लगने पर किसी न किसी प्रकार शरीर भोजन ले लेता है, उसी प्रकार पुत्र पुत्री आदि भी प्रकृति पैदा करवा लेती है। उसमें कोई विशेष बात नहीं। इसका कारण नितांत प्राकृतिक है। इसमें व्यक्ति का कर्तापन कुछ नहीं है। परंतु, संतति का भाव आने पर काम की आवश्यकता समाप्त हो जायेगी। उसका बाहरी लक्षण भी दिखता है जब पुत्र पुत्री जन्म होने के बाद पति पत्नी के बीच वैसे संबंध घट जाते हैं। वस्तुतः सब में सब बनकर आप जो विराजते हैं, उसका अवबोध संतान का उदय होना है। ऐसी संतान जब जन्म लेती है तो अयं निजः परोवेत्ति चला जाता है। पितृ ऋण यह संतान उदय करके ही चुकता है। पितृ ऋण इतना सस्ता नहीं, जैसा प्रायः ग्रहण किया जाता है। दूसरे को जन्म देने की वासना काम बन जाती है; और अपने को बचाने की वासना लोभ बन जाती है। जवानी की बीमारी, काम; बुढ़ापे की बीमारी, लोभ। १४/९/२३ हिंदी दिवस इस नाते मनाना अच्छा है कि इस दिन हिंदी के बारे में हिन्दी भाषा भाषी और हिंदीतर भारतीय भाषा भाषी व्यक्ति अपनी भावनाओं को व्यक्त कर लेते हैं। लोग हिंदी दिवस के कार्यक्रमों में हिंदी के प्रति अपनी वेदना व्यथा और गौरव गान करते हुए पाये जाते हैं। दोनों का अपनी अपनी जगह एक स्थान है। हिंदी को या तो एक सुदृढ़ स्थिति संवैधानिक राजव्यवस्था शुरू होने के समय मिल जाती, जिससे वह राजकाज चलाने योग्य समझ ली जाती। हमें भरोसा है कि अब तक की संचालित शासन व्यवस्था के बाद यह साबित भी हो जाता। या फिर अब उसका स्थान मिल जाये, जब वह अपने को अपनी प्रतिस्पर्धी भाषा से अधिक योग्य सिद्ध कर दे। हिंदी की प्रतिस्पर्धा अंग्रेज़ी से है, किसी अन्य भारतीय भाषा से नहीं। और हाँ अंग्रेजी से हिंदी की प्रतिस्पर्धा ही है, वैर नहीं। भाषाएँ तो वे खिड़कियाँ हैं जो हमारे भीतर प्रकाश का संचरण करने का निमित्त बनती हैं। निःसंदेह बाज़ार की दृष्टि से हिंदी बहुत संपन्न भाषा है। चीनी भाषा के बाद दुनिया में हिंदी सबसे अधिक बोली समझी जाने वाली भाषा है। परंतु बाज़ार के लिए बनी भाषा का भविष्य बाज़ार से ही निर्धारित होता है। भाषा की समृद्धि उसके साहित्य से तय होती है। अतः हम हिंदी साहित्य के गंभीर अध्येता बनें, हिंदी के प्रति आपकी सेवा हो जाएगी। १५/९/२३ ऊँचाई और गहराई देखने में दो हैं, वास्तव में वे एक वृत्त के दो सिरे हैं। इस वृत्त के जिस केंद्र पर आप होंगे, वहाँ से ही ऊँचाई और गहराई होगी। दोनों समान रूप में हैं। यह हमें समझना है कि हम कहाँ पहुँच रहे हैं। उस वृत्त को पूरा देख पा रहे या नहीं। वृत्त के पार तभी जा पाएंगे। हृदय की बात भारतीय वांगमय में बहुत आई है। पर यह का एक अंग विशेष मात्र नहीं। यह जागरूकता का केंद्र है। यह शरीर में सर्वत्र उपस्थित है। १६/९/२३ Bhairavī means, uninterrupted awareness. मरुतोऽन्तर्बहिर्वापि वियद्युग्मानिवर्तनात् । भैरव्या भैरवस्येत्थं भैरवि व्यज्यते वपुः ॥२५॥ विज्ञान भैरव Antar bahir, internally or outwardly (vāpi means “or”), internally or outwardly, marutaḥ, this energy of breath, when [it] is followed by two voids by returning back to two ethers, viyat yugma ānuvartanāt, by maintaining the uninterrupted awareness there–[that] means “bhairavyā”, by means of Bhairavī (Bhairavī means, uninterrupted awareness)–when You maintain uninterrupted awareness in these two voids (internally and externally; there is an internal void and an external void), ithaṁ, by this way of treading on this process (ithaṁ, by this way), bhairavasya vapuḥ vyajyate, the formation of the svarūpa [nature] of Bhairava is revealed (vyajyate). सर्वं सर्वेन भावितम् महान्‌ कलाविद आनन्द के कुमारस्वामी ने विद्यापतिपदावली की भूमिका में लिखा था कि जैसे रस का पर्यायवाची कोई शब्द अंग्रेजी में नहीं है , वैसे ही काम शब्द का भी कोई पर्यायवाची नहीं है ! सेक्स तो मनुष्य की जैविक-प्रवृत्ति को ही व्यक्त कर सकता है ! कमनीयता , कामना , काम्य जैसे शब्द भी तो काम शब्द के ही पारिवारिक हैं ! यदि काम सेक्स का ही पर्याय होता तो भला काम को पुरुषार्थ क्यों माना जाता ? भाषा और जीवन:::समग्र दृष्टिकोण ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ संसार की किसी भी भाषा का अध्ययन आप करिये , भाषा को वहाँ के जीवन और जीवन की निरन्तर परंपरा से या जीवन की अविच्छिन्न धारा से अलग करके नहीं समझा जा सकता ! भाषा का एक एक शब्द आपको अपने परिवेश की कहानी सुना सकता है ! एक एक शब्द का अपना भूगोल होता है , अपना सामाजिक- आर्थिक-सांस्कृतिक परिवेश होता है ! उस भाषा में किन किन संस्कृतियों की अन्तर्भुक्ति हुई है , क्यों उसमें अन्य संस्कृतियों से आगत शब्द हैं ? आदमी है तो उसके पास उसकी भाषा भी है , जो उस आदमी की जिन्दगी में समायी हुई है , आदमी चलता है तो उसके साथ उसकी भाषा चलती है , दो आदमी मिलते हैं तो दो भाषाएं भी मिल जाती हैं , एक आदमी शक्तिशाली है , दूसरे को प्रभावित कर सकता है तो उसकी भाषा भी दूसरे आदमी को प्रभावित करेगी ही ! इसी प्रकार से एक जाति दूसरी जाति से मिलती है तो उनकी भाषाएं भी मिल जायेंगी ! जो जाति जितनी उन्नत होगी , उसकी शब्दावली भी उतनी ही विस्तृत होगी ! उन्नत भाषा के शब्द अन्य भाषाओं में समा जायेंगे ! इस लिए भाषा को उन्नत करने का सवाल उस जाति को उन्नत करने से जुड़ा हुआ है ! जिस मानव जाति के ज्ञान में विज्ञान में नये नये पुरुषार्थ होंगे तो उसके पास भाषा का भी उतना ही बड़ा पुरुषार्थ होगा ! भाषा का इतिहास उस जाति का इतिहास होता है ! इतिहास के मोड़ भाषा को भी दिशा देते हैं ! विजेता जाति की भाषा पराजित जाति की भाषा को उसी अनुपात में प्रभावित करती है ! उदाहरण के लिये आप एक गाँव की ही बोली का अध्ययन करके वहाँ के समाजशास्त्र और अर्थव्यवस्था ,वहाँ की संस्कृति को समझ सकते हैं । राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी भारत का तत्वबोध स्पष्ट करता है कि इस विराट में कुछ भी विच्छिन्न नहीं है ।जैसे समुद्र में एक लहर से दूसरी लहर जुडी है, उसी प्रकार जीवन में सबकुछ सबकुछ से जुडा है ।भाषा ,कला , साहित्य ,संस्कृति,दर्शन,ज्ञान-विज्ञान में ऐसा कुछ भी नहीं है , जो उस समग्रता से भिन्न या विच्छिन्न हो । ज्ञान का आँगन एक है, वहाँ कोई लकीर नहीं है, यदि विश्वविद्यालयों ने बनायीं हैं तो वे उनकी सुविधा की बात है, ये कृत्रिम हैं , इनको हम नहीं मानते. हमको समझना है कि धरती और बीज के सम्बन्ध का मनुष्य पर और समग्र परिवेश पर क्या प्रभाव पड़ा? प्रो कपिला वात्स्यायन और प्रो राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी लोक और वेद की दोनों धाराओं में हमारे पास ज्ञानविज्ञान की अथाह संपदा है ,हमने मैथोडोलोजी [ अध्ययन-अनुसंधान की विश्वस्तरीय -प्रणालियाँ ] विकसित नहीं की ।-हम अपने ज्ञानविज्ञान की अथाह संपदा की महिमा का चाहे जितना कीर्तन करते रहें किन्तु जब तक हमारे पास आधुनिक और विश्वस्तरीय - मैथोडोलोजी नहीं होगी तब तक हम अपने ज्ञानविज्ञान की अथाह संपदा को विश्वस्तर पर प्रतिष्ठित नहीं कर सकेंगे ।"उधर पश्चिम के मनीषी अपनी अध्ययन-अनुसंधान की प्रणालियाँ विकसित करते चले गये । परंतु! विधियां अवैयक्तिक होती हैं। जबकि अनुभव वैयक्तिक। अनुभवप्रसूत ज्ञान की क्या बनी बनायी प्रणाली हो सकती है। फिर भी अनुभवों की गहनता और उनकी सामान्यता को लेकर प्रणाली का सिरा तो पकड़ा ही जा सकता है। यह चुनौती भारत विद्या और उसे पसंद करने वाले व्यक्तियों के लिए स्वीकार करनी चाहिए। पश्चिम ने विधियाँ बनायीं, उनसे उनका भौतिक जीवन आसान हुआ है, इसमें कोई संदेह नहीं। भारत यदि अपने अनुभव को विधियों में ढाल ले तो यह सर्वोत्तम स्थिति होगी। १७/९/२३ आजकल वृंदावन में एक संत स्वामी प्रेमानंद जी महाराज की रील और क्लिप्स खूब सुनने को मिल रही हैं। पीले वस्त्रों और मस्तक पर्यंत पीले तिलक लगाये स्वामी जी कोई कथा नहीं करते, बस भक्तों के चरित्र सुनाते हैं, संस्कृत और भक्ति के पद गाते हैं, उनकी व्याख्या करते हैं और नाम महिमा कहते हैं। वे वृंदावन और राधा दोनों की महिमा में आकंठ और सतत् निमग्न दिखते हैं। राधा जिन्हें उनके श्री राधाबल्लभीय संप्रदाय में श्रीजी और कृष्ण को प्रियालालजू कहते हैं। श्री राधाबल्लभ संप्रदाय १६वीं शताब्दी में श्री हितहरिवंश जू द्वारा प्रवर्तित हुआ, उस संप्रदाय के यह संत श्रद्धालुजन को बहुत प्रभावित कर रहे हैं। वे परम दशा को उपलब्ध हुए जान पड़ते हैं। उनके मुखारविंद से केवल भगवन्नाम महिमा सुनने को मिलती है, जो शास्त्रसम्मत और अनुभवसिद्ध है। वे राजनीतिक बातें कहते हुए नहीं सुने जाते। किसी से कोई याचना नहीं करते हैं और नाम साधना के अतिरिक्त न किसी को कोई प्रवृत्ति प्रदान करते हैं। उनके बड़े-बड़े पंडाल नहीं लगे होते। मुँह पर मास्क लगाए हुए ७-८ भद्र व्यक्तियों के साथ नियत समय पर प्रश्नोत्तर शैली में वे एकांत सत्संग करते हैं। उनकी दिनचर्या नियमित है। रात ढाई तीन बजे जब वृंदावन में सैर करने निकलते हैं, उनके आम दर्शन केवल तब ही हो पाते हैं। उनकी दोनों किडनियाँ ख़राब हो चुकी हैं। पर उनके भीतर करुणा और प्रेम जिस प्रकार हिलोरें भरता है और उबाल मारता है, उसके छींटे पाने की अभिलाषा हर श्रद्धावान के भीतर जागती रहती है। मेडिकल डॉक्टर तो उन्हें १७-१८ वर्ष पहले उनके मात्र डेढ़ दो वर्ष जीवन रहने की घोषणा कर चुके थे, पर तब से वे डायलिसिस पर चल रहे हैं। ऐसे अद्भुत संत के दर्शन करने की चर्चा हम अपने लोगों के बीच किया करते हैं, दर्शन जब हों जैसे हों, पर हमें उनके प्रवचन इंटरनेट के माध्यम से नित्यप्रति सुनने का अवसर मिल जाता है। हम सब श्रीजी और अपने अपने इष्टदेव से उनके मंगल स्वास्थ्य की कामना करते हैं। वे इसी तरह भारतजन को अपनी भक्ति प्रदान करते रहें। आज का दिन कुछ विशेष है क्या! सुबह के ध्यान me आचार्य शंकर की पंक्तियाँ याद आई इह संसारे खलु दुस्तारे कृपया पारे पाहि मुरारे.. फिर मोबाइल देखा तो फ़ेसबुक आज के दिन की तीन वर्ष पहले की यह पोस्ट स्मरण करा रहा था. संसारोsयमतीव विचित्रः। संसारीजन अपने सुख और दुःख में खींचते है। इनसे जब अपेक्षा रखेंगे तो नहीं मिलेगा, जब नहीं मांगेगे तो ज़बरदस्ती देंगे। ज्ञाते तत्वे कः संसारः #आत्मबोध_विमर्श - 40....अनु में अनंत 😇 ------------- * अनंत अनु में व्याप्त होता है। अनु है सबसे लघु और अनंत है सबसे बृहद्, 'अ' द्योतक है पूर्व/आदि काल का। 'न्' द्योतक है बहुवचन या अनंत का। 'उ' द्योतक है उर्ध्व लोक का। अर्थात्, * 'अनु' आदिकाल से ही उस अनंत को धारण करता ‌है, जिसका बोध उर्ध्वरेता ध्यान-योगी करता है ध्यान में, उर्ध्वलोक में। -- इस अनु को ही बिन्दु, अव्यक्त ब्रह्म, कहा गया है उपनिषद् में, जिससे सृष्टि का प्राकट्य, संचालन व लोप होता है। * यह प्रक्रिया निरंतर घटित होती रहती है ब्रह्मांड में। नवीन सूर्य (तारे) बनते रहते हैं अपने ग्रहमंडलों के साथ और उनका क्षय भी होता रहता है कालावधि पूर्ण होने पर। * पृथ्वी पर जगत् का प्रादुर्भाव सूर्य की रश्मियों से हुआ ‌है और ‌इसका लय भी होगा यथा समय। सूर्य को जगत् का आत्मा कहा गया है यजुर्वेद (7/42) में, यथा, "#सूर्य_आत्मा_जगतस्तस्थुषश्च" * 'अनु' का बोध ध्यान में जिस योगी को हो‌ जाता है, वह‌ जीवन्मुक्त हो जाता है, स्वयं की प्रकृति ‌का ‌स्वामी हो जाता है। -- स्वयं की प्रकृति के‌ स्वामी को पुरुष संज्ञा ‌से विभूषित किया गया है, पुरुष है पुर् + उष !! -- पुर् को‌ पंचभूतात्मक शरीर कहते हैं जिसमें जीव-आत्मा का वास है। जीव त्रिगुणात्मिका प्रकृति है अंत:करण चतुष्टय, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त, के साथ। * चित्त में वृत्तियों का, सूक्ष्म संस्कारों के रूप में, संचय ‌होता है। यह संस्कार कर्मफल हैं और जन्म-मृत्यु चक्र में बांधते ‌हैं जीव को। * ध्यान-योग, प्राणायाम आदि, के अनुशीलन से साधक-योगी सभी जन्म-जन्मांतरों की वृत्तियों का भोग करता है ध्यान में ही, जिससे वह कर्म में परिवर्तित नहीं होती हैं। इस तरह से चित्त निर्मल हो जाता है और होता है अपने चैतन्य स्वरूप में प्रतिष्ठित। -- यह चैतन्य स्वरूप ‌चित्त‌ ही आत्मा कहा जाता है, जो सदा अव्यक्त है और ‌बिन्दु स्वरूप में ही दीख पड़ता‌ है ध्यान में। * यह बिन्दु ‌उष् है, जिसके प्राकट्य को उषा कहा गया है ऋग्वेद में। ध्यान में भी उष् से आदित्य की प्रभा उदित होती है। आदित्य की रश्मियों से जगत् का, विश्व का, संसार का, संचालन संभव होता है। * आदित्य द्वादश हैं, जिनमें एक की संज्ञा विष्णु है। इसी आदित्य विष्णु के अवतार हैं श्रीराम व श्रीकृष्ण। धर्म की पुन: स्थापना के लिए, अधर्म का नाश करने के लिए, साधु पुरुषों, जो साधना में रत हैं, की रक्षा के लिए, आदित्य विष्णु का अवतार के रूप में आविर्भाव होता है जगत् में, जब अधर्मियों का प्रभुत्व स्थापित होने लगता है विश्व में। * श्रीमद्भगवद्गीता (4/8) का कथन है, "#परित्राणाय_साधूनां_विनाशाय_च_दुष्कृताम्। #धर्म_संस्थापनार्थाय_संभवामि_युगे_युगे"॥ * अनु भव, कि, अनु हो‌ जाओ, सर्वोत्तम आशिर्वाद होगा एक ब्रह्मगुरू का किसी योग्य ध्यान-योगी शिष्य के लिए !! #सुशील_जालान, 11.08.2021.😇 ------------ १८/९/२३ जगत्विख्यात महर्षि पतंजलि दूसरी से चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में हुए हैं। इनके तीन बड़े काम हैं योगसूत्र, पाणिनि के व्याकरण का भाष्य और रसायन विद्या।योग का जनक इन्हें कहा गया है। तमिल परंपरा में पतंजलि १८ सिद्धों में से एक हैं। यौगिक परंपरा में सर्प सोयी हुई शक्ति का प्रतीक है। पतंजलि ऋषि का स्वरूप साढ़े तीन वलय के भुजंग पर बैठे हुए मिलता है, जिसे सहस्र फ़नों से ढँका हुआ चित्रित किया जाता है। पतंजलि रहस्यपूर्ण ऋषि हुए हैं। इनके नाम और काम से भारत एक बनता है। उत्तर में अफ़ग़ानिस्तान से लेकर दक्षिण में तमिलनाडु तक यह पूज्य हैं। इनका अवतरण योग विद्या के प्रसार के निमित्त हुआ। एक छोटे सर्प के रूप में यह कुमारी माता गोनिका की अंजलि में गिरे थे, इसी से इनका नाम पतंजलि पड़ा। यह माता स्वयं शक्तिशाली योगिनी थी। पतंजलि को सहस्र मुखी शेषनाग या अनंत का अवतार माना जाता है। कश्मीर में अनंत भट्टारक पतंजलि से साम्य रखते हैं। इनके सर्प वलय भगवान विष्णु के कार्य किया करते हैं। नाग परंपरा में भी यह समादृत हैं। कल एक अंत्येष्टि संस्कार में ललितपुर के गाँव सैदपुर जाना हुआ, वहाँ लौटते हुए हमारे फूफा जी प्रबुद्ध अधिवक्ता अरविंद नायक जी ने नाग देव जी के नाम से तालाब किनारे प्रसिद्ध मंदिर के चलते चलते दर्शन कराये। पतंजलि का विग्रह घर में जो था, उसी से मिलता हुआ विग्रह उस मंदिर में है। योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन। योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि॥ I bow with my hands together to the eminent sage Patañjali, who removed the impurities of the mind through yoga, of speech through grammar, and of the body through medicine. वैदिक मान्यताएं उपसंहार (भाग 2) 88) उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत। (उठो, जागो, श्रेष्ठ पुरुषों से संपर्क कर, परमात्म- तत्त्व को जानो) यह हमारा सौभाग्य है कि हमने पृथ्वी के स्वर्ग सरीखे भूभाग भारतवर्ष में जन्म लिया तथा मां के दूध के साथ ही अमृतमयी वैदिक संस्कृति का पान किया। वैदिक (प्राच्य भारतीय) संस्कृति की महानता इसका आध्यात्मिक दृष्टिकोण है जो कण-कण में परमात्मा को एवं प्राणीमात्र में आत्मवत् तत्त्व को व्याप्त मानता है। यही आध्यात्मिक दृष्टिकोण इसे विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति तथा भारत को विश्व गुरु का सम्मान प्राप्त कराता है। इसी आध्यात्मिक दृष्टिकोण के कारण महर्षि मनु, औरंगजेब के बड़े भाई दारा शिकोह तथा विश्व विख्यात दार्शनिक मैक्स मूलर, शोपनहार, विल्ड्युरां, मार्क ट्वैन आदि भारत की भूरि भूरि प्रशंसा करते हैं : i) " एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवा:।। " --- मनुस्मृति 2.20 अर्थात इस देश में उत्पन्न हुए पूर्व जनों के विचारों से, पृथ्वी के सभी लोग अपने-अपने चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा प्राप्त करें। ii) " अध्यात्म विद्या के मैंने बहुत ग्रंथ पढ़ें, पर परमात्मा की खोज की प्यास कहीं नहीं बुझी। ... मैंने कुरान, तैरेत, इंजील, जबूर अधिक पढ़ें, उनमें ईश्वर संबंधी जो वर्णन है, उनसे मन की प्यास नहीं बुझी। तब हिंदुओं की ईश्वरीय पुस्तकें पढ़ी। इनमें उपनिषदों का ज्ञान ऐसा है जिससे आत्मा को शाश्वत शान्ति तथा सच्चे आनन्द की प्राप्ति होती है। " --- दारा शिकोह ( उपनिषदों के फारसी अनुवाद की भूमिका ) iii) " समस्त संसार में कोई भी अध्ययन इतना हितकर और इतना उन्नत करने वाला नहीं जितना कि उपनिषदों का अध्ययन। इनके अध्ययन ने मुझे जीवन में शान्ति दी है -- इनका अध्ययन मुझे मृत्यु समय भी शान्ति देगा। --- शेपनहार iv) " यदि कोई मुझसे पूछे कि गगन के किस भाग के नीचे मानव-मानस ने दैवी देन को पूर्णतः विकसित किया है, जीवन की गहन समस्याओं पर गंभीरता से विचार किया है तथा उनमें से कुछ का समाधान भी ढूंढा है, जो प्लेटो और कांट के अध्ययन - कर्त्ताओं का भी ध्यान आकर्षित करता है, मैं भारत की ओर संकेत करूंगा। " -- मैक्स मूलर ( इंडिया : वट कैन इट टीच अस ? - पृष्ठ 4 ) v) " भारत माता कई मायनों में हम सब की माता है।" -- विल्ड्युरां vi) " भारत मानव जाति का पलना है, मानव भाषा की जन्मस्थली है, इतिहास की मातृ , जनश्रुति की मातृमही एवं परम्परा की परमातृमही है। " -- मार्क ट्वेन vii) " हे प्रभो ! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत निवास को दे दो, क्योंकि वहां पहुंचकर मनुष्य जीवन मुक्त हो जाता है। " ‌ -- उमर बिने हश्शाम ( उपनाम : ' अबुल हकम '-- ज्ञान का पिता) / हज़रत मुहम्मद के चाचा ) ऐसी महान संस्कृति जो विश्व में सर्वाग्रगण्य है ,सम्मानित है, और जिसके प्रति विश्व में दिग्दर्शन कराने की प्रत्याशा है, इसे अक्षुण्ण रखने का दायित्व इसकी वर्तमान पीढ़ी का है। इस संस्कृति के जीवन मूल्यों को न केवल हमने अपने जीवन में डालना है, अपितु अपनी सन्तति के जीवन में भी इनका संचार करना है। यह एक पितृऋण है जिससे उऋण होने का केवल एक ही मार्ग है कि परम्परागत जीवन मूल्यों पर स्वयं चले एवं अपनी सन्तति को इस पर चलने के लिए प्रेरित करें। ऐसा न हो कि भविष्य में कोई चिंतक स्वामी विवेकानन्द की भान्ति भारतीय संस्कृति के प्रति वही पीड़ात्मक शब्द दोहराए जो उन्होंने रोम की महान् संस्कृति ( Roman Civilisation) के विषय में कहे थे : "Spider weaves the web where Caesar ruled." अर्थात् जहां सीज़र ने राज्य किया वहां आज मकड़े जाला बुन रहे हैं। कहने का भाव यह कि वह संस्कृति अब लुप्त-प्राय हो गई है। मिस्र में पांच सहस्र वर्ष से पिरामिड आज भी गर्व से सिर उठाए खड़े हैं ; पर दुर्भाग्यवश आज मिस्र के लोग रेखा गणित एवं शिल्प विद्या के उन रहस्यों से अनभिज्ञ है। प्राचीन मिस्र के मृतकों के शव आज भी अपने जीवित शरीर की आकृति का आभास करा सकते हैं परन्त दुर्भाग्यवश यह अद्भुत रहस्य भी मिस्र के लोगों को आज ज्ञात नहीं। वह संस्कृति भी लुप्त-प्राय हो गई है। यह हमारा सौभाग्य है के प्राचीन भारत की महान् संस्कृति के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। हमारी संस्कृति के आधारभूत मूल्य आज भी जन जनार्दन के मानस पटल पर समुचित प्रभाव बनाए हुए हैं। तभी तो किसी पाश्चात्य विद्वान ने कहा है : " Every Indian is a born philosopher." अर्थात् प्रत्येक भारतीय एक जन्मजात दार्शनिक है। स्वामी विवेकानन्द के निम्न शब्द जहां भारतीय सभ्यता की अमरता के प्रति आश्वस्त करते हैं, वहां इन पर निष्ठापूर्वक आचरण के लिए सावधान भी करते हैं : " भारतीय राष्ट्र को मिटाया नहीं जा सकता। यह अ-मृत रहा है और अ-मृत रहेगा, जब तक इसकी आत्मा इसका आधारभूत रहेगी ; जब तक भारतवासी अपनी आध्यात्मिकता को नहीं छोड़ देते।" निष्कर्ष वैसे तो हमने पूर्व सभी लेखों में इस महान् भारतीय संस्कृति का विस्तार से वर्णन किया है, फिर भी संक्षिप्त रूप में, इसका सारांश यहां देना संदर्भ संगत है। वैदिक संस्कृति के दो आधारभूत स्तम्भ है : यज्ञ और योग। यज्ञ का अर्थ केवल अग्निहोत्र या हवन नहीं है; यह केवल प्रतीकात्मक है। हर श्रेष्ठ कार्य जो मानव मात्र के कल्याण के लिए किया जाता है , वह यज्ञ है। गीता (5.25) आश्वस्त करती है: " लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणं.... सर्वभूतहिते रता:।" अर्थात जो लोग प्राणी मात्र के हित में कार्यरत रहते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं, ईश्वर का साक्षात्कार करते हैं। ऋग्वेद (10.26.5) का मंत्राश है : " ऋषि: स यो मनुर्हित:।" अर्थात ऋषि वह है जो मानव मात्र का हित करता है। यज्ञ की आत्मा है " इदन्न मम "-- यह मेरा नहीं है, सब कुछ ईश्वर का है। नि:स्वार्थ भाव से, त्यागभाव से परोपकार के कार्य करने चाहिए। यजुर्वेद का उपदेश है : " मनो यज्ञेन कल्पताम् ... आत्मा यज्ञेन कल्पताम्।" अर्थात् मन को , आत्मा को यज्ञ से पवित्र करो; पुष्ट करो। गीता (3.9) का उपदेश है : " यज्ञार्थात् कर्मणोsन्यत्र लोकोsयं कर्मबन्धन:।" अर्थात यज्ञ की भावना से, ईश्वर समर्पित भाव से किए गए कर्मों के अतिरिक्त कर्म करने से मनुष्य कर्मों द्वारा बन्ध जाता है। यज्ञभाव से किया कर्म, निष्काम कर्म है, कर्म योग है। योग की पद्धति ज्ञानयोग और भक्तियोग का समन्वय है। पूर्व लेख में हमने बताया कि योग भारतीय संस्कृति की कार्यशाला है। इस से सत्य के दर्शन होते हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने योग की परिभाषा इस प्रकार की है : " संयोगो योग: इति उक्तो जीवात्मपरमात्मनोरिति। " अर्थात् आत्मा और परमात्मा का संयोग योग कहलाता है। यज्ञ भी ईश्वर का रूप है : यज्ञो वै विष्णु:। यज्ञ और योग दोनों से इहलोक और परलोक, अभ्युदय व नि:श्रेयस की सिद्धि होती है -- सांसारिक सुख - सुविधाएं, मनोकामनाएं की पूर्ति होती है, तथा परम आनन्द व मोक्ष की प्राप्ति होती है। कालान्तर में जब यज्ञ और योग की अवहेलना होने लगी, त्याग यज्ञ का और तपस्या योग का प्रतीक बन गए। भारतीय संस्कृति त्याग और तपस्या की संस्कृति के रूप में जानी जाने लगी। अब योग पुनः अपनी आभा के साथ विश्व में प्रतिष्ठित होने लगा है। आशा है कि शीघ्र ही भोगवाद से संतप्त विश्व, " तेन त्यक्तेन भुंजिथा "-- (त्याग भाव से ईश्वर प्रदत्त साधनों का प्रयोग करो) के महत्त्व को पहचानेगा और तदानुसार प्रकृति संसाधनों का विवेकपूर्ण उपभोग करेगा और भातृभाव से प्रेरित होकर वंचितों की सहायता के लिए उद्यत होगा। किसी पाश्चात्य विद्वान का सटीक परामर्श है : " One should warm the hands without burning them." अर्थात् हाथों को गर्म करते समय ध्यान रखो कि वे जलें नहीं।" कहने का अभिप्राय यह कि भोग्य पदार्थों के असंयमित भोग से जहां आप अन्यों के लिए अभाव की स्थिति उत्पन्न करते हैं, आप अपना भी अहित करते हैं। त्याग और तपस्या की भारतीय संस्कृति के महत्त्व को रेखांकित करते हुए अमेरिकी दार्शनिक मार्क ट्वेन के शब्द अनुकरणीय हैं : " मानव इतिहास के इस सबसे अधिक भयावह काल में मुक्ति का एकमात्र उपाय प्राच्य हिन्दू जीवन पद्धति है।" अतः यह हमारा कर्तव्य बनता है कि हम इस महान् सांस्कृतिक निधि को, आध्यात्मिक जीवन पद्धति को, आगामी पीढ़ियों के लिए अक्षुण्ण रखें। तदर्थ आत्मविश्वास से, दृढ़ संकल्प होकर, हम अपने कर्तव्य का पालन करें। तभी भारत के विश्वगुरु बनने का सपना भी साकार हो पाएगा। विश्व तो हमारी ओर लालायित दृष्टि से देख रहा है परन्तु हमें भी तो अपनी संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिए कर्मठ होना होगा। ब्रिटेन देश के सम्मानित लार्ड फलिंच के भारत के प्रति श्रद्धाभाव स्वर्णिम अक्षरों में अंकित होने योग्य है : " हे भारत माता क्या हमारी सहायता नहीं करोगी ? हमारे प्रति सहिष्णु बनो, हम तुम्हारे ही पुत्र हैं। तू हमारे आविर्भाव से पहले उन्नति की चरम सीमा पर पहुंच चुकी हो। हमारा मार्ग घातक और सकण्क है, सहायता करो भारत माता। हम तुम्हारे वास्तविक वैदिक पुत्र, अपनी मातृभूमि पर टकटकी लगाए हुए हैं। हम मिलकर, संसार में पुनरुत्थान और नैतिकता के शक्तिपुंज बन सकते हैं।" -- लार्ड फलिंच ( यह वैदिक मान्यताएं की ' इति ' नहीं, आरम्भ है ! ) ................ पादपाठ 1) Oh India ! Will you not help us? Be patient with us, India ! Remember we are your children. You are old and learned and wise before we existed. Our path is steep and thorny. Help us, Mother India ! We, your real Vedic children, are turning our gaze to our motherland, together We can be come the great regenerating and moralising force of this world. --- Lord Flint. 2) " व सहबी केयाम फ़ीमकामिल हिन्दे यौमन। व यक़ुलून लातहज़न फ़इन्नक तवज्जरू।। " --- उमर बिने हश्शाम ( से अरुल ओकुल पृष्ठ 235) / ( बिरला मंदिर दिल्ली प्रस्तर लेख ) 3) " यूनान मिश्र रोमा सब मिट गए जहां से, अब तक मगर है बाकी नामोनिशान हमारा। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा।। -- मोहम्मद इकबाल 4) "The Indian nation cannot be killed. Deathless it stands and it will stand, so long as that spirit shall remain as the background , so long as her people do not give up their spirituality." --- Swami Vivekananda 5) Study the past if you would divine the future . ---Confucius भूतकाल का अध्ययन करो यदि भविष्य को दिव्य बनाना चाहते हो। -- कन्फ्युशस 6) Awake, arise or be forever fallen. --John Milton (The Paradise Lost ) जागो, उठो अथवा सदा के लिए गर्त में पड़े रहो। --- मिल्टन ( पैराडाइज लास्ट ) 7) " At this extremely dangerous moment in human history , the only way of salvation is the ancient Hindu way. --- Mark Twain ............ Its English version is available on our page The Vedic Trinity The Epilogue ( Part 2 ) 88) Arise, Awake, Approach the wise and Know Thyself. ............... Best Wishes Vidya Sagar Verma Former Ambassador ................ २०/९/२३ गणेश और हनुमान शुक्ल यजुर्वेद 23/19 में यह प्रसिद्ध और बहुप्रयुक्त ऋचा आई है... ॐ गणानांत्वा गणपति ग्वं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ग्वं हवामहे निधीनां त्वा निधिपति ग्वं हवामहे वसो मम । आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम् ॥ हे गणपते ! गणों के मध्य में गणों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं। हे प्रियों के मध्य में प्रियों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं । हे सुखनिधियों के मध्य में सुख निधियों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं । हे वसो! हे प्रजापते! व्यापक होकर संपूर्ण संसार में निवास करने के कारण आप मेरे पालक हों। जिस प्रकार पत्नी अपने पति को जानती है, उसी प्रकार मैं भी आपको जानूँ। मैं आपके निकट से निकटतर होता जाऊँ।। अधर पान करते हुए आपके शरीर के जीवन सत्व का रसास्वादन लूँ तथा आपके आत्मज को प्रकट करूँ। पञ्चप्राणों के पाँच सौम्य , और पाँच उग्र रूप -- दस महाविद्याएँ हैं। ये पञ्चप्राण ही गणेश जी के गण हैं, जिनके वे ओंकार रूप में अधिपति हैं। यहाँ उनके नाम के साथ श्री शब्द है जो रिद्धी सिद्धि का प्रतीक है। वे रिद्धी-सिद्धि के भी स्वामी हैं। वे परमात्मा के वाचक एकाक्षर ओंकार "ॐ" हैं, यानि वे प्रणव रूप में परमात्मा के वाचक हैं। ॐ ॐ विश्वास (शिव) एवं श्रद्धा (शक्ति) के संयोग से ज्ञानरूपी गणेश का प्राकट्य होता है। हनुमान" और "हनुमत" शब्द को समझने के लिए सब तरह के "मान" यानि अहंभाव से मुक्त होना पड़ेगा। अहंभाव से मुक्त हुये बिना न तो उनको समझ सकते है, और न ही उनके बीजमंत्र "हं" को। अहंभाव से युक्त रहते हुए -- तत्व की बात समझ में नहीं आयेगी। यह साधना का विषय है जो उनकी कृपा से ही हो सकती है। इसे समझना भी बहुत आवश्यक है क्योंकि हमें निज जीवन में राम जी को प्राप्त करना है। इसके लिए एक उच्चतर से भी अधिक उच्चतर चेतना में स्थित होना होगा जो उनके अनुग्रह के बिना संभव नहीं है -- "राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे"। यहाँ पैसारे का अर्थ प्रवेश है, न कि रुपया पैसा। २२/९/२३ ज्ञान को jnana तो लिखा ही जाता है। यह जानना और जागना भी है। jnana और ध्यान भी मिलते हुए पद हैं। 23/9/23 संन्यास (१) श्रुति ने "न्यास: ब्रह्म:" संन्यास को ब्रह्मस्वरूप कहा है । संन्यास क्या है ? क्रमानुसार इच्छाओं के त्याग का नाम संन्यास है । विष्णुसहस्त्रनाम में भी संन्यास विष्णु भगवान् के हजार नामों में एक नाम कहा गया है । वृहदारण्यक उपनिषद् के तीसरे अध्याय के पांचवें ब्राह्मण के भाष्य में भाष्यकार श्रीशंकराचार्य जी लिखते हैं कि जीव को जन्म-मरण रूपी बन्धन की प्राप्ति कारण सहित है ; इसका कारण अध्यास या भ्रान्ति है । यह अनेकों प्रकार का है , उनमें एक देहाध्यास है । इस अध्यास की निवृत्ति आत्मा-अनात्मा के विवेक सहित भोगों के उपरामता बिना नहीं होती । इस बन्धन-मुक्ति का साधन संन्यास सहित आत्मज्ञान है । अतः कौषीतकि ऋषि के पुत्र कहोल ने याज्ञवल्क्य जी से आत्मा के सम्बन्ध में पूछा , तब उन्होंने उत्तर देते हुए कहा --- "आत्मा सर्वान्तर है तथा सूक्ष्म तथा सर्वरूप है ।" कहोल ने पूछा --- "सर्वान्तर आत्मा कौन है ?" महर्षि उत्तर देते हैं --- "योऽशनायापिपासे शोकं मोहं जरां मृत्युमत्येति । एतं वै तमात्मानं विदित्वा ब्राह्मणाः पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति । या ह्येव पुत्रैषणा सा वित्तैषणा या वित्तैषणा सा लोकैषणा । उभे ह्येते एषणे एव भवतः । तस्माद्ब्रामणः पाण्डित्यं निर्विद्य बाल्येन तिष्ठासेत् । बाल्यं च पाण्डित्यं च निर्विद्याथ मुनिः । अमौनं च मौनं च निर्विद्याथ ब्राह्मणः । स ब्राह्मणः केन स्याद्येन स्यात्तेनेदृश एव । अतोऽन्यदार्तम् । ततो ह कहोलः कौषीतकेय उपरराम ॥" (वृहदारण्यक ३/५/१) "जो भूख-प्यास-शोक-मोह-बुढापा तथा मृत्यु का अतिक्रमण करता है , ब्राह्मण पुत्र-धन तथा लोक कामना का त्याग करके इस आत्मा को जानकर भिक्षावृत्ति (संन्यास) से निर्वाह करते हैं । जो पुत्र की इच्छा है , वही धन की इच्छा है , वही लोकेच्छा है ; यह तीनों ही इच्छायें जिसमें है ; उसका त्याग करके ब्राह्मण पाण्डित्य का त्याग कर बालभाव से युक्त हो । आत्मा का बल ही बालभाव है , मुनि पाण्डित्य मौन तथा अमौन का जो त्याग करता है , वह ब्राह्मण है । ब्राह्मण किससे होता था ? इसका उत्तर दिया । इसके अतिरिक्त सब मिथ्या है । महर्षि का यह वचन सुनकर कौषीतकिनन्दन कहोल मौन हो गये ।" इस मन्त्र पर आचार्य शंकर भाष्य करते हुए कहते हैं कि -- एक ही आत्मा तीनों भेदों से रहित अखण्डमण्डलाकार सर्वव्यापी होने पर भी तीन शरीर , प्राण की उपाधियों से दो प्रकार का है। एक ब्रह्मात्मा तथा दूसरा जीवात्मा । ब्रह्मात्मा देश-काल-वस्तु के परिच्छेद से रहित होने के कारण सुख-दुःख-भूख-प्यास-शीत-उष्ण-मोह-भय आदि से रहित है । जीवात्मा तीन शरीर की उपाधियों को प्राप्त करके जन्म-मरण , भूख-प्यास आदि की संग भ्रांति से प्रतीत होता है। २५/९/२३ जो क्षण की नवता का दर्शन करता है, उस तत्व का नाम सौंदर्य है। बिना चेतना के सौंदर्य दर्शन संभव नहीं और बिना सौंदर्य के चेतना नहीं। भीड़ का दर्शन समझना हो तो स्वतः स्फूर्त भीड़ का दर्शन करना चाहिए। ऐसे में भीड़ के बाहर नहीं, भीड़ का होकर रहना आवश्यक है। दर्शन की भीड़ बनना होगा। ग्यारस या एकादशी का समय कुछ अलग होता है, आज की एकादशी परिवर्तन की एकादशी है, डोल ग्यारस; जिसमें भगवान भी मंदिरों से बाहर आते हैं, विहार करते हैं, मानो वे भी इस भीड़ समाज में एकाकार होने को आतुर हों। ललितपुर में जल विहार दर्शन पहली बार हुआ है। यहाँ सायंकाल के तीन चार घंटे में ३०-४०००० से ऊपर श्रद्धालुओं का मूवमेंट होता है। घर से विमानों में भगवान की शोभा यात्रा निकाली जाती है। लोग विमान के नीचे से निकलने में अपना सौभाग्य मानते हैं। स्वतः स्फूर्त इस भीड़ के पीछे जो तत्व काम कर रहा है, उसका दर्शन करना ही भक्त का उद्देश्य है। भीड़ से पृथक कोई गोट गाने में मगन हैं तो कोई गीत और भजन में तो कोई मंच से पुकारने के लिए आतुर अपने अपने नाम में तो कोई इन सबको आत्मसात् करने में। ऐसे पर्वों पर नेपथ्य में अगर किसी विशुद्ध राग में राम धुन या शबद बजता रहे तो और अच्छा। गाँव में जलविहार के अवसर पर निकले विमान छेड़े जाते थे, पंद्रह पंद्रह दिनों तक भगवान किसी के घर अथवा सार्वजनिक स्थान पर विराजते, उनकी पूजा मंदिर की भाँति ही होती। इस पर्व को देखकर लगता है, भगवान को और न उनके भक्तों को किसी मंदिर भर का होकर रहना नहीं सुहाता। बल्कि भक्त उन्हें अपने धाम से ही उतार लाता है। सनातन धर्म की परंपरा ईश्वर को कितनी कितनी तरह से आत्मसात् कर लेती है, कोई अंदाज़ा नहीं है। २६/९/२३ सच्चे अर्थों में दानी कोई योगी ही हो सकता है। योगिजन मात्र दर्शन और स्पर्श करके ही अपने शिष्यों को बोधि प्रदान करते हैं। किसी को कुछ देना ही तो दान है। दान देने और लेने की पात्रता विकसित करना असल काम है। चेतनापूर्ण व्यक्ति, जो माया, गुण और गो पार हो गया, केवल वही दान देने का पात्र है। वह जो कुछ करेगा, वह दान देना होगा। दान देने के अतिरिक्त और कुछ उसके जीवन का ध्येय नहीं। दानमात्मज्ञानं। दूसरी तरफ़ दान लेने की भी पात्रता विकसित करनी पड़ती है। जो यज्ञ कर्म क्या हैं, यह जानने की ओर बढ़ गया हो। जो साधक प्रयत्न करने के लिए उद्यत हुआ हो। दृश्य ही शरीर है, यह जानकर जिसने शरीर को हवि बना लिया हो। मातृका चक्र का संबोध प्राप्त किया हो। और सबसे बड़े उपाय के रूप में जिसने गुरु तत्व को मान लिया हो। गुरूरूपायः। २७/९/२३ कामना कल्पना से उत्पन्न होती है, इसका मूल स्वर असंतोष है। सारे फ़साद की जड़ यही है। बल से ही बालक बनता है। बालक वह जो बल संपन्न हो। बल की उपासना करने के लिए कहा गया है, जिससे बालक तैयार हों। ‘नास्ति सांख्य समं ज्ञानं , नास्ति योग समं बलं ‘। महाभारत ।योग को पहले हिरण्यगर्भ शास्त्र कहा जाता था। नास्ति मायासमं पापं नास्ति योगात्परं बलम् । नास्ति ज्ञानात्परो बन्धुर्नाहंकारात्परो रिपुः।। अर्थ- माया के समान दुनिया में कोई पाप नहीं और योग के समान दुनिया में कोई शक्ति नहीं। ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई बन्धु नहीं और अहंकार से बढ़ कर कोई शत्रु नहीं। ( घेरण्ड संहिता ।।4।।) 28/9/23 प्रस्तुत चित्र पांडव वन धाम के हैं, जिसे यहाँ पांडवन कहा जाता है, लोकमान्यता है कि पाण्डवों ने अपने वनवास काल में यहाँ समय बिताया था। एक रमणीक, पूर्णतः निर्जन और सुरम्य स्थान। कामायनी के शब्दों में ... मधुर विश्रांत और एकांत— जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन और चंचल मन का आलस्य! ललितपुर के दक्षिणी सीमांत गाँव पारौल से पाँच किमी ऊबड़ खाबड़ पहाड़ी रास्ते से होकर यहाँ कठिनाई से पहुँच पाते हैं। रास्ते की यह कठिनाई अगर न हो तो यहाँ की प्राकृतिक रमणीयता भी जाती रहे। इस रमणीयता को निर्दोष रखने की दृष्टि से एकांत और दूर के स्थानों पर सड़क या पहुँच मार्ग बनाने की आवश्यकता नहीं लगती। जहां तक बस्ती है, सड़कें वहीं तक बनें और अच्छी दशा में बनी रहें। विंध्याचल की पहाड़ियों से होकर जामनी नदी ज़िले की सीमा में सागर से आती हुई पांडवन से प्रवेश करती है। इसी नदी पर ऊपर सागर ज़िले में सुंदर दृश्यावलित कनकद्दर जल प्रपात है, जिसके चित्र कुछ दिन पूर्व साझा किए गये हैं। पांडवन ज़िला मुख्यालय से ६५-६६ किमी दूर दक्षिण में है। घने जंगलों और पहाड़ों के बीच यह स्थान है, पर जंगली जानवरों की आमद नहीं देखी जाती, पहले अवश्य रहे होंगे। कुछ लोगों ने कहा आपको वहाँ स्थानीय लोगों को लेकर जाना चाहिए। यहीं पास में जामनी बांध बना हुआ है। जामनी बेतवा की प्रमुख सहायक नदी है। बेतवा नदी पर ज़िले के पश्चिम में पहले राजघाट और फिर पश्चिमोत्तर में माताटीला बांध बने हैं। बेतवा बुंदेलखंड की प्रमुख नदी है, इसे बुंदेलखंड की सुरसरि कहा गया है। इसी नदी पर आगे झाँसी में पारीछा बांध बना है। हमीरपुर के पास बेतवा यमुना में मिल जाती है। जामनी ललितपुर जनपद की प्रमुख नदी है। बेतवा की यह प्रमुख सहायक नदी है। बेतवा ललितपुर ज़िले के किनारे से उसकी अशोकनगर और शिवपुरी मध्य प्रदेश की सीमा रेखा बनाती हुयी झाँसी और ओरछा की तरफ़ जाती है, जबकि जामनी या जामने ज़िले के बीच से होकर गुजरती है और पूर्व दिशा में टीकमगढ़ ज़िले की सीमा भी निर्धारित करती है। यह झाँसी में सुकवाँ ढुकवाँ बांध से पहले बेतवा में विलीन हो जाती है। जामनी नदी को ज़िला ललितपुर की गंगा कह सकते हैं। सदियों से ऐसी मान्यता है कि जामनी नदी का पानी फसलों पर छिड़कने से रोग व कीड़े नहीं लगते। जामनी बांध के अतिरिक्त इसी नदी पर एक और बांध भौरट में बन रहा है। इससे १६ हज़ार हेक्टेयर से अधिक भूमि की सिंचाई हो सकेगी। १२ हज़ार से अधिक किसानों को लाभ मिलेगा। १३ गेट लग चुके, १३ और लगने हैं। यह डबल गेट प्रणाली का बांध होगा। जामनी नदी के अतिरिक्त इसकी सहायक नदी सजनाम पर सजनाम और कचनौदा बांध बने हैं। सजनाम नदी चंदावली गाँव के पास जामनी में मिल जाती है। ललितपुर शहर से होकर शहज़ाद नदी पर शहर का गोविंद सागर बांध है तो और आगे हर्षपुर के पास शहज़ाद बांध है। शहज़ाद नदी भी जामनी में ज़िले के हजारिया गाँव के पास जाकर मिलती है। इसी जामनी में छोटी सी नदी जमडार भी कुंडेश्वर के पास अजयपार में मिलती है। जिसको प्राचीन काल में अजय अपार कहा जाता था। ऐसा इसलिए कि यहां पर कभी भी पानी की मात्रा कम नहीं होती थी। यह स्थान घने जंगलों के बीच है जिसके कारण यहां कई गुणकारी औषधियां भी पाई जाती हैं। समय के साथ आसपास का जंगल खेतों में बदल गया किंतु अभी भी नदी के किनारों पर कई औषधीय पौधे हैं। जमडार के मुहाने की यात्रा प्रसिद्ध साहित्यकार-पत्रकार राज्यसभा सदस्य बनारसीदास चतुर्वेदी ने की थी। वे प्रसिद्ध मधुकर पाक्षिक पत्र का कुंडेश्वर में रहते हुए संपादन करते रहे हैं। ललितपुर जनपद में उक्त बाँधों के अतिरिक्त उटारी नदी पर सूरी कलाँ गाँव के पास उटारी बांध, सजनाम नदी पर चंदावली गाँव के पास भावनी बांध, कुम्हेडी गाँव के पास जमड़ार बांध और मडावरा क्षेत्र में धसान की सहायक नदी रोहिणी पर रोहिणी एवं लोअर रोहिणी बांध निर्मित हैं। इस प्रकार ललितपुर ज़िले में शासन द्वारा निर्मित तेरह बांध/जलाशय हैं। भौरट में निर्माणाधीन बांध चौदहवाँ होगा। बाँधों की बहुतायत के कारण ललितपुर को बाँधों का ज़िला कहा जाता है। कोई नदी किसी एक जलधारा का परिणाम नहीं होती, उसमे कई छोटी छोटी जलधाराएँ एकमेक रहती हैं। छोटी छोटी जलधाराएँ जो नदी बनकर धरती पर सरकती है, कोई धारा भूमिसात् हो जाती है तो कोई और बड़ी नदी में जाकर मिल जाती है और अंततः सभी नदियाँ समुद्र में जाकर मिल जाती हैं। आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्। २९/९/२३ नदी बेतवा तीरे .... जखौरा से आगे बेतवा के मध्य करकरावल या ककरावल स्थान है। बेतवा यहाँ कई टापुओं में विभक्त हो गई है। यह स्थान नाम बेतवा के जलप्रवाह से हुए चिकने उसके बड़े बड़े पत्थरों के कारण पड़ा। पत्थर को यहाँ ककरा बोलते हैं। नदी का तेज बहाव है। जलप्रवाह एक अपूर्व और विलक्षण लय पैदा करता है। हर महाभूत तत्व का अपना नाद है। सहरिया या सौंर आदिवासी यहाँ अपने पूर्वजों का अस्थि विसर्जन करते है। उन्हीं के किशोर बच्चे मिल गये, वे अपने साथ रास्ता बताते हुए ढाई तीन किमी लंबे ऊबड़ खाबड़ पथरीले और अनिर्मित पथ से नदी की दूसरी धारा में ले गए। नदी के एक पाट से दूसरी धारा तक पहुँचने में एक घंटा लग गया। हम लोगों को यह रास्ता विदित नहीं था। ये बच्चे राहुल और सचेंद्र न मिलते तो वहाँ पहुँच भी न पाते। इनमे एक आठवी तक पढ़ा है, दूसरा नहीं पढ़ा। बताया इंदौर में बड़ी गाड़ी चलाता है। वापसी में वे बच्चे तैर कर आ गए। हम लोगों को उसी रास्ते आना पड़ा। यहाँ नर्मदा नदी के भेडा घाट की भाँति एक धारा से दूसरी धारा के बीच नाव या स्टीमर चलाकर पर्यटन विकसित हो सकता है। यहाँ नदी, पहाड़ और जंगल का संगम हुआ है। नदी ने अपनी गोद में पहाड़ और जंगल को समेट लिया है। नदी के बीच से चलकर पैदल पहुँचना एक अडवेंचरस यात्रा होती है, जैसा नीचे दिए चित्रों में देखा जा सकता है। 30/9/23 कोई ध्वनि अनाहत नहीं है। अनाहत जिसे हम समझते हैं, वह प्रकाश से टकराकर पैदा होती है। प्रकाशोदय भी ईश्वर और अव्यक्त से होता है। पंचमहाभूतों की ध्वनियाँ भी आहत स्पष्ट ही हैं। वे आपस में टकराने से उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु में आकाश रहता है। आकाश में मन और इसी प्रकार आगे क्रमशः।