Thursday, June 1, 2023

मई २३

२/५/२३ मालिनीविजयतंत्र में आता है... अकिंचिच्चिंतकस्यैव गुरुणा प्रतिबोधतः। उत्पद्यते य आवेशः शांभवोऽसावुदीरितः॥ तंत्रालोक १/१६७ उच्चाररहितं वस्तु चेतसैव विचिंतयन्। यं समावेशमाप्नोति शाक्तः सोऽत्राभिधीयते॥ १६८ उच्चारकरणध्यानवर्णस्थानप्रकल्पनैः। यो भवेत्स समावेशः सम्यगाणव उच्यते॥१६९ ५/५/२३ भारत में बौद्ध लुप्त हुए, अच्छा है, इनका पुनरुत्थान भारत में हो और उसकी परंपरानुसार हो। यह परंपरा किसी बौद्ध वर्ग से विरोधी नहीं होगी, अन्यथा वह बौद्ध कैसे... बौद्धों का विरोध तो तब भी सामने नहीं आया जब बामियांन/अफ़ग़ानिस्तान में बुद्ध की बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ तोड़ी गईं। बुद्ध भारत के नमक हैं यानि आस्वाद हैं। वेद समर्थक न होने के बावज़ूद बुद्ध और अद्वैतवादी शंकर में कोई तात्विक अंतर नहीं है। ज्ञान और उसके महत्व के रूप में वेदों का कोई विरोध संभव नहीं। ईसाईयत भी यह स्वीकार करती है। बुद्ध सबके हैं। वे दशावतार में हैं। कंबोडिया, वियतनाम, जापान, श्रीलंका, चीन, थाईलैण्ड, म्यांमार इत्यादि कितने ही देशों में और दुनिया भर में उनके जानने और मानने वाले लोग फैले हैं। बुद्ध कहते है... 'तुम मुझे सम्मान दो, तो यह तुम्हारा बुद्धत्व को ही दिया गया सम्मान है, लेकिन तुम मेरा अंधानुकरण मत करना। क्योंकि तुम अंधे होकर मेरे पीछे चले तो बुद्ध कैसे हो पाओगे? बुद्धत्व तो खुली आंखों से उपलब्ध होता है, बंद आंखों से नहीं और बुद्धत्व तो तभी उपलब्ध होता है, जब तुम किसी के पीछे नहीं चलते, खुद के भीतर जाते हो। गीतगोविंदकार जयदेव गाते हैं.. निन्दसि यज्ञ-विधेरहह श्रुतिजातम् सदय-हृदय दर्शितपशुघातम् । केशव धृत-बुद्धशरीर जय जगदीश हरे॥९॥ अनुवाद- हे जगदीश्वर! हे हरे! हे केशिनिसूदन! आपने बुद्ध शरीर धारण कर सदय और सहृदय होकर यज्ञ विधानों द्वारा पशुओं की हिंसा देखकर श्रुति समुदाय की निन्दा की है। आपकी जय हो॥९॥ पद्यानुवाद निन्दे यज्ञ नियम श्रुति-मगके, माने मानव सम पश जगके। केशव बुद्ध-शरीर लसे, जय जगदीश हरे॥९॥ बालबोधिनी- नवें पद में भगवान्के बुद्धावतार की स्तुति की जा रही है। वेद श्रीभगवान्के श्वासस्वरूप हैं; ‘तस्य निःश्वसितं वेदाः’। वेदों को स्वयं भगवान की आज्ञास्वरूप माना जाता है। वेद शास्त्रों में जब विरोधी मत अर्थात् वेदों के विरुद्ध विचार धाराएँ बढ़ने लगीं, तब आपने बुद्धावतार ग्रहण किया। यह प्रश्न होता है कि स्वयं यज्ञ विधि को बनाकर फिर यज्ञ विधायिका श्रुतियों की क्यों निन्दा की? अत्यन्त आश्चर्य की बात है कि स्वयं ही वेदों के प्रकाशक हैं और स्वयं ही वेदों की भर्त्सना कर रहे हैं। इसके उत्तर में ‘सदय हृदय दर्शित पशुधातम्’ अर्थात् आपने पशुओं के प्रति दयावान होकर अहिंसा परमो धर्मः, यह उपदेश प्रदानकर दैत्यों को मोहित किया है। आपने जैसे अमृत की रक्षा करने के लिए दैत्यों को मोहित किया था, उसी प्रकार प्राणियों की रक्षा करने के लिए आपने दैत्यों को मोहितकर यज्ञों को अनुचित बतलाया है।। यज्ञ में की जानेवाली पशुओं की हिंसा को देखकर श्रीभगवान्के हृदय में दया प्रसूत हुई और दया विवश होकर अपने इस अवतार में यज्ञ प्रतिपादक वेद शास्त्रों की निन्दा की। इस पद के नायक धीर शान्त हैं। भगवान् बुद्ध को शान्त रस का अधिष्ठाता माना गया है॥९॥ ७/५/२३ हमारे देश की बड़ी ऊर्जा संवेदनशील मुद्दों पर क़ानूनों के निर्माण और उनके क्रियान्वयन की तिकड़मों पर खर्च हो जाती है। इससे उबरना बहुत आवश्यक है। विकास और उत्थान में लोगों की रचनात्मकता लगनी चाहिए। कला एक राष्ट्रीय मूल्य है, लोग झंझटों से निकलेंगे तो कला सृजन किए बिना नहीं रहेंगे। स्त्री और दलितों के मुद्दों से दुनिया कितनी आगे जा चुकी है, हम लोग अभी भी अटके हुए से दिखते हैं। पहले इन मुद्दों पर क़ानून नहीं थे, पर विषमताएँ व्याप्त थीं। अब वैसी विषमताएँ तो नहीं, पर कानून का वैषम्य और लचरपन अब भी है। १४/५/२३ आज रात माँ का आकार सुंदर स्त्री के रूप में तरह तरह से बनता हुआ दिखा। ऐसी सुंदरता किसी स्त्री में भी देखी नहीं गई। यह स्वरूप भी एक तरह का नहीं था। एक पल में अनंत स्वरूप, फिर उनका लुप्त होना और प्रकट होना चलता रहा। हम आनंदमग्न। अगर यह स्वप्न भी मानें तो ऐसे दृश्य समुपस्थित होते रहने की कामना है, जिसके आनंद में सदा आप्लावित रहें। माँ केवल केयर नहीं है। वह तो ऐसी आँधी भी है, जिसमें सब कुछ उखड़ जाता है। हाँ इस आँधी और झंझावात के बीच जो कुछ बच रहता है, वह माँ है। माँ तो वह है जिससे हम हैं, जिससे होने की क्रिया हो रही है। माँ में होना भी लय हो जाता है। इसलिए जो मही दिखता या होता, माँ तो वहाँ भी अस्तित्वमान है। मातृ दिवस या प्रचलित अर्थ में माँ की अर्थवत्ता यह है कि माँ की करुणा को अनुभव में उतारकर हम संपूर्ण माँ तक पहुँच सकते हैं। संपूर्ण माँ में केयर है फेयर है और शेयर है, संभोग है और उपभोग है, आकर्षण और विकर्षण है, विलय है और उदय है। उसमे क्या नहीं है, सब होने में और न होने में वही तो है। न होने में वह शिव है तो होने में वही शक्ति है। . प्रेम का अर्थ, जिसे तुम देख रहे हो उससे तुम जुड़ गए हो– वह विजातीय नहीं है। तुम्हारा हृदय और उसका हृदय साथ-साथ धड़क रहा है। तुम्हारी श्वास और उसकी श्वास साथ-साथ चल रही है, तुम्हारे होने में और उसके होने में अब बीच में कोई दीवाल नहीं है। प्रेम का इतना ही अर्थ है। सब दीवालें विसर्जित हो गयी हैं। दृष्टा दृश्य बन गया है। कृष्णमूर्ति निरंतर कहते हैं: दि आब्जर्व्ड इज दि आब्जर्वर, दि आब्जर्वर इज दि आब्जर्व्ड। वह प्रेम की व्याख्या कर रहे हैं–देखनेवाला दृश्य हो गया, दृश्य देखनेवाला हो गया है। दोनों ऐसे मिल गए हैं जैसे दूध पानी मिल जाते हैं। फिर अलग करना मुश्किल हो जाता है। मिलने के बहुत ढंग हैं। पानी और तेल भी मिलाया जा सकता है। लेकिन मिलाओ, फासला बना ही रहता है–पानी तेल मिलते ही नहीं। अप्रेम की दृष्टि पानी और तेल का मिलन है। तुम देखते हो, पर मिलते नहीं। बिना मिले कैसे देखोगे? बिना मिले कैसे उतरोगे अंतरतम में यथार्थ के? बिना मिले कैसे पहुंचोगे गहराई तक? दूध-पानी जैसे मिल जाओ। फूल को देखने गए हो: वहां फूल रहे, यहां तुम रहो; धीरे-धीरे, धीरे-धीरे दोनों खो जाए, सिर्फ फूल का अनुभव रहे–न तो अनुभव करने वाला बचे, न फूल बचे–सिर्फ बीच में तैरता एक अनुभव रह जाए। जहां दृष्टा और दृश्य खो जाते हैं, वहां दर्शन फलित होता है। प्रेम पराकाष्ठा है। प्रेम के अतिरिक्त, जानने का कोई उपाय नहीं। तुमने कभी सोचा; तुमने कभी निरखा, परखा, पहचाना कि जीवन के, ज्ञान के अन्यतम क्षण प्रेम की छाया की तरफ आते हैं। तुम केवल उसी व्यक्ति को जान पाते हो जिसे तुमने प्रेम किया। जिसे तुमने प्रेम नहीं किया, उसके आसपास तुम कितनी ही परिक्रमा करो–जैसे लोग मंदिर में परिक्रमा करते हैं–पर वह परिक्रमा आसपास ही रहेगी, बाहर ही बाहर घूमोगे, भीतर न जा सकोगे। क्योंकि भीतर जाने की तो संभावना तभी है जब तुम अपने को डुबाने और मिटाने को राजी हो जाओ। तब तुम मिटने को राजी होते हो तब दूसरा भी मिटने को राजी हो जाता है–तुम्हारा राजीपन उसमें राजीपन की प्रतिध्वनि पैदा करता है। जैसे दो बूंद करीब आती हैं, करीब आती जाती हैं–राजी हैं मिटने को–फिर पास आ जाती हैं और एक बूंद हो जाती हैं। ऐसा एक बूंद हो जाना प्रेम है। ~ओशो १६/५/२३ दो जलती हुई मोमबत्तियाँ जब मिलती हैं तो टकराव कहा जाएगा कि मिलन कहा जाएगा। वह संभोग दशा में हैं या विछोह अवस्था में। वह एक हो गयीं या अनंत में बिखर कर अनंत हो गयीं। विवाह का उच्चतम आदर्श तो दो का एक होना है। समत्व योग है। अतएव मेरा विवाह तो हर उस जली हुई मोमबत्ती से हुआ है जो योगांत दशा को उपलब्ध हो चुकी है। यही विवाह और संभोग आगे उनसे भी होगा जो इसे पाएँगे। पु शुद्ध करने के भाव का शब्द है। प्योर अंग्रेज़ी में भी कहा गया। पोता लगाना यानि सफ़ाई करना। पोत का अर्थ है जहाज़ जो पार करा दे। पुत्र/पुत्री व्यक्ति को शुद्ध करने और बेड़ा पार लगाने के अर्थद्योतक हैं। पूतना का अर्थ है जो शुद्ध या साफ़ नहीं है। पुत्र या पुत्री को संतति के तौर पर लिया जाता है, पर उसका गहरा अर्थ यही है जो हमें संस्कारित कर दे, स्वच्छ कर दें और इस अज्ञान रूपी मल से पार करा दे, जिससे व्यक्ति ज्ञानराज्य में प्रवेश कर जाए। पोटना भी एक विलक्षण भाववाची शब्द है, धीरे-धीरे सहमत करने का भाव इसमें समाहित है। पुं नाम का नरक भी वह अज्ञान या मल है, जिससे जातक को बाहर आना होता है। पितृ ऋण भी यही अज्ञान या आवरण है। पितृ ऋण की क़ीमत अधिक है, मात्र संतति उत्पाद से इसे नहीं चुकाया जा सकता। १९/५/२३ अभिवादन हाथ मिलाने में, चरण स्पर्श करने में अथवा हाथ जोड़कर करने में दो अलग अलग शक्तियों का एक होना है। एक शक्ति बाहर जा रही तो दूसरी भीतर जा रही है। इन दोनों का योग ही प्रणामाभिवादन है। प्रणाम में नम्यता है, अर्थात् झुक जाना, समर्पित होना। दोनों शक्तियों का विलीन होने की क्रिया प्रणाम है। २३/५/२३ भीतर नौ महीने मल मूत्र से उपजा व्यक्ति बाहर आकर पाख करने लगता है। इसे ही शास्त्रों में अविद्या कहा गया है। इसे आणव मल भी कहा गया है। आध्यात्मिक परिपक्वता क्या है....?? 🍁1। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप दूसरों को बदलने की कोशिश करना बंद कर देते हैं ... इसके बजाय स्वयं को बदलने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। • 🍁2। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप लोगों को स्वीकार करते हैं। • 🍁3। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप समझते हैं कि हर कोई स्वयं के परिप्रेक्ष्य में सही है। • 🍁4। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप "जाने दो" सीखते हैं। • 🍁5। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप रिश्ते से "उम्मीदों" को छोड़ने और देने के लिए दे सकते हैं। • 🍁6। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप जो भी करते हैं उसे समझते हैं, आप अपनी शांति के लिए करते हैं। • 🍁7। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप दुनिया को साबित करना बंद कर देते हैं कि आप कितने बुद्धिमान हैं। • 🍁8। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप दूसरों से अनुमोदन नहीं लेते हैं। • 🍁9। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप दूसरों के साथ तुलना करना बंद कर देते हैं। • 🍁10। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप अपने साथ शांति रखते हैं। • 🍁11। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप "ज़रूरत" और "चाहते हैं" के बीच अंतर करने में सक्षम होते हैं और आपकी इच्छाओं को छोड़ने में सक्षम होते हैं। • और आखिरी लेकिन सबसे सार्थक! 🍁12। जब आप भौतिक चीज़ों को "खुशी" से संलग्न करना बंद करते हैं तो आप आध्यात्मिक परिपक्वता प्राप्त करते हैं !! • 💐 "सभी को आध्यात्मिक रूप से परिपक्व जीवन की शुभकामनाएं महामुद्रा तिरोहिता २५/५/२३ एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥2॥ भावार्थ इस जगत् रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत् में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए॥2॥ आरती यानि पूरी तरह रति। संपूर्ण समर्पण। आनंद में सराबोर। प्रार्थना भी प्रकृष्ट अर्थना है। सकल पसारे के रूप में फैले अर्थ का बोध हो जाने पर प्रार्थना संभव होती है। शब्द होता है, फिर अर्थ ही अर्थ है। अगर अर्थ शब्द के मूल और मर्म तक न पहुँचा तो क्या ख़ाक शब्द को समझा। आदमी यानि जो दमी है। दम रखता है। दम पर ही जो आश्रित है। दम का अर्थ श्वास से है। दमादम मस्त कलंदर। श्वास के आने और जाने को दमादम कहते हैं। कलंदर बाबा इस आवाजाही के साक्षी हुए, इसलिए वे मस्त कहे गए। वे मुर्शीद हो गये। २८/५/२३ समज का अर्थ झुंड या समूह होता है। इस शब्द के मध्य में जब दंड लग जाता है तब यह एक ऐसी इकाई का अर्थ द्योतन करता है, जिसकी अपनी सभ्यता और संस्कृति होती है। बिना दंड के कोई समूह अपनी सार्थकता ग्रहण नहीं कर पाता। दंड एक अनुशासन है। किसी पद का हमारे समाज में कितना आदर और सम्मान देखा जाता है। किसी समाज में पद का सम्मान इसलिए होता है कि वह उतना अनुशासित है। वह दंड व्यवस्था से स्वतः परिचालित है। पदानुक्रम में सम्मान के स्तरों का आशय है कि वह प्राधिकारी उतना अनुशासित है। इस अनुशासन का प्रतीक सेंगोल है, जो आज फिर चर्चा का विषय बना है। सेंगोल तमिल शब्द 'सेम्मई' से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'नीतिपरायणता'। चोल राजवंश में राजदंड धारण करके शासन किया जाता था।राजदंड का अर्थ है न्याय। महाभारत काल से राजदंड सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक रहा है। तमिल परंपरा का राजदंड का प्रतीक सेंगोल प्रथम प्रधानमंत्री को भेंट किया गया, फिर यह संग्रहालय में सुरक्षित रहा, अब नवनिर्मित संसद भवन में स्थापित हो रहा है। सेंगोल बताता है कि दुनिया फ्लैट नहीं है, गोल है और अंततः वहीं लौटती है जहां उसे लौटना चाहिये था। सेंगोल यह भी बताता है कि सत्ता का चक्र परिवर्तन होता रहता है। वह एक हाथ से दूसरे हाथ में जाती रहती है। सेंगोल राजा और धर्म के बीच एक संवाद का प्रतीक है। सेंगोल में सबसे ऊपर एक वृषभ है। वृषभ को धर्म का प्रतिनिधि कामायनी के आनंद सर्ग में जयशंकर प्रसाद जी ने कहा ही था तो वह उसी शास्त्रीय दृष्टि की आधारभूमि से कहा था। या सोम लता से आवृत वृष धवल, धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गति-विधि। पुराणों में वृषभ या नंदी को शक्ति-संपन्नता और कर्मठता का प्रतीक माना जाता है। धर्म साक्षी है और निरन्तर शासक को सेंगोल देख रहा है। सेंगोल आग्रह है, संग्रह नहीं। यह शासन की शिवता की ओर धर्म-दृष्टि है। राजदंड भारत ही नहीं बल्कि दुनिया की लगभग सभी सभ्यताओं का हिस्सा रहा है।पुरातन काल में यदि राजा किसी और को राज्य का प्रभार देकर कहीं यात्रा पर भी जाता था तो उस व्यक्ति को राजदंड सौंपना पड़ता था। हिंदू धर्म के चारों प्रमुख शंकराचार्यों सहित ईसाई धर्म के प्रमुख पोप भी ऐसे ही एक धर्म राजदंड को अपने साथ रखते हैं। यह उनकी शक्ति तथा सत्ता का प्रतीक है। भारतीय शास्त्रों के अनुसार इसे राजा-महाराजा सिंहासन पर बैठते समय धारण करते थे। हिंदू देवी देवताओं को विभिन्न शस्त्रों के साथ चित्रित किया जाता है, वह भी राजदंड का संकेत करता है। शक्ति बिना अनुशासन के उच्छृंखल हो जाती है। प्रजा जागर्ति लोकेऽस्मिन् दण्डो जागर्ति तासु च ।
सर्वं संक्षिपते दण्डः पितामहसमप्रभः॥ महाभारत कि इस लोक में प्रजा जागती है और प्रजाओं में दण्ड जागता है। वह ब्रह्माजी के समान तेजस्वी दण्ड सब को मर्यादा के भीतर रखता है॥ कामायनी में प्रसाद जी आनंद सर्ग में ही कहते है इस वृषभ धर्म-प्रतिनिधि को उत्सर्ग करेंगे जाकर, चिर मुक्त रहे यह निर्भय स्वच्छंद सदा सुख पाकर।"