Wednesday, April 3, 2024

मार्च २४

३/३/२४ वीरभोग्या वसुंधरा! बलमुपास्व! नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः... आधिभौतिक कष्टों को दूर करने के लिए बल चाहिए, आधिदैविक दुखों से निवृत्ति के लिए भी संसाधन जुटाने ज़रूरी हैं, इसके लिए भी बल आवश्यक है. इनके बाद आध्यात्मिक कष्टों का निवारण करना है तो पहले दो से होकर गुजरना पडेगा, यहाँ पहुँचकर बल और सत्य एक हो जाते हैं. यहाँ बल अप्रासंगिक हो जाता है या वह अविभाज्य हो जाता है. व्यक्ति को बिना इन तीनो दुखों के निवारण के विश्राम प्राप्त होना संभव नहीं है... २०२२ में आज की फ़ेसबुक पोस्ट जो कुछ व्यक्त हो रहा है, वह पीड़ा है। पीड़ा प्रकाश ही प्रेमरूप करुणावान है। यह करुणा ही आनंद है, वही रस है, यही जीवन है। स्वर्ग है। इसके उलट अज्ञान है, मृत्यु है, अविद्या और माया है। नर्क है। जो अव्यक्त हो रहा है वह भी प्रेम है। किंतु वह विश्राम अवस्था में है। ''भव भावे मुझको और उसे मैं भाऊँ |. कह मुक्ति, भला किस लिए तुझे मैं पाऊँ |”. यशोधरा देवगढ़ नाम के पाँच स्थान ज्ञात हुए हैं। ललितपुर उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त ओड़िशा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में भी देवगढ़ या देवगड है। देवगिरी महाराष्ट्र के खानदेश में अलग स्थान है। एक समय यह औरंगज़ेब की राजधानी रहा है। इस क्षेत्र में घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग हैं। देवघर झारखंड का एक और अलग स्थान है, जहां बारह ज्योतिर्लिंगों में एक बाबा बैद्यनाथ आसीन हैं। इसके अलावा देवबंद सहारनपुर में एक और प्रसिद्ध स्थान है। यूँ, अपने यहाँ डग डग देवी पग पग देव की कहावत प्रचलित रही। अतः देव नाम से अनेक जगहें अपने देश में मिलती हैं। ललितपुर से पश्चिम में ३२ किमी दूर बेतवा किनारे छोटा सा गाँव है देवगढ़। जैन और बौद्ध कलाओं के उत्कृष्ट विग्रह और शैल चित्र तो यहाँ मिलते ही हैं। यहाँ ६ठी शताब्दी ईस्वी का गुप्तकालीन दशावतार मंदिर इतिहास के छात्रों और विद्वानों के आकर्षण का केंद्र रहा है। सबसे पहले अलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने अपनी यात्रा के दौरान १८७४-७७ के दौरान इस स्थान को प्रकाश में लाया। फिर पीसी मुकर्जी ने १८९९ में अपनी रिपोर्ट में इसे दशावतार मंदिर या सागर मठ नाम दिया। रामायण में वर्णित विष्णु के दस अवतारों की कथा यहाँ विभिन्न पाषाण मूर्तियों में व्यक्त की गई है। बाद में पुरातत्वविद दयाराम साहनी ने इसकी खुदाई कराई और उन्होंने इसे गुप्तकाल का स्मारक माना। पंडित एम डी वत्स ने इस स्थान से कुछ और खोजें की थीं। सब इस बात पर एकमत हैं कि यह गुप्त काल का मदिर है और उस समय का यह एकमात्र अवशेष है। देवगढ़ में ग्यारह सौ से ऊपर मूर्तियाँ पायीं गईं हैं। यहाँ जैन धर्म के भगवान शांतिनाथ मंदिर के बाहर ८६२ ई का संस्कृत भाषा में लिखा एक शिलालेख मिला है। कुंदनलाल जैन लिखते हैं.... भगवान शांतिनाथ के प्रसिद्ध मंदिर के समक्ष स्थित स्तम्भ लेख से इस पुण्य स्थली की प्राचीनता का प्रबल प्रमाण उपलब्ध होता है। इसी स्तम्भ लेख से इस नगर का प्राचीनतम नाम ‘‘लुअच्छगिरि’’ था ऐसा स्पष्ट होता है। इस स्तम्भ लेख को सं. ९१९ शाके ७८४ में श्री कमलदेव आचार्य के शिष्य श्री देव ने उत्कीर्ण कराकर प्रतिष्ठित कराया था, उस समय यहां महाराज भोज देव का शासन था। स्तम्भ लेख मूल पाठ निम्न प्रकार है— ‘‘ओ परम भट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर श्री भोजदेव मही प्रबद्र्धमान, कल्याण विजय राज्ये, तत्प्रदत्त पंच महाशब्द महासामन्त श्री विष्णु राम परिभुज्य या (के) लुअच्छगिरे श्री शान्त्यायतन संन्निधे श्री कमल देवाचार्य शिष्येण श्री देवेन कारापितं इदम् स्तम्भं। सं. ९१९ अश्वयुज शुक्ल पक्ष १४ चतुर्दश्यां वृहस्पति दिने उत्तर भाद्रपदा नक्षत्रे इदम् स्तम्भं घटितमिति। शक काल (शब्द) सप्तशतानि चतुराशीत्यधिकानि ७८४।। वाजुआगगाक गोष्ठभूतेनाऽयं स्तम्भं ’’ इस समय यहां का शासक विष्णु राम था जो पंच महाशब्द और महासामन्त की उपाधि से विभूषित था। आगे चलकर १२ वीं शताब्दी में देवगढ़ का नाम ‘‘कीर्तिगिरि’’ रखा गया, जो यहां के चंदेल शासक कीर्ति वर्मा ने यहां अपनी विजय के उपलक्ष्य में अपने ही नाम के प्रथमाक्षरों की पहचान स्वरूप इसे प्रचलित कराया। सं. ११५४ में इस प्रदेश की विजय प्राप्ति के पश्चात् महाराजकीर्तिवर्मा ने अपनी प्रशस्ति स्वरूप जो शिलालेख प्रतिष्ठत कराया वह यहां प्राप्त हुआ है। जिसका मूल पाठ निम्न प्रकार है। चंदेलवंश कुमुदेन्दु विशालकीर्ति:, ख्यातो बभूवनृपसंघतांध्रि पद्म:। विद्याधरो नरपति कमलानिवासी, जातस्ततो विजयपाल नृपोनृपेन्द्र: ।।१।। तस्याद्धर्मपर: श्रीमान् कीर्तिवर्मनृपोऽभवत्, अस्त कीर्ति सुधाशुभ्र: त्रैलोक्यं सौधतामगात्। अगदं नूतनं विष्णु:माविर्भूतमाप्य यम्, नृपाब्धि तत्समाकृष्टा श्रीरस्थैर्य: प्रमार्जयेत्।।२।। राजेन्द्र मध्यगतश्चन्द्र निभस्य यस्य, नूनं युधिष्ठिर सदा शिव रामचन्द्र:। एते प्रसन्न गुणरत्न निधौ प्रविष्टा, यत्तद् गुणप्रकर रत्नमये शरीरे।।३।। तदीयामात्य मंत्रीन्द्रो रमणीपुर विनिर्गत:, वत्सराजेति विख्यात: श्री मान्महीधरात्मज:। ख्यातो वभूब किल मंत्रपदैक मात्रे, वाचस्पतिस्तदिह मंत्रगुणैस्सभास्याम् ।।४।। योऽयं समस्त मही मंडल माशुशत्रो, राच्छिद्य कीर्तिगिरि दुर्गमिदं व्यधन्त। श्रीवत्सराज घट्टोऽयं नूनं ते नामकारित:, ब्रह्मांडमुज्ज्वलं कीर्तिरारोहतुममात्मन: ।।५।। सं.११५४ चैत्र वदी द्वितीय बुधौ। राग, लय, अक्षर सर्वत्र बिखरे हुए हैं। बस उन्हें संयोजित करने की आवश्यकता। पूरी सृष्टि एक लय, एकताल और एक सुर में निबद्ध है। उठते जागते खाते पीते काम करते और यह सब न करते हुए वह सुर बज रहा है। जो सुनहै सोई जाने। ७/६/२४ तुर्यावस्था का अर्थ है भीतर और बाहर दोनों का ज्ञान होना। जाग्रत में संसार दिखता है, स्वप्न में संसार के प्रतिबिंब तो सुषुप्ति में बाहर का और भीतर का ज्ञान नहीं दिखता है। ८/३/२४ यत्र सोऽस्तमयमेति विवस्वांश्- चन्द्रमः प्रभृतिभिः सह सर्वैः । कापि सा विजयते शिवरात्रिः स्वप्रभाप्रसरभास्वररूपा ॥ फाल्गुन माह की सबसे अंधेरी यानि कृष्ण पक्ष चौदहवीं की रात्रि का समय, जब सूर्य और चंद्र आदि सब अस्त हो जाते हैं, तब शिवरात्रि होती है। सूर्य और चंद्र के अस्तंगत होने पर विश्व उन्मीलित हो जाता है। अस्तंगत होने की प्रक्रिया ही शिव की बारात है। बारात यानि विचार, वासना, स्मृति और कल्पना। इनमें व्यक्ति डूबता उतराता रहता है। शिव की यह बारात शक्ति के घर से होकर फिर शिवमय हो जाती है। यह बारात शिव की है और शिव में ही वह लीन हो जाती है। शिव में लीन होने से पहले उसे शक्ति परीक्षा से गुजरना होता है। और तब व्यक्ति ज्योति दर्शन करता है। यह ज्योति प्रभा शिव विग्रह की भाँति गोलाकार है, भास्वर है। महाशिवरात्रि की आप सबको हार्दिक शुभकामनाएँ.... ९/३/२४ Thy light of goodness and Thy protective power are ever shining through me. I saw them not, because my eyes of wisdom were closed. Now Thy touch of peace has opened my eyes; Thy goodness and unfailing protection are flowing through me. ~ Paramahansa #Yogananda Through Cathy Ginter. Thank you! TODAY IS MAHASAMADHI ANNIVERSARY OF SWAMI SRI YUKTESWAR GIRI In a letter from Master (Paramhansa Yogananda) to Rajarsi Janakananda (Yogananda's advanced disciple) dated March 17th [1936], written in Ranchi just 9 days after Sri Yukteswar left his body... "Inspite of all wisdom and perception, I feel very lonely since our Guruji Swami Sri Yukteswar Giriji left us. Now you know, beloved one, what consolation you have given me, what gratefulness you have won from me and Guruji for being the divine instrument of making it possible for me to come here and pay to him my last respects on earth. I wrote you, “Guruji is planning to give up his body. Perhaps I can stay him.” I had it all planned to go on March 6 to Puri where he was residing, but God didn’t let me lest I pray to keep him here. Instead, I started to go on March 8, and I was prevented. Then I went on March 9 and arrived at Puri March 10 morning, only to see his lifeless body in samadhi posture. According to custom I had to bury his body in the ashram grounds. The body which had reflected omnipresent wisdom lay lifeless before me mocking, “I didn’t let you pray for me.” ”On March 9, 7 p.m., our Guruji left his body; and about that time he intimated to me of his departure. Also on the train I saw two tunnels of light and his astral self telling me of his departure. Though since his departure I have been seeing him all of the time, practically, still it is a great, great shock that I won’t ever be able to show you and Mt. Washington devotees Swami Sri Yukteswarji in body. He had told me, “If I live through March (Bengali Chaitra month), I will live longer.” When I had asked him to see an American lady from California, he replied, “I won’t see her now, nor anyone else in this life.” I know there would have been a great battle if I was present at the time of his passing. I wrote a letter to him asking him not to give up his body, but the people through whom I sent it did not read it to him. Guruji was slightly feverish for five days. His fever left in the end; and while his body seemed perfectly well, he left in samadhi." “If there were words, I would write to you how I feel about the material disappearance of Master. Imagine, the Lord God did not want me to pray lest He have to grant my prayer or deny it. The lion has left his cage, the lion whose roar of wisdom kept me undergoing a thousand privations and demands of organization work. If I could weep, I would feel relieved. If I would cry, the gods would cry with me. If I had a thousand mouths, I would say India lost one of the greatest in wisdom. But the saddest of all is I could not show him you.” "I am sad, even though I see him at every turn of my gaze. He was one of the wisest men, greater in exposition of wisdom than Shankara as far as I know. When comes such another? I am remembering all the divine play and communion he had with me. I can hardly think anything else these days than of all his untold gifts of upliftment given to me. I saw many teachers, but none like our lord who was a spiritual lion, never bending, ever aflame with wisdom.” १२/३/२४ ध्यान एक लंबा धैर्य और प्रतीक्षा जनित घटनाओं का दर्शन है। सामने एक बेर रखा है, वह मिट्टी बनेगा, उसमें अंकुरण होगा, फिर बेर होगा, इस पूरे चक्र को घटित होते देखने की प्रक्रिया ध्यान है। १५/३/२४ यह संसार वर्तुलाकार है। किंतु उस वर्तुल में पुनरावर्तन नहीं है। पुनरावर्तन उसके घटने से प्रतीत ही होता है। यह श्वास प्रक्रिया में भी दिखता है। श्वास आ रही है और जा रही है। श्वास के नासिका रंध्रों में प्रवेश और वहीं से निर्गम होने के कारण यह पुनरावर्तित प्रतीत होती है, परंतु यह जहां से उठती है और जहां विलीन होती है वह स्थान अनादि और अनंत है। इसमें सब घटित तो हो रहा है, उसी को हृदय कहा गया है। इस दहर की थाह नहीं है। घटने के कारण वह वर्तुल है, अन्यथा तो वह गति, स्थान और समय से परे है। वैदिक युग में कुछ अवसरों पर अविवाहित कुमारियां अग्नि के चारों ओर एकत्र हुआ करती थीं, वे जाज्वल्यमान अग्नि के सामने हाथ जोड़ा करती, उसकी परिक्रमा किया करती और यह गीत गाया करती थीं.. यही प्रसिद्ध महामृत्युंजय मंत्र हुआ... ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥ ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् | उर्वारुकमिव बन्धनान् इतो मुक्षीय मामुतः|| मंत्र का ऐतिहासिक अर्थ आओ हम सब सुगंधित देव, सर्वदृष्टा देव और हमारे पति के ज्ञाता देव की पूजा में निमग्न हो जाएँ. जिस प्रकार से भूसी से दानों को अलग कर दिया जाता है उसी प्रकार हम भी पितृ गृह के बंधनों से मुक्त हों, परंतु कभी, कदापि भी, पति गृह से विरत न हों. Let us be absorbed in the worship of the Fragrant One, the All-seeing One, the Husband-knowing One. As a seed from the husk, so may we be freed from bondage here (the parents' house), but never, never from there (the husband's home). swami ramtirth दूसरा अर्थ - हम त्रिनेत्र को पूजते हैं, जो सुगंधित हैं, हमारा पोषण करते हैं, जिस तरह फल, शाखा के बंधन से मुक्त हो जाता है, वैसे ही हम भी मृत्यु और नश्वरता से मुक्त हो जाएं। १५ मार्च २२ की फ़ेसबुक पोस्ट 20/3/24 अगर पुरुष सूक्त या ब्राह्मणोस्य मुख मासीद.....ऋचा को बाद की रचना भी मान लिया जाए तो भी ऋग्वेद में अग्नि, इंद्र, मरुत इत्यादि देवताओं का वर्णन बार-बार आया है, यह वर्णोत्पत्ति के ही तो आधार हैं। बाद में वेदांत या उपनिषद ग्रंथों में ब्रह्म और क्षत्र पदों का वर्णन हुआ है। गीता में यह वर्ण विभाजन स्पष्ट हो गया है। गीता उपनिषदों का सार संग्रह जैसा है। यह सही है कि वर्ण विभाजन का आधार गुण कर्म ही रहे होंगे, इन गुण कर्मों को जातियों में सुरक्षित किया और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संक्रमित करते आए। वर्ण विभाजन के सूत्र वेद ग्रंथों में भी मिलते हैं। वर्ण व्यवस्था से हम सबको कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, उसमे ऊँच नीच की भावना यदि न रहे। वर्ण का अर्थ रंग है और रंग रूप की अभिव्यक्ति के प्रथम संकेतक हैं। इस प्रकार वर्ण सृष्टि उद्गम के परिचायक हैं, आप इसे कुछ और नाम भी दे सकते हैं, पर यह सृष्टि उद्गम की पहचान हैं, इसे कैसे अस्वीकार कर सकते हैं।🙏 २०२३ की आज की फ़ेसबुक पोस्ट २१/३/२४ कोई दूसरे को चोट नहीं पहुँचाना चाहता है। वह स्वयं की समस्या दूर करने के लिए समाधान करता है। उस क्रम में हमें लगता है वह हमें परेशान कर रहा है। यह तक कि अगर दूसरे का जीवन भी वह लेना चाहता है तो वह भी उस समस्या के समाधान के क्रम में ही ऐसा करना चाहता है। ऐसा भी होता है कि हमारा ही पूर्वकृत्य कोई कष्ट बनकर वापस लौट कर आ रहा हो। इसी तरह कोई दूसरे को सुख भी नहीं देता। वस्तुतः दूसरे को दिये गए सुखकर्म आत्मतृप्ति के वाहक ही हैं। २४/३/२४ होली पर्व एक सामाजिक सांस्कृतिक विरेचन है, वह विरेचन का उत्सव है। ढंग और बेढंग इसमें एकमेक हो जाते हैं। रंगों में डूबना यानी अपनी पहचानों को मिटा देना है। पहचान को लेकर हम कितने सजग, कितने सक्रिय होते हैं कि उस पहचान का महत्व क्या है, वह किसलिए है, यही भूल जाते हैं। यह उत्सव इस पहचान का बोध कराता है। होली में हमारा असल रूप दिखने लग जाता है। किसी के प्रति दुष्टता की हद तक भी। परंतु होली का उत्सव हार्दिकता का है। रंग और गुलाल हार्दिकता के साथ प्रयोग किए जाते हैं। यह इस उत्सव की स्वाभाविकता है। होली का अर्थ है बीइंग डन जो हो लिया या जो हो गया। जीवन में सब कुछ होना ही तो है, इसे प्रत्यक्ष कर लेने का नाम होलिया या होलिका है। अस्तु! इस होलिका को जो जैसे घटित होते देख रहा है, रंगों से या बिना रंगों के! होलिका से वह बाहर नहीं रह सकता। होलिका से हुए बिना प्रह्लाद संभव नहीं। इस होलिका का दर्शन या उससे गुजर जाने के बाद विशेष प्रसन्नता या आह्लाद/प्रह्लाद का उदय होता है। होलिका ज्ञानाग्नि में दग्ध हो जाती है, आह्लाद शेष रह जाता है. आप सबको होलिकोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ.... भारत का जनमानस अपनी आध्यात्मिकता के प्रति सजग रहकर यदि वंचित रहकर भी प्रसन्न रहना चाहता है तो यह स्थिति आलोचना की परिधि से परे है। यदि यह जनमानस विवश होकर प्रसन्न है तो उसे और कर्मशील होना होगा। २७/३/२४ आज प्रातः देखा, जिह्वा पलटी हुई थी। सुबह होंठ नहीं खुल पा रहा था। निद्रा में ध्यान। परब्रह्म केवल प्रेम में निवास करता है। प्रकृति का कण-कण इसी प्रेम को व्यक्त कर रहा है। व्यक्त होता है, इसीलिए तो व्यक्ति है। प्रकृति का हर तत्व कितनी सहजता से व्यक्त हो रहा है। ब्रह्म को व्यक्त करने के लिए हमें नाम और रूप का सहारा लेना पड़ता है। राम वही हैं। ५/८/२० ट्विटर पोस्ट