Wednesday, December 22, 2021

जनपदीय साहित्य एवं इतिहास का अनूठा दस्तावेज़ -​ ​​ ‘विद्रोही की आत्मकथा’

जनपदीय साहित्य एवं इतिहास का अनूठा दस्तावेज़ -​
​​ ‘विद्रोही की आत्मकथा’ 
​​​​​​​​​   डॉ राकेश नारायण द्विवेदी
 
​पंजाब का सा शौर्य, राजस्थान का सा पुरातत्व एवं महाराष्ट्र की सी कला-संस्कृति के लिए जानी जाने वाली बुंदेलखंड की गरिमामयी धरती पर पाषाण उपत्यकाओं के बीच प्राकृतिक सुषमा के भी दर्शन होते हैं। यह धरती अनेक कर्मयोगियों की साक्षी बनी है। बुंदेलखंड के पूर्वोत्तर भाग में स्थित जालौन जनपद के सीमावर्ती लघु ग्राम मुहाना में एक ऐसी ही निष्काम कर्मयोगी विभूति पं0 चतुर्भुज शर्मा का जन्म हुआ, जिनके जीवन की झांकी को हम उनके उनकी ‘विद्रोही की आत्मकथा’ के आलोक में देख सकते हैं। आत्मकथाकार के शब्दों में ‘यह जीवन-कथा इतिहास नहीं, उपन्यास भी नहीं, केवल संस्मरण नहीं और विशुद्ध घटना-वृत्त भी। इसमें सबका यत्किंचित सम्मिश्रण है। पर सबसे अधिक उस पुण्य धरती की गरिमा के अभिनंदन की भावना है, जिसने मुझे जन्म दिया, जिसकी गोद मेरे लिए क्रीडांगन बनी और जो मेरे संघर्ष-पोषित जीवन, शांत-प्रशांत पीठिका और अंतर्व्यथा की पटनायिका है।’
​आत्मकथा में जनपद जालौन सहित बुंदेलखंड की तत्कालीन जनजीवन की झांकी के साथ-साथ देश में हो रहे राजनीतिक घटनाक्रमों का साक्षी वर्णन हुआ है। गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक शिक्षा समिति कानपुर के तत्कालीन मंत्री और इस पुस्तक के संपादक ने पुस्तक और उसके लेखक के बारे में टिप्पणी की है- ‘राष्ट्रीय पृष्ठभूमि में उसी के सुख-दुःख, उत्थान-पतन में झकोरे खाता हुआ प्रदेश तथा जालौन जिले में लेखक का जीवन आगे बढ़ता है। इस प्रकार पाठक उस काल के जनजीवन की समस्त झांकी को चित्रपट पर अनायास ही देख लेता है।’ प्राक्कथन या प्रकाशकीय से नहीं, संपादकीय से ही हमें विदित होता है कि लेखक के आत्मप्रचार से दूर रहने के कारण गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक शिक्षा समिति के अनेक आग्रहों के बाद पं0 शर्मा जी ने अपनी आत्मकथा लिखना स्वीकार किया था। ‘सबहिं मानप्रद आप अमानी’ तथा ‘मोर सुधारिहि सो सब भांती’ के स्वभाव से संपृक्त शर्माजी अपने को इस संसार का निमित्त मात्र ही मानते थे। आत्माराम एंड संस दिल्ली के प्रतिलिप्यधिकार में 1970 में प्रकाशित इस आत्मकथा के विक्रय से हुई समस्त आय शर्माजी की इच्छानुसार शिक्षा समिति को ही दान कर दी गई थी।
​भारत के मूर्धन्य एवं क्रांतिकारी पत्रकार श्री गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने ‘कर्मवीर’ के एक पत्रलेख में शर्माजी को ‘मृत्युंजय’ कहा था।
​शर्माजी अनेक वर्षों तक उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष तथा सरकार में काबीना मंत्री रहे। प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री एवं भारत के प्रथम गृहमंत्री पं0 गोविंद बल्लभ पंत शर्मा जी को पुत्रवत् मानते थे, इसीलिए शर्माजी ने ‘बांह गहे की लाज’ स्वीकार किया। पंतजी ने महाकवि तुलसी की स्मृति में स्थापित ‘तुलसी स्मारक समिति’ का कार्य 1958 ई0 में शर्माजी को सौंपा। शर्माजी चिरअभिलाषी रहे कि ‘श्रीरामचरितमानस’ और तुलसी के अमर साहित्य को जनमानस विशेषतः दलित और पिछड़े वर्ग तक पहुंचाया जाए, जिससे इन्हें चेतनासंपन्न किया जा सके। आत्मकथा को आत्मसात करने पर विदित होता है कि शर्माजी सादगी की प्रतिमूर्ति थे, किंतु वे दृ़ढ़ इच्छाशक्ति एवं ओजस्वी वाणी के धनी थे। उनका स्वभाव अन्याय के प्रति विद्रोह करने का था, कदाचित् आत्मकथा का शीर्षक भी इस विद्रोह भावना को परिलक्षित करने के लिए रखा गया। एक जमींदार तथा संपन्न परिवार में जन्म लेकर भी समाज में समानता तथा न्याय के लिए संघर्ष करना शर्मा जी की विशेषता थी।
​शर्माजी के पूर्वज राजस्थान की जोधपुर रियासत में फलौदी तहसील के एक छोटे से गांव बिटड़ी में रहते थे। ये गौण ब्राह्मण थे, परंतु पाली में रहने के कारण पालीवाल कहलाने लगे। पाली पश्चिमी रजवाड़े (राजस्थान) की सबसे बड़ी व्यापारिक मंडी थी। कहा जाता है कि पाली बसाने के पूर्व पालीवालों के पूर्वज कन्नौज में रहते थे और यहां के राठौर महाराजाओं के राजगुरू थे। मुहम्मद गौरी के हमले के बाद जब राठौरों ने कन्नौज छोड़ा तो उनके साथ उनके राजगुरू पालीवाल भी पश्चिम में चले गए। जोधा और बीका नामक राजपूत सरदारों ने वहां के भील आदिवासियों को हराकर जोधपुर और बीकानेर नगर बसाए। राठौरों की सहायता से उनके गुरू ब्राह्मणों ने पाली बसाई और उस स्थान पर उन्हीं का राज्य कायम हुआ। यह राज्य अलाउद्दीन खिलजी ने छिन्न-भिन्न कर दिया था।
​शर्माजी के पितामह पं0 खुशालीराम बिटड़ी गांव छोड़कर उरई से दक्षिण में 20 किमी मुुहाना ग्राम में अपनी विधवा हुई बहिन का कामकाज संभालने के लिए आ गए थे। जब पं0 खुशालीराम के पुत्र पं0 चुन्नीलाल हुए, तब तक इनके यहां एक बैल की खेती प्रारंभ हो गई थी। बुंदेलखंड में किसान की हैसियत देखने का यह प्राचीन पैमाना है। इन्होंने खेती का विस्तार होने पर एक छोटा मकान खरीदकर पक्का बना लिया, साथ ही प्रौढ़ होने पर कुछ व्यवसाय भी शुरू कर लिया। प्रतिष्ठा बढ़ी। जमींदारी पैदा हुई। पं0 चुन्नीलाल का विवाह टीकमगढ़ रियासत के बम्होरी गांव के पं0 बृजलाल के सुपुत्री से हुआ। इन्हीं की कोख से मुहाना में स्वनामधन्य पं0 चतुर्भुज शर्मा का जन्म भाद्रपद कृष्ण 6, गुरुवार संवत् 1957, तदनुसार 15 अगस्त सन् 1900 को हुआ। मुहाना गांव बुंदेलखंड की गंगा कही गई नदी बेतवा के किनारे उरई और राठ (हमीरपुर) के मध्य स्थित है। मोहन नाम के किसी व्यक्ति द्वारा बसाए जाने के कारण इस गांव का नाम मुहाना हुआ, जिसमें करीब चौथाई की जमींदारी शर्माजी के पिताजी ने खरीद ली थी। मुहाना गांव के समीप ही पृथ्वीराज का प्रसिद्ध सामंत चौड़ा (चामुंडा) मारा गया था। यह पृथ्वीराज चौहान और चंदेलों की अंतिम लड़ाई थी, जिसमें चंदेले हार गए थे और परमर्दिदेव (परमाल) चंदेल के प्रमुख सामंत आल्हा और ऊदल में से ऊदल मारा गया था। 1857 ई के स्वतंत्रता संग्राम में मुहाना गांव बाग़ी था।
​पं0 चतुर्भुज शर्मा के दो छोटे भाई थे, जिनमें एक पं0 रामदास शर्मा तथा दूसरे पं0 दीपचंद शर्मा थे। रामदासजी की मृत्यु टीबी से हो गई थी, इनके एक पुत्री हुई। 1933 ई में दीपचंदजी एवं शर्मा जी के पिता की हत्या हो गई। शर्माजी के कोई बहिन नहीं थी।
​शर्माजी की शिक्षा का शुभारंभ मुहाना में ही हो गया। दर्जा दो तक की पढ़ाई के बाद निकटस्थ ग्राम डकोर में दर्जा चार तक पढ़ाई की। शर्माजी प्रारंभ से ही पढ़ने में अव्वल रहे। दर्जा पांच की मिडिल की पढ़ाई करने के लिए शर्माजी उरई आ गए। यहां वे दैनिक विश्वमित्र के संचालक एवं संपादक कोटरा (जालौन) निवासी मूलचंद्र अग्रवाल से बहुत प्रभावित हुए। बाबू मूलचंद्रजी की मां चक्की पीसकर अपने पुत्र मूलचंद्र को पढ़ाती। दर्जा सात की वर्नाक्युलर परीक्षा पास करके शर्माजी उरई आकर किराए के मकान में रहने लगे। यहां रहने का एक अन्य कारण यह भी था कि उस वर्ष देहातों में डकैतियां अधिक होने से ग्रामीण वातावरण अशांत एवं अरक्षित हो गया था।
​एक बार शर्माजी ने गल्लामंडी में प्रचलित बेगार करने से मना कर दिया, यहां से शर्माजी के बगावती तेवरों का आरंभ हुआ। 1919 ई का प्रथम महायुद्ध समाप्त होने पर अंग्रेजी सरकार ने स्कूल के विद्यार्थियों में अपनी जीत की खुशी में तमगे बांटे; शर्माजी अकेले थे, जिन्होंने इसे लगाने से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा यह विजय तो अंग्रेजों की है, जो हम लोगों को गुलाम बनाए हुए हैं।
​आत्मकथा के अनुसार शर्माजी कहार तक के हाथ का पानी वे नहीं पिए थे, क्योंकि वह सबको एक ही लोटे से पानी पिलाता था, लेकिन बाद में वह समानता एवं बंधुत्व के कारण इन कुप्रथाओं से ऊपर उठ गए।1020-21 ई में असहयोग आंदोलन में शर्माजी ने अपनी फैल्ट कैप आग के हवाले कर दी थी। इसके बाद वे सदैव खादी की गांधी टोपी तथा खादी के ही कपड़े पहनने लगे। शर्माजी जालौन जनपद के मुख्यालय उरई के तत्कालीन कांग्रेस नेता पं0 मन्नीलाल पांडेय एडवोकेट के संपर्क में आए। शर्माजी ने 1925 ई में इंटर पास करके डीएवी कालेज कानपुर में बीए में दर्शन शास्त्र और अर्थशास्त्र विषयों के साथ प्रवेश ले लिया। इसी वर्ष वे कानपुर में कांग्रेस के अधिवेशन में सम्मिलित हुए। शर्माजी अपनी आत्मकथा में बेलाग होकर अपने जीवन की शल्य-क्रिया करते हैं। अखिल भारतीय विद्यार्थी संघ के सम्मेलन में शर्माजी ने स्वागत समिति के मंत्री पद का दायित्व संभाला। इसमें आए ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों से मार्ग-व्यय के भुगतान को लेकर शर्माजी का झंझट हो गया। ढाका कालेज मैगजीन में शर्माजी के खिलाफ लेख लिखा गया। सम्मेलन शर्माजी के सत्प्रयासों से सफल रहा। इन्हीं दिनों शर्माजी गणेश शंकर विद्यार्थी और उनके पत्र ‘प्रताप’ से जुड़े।
​राजनीति में सक्रियता होने के बावजूद 1927 ई में बीए द्वितीय श्रेणी में पास करके शर्माजी ने वकालत की पढ़ाई करने के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यहां वे आनंद भवन जाकर यूथ लीग में दिलचस्पी लेने लगे। पं0 जवाहरलाल नेहरू से मिले। विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से आंकड़े इकट्ठे करके नेहरूजी को प्रदान किए। वकालत के प्रथम वर्ष में उरई के चार विद्यार्थियों में शर्माजी अकेले उत्तीर्ण हुए थे। इलाहाबाद में शर्माजी ने अन्य लोगों के साथ मिलकर 1928 में सायमन कमीशन का बहिष्कार किया।
​1925 में कोलकाता के कांग्रेस अधिवेशन में शर्माजी ने प्रतिनिधि बनकर भाग लिया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस, मोतीलाल नेहरू जैसे नेताओं के दर्शन हुए। 1929 ई में वकालत की फाइनल परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। शर्माजी उरई वापस आ गए और अपने सार्वजनिक जीवन का प्रारंभ किया। खादी प्रोत्साहन के लिए गांधीजी को पं0 मन्नीलाल पांडेय के साथ मिलकर जिले से 3500/- रुपए दान की व्यवस्था कर गांधीजी का उरई-जालौन दौरा सफल कराया। ठड़ेश्वरी मंदिर के पास गांधीजी की सार्वजनिक सभा हुई। यहां गांधीजी का स्वयं के काते गए सूत से बना गमछा खो गया, किंतु गांधीजी ने दूसरा लेने से मना कर दिया।
​सत्याग्रह आंदोलन में पं0 मन्नीलाल पांडेय, कालीचरण निगम के साथ शर्माजी जेल गए। शर्माजी और कालीचरण निगम को साधारण कैदी की तरह एक साल की सजा पर रखा गया। झूठी म्यूटिनी (गदर) घोषित कर जेल के कैदियों को पांच मिनट के लिए ‘पगली घंटी’ बजाकर रखा जाता था। यह कसरत जेल पर अधिकारियों के नियंत्रण को परखने के लिए होती थी। जेल में रहकर शर्माजी का स्वास्थ्य बिगड़ गया, उन्हें कफयुक्त खांसी  की शिकायत रहने लगी। एक बार साइकिल से कचहरी जाते समय पागल कुत्तों ने शर्माजी को काट लिया। उन दिनों कुत्तों के काटे का इलाज कसौली (तब पंजाब में, अब हिमाचल प्रदेश) में होता था। शर्माजी ने अपने भाई रामदासजी के साथ 15 दिन कसौली में रहकर इलाज कराया।
​सन् 1937 में हुए असेंबली चुनाव में कांग्रेस ने हिस्सा लिया। शर्माजी ने जालौन जनपद की एक जनरल सीट पर पं0 मन्नीलाल पांडेय को तथा बुंदेलखंड की एकमात्र सुरक्षित सीट पर श्री लोटनराम को कांग्रेस उम्मीदवार बनाया। धन के अभाव में शर्माजी ने स्वयं चुनाव नहीं लड़ा। दोनों प्रत्याशी चुनाव जीते और जमींदारों के गढ़ में ही रायसाहब कामतानाथ तथा रामसहाय चमार हार गए। इस चुनाव से जिले में कांग्रेस की धाक जम गई। डॉ आनंद की गीतों ने इस चुनाव में समां बांधा। संयुक्त प्रांत में कांग्रेस की सरकार पं0 गोविंद बल्लभ पंत की अगुवाई में बनी। 1939 में संग्रहणी रोग के कारण जिला जालौन के ‘शेर’ पं0 मन्नीलाल पांडेय एमएलए का निधन हो गया।
​कांग्रेसी सरकारों ने अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में त्याग-पत्र दे दिया। जालौन जिले में पं0 बेनीमाधव तिवारी तथा चौधरी लोटनराम ने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किया। शर्माजी के घर की स्थितियां सर्वथा प्रतिकूल थीं, भाई व पिता का क़त्ल, एक अन्य भाई का तपेदिक से निधन, घर में शर्माजी की माता एवं पत्नी तथा छोटे-छोटे बच्चे थे। फिर भी शर्माजी की माता ने सत्याग्रह करने के लिए ढाढ़स बंधाकर शर्माजी को अश्रुपूरित विदाई दी। शर्माजी ने अपने अन्य साथियों के साथ नैनी संेट्रल जेल भेज दिए गए। यहां वे मौलाना आज़ाद, लालबहादुर शास्त्री, डॉ काटजू, पं0 बालकृष्ण शर्मा, चंद्रभानु गुप्त, पं0 कृष्णदत्त पालीवाल आदि हस्तियों के संपर्क में आए। यहां अपनी बैरक में शर्माजी ने गांधीवादी विचारधारा की एक कक्षा लगानी शुरू कर दी। जेल में पढ़ना-पढ़ाना इन नेताओं का शगल रहा। डॉ काटजू को शर्माजी ने प्रेमसागर (लल्लूजीलाल कृत) सुनाकर हिंदी सिखाई। शर्माजी ने 1941 ई में जेल से छूटने पर जिले में और जिले के बाहर भी कांग्रेस संगठन का कार्य प्रारंभ कर दिया।
​7 अगस्त 1942 को मुंबई में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में शर्माजी ने भाग लिया। उस अधिवेशन के राष्ट्रपति (कांग्रेस अध्यक्ष) शर्माजी के नैनी जेल के साथी मौलाना आज़ाद थे। अधिवेशन में ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव पं0 जवाहरलाल नेहरू ने पेश किया, जिसका सरदार पटेल ने समर्थन किया। महात्मा गांधी इस प्रस्ताव पर पूरे दो घंटे- हिंदी और अंग्रेजी- में बोले। उनके इस भाषण को आज़ादी का चार्टर कहा गया। गांधीजी ने कहा ‘मैंने अपनी सारी शक्ति कांग्रेस को समर्पित कर दी है और कांग्रेस या तो अपना उद्देश्य पूरा करेगी या मरेगी।’ इसे ‘करो या मरो’ कहा गया। आत्मकथा में अधिवेशन में प्रस्तुत भाषणों के प्रमुख बिंदुओं का वर्णन हुआ है। 9 अगस्त 1942 को गांधीजी गिरफ्तार हुए और फिर सारे देश में गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया।
​शर्माजी 10 अगस्त को उरई में गिरफ्तार कर लिए गए। उरई जेल में कुछ दिन रहने के बाद वे कई साथियों सहित उन्नाव जेल भेज दिए गए। शर्माजी को तन्हाई की सजा हुई थी। वे अपनी आदत के अनुसार यहां स्वाध्याय करते रहे। उन्होंने जेल में ही एक दिन अखंड रामायण का पाठ शुरू कर दिया। जेल अधीक्षक ने धमकी दी, किंतु शर्माजी की दृढ़ता ने उसे अपने क़दम वापस करने पर मजबूर कर दिया। जेल में जब शर्माजी राजनीतिक तैयारियों को लेकर एक भाषण दे रहे थे कि तभी उनकी माताजी के निधन का तार उन्हें मिला, किंतु शर्माजी ने एक नज़र डालकर उस तार को अपनी जेब में रख लिया और अपना भाषण जारी रखा। मित्रों के कहने पर शर्माजी को जिलाधीश ने 15 दिन के पैरोल पर छोड़ दिया। 15 दिन बाद श्राद्ध करके शर्माजी पुनः जेल चले गए। उन्होंने पैरोल बढ़ाने की अर्जी भी नहीं दी। इसके छः माह बाद शर्माजी की पत्नी बीमार पड़ीं। उन्हें संग्रहणी की बीमारी थी, उनकी तीमारदारी के लिए कोई नहीं था। तीन छोटे-छोटे बच्चे, बड़े पं0 माणिकचंद्र शर्मा उस समय 8 वर्ष के थे। तब भी शर्माजी ने जेल की प्रतिज्ञा के चलते पैरोल की दरखास्त नहीं दी। जिलाधीश ने स्वयं 15 दिन के पैरोल पर छोड़ा। शर्माजी की पत्नी बेहोशी की अवस्था में थीं। शर्माजी के घर पहुंचने के चंद घंटों के बाद उनका देहांत हो गया। अंत्येष्टि क्रिया तथा श्राद्ध करके घर की चाबियां शर्माजी अपने परम मित्र और सहयोगी पं0 बालमुकुंद शास्त्री को सौंपकर पुनः जेल चले गए। कुछ महीने बाद वे जेल से छूटे। उस समय मि0 मदनी जालौन के जिलाधीश थे। यह कट्टर लीगी और कांग्रेस विरोधी थे। शर्माजी की इनसे खटपट हो गई। कानपुर के गोपीनाथसिंह जी के साथ शर्माजी को कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की मीटिंग लेनी थी। शर्माजी के मकान पर ही यह बैठक होनी थी। जिलाधीश ने इसे गैरक़ानूनी घोषित कर दिया। शर्माजी ने अपनी सूझ-बूझ से मीटिंग को संपन्न कर दिखाया, उन्होंने गोपीनाथसिंहजी को अलग कमरे में बिठाकर दो-दो तीन-तीन करके सारे कार्यकर्ताओं को बुलाकर बातचीत कर ली और अपनी मीटिंग का उद्देश्य पूरा कर लिया।
​राजर्षि कहे गए पुरुषोत्तम दास टंडन के आदेश से शर्माजी ने अपने जिले में कांग्रेस असेंबली बनाई। आत्मकथा के अंतिम अध्याय में शर्माजी ने जिला जालौन के सत्याग्रहियों की सूची दी है, जिसमें 1930 ई में उनतालीस, 1932 ई में तीन, 1940-41 में दो सौ बानबे तथा 1942 ई में इकहŸार सत्याग्रहियों ने देश के स्वाधीनता-संग्राम के इन चरणों में अपना योगदान किया।
​शर्माजी की यह आत्मकथा 1970 में प्रकाशित हुई, उनका निधन 1976 में में हुआ, किंतु इसमें 1942 ई तक की ही घटनाओं का वर्णन हुआ। शर्माजी कदाचित् यह संदेश देना चाहते हैं कि उनके जीवन का जो भाग सबके लिए प्रेरणा का स्रोत और संबल बने, वही सबके सम्मुख आना चाहिए, किंतु उनका जीवन मृत्यु-पर्यंत सार्वजनिक एवं उदात्त आदर्शों से संपृक्त रहा। प्रकाशक का यह वक्तव्य समीचीन है कि सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन में प्रवेश करने के इच्छुक नौजवानों को निस्संदेह ऐसे आत्मचरित उच्च आदर्श की ओर प्रेरित करेंगे। निश्चय ही इस ग्रंथ को पढ़कर उन्हें अन्याय से जूझने एवं सही समाज-सेवा की भावना जाग्रत करने में सहायता मिलेगी।’
​शर्माजी ने स्वयं घोषणा की है कि यह आत्मकथा ‘प्रशस्ति की कामना या पराभव से आत्मरक्षा के लिए नहीं, दूसरों के छिद्रान्वेषण द्वारा आत्मश्लाघा के लिए किंचित्मात्र भी नहीं, बदलते समय को नापने या गिनने के लिए नहीं, शायद इसलिए भी नहीं जो संभवतः दूसरे इसका अर्थ लगाएं और निवेदन कर दूं निरर्थक भी नहीं। साथ ही किसी निश्चित प्रयोजन के साथ भी नहीं।’
​शर्माजी ने पच्चीस वर्षों तक निरंतर उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद एवं उत्तर प्रदेश सरकार के विभिन्न विभागों के उपमंत्री, राज्यमंत्री एवं कैबिनेट मंत्री तथा चेयरमैन सिंचाई आयोग का दायित्व संभाला। अनेक बार विधायक निर्वाचित हुए, जालौन जनपद के इतिहास में सर्वाधिक पांच बार प्रदेश विधानसभा का सदस्य (एक बार 1946 में स्वतंत्रता पूर्व तथा चार बार स्वतंत्रता काल- 1952, 1962, 1967 तथा 1969 में) चुने जाने का गौरव शर्माजी को प्राप्त है। यह कीर्तिमान आने वाले दिनों में भी भंग होता नहीं दिखता। शर्माजी  1957 तक सार्वजनिक निर्माण विभाग में तथा 1958 से 1960 तक राजस्व विभाग में उपमंत्री रहे। आपने 1961 से मार्च 1962 तक स्वतंत्र शासन विभाग में राज्यमंत्री का तथा मार्च 1962 से दिसंबर 1962 तक सहकारिता मंत्री के रूप में प्रदेश शासन का दायित्व निभाया। 1963 से 1967 तक स्वायत्त शासन मंत्री एवं 1969 से 1970 तक राजस्व एवं शिक्षा मंत्री के रूप में कार्य किया। सन् 1972 से 1974 तक चेयरमैन सिंचाई आयोग उŸार प्रदेश रहे। 1948 से 1975 के बीच उरई में गांधी इंटर कालेज, गांधी महाविद्यालय, गांधी बाल विद्यालय तथा ग्राम गोहन में जवाहर हाईस्कूल के संस्थापक एवं मृत्युपर्यंत उनके संरक्षक व पदाधिकारी रहे। ग्राम उद्योग ट्रस्ट पुखरायां (कानपुर देहात) के आजीवन ट्रस्टी व गोस्वामी तुलसीदास की जन्मभूमि राजापुर (चित्रकूट) में तुलसी स्मारक की स्थापना, तुलसी समिति के आजीवन मंत्री तथा स्वामीजी महाराज द्वारा स्थापित पीतांबरा पीठ दतिया की शिष्य परंपरा के प्रमुख सदस्य, दयानंद वैदिक महाविद्यालय प्रबंध समिति के उपाध्यक्ष आदि के रूप में अहम् भूमिकाओं का निर्वहन किया। प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशियों में भी शर्माजी के नाम की चर्चा रही थी। वह प्रदेश मंत्रिमंडल में मुख्यमंत्री के बाद सबसे बड़ी हैसियत के मंत्रियों में से रहे हैं, किंतु इनमें से किसी का उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में नहीं किया है। शर्माजी जैसे निष्काम कर्मयोगियों की दृष्टि में यह उपलब्धियां मानो उल्लेखनीय भी नहीं। शर्माजी ने क्षेत्र के पिछड़े विद्यार्थियों की शिक्षा के लिए जिन शैक्षणिक संस्थाओं का निर्माण कराया, उनका नाम उन्होंने गांधीजी के नाम पर ही रखा। आत्मकथा में गांधीजी के जन्म शताब्दी वर्ष के बारे में शर्माजी लिखते हैं ‘हम उतावले से पूछते हैं एक दूसरे से - हम गांधीजी की कल्पना कहां तक साकार कर सके हैं, कितने डग बढ़ सके हैं, उनके पदचिन्हों की पगडंडी पर स्वतंत्रता का उदय सर्वोदय से कितनी दूर है, उत्सुकता होती है जानने की।’ शर्माजी ने राजनीति में उत्तरोत्तर स्वस्थ जनहितकारी चेतना के अभाव पर चिंता व्यक्त की है। उन्हें प्रतीत होता है कि मानो स्वतंत्र राष्ट्र में स्वतंत्रता की आत्मा प्रतिष्ठित नहीं हो सकी है। आज का भ्रष्टाचार की धुंध से भरा वातावरण देखकर हम सब यह मानने को विवश हैं।
​गांधीजी के सच्चे अनुयाई, बुंदेलखंड केसरी और बुंदेलखंड के बापू के रूप में स्वीकृत स्वर्गीय पं0 चतुर्भुज शर्माजी का व्यक्तित्व और उनके आदर्श समाज के पथ-प्रदर्शक हैं।
 
​​​​​​-शब्दार्णव, नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई (जालौन)
​​​​​​मो0 9236114604 बुंदेली  बसंत २०१४ में प्रकाशित