Sunday, May 1, 2022

२/४/२२ सबमें रमै रमावै जोई, ताकर नाम राम अस होई। घट - घट राम बसत हैं भाई, बिना ज्ञान नहीं देत दिखाई। आतम ज्ञान जाहि घट होई, आतम राम को चीन्है सोई। नव सम्वत्सर २०७९💐 4/4/22 स्वप्न संसार ज्ञान का सादि संकल्प अर्थात् पीछे का संकल्प है जबकि जाग्रत ज्ञान यानि ईश्वर का आदि संकल्प है. जाग्रत या बाह्य जगत् का उपादान कारण आदि संकल्प है जो प्रलय तक नहीं बदलता. स्वप्न में स्वप्न की कल्पना ज्ञान का तृतीय संकल्प है. प्रथम स्वप्न द्वितीय या सादि संकल्प है स्वप्न में स्वप्न देखने के बाद जागने पर प्रथम स्वप्न के संसार से उठेगा और स्वप्न के भीतर का स्वप्न संसार नष्ट हो जाएगा, क्योंकि उसका उपादान कारण तो ज्ञान का तृतीय संकल्प या जाग्रत अवस्था है. इस दशा में मनुष्य को प्रथम स्वप्न संसार स्वप्न के भीतर वाले स्वप्त संसार की अपेक्षा सत्य प्रतीत होगा तब व्यक्ति जाग्रत अवस्था में स्वप्न और स्वप्न के भीतर का स्वप्न दोनों को एक सा संकल्प जान लेता है. वह जान जाता है कि जो संबंध स्वप्न के भीतर वाले स्वप्न संसार का प्रथम स्वप्न संसार से है वही संबंध प्रथम स्वप्न संसार का जाग्रत जगत् से है. मृत्यु के समय यह संबंध व्यक्ति को प्रतीत हो जाता है, परंतु जिस प्रकार व्यक्ति स्वप्न से निकलकर जाग्रत जगत् में आ जाता है उसी प्रकार मृत्यु में इस जाग्रत जगत् से निकलकर परलोक में उठता है, वहाँ स्वर्ग और नरक व्यापारों को देखता है. परलोक जगत् स्थूल जगत् की अपेक्षा अधिक स्थायी है इसलिए परलोक सत्य प्रतीत होता है और जाग्रत जगत् कल्पित या स्वप्नवत् मालूम होता है. लोक और परलोक की यह यात्रा जन्म और मरण के क्रम में चलती रहती है. वास्तव में समस्त अवस्थाएँ भ्रम मात्र या संकल्प मात्र हैं, वास्तविक नहीं. जब वृत्तियों को संयम या अभ्यास से रोकने पर वृत्तियों का निरोध होता है, तब आत्मस्वरूप से इतर कुछ दिखायी नहीं देता. यही तुरियावस्था है. इस अवस्था में आत्मा से इतर जो कुछ है वह भ्रम या संकल्प मात्र है. वास्तव में न सृष्टि है और न सृष्टा, बल्कि एक ही वस्तु हर रूप व हर विभूति में प्रकाशमान हो रही है. जैसे देवदत्त बैठा था, खड़ा हो गया तो उसकी यह नयी महिमा हुयी. वास्तव में देवदत्त न सृष्टा है, न सृष्टि.भगवत् ज्ञान की दो विभूतियाँ व्यक्त और अव्यक्त हैं और प्रत्येक विभूति नयी और एक के बाद दूसरी होती है,. प्रत्येक वस्तु का एक ही तत्व से परस्पर संबंध है. उस एक ही तत्व की उपाधियाँ सर्वत्र छटा बिखेर रही हैं. सर्वं सर्वात्मकं. वास्तव में न मूल कारण है न रूप केवल भगवत् ज्ञान विद्यमान है. ज्ञान का विचित्र गुण यह है कि वह क्रिया और प्रतिक्रिया से रहित है. भगवत् ज्ञान के विचित्र रहस्य पढ़ते हुए.. यानि ध्यान भी स्वप्न ही है. बस इस स्वप्न में शेष स्वप्नों का साक्षात हो जाता है🙏 ५/४/२२ जाग्रत जगत् अपने से भिन्न अनेक व्यक्तियों के ख़याल से कल्पित है और स्वप्न संसार एक अकेले ख़्याल से कल्पित होता है इसलिए जाग्रत जगत् और स्वप्न संसार में सच और झूठ का अंतर मालूम होता है. वास्तव में दोनो कल्पित और भ्रम रूप हैं. ६/४/२२ जैसे हम मनुष्य के चरणों को छूने से चरण पूजक नहीं हो जाते, उसके चक्षु की ओर दृष्टि करने से चक्षु उपासक नहीं हो जाते, हाथ मिलाने या गले मिलने से देहोपासक नहीं हो जाते, वैसे ही विराट भगवान् की उपासना के समय पाषाण शिला पर हाथ रखने से हम पत्थर पूजक नहीं हो जाते और सूर्य की ओर दृष्टि करते समय हम सूर्योपासक नहीं हो जाते, वरन् जिस प्रकार मनुष्य की पूजा उसके चरणों को छूने से होती है उसी प्रकार विराट भगवान की पूजा पाषाण और धरती की ओर सिर झुकाने से होती है. व्यक्ति का सिर स्वतः झुकता है, किसी सभ्यता में सिर न झुके तो भी उसके शरीर का कोई अंग अन्य व्यक्ति से मिलते समय स्वाभाविक क्रम में झुकता ही है. वस्तुतः यह भ्रम विराट भगवान् की मूर्ति को पूरा-पूरा न जानने के कारण होता है. मनुष्य के मुख्य अंग वे हैं जिनसे ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है. फिर कुछ गौण अंग हैं और कुछ सेवक अंग हैं. मनुष्य विराट का प्रतिबिंब है. मनुष्य में जो काम अंतःकरण करता है, ईश्वर में वही काम हिरण्यगर्भ करता है. यानि हिरण्यगर्भ ईश्वर का अंतःकरण है. विराट भगवान का प्रत्येक अंग जिसमें पाषाण, शिला, तृण, सूर्य सब शामिल हैं. प्रत्येक पदार्थ विराटमय है और उसकी उपासना मूर्ति पूजा नहीं वरन् ईश्वरोपासना है. जब कोई वस्तु उत्पन्न करना चाहता है तो पहले हिरण्यगर्भ में संकल्प उठता है. वहाँ से उसका प्रभाव विराट के कपाल में, जो ईश्वर का मस्तिष्क है, होता है और जिस वस्तु की इच्छा होती है उसकी कल्पना होती है कि इस समय ये वनस्पतियाँ या वे वृक्ष उत्पन्न होने चाहिए और फिर नक्षत्रों के द्वारा उसका प्रभाव पृथ्वी रूपी पट्टी पर पहुँचता है और लेखनी अथवा चार तत्वों से सूर्य द्वारा उसकी उत्पत्ति बाह्य में होती है और वस्तु उत्पन्न हो जाती है. शब्द सामर्थ्य वस्तुतः अर्थ से बना है. अतः भगवत् ज्ञान जब किसी क्रिया को मनुष्य के हितार्थ बतलाता है तथा उसके बाद मानुषी संकल्प को उठाता है और फिर मानुषी प्रकृति द्वारा उसे पूर्ण करता है तो उसे सामर्थ्य बोलते हैं. क्योंकि मानुषी संकलप द्वारा अर्थ अनर्थ की कल्पना के बाद उसकी (क्रिया) उत्पत्ति और पूर्ति होती है, परंतु जहां संकल्प के केवल हिरण्यगर्भ या अविद्या में होने से मानुषी अंतःकरण के साधन बिना क्रिया की उत्पत्ति व पूर्ति होती है वहाँ शब्द सामर्थ्य नहीं बोला जाता है. उदाहरण के लिए स्वप्नावस्था में स्वप्न संसार का कारण भगवत् ज्ञान है, किंतु उसका प्रादुर्भाव चूँकि मानुषी संकल्प द्वारा और अर्थ अनर्थ के विवेक से नहीं होता इसलिए उसे सामर्थ्य के बाहर समझा जाता है. वास्तव में स्वप्न संसार का संकल्प भगवत् ज्ञान में ही होता है. सिर्फ़ मुस्लिम का मोहम्मद पे इजारा* तो नहीं ~कुंवर महेंद्र सिंह बेदी *अधिकार हज़रत सुल्तान बहू का नग़मा है... अलिफ़-अल्ला चम्बे दी बूटी, मुरशद मन विच लाई हू । नफी असबात दा पानी मिल्या, हर रगे हर जाई हू, अल्लाह हू, अल्लाह हू, अन्दर बूटी मुश्क मचाया, जां फुल्लन ते आई हू, जीवे मुरशद कामिल बाहू, जैं इह बूटी लाई हू । अल्लाह हू, अल्लाह हू, बग़दाद शहर दी की निशानी, उच्चियाँ लम्मियाँ चीड़ां हू, तन मन मेरा पुरज़े पुरज़े, ज्यों दरज़ी दियां लीरां हू, अल्लाह हू, अल्लाह हू, लीरां दी गल कफनी पा के, रलसां संग फ़कीरां हू । शहर बग़दाद दे टुकड़े मंगसां बाहू, करसां मीरां मीरां हू, पढ़ पढ़ इल्म ते हाफ़िज होइओ, ना गिया हिजाबों परदा हू, पढ़ पढ़ आलिम फाज़िल होइओं, अजे भी तालिब ज़र दा हू, कई हज़ार किताबां पढियां, अजे नफ़्स ना मरदा हू, बाज फ़कीरा किसे ना मारिया, ज़ालिम चोर अंदर दा हू, अल्लाह हू, अल्लाह हू, My Master Has Planted in My Heart the Jasmine of Allah’s Name. Both My Denial That the Creation is Real and My Embracing of God,  the Only Reality, Have Nourished the Seedling Down to its Core. -When the Buds of Mystery Unfolded Into the Blossoms of Revelation,  My Entire Being Was Filled with God’s Fragrance. -May the Perfect Master Who Planted this Jasmine in My Heart Be Ever Blessed, O Bahu! Were my whole body festooned with eyes, I would gaze at my Master with untiring zeal. O, how I wish that every pore of my body, Would turn into a million eyes – Then, as some closed to blink, others would open to see! But even then my thirst to see him, Might remain unquestioned. What else am I to do? To me, O Bahu, a glimpse of my Master, Is worth millions of pilgrimages to the holy Ka’ba! Believers pray to God for the protection of faith, But few pray for the gift of his love. I am ashamed at what they ask for, Even more at what they are willing to yield. Religion is quite unaware of the spiritual plane, To which love can raise us. O Lord, keep my love for you ever fresh, Says Bahu: I shall mortgage my religion for it. १३/४/२२ कबीरा कुआं एक है और पानी भरें अनेक भांडे ही में भेद है, पानी सबमें एक ।। भला हुआ मोरी गगरी फूटी, मैं पनियां भरन से छूटी मोरे सिर से टली बला… ।। भला हुआ मोरी माला टूटी, मैं तो राम भजन से छूटी मोरे सिर से टली बला… ।। माला कहे है है काठ की ,कबीरा तू का फेरत मोहे मन का मनका फेर दे तो तुरत मिला दूँ तोहे भला हुआ मोरी माला टूटी मैं तो राम भजन से छूटी मोरे सिर से टली बला… ।। माला जपु न कर जपूं और मुख से कहूँ न राम राम हमारा हमें जपे रे कबीरा हम पायों विश्राम मोरे सिर से टली बला… ।। कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय। ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय॥ कबीरा बहरा हुआ खुदाय हद हद करते सब गए बेहद गयो न कोई अरे अनहद के मैदान में कबीरा रहा कबीरा सोये हद हद जपे सो औलिये, बेहद जपे सो पीर हद(बौंडर) अनहद दोनों जपे सो वाको नाम फ़कीर कबीरा वाको नाम फ़कीर…. दुनिया कितनी बाबरी जो पत्थर पूजन जाए घर की जाकी कोई न पूजे कबीरा जका पीसा खाए चाकी चाकी….. चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोए,दो पाटन के बीच यार साबुत बचा ना कोए ।। चाकी चाकी सब कहें और कीली कहे ना कोए,जो कीली से लाग रहे, बाका बाल ना बीका होए ।। हर मरैं तो हम मरैं, और हमरी मरी बलाए साचैं उनका बालका कबीरा, मरै ना मारा जाए । माटी कहे कुम्हार से तू का रोधत मोए एक दिन ऐसा आयेगा कि मैं रौंदूगी तोय ।। १४/४/२२ प्यारी रचना है, जिसकी भी हो... तोरी हर एक अदा को मैं जान गयी ना रूप बदला तो क्या पहचान गयी ना। मूसा को तो बेहोश किया तूर पे जाकर मंसूर को मस्ताना किया जाम पिलाकर दीवाना किया क़ैस को लैला में समाकर फिर खुद ही बिके मिस्र के बाज़ार में आकर कुछ भेद नहीं खुलता कि तुम कौन हो, क्या हो आप ही भट्टी आप ही मडघर आप ही होत कलाला आपहि पीवे आप पिलावे आप फिरे मतवाला अपनी गोदी आपहि खेले बनकर मोहन लाला वो तो काली कमलिया थे ओढ़े हुए रूप बदला तो क्या पहचान गयी ना तोरी हर एक अदा को मैं जान गयी ना। अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयं। शेषा स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।। महाभारत वनपर्व 313-116 इस संसार मे प्रतिदिन असंख्य जीव यमराज के लोक में जाते है, फिर भी जो बचे रहते हैं, वे यहां पर स्थायी पद की आकांक्षा करते हैं। भला इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है! 15/4/22 न तदस्ति न यत्सत्यं न तदस्ति न यंमृषा। यद्यथा येन निर्णीतं तत्तथा तं प्रति स्थितं।। There is nothing that is not true. There is also nothing that is not untrue. Whoever decides in whatever way, it will be like that for him. १६/४/२२ हनुमान वायु पुत्र हैं. मान का हन् करने पर वायु जब राम चेतना को उपलब्ध होती है, तब हनुमान हुआ जाता है. हनुमान ज्ञान गुण सागर हैं, अतुलित बल धाम हैं, हेम शैल की आभा युक्त देह हैं, दनुज वन कृशानु हैं, वानरों के अधीश हैं. ऐसे भगवान राम के प्रिय भक्त हनुमान को हम सब नमन करते हैं... मंसूर और मुझमें कुछ फ़र्क़ है तो इतना वो कह उठा कि मैं हूँ कहता हूँ मैं कि तू है... भीका बात अगम्म कि कहन सुनन की नाय. जाने है सो कहे नहीं कहे सो जाने नाय.. साजन हम तुम एक हैं बस कहन सुनन को दो. मन से मन को तोलिए सो दो मन कभउं न हो. दो नैन तेरे दो नैन मेरे जब मिले तो मिल के चार हुए ये अपनी अपनी क़िस्मत है दो जीत गए दो हार गए इस शर्त पे खेलूँगी मैं बाज़ी जीतूँ तो पिया मेरा हारूँ तो पिया की. खुसरो दरिया प्रेम का उल्टी बा की धार. जो उतरा सो डूब गया जो डूबा सो पार.. खुलता किसी पे क्यों मेरे दिल का मुआमला शेरों के इंतिखाब ने रुसवा किया मुझे. सौ बार ले गई मुझे बाज़ार मुफ़लिसी हर बार मैंने अपना अक़ीदा बचा लिया. मैंने पड़ी थी अपनी हिफ़ाज़त के वास्ते नादे अली ने सारा इलाका बचा लिया. दूसरों को बेवक़ूफ़ समझने और बनाने वाले कितने निरीह व्यक्ति होते हैं. १९/४/२२ अब आदमी कुछ और हमारी नज़र में है जब से सुना है यार लिबासे बशर में है. तुझे दर दर भटकने की बता दे क्या ज़रूरत है वही दरबार काफ़ी है निज़ामुद्दीन चिशती का. आँखों आँखों में कह दिया सब कुछ कानों कान एक को ख़बर न हुयी प्रीत करे तो ऐसी कि जैसे लम्बे खजूर चढ़े तो चाखे प्रेम रस गिरे तो चकनाचूर. उल्टी ही चाल चलते हैं दीवान गाने इश्क़ आँखों को बंद करते हैं दीदार के लिए. ये यार इशक़ दी बाज़ी है घर फूंक तमाशा देखे जा. प्रीत करे तो ऐसी करे कि जैसे करे कपास जीते-जी तो संग रहे और मरे न छोड़े साथ हद हद कर के सब गए और बेहद गया न कोय अनहद के मैदान में सो रहा 'कबीर' सोय घर नारी कँवारी चाहे जो कहे मैं निजाम से नैनाँ लगा आई रे सोहनी सूरत मोहिनि मूरत मैं तो हृदय बीच समा आई रे 'ख़ुसरव' 'निजाम' के बल-बल जइए मैं तो अनमोल चेरी कहा आई रे हर तरफ़ यार का तमाशा हैउस के दीदार का तमाशा है २२/४/२२ स यथा दुंदुभेः हन्यमानस्य न बाह्यांछब्दांछक्नुयाद् ग्रहणाय दुंदुभेस्तु ग्रहणेन दुंदुभ्याघातस्य वा शब्दोगृहीतः. स यथा शंखस्यध्मायमानस्य न बाह्यांछब्दांछक्नुयाद् ग्रहणाय शंखास्य तु ग्रहणेन शंखध्मस्य वा शब्दो ग्रहीतः. स यथा वीणायै वाद्यमानायै बाह्यांछब्दांछक्नुयाद् ग्रहणाय वीणायै तु ग्रहणेन वीणावादस्य वा शब्दो ग्रहीतः(वृह० उप० ४-५/८-१० एवं २-४/७-९) जैसे नगाड़ा या धौंसा जब पीटा जाता है तो उसके बाह्य शब्द पकड़े नहीं जा सकते, पर नगाड़े अथवा नगाड़े के पीटने वाले को पकड़ लेने से नगाड़े के शब्द पकड़े जाते हैं. जैसे शंख जब बजाया जाता है तो उसके बाहर के शब्द पकड़े नहीं जा सकते, पर शंख या शंख बजाने वाले को पकड़ने से शंख के शब्द पकड़े जाते हैं और जैसे वीणा जब बजाई जा रही हो तो वीणा के बाह्य शब्द पकड़े नहीं जा सकते, पर वीणा अथवा बजाने वाले को पकड़ने से वीणा के शब्द पकड़े जाते हैं. as one is not able to grasp by themselves the particular notes of a drum that is being beaten, but it is only grasping the general note of the drum, or the general effect of particular strokes on it, that those notes are grasped. [as the particular notes of a drum, conch or lute have no separate existence from the general notes of those instruments, so the particular knowledge of the existing universe in the waking and dream states has no validity of its own apart from the Intelligence (Brahman) which pervades it.] २३/४/२२ हरिनाम किसको कहते हैं एवं इसका अर्थ क्या है ? कर्णशुद्धि 'हरे कृष्ण ' इत्यादि सोलह नाम बत्तीस अक्षरों के द्वारा दस से बारह वर्ष की अवस्था के बीच अवश्य ही सम्पन्न करनी चाहिए । इसके बिना महाविद्या सिद्ध नहीं होती । कहना न होगा ,इस हरिनाम के ऋषि एवं देवता त्रिपुरा हैं । द्विज मुख से , दाहिने कान में नाम ग्रहण करना होता है । पहले छंद अर्थात गायत्री छंद ग्रहण करके बाद में नाम ग्रहण करना विधि है । कर्ण को अशुद्ध रखते हुए उसी अशुद्ध कर्ण में महाविद्या का श्रवण व ग्रहण करने से प्रत्यवाय होता है । षोडश वर्ष की आयु में महाविद्या का ग्रहण करना आवश्यक होता है । इसके बाद ही कुल रहस्य जाना जाता है । क्योंकि रहस्यहीन होकर मंत्र जपने से कोई फल प्राप्त नहीं होता । हरिनाम का रहस्य यह है -- 'ह ' = शिव , 'र ' = शक्ति ---त्रिपुरा = ( दश महाविद्यामयी ) ' ए ' = योनि । 'क ' = काम ,'ऋ ' = परमा शक्ति , दोनों मिलकर 'कृ ' = कामकला , 'ष ' = षोडश कलात्मक चन्द्र , ' ण ' = निर्वृति या आनन्द । सबका साकल्य होने पर -- त्रिपुर सुंदरी । सोलह वर्ष की आयु में जो दीक्षा लाभ होता है ,उसका नाम ज्येष्ठा दीक्षा है । दीक्षा ग्रहण किये बिना नाम जप करने से वह पशु- कर्म के रूप में गिना जाता है । इसके पश्चात -भगवती त्रिपुरा अपनी कण्ठस्थित माला उसे अर्पण करती हैं । ये मालायें साक्षात् आम्नाय स्वरूपा हैं । ये मणिमाला के रूप से ही विख्यात हैं । चार मालाओं के नाम हैं --हस्तिनी , चित्रिणी , गन्धिनी व पद्मिनी । ये मालायें पचास मातृका- रूपा अक्षमाला के नाम से परिचित हैं । तात्विक दृष्टि से इस माला में ही समस्त जगत का सम्पूर्ण ज्ञान निहित है । इस कारण इस माला को कोई कोई आत्मा की माला कहते हैं । 51 महापीठ इनके ही नामान्तर हैं । ये मालायें अपूर्व ढंग से गठित हैं । कामतत्व से भिन्न और किसी सूत्र द्वारा इसे नहीं गूँथा जा सकता । जगत की सृष्टि व संहार के मूल में ये पचास पीठ स्वरूप वर्तमान हैं । भगवती त्रिपुरा यह अपूर्व माला वासुदेव को अर्पण करती हैं ,जिसके प्रभाव से वासुदेव पूर्णत्वलाभ करने में समर्थ होते हैं । चारों मालाओं का स्वरूप व वर्ण इसप्रकार का है -- हस्तिनी --यह शुक्लवर्णा है , भगवान की दूती स्वरूपा है । चित्रिणी -- यह पीतवर्णा है । यह विचित्र स्वरूप वाले समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर स्थित है । गन्धिनी --यह कृष्णवर्णा है । यह भी ब्रह्माण्ड व्यापक है । पद्मिनी -- वा रंगिनी रक्तवर्णा है यह सर्वदा ही कामकला के साथ युक्त रहती है । भावराज्य व लीला रहस्य श्रीकृष्ण प्रसङ्ग पृष्ठ 147 पंडित गोपीनाथ कविराज २४/४/२२ सना बशर के लिए बशर सना के लिए तमाम हम्द साज़वार है ख़ुदा के लिए अता के सामने या रब खता का ज़िक्र है क्या तू अता के लिए है बशर खता के लिए.. २५/४/२२ यार मनवा कमाले रानाई (सुंदरता) ख़ुद तमाशा ओ खुद तमाशाई. जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ मैं नहीं हूँ मैं नहीं हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. जलवा दिखा के यार ने दीवाना कर दिया. खुद शम्मा बन गए हमे परवाना कर दिया. ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ मैं नहीं हूँ मैं कहाँ हूँ तू ही तू है सब तेरा अंदाज़ है जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ जिसे देखो वो आमादा है घर का घर लुटाने पर जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ ये ना पूछो कैसे दीवाने बने आपने चाहा तो मस्ताने बने हैं जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ . मीरा ने जहर का प्याला पीके कहा ये उसकी शान है ये मैं नहीं हूँ जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ कहा मंसूर ने सूली पे चढ़ के अनहलक़ की सदा है मैं नहीं हूँ जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ मेरी आँखों की पुतली में तो देखो - वही जलवा नुमा है मैं नहीं हूँ जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ आँखों में तेरे कोई करिश्मा जरुर है तुझे देख ले जो वो तडफता जरुर है जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ तुम्हारी नजरे करम जिस पर आम हो जाए ज़माने भर में वो आलीम का हो जाए गुलाम जिस को तुम बना लो अपना उस गुलाम की दुनिया गुलाम हो जाए ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. किसी परदे का पर्दा हूँ किसी जलवे का जलवा हूँ मुझे दुनिया से क्या मतलब मैं अपनी आप दुनिया हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. वो खिड़की खोल के देखे है मेरी तरफ उसकी नजर मेरी तरफ मेरी नजर उसकी तरफ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. मेरी आखों में जन्नत है मैं उसकी आँखों का नूर हूँ - वो नूर का पर्दा है तो मैं तस्वीरे नूर हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. कोई परदे को यूँ सरका गया है - खुद को देखने खुद आ गया है - निगाहों से कोई उतरा है दिल में तड़फ करके मुझे तडफा गया है तेरे परदे के अंदर कोई आकर तमाशा कर रहा है मैं नहीं हूँ *-- ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. ये तेरी जलवागरी दुनिया तो खामोश है - आँख बंद थी तेरे दीदार मैं इतना तो मुझ को होश है उठा के शीशे को जो मैंने देखा ये कोई और है ये मैं नहीं हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. ये बुतख़ाने में जाके बोले बेदम यहाँ नक़्शा मेरा है मैं नहीं हूँ. ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ जो मैं होता खता मुझसे भी होती मुझे खटका ही क्या मैं नहीं हूँ जो मुझ में बोलता है मैं नहीं हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ मैं नहीं हूँ या नबी (ईश्वर का गुणगान करने वाला) आपके जलवों में वो रानाई है. देखने पर भी मेरी आँख तमन्नाई है. ज़िंदगी ख़ुद ही इबादत है मगर होश नहीं. साहिबे होश यही है कि होश नही होश नहीं २६/४/२२ यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति । दूरंगं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। अन्वय यत् जाग्रतः दूरं उदैति सुप्तस्य तथा एव एति तत् दूरं गमं ज्योतिषां ज्योतिः एकं दैवं तत् में मनः शिवसंकल्पं अस्तु । सरल भावार्थ हे परमात्मा ! जागृत अवस्था में जो मन दूर दूर तक चला जाता है और सुप्तावस्था में भी दूर दूर तक चला जाता है, वही मन इन्द्रियों रुपी ज्योतियों की एक मात्र ज्योति है अर्थात् इन्द्रियों को प्रकाशित करने वाली एक ज्योति है अथवा जो मन इन्द्रियों का प्रकाशक है, ऐसा हमारा मन शुभ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो ! क्या जाग्रत, क्या स्वप्न, क्या सुषुप्ति तीनों दशाओं में मेरा मन किसी और विचार की तरफ़ न जाने पाए, सिवाय शिवरूप आत्मचिंतन के. चलते फिरते बैठते खड़े मेरा मन शिव रूप सत्यरूप आत्मा के सिवा और कोई चिंतन न करने पाए. स्वामी रामतीर्थ ३०/४/२२ आज ध्यान से उठने वाले थे कि आश्रम में गुरुदेव की जो ऑल्टर या वेदी होती है, उसमें जो नीली रोशनी चमकती है, वह दिखी, फिर इस पद की पंक्तियाँ याद आयीं या पद शायद पहले याद आया, बाद में प्रकाश दर्शन हुआ. यह क्रम ध्यान नहीं है. पायो जी मैंने राम रतन धन पायो | वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु | कृपा कर अपनायो || जन्म जन्म की पूंजी पाई | जग में सबी खुबायो || खर्च ना खूटे, चोर ना लूटे | दिन दिन बढ़त सवायो || सत की नाव खेवटिया सतगुरु | भवसागर तरवयो || मीरा के प्रभु गिरिधर नगर | हर्ष हर्ष जस गायो ||🙏 आदि शंकराचार्य कहते हैं- एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयतां, पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्वाधितं दृश्यताम्। प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरैः श्लिश्यतां, प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम्॥ भावार्थ : एकांत के सुख का सेवन करें, परब्रह्म में चित्त को लगायें, परब्रह्म की खोज करें, इस विश्व को उससे व्याप्त देखें, पूर्व कर्मों का नाश करें, मानसिक बल से भविष्य में आने वाले कर्मों का आलिंगन करें, प्रारब्ध का यहाँ ही भोग करके परब्रह्म में स्थित हो जाएँ। 304/2020 की फ़ेसबुक पोस्ट लॉक डाउन के समय का उपयोग हमने भागवत सप्ताह पाठ में भी किया। नित्य 6-8 घंटे दो बार में बैठकर आज सम्पन्न हुआ। उसमें से एक श्लोक... एकोयनोsसौ द्विफलस्त्रिमूलश्चतूरसः पंचविधः षडात्मा। सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः। भागवत 10/2/27 यह संसार क्या है, एक सनातन वृक्ष। इस वृक्ष का आश्रय है- एक प्रकृति। इसके दो फल हैं- सुख और दुःख; तीन जड़ें हैं-सत्व, रज और तम; चार रस हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसके जानने के पांच प्रकार हैं-श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका। इसके छः स्वभाव हैं- पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना। इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएं- रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र। आठ शाखाएं हैं- पांच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार। इसमें मुख आदि नौ द्वार खोडर यानि गड्ढे हैं। प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय- ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं। इस संसार रूप वृक्ष पर दो पक्षी हैं- जीव और ईश्वर। २६/४/२०२० की फ़ेसबुक पोस्ट अब मुण्डकोपनिषद का वह प्रसिद्ध श्लोक देखें द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।। दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, घनिष्ठ सखा, समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को देखता है।