Thursday, August 31, 2023

अगस्त २३

१/८/२३ दो वस्तुओं के टकराव के बाद अथवा मशीन से निकली ध्वनि ooong ऊंग करती रहती है। मानव जिन पदार्थों को संयोजित करके रचना करता है, भले वह जड़ हो या चेतन, प्रकृतिगत हो या प्राकृत, उससे इसी प्रकार की ध्वनि गुंजायमान होती है। यह कोई सांयोगिक नहीं। यह ध्वनि प्रत्येक पदार्थ या तत्व में उपस्थित है। संसार इन ध्वनियों का संजाल ही है। पदार्थ का अर्थ ही है पद का अर्थ, पद जिससे वस्तु को नाम मिला है, अर्थ उसकी विशेषता है। तत्व का अर्थ भी वह जो है, उसे कुछ कहो या न कहो। ईश्वर हमसे जो काम लेना चाहेंगे, वह ले लेंगे। परंतु यह ज्ञात कैसे हो कि वह हमसे कोई काम लेना चाह रहे या नहीं, जिससे हम निर्णय कर सकें कि हम उसके रास्ते में बने रहें या पृथक् हो जाएँ। जब प्रकृति का एक-एक उपादान निमित्त बनकर समुपस्थित होता जाएगा। तब हमें मानना चाहिए कि वह आपको अपना टूल बना रही है। वैसे उसके रास्ते से पृथक् होना न होना भी अपना काम नहीं, वह स्वयमेव अलग कर देगी या प्रवृत्त कर देगी। फिर ईश्वर प्रदत्त स्वतंत्र इच्छा शक्ति का क्या जो मनुष्य को प्राप्त है। यह इच्छा शक्ति इच्छापूर्वक कर्म संपादन तक ही मौजूद रहती है, उससे आगे वह प्रकृत्यातीत हो जाती है। २/८/२३ शोपेन हावर, जिसके बारे में प्रचलित है कि वह उपनिषदो का इतना प्रेमी था कि उन्हें सिरहाने रखकर सोता था, जिससे उन्हें बिना कुछ पढ़े वह सोए नहीं और जब जागे तो वही पढ़े और गुने। Man can do what he wills but he cannot will what he wills." - Arthur Schopenhauer मनुष्य वह कर सकता है जो वह चाहता है, पर वह यह चाह नहीं सकता कि वह क्या चाहे। ६/८/२३ करुणा जब उदित होती है तो शब्द छूट जाते हैं। भाषा की आवश्यकता नहीं रह जाती। सत्य और प्रेम उस करुणा के लक्षण स्वरूप दिखने लगते हैं। अपूर्व शांति और आनंद छा जाते हैं। दुःख तिरोहित हो जाता है। प्रचलित अर्थों का सुख हो, न हो, अक्षय सुख की उपलब्धि हो जाती है। यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।4.19।। Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas ।।4.19।। व्याख्या--'यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः' (टिप्पणी प0 245) विषयोंका बार-बार चिन्तन होनेसे, उनकी बार-बार याद आनेसे उन विषयोंमें 'ये विषय अच्छे हैं, काममें आनेवाले हैं, जीवनमें उपयोगी हैं और सुख देनेवाले हैं'--ऐसी सम्यग्बुद्धिका होना 'संकल्प' है और 'ये विषय-पदार्थ हमारे लिये अच्छे नहीं हैं, हानिकारक हैं'--ऐसी बुद्धिका होना 'विकल्प' है। ऐसे संकल्प और विकल्प बुद्धिमें होते रहते हैं। जब विकल्प मिटकर केवल एक संकल्प रह जाता है, तब 'ये विषय-पदार्थ हमें मिलने चाहिये, ये हमारे होने चाहिये'--इस तरह अन्तःकरणमें उनको प्राप्त करनेकी जो इच्छा पैदा हो जाती है, उसका नाम 'काम' (कामना) है। कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषमें संकल्प और कामना--दोनों ही नहीं रहते अर्थात् उसमें न तो कामनाओंका कारण संकल्प रहता है और न संकल्पोंका कार्य कामना ही रहती है। अतः उसके द्वारा जो भी कर्म होते हैं, वे सब संकल्प और कामनासे रहित होते हैं।संकल्प और कामना--ये दोनों कर्मके बीज हैं। संकल्प और कामना न रहनेपर कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् कर्म बाँधनेवाले नहीं होते। सिद्ध महापुरुषमें भी संकल्प और कामना न रहनेसे उसके द्वारा होनेवाले कर्म बन्धनकारक नहीं होते। उसके द्वारा लोकसंग्रहार्थ, कर्तव्यपरम्परासुरक्षार्थ सम्पूर्ण कर्म होते हुए भी वह उन कर्मोंसे स्वतः सर्वथा निर्लिप्त रहता है। मनुष्यकी सबसे उत्तम अवस्था यह है कि कामना न हो और कर्म होते रहें। ऐसी अवस्थावाले मनुष्यको ज्ञानिजन भी पण्डित कहते हैं। तमाहुः पण्डितं बुधाः'--जो कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके परमात्मामें लगा हुआ है, उस मनुष्यको समझना तो सुगम है पर जो कर्मोंसे किञ्चिन्मात्र भी लिप्त हुए बिना तत्परतापूर्वक कर्म कर रहा है उसे समझना कठिन है। फ़ेसबुक पोस्ट ६ अगस्त २०२० पत्थर, धातु या लकड़ी से निर्मित भगवान देखने की परंपरा हमारे पूर्वजों ने इसलिये विकसित की कि जब हम इस तरह भगवद्दर्शन आत्मसात कर लेंगे तो चराचर जगत ईश्वरमय दिखेगा... उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध। निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध। ७/८/२३ आज इस कविता की प्रारंभिक पंक्ति ध्यान में आयी...देखा तो ये निराला जी की कविता है कौन तम के पार?—(रे, कह) अखिल-पल के स्रोत, जल-जग, गगन घन-घन-धार-(रे, कह) गंध-व्याकुल-कूल-उर-सर, लहर-कच कर कमल-मुख-पर हर्ष-अलि हर स्पर्श-शर, सर, गूँज बारंबार!—(रे, कह) उदय में तम-भेद सुनयन, अस्त-दल ढक पलक-कल तन, निशा-प्रिय-उर-शयन सुख-धन सार या कि असार?—(रे, कह) बरसता आतप यथा जल कलुष से कृत सुहृत कोमल, अशिव उपलाकार मंगल, द्रवित जल नीहार!—(रे, कह) इसे पढ़कर श्रद्धा सर्ग की पंक्तियाँ चली आयीं... “कौन तुम! संसृति-जलनिधि तीर तरंगों से फेंकी मणि एक, कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक! मधुर विश्रांत और एकांत— जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन और चंचल मन का आलस्य!” ८/८/२३ एक बादल के से धुँधलके के बीच देव देवियों के दर्शन। एक के बाद एक। आते हुए और तिरोहित होकर दूसरे रूप में हनुमान, शंकर, माता और शिव। निःशब्द। कल देवी दर्शन एक कन्या के माध्यम से हुआ, जो शांत भाव से देखती रहीं और आश्वस्ति के साथ लुप्त हो गई। युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥6-28॥ ९/८/२३ आज प्रातः क्रिया के बाद कोई चींटी की भाँति नासापुटों की दीवार से होकर भीतर प्रविष्ट हुई। वह नासा के बाल की हलचल नहीं थी। ऐसा बहुधा होता रहता है। १२/८/२३ Little knowledge is dangerous. यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धे: परं गत:। तावुभौ सुखमेधेते क्लिश्यत्यन्तरितो जन:।। भागवत अर्थ : इस जगतमें दो प्रकारके मनुष्य आनंदित रहते हैं - जो पूर्णत: अज्ञानी हो और दूसरे वे जिनका बुद्धिलय हो गया हो अर्थात उनकी बुद्धि विश्वबुद्धिसे एकरूप हो गयी हो | शेष सभी अधिकांशत: क्लेश का अनुभव करते रहते हैं | १३/८/२३ मन के अंदर जो है, उसे मंदिर कहते हैं। मन के अंदर जब जाते हैं तो कलुषताओं से बाहर चले जाते हैं। तथाता हो जाते हैं। १४/८/२३ कभी-कभी पद और क़द का मेल नही खाता। जनता इसका बेलाग और बेलौस मूल्यांकन करती रहती है। इसलिए व्यक्ति का उद्देश्य पद नहीं, अच्छे बनने का होना चाहिए। पद आते-जाते रहते हैं। यम और नियम ही अच्छाई के शाश्वत पैमाने हैं। इसी दिन २०२१ की फ़ेसबुक पोस्ट १५/८/२३ स्वतंत्र होना स्व का विस्तार है। एक अर्थ में इतना कि जिससे कुछ छूटे न, उसमें सब समा जाए। इस विस्तार को पा जाने के बाद व्यक्ति न दूसरे की स्वतंत्रता में बाधक बन सकता है और न उसकी स्वतंत्रता छीनी जा सकती है। फिर बाधक बनने वाली स्वच्छंदता और अराजकता का प्रवेश संभव नहीं। राजनीतिक स्वतंत्रता व्यक्ति को अनुशासित रखने और उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं में जीने के लिए अनिवार्य है, पर यह स्वतंत्रता अधिकाधिक विस्तार की अपेक्षा रखती है। विस्तार के बिना इसका एक सीमित अर्थ और लाभ रह जाता है। विस्तार के बिना यह स्वतंत्रता टकराव में बदलती रहती है। राजनीतिक स्वतंत्रता विस्तार की आधार भूमि है। स्वतंत्रता का महत्व लोकतंत्र के लिए आत्यंतिक है। जितना लोकतंत्र फलीभूत होगा, समृद्ध होगा, स्वतंत्रता की अपरिहार्यता विदित होती जाएगी। हम स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं। यह बहुत बड़ा दिन है। अपने साथ-साथ सबमें समानता और बंधुत्व को देखने का गुण इस दिन को याद करने से विकसित होता है। हमें अपने राष्ट्रवीरों को इस दिन अवश्य याद करना चाहिए, जिनके मन में यह पाने की उत्कंठा जागी और फिर प्राणपण से उसके लिये जुट गये। अपना बलिदान दिया और लोगों में चेतना जगायी। तरह तरह की भिन्नता के देश में जागरण का काम आसान नहीं था, हमारे वीरों, बलिदानियों और चेतना संपन्न पुरोधाओं ने इसे संभव किया। इसे न केवल संभालने का दायित्व हम सब पर है, अपितु जो जो जिस कर्म से जुड़े हैं, उनमे अपना श्रेष्ठ योगदान करने की गुरुतर ज़िम्मेदारी हम सब पर ही है। १६/८/२३ भव का अर्थ होना है, इसका अर्थ संसार सर्वविदित है, भवसागर कहा ही जाता है। संसार भी होने के अतिरिक्त कुछ और नहीं। हव क्रिया पद अस्तित्ववाची है और होने के अर्थ को भी प्रकट करता है। छत्तीसगढ़ी और बुंदेली में तो यह इसी रूप में बोला जाता है, हिंदी की अन्य बोलियों में भी इस होने को सदा स्वीकारोक्ति की तरह अथवा तकियाकलाम की भाँति प्रयुक्त किया जाता है। संसार में सर्वत्र है या होना ही है, नहीं कहते हैं, तब भी न के बाद हीं जोड़कर बोला जाता है। दुनिया की बोलियों में यह अस्तित्ववाची क्रिया पद शब्दों में, नहीं तो ध्वनियों में अवश्यमेव प्रयुक्त होता है। किसी की बात सुनते समय हूँ, हम्म बिना शाब्दिक उच्चार के भी व्यक्त होता रहता है। १८/८/२३ मिथ्या का अर्थ झूठ नहीं है, जैसा प्रायः समझा जाता है। यह सदसत् दोनों है, अनिर्वचनीय की भाँति। मिथक भी मिथ्या से जुड़ा शब्द है। उसका अर्थ भी इसी तरह ग्रहण किया जाता है। मिथक न पुराण है, न इतिहास ही। १९/८/२३ जब हम सही अर्थों में ज्ञान या भक्ति पा लेते हैं, तभी वास्तव में कर्म का उदय होता है। २१/८/२३ कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।

स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।4.18।। जो मनुष्य कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखता है, वह सभी मनुष्यों में सबसे बुद्धिमान है और सभी प्रकार के कर्मों में लिप्त होते हुए भी दिव्य अवस्था में रहता है। अकर्म का अर्थ है कर्म के फल से रहित। हर देश की उच्चतर शिक्षण संस्थाओं को भरपूर स्वायत्तता मिलनी चाहिए। इंग्लैंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के जीसस कालेज में नौ दिवसीय रामकथा का आयोजन भी संपन्न हो जाता है। उसमें वहाँ के प्रधानमंत्री पहुँचते हैं। हर कृत्य को राजनीति से नहीं जोड़ा जा सकता, न राजनीति ऐसी अस्पृश्य ही होती है कि वह जो काम करेगी, उसका लक्ष्य सत्ता संधान ही होगा। और सत्ता संधान भी सदा हेय नहीं होता है। किस उद्देश्य और साधन से कोई काम हो रहा है, उसे देखना और समझना महत्वपूर्ण है। उच्चतर शिक्षा संस्थाओं में यह काम हो, जिससे सार्थक और समाज सापेक्ष निष्कर्ष प्राप्त हों। किसी के प्रति पूर्वाग्रह और दुराग्रह रखने से बचना चाहिए। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय दुनिया का तीसरा सबसे पुराना विश्वविद्यालय है। यहां किसी भी अन्य शहर की तुलना में अधिक नोबेल पुरस्कार विजेता हैं। दम यानि श्वास। दम भरना मुहावरा है। इसी का बल होता है, जिसकी उपासना पर छांदोग्य उपनिषद् में कहा गया है बलमुपास्व। चित्त तथा अहं चित्त शुद्धि हुई या नहीं इसका लक्षण ईर्ष्या से पता चलता है। यदि दूसरे से किंचित भी ईर्ष्या हो रही हो तो चित्त शुद्धि में अभी कसर मानिए। अहं इच्छा के माध्यम से प्रकट होता है। इच्छा शेष है तो अहं भी बना हुआ है। सब परिस्थितियों और प्राप्तियों पर राज़ी रहें, अहं का लेश कैसे रहेगा। २२/८/२३ कर्म आधारित जाति व्यवस्था खूब बनी हो, पर वह जन्म आधारित हो गई, यह एक तथ्य है। जन्म आधारित जाति में भी कोई समस्या सैकड़ों हज़ारों वर्षों तक नहीं रही, वरन वह भली प्रकार चली, जिसमें कोई कुछ कर्म करता हो, उसे निंदनीय या हेय नहीं समझा गया। पीढ़ी दर पीढ़ी कौशल हस्तांतरित होता गया। बिना औपचारिक शिक्षा और प्रशिक्षण के तरह तरह का शिल्प और कलात्मक कौशल विकसित हुआ। इसके बाद कैसे इस व्यवस्था में ऊँच नीच बन गई, उन्हें एक दूसरे से श्रेष्ठ और निम्न माना जाने लगा, उसका पता अवश्य लगना चाहिए। पर इस खोजबीन में हम आपस में आरोप प्रत्यारोप से आगे नहीं जा पा रहे। जाति कर्माधारित हुई, पर वर्ण बहुत गहरी दशा है। वर्ण रंग को भी कहते हैं। सृष्टि में जब रूपोद्भव होता है तो वह रंगों में दिखता है। एक ही व्यक्ति अलग अलग दशाओं में शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण होता है। ब्राह्मण बनना सबका लक्ष्य है, होना भी चाहिए। ब्राह्मण आदर्श हैं, और रहेंगे। इसका नाम कोई अन्य रख लें तो भी जिस भाव दशा या स्वरूप दशा को व्यक्ति कभी न कभी उपलब्ध होगा, वह ब्रह्म दशा ही होगी। २३/८/२३ कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।4.17।। [कर्म का तत्त्व जानना चाहिये ........................ क्योंकि कर्मकी गति गहन है।] —————————————— मूलाधार में सोई हुई कुण्डलिनी–शक्ति को उद्बुद्ध किए बिना कर्म, ज्ञान या भक्ति, कोई भी मुक्ति या अनर्थ–निवृत्ति के उपाय–रूप में नहीं परिणत हो सकती। जो कर्म, ज्ञान या भक्ति कुण्डलिनी–शक्ति के जागरण में सहायता करती है, वही यथार्थ कर्म, ज्ञान या भक्ति है। वही कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग है। इसके बिना कर्म आदि व्यर्थ प्रयास है। कुण्डलिनी के निद्राभंग के बिना आत्मा या परमात्मा में स्थिति पाना सम्भव नहीं। कुण्डलिनी के नहीं जगने से परम लक्ष्य की प्राप्ति की बात तो दूर, महापथ पर भी चलना संभव नहीं होता। मनुष्य जीवन का यही प्रकृत उद्देश्य है। कुण्डलिनी के जगे बिना चित्‌ और अचित्‌ का द्वंद नहीं मिट सकता। शक्ति की साधना के बिना शिवभाव की प्राप्ति असंभव है और कुण्डलिनी के जागरण के बिना शक्ति–साधना का कोई अंग ही वश में नहीं आता। 🌹💐🥀🌺 (तांत्रिक साधना और सिद्धान्त) परम तत्व को उपलब्ध होने के लिए हम जो मंत्र साधना करते हैं, वह शब्द पर आधारित नहीं है, बल्कि स्वर से उसका निकट संबंध दिखता है। स्वर से भी सूक्ष्म वह नाद में या ध्वनि में अनुभूत होता है। है तो वह अव्यक्त ही, उसे अनुभूत करने के लिए अव्यक्त की झलक पानी ही होगी, जिसमें जब डूबा जाता है, तभी पार हुआ जाता है। अव्यक्त की झलक मिटे बिना, व्यक्ति को निर्मूल किए बिना पाना संभव नहीं है। ध्यान में ही उसकी झलक पायी जा सकती है। झलक पाने के बाद फिर वह हस्तामलकवत् हो जाता है। इसलिए ध्यान एक तरह की मृत्यु है, पर ध्यान और समाधि के बाद की व्युत्थान दशा जीवन नहीं, जीवनमुक्त है। इस मृत्यु को घटित करने के बाद ही आनंद है, शांति है, प्रेम और करुणा है। मंत्र का उच्चार नहीं किया जा सकता, उसे तो बस गूँगे के गुड की भाँति समझा जा पाता है। अकेले अ को बोलने के लिए दर्जनों प्रकार बताये जाते हैं। संगीत में स प्रथम स्वर है, इसे षडज कहते हैं, क्योंकि यह मुख के छः विभिन्न अवयवों से प्रकट होता है। अ तो अनुत्तर भी है। सारी व्यक्ताव्यक्त ध्वनियों का मूल है। उसे जैसे बोलो सब सही है, पर उसके सब उच्चार अधूरे हैं। उसमे पूर्णांश अवश्य उपस्थित है, अ स में और ह में पर्यवसित और उच्छलित है, यह सब मंत्रों की ध्वनियों के बीजाक्षर हैं। निःशब्द पकड़ में आने पर सब शास्त्र समझ आ जाते है। छाया से मूल को नहीं प्राप्त कर पाते, शब्द छाया मात्र हैं। अगर मूल को पकड़ लिया तो सभी छायाएँ पकड़ जाती हैं। 22/8/23 गोस्वामी तुलसीदास ने हिंदीजन को वह दे दिया है, जिसे लेकर वे, जब तक लिखा हुआ पढ़ा समझा जाएगा, तब तक उपकृत बने रहेंगे। तुलसी हम सबके हैं और सब उनके हैं। वेद, उपनिषद, पुराण आदि ग्रंथ जनमानस को सीधे न समझ में आ पाते, न उनकी सुलभता हो पाती। भारतीय भाषाओं में कोई न कोई ग्रंथ परंपरा की कहानियों का पुनर्पाठ करता है, जिससे वह जनता में सर्व समादृत हुआ. वे ग्रंथ उसके लिए गले का हार बन गये। चाहे दासबोध हो, कृतिवास हो, उड़िया में लिखी भागवत हो या कंबन और तिरुवल्लूर के ग्रंथ हों। हिंदी भाषाभाषियों के लिए रामचरितमानस ऐसा ही ग्रंथ है। रामायण की भाँति केवल भागवत् पर मानस की तरह पुनर्पाठ (retelling) करता हुआ ग्रंथ हिंदी में अब भी नहीं है। दूसरी तरह से इस अभाव की पूर्ति मानस ही करता है। गीता को भी क्या हिंदी में रिटोल्ड किया जा सकता है, मराठी में जैसे ज्ञानेश्वरी आयी, उसकी ही भाँति जो ऊँचाई और वास्तविकता लिए हुए हो। #तुलसी जयंती आज के दिन भारत ने चाँद पर चंद्रयान लैंड करा दिया है। चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुँचने वाला इकलौता देश बना। इसका बहुत बड़ा सांकेतिक महत्व है। सुंदर। २५/८/२३ हमारा जीवन उस मच्छर के समान है, जो रक्त पीते हुए कितना मुदित होता रहता है, अधिक पीने के बाद बेहोश हो जाता है, और अधिक पी लेने पर लुढ़क कर मार जाता है। विषय रस भोग भोगकर मनुष्य की भी यही गति होती है। रावरे रूप की रीति अनूप नयो नयो लागत है ज्यों ज्यों निहारिये। २६/८/२३ ध्यान के बाद उतरा कबीर का दोहा... दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट। पूरा किया बिसाहुणाँ, बहुरि न आवौं हट्ट॥ The tao that can be told is not the eternal Tao The name that can be named is not the eternal Name. The unnamable is the eternally real. Naming is the origin of all particular things. परम् सत्य को कहा नहीं जा सकता, जो कहा जा सकता है वह परम् सत्य नहीं हो सकता। आद सच- प्रारंभ होने के पहले सच था। जुगाद सच- युगों के पहले सच था। हैबी सच- अभी सच है। नानक होसी भी सच- आगे सब समय सच रहेगा। दुहराया गया 'सत्य' असत्य है। कृष्णमूर्ति २७/८/२३ karandhra-citi-madhyasthā brahma-pāśāvalambikāḥ / pīṭheśvaryo mahāghorā mohayanti muhur-muhuḥ // (Śrī Timirodghāṭa) करंध्रचितिमध्यस्था ब्रह्मपाशावलंबिकाः। पीठेश्वर्यो महाघोरा मोहयंति मुहुर्मुहुः॥ श्री तिमिरोद्घाट the universal mother (citi matrika) is situated in the center of brahmarandhra, and around that citi are situated pīṭheśvaryo (pīṭheśvaryo means those who are seated at his seat, around her, around the mother), and those pīṭheśvarīs are called organs of knowledge, organs of action, mind, intellect and ego. These are all pīṭheśvarīs to him. These pitheshvaris become very fearful (mahaghora). At every turn, the invariably create illusion and continually strive to bind him even more. Here, the mother (matrika) is the essential factor and pitheshvaris are the agents. Around universal mother gathered all the deities who delude the one she is playing with. But the one who is a player with mother is not deluded at all. शब्दराशि समुत्थस्य शक्तिवर्गस्य भोग्यताम् । कला विलुप्त विभवोगतः संसपशुः स्मृतः ॥स्पंद कारिका ३ः१३ अर्थ – अकार से अकार पर्यन्त जो शब्द समूह है उसी से उत्पन्न यह कादिवर्गात्मक भूत समुदाय है। यही शक्ति समूह बाह्य भोग्य का स्वरूप है। इस भोग्य समुदाय रूप शक्ति के वशीभूत पुरुष ककारादि अक्षरों की कलाओं में विलुप्त होकर अपनी महत्ता खोकर स्वभाव से च्युत हो जाता है और शिवत्व मे पशुत्व भाव को प्राप्त हो जाता है ॥ when by hearing some sound, good or bad, you are carried away from your own nature. दुर्बलोऽपि तदाक्रम्य यतः कार्ये प्रवर्तते । आच्छादयेन्द्बुभुक्षां च तथा योऽति बुभुक्षितः ॥३८॥ अर्थ- उत्साह और प्रयत्न के द्वारा दुर्बल भी आगे बढ़ जाता है और साहस से कार्य में प्रवृत्त हो जाता है। अशक्त भी व्यायाम के अभ्यास से महान् शक्ति प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार स्वभाव के अनुशीलन से, यानी अनुसरण से भूखा भी भूख को आच्छादित कर लेता है। इसी प्रकार सर्वत्र ही आत्मस्वरूप के कार्य-कारण सम्पादन में वह समर्थ हो जाता है ॥३८॥ स्वरूपावरणेचास्य शक्तयः सततोत्थिताः। यतः शब्दानुवेधेन न बिना प्रत्ययोद्भवः ॥ स्पंद कारिका ३/१५॥ अर्थ- उसके स्वरूप के आवृत हो जाने पर उससे बाह्य रूप में सतत् ही शक्ति का उदय होने लगता है। इसी से उस शब्दरहित ज्ञान का उदय नहीं होता है तथा शब्द के वेध किये बिना उस ज्ञान का उदय नहीं होता है ।। The energies of Lord shiva are always determined to cover and conceal your own nature. सेयं क्रियात्मिका शक्ति शिवस्य पशुवर्तनी । बन्धयित्री स्वमार्गस्था ज्ञाता सिद्धयुपपादिका ॥स्पंद कारिका अर्थ – यह पशु भाव से वर्तने वाली शक्ति ही भगवान् का क्रियात्मक स्वभाव है। यह स्वभाव से ही बन्धन का कारण है अथवा अज्ञात रहने पर बन्धन का कारण है, तथा ज्ञात होने पर परात्पर सिद्धिप्रद है। शिव की शक्ति ही परा और अपरा भावों में विद्यमान है जिनमें जीव-शक्ति प्रवर्तित नहीं होती है। तथा इन परा और अपरा भावों में जो शिव शक्ति रूप से व्यापक है उसका कोई अधिष्ठान नहीं है, अर्थात् जीव-शक्ति से उसका स्वरूप स्वतन्त्र है। इसलिये वह अज्ञात रहने के कारण बन्ध का हेतु है, ज्ञात होने पर परात्पर सिद्धिप्रद है॥ २८/८/२३ ध्यान के बाद उतरा गोस्वामी जी का श्लोकांश, भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे, जिसे यहाँ पूरा दिया जा रहा है। नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितंकुरु मानसं च॥2॥ *भावार्थ :* हे रघुनाथजी! मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अंतरात्मा ही हैं (सब जानते ही हैं) कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए॥2॥ २९/८/२३ क्रोध नाम का पिशाच ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~`` एक बार बलराम, कृष्ण और सात्यकि किसी वन में थे ।रात्रि हो गयी । उन्होंने तय किया कि बारी-बारी से एक व्यक्ति पहरा देगा और दो सोयेंगे । पहरे का पहला नंबर सात्यकि का था । वहां एक पिशाच प्रकट हुआ , बोला > तुमसे कुछ नहीं कहूंगा , इन दोनों का भक्षण करना है । सात्यकि क्रोध में भर कर उससे भिड गया । जैसे-जैसे सात्यकि को क्रोध आवे वैसे ही वैसे पिशाच का बल बढता जा रहा था । सात्यकि घायल हो गया ।प्रहर के बाद पिशाच अदृश्य हो गया । अब बलराम का नंबर आया । पिशाच प्रकट हुआ , बोला > तुमसे कुछ नहीं कहूंगा , इन दोनों का भक्षण करना है । बलराम को भी क्रोध आया । बलराम क्रोध में भर कर उससे भिड गये जैसे-जैसे बलराम को क्रोध आया , पिशाच का बल बढता गया ।बलराम भी लहूलुहान हो गये ।प्रहर के बाद पिशाच अदृश्य हो गया । कृष्ण का पहरा आया । पिशाच फिरसे आ गया । पिशाच क्रोध में भर कर कृष्ण पर आक्रामक हुआ, किन्तु कृष्ण हंसते-हंसते उसे घुमाते रहे । कृष्ण को क्रोध ही नहीं आया और पिशाच का बल घटता गया । अन्त में तो वह एक कीडे के बराबर हो गया । कृष्ण ने हंस कर उसे दुपट्टे में बांध लिया । सबेरा हुआ । सात्यकि और बलराम के हाथ-पैर में चोट के निशान थे । दोनों ने पिशाच की अपबीती कहानी सुनाई । कृष्ण ने हंस कर दुपट्टेसे बंधा पिशाच जमीन पर पटक दिया । बोले > यह क्रोध नाम का पिशाच है । आपने क्रोध किया तो यह बलवान हो गया , मैने क्रोध नहीं किया तो यह मुरझा गया । आत्मज्ञानी बुद्धिमत्ता तभी संभव है जब स्वयं से, 'मैं' से वास्तविक मुक्ति हो, यानी, जब मन अब 'अधिक' की मांग का केंद्र नहीं रह जाता है, अधिक और व्यापक की इच्छा में फंस नहीं जाता है। , अधिक विस्तृत अनुभव। बुद्धिमत्ता समय के दबाव से मुक्ति है, क्योंकि 'अधिक' का तात्पर्य समय से है, और जब तक मन 'अधिक' की मांग का केंद्र है, तब तक यह समय का परिणाम है। अतः 'अधिक' की साधना बुद्धिमत्ता नहीं है। इस पूरी प्रक्रिया की समझ ही आत्मज्ञान है। जब कोई स्वयं को बिना किसी संचय केंद्र के जानता है, तो उस आत्म-ज्ञान से वह बुद्धिमत्ता आती है जो जीवन से मिल सकती है; और वह बुद्धि रचनात्मक है. कृष्णमूर्ति की पुस्तक लाइफ अहेड से ३०/८/२३ कृष्णदासकविराज ने चैतन्यचरितामृत में काम और प्रेम का विश्लेषण किया- आत्मेन्द्रिय प्रीति-इच्छा तार नाम काम,कृष्णेन्द्रिय प्रीति-इच्छा तार नाम प्रेम । कामेर तात्पर्य प्रेमसंभोग केवल,कृ्ष्णसुख तात्पर्य प्रेम जो प्रबल॥ ध्यान या समाधि के बाद साधक सतोगुण में आता है। अगर रजोगुण में गया तो भी वह सतोगुण में ही लौटेगा। तमोगुण से उसकी सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। रजोगुण में उसे शरीर के धर्म के कारण जाना होता है। सतोगुण उसके मन का स्वभाव बन जाता है। ध्यानावस्था में वह गुणातीत हो जाता है। देश-काल विरहित हो जाता है। ३१/८/२३ श्रावण पूर्णिमा/श्रावणी उपाकर्म/रक्षा बंधन/ संस्कृत दिवस श्रावण पूर्णिमा यानि रक्षा बंधन के दिन से प्राचीन भारत में शिक्षण सत्र आरंभ होता था। पौष पूर्णिमा तक यह सत्र चलता था। श्रावणी पूर्णिमा के दिन से छात्र वेदाध्ययन प्रारंभ करते रहे हैं। इसलिए इस दिन को वैदिक परंपरा का श्रावणी उपाकर्म कहा गया।भारत में १९६९ की श्रावणी पूर्णिमा से प्रतिवर्ष संस्कृत दिवस मनाया जा रहा है। दुनिया के जर्मनी, जापान, फ़्रांस जैसे विकसित देशों में संस्कृत दिवस/सप्ताह मनाया जाता है। विश्व के अधिकांश देशों के विश्वविद्यालयों में संस्कृत विभाग खुले हुए हैं। विश्व में अन्य किसी भारतीय भाषा का अध्ययन इतना नहीं किया जाता है। संस्कृत भाषा का समृद्धिशाली इतिहास रहा है। भारत की सबसे अधिक मूल्यवान शिक्षा और विविध विधाओं की सामग्री संस्कृत में मिलती है। वस्तुतः यह अध्ययन भारत की भाषा होने के कारण नहीं, बल्कि ज्ञान विज्ञान की संभावनाओं और उसके उत्स को खोजने के नाते किया जाता है। इसी तरह हमें भी ज्ञान विज्ञान की परंपरा को जिस भाषा से प्राप्त हो सके, उससे पाना चाहिए। अगर अंग्रेज़ी की पुस्तकों से जाना पड़े तो इसमें कोई हर्ज नहीं। प्रायः संस्कृत का केवल महत्व अवगत कराया जाता है, उसके कंटेंट या विषय वस्तु को समय-समय पर अपने नागरिकों को अवगत कराया जाना चाहिए। संस्कृत में किसी भी विचार और परंपरा के सूत्र मिल जाते हैं। इसलिए इसे जानने और समझने की उत्कंठा होनी ही चाहिए। बाबा साहेब आम्बेडकर स्वयं संस्कृत नहीं जानते थे, पर उस समय के धर्मशास्त्र के अधीती विद्वान भारत रत्न डॉ पीवी काणे से उन्होंने संस्कृत के तथ्यों को समझा था। सर्वविदित है कि संस्कृत भाषा में उपनिषद्, पुराण और परंपराओं की सामग्री मिलती है। परंतु वेदों की संस्कृत भिन्न है, उसकी ध्वनियों में विश्व की भाषाओं का समाहार हो जाता है। संस्कृत का मज़बूत पक्ष है कि केरल के शंकराचार्य से लेकर गांधार के पाणिनि तक की संस्कृत भाषा एक है। अन्य भाषाओं के रूप थोड़े अंतराल पर ही बदल जाते हैं, संस्कृत के साथ ऐसा नहीं है। व्याकरण के प्रति इस दृढ़ता के कारण वह लोकभाषा नहीं बन पायी, पर उससे क्या! लोक जिससे आलोक पा सके ऐसी भाषा तो वह बनी ही हुई है। वर्तमान में सीधे संस्कृत से उसके ज्ञान को जानने वाले बहुत कम (विरले ही) व्यक्ति पाये जाते हैं, स्वयं संस्कृत वाले भी नहीं हैं। इसलिए संस्कृत का व्यवहार करने वाले सज्जनों से आत्यंतिक रूप में प्रभावित होने की आवश्यकता नहीं है। परंतु थोड़ी भी संस्कृत उसके वास्तविक ध्वनिमूल के साथ अवगाहन कर लेने से एक अपूर्व प्रकाश उदित होता है। अतः आज के दिन से हम सब चाहे एक श्लोक ही सही, अंश भी सही, उसके मूल तक पहुँचने का प्रयत्न अवश्य करें। साँसों की माला पे सिमरूँ मैं पी का नाम। अपने मन की मैं जानूँ, और पी के मन की राम ये ही मेरी बंदगी है ये ही मेरी पूजा