Tuesday, May 31, 2022

यस्तु क्रियावान स योगी मई २०२२

यस्तु क्रियाबान् स योगी १/५/२२ Then I told him to practise Kriya Yoga, with this further instruction: "After practising your Kriya, think that the divine Light is going into your brain, soothing it, calming your nerves, calming your emotions, wiping away all anger. And one day your temper tantrums will be gone." Not long after that, he came to me again, and this time he said, "I am free from the habit of anger. I am so thankful. The Divine Romance Pgno 334 २/५/२२ अर्थ शब्द का परिचय होता है और धन को भी अर्थ कहते हैं. दोनो मेन तत्विक अंतर नहीं हैं. बाह्य रूप में धन का पसारा संसार चलाता है, आंतरिक रूप में शब्दार्थ का पसारा ही संसार को गतिमान किए हुए है. स्वप्न में जाग्रत की करणीयता होने लगे तो समझना चाहिए जाग्रत अवस्था उचित ढंग से बीत रही है. स्वप्न अवस्था जाग्रत और सुषुप्ति की भाँति अवश्यंभावी है. जब सुषुप्ति अधिक होती है तो हम स्वप्न में चले जाते हैं. स्वप्न दशा व्यक्ति के जीवन यापन का पैमाना है, इसे कोई और नहीं, डॉक्टर भी नहीं, न कोई यंत्र ही माप सकते हैं, उसके प्रमाता हम ही हैं. अतः अपनी विकास यात्रा को हम ही जान सकते हैं, कोई अन्य नहीं. ५/५/२२ ध्यानं विना भवेन्मूकः सिद्धमंत्रोsपि साधकः. बग़लामुखी रहस्यम् मरणासन्न व्यक्ति अस्वीकृति, क्रोध, समझौता, अवसाद और स्वीकृति इन अवस्थाओं से होकर निकलता है। मरणासन्न व्यक्ति को प्राण त्यागने के सम्बंध में संवेदनशीलता और कौशल के साथ बताया जाना चाहिए। अधिकतर ऐसे व्यक्ति जान ही लेते हैं, परन्तु वे चाहते हैं डॉक्टर या सम्बन्धियों से इस बारे में पता चले। अगर सम्बन्धी नहीं बताते तो मरणासन्न व्यक्ति को लग सकता है उनके सम्बन्धी इस समाचार का सामना नही कर सकते। फिर वे भी इस विषय को नहीं उठाते। इससे वे अकेला और व्यथित अनुभव करते हैं। मरणासन्न व्यक्ति के साथ काम करने का अर्थ है कि हम अपनी वास्तविकता को दर्पण में देख रहे हैं। मरणासन्न व्यक्ति द्वारा सजग, सचेत व प्रशांत अवस्था के बीच अंतिम सांस लेना बहुत महत्वपूर्ण है। मरणासन्न व्यक्ति को पूरी शांति व मौन के बीच जाने दिया जाए। मरणासन्न व्यक्ति के पास एक सच्ची बुद्ध प्रकृति है, भले उसे इसका अहसास हो या न हो, पर वह सम्पूर्ण प्रबोध पाने की सम्भावना रखता है। मरणासन्न व्यक्ति को दाईं करवट लेटते हुए निद्रालीन सिंह की मुद्रा अपनानी चाहिए। अगर आपने मरना सीख लिया तो अपने जीना सीख लिया और जीना सीख लिया तो इस जन्म के साथ साथ अगले जन्मों के लिए भी जीना सीख लिया। उक्त विवरण जीवन और मरण की एक पुस्तक में दिया गया है। इस पुस्तक में मरण की प्रक्रिया और अन्य बातों का सविस्तार वर्णन दिया गया है। विगत वर्ष आज के दिन की फ़ेसबुक पोस्ट ६/५/२२ जैसे दिल्ली में लघु भारत बसता है, ऐसे ही क़रीब-क़रीब श्रीनगर में लघु विश्व का निवास है. श्रीनगर में एअरपोर्ट से उतरने के बाद श्रीनगर शहर को देखते आ रहे थे. यहाँ एरुशलम, इस्तांबुल, शारजाह, अरब, करॉची न जाने कितने देशों और उनके शहरों के नाम पर प्रतिष्ठान चलते हुए मिले. ब्राज़ील कॉफ़ी शाप को एक वहीं की महिला चलाते हुए मिली, वह दुकान के साथ अपने ३-४ वर्ष के बेटे को भी संभाल रही थी. ७० रुपए में ब्लैक कॉफ़ी उपलब्ध हुई. दूध की कॉफ़ी १०० रुपए में थी. डल झील के घेरे से आते समय आटो चालक वली मोहम्मद ने जब अपने से इशारा करते हुए बताया कि इस पहाड़ पर आदि शंकराचार्य पधारे थे तो मन कितना हर्षित और गर्वित हुआ. उसने कहा फ़ोटो ले लो. वली मोहम्मद ने आगे पूछा कि क्या उत्तर प्रदेश में भी मुसलमान रहते हैं. श्रीनगर में मस्जिदों की संख्या बहुतायत में है, आज शुक्रवार को मस्जिदों में उनके प्रवचन भी होते दिखे. ४ मई को हुयी ईद के त्योहार का असर यहाँ आज भी दिखा. शुक्रवार को साप्ताहिक बंदी रहती है. हिंदी में नाम पट्टिकाएँ केवल भारत सरकार के कार्यालयों की ही दिखीं, शेष उर्दू और अंग्रेज़ी में, वरन अंग्रेज़ी में ९० प्रतिशत तक. यहाँ की बोलचाल की स्थानीय भाषा उर्दू नहीं है, कश्मीरी है. यहाँ अरब और अन्य देशों की इम्पोर्टेड वस्तुएँ खूब मिलती हैं, यह सामान देश के अन्य बाज़ारों में इतना नहीं दिखता. आज यहाँ एक घंटे से अधिक झमाझम बारिश हुयी. स्वेटर पहनने लायक़ सर्दी है, सुरक्षा कारणों से सिम दूसरी मिली नहीं, जीयो की प्रीपेड सिम यहाँ काम नही करती. होटेल के वाइफ़ाई से इंटर्नेट चल रहा है. सायं काल होटेल मीडोस हिल साइड के अपने कमरे में जब ध्यान में बैठे तो गुरुदेव की स्मृति हो आयी. उनके चरणों में अपने को विलीन किया. यहाँ की आबोहवा में व्याप्त उनकी उस समय की यात्रा तिर रही है, इसका आभास हुआ. यह जानकर अश्रुपात होता रहा. भक्ति जल में सींच कर मानो प्रेम पुष्प अर्पित करता रहा. गुरुदेव की अनुभूति का इतना सघन अहसास बहुत कम हुआ है, कदाचित् इस सघनता से पहली बार. उनके साथ हम हुए और गुरुदेव तो हमारे साथ ही हैं. श्रीनगर के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों और उनके ऊपर की ओर उठी हुयी पत्तियों को देखकर लगता है यहाँ की प्रकृति के कमल चक्र खिले हुए या जाग्रत हैं. उसी तरह जैसे षट्चक्र भेदन में ऊर्जा कमल खिल जाते हैं. लोग तो मिश्रित प्रकृति के ही सर्वत्र हैं, पर प्रकृति यहाँ की जीवंत है. दिल्ली के एअरपोर्ट पर प्रार्थना कक्ष बना दिखा, जैसे गुरुदेव ध्यान की आदत को बिना नागा पूरा करने के लिए परिस्थिति निर्माण कर रहे हों. एक के बाद एक छोटी, मामूली या बड़ी गतिविधि संचलन में लयबद्धता आ गयी है. सारी गतिविधियाँ मामूली ही हैं, आँख खोलने के मानिंद, आँख के भीतर से होकर जो संसार है, घर है, मूल ठिकाना है, वहाँ तक पहुँचने का रास्ता आँख से दिखने वाले संसार से होकर गुजर रहा है. लौकिक संसार की बस यही उपयोगिता है. प्रार्थना कक्ष में ध्यान करते समय बहुत से नमाज़ी आए. उनसे हमें समस्या नहीं हुयी और न उन्होंने हमसे कोई समस्या व्यक्त की. हर पूजा करने वाला व्यक्ति धार्मिक नहीं, उसी प्रकार हर नमाज़ी भी अल्लाह को प्राप्त नहीं. कर्मकांड की तरह चीजें होती देखी जाती हैं. ईश्वर का साक्षात्कार किए हुए व्यक्तियों को संगठन बनाने की आवश्यकता नहीं रह जाती. न वे शेष समाज से अलग दिखते हैं और न उनके व्यवहार में ऐसा परिवर्तन दिखता है कि वे संसार का ध्यान खींचें. जब तक आकर्षण नहीं रहेगा तब तक संगठन या राज्य कैसे चल सकता है. इसलिए यह पता कर पाना बेहद मुश्किल है कि किस धर्म के मानने वाले व्यक्ति अधिक संख्या में आत्मदर्शी हुए हैं. आत्मदर्शियों का संगठन कैसे बन सकता है और संगठन बनाकर चले तो अभेदावस्था कैसे रह सकती है. और अगर आत्मदर्शियों का ज्ञानगंज की भाँति अलग ठिकाना हुआ तो संसार ही फिर कैसे रह सकता है, फिर प्रभु की लीला क्या और आनंद क्या! 7/5/22 चैतन्यमात्मा शरीरं हविः. प्रयत्नः साधकः त्रितयभोक्ता वीरेशः त्रिषु चतुर्थं तैलवदासेच्यम् यथा तत्र तथान्यत्र ८/५/२२ कश्मीर पर बहुत कहा लिखा गया है. पर हम अपने अनुभव से दो तीन बातें कह सकते हैं. कश्मीर की जन संरचना विलक्षण है. यहाँ के हिंदुओं को पलायन करने पर विवश किया गया, यह यहाँ के इतिहास का स्याह पक्ष है. दुनिया भर के मुसलमानों के यहाँ बहुत से संप्रदाय निवास करते हैं, उनमें आपस में बहुत मतभेद और ऊँच नीच भी है, पर इस्लाम धर्म की छतरी के नीचे वे अपनी एकता भी महसूस करते हैं. अपने को ऋषि कहने वाले नुंद ऋषि के वाख (पद) रमज़ान जैसे पवित्र माह में चरारे शरीफ़ और खानकाह मस्जिदों में पढे जाते है. यह अनोखी बात है, इस्लाम में ग़ैर इस्लामिक चीज़ बर्दाश्त नहीं होती. नुंद मुस्लिम थे, पर अपने को ऋषि कहते थे. कश्मीर में मुस्लिमों के गुरु हिंदू और हिंदुओं के गुरु मुस्लिम होते आए हैं, अब भी यह परंपरा विद्यमान है, इसीलिए यहाँ के उपनाम दोनों सम्प्रदायों में एक से देखे जाते हैं. ज़फ़र साहब ने बताया उनके परदादा अवतार भट का नाम वे कैसे बदल सकते हैं. बारहवीं शताब्दी की भक्तिन लल्लद (लल्लेश्वरी) के वाख जब उद्धृत किए जाते हैं तो हिंदू मुस्लिम दोनों उन्हें सुनकर रोमांचित होते हैं. खीर भवानी के मंदिर में हिंदू मुस्लिम दोनो जाकर अपनी-अपनी तरह से पूजा करते हैं. यह बात यहाँ के पंडितों ने ही बतायी है. गणपतिहार में गणेश की मूर्ति तोड़ दी गयी, कई मंदिर नष्ट किए गए. ऐसे ही एक सूर्य मंदिर फिर से बनने के लिए कल ही शिलान्यास हुआ है. पंडितों को मामूली क़ीमत पर अपनी जायदाद बेचकर या छोड़कर यहाँ से जाना पड़ा, वे वापस आएँ, ऐसा होना मुश्किल अवश्य है, पर असम्भव तो नहीं. यह भी है कि जो जहाँ बस जाता है, वह वहीं का हो जाता है. कश्मीर के लोग चाहते हैं खूब पर्यटक आएँ, बस खर्च करके चलते भी बनें. यह बात सब जगहों पर लागू होती है. कश्मीर में पहले नाग जाति का अस्तित्व रहा, फिर बौद्धों के बाद ८वी शताब्दी से शैव दर्शन का इतिहास मिलता है. १४वी शताब्दी के आसपास से इस्लाम का आगमन यहाँ हुआ. अब यहाँ इस्लाम ही इस्लाम है, सुबह की नमाज़ सुनने के समय मानो सामगान हो रहा हो, ऐसा लगता है, शेष भारत की मस्जिदों में नमाज़ पढ़ने का ऐक्सेंट अलग है. आज की फ़्लाइट पौने आठ बजे सुबह की थी. जहां ठहरे वहाँ टैक्सी आने में विलंब देख रोड पर आए तो एक माँ बेटी टहलते हुए मिलीं, उनसे कहा तो बेटी इकरा ने तुरंत अपने भाई को फ़ोन लगाया. १० मिनट में टैक्सी लाने को कहा, मुझे लगा सुबह का समय है, सर्दी यहाँ सदा रहती ही है, फिर एक और मोर्निंग वॉकर के साथ चल दिया पैदल ही, दूसरी शेयरिंग गाड़ी में बैग रखा इतने में इकरा का भाई आकिब आ गया, बड़े आराम से पर शीघ्रता से एअरपोर्ट छोड़ दिया. हवाई यात्रा करने में फ़्लाइट पकड़ने का बड़ा तनाव रहता है, सुरक्षा कारणों से निर्धारित समय से बहुत पहले जाना होता है. फिर फ़्लाइट समय पूर्व भी चल देती है, अगर उसके सारे यात्री जहाज़ में बैठ जाएँ. इसी तरह अपने गंतव्य पर वह पहले पहुँच भी जाती है. कश्मीर की जलवायु इतनी अच्छी है कि यहाँ की धरती को जन्नत कहा गया है. यहाँ के घने और ऊँचे चिनार पेड़ इसे विशिष्टता प्रदान करते हैं. उत्तराखंड के हिमालय में चिनार पेड़ नहीं हैं, यहाँ बहुतायत में हैं. यहाँ शंकर पल यानि नदी के बीच एक बड़ी सी शंकर शिला है, जहां शैव दर्शन का प्रारंभिक ग्रंथ शिव सूत्र वसुगुप्त को उपलब्ध हुआ था, यह स्थान अब सेना के क़ब्ज़े में है, आज सेमिनार के कुछ साथी अनुमति लेकर वहाँ जा रहे हैं, पर हमें अब वापस होना है... ९/५/२२ एक स्वाभाविक जीवन क्रम में सभी उदात्त पहलुओं का समावेश हो जाता है. निसंदेह प्रकृति स्वयं एक सक्षम शिक्षक है, जिसके चलते आदिम मनुष्य भी कितना सहज दिखता आया है. विभिन्न समूहों और व्यक्तियों में हो रही अंतःक्रियाएँ उन्हें समुन्नत करेगी. ज़ोर ज़बरदस्ती इन अंतः क्रियाओं में सम्भव नहीं. क्रिया और प्रतिक्रिया भी अंततः अंतःक्रिया ही बनेगी🙏 आजकल वेदांत और कश्मीरी शैव पद्धतियों की बारीकियों में जा रहा हूँ. जब दोनो मेन अंतर्विरोध दिखता है तो गुरुदेव की बातें विवेक ज्ञान करा देती हैं. वास्तव में बोध के बाद अंतर रह ही नहीं जाता. वेदांत जगत् को मिथ्या कहता है, इसका अर्थ शैव दर्शन में अनिर्वचनीयता से लिया गया है. मिथ्या का अर्थ झूठा नहीं है. पर जब संसार का बोध हो जाता है तो यह झूठ भी लगता है और अनिर्वचनीय भी. तब इसका आनंद बौद्धों के शून्यता के बोध के बाद भी मिलता है. शैवों ने पहले से इसे आनंद के रूप में लिया है, वेदांत और बौद्ध में यह फलश्रुति के रूप में लभ्य है. गुरुदेव ने सूत्र रूप में कह दिया है संसार में रहो, पर संसार का होकर नहीं. लाहिरी महाशय कहते हैं न कोई तुम्हारा है और न तुम किसी के हो. टुकड़े-टुकड़े विभक्त करके चीजों को समझने की उत्कंठा पश्चिम में अद्भुत रूप में पायी जाती है, इसीलिए उनके यहाँ भौतिक विकास ने अपूर्व छलांग लगायी है. गुरुदेव इसका सामंजस्य करते हैं और कहते हैं हमें पश्चिम का भौतिक विकास और भारत की आध्यात्मिकता ग्रहण करने की आवश्यकता है. गुरुजी ने एक मुकम्मल या समग्र उपाय उन सिद्धांतो को समझने के लिए दिया है, यह सिद्धांत विमर्श और दर्शन शास्त्र की विषयवस्तु भर बनकर रह जाते हैं, अगर उनके भीतर का बोध प्राप्त न हुआ. 10 मई की पुरानी फ़ेसबुक पोस्ट आदि शंकराचार्य का श्लोक नलिनीदलगतजलमतितरलं तद्वज्जीवनमतिशयचपलम्। क्षणमिह सज्जनसंगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका।। स्वामी श्री युक्तेश्वर द्वारा the holy science में किया गया भावार्थ... कमल के पत्ते पर स्थित पानी की बूंद के समान जीवन सदैव असुरक्षित और अस्थिर रहता है। एक पल के लिए भी सज्जन की संगति हमें बचाकर हमारा उद्धार कर सकती है। ईश्वर क्या है और जगत क्या है! इस श्लोक में कितने सुंदर ढंग से निरूपित किया गया है- अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपंचकम। आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगदरूपं ततो द्वयम।। अर्थात अस्ति(existence), भाति (cognizability- that which makes one aware of the existence of an object), प्रिय(attractiveness), रूप (form) तथा नाम (name)‒इन पाँचोंमें प्रथम तीन ब्रह्म के रूप हैं और अन्तिम दो जगत्‌ के ।’ ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका में प्रकृति पर क्या अद्भुत कारिकाएँ कही गयी हैं, उनमें से एक है- प्रकृतेः सुकुमारतरं न किंचितस्तौतमे भतिर्भवति. या दृष्टास्मीति पुनर्न दर्शनमुपैति पुरुषस्य. कारिका ६१ प्रकृति अत्यंत लज्जावती है, जब उसे तनिक भी संशय होता है कि मैं देखी गयी हूँ तो बस फिर पुरुष के सम्मुख भूले से भी नहीं आती. अब यह सूफ़ी भजन पढ़ें... हमने बेपर्दा तुझे माहजबीं देख लिया अब ना कर पर्दा के ओ पर्दानशीं देख लिया हमने देखा तुझे आंखों की सियाह पुतली में सात पर्दों में तुझे पर्दानशीं देख लिया हम नज़र-बाज़ों से तू छुप ना सका जान-ए-जहां तू जहां जाके छुपा हमने वहीं देख लिया तेरे दीदार की थी हमको तमन्ना, सो तुझे लोग देखेंगे वहां, हमने यहीं देख लिया. उसकी हसरत है जिसे दिल से भुला भी न सकूँ ढूँढने उसको चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ. ये अमीर अपनी ग़ज़ल है कोई आयत तो नहीं कि घटा भी न सकूँ और बढ़ा भी न सकूँ. अमीर मीनाई ११/५/२२ आ संहार और ई सृष्टि है. प्रथम शिव और द्वितीय शक्ति है. १३/५/२२ साधना के लिए विशेष उग्र प्रयत्न नहीं करना चाहिए। साधना मात्र वायु घटित है। यहां तक कि प्राणायाम आदि न कर तीव्र रुप से ध्यान करने पर वायु की क्रिया अवश्य होगी। इस समय यथासंभव वायु की साम्यावस्था आवश्यक है, इसलिए नित्य कार्य के लिए जितना आवश्यक है, उसके अतिरिक्त किसी प्रकार की क्रिया या चिंता वर्जनीय है। नित्य-कर्म के साथ भक्तिभाव और आत्म निवेदन के भावों को मिलाकर रखने का प्रयत्न करना चाहिए। तब कर्म भावजनित त्रुटियाँ नहीं होंगी। एक मात्र उनकी ओर लक्ष्य रखते हुए प्रकृति के स्रोत में अपने को छोड़ देना चाहिए, इससे अभिमान शून्य द्रष्टा भाव में स्थिति होती है, तब कृत और अकृत कार्यों में कोई पार्थक्य नहीं रहता। कारण, प्राकृतिक प्रवाह का चेतन साक्षी-स्वरूप जो अपने को समझता है, वह अकर्ता होकर भी क्रतसन्नकर्मकृत हो जाता है। ज्ञान और कर्म के समन्वय का यही गूढ़ रहस्य है। 🥀🌼🌺🌺🌼🥀 श्रीगुरु बाबा गोपीनाथ कविराज जी (सनातन साधना की गुप्त धारा) क्ष- देश त्र- काल ज्ञ-वस्तु खाँड़ का कुत्ता, गधा, चूहा, बिल्ला मुँह में डालो ज़ायक़ा है खाँड़ का. १४/५/२२ पुराणो में आता है कि पुं नाम के नरक से पुत्र बचाता है. यह पुत्र कौन है और कैसे पैदा होता है. इसे बिना जाने हम सब इसे भौतिक रूप में ग्रहण कर लेते हैं. और तरह तरह की भ्रांतियों और विपदाओं के शिकार हो जाते हैं. हमारे शरीर की रोग और वृद्धता जन्य समस्याओं के कारण बहुत से व्यक्तियों को यह व्यवहार में आवश्यक भी लगता है, इसका समुचित समाधान खोजना संसार और उसकी सभ्यता के विकास पर निर्भर है, पर वास्तविक पुत्र ॐ तत्सत् की उपलब्धि होना है. सत से सुत विकसित हुआ है और तत से तात, तात का अर्थ पिता और पुत्र दोनो होता है. तत्सत् में पिता और पुत्र का ही सम्ब्न्ध निहित है.. यह व्यक्ति की ही उपलब्धि है, समाज की नहीं. इसे पाने के लिए व्यक्ति को जनेऊ या यज्ञोपवीत धारण करना पड़ता है जनेऊ धारण षट्चक्र भेदन है, जहां तिलक या बिंदी लगाते हैं उस कूटस्थ को सदा उद्बुद्ध रखना होता है. आदि कोटि और अंत कोटि का निभालन करते हुए शिखा बंधन करने के बाद यह कूटस्थ उद्बुद्ध होता है. तब तत्सत् कूटस्थ पर पुत्र उसी प्रकार उदित हो जाता है जैसे नदी की जलधार के बीच की रेत दिखने लगती है. पुत्र जन्म नदी की इस रेत के बनने की भाँति कठिन होता है. पर असल पुत्र यही है, सांसारिक संतति उसकी छाया है. पुत्रोदय ब्राह्मण बनकर ही संभव है. ब्राह्मण होने की निशानियाँ हैं शिखा, यज्ञोपवीत और तिलक. एक ब्राह्मण ही पुत्र जन्म कर सकता है, पुत्र जन्म होने पर वह ब्राह्मण ही रहता है. ब्राह्मण होना भी क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बने बिना संभव नहीं.. त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी। त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः॥ यजुर्वेद श्वेताश्वतरोपनिषद आ ४ मं ३ तुम' ही स्त्री (प्रणयिनी) हो तथा 'तुम' ही पुरुष हो; 'तुम' ही कुमार हो एवं 'तुम' ही पुनः कुमारी कन्या हो; 'तुम' ही तो जरा-जीर्ण वृद्ध पुरुष हो जो अपने दण्ड के सहारे झुककर चलता है। अहो, 'तुम' ही तो जन्म लेते हो तथा सम्पूर्ण विश्व तुम्हारे ही नाना रूपों से परिपूर्ण हो. नीलः पतङ्गो हरितो लोहिताक्षस्तडिद्गर्भ ऋतवः समुद्राः। अनादिमत्त्वं विभुत्वेन वर्तसे यतो जातानि भुवनानि विश्वा॥। यजुर्वेद श्वेताश्वतरोपनिषद आ ४ मं ४ तुम' ही नील-विहंग हो तथा हरित एवं लोहिताक्ष हो; तडित्-गर्भ हो तथा नाना ऋतुएँ एवं अनेक सागर हो। 'तुम' अनादि हो तथा 'तुम' विभुभाव से सर्वत्र विचरण करते हो जिससे सकल भुवनों का उद्भव हुआ है। १७/५/२२ अयोध्या के राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद इस तरह के विवादों का पटाक्षेप हो जाना चाहिए था, पर ज्ञानवापी परिसर के सर्वे के बाद परिस्थिति बदल गयी है. जो मुक़दमे धर्मस्थल या उसकी पूजा को लेकर १९९१ के उस ऐक्ट से पहले दाखिल हुए और उन पर किसी कारण निर्णय नहीं हुआ या सुनवाई नहीं हुयी, उन मुक़दमों को १९९१ के ऐक्ट की परिधि से बाहर रखकर कोर्ट को सुन लेना चाहिए. तरह-तरह की अफ़वाहों पर विराम लगने के लिए यह आवश्यक है. किसी धार्मिक स्थल पर दूसरे धर्मावलंबी भी अगर जाना चाहें तो सुरक्षा जाँच से गुजरते हुए इसे बेरोकटोक खुला रखा जाना चाहिए. ताजमहल, क़ुतुबमीनार और जो-जो स्थान लोगों ने जाँच के लिए याचित किए हों, उन सबकी जाँच हो जाए, क्या समस्या है. एक गतिशील समाज के लिए अपने सब टेबुओं पर विचार करते रहना ग़लत नहीं, पर नए-नए कथानक और प्रवाद फैलाने से बचना चाहिए. अफ़वाहें और शंकाएँ भी तभी अधिक फैलतीं हैं जब उन्हें रोका जाए या उन पर समुचित विचार और निष्कर्ष न निकाले जाएँ. भारत में सबसे अधिक शिव की ही पूजा होती आयी है, यह पूजा सबसे प्राचीन भी भई. माँ की पूजा भी शिव पूजा से पृथक नहीं. इसके बाद कृष्ण, राम और अन्य आराध्यों की पूजा होती है. शिव पूजा उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम सर्वत्र अलग अलग सम्प्रदायों में विभक्त होकर होती है. कहीं यह अद्वैत शैव, तो कहीं पाशुपत शैव तो दक्षिण में यह वीर शैव के नाम से विख्यात है. जो सकल पदार्थों में ईश्वर का वास देखते हैं उन्हें उन सबमें ईश दर्शन होता है, पर उन्हें इसके लिए किसी अन्य से विरोध नहीं होता. विरोध हुआ तो परम दर्शन ही क्या. परम से बाहर क्या है. फिर भी जिनकी भी आस्था का प्रश्न है, उसे हाल किया जाना चाहिए, क्योंकि श्रद्धावान कहीं से ज्ञान की लब्धि कर सकता है. जो लोग कहते हैं देश को रोटी और रोज़गार की समस्याओं पर ध्यान देना ही अभीष्ट है, वे ग़लत नहीं, पर एक गतिशील लोकतंत्र में सब बातों पर एक साथ विचार किया जा सकता है. कहीं भी अटके न रहें.... दुखान्यपि सुखायंते विषमप्यमृतायते. मोक्षायते च संसारो यत्र मार्गः स शांकरः.. जिस मार्ग पर चलने से दुःख भी सुख बन जाते है ज़हर भी अमृत बन जाता है और यह (भीषण) संसार भी मोक्ष का साधन बन जाता है, वही मार्ग भगवान शंकर का मार्ग है. १८/५/२२ जब मनुष्य की वृत्ति रूपी लड़की (अपने) पति (स्व स्वरूप) के साथ विवाही जाती है अर्थात् आत्मा से तदाकार होती है तो उसके माता पिता अहंकार और बुद्धि के रोंगटे खड़े हो जाते हैं.... सैर कर और दूर से गुल देख उस गुलज़ार के पर बना अपने गले का इनको मत ज़िन्हार (कदापि) हार. रहिए अब ऐसी जगह चलकर जहां कोई न हो दुश्मने जाँ हो न कोई मिहरवाँ कोई न हो. पड़िए ग़र बीमार तो आकर कोई पूछे न बात और ग़र मर जाइए तो नौहा ख़्वां कोई न हो. Om Song Use when meditating on God as Cosmic Sound and Vibration and when meditating on the six spinal centers. Whence, Oh this soundless roar doth come
When drowseth matter’s dreary drum?
The booming Om on bliss’ shore breaks;
All heav’n, all earth, all body shakes. Cords bound to flesh are broken all, Vibrations vile do fly and fall; The hustling heart, the boasting breath No more disturb the yogi’s health. The house is lulled in darkness soft, Dim, shiny light is seen aloft. Subconscious dreams have gone to bed ‘Tis then that one doth hear Om’s tread. The bumble bee doth hum along, Baby Om, now hark ye! sings his song; Krishna’s flute is sounding sweet, ‘Tis time the wat’ry God to meet. The Gods of fire with fervor sing, Om, Om: their mystic harps now ring God of Prana sweetly sounds The wondrous bell, the soul resounds. Oh upward climb the living tree, Hear now the sound of etheral [sic] sea; Marching mind doth homeward hie To join the Christmas Symphony. २०/५/२२ रात में सोने के समय ऐसे लाता जैसे कहीं कुछ नया लिख रहे हों या लिखे गए की नयी व्याख्या कर रहे हों. शब्द दस दिक्पाल के माध्यम से व्याप्त होते हैं, कान उन्हें ग्रह। करते हैं, फिर वे अन्यत्र फैलते हैं... २२/५/२२ सोने के बाद सुबह लगा जैसे सिर में आग का गोला तीर रहा है, जिसमें समूचा ब्रह्मांड विचर रहा है. फिर ध्यान के बाद कूटस्थ पर प्रकाश चमका, वैसा प्रकाश आश्रम की वेदी पर चमकता है. मिथ्या का अर्थ झूठ जल्दबाज़ी का और एकांगी अर्थ है. यह मिथक के गोत्र का शब्द है. इसका अर्थ है वह सब कुछ जिसे हम पूर्णरूपेण वास्तविक भी नही कह सकते और वह सब कुछ जिसे पूर्णरूपेण अवास्तविक भी नहीं कह सकते और न ही इसे हम सत्य और असत्य दोनों की संज्ञा प्रदान कर सकते हैं तस्य बाक्तंतिर्नामानि दामानि तदस्वेदं वाचातंत्या. नामभिर्दामभिः सर्व सितं सर्व हीद नामनीति..(२-१-६-१ ऋग्वेद ऐतरेय आरण्यक) (प्राण के हाथ में) वाचा का लंबा रस्सा है और नाम फंदा है, अतः वाचा के रस्से और नाम के फंदों के साथ यह सब कुछ बंधा हुआ है, क्योंकि सब वस्तुएँ नाम ही नाम तो है. यथा पशुरेवग्वं स देवनाम्। वह (उपासक) उपास्य (देवताओं) के पशु की भाँति है . वृहदा उप १-४-१० २४/५/२२ पश्यंती से मध्यमा के बीच के कार्य व्यापार से शब्द और अर्थ का उद्गम और प्रसार हुआ, तब व्याकरण बना. सबका एक दूसरे पर प्रभाव हुआ. शब्द और अर्थ के संबंध में बिंब प्रतिबिम्बवाद दिखायी देता है. २५/५/२२ जब अधिक मात्रा में सो जाते हैं तब सुबह स्वप्न आने लगते हैं. आज स्वप्न में एक महिला का प्रस्ताव हमबिस्तर होने का था. ऐसे स्वप्नों के बाद नाइट फाल हो जाता रहा है, पर आज मन में बराबर दुविधा चलती रही, महिला को मातृ शक्ति के रूप में नमन करता रहा और बच गया. जागने पर जानकर अच्छा लगा कि जाग्रत दशा में जैसा सोचते हैं, वही असर स्वप्न में हो रहा है. २६/५/२२ ब्रह्म तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनो ब्रह्म वेद क्षत्रं तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनः क्षत्रं वेद लोकास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो लोकान्वेद देवास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो देवान्वेद भूतानि तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो भूतानि वेद सर्वं तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनः सर्वं वेदेदं ब्रह्मेदं क्षत्रमिमे लोका इमे देवा इमानि भूतानीद सर्वं यदयमात्मा॥ वृहदा अध्याय दो Meaning "The brahmin rejects one who knows him as different from the Self. The xatriya rejects one who knows him as different from the Self. The worlds reject one who knows them as different from the Self. The gods reject one who knows them as different from the Self. The beings reject one who knows them as different from the Self. The All rejects one who knows it as different from the Self. This brahmin, this xatriya, these worlds, these gods, these beings and this All-are that Self. यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः। अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥ कठ Meaning When every desire that harboureth in the heart of a man hath been loosened from its moorings, then this mortal putteth on immortality; even here he enjoyeth Brahman in this human body. Hindi Meaning ''जब मनुष्य के हृदय में आश्रित प्रत्येक कामना की जकड़ ढीली पड़ जाती है, तब यह मर्त्य (मानव) अमर हो जाता है; वह यहीं, इसी मानव शरीर में 'ब्रह्म' का रसास्वादन करता है। १२ शंकर व्याख्या करते हैंː "योग की जैसे उत्पत्ति होती है वैसे ही उसका क्षय भी होता है। किन्तु श्रुति ऐसा कथन नहीं करती। मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा

युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।।11.34।गीता काम तो भगवान ने पहले ही किया हुआ है. यह हम तुम व्यक्ति तो बहाना हैं. २७/५/२२ सत्य तो परावाणी में विराजित है, संगीत रचना स्थूल पश्यंती, मध्यमा की गति पश्यंती और बैखरी में रहती है. अस्तु! बैखरी में अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है. न तो मैं कह सकता हूँ कि मैं जानता हूँ और न यह कह सकता हूँ कि मैं नहीं जानता, परंतु वह जो हमारे इस कथन को समझता है कि मैं नहीं जानता और जानता हूँ, वही जानता है. वेदानुवचन २८/५/२२ पंचाग्नि अग्नि लकड़ी ज्वाला धुंवा अंगारा चिंगारी यजमान फल द्युलोक सूर्य दिन किरण चंद्रमा तारे श्रद्धा सोम मेघ वायु धुंआ विद्युत ओले बिजली की चमक सोम वर्षा पृथ्वी संवत्सर रात्रि आकाश दिशाएँ अवांतर दिशाएँ वर्षा अन्न नर वाणी श्वास जिह्वा आँख इंद्रियाँ अन्न वीर्य नारी उपस्थ मिलाप प्रेरणा (समिल्लोम) योनि प्रवेश विषयानंद वीर्य गर्भ २९/५/२२ बिना यम के नियम नहीं और नियम के बिना आसन नहीं, योग की यह अष्टांग शृंखला, ध्यान, फिर समाधि तक जाती है। बिना सीढी चढ़े छत पर कैसे पहुंच सकते हैं ! छत पर चढ़ गए तो सीढियाँ ज्ञात हो जाती हैं। यम और नियम महत्वपूर्ण सोपान हैं। जिनका ध्यान या सात्विक वृत्तियों में मन नहीं लगता, उन्हें अपने पांच यम- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- एवं पांच नियम- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान- की स्थिति देखनी चाहिए। इसी प्रकार इस सुभाषित में भी एक क्रम है। विद्या से विनय, विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख प्राप्ति का क्रम। विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्म ततः सुखं।। १९/११/२०२० यमों - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- का पालन ही व्रत है जबकि द्वंद्व - भूख प्यास, शीत उष्ण इत्यादि -सहना तप है।४/११/१८ इस्लाम मे ब्रह्मचर्य अथवा यौन संयम अथवा नियोजन और संन्यास निषिद्ध है। फिर भी मुस्लिमों में परिवार नियोजन अनुपात में कम ही सही, पर दिखाई देता है। याने क्या यह नियोजित परिवार अपने धर्म को मानने वाले नहीं हैं? हिंदुओं में ब्रह्मचर्य और सन्यास की बहुत प्रतिष्ठा है। कहा गया है परिवार में अगर एक संन्यासी हो जाये तो उसकी सात पीढियों का उद्धार हो जाता है। फिर भी कुछ जगह परिवार नियोजन पुत्र मोह, सम्पत्ति और वंश चलाने की विवशता को मानकर नहीं दिखता है। इस्लाम को छोड़कर दुनिया के लगभग सभी धर्म किसी न किसी रूप और अवस्था मे ब्रह्मचर्य को आवश्यक मानते हैं। सब मिलाकर; केवल या निरी धार्मिक मान्यताओं से दुनिया का भला होने वाला नहीं है। इसका मतलब यह भी नहीं कि हम धर्मों को खारिज कर दें। धर्म हमें जीवन का सिरा पकड़ाता है, आगे बढ़ना हमारा काम है...२०/२/२०२० आध्यात्मिक यात्रा को सुगम बनाने के लिए हमें अधिक नहीं मात्र चार विभूतियों से होकर गुजरना पर्याप्त होगा. व्यावहारिक रास्ता परमहंस योगानंद के क्रिया योग से होकर जाता है. इस रास्ते के कंकड़ पत्थर पार करते समय स्वयं योगानंद जी और उनकी गुरूपरंपरा की शिक्षाओं के अलावा स्वामी रामतीर्थ, पं गोपीनाथ कविराज और स्वामी लक्ष्मणजू की पुस्तकों का पारायण उपयोगी है. रामतीर्थ जी भारत के मूलभूत ग्रंथों और शास्त्रों की सैर करा देते हैं, फिर हमें बहुत इधर-उधर जाने की आवश्यकता नहीं रह जाती. स्वामी जी भारत ही नहीं अरब और युरप के ग्रंथों और मान्यताओं से भी बावस्ता कराते हैं, वे आधुनिक ज्ञान विज्ञान और गणित के सूत्रों के सहारे आध्यात्मिक विषयों को इतनी स्पष्टता से खोलते हैं कि वेदांत जैसा नीरस और गूढ़ समझा जाने वाला विषय व्यावहारिक स्तर पर आनंद देने लगता है. गोपीनाथ जी तंत्र सिद्धांत के सहारे भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों और उनकी व्यावहारिकता को सूक्ष्म रूप में सामने रखते हैं. गोपीनाथ जी के यहाँ योग के विभिन्न स्तर गणित के सूत्रों की भाँति खुलते हैं. स्वामी लक्ष्मणजू ने प्राचीन शैव दर्शन को व्याख्यायित किया है, जिनसे भारत विद्या के गूढ़ तत्वों का रहस्य खुलता है. इन्हें पढ़ते समय तो हम मानो वेदांत दर्शन के भी पार हो जाते हैं. छाँदोग्य श्रुति में तीन ही तत्व आए हैं अग्नि पृथ्वी और जल इनका त्रिवृत्तकरण होता है. सत सात भाग प्रत्येक तत्व के और दो दो भाग दूसरे तत्वों के शामिल हुए और इस तरह वे स्थूल हो गए. तब संसार बना. तत्व सूक्ष्मतर सूक्ष्म अग्नि वाक् पाचन स्वेद पृथ्वी अंतःकरण वीर्य विष्ठा जल प्राण वात पित्त कफ़ मूत्र यदग्ने रोहित रूपं तेजसस्तद्रूपं यच्छुक्लं तदपां यत्कृष्णं तदन्नस्यापागादग्नेरग्नित्वं वाचारम्भणं विकारो नामधेयं त्रीणि रूपाणीत्येव (मृत्तिकेत्येव) सत्यम्‌॥छांदोग्य० ६.४.१ Meaning "The red colour of gross fire is the colour of the original fire; the white colour of gross fire is the colour of the original water; the black colour of gross fire is the colour of the original earth. Thus vanishes from fire what is commonly called fire, the modification being only a name, arising from speech, while the three colours (forms) alone are true.

Sunday, May 1, 2022

२/४/२२ सबमें रमै रमावै जोई, ताकर नाम राम अस होई। घट - घट राम बसत हैं भाई, बिना ज्ञान नहीं देत दिखाई। आतम ज्ञान जाहि घट होई, आतम राम को चीन्है सोई। नव सम्वत्सर २०७९💐 4/4/22 स्वप्न संसार ज्ञान का सादि संकल्प अर्थात् पीछे का संकल्प है जबकि जाग्रत ज्ञान यानि ईश्वर का आदि संकल्प है. जाग्रत या बाह्य जगत् का उपादान कारण आदि संकल्प है जो प्रलय तक नहीं बदलता. स्वप्न में स्वप्न की कल्पना ज्ञान का तृतीय संकल्प है. प्रथम स्वप्न द्वितीय या सादि संकल्प है स्वप्न में स्वप्न देखने के बाद जागने पर प्रथम स्वप्न के संसार से उठेगा और स्वप्न के भीतर का स्वप्न संसार नष्ट हो जाएगा, क्योंकि उसका उपादान कारण तो ज्ञान का तृतीय संकल्प या जाग्रत अवस्था है. इस दशा में मनुष्य को प्रथम स्वप्न संसार स्वप्न के भीतर वाले स्वप्त संसार की अपेक्षा सत्य प्रतीत होगा तब व्यक्ति जाग्रत अवस्था में स्वप्न और स्वप्न के भीतर का स्वप्न दोनों को एक सा संकल्प जान लेता है. वह जान जाता है कि जो संबंध स्वप्न के भीतर वाले स्वप्न संसार का प्रथम स्वप्न संसार से है वही संबंध प्रथम स्वप्न संसार का जाग्रत जगत् से है. मृत्यु के समय यह संबंध व्यक्ति को प्रतीत हो जाता है, परंतु जिस प्रकार व्यक्ति स्वप्न से निकलकर जाग्रत जगत् में आ जाता है उसी प्रकार मृत्यु में इस जाग्रत जगत् से निकलकर परलोक में उठता है, वहाँ स्वर्ग और नरक व्यापारों को देखता है. परलोक जगत् स्थूल जगत् की अपेक्षा अधिक स्थायी है इसलिए परलोक सत्य प्रतीत होता है और जाग्रत जगत् कल्पित या स्वप्नवत् मालूम होता है. लोक और परलोक की यह यात्रा जन्म और मरण के क्रम में चलती रहती है. वास्तव में समस्त अवस्थाएँ भ्रम मात्र या संकल्प मात्र हैं, वास्तविक नहीं. जब वृत्तियों को संयम या अभ्यास से रोकने पर वृत्तियों का निरोध होता है, तब आत्मस्वरूप से इतर कुछ दिखायी नहीं देता. यही तुरियावस्था है. इस अवस्था में आत्मा से इतर जो कुछ है वह भ्रम या संकल्प मात्र है. वास्तव में न सृष्टि है और न सृष्टा, बल्कि एक ही वस्तु हर रूप व हर विभूति में प्रकाशमान हो रही है. जैसे देवदत्त बैठा था, खड़ा हो गया तो उसकी यह नयी महिमा हुयी. वास्तव में देवदत्त न सृष्टा है, न सृष्टि.भगवत् ज्ञान की दो विभूतियाँ व्यक्त और अव्यक्त हैं और प्रत्येक विभूति नयी और एक के बाद दूसरी होती है,. प्रत्येक वस्तु का एक ही तत्व से परस्पर संबंध है. उस एक ही तत्व की उपाधियाँ सर्वत्र छटा बिखेर रही हैं. सर्वं सर्वात्मकं. वास्तव में न मूल कारण है न रूप केवल भगवत् ज्ञान विद्यमान है. ज्ञान का विचित्र गुण यह है कि वह क्रिया और प्रतिक्रिया से रहित है. भगवत् ज्ञान के विचित्र रहस्य पढ़ते हुए.. यानि ध्यान भी स्वप्न ही है. बस इस स्वप्न में शेष स्वप्नों का साक्षात हो जाता है🙏 ५/४/२२ जाग्रत जगत् अपने से भिन्न अनेक व्यक्तियों के ख़याल से कल्पित है और स्वप्न संसार एक अकेले ख़्याल से कल्पित होता है इसलिए जाग्रत जगत् और स्वप्न संसार में सच और झूठ का अंतर मालूम होता है. वास्तव में दोनो कल्पित और भ्रम रूप हैं. ६/४/२२ जैसे हम मनुष्य के चरणों को छूने से चरण पूजक नहीं हो जाते, उसके चक्षु की ओर दृष्टि करने से चक्षु उपासक नहीं हो जाते, हाथ मिलाने या गले मिलने से देहोपासक नहीं हो जाते, वैसे ही विराट भगवान् की उपासना के समय पाषाण शिला पर हाथ रखने से हम पत्थर पूजक नहीं हो जाते और सूर्य की ओर दृष्टि करते समय हम सूर्योपासक नहीं हो जाते, वरन् जिस प्रकार मनुष्य की पूजा उसके चरणों को छूने से होती है उसी प्रकार विराट भगवान की पूजा पाषाण और धरती की ओर सिर झुकाने से होती है. व्यक्ति का सिर स्वतः झुकता है, किसी सभ्यता में सिर न झुके तो भी उसके शरीर का कोई अंग अन्य व्यक्ति से मिलते समय स्वाभाविक क्रम में झुकता ही है. वस्तुतः यह भ्रम विराट भगवान् की मूर्ति को पूरा-पूरा न जानने के कारण होता है. मनुष्य के मुख्य अंग वे हैं जिनसे ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है. फिर कुछ गौण अंग हैं और कुछ सेवक अंग हैं. मनुष्य विराट का प्रतिबिंब है. मनुष्य में जो काम अंतःकरण करता है, ईश्वर में वही काम हिरण्यगर्भ करता है. यानि हिरण्यगर्भ ईश्वर का अंतःकरण है. विराट भगवान का प्रत्येक अंग जिसमें पाषाण, शिला, तृण, सूर्य सब शामिल हैं. प्रत्येक पदार्थ विराटमय है और उसकी उपासना मूर्ति पूजा नहीं वरन् ईश्वरोपासना है. जब कोई वस्तु उत्पन्न करना चाहता है तो पहले हिरण्यगर्भ में संकल्प उठता है. वहाँ से उसका प्रभाव विराट के कपाल में, जो ईश्वर का मस्तिष्क है, होता है और जिस वस्तु की इच्छा होती है उसकी कल्पना होती है कि इस समय ये वनस्पतियाँ या वे वृक्ष उत्पन्न होने चाहिए और फिर नक्षत्रों के द्वारा उसका प्रभाव पृथ्वी रूपी पट्टी पर पहुँचता है और लेखनी अथवा चार तत्वों से सूर्य द्वारा उसकी उत्पत्ति बाह्य में होती है और वस्तु उत्पन्न हो जाती है. शब्द सामर्थ्य वस्तुतः अर्थ से बना है. अतः भगवत् ज्ञान जब किसी क्रिया को मनुष्य के हितार्थ बतलाता है तथा उसके बाद मानुषी संकल्प को उठाता है और फिर मानुषी प्रकृति द्वारा उसे पूर्ण करता है तो उसे सामर्थ्य बोलते हैं. क्योंकि मानुषी संकलप द्वारा अर्थ अनर्थ की कल्पना के बाद उसकी (क्रिया) उत्पत्ति और पूर्ति होती है, परंतु जहां संकल्प के केवल हिरण्यगर्भ या अविद्या में होने से मानुषी अंतःकरण के साधन बिना क्रिया की उत्पत्ति व पूर्ति होती है वहाँ शब्द सामर्थ्य नहीं बोला जाता है. उदाहरण के लिए स्वप्नावस्था में स्वप्न संसार का कारण भगवत् ज्ञान है, किंतु उसका प्रादुर्भाव चूँकि मानुषी संकल्प द्वारा और अर्थ अनर्थ के विवेक से नहीं होता इसलिए उसे सामर्थ्य के बाहर समझा जाता है. वास्तव में स्वप्न संसार का संकल्प भगवत् ज्ञान में ही होता है. सिर्फ़ मुस्लिम का मोहम्मद पे इजारा* तो नहीं ~कुंवर महेंद्र सिंह बेदी *अधिकार हज़रत सुल्तान बहू का नग़मा है... अलिफ़-अल्ला चम्बे दी बूटी, मुरशद मन विच लाई हू । नफी असबात दा पानी मिल्या, हर रगे हर जाई हू, अल्लाह हू, अल्लाह हू, अन्दर बूटी मुश्क मचाया, जां फुल्लन ते आई हू, जीवे मुरशद कामिल बाहू, जैं इह बूटी लाई हू । अल्लाह हू, अल्लाह हू, बग़दाद शहर दी की निशानी, उच्चियाँ लम्मियाँ चीड़ां हू, तन मन मेरा पुरज़े पुरज़े, ज्यों दरज़ी दियां लीरां हू, अल्लाह हू, अल्लाह हू, लीरां दी गल कफनी पा के, रलसां संग फ़कीरां हू । शहर बग़दाद दे टुकड़े मंगसां बाहू, करसां मीरां मीरां हू, पढ़ पढ़ इल्म ते हाफ़िज होइओ, ना गिया हिजाबों परदा हू, पढ़ पढ़ आलिम फाज़िल होइओं, अजे भी तालिब ज़र दा हू, कई हज़ार किताबां पढियां, अजे नफ़्स ना मरदा हू, बाज फ़कीरा किसे ना मारिया, ज़ालिम चोर अंदर दा हू, अल्लाह हू, अल्लाह हू, My Master Has Planted in My Heart the Jasmine of Allah’s Name. Both My Denial That the Creation is Real and My Embracing of God,  the Only Reality, Have Nourished the Seedling Down to its Core. -When the Buds of Mystery Unfolded Into the Blossoms of Revelation,  My Entire Being Was Filled with God’s Fragrance. -May the Perfect Master Who Planted this Jasmine in My Heart Be Ever Blessed, O Bahu! Were my whole body festooned with eyes, I would gaze at my Master with untiring zeal. O, how I wish that every pore of my body, Would turn into a million eyes – Then, as some closed to blink, others would open to see! But even then my thirst to see him, Might remain unquestioned. What else am I to do? To me, O Bahu, a glimpse of my Master, Is worth millions of pilgrimages to the holy Ka’ba! Believers pray to God for the protection of faith, But few pray for the gift of his love. I am ashamed at what they ask for, Even more at what they are willing to yield. Religion is quite unaware of the spiritual plane, To which love can raise us. O Lord, keep my love for you ever fresh, Says Bahu: I shall mortgage my religion for it. १३/४/२२ कबीरा कुआं एक है और पानी भरें अनेक भांडे ही में भेद है, पानी सबमें एक ।। भला हुआ मोरी गगरी फूटी, मैं पनियां भरन से छूटी मोरे सिर से टली बला… ।। भला हुआ मोरी माला टूटी, मैं तो राम भजन से छूटी मोरे सिर से टली बला… ।। माला कहे है है काठ की ,कबीरा तू का फेरत मोहे मन का मनका फेर दे तो तुरत मिला दूँ तोहे भला हुआ मोरी माला टूटी मैं तो राम भजन से छूटी मोरे सिर से टली बला… ।। माला जपु न कर जपूं और मुख से कहूँ न राम राम हमारा हमें जपे रे कबीरा हम पायों विश्राम मोरे सिर से टली बला… ।। कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय। ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय॥ कबीरा बहरा हुआ खुदाय हद हद करते सब गए बेहद गयो न कोई अरे अनहद के मैदान में कबीरा रहा कबीरा सोये हद हद जपे सो औलिये, बेहद जपे सो पीर हद(बौंडर) अनहद दोनों जपे सो वाको नाम फ़कीर कबीरा वाको नाम फ़कीर…. दुनिया कितनी बाबरी जो पत्थर पूजन जाए घर की जाकी कोई न पूजे कबीरा जका पीसा खाए चाकी चाकी….. चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोए,दो पाटन के बीच यार साबुत बचा ना कोए ।। चाकी चाकी सब कहें और कीली कहे ना कोए,जो कीली से लाग रहे, बाका बाल ना बीका होए ।। हर मरैं तो हम मरैं, और हमरी मरी बलाए साचैं उनका बालका कबीरा, मरै ना मारा जाए । माटी कहे कुम्हार से तू का रोधत मोए एक दिन ऐसा आयेगा कि मैं रौंदूगी तोय ।। १४/४/२२ प्यारी रचना है, जिसकी भी हो... तोरी हर एक अदा को मैं जान गयी ना रूप बदला तो क्या पहचान गयी ना। मूसा को तो बेहोश किया तूर पे जाकर मंसूर को मस्ताना किया जाम पिलाकर दीवाना किया क़ैस को लैला में समाकर फिर खुद ही बिके मिस्र के बाज़ार में आकर कुछ भेद नहीं खुलता कि तुम कौन हो, क्या हो आप ही भट्टी आप ही मडघर आप ही होत कलाला आपहि पीवे आप पिलावे आप फिरे मतवाला अपनी गोदी आपहि खेले बनकर मोहन लाला वो तो काली कमलिया थे ओढ़े हुए रूप बदला तो क्या पहचान गयी ना तोरी हर एक अदा को मैं जान गयी ना। अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयं। शेषा स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।। महाभारत वनपर्व 313-116 इस संसार मे प्रतिदिन असंख्य जीव यमराज के लोक में जाते है, फिर भी जो बचे रहते हैं, वे यहां पर स्थायी पद की आकांक्षा करते हैं। भला इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है! 15/4/22 न तदस्ति न यत्सत्यं न तदस्ति न यंमृषा। यद्यथा येन निर्णीतं तत्तथा तं प्रति स्थितं।। There is nothing that is not true. There is also nothing that is not untrue. Whoever decides in whatever way, it will be like that for him. १६/४/२२ हनुमान वायु पुत्र हैं. मान का हन् करने पर वायु जब राम चेतना को उपलब्ध होती है, तब हनुमान हुआ जाता है. हनुमान ज्ञान गुण सागर हैं, अतुलित बल धाम हैं, हेम शैल की आभा युक्त देह हैं, दनुज वन कृशानु हैं, वानरों के अधीश हैं. ऐसे भगवान राम के प्रिय भक्त हनुमान को हम सब नमन करते हैं... मंसूर और मुझमें कुछ फ़र्क़ है तो इतना वो कह उठा कि मैं हूँ कहता हूँ मैं कि तू है... भीका बात अगम्म कि कहन सुनन की नाय. जाने है सो कहे नहीं कहे सो जाने नाय.. साजन हम तुम एक हैं बस कहन सुनन को दो. मन से मन को तोलिए सो दो मन कभउं न हो. दो नैन तेरे दो नैन मेरे जब मिले तो मिल के चार हुए ये अपनी अपनी क़िस्मत है दो जीत गए दो हार गए इस शर्त पे खेलूँगी मैं बाज़ी जीतूँ तो पिया मेरा हारूँ तो पिया की. खुसरो दरिया प्रेम का उल्टी बा की धार. जो उतरा सो डूब गया जो डूबा सो पार.. खुलता किसी पे क्यों मेरे दिल का मुआमला शेरों के इंतिखाब ने रुसवा किया मुझे. सौ बार ले गई मुझे बाज़ार मुफ़लिसी हर बार मैंने अपना अक़ीदा बचा लिया. मैंने पड़ी थी अपनी हिफ़ाज़त के वास्ते नादे अली ने सारा इलाका बचा लिया. दूसरों को बेवक़ूफ़ समझने और बनाने वाले कितने निरीह व्यक्ति होते हैं. १९/४/२२ अब आदमी कुछ और हमारी नज़र में है जब से सुना है यार लिबासे बशर में है. तुझे दर दर भटकने की बता दे क्या ज़रूरत है वही दरबार काफ़ी है निज़ामुद्दीन चिशती का. आँखों आँखों में कह दिया सब कुछ कानों कान एक को ख़बर न हुयी प्रीत करे तो ऐसी कि जैसे लम्बे खजूर चढ़े तो चाखे प्रेम रस गिरे तो चकनाचूर. उल्टी ही चाल चलते हैं दीवान गाने इश्क़ आँखों को बंद करते हैं दीदार के लिए. ये यार इशक़ दी बाज़ी है घर फूंक तमाशा देखे जा. प्रीत करे तो ऐसी करे कि जैसे करे कपास जीते-जी तो संग रहे और मरे न छोड़े साथ हद हद कर के सब गए और बेहद गया न कोय अनहद के मैदान में सो रहा 'कबीर' सोय घर नारी कँवारी चाहे जो कहे मैं निजाम से नैनाँ लगा आई रे सोहनी सूरत मोहिनि मूरत मैं तो हृदय बीच समा आई रे 'ख़ुसरव' 'निजाम' के बल-बल जइए मैं तो अनमोल चेरी कहा आई रे हर तरफ़ यार का तमाशा हैउस के दीदार का तमाशा है २२/४/२२ स यथा दुंदुभेः हन्यमानस्य न बाह्यांछब्दांछक्नुयाद् ग्रहणाय दुंदुभेस्तु ग्रहणेन दुंदुभ्याघातस्य वा शब्दोगृहीतः. स यथा शंखस्यध्मायमानस्य न बाह्यांछब्दांछक्नुयाद् ग्रहणाय शंखास्य तु ग्रहणेन शंखध्मस्य वा शब्दो ग्रहीतः. स यथा वीणायै वाद्यमानायै बाह्यांछब्दांछक्नुयाद् ग्रहणाय वीणायै तु ग्रहणेन वीणावादस्य वा शब्दो ग्रहीतः(वृह० उप० ४-५/८-१० एवं २-४/७-९) जैसे नगाड़ा या धौंसा जब पीटा जाता है तो उसके बाह्य शब्द पकड़े नहीं जा सकते, पर नगाड़े अथवा नगाड़े के पीटने वाले को पकड़ लेने से नगाड़े के शब्द पकड़े जाते हैं. जैसे शंख जब बजाया जाता है तो उसके बाहर के शब्द पकड़े नहीं जा सकते, पर शंख या शंख बजाने वाले को पकड़ने से शंख के शब्द पकड़े जाते हैं और जैसे वीणा जब बजाई जा रही हो तो वीणा के बाह्य शब्द पकड़े नहीं जा सकते, पर वीणा अथवा बजाने वाले को पकड़ने से वीणा के शब्द पकड़े जाते हैं. as one is not able to grasp by themselves the particular notes of a drum that is being beaten, but it is only grasping the general note of the drum, or the general effect of particular strokes on it, that those notes are grasped. [as the particular notes of a drum, conch or lute have no separate existence from the general notes of those instruments, so the particular knowledge of the existing universe in the waking and dream states has no validity of its own apart from the Intelligence (Brahman) which pervades it.] २३/४/२२ हरिनाम किसको कहते हैं एवं इसका अर्थ क्या है ? कर्णशुद्धि 'हरे कृष्ण ' इत्यादि सोलह नाम बत्तीस अक्षरों के द्वारा दस से बारह वर्ष की अवस्था के बीच अवश्य ही सम्पन्न करनी चाहिए । इसके बिना महाविद्या सिद्ध नहीं होती । कहना न होगा ,इस हरिनाम के ऋषि एवं देवता त्रिपुरा हैं । द्विज मुख से , दाहिने कान में नाम ग्रहण करना होता है । पहले छंद अर्थात गायत्री छंद ग्रहण करके बाद में नाम ग्रहण करना विधि है । कर्ण को अशुद्ध रखते हुए उसी अशुद्ध कर्ण में महाविद्या का श्रवण व ग्रहण करने से प्रत्यवाय होता है । षोडश वर्ष की आयु में महाविद्या का ग्रहण करना आवश्यक होता है । इसके बाद ही कुल रहस्य जाना जाता है । क्योंकि रहस्यहीन होकर मंत्र जपने से कोई फल प्राप्त नहीं होता । हरिनाम का रहस्य यह है -- 'ह ' = शिव , 'र ' = शक्ति ---त्रिपुरा = ( दश महाविद्यामयी ) ' ए ' = योनि । 'क ' = काम ,'ऋ ' = परमा शक्ति , दोनों मिलकर 'कृ ' = कामकला , 'ष ' = षोडश कलात्मक चन्द्र , ' ण ' = निर्वृति या आनन्द । सबका साकल्य होने पर -- त्रिपुर सुंदरी । सोलह वर्ष की आयु में जो दीक्षा लाभ होता है ,उसका नाम ज्येष्ठा दीक्षा है । दीक्षा ग्रहण किये बिना नाम जप करने से वह पशु- कर्म के रूप में गिना जाता है । इसके पश्चात -भगवती त्रिपुरा अपनी कण्ठस्थित माला उसे अर्पण करती हैं । ये मालायें साक्षात् आम्नाय स्वरूपा हैं । ये मणिमाला के रूप से ही विख्यात हैं । चार मालाओं के नाम हैं --हस्तिनी , चित्रिणी , गन्धिनी व पद्मिनी । ये मालायें पचास मातृका- रूपा अक्षमाला के नाम से परिचित हैं । तात्विक दृष्टि से इस माला में ही समस्त जगत का सम्पूर्ण ज्ञान निहित है । इस कारण इस माला को कोई कोई आत्मा की माला कहते हैं । 51 महापीठ इनके ही नामान्तर हैं । ये मालायें अपूर्व ढंग से गठित हैं । कामतत्व से भिन्न और किसी सूत्र द्वारा इसे नहीं गूँथा जा सकता । जगत की सृष्टि व संहार के मूल में ये पचास पीठ स्वरूप वर्तमान हैं । भगवती त्रिपुरा यह अपूर्व माला वासुदेव को अर्पण करती हैं ,जिसके प्रभाव से वासुदेव पूर्णत्वलाभ करने में समर्थ होते हैं । चारों मालाओं का स्वरूप व वर्ण इसप्रकार का है -- हस्तिनी --यह शुक्लवर्णा है , भगवान की दूती स्वरूपा है । चित्रिणी -- यह पीतवर्णा है । यह विचित्र स्वरूप वाले समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर स्थित है । गन्धिनी --यह कृष्णवर्णा है । यह भी ब्रह्माण्ड व्यापक है । पद्मिनी -- वा रंगिनी रक्तवर्णा है यह सर्वदा ही कामकला के साथ युक्त रहती है । भावराज्य व लीला रहस्य श्रीकृष्ण प्रसङ्ग पृष्ठ 147 पंडित गोपीनाथ कविराज २४/४/२२ सना बशर के लिए बशर सना के लिए तमाम हम्द साज़वार है ख़ुदा के लिए अता के सामने या रब खता का ज़िक्र है क्या तू अता के लिए है बशर खता के लिए.. २५/४/२२ यार मनवा कमाले रानाई (सुंदरता) ख़ुद तमाशा ओ खुद तमाशाई. जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ मैं नहीं हूँ मैं नहीं हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. जलवा दिखा के यार ने दीवाना कर दिया. खुद शम्मा बन गए हमे परवाना कर दिया. ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ मैं नहीं हूँ मैं कहाँ हूँ तू ही तू है सब तेरा अंदाज़ है जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ जिसे देखो वो आमादा है घर का घर लुटाने पर जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ ये ना पूछो कैसे दीवाने बने आपने चाहा तो मस्ताने बने हैं जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ . मीरा ने जहर का प्याला पीके कहा ये उसकी शान है ये मैं नहीं हूँ जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ कहा मंसूर ने सूली पे चढ़ के अनहलक़ की सदा है मैं नहीं हूँ जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ मेरी आँखों की पुतली में तो देखो - वही जलवा नुमा है मैं नहीं हूँ जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ आँखों में तेरे कोई करिश्मा जरुर है तुझे देख ले जो वो तडफता जरुर है जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ तुम्हारी नजरे करम जिस पर आम हो जाए ज़माने भर में वो आलीम का हो जाए गुलाम जिस को तुम बना लो अपना उस गुलाम की दुनिया गुलाम हो जाए ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. किसी परदे का पर्दा हूँ किसी जलवे का जलवा हूँ मुझे दुनिया से क्या मतलब मैं अपनी आप दुनिया हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. वो खिड़की खोल के देखे है मेरी तरफ उसकी नजर मेरी तरफ मेरी नजर उसकी तरफ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. मेरी आखों में जन्नत है मैं उसकी आँखों का नूर हूँ - वो नूर का पर्दा है तो मैं तस्वीरे नूर हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. कोई परदे को यूँ सरका गया है - खुद को देखने खुद आ गया है - निगाहों से कोई उतरा है दिल में तड़फ करके मुझे तडफा गया है तेरे परदे के अंदर कोई आकर तमाशा कर रहा है मैं नहीं हूँ *-- ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. ये तेरी जलवागरी दुनिया तो खामोश है - आँख बंद थी तेरे दीदार मैं इतना तो मुझ को होश है उठा के शीशे को जो मैंने देखा ये कोई और है ये मैं नहीं हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. ये बुतख़ाने में जाके बोले बेदम यहाँ नक़्शा मेरा है मैं नहीं हूँ. ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ जो मैं होता खता मुझसे भी होती मुझे खटका ही क्या मैं नहीं हूँ जो मुझ में बोलता है मैं नहीं हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ मैं नहीं हूँ या नबी (ईश्वर का गुणगान करने वाला) आपके जलवों में वो रानाई है. देखने पर भी मेरी आँख तमन्नाई है. ज़िंदगी ख़ुद ही इबादत है मगर होश नहीं. साहिबे होश यही है कि होश नही होश नहीं २६/४/२२ यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति । दूरंगं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। अन्वय यत् जाग्रतः दूरं उदैति सुप्तस्य तथा एव एति तत् दूरं गमं ज्योतिषां ज्योतिः एकं दैवं तत् में मनः शिवसंकल्पं अस्तु । सरल भावार्थ हे परमात्मा ! जागृत अवस्था में जो मन दूर दूर तक चला जाता है और सुप्तावस्था में भी दूर दूर तक चला जाता है, वही मन इन्द्रियों रुपी ज्योतियों की एक मात्र ज्योति है अर्थात् इन्द्रियों को प्रकाशित करने वाली एक ज्योति है अथवा जो मन इन्द्रियों का प्रकाशक है, ऐसा हमारा मन शुभ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो ! क्या जाग्रत, क्या स्वप्न, क्या सुषुप्ति तीनों दशाओं में मेरा मन किसी और विचार की तरफ़ न जाने पाए, सिवाय शिवरूप आत्मचिंतन के. चलते फिरते बैठते खड़े मेरा मन शिव रूप सत्यरूप आत्मा के सिवा और कोई चिंतन न करने पाए. स्वामी रामतीर्थ ३०/४/२२ आज ध्यान से उठने वाले थे कि आश्रम में गुरुदेव की जो ऑल्टर या वेदी होती है, उसमें जो नीली रोशनी चमकती है, वह दिखी, फिर इस पद की पंक्तियाँ याद आयीं या पद शायद पहले याद आया, बाद में प्रकाश दर्शन हुआ. यह क्रम ध्यान नहीं है. पायो जी मैंने राम रतन धन पायो | वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु | कृपा कर अपनायो || जन्म जन्म की पूंजी पाई | जग में सबी खुबायो || खर्च ना खूटे, चोर ना लूटे | दिन दिन बढ़त सवायो || सत की नाव खेवटिया सतगुरु | भवसागर तरवयो || मीरा के प्रभु गिरिधर नगर | हर्ष हर्ष जस गायो ||🙏 आदि शंकराचार्य कहते हैं- एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयतां, पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्वाधितं दृश्यताम्। प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरैः श्लिश्यतां, प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम्॥ भावार्थ : एकांत के सुख का सेवन करें, परब्रह्म में चित्त को लगायें, परब्रह्म की खोज करें, इस विश्व को उससे व्याप्त देखें, पूर्व कर्मों का नाश करें, मानसिक बल से भविष्य में आने वाले कर्मों का आलिंगन करें, प्रारब्ध का यहाँ ही भोग करके परब्रह्म में स्थित हो जाएँ। 304/2020 की फ़ेसबुक पोस्ट लॉक डाउन के समय का उपयोग हमने भागवत सप्ताह पाठ में भी किया। नित्य 6-8 घंटे दो बार में बैठकर आज सम्पन्न हुआ। उसमें से एक श्लोक... एकोयनोsसौ द्विफलस्त्रिमूलश्चतूरसः पंचविधः षडात्मा। सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः। भागवत 10/2/27 यह संसार क्या है, एक सनातन वृक्ष। इस वृक्ष का आश्रय है- एक प्रकृति। इसके दो फल हैं- सुख और दुःख; तीन जड़ें हैं-सत्व, रज और तम; चार रस हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसके जानने के पांच प्रकार हैं-श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका। इसके छः स्वभाव हैं- पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना। इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएं- रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र। आठ शाखाएं हैं- पांच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार। इसमें मुख आदि नौ द्वार खोडर यानि गड्ढे हैं। प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय- ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं। इस संसार रूप वृक्ष पर दो पक्षी हैं- जीव और ईश्वर। २६/४/२०२० की फ़ेसबुक पोस्ट अब मुण्डकोपनिषद का वह प्रसिद्ध श्लोक देखें द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।। दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, घनिष्ठ सखा, समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को देखता है।