Monday, May 1, 2023
अप्रैल २०२३
2/4/23
वास्तव में देवलोक , ऋषिलोक और पितृलोक
-- सब की प्रसवकारिणी माँ हैं ।
सुतरां , विश्व में मातृद्वार का सहारा लेकर ही प्रवेश करना पड़ता है । विश्व से विदा होने के समय सारा कुछ विश्व को वापस करके जाना होता है । किंतु ,इस मातृ संस्पर्श ,अर्थात काया लाभ के फलस्वरूप जीव जो कर्मशक्ति प्राप्त करता है तथा परावस्था में ज्ञान प्राप्त करके देह के अंत होने पर विश्वातीत सत्ता से युक्त होता है ,उसका प्रतिदान देने के लिए उसके पास कुछ नहीं होता । वहाँ से जो पाया जाता है , उसे लौटा देने से ही उसके प्रकृत ऋण का शोध नहीं होता । वास्तविक रूप में ऋण चुकाना हो, तो स्वयं को जो मिलता है ,अपने सभी लोगों को उसका भागी बनाना पड़ता है ।ब्रह्मप्राप्ति के बाद यदि मायिक जगत् को ब्रह्मरूप में बदलना सम्भव होता, तो कहा जा सकता कि ऋण शोध हुआ । लेकिन सृष्टिकाल से आजतक ऐसा नहीं हुआ । जिसने जो लिया है ,उसने वह लौटा दिया है ,बढ़ाकर वह नहीं दे सका है ।साधारण योगी ,साधक एवं ऋषि -मुनि आदि कोई भी आजतक माँ के अभाव को दूर नहीं कर सके ।
माँ सन्तान को पाल -पोसकर ,काम के योग्य बनाकर और ज्ञान देकर गठन करती हैं । माँ के द्वारा गठित होकर सन्तान अपना बोध जैसे ही प्राप्त करती है ,वह माँ को छोड़कर जाने को विवश होती है । जबतक वह माँ की गोद में रहती है , तबतक वह अपने को नहीं पहचानती ।
और उसे यों कहें ,जबतक वह अपने को पहचानती है ,तब माँ ही नहीं होती ,माँ की गोद भी नहीं होती । ब्रह्म और माया विरुद्ध हैं ,इसलिए उनका समन्वय नहीं होता । साधन पथ से ब्रह्म तक नहीं जाया जा सकता ।साधक जिन्हें ब्रह्म समझते हैं ,वह वास्तव में ब्रह्म नहीं । उसे जीव का ब्रह्म कहें ,तो कह सकते हैं ;
पर वह प्रकृत ब्रह्म नहीं । कर्मी होने से योगी देहांत में ब्रह्मस्वरूप में स्थिति -लाभ करते हैं ,किन्तु उससे पहले उन्हें माया या महामाया के राज्य को त्याग करना पड़ता है ।
इसलिए माया और महामाया संतान की समृद्धि का पूर्ण फल नहीं पातीं और ब्रह्म में भी माया की सृष्टि के किसी आभास की क्षीण रेखा भी नहीं रहती । किन्तु ,दर्पी योगी इस अघटन को घटित कर सकते हैं । ये माँ की कृतज्ञ सन्तान हैं । ये अपने कर्म पूर्ण करके मातृभाव में प्रतिष्ठित होकर उद्वृत्त भाव से आत्मकर्म के प्रभाव द्वारा ब्रह्म-अवस्था प्राप्त करते हैं ,इसलिए ब्रह्म और माया का व्यवधान जाता रहता है । उन्हें माया त्याग करके ब्रह्म नहीं होना पड़ता , तथाकथित वैराग्य या सन्यास ग्रहण नहीं करना पड़ता । माया की गोद में बैठकर ही वह मायातीत ब्रह्मस्वरूप में स्थिति लाभ करते हैं । फलस्वरूप ,माया तब माया नहीं रह जाती । ब्रह्म भी तब सुदूर भावातीत अव्यक्त सत्तामात्र -रूप में नहीं रहते । निज स्वरूप में दोनों का नित्ययोग प्रतिष्ठित होता है । वास्तव में ,तब माया भी नहीं और ब्रह्म भी नहीं ।अर्थात माँ नहीं और गुरु भी नहीं ,किन्तु दोनों ही अपने में अभिन्न भाव से हैं । यही वास्तविक आत्मस्वरूप में स्थिति है , जिसमें कुछ भी त्याग या कुछ भी ग्रहण नहीं करना पड़ता । अथवा , नहीं होते हुए भी सब है औऱ रहते हुए भी कुछ नहीं है । योगी उस समय अभेद में माँ को निखार लेते हैं औऱ माँ ही ब्रह्म हैं , इस महासत्य को धारण कर माँ की प्रकृत मर्यादा को बढ़ाते हैं ।
साधक और योगी
अखण्डमहायोग का पथ और मृत्यु विज्ञान पृष्ठ 30
3/3/1949
पहले मातृऋण चुकाने का प्रसङ्ग आया है । मातृऋण है क्या और वह कैसे चुकाया जाता है , और साधारणतया लोग माँ का ऋण क्यों नहीं चुका सकते ? इस प्रकार के प्रश्नों के सम्बन्ध में दो चार बातें बताई जा रही हैं । साधारणतया जीव तीन प्रकार के ऋण का भार लेकर जन्म ग्रहण करता है ,इस बात को हिन्दू समाज में सब लोग जानते हैं । इन तीन ऋणों के नाम हैं : ऋषि ऋण , पितृ ऋण और देव ऋण । ऋणी रहते हुए कोई मुक्ति नहीं पा सकता । मुक्तिलाभ के लिए ऋणशोध आवश्यक है । इसीलिए शास्त्र में कहा गया है : 'ऋणणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत् । ' इन्ही तीन ऋणों को चुकाने के लिए हिन्दू समाज में तीन आश्रमों की परिकल्पना की गई थी ।
ब्रह्मचर्याश्रम में विद्या विद्या -अर्जन पूर्वक एवं विद्या -प्रवचन के द्वारा ऋषि ऋण चुकाया जाता था । गृहस्थ आश्रम में सन्तान उत्पन्न करके पितृऋण चुकाना होता था । वानप्रस्थ आश्रम में यज्ञ आदि क्रियाओं के द्वारा देवऋण चुकाने की व्यवस्था थी ।
भौतिक सत्ता ,कारण सत्ता और विज्ञान सत्ता --इन तीन प्रकार की सत्ता को लेकर मनुष्य जन्म ग्रहण करता है । समष्टि देह से जब व्यष्टि देह उत्पन्न होती है ,तब व्यष्टि देह में प्रत्येक विभाग की रचना के लिए समष्टि से उपादान संग्रह करना पड़ता है । ऋषियों के सानिध्य में आध्यात्मिक सम्पद् अथवा ज्ञान की प्राप्ति होती है । पितरों से आधिभौतिक सम्पद् अथवा देह की प्राप्ति होती है तथा देवगण आधिदैविक सम्पद् अथवा आभ्यन्तर -ब्राह्य सभी इन्द्रियों की प्राप्ति होती है । इन्हीं सबसे मनुष्य का ब्राह्य जगत् में आत्म परिचय है । मनुष्य देह भाँति विश्व भी त्रिविध उपादानों से निर्मित है । मोक्ष प्राप्त करने के लिए , अर्थात विश्व से बाहर जाने के लिए इन तीन प्रकार की सम्पदाओं में कुछ भी अपने साथ नहीं ले जाया जा सकता ।जो जहाँ की वस्तु है ,उसे वहीं रख आना होता है ।
तन्तु रक्षा ही ऋण शोध का वास्तविक तात्पर्य है । पहली अवस्था में ज्ञान की धारा की रक्षा ,दूसरी अवस्था में भौतिक सत्ता की धारा की रक्षा और तीसरी अवस्था में दिव्य शक्ति समूह की धारा की रक्षा अवश्य कर्तव्य है । इस प्रकार से विश्व के प्रवाह और मर्यादा को अक्षुण्ण रखकर व्यक्ति विशेष को विश्व से अवकाश ग्रहण करना होता है । इसके बिना अव्याहृति नहीं पाई जा सकती । इस प्रसङ्ग में मातृऋण का कहीं उल्लेख नहीं है ।
साधक और योगी ( ग ) पृष्ठ 30
अखण्डमहायोग का पथ और मृत्यु विज्ञान
3/4/23
श्लोक 10.88.8
श्रीभगवानुवाच
यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनै: ।
ततोऽधनं त्यजन्त्यस्य स्वजना दु:खदु:खितम् ॥ ८ ॥
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच—भगवान् ने कहा; यस्य—जिस पर; अहम्—मैं; अनुगृह्णामि—अनुग्रह करता हूँ; हरिष्ये—हरण कर लेता हूँ; तत्—उसका; धनम्—धन; शनै:—धीरे धीरे; तत:—तब; अधनम्—निर्धन; त्यजन्ति—छोड़ देते हैं; अस्य—उसके; स्व जना:—सम्बन्धी तथा मित्र; दु:ख-दु:खितम्—एक के बाद, एक दुख से दुखी ।.
अनुवाद
play_arrowpause भगवान् ने कहा : यदि मैं किसी पर विशेष रूप से कृपा करता हू ँ, तो मैं धीरे धीरे उसे उसके धन से वंचित करता जाता हूँ। तब ऐसे निर्धन व्यक्ति के स्वजन तथा मित्र उसका परित्याग कर देते हैं। इस प्रकार वह कष्ट पर कष्ट सहता है
श्लोक 10.88.9
स यदा वितथोद्योगो निर्विण्ण: स्याद् धनेहया ।
मत्परै: कृतमैत्रस्य करिष्ये मदनुग्रहम् ॥ ९ ॥
शब्दार्थ
स:—वह; यदा—जब; वितथ—व्यर्थ; उद्योग:—प्रयास; निर्विण्ण:—विफल; स्यात्—हो जाता है; धन—धन के लिए; ईहया—अपने प्रयास से; मत्—मेरे; परै:—भक्तों के साथ; कृत—बनाने वाले के लिए; मैत्रस्य—मित्रता; करिष्ये— दिखलाऊँगा; मत्—मेरी; अनुग्रहम्—कृपा ।.
अनुवाद
play_arrowpause जब वह धन कमाने के अपने प्रयासों में विफल होकर मेरे भक्तों को अपना मित्र बनाता है, तो मैं उस पर विशेष अनुग्रह प्रदर्शित करता हूँ
श्लोक 10.88.10
तद् ब्रह्म परमं सूक्ष्मं चिन्मात्रं सदनन्तकम् ।
विज्ञायात्मतया धीर: संसारात्परिमुच्यते ॥ १० ॥
शब्दार्थ
तत्—वह; ब्रह्म—निर्विशेष ब्रह्म; परमम्—परम; सूक्ष्मम्—सूक्ष्म; चित्—आत्मा; मात्रम्—शुद्ध; सत्—नित्य जगत; अनन्तकम्—अन्तहीन; विज्ञाय—भलीभाँति जान कर; आत्मतया—अपने ही आत्मा के रूप में; धीर:—धीर; संसारात्— भौतिक जीवन से; परिमुच्यते—छूट जाता है ।.
अनुवाद
play_arrowpause इस तरह धीर बना हुआ व्यक्ति ब्रह्म को, जो आत्मा की सर्वाधिक सूक्ष्म तथा पूर्ण अभिव्यक्ति से एवं अन्तहीन जगत से परे है, सर्वोच्च सत्य के रूप में पूरी तरह से अनुभव करता है। इस तरह यह अनुभव करते हुए कि परम सत्य उसके अपने अस्तित्व का आधार है, वह भौतिक जीवन के चक्र से मुक्त हो जाता है
तं भ्रंशयामिसंपद्यो यश्चेच्छाम्यनुग्रहम्!
मैं जिस पर कृपा करता हूँ उसका संसार छीन लेता हूँ। भागवत
४/४/२३
श्वान का अर्थ कुत्ता है, पर इसका अर्थ स्रोत क्या हो सकता है। श्व का अर्थ कल होता, इससे स्रोत पर नहीं पहुँच पाते। श्वपाक का अर्थ चांडाल से भी ज्ञातव्य नहीं। शुनि से श्वान हुआ। शूनी अंतःप्रेरणा को कहते हैं। सरमा स्वर्ग की एक कुतिया हुई है। जो प्रकाश या गौओं को खोजने में इंद्र और अग्नि या देवताओं की सहायक रही है। सरमा सरस्वती की भाँति एक देवी है, जिसका वेदों में खूब वर्णन आया है, सरस्वती और इला के साथ।
कुत्ता एक अंतर्ज्ञान प्राप्त जीव है। श्वान उसे इस अर्थ के कारण कहा गया प्रतीत होता है।
वेद व्यास, बुद्ध, गुरुनानक, रैदास इत्यादि कितने महापुरुष अलग-अलग महीनों की पूर्णिमा के दिन बोध प्राप्त किए थे, वर्धमान महावीर अकेले हैं जो अमावस्या के दिन साक्षात्कार पाये दीपावली के दिन। महावीर स्वामी की विलक्षणता यह भी है कि उन्हें ध्यान लगाने के लिए बैठना नहीं पड़ा, खड़े-खड़े ही ध्यानस्थ होकर अर्हत हो गए। उन्हें शरीर ढंकने की आवश्यकता भी नहीं लगी, कितने मामलों में अनोखे हैं महावीर स्वामी, जयंती पर शुभकामनाएँ....
५/४/२३
कबीर के पद बरसे कंबल भीजे पानी का अर्थ लगाते हैं कि संस्कार कंबल है और भक्ति पानी अथवा मन कंबल है, संस्कारों का प्रभाव मन पर होता है, उनके आलोड़न के बीच अगर भक्ति की धारा बह रही हो तो व्यक्ति उसके आनंद में भीगता रहता है।
योग के अर्थ में कंबल यहाँ पलकों को लिया जा सकता है। ध्यान करते समय बंद पलको के बीच संस्कारों और चित्त का स्मरण होता रहता है, यदि ध्यान एकनिष्ठ हुआ तो रुलाई छूट जाती है। इन आंसुओं से साधक आनंद में सराबोर हो जाता है। यही बरसे कंबल भीजे पानी है। यह कबीर की अमृतवाणी है। वैसे यह और पहले गोरखनाथ जी ने गाया है...
नाथ बोले अमृतबाणीं।
बरसैगी कंबली भीजैगा पाणीं॥
गाडि पडरवा बाँधिलै खूँटा।
चलै दमामा बाजिलै ऊँटा॥
कउवा की डाली पीपल बासौ।
मूसा के सबद बिलइया नासै॥
चले बटावा थ की बाट।
सोवै डुकरिया ठौरै खाट॥
ढूकिले कूकर भूकिले चोर।
काढै धणीं पुकारै ढोर॥
ऊजड़ खेड़ा नगर मझारी।
तलि गागर ऊपर पणिहारी॥
मगरी परि चूल्हा धुँधाई।
पोवणहारी को रोटी खाइ॥
कामिनी जलै अंगीठी तापै।
बिचि बैसंदर थरहर काँपै॥
एक जु रढिया रढती आई।
बहू बिवाई सासू जाई॥
नगरी कौ पांणी कूवै आवै।
उलटी चर्चा गोरख गावै॥
नाथ अमृतवाणी बोलता है तो कंबल बरसता है और जल भीगता है (जब अनहद शब्द सुनाई देता है तो शरीर अमृतरस बरसाता है जिससे आत्मा आनंदित होती है। कटड़े को गाड़ देते हैं और खूँटे को बाँध देते हैं (माया समाप्त हो जाती है और मन संयमित हो जाता है)। दमामा चलता है और ऊँट बजता है (श्वास चलता रहता है और शरीर में ध्वनि सुनाई देती रहती है)। कौआ डाली बन जाता है और पीपल उस पर बैठता है (काल के स्थान पर परब्रह्म की स्थिति होती है)। चूहे की आवाज़ सुनकर बिल्ली भाग जाती है (मन को ज्ञान होने से कुबुद्धि दूर होती है)। यात्री चलता है परंतु मार्ग थक जाता है। (जीव रूपी यात्री साधना पथ में आगे बढ़ता है और भवसागर रूपी मार्ग समाप्त हो जाता है)। बुढ़िया पर खाट सोती है, (आत्मा) में पंच ज्ञानेद्रियाँ और मन विश्राम लेते हैं। कुत्ता छिपता है और चोर भौंकता है (मन शांत हो जाता है और संसार में शोर चलता रहता है)। मालिक निकलता है और पशु पुकारता है (ईश्वर दूर हो जाता है ओर माया पुकारती रहती है)। नगर है, परंतु उजड़ स्थान बन गया है (शरीर में माया के गुण नहीं रहते, वह उजड़ी बस्ती के समान सूना हो गया है)। गागर नीचे है ओर पनिहारी ऊपर है (सांसारिकता नीचे रह जाती है और आत्मा सहस्रार में ऊपर पहुँच जाती है) लकड़ी पड़ी है, परंतु चूल्हा जल रहा है (माया निष्क्रिय रहती है और चित्त के संस्कार जल जाते हैं)। रोटी पोने वाली को रोटी खा रही है (कुमति को प्रभु का स्मरण खा रहा है)। नारी जल रही है और अंगीठी ताप सेंक रही है (कामनाएँ जल रही है और आत्मा ब्रह्माग्नि का ताप अनुभव कर रही है)। बीच में वैश्वानर थर−थर काँप रही है (इस ब्रह्माग्नि में विकार नष्ट हो रहे हैं)। एक हठी नारी हठ करती आई तो बहू ने सास को जन्म दिया (आत्मा ने जब प्रभु का स्मरण किया तो बुद्धि ने सुरति को जन्म दिया)। नगरी का जल कुएँ में आ रहा है (शरीर सहस्रकमल तक पहुँच गया है।) इस प्रकार गोरख उल्टी चर्चा गा रहा है।
६/४/२३
हनुमान प्राणदेव हैं। प्राणों के भगवान। सभी पाँचों प्राण उनमें पूरी शक्ति के साथ हैं। इसीलिए पंचमुखी हनुमान विग्रह भी खूब मिलते हैं। राम पुरुष और सीता प्रकृति है। हनुमान दोनों के बीच के प्राण रूपी सेतु बनकर उनकी सेवा करते हैं। यह प्राण ब्रह्मांडीय ऊर्जा हैं। राम सीता और हनुमान के संबंध की त्रियुति ही कृष्ण राधा और अर्जुन तथा शिव शक्ति और गणेश के संबंध की त्रियुति है।
७/४/२३
आचार्य विद्यानिवास मिश्र के शब्दों में -"विश्वास का अर्थ स्पष्ट ही है >> साँस लेना । नि:श्वास गहरी साँस लेने को कहते हैं । नि:श्वास में साँस नीचे छोड़ी जाती है , उच्छ्वास का अर्थ है >> साँस का ऊपर को उठना ।उमंग पूर्वक साँस । आश्वास का अर्थ हुआ >>इत्मीनान से साँस । खुली साँस । प्रश्वास का अर्थ है >> साँस का आना-जाना , जीवन प्राण का व्यापार ! विश्वास में वि उपसर्ग विशिष्ट है , विशेष प्रकार की साँस । आत्मबल देने वाली साँस । प्राणों के संबंध के कारण ऐसी प्रतीति ,जिसमें संशय की गुंजायश ही न हो । विश्वास चेतना का व्यापार है । विश्वास का उदाहरण ,जैसे मां के प्रति बालक का विश्वास ! पति और पत्नी का परस्पर विश्वास ।विश्वास की प्रतीति प्राणों के उच्छलन से होती है । यदि प्राणों का उच्छलन न हो तो विश्वास प्राणवान् नहीं है ।""गोस्वामी तुलसी दास ने रामचरितमानस के प्रारंभ में श्रद्धा और विश्वास की परिभाषा कर दी है - भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ । भवानी श्रद्धा हैं और भगवान शिव विश्वास हैं । तुलसी दास ने विश्वास को इतनी बड़ी शक्ति कहा ?
लोकजीवन पर संकट कोई नयी बात नहीं है , लोकजीवन का रथ संकटों में ही आगे बढता रहा है ,उसका यह अमृत-विश्वास कभी विचलित नहीं हुआ कि भगवान स्वयं लोकाराधन करते हैं ,लोक के कष्टों से व्यथित होकर नंगे पैरों दौड पडते हैं ।"ईश्वर की परिभाषा करते हुए गांधी जी कहते थे कि
अपने में अनन्तगुना विश्वास ही ईश्वर है । [हरिजन ३जून १९३९]भारत का सामान्य आदमी निरक्षर जरूर है और अनेक आपदाओं ,संकटों,मानवरचित-विषमताओं से घिरा है,विवश है किन्तु यह पराजित नहीं है क्योंकि इसके पास जीवन का अडिग-विश्वास है -रामभरोसे जे रहें ;परबत पर हरियांइ ।
जब प्राण का उच्छलन न हो सके , यदि चेतना सो जाय तो वही फिर अंधविश्वास बन जायेगा ।विश्वास और अंधविश्वास में बहुत झीना अन्तर है , लेकिन उसके परिणाम में आकाश और पाताल का अन्तर है ।
विश्वास जीवनी-शक्ति है , संकल्प का बल है । अंधविश्वास निर्बलता है ।
अंधविश्वास बांधता है , जबकि विश्वास मुक्त करता है ।
विश्वास में विवेक होता है और अंधविश्वास में विवेचन की शक्ति ही नहीं होती ।
विश्वास अपनी अन्तर्निहित शक्तियों या आत्मशक्ति को जगाता है, अंधविश्वास किसी दूसरे आदमी ,प्राणी या पदार्थ या प्रतीक के प्रति होडा-होडी समर्पण जैसा होता है ।विश्वास जैसे आंख खोल कर आगे चलना और अंधविश्वास जैसे आंख बंद करके किसी का झगला पकड कर चलते रहना ।विश्वास वीर का पराक्रम है जबकि अंधविश्वास कायरता । पाखंड अन्धविश्वासी का शोषण कर लेता है ।
अंधविश्वास का मूल आदिम-मानस में होता है ,इसलिये समाज के ऊपर के तबके के लोग भी अंधविश्वास करते हैं और उनकी देखादेखी नीचे तबके के लोग भी उनको मानने लगते हैं । जैसे शकुन और टोटके हैं -
लोग घर से निकलें और खाली-बर्तन सामने से आजाय या कोई आगे से छींक दे तो लौट आते हैं ,अपशकुन हो गया ।
रति स्पर्श सुख मात्र है, आरति या आरती रति या आनंद में आकंठ निमग्न होना है। इसमें व्यक्ति शब्द स्पर्श रूप रस और गंध को मन बुद्धि और चित्त से एकाकार होकर ग्रहण करता है। यह पूरी रति है, जिसे बाह्य क्रिया में देखा जाता है, पर उसका आनंद उसके स्वरूप से परिचित होकर ही लिया जा सकता है।
१४/४/२३
दान क्या है! दानमात्मज्ञानम्। दान में द का अर्थ प्रकाश है, न का अर्थ सतत प्रवाह है। प्रकाश में सतत प्रवाहमान रहना दान कहलाता है। प्रकाश में प्रवाहित रहने का अर्थ है सदा ज्ञान में डूबे रहना और दूसरों को उसके आनंद से आप्लावित करना। एक सच्चा दानी योगी ही हो सकता है। वास्तविक दान एक योगी द्वारा योग दशा को उपलब्ध करने के लिए योगी को किया जाता है। यह दान की उच्चतम स्थिति है। इसीलिए सूत्र आया है योsविपस्थो ज्ञाहेतुश्च। यो योगीन्द्र, वि विज्ञानम या ज्ञान, प स्थिति का संकेतक है, स्थ का अर्थ उस दशा में ठहरना है। ज्ञ का अर्थ है जो जानता है, यह ज्ञान की ऊर्जा है, हे हेय का अर्थबोधक है, यानि जिसका परित्याग कर दिया जाए, किसका तु यानि तुच्छता का, विसर्ग विसर्गशक्ति का द्योतक है। च का अर्थ यहाँ और नहीं बल्कि वह जो यह करता है। क्या करता है..
प्रोक्त चैतन्य रूपस्य आत्मनो यत् ज्ञानं, साक्षात्कारः, तत् अस्य दानम्, दीयते परिपूर्णं स्वरूपं, दीयते खंड्यते विश्वभेदः दायते शोध्यते मायास्वरूपम्, दीयते रक्ष्यते लब्धः शिवात्मा...
दीयते इति दानम्, आत्मज्ञानमेव अनेन अंतेवासिभ्यो दीयते।
दर्शनात्स्पर्शनाद्वापि वितताद्भव सागरात्।
तारयिष्यंति योगींद्राः कुलाचारप्रतिष्ठताः॥
१९/४/२३
योगदा की प्रार्थना निर्गुण से प्रारंभ होकर सगुण ब्रह्म की उपासना है। इस ब्रह्म का प्राकट्य सबसे पहले किस रूप में चिह्नित हुआ, उसे जानने का क्रम किस प्रकार आगे बढ़ा, किसने किसने उसे समझा। यह प्रार्थना उन सबके प्रति नतमस्तक और तदाकार होकर तादात्म्य स्थापित करती हैं।
२०/४/२३
भाषा मूल की अभिव्यक्ति है, पर यह भी अनुवाद की ही भाँति है। क्योंकि मूल को जितना सटीक जिसने कहा वह उतना वास्तविक लगा, इसलिए भाषा और अनुवाद गौड़ है, उस वास्तविक का उसके मर्म तक पहुँचाने का कथन ही महत्वपूर्ण है, वह चाहे भाषा हो या उसका अनुवाद।
भाषा तो बाज़ार के कार्यों के लिये भी प्रयुक्त होती है, क्या वह तब वैसी महत्व की रह पाएगी!
21/4/23
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥ 18.54
[सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला योगी मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है ॥]
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यह श्लोक ब्रम्हावस्था से परमपद तक समग्र क्रम का संक्षेप में निर्देश है। भेद ज्ञान निवृत्त न होने पर ब्रम्हावस्था में प्रतिष्ठित नहीं हुआ जा सकता। भेदज्ञान माया का कार्य है। माया का अतिक्रम किए बिना परमपद के मार्ग में पदार्पण नहि किया जा सकता। शोक, आकांक्षा, वैषम्य–दर्शन आदि माया के कार्य है। जब तक माया विद्यमान है, तबतक जीव कितने ही आनन्द का उत्तराधिकारी क्यों न हो, किसी भी प्रकार से दुखों से मुक्ति नहीं पा सकता है।
प्रकृति के तीन गुणों का परस्पर नित्य सम्बंध होने के कारण जहाँ सत्त्वगुणों के कार्यों का आनन्द है, वहाँ अल्प मात्रा में रजोगुणों के कार्य दुःख अवश्य देंगे। त्रिगुणों से अतीत न होने तक दुख से मुक्ति पाने की कोई आशा नहीं है। प्राकृतिक वस्तु का अभाव बोध प्राकृतिक राज्य में ही होती है। अप्राकृतिक वस्तु की आकांक्षा प्राकृतिक राज्य से उत्पन्न नहीं होती। जब तक मायभेद करके त्रिगुणातीत ब्रम्हभाव की उपलब्धि नहीं हो जाती, तब तक प्राकृतिक अभाव विद्यमान रहेगा। किन्तु ब्रम्ह प्राप्ति के साथ साथ जब आत्मकाम अवस्था प्राप्त हो जाती है, तब ह्रदय की सारी आकांक्षाएं समाप्त हो जाती है।
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(सनातन साधना की गुप्त धारा)
रमन्ते योगिनोsनंते सत्यानंदे चिदात्मनि।
इति राम-पदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते।। पद्म पुराण शतनाम श्लोक 8
परम् सत्य राम कहलाता है, क्योंकि अध्यात्मवादी आध्यात्मिक अस्तित्व के असीम यथार्थ सुख में रमण करते हैं।
२२/४/२३
पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती ।
यज्ञं वष्टु धियावसुः ||
चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् ।.
यज्ञं दुधे सरस्वती ।|
महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना ।
धियो विश्वा वि राजति ।।ऋग्वेद १/३/१०-१२
सरस्वती सत्य की वह शक्ति है जिसे हम अन्त:प्रेरणा कहते है । सत्यसे आने वाली अन्त:प्रेरणा हमें संपूर्ण मिथ्यात्वसे छुड़ाकर पवित्र कर देती है ( पावका )
भारतीय विचारके अनुसार सब पाप केवल मिथ्यापन ही है।
सरस्वती, अन्त:प्रेरणा, प्रकाशमय समृद्धताओंसे भरपूर हैं ( वाजेभिर्वाजिनीवती ), विचारकी संपत्तिसे ऐश्वर्यवती ( धियावसु:) है। वह यज्ञको धारण करती है, देवके प्रति दी गयी मर्त्य जीवकी क्रियाओंकी हविको धारण करती है, एक तो इस प्रकार कि वह मनुष्यकी चेतनाको जागृत कर देती है (चेतन्ती सुमतीनाम् ), जिससे वह चेतना भावना की समुचित अवस्थाओंको और विचारकी समुचित गतियोंको पा लेती है, जो अवस्थाएँ और गतियां उस 'सत्य' के अनुरूप होती हैं जहांसे सरस्वती अपने प्रकाशोंको उँडेला करती है और दूसरे इस प्रकार कि वह मनुष्य की इस चेतनाके अंदर उन सत्योंके उदय होनेको प्रेरित कर देती है ( चोदयित्री सूनृतानां) जो. सत्य वैदिक ऋषियोंके अनुसार जीवन और सत्ताको असत्य, निर्बलता और सीमा से छुड़ा देते हैं और उसके लिये परम सुखके द्वारोंको खोल देते हैं ।
इस सतत जागरण और प्रेरण (चेतयति) के द्वारा जो 'केतु' (अर्थात् बोधन ) इस एक शब्दमें संगृहीत हैं--जिस 'केतु'को वस्तुओंके मिथ्था मर्त्यदर्शनसे भेद करनेके लिये 'दैव्य-केतु' (दिव्य बोधन ) करके प्राय: कहा गया है,--सरस्वती मनुष्यकी क्रियाशील चेतनाके अंदर बड़ी भारी बाढ़को या महान् गतिको, स्वयं सत्य-चेतनाको ही, ला देती है और इससे वह हमारे सब विचारोंको प्रकाशमान कर देती है।
ऋग्वेद १.१.१ – अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ॥
इस विश्वव्याप्त कर्मकांड में वेद के मंत्र यथोचित कर्म (ऋतम्) के शिक्षक हैं और इसी कारण वेद उसका वर्णन यज्ञ के नाम से करता है।
अग् धातु में संज्ञावाची नि प्रत्यय लगकर बना है। अग् धातु स्वयं होना अर्थ वाली एक मूल धातु अ से बना है, इसके चिह्न अनेक भाषाओं में पाये जाते हैं। ग् शक्ति के भाव को सूचित करता है। इसलिए अग् का अर्थ हैशक्ति के साथ प्रधान रूप में अस्तित्व रखना-तेजस्वी, बलशाली, श्रेष्ठ होना और अग्नि का अर्थ है शक्तिमान्, परम महान्, तेजोमय, प्रबल, दीप्तिमान्। सो अग्निर्यो वसु (सः अग्नि यः वसुः) अग्नि वह शक्ति है जो वस्तुओं के सारतत्व में निवास करती है।
जातवेदा भी इसे कहा गया है, क्योंकि अग्नि में ज्ञान उसके जन्म के साथ ही उत्पन्न हुआ था।
मूल धातु इळके अर्थ हैं प्रेम करना, आलिंगन करना।
पुरोहित शब्द में पुर का अर्थ द्वार, सम्मुख होना, बाद में इसका अर्थ नगर हुआ। हि का अर्थ झोंक देना, रोपना।
यज्ञ शब्द का वेद में सर्वोच्च महत्व है। कर्मकाण्डीय व्याख्या में इसका अर्थ सदा याज्ञिक क्रियाकलाप समझा जाता है। यज् धातु से यज्ञ शब्द बना है। य् के गुण है क्रिया, गति, रचना और संपर्क में pryukt की गई सामर्थ्य और मृदुता। य का मूल अर्थ है शांत-स्थिर भाव से गति करना।
यज्ञ शब्द यज् धातु से न प्रत्यय लगाने से बना है, इसका अर्थ हुआ वह जो राज्य करता है, शासक या प्रभु, प्रेम और आराधना करने वाला, साथ ही प्रेम का विषय भी, प्रभुत्व प्राप्ति का साधन और अतएव योग- योग की प्रक्रियाएँ न कि उसकी उपलब्धियाँ, प्रभुत्व की रीति और अतएव धर्म अर्थात् कार्य या आत्मशासन का नियम, जबकि यजुः का अर्थ है आराधना या पूजा की क्रिया। इसका अभिप्राय है देना या उत्सर्ग करना।
विष्णुपुराण बताता है कि सत्ययुग में विष्णु यज्ञ के रूप में आते हैं। त्रेता में विज़ेता और राजा तथा द्वापर में व्यास या शास्त्रकार के रूप में।
देव शब्द दिव धातु से विकैत हुआ, जिसका अर्थ है चमकना या स्पंदित होना, क्रीड़ा करना। द व्यंजन के गुण हैं शक्ति, भारी उग्रता। दा काटना है, दि स्पंदित होना है aur दु पीड़ा पहुँचाना है। दी से द्यु और दिव् या दीव् धातु प्राप्त होती हैं। जिनका अर्थ है जगमगाते हुए स्पंदित होना।
ऋत्विजम का अर्थ है वह जो ऋतु के अनुसार यज्ञ करता है। ऋत का मूल अर्थ स्पंदन करना, सीधे जाना। विज आनंदोन्मत्त दशा का नाम है। अतः ऋत्विज हुआ जो सत्य की पूर्ण समृद्धि से आनंदविभोर है।
होतारम्
होता का अर्थ है आहुति देने वाला पुरोहित।
ह् व्यंजन के मूल गुण हैं उग्रता, प्रचंड क्रिया, ज़ोर ज़ोर से श्वास लेना, तीव्रता। इस प्रकार होतारम का अर्थ है योद्धा, दैत्यों का संहारक। हु (युद्ध करना) धातु से यह विकसित हुआ है।
रत्नधातमम्। र रि रु ये तीन धातु र के प्रभेद हैं जिसका तात्विक अर्थ है सतत सकंप स्पंदन। रत्नम् का अर्थ है आनंद। धा धातु का अर्थ है स्थापित करना, उत्पन्न करना।
अतएव ऋग्वेद की इस प्रथम ऋचा का आध्यात्मिक अर्थ हुआ-
मैं भगवत्संकल्प रूप अग्नि को प्राप्त करने की अभीप्सा करता हूँ, उस पुरोहित को जो हमारे यज्ञ के अग्रणी के रूप में स्थापित हैं, दिव्य होता को जो सत्य के नियम-क्रम के अनुसार यज्ञ करता है और आनंद का पूर्णतया विधान करता है।
ऋषि में ऋष् गति करने के अर्थ का सूचक शब्द है। रि का अर्थ भी गति है।
२३/४/२३
समस्त भाषा अपने रूपों और विभक्तियों के समेत मनुष्य में 'प्रकृति' द्वारा प्रयुक्त की गई ध्वनि निर्माण की एक ही समृद्ध युक्ति का, एक ही निश्चित सिद्धांत का अवश्यंभावी परिणाम है। इस युक्ति या सिद्धांत को प्रकृति आश्चर्यजनक रूप से अल्पभेदों के साथ, विस्मयजनक रूप से निश्चित , अटल और लगभग निष्ठुर नियमितता के साथ, पर साथ ही रचना की एक स्वतंत्र और यहाँ तक कि निरर्थक आदिकालीन प्रचुरता के साथ प्रयोग में लाती है। आर्यों की भाषा का या विभक्तिमय स्वरूप स्वयं कोई आकस्मिक घटना नहीं, अपितु ध्वनि प्रक्रिया के प्रथम बीज चयन का लगभग स्थूल रूप से अनिवार्य परिणाम है। श्री अरबिंदो
जब तक हम एक विशेष अर्थ का विशेष ध्वनि के साथ संबंध निर्धारित करने में एक नियमितता का, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक निश्चित प्रक्रिया के इसी प्रकार के शासन का पता नहीं लगा पाते, भाषा के उद्भव और विकास का शासन करने वाले नियमों का बोध प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
उदाहरण के लिए क्रिकेट की फेंकी हुयी गेंद को लें, वह जिस दिशा में फेंकी गई, उसे तब तक नहीं बदल सकती जब तक कोई अन्य पदार्थ उसे मोड़ न दे। स्वयं स्वतंत्र न होते हुए भी उसकी दिशा और बल बदल सकते हैं। इस गेंद को कोई पक्षी टकराकर रोक सकता है, दिशा बदल सकता है, उस पक्षी को मानसिक स्वतंत्रता प्राप्त है, पर प्रकृति में उसे भी प्रभावित करने वाले, आकर्षित करने वाले कारक मौजूद होते हैं। प्राणिक शक्ति को वह घटा बढ़ा सकता है, पर बाहरी पदार्थ भी उसकी शक्ति और दिशा बदलने में सक्षम हैं। भाषा विज्ञान एक ऐसे ही मानसिक विज्ञान बनाने का प्रयत्न है। भाषा की सामग्री तो भौतिक है, क्योंकि वह ध्वनियों से निष्पन्न होती है, किंतु वह एक प्राणिक आवेग भी है। भाषा की संरचना, उसके बीज, मूल धातु, उसका निर्माण और विकास एक पक्ष है तो दूसरा पक्ष उसकी संरचना के उपयोग का मनोविज्ञान है।
आधुनिक भाषा में शब्द एक निश्चित एवं रूढ़ प्रतीक है, हम प्रथावश जो अर्थ उसके साथ जोड़ने के लिए विवश हैं, वह किसी ज्ञात उचित कारण से उसका अर्थ होता नहीं है। वृक् का अर्थ फाड़ना है, संस्कृत में उसे भेड़िया माना गया है। भाषा का चमत्कार साझे शब्दों के संरक्षण में है, न कि उनके लुप्त कर देने में। भाषा शास्त्री का नृवंश विज्ञान से कोई संबंध बनता नहीं है। न उसका सरोकार समाजशास्त्र, मानव विज्ञान और पुरातत्व विज्ञान से है। उसका एकमात्र प्रयोजन शब्दों के इतिहास से है। विचार की प्रतिनिधिभूत ध्वनियों के प्रकट रूपों से उसका संबंध है या इनसे ही होना चाहिए।
अश्वमेध यज्ञ का अर्थ है प्राण शक्ति को उसके सब आवेगों, कामनाओं और उपभोगों सहित दिव्य सत्ता के प्रति भेंट करना।
सत्ता से निचोड़कर निकाले गए आनंद को सोम की मधु मदिरा के रूप में निरूपित किया गया है। यह दूध दही और धान्य से मिश्रित है, दूध है ज्योतिर्मय गौओं का दूध, दही है बौद्धिक मन में गौओं कि उपज (दूध) का स्थिरीकरण, धान्य है भौतिक मन कि शक्ति में प्रकाश कि रूप रचना।
अदिति अनंत चेतना है, सब पदार्थों की माता।अदिति ऐसी ज्योति है जो सब वस्तुओं की माता है। अनंत सत्ता के रूप में वह दक्ष को अर्थात् विवेक और संविभाग करने वाले दिव्य मन के विचार को जन्म देती है। दक्ष की यह दिव्य पुत्री ही देवों की माता है। अदिति अद्वय है और दिति पृथक्कारी या द्वैधकारी चेतना है। इंद्र है दिव्य मन की निम्नतर सृष्टि में अभिव्यक्त शक्ति। वैदिक सूक्त में आया है कि इंद्र अपने पिता को पैरों से घसीटकर बध कर डालता है।
आर्य है पाथ का यात्री, दिव्य यज्ञ के द्वारा अमरता का अभीप्सु, प्रकाश का एक दीप्तिमान् पुत्र, सत्य के स्वामियों का पुजारी, मानवीय यात्रा का विरोध करने वाली अंधकार की शक्तियों के विरोध में किए जाने वाले युद्ध में योद्धा।
जो मनुष्य मित्र और वरुण की क्रियाओं के ऋजुपथ की खोज करता है और शब्द व स्तुति की शक्ति से अपनी समस्त सत्ता के द्वारा उनके विधान का आलिंगन करता है, वह अर्यमा के द्वारा अपनी प्रगति में रक्षित होता है।
पुत्र का आशय है मानव जाति के भीतर निर्मित देवत्व का सर्जन और प्रजनन।
२४/४/२३
यज्ञ का पुत्र वेद में एक सतत रूपक है. अग्निदेव स्वयं मनुष्य को पुत्र के रूप में दे देता है, ऐसे पुत्र के रूप में जो पिता का उद्धार करता है। साथ ही अग्नि युद्ध से पार कर हमारी यात्रा के लक्ष्य तक ले जाता है।
२८/४/२३
यतो नान्या क्रिया नाम ज्ञानमेव हि तत्तथा।
रूढेर्योगांततां प्राप्तमिति श्रीगम शासने॥ तंत्रालोक १/१४९
योगो नान्यः क्रिया नान्या तत्वारूढा हि या मतिः।
स्वचित्त वासनाशांतौ सा क्रियेत्यभिधीयते॥१५०
क्रिया ज्ञान से भिन्न नहीं है। योगांत दशा में पहुँचने पर ज्ञान शक्ति क्रिया शक्ति में विलीन हो जाती है।
योग क्रिया शक्ति से चलता है ज्ञान ज्ञान शक्ति से। इच्छा प्रारंभिक बिंदु है। योग की अंतिम दशा में जब सब शक्तियाँ एक हो जाती हैं। तब इसे क्रिया योग कहते हैं।
योग क्रिया और क्रिया योग से पृथक् नहीं। जब स्वचित्त वासना शांत हो जाती है, तब उसे क्रिया कहा जाता है।
शिष्य का अर्थ है शासु अनुशिष्टौ। यह शास धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है सीखना, निर्देश देना, सूचित करना। बराबर चेतनागत प्रश्न करते जाने या प्रश्नाकुलता के बाद कोई शिष्य बन पाता है। यह स्वयंचेतना ही है जो प्रश्न करती है और वही उत्तर देती है। आगे चलकर यह गुरु शिष्य संबंध का निर्माण करती है।
२९/४/२३
शरीर में मन नहीं, वरन् मन में शरीर रहता है। इसी तरह अहं में ही सारे प्राणी पर्यवसित हैं। इसी में सब निवास करते हैं। जब एक का अहं विगलित होता है और परम् में विलीन हो जाता है, तब दूसरों के अहंवादी कथन और आचरण एक खेल की भाँति लगने लगते हैं।
" भारत दार्शनिक देश है "यानी भारत का अत्यन्त साधारण आदमी भी चाहे जितना व्यभिचारी , इन्द्रिय-लोलुप क्यों न हो,पुराने जमाने से चली आयी विचारमालिका को दुहराता रहता है। 'जीवन क्या है ?मृगतृष्णा है' ;'जीवन क्या है ?आखिर मरना है!'- इस तरह के उदगार यदि आत्मा की सफलता के चिह्न हैं तो उनकी कीमत भी है।परन्तु साधारणतःवे साधारण दार्शनिक वाक्य जन-साधारण के लिए ऐसे नहीं होते। उनका अर्थ अनुभूति द्वारा ग्रहण नहीं किया जाता। ऐसी परिस्थिति में फिलासफी कभी भी जन-साधारण को सत्पथ पर नहीं चला सकती,ऐसा मेरा ख्याल है।"- मुक्तिबोध
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