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Tuesday, September 13, 2016

क्षेत्रीय भाषाएँ और उनका न्यायालयों में प्रयोग



क्षेत्रीय भाषायें और उनका जिला/उच्च न्यायालयों में प्रयोग
डा राकेश नारायण द्विवेदी

भारत के संविधान के अनुच्छेद 348(2) में कहा गया है, राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति लेकर हिंदी भाषा या राज्य के सरकारी प्रयोजनों के लिये प्रयुक्त हो रही अन्य भाषा को उच्च न्यायालय की भाषा के रूप में प्राधिकृत कर सकता है। यद्यपि यह प्रावधान ऐसे उच्च न्यायालय द्वारा पारित किसी निर्णय, डिक्री या आदेश पर लागू नहीं होंगे।
किंतु इस संवैधानिक प्रावधान की उपधारा (3) के आधार पर राजभाषा अधिनियम की धारा 7 के अनुसार एक राज्य का राज्यपाल निर्धारित किये गये दिनांक से राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से अंग्रेजी के अतिरिक्त हिंदी या राज्य की राजभाषा को राज्य के उच्च न्यायालय में पारित होने वाले निर्णय, डिक्री या आदेश के लिये प्राधिकृत कर सकता है। इस प्रावधान के अंतर्गत हिंदी या अन्य राजभाषाओं में पारित निर्णय, डिक्री या आदेश उच्च न्यायालय प्राधिकारी द्वारा कराये गये अंग्रेजी अनुवाद के साथ जारी किये जायेंगे।
इन प्रावधानों के आधार पर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान ने अपने-अपने उच्च न्यायालयों की भाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग की अनुमति दी हुई है, जो न्यायालयों की प्रक्रिया के लिये ही नहीं, आदेश और निर्णयों को पारित करने में भी प्रयुक्त की जाती है। 'ऐसी ही स्थिति जिला स्तर तक के न्यायालयों की भी है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, छत्तीसगढ और झारखंड राज्यों में विधानमंडल और जिला स्तर तक न्यायालयों की भाषा हिंदी है। मध्य प्रदेश और राजस्थान राज्यों में विधि के क्षेत्र में स्थिति यह है कि जिला स्तर पर केवल हिंदी में ही निर्णय दिये जा सकते हैं, लेकिन हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली जैसे अन्य हिंदी भाषी क्षेत्रों में विधानमंडल और न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी ही बनी हुई है।' 1(स्मारिका विश्व हिंदी सम्मेलन, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार हरीश कुमार सेठी का आलेख विधि न्याय के क्षेत्र में हिंदी पृ 185)इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त आजीवन अपने निर्णय हिंदी में देते रहे। न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू अपने कार्यकाल में हिंदी का अधिकतम संभव प्रयोग करते रहे। 2(न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की दनांक 20 सितंबर 2015 कीफेसबुक पोस्ट  से) बहुत से और न्यायाधीश निर्णय लिखते समय हिंदी और भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों की उक्तियां उद्धृत कर निर्णय की बात को स्पष्ट करते हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के ही दयाशंकर मिश्र, प्रमोद कुमार जैसे अधिवक्ता न्यायालयों में हिंदी का ही प्रयोग करते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व उप महाधिवक्ता महेश चंद्र चतुर्वेदी ने दिनांक 14 सितंबर 2015 कोव्हाट्सऐप पर बताया कि यहां अधिवक्ता तीन चौथाई से अधिक बहस हिंदी भाषा के माध्यम से ही पूरी करते हैं। वास्तव में जब हम अपनी बात को यथारूप कहना चाहते हैं तो अपनी ही भाषा में उसे अभिव्यक्त कर पाते हैं। कौन व्यक्ति होगा, जिसका मुकदमा जीवन मृत्यु के लिये चल रहा हो, क्योंकि जब प्रशासन और शासन के सब अंगों की तरफ से न्याय पाने में वह निराश हो चुका होता है, तब वह न्यायालय की शरण जाता है। वह अपनी पूरी बात न्यायाधीश तक पहुंचाना चाहता है। अदिवक्ताओं की भी भाषाई सीमा होती है। जीवन के घात-प्रतिघातों को विदेशी भाषा में यथारूप व्यक्त कर पाना सर्वदा दुष्कर होता है। पेड की शाखा चर्र-चर्र करके नीचे आ गिरी जैसे वाक्यांशों को अंग्रेजी भाषा में कह पाना मुश्किल होता है।
न्यायालयों की भाषा अपने राज्य की भाषा हो, इसमें किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है। जब तमिलनाडु में सितंबर माह में वहां के अधिवक्ताओं द्वारा उच्च न्यायालय की भाषा तमिल बनाने की मांग की गई तो अनेक बुद्धिजीवियों ने उनकी इस मांग से अपने को संबद्ध किया। मेरी सहमति भी इस मांग के साथ कतिपय शर्तों सहित है कि किसी अधिवक्ता को अपनी बहस तमिल अथवा अंग्रेजी में करने की अनुमति हो, जिससे जो न्यायाधीश बाहर से आते हैं और तमिल नहीं जानते, उन्हें असुविधा न हो। उच्च न्यायालयों की नीति के अनुसार किसी उच्च न्यायालय का प्रधान न्यायाधीश उस राज्य का निवासी नहीं होगा। अस्तु, सभी प्रधान न्यायाधीश उस राज्य से बाहर के ही होते हैं। स्वाभाविक है कि वे उस राज्य की भाषा को अनिवार्यत: समझते-जानते हो, ऐसा आवश्यक नहीं है। आदर्श स्थिति तो यह है कि न्यायालयों ही नहीं संसद और विधानमंडलों में भी हिंदी को अंग्रेजी के स्थान पर प्रमुख भाषा के रूप में स्थापित किया जाये, इससे राज्य की भाषा को लागू करने में भी समस्या उपस्थित नहीं होगी। हिंदी कम से कम समझने के स्तर पर पूरे देश में ग्राह्य बन सकती है , विडंबना है कि जो अपने देश की भाषा है, अपने संस्कारों में रची बसी है और जिसने अपने देशवासियों के जीवन संघर्ष को अभिव्यक्ति दी है, जिस भाषा में देश का स्वाधीनता संग्राम लडा गया। देश के चारों कोनों के स्वातंत्र्य  योद्धा हिंदी भाषा के माध्यम से एकजुट हुये, उन्होंने हिंदी को देश की प्रतिनिधि भाषा बनाने की आवश्यकता बताई, किंतु कतिपय भयाक्रांत या स्वार्थी तत्वों द्वाराउस भाषा को सरकारी या न्यायालयों की प्रमुख भाषा के रूप में रखने का तो पुरजोर विरोध किया जाता है, जबकि अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को सीखने में अपने नौनिहालों की ऊर्जा खर्च करा देते हैं।
अंग्रेजी भाषा का विरोध नहीं, पर इसे सीखने की मजबूरी न रखी जाये। स्वेच्छया किसी भी भाषा को सीखने की अनुमति और सुविधा दी जाये। पंजाब उच्च न्यायालय की भाषा क्यों नहीं पंजाबी हो सकती है। यह उच्च न्यायालय हरियाणा का भी क्षेत्राधिकार रखता है, जो हिंदी भाषी राज्य है। अत: समुचित होगा कि इसकी भाषा पंजाबी और हिंदी रखी जाये। असम उच्च न्यायालय की कामकाजी भाषा असमी है, किंतु सहभाषा के रूप में यहां अंग्रेजी, बोडो और बंगाली भी चलती है। पुडुचेरी में तमिल, मलयालम, तेलुगु तो दादरा और नगर हवेली जैसे संघ शासित राज्यों में मराठी, गुजराती और हिंदी में कामकाज चलता है। देश के सभी उच्च न्यायालयों - ओडिशा में उडिया, गोवा में कोंकणी, महाराष्ट्र में मराठी, गुजरात में गुजराती, पश्चिम बंगाल में बंगाली, आंध्र और तेलंगाना में तेलुगु, कर्नाटक में कन्न्ड, केरल में मलयालम-में उस राज्य की राजभाषा में कमोबेश कामकाज होता है तो पंजाब में ऐसा क्यों नहीं हो सकता!
सामाजिक सरोकार का सबसे बडा माध्यम भाषा है। भाषा का महत्व लोक-व्यवहार में अप्रतिम है। लोक-व्यवहार को नियंत्रित करने वाली संस्था 'न्यायपालिका' ही है। भारत एक विविधताओं वाला बडे भूभाग को समेटा हुआ राष्ट्र है, जहां कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी। 'भाषाई न्यायिक व्यवस्था में गतिरोध मुगलों द्वारा फारसी और अंग्रेजी को लागू करने से हुआ। फारसी तो धीरे-धीरे हिंदी में घुल-मिलकर पहले उर्दू और फिर हिंदुस्तानी में बदलने लगी, जिस कारण आम हिंदुस्तानी इस भाषा के निकट आने लगा। सन 1833 तक अंग्रेजों ने भी इसे ही शासन के समस्त निकायों में प्रयोग किया, लेकिन लार्ड मैकाले ने फारसी के स्थान पर अंगरेजी भाषा को राजभाषा के स्थान पर आरूढ करा दिया। नतीजा, न्यायिक क्षेत्र में एक ऐसी भाषा का प्रवेश हुआ, जिसकी जानकारी प्राय: पक्षकारों को भी नहीं होती। वादी और प्रतिवादी दोनों ही अंग्रेजी के जानकार वकीलों और न्यायाधीशों की समझ पर आश्रित हो गये।' 3 (स्मारिका विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल 2015 में विमल कुमार दुबे का आलेख न्यायालयों में हिंदी कार्रवाई की सार्थकता एवं उपयोगिता, पृ 187-188) न्यायिक प्रक्रिया के तीन मुख्य चरण होते हैं- न्यायालयों तक पहुंच, प्रभावी निर्णयात्मक शक्ति तथा निर्णय का क्रियान्वयन। यदि न्यायालय किसी ऐसी भाषा में कार्य करता है, जिससे वादी अनभिज्ञ हैतो वह अदालत में जाने से कतरयेगा। यदि निर्णय किसी ऐसी भाषा में लिखा गया है जो पक्षों के लिये अनभिज्ञ हैतो निर्णय की व्याख्या के लिये दूसरों पर आश्रित रहेगा। जब निर्णय ही समझ में नहीं आया तो उसका क्रियान्वयन भी किसी दूसरे की व्याख्या के अधीन रहेगा। इस प्रकार न्याय की पूरी प्रकिया ही दूषित एवं निरर्थिक हो जायेगी। इसीलिये हंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी में और अन्य राज्यों में न्यायिक प्रक्रिया उन राज्यों की भाषाओं में ही चलनी चाहिये।
कुछ अंग्रेजी परस्त लोगों के चलते व्यवधान आते हैं, इनका समाधान भी समय के साथ-साथ होता जायेगा। मसलन, जब कोई याचिका हिंदी में दाखिल की जाती है तो न्यायाधीश विवशता व्यक्त करते हैं कि अगर आप अपनी भाषा में याचिका देंगे और उसी भाषा में निर्णय देनें को कहेंगे तो हमें अंग्रेजी में अनुवाद कराना पडेगा, क्योंकि अंग्रेजी का ही पाठ प्रामाणिक माना जाता है। अनुवादकों की कमी का रोडा बताया जाता है, अनुवाद में समय लगने का बहाना बनाया जाता है। अधिवक्ता और पक्षकार को न्याय पाने की त्वरा होती है, जो स्वाभाविक ही है। वह मजबूरी में अपनी याचिका दाखिल कर देता है। इस समस्या को आधुनिक तकनीकी दूर कर सकती है। हमारे इंजीनियरों को क्षेत्रीय भाषाओं से अंग्रेजी में और अंग्रेजी से विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में अच्छा अनुवाद करने की तकनीकी विकसित करनी होगी, जिससे अनुवाद की समस्या का निराकरण हो सके। इस बात को भी रेखांकित किया जाना चाहिये कि हम अपनी भाषा में कामकाज शुरू तो करें, व्यवधान दूर होते जायेंगे। हमें विश्वास है कि हम ऐसी दिशा में आगे बढ चले हैं कि अवश्य एक दिन सार्थक नतीजे देखने को मिलेंगे।
एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रभारी, हिंदी विभाग गांधी महाविद्यालय, उरई
संबद्ध बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झांसी
मोबाइल 9236114604

डा राकेश नारायण िद्ववेदी
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पाठालोचन की विविध प्रविधियां

पाठालोचन की विविध प्रविधियां
डॉ राकेश नारायण द्विवेदी
आजकल साहित्यिक क्षेत्र में इस बात का वैज्ञानिक अनुसंधान या विवेचन कि किसी साहित्यिक कृति के संदिग्ध अंश का मूलपाठ वास्तव में क्या और कैसा रहा होगा, पाठालोचन या टैक्स्चुअल क्रिटिसिज्म कहलाता है। इसमें किसी ग्रंथ के मूल और वास्तविक पाठ का छानबीन करके निर्धारण किया जाता है। पाठालोचन मुख्यतः प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों की अनेक प्रतिलिपियों अथवा ऐसी साहित्यिक कृतियों के संबंध में होता है, जिनका प्रकाशन तथा मुद्रण स्वयं लेखक के संज्ञान में न हुआ हो। इसे अंग्रेजी में इस तरह कहा जाता है कंपैरिजन आफ ए पार्टिकुलर टेक्स्ट विद रिलेटिड मैटेरियल्स इन आर्डर टु इस्टेब्लिश आथेंटिसिटी।
पाठालोचन तथा साहित्यालोचन को कभी-कभी एक ही समझने की भूल कर दी जाती है, किंतु लोकभारती प्रकाशन से सितंबर 2008 में प्रकाशित डॉ कन्हैया सिंह ने अपनी पुस्तक ‘पाठ संपादन के सिद्धांत’ में लिखा है पाठालोचक जहां प्राचीन लेखकों एवं कवियों के मूल पाठ के निर्धारण मात्र का प्रयास करते हैं, वहीं साहित्यालोचक उस निर्धारित पाठ के आधार पर उस लेखक या कवि का मूल्यांकन करते हैं तथा उसकी विशेषताओं, उसके गुणों एवं दोषों का उद्घाटन करते हैं। इस प्रकार जहां पाठालोचन का कार्य समाप्त होता है, वहां से साहित्यालोचन का कार्य प्रारंभ होता है। पाठालोचन के पूर्व साहित्यालोचन का कार्य उस विशेष कवि या लेखक के संदर्भ में असंभव होता है। जब तक कवि या लेखक की रचनाओं का मूल पाठ निर्धारित नहीं हो जाता, तब तक उसकी कृति के संबंध में किस आधार पर मत व्यक्त किया जा सकता है।
ग्रंथों की भूमिकाओं में पाठ तय करने के लिए प्रयुक्त साधनों, सामग्रियों, सिद्धांतों एवं विधियों आदि का विवरण दिया जाता है। पाठालोचन के दो स्तर हैं। पहले स्तर पर त्रुटियों का पता लगाया जाता है, जबकि दूसरे स्तर पर समानता के आधार पर मूल पाठ का निर्धारण किया जाता है। शोध प्रमाण पर आधारित होता है, इसलिए पाठालोचन शोध प्रविधि का महत्वपूर्ण हिस्सा है। डॉ सत्यकेतु सांकृत ने कहा है कि मूल पाठ से प्रतिलिपि करने पर लगभग तीन प्रतिशत तक अशुद्धि रहने की संभावना रहती है। इस प्रकार जब प्रतिलिपियों से प्रतिलिपियां तैयार की जाती हैं तो अशुद्धियों के बढ़ते रहने की संभावना बनी रहती है। वरिष्ठ आलोचक नलिन विलोचन शर्मा ने इसे तात्विक शोध की संज्ञा दी है।
पाठालोचन की समस्या उन्हीं कृतियों को लेकर होती है, जिनके लेखकों ने अपने सामने कृति का प्रकाशन नहीं करा पाया है। ऐसी कृतियां, जिनका प्रकाशन लेखक या कवि के उत्तरवर्तियों द्वारा कराया गया है, उनमें पाठ का अंतर हो जाता है। सबसे अधिक समस्या प्राचीन कृतियों को लेकर है, विशेषतः जिनसे समाज वैज्ञानिक विश्लेषण करने की दिशाएं खुलती हों। प्रायः हिंदी साहित्य की आदिकालीन और मध्यकालीन साहित्यकारों की कृतियां इस परिधि में आती हैं। संस्कृत ही नहीं सभी साहित्यिक भाषाओं की बहुत सी कृतियां पाठालोचन की समस्या से अंतर्ग्रस्त हैं। मनुस्मृति के बहुत से पाठ मिलते हैं। इसमें कुछ लोगों ने अतिशय और आपत्तिजनक उक्तियां एवं श्लोक जोड़कर विवादित कर दिया है। जो प्राचीन कृति जितनी अधिक चर्चित और समादृत होती है, वह पाठभेद से उतनी अधिक ग्रस्त रहती है। इस दृष्टि से  रामचरितमानस पाठालोचन की समस्या से बहुत अधिक घिरी हुई है। रामचरितमानस को पाठालोचन और साहित्यालोचन दोनों कसौटियों पर कसा गया है। अब भी इसकी अनेक चौपाइयों का अर्थ अपने-अपने ढंग से किया जा रहा है। पाठभेद व मानस व्याकरण सहित श्री रामचरितमानस के निवेदन में हनुमानप्रसाद पोद्दार ने लिखा है ‘जितने पाठभेद इस ग्रंथ के मिलते हैं, उतने कदाचित् किसी प्राचीन ग्रंथ के नहीं मिलते। इससे इसकी सर्वोपरि लोकप्रियता सिद्ध होती है।’ कारण स्वरूप इस निवेदन में ही श्री पोद्दार लिखते हैं ‘पूज्य गोस्वामीजी के हाथ की लिखी हुई पूरी प्रामाणिक प्रति प्रयास करने पर भी न मिल सकने के कारण शुद्ध पाठ का दावा हम लोग नहीं कर सकते...........पाठ के संबंध में हमें केवल इतना ही निवेदन करना है कि जो कुछ सामग्री हमें प्राप्त हो सकी, उसका हम लोगों ने अपनी समझ से ईमानदारी के साथ उपयोग किया है। हमारा यह आग्रह नहीं है कि भूल समझ में आने पर भी आगे यही पाठ रखा जाय।’ ध्यातव्य है कि ऐसी कृतियों के प्रक्षिप्त पाठ उसकी भाषा शैली और कथ्य की तारतम्यता के कारण अलग आभास कराते हैं, किंतु यह पहचान सबके बस की भी तो नहीं। जो बहुश्रुत और बहुज्ञ पाठक होगा, वही इन प्रक्षेपांशों की पहचान कर पाएगा।
वर्तमान में लेखन कार्य को प्रकाशित कराने के लिए बहुत सुगमता हो गई है। तकनीकी के आविष्कार और उसके क्रमशः विकास के बाद थोड़े समय में ही अल्प श्रम में भाषा लिपि बद्ध होने लगी है। कभी कृतिकारों ने अपने हाथ से अपना ग्रंथ लिखा और कभी बोलकर लिखवाया। प्रतिलिपि निर्माण के क्रम में प्रमादवश भूलें होती रहीं, होती भी हैं। अगले प्रतिलिपिकार ने पिछली भूल को यथावत अपनी प्रति में जोड़ दिया। कभी-कभी जानबूझकर प्रति में प्रक्षेप हुए। मूल प्रति जब नष्ट हो गई और उसकी निकटवर्ती प्रतिलिपियां भी अनुपलब्ध हो गई तो प्राप्त प्रतियों के पाठों में इतना वैषम्य और विरोध मिलने लगता कि रचनाकार के मूलपाठ की कल्पना भी दूभर हो गई। आजकल फेसबुक पर अपनी पोस्ट का संशोधन करने की सुविधा हो गई है, यही नहीं, उस संशोधित रूप से पहले की पोस्ट देखने की भी सुविधा यहां मिलती है। किसी मुद्रित रूप में यह सुविधा नहीं मिल सकती। वहां परिष्कृत रूप ही प्राप्त होता है और अगली बार फिर अनुसंधाता का परिष्कृत या संशोधित रूप जुड़ जाता है। यह स्थिति सभी भाषाओं के मुद्रित रूपों के साथ हुई, किंतु विभिन्न प्रतियों के पाठों में मिलने वाले अंतर एक सरणि के नहीं होते। अलग-अलग रचनाओं की पाठ-परंपराओं का अपना वैशिष्ट्य होता है। यह पुनः कहना अनुपयुक्त न होगा कि जो रचना जितनी लोकप्रिय होती है, उसकी उतनी ही अधिक प्रतिलिपियां होती हैं और उनके पाठ उतने ही अधिक उलझन भरे होते हैं।
पाठानुसंधान की विविध प्रविधियां कार्ल लकमैन से लेकर डीयरिंग तक एक ही मूल सिद्धांत पर विकसित हुई हैं, जो स्वविवेक एवं तर्कों तथा अनुभवों पर आधारित हैं। इन विद्वानों में परस्पर विरोध नहीं, प्रत्युत एक विकास क्रम दृष्टिगोचर होता है। इनका संक्षिप्त पर्यावलोकन करना इस आलेख की विषय वस्तु का अंश ही है।
लकमैन ने पाठालोचन की जिस पद्धति को प्रचलित किया, उसे वंशानुक्रम पद्धति जेनियोलॉजिकल मेथड कहा जाता है। इस प्रणाली ने बड़ी लोकप्रियता प्राप्त की। इस पद्धति का सिद्धांत है कि जिन प्रतियों में एक सी पाठ विकृतियां मिलती हैं, उनकी आदर्श या पूर्वज प्रति एक ही होती है और जहां समान पाठ-विकृतियां न भी मिलें, पर विशेष पाठों की उपलब्धि में प्रतियां समान हों, उनकी पूर्वज प्रति भी एक होती है। जहां विशेष पाठ भी न हां और प्रतियां समान पाठों में ही समान हों, उनकी एक पूर्वज प्रति होती है। इस प्रविधि के अनुगमन द्वारा प्राचीनतम पाठ-परंपरा की प्रतियों का पता लग जाता है और निश्चित हो जाता है कि कौन पूर्ववर्ती पाठ है और कौन परवर्ती। यह कार्य देखने सुनने में आसान लगता है, पर व्यावहारिक स्तर पर पाठानुसंधाता को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यह विधि बड़े सरल पाठ संबंधों की स्थिति में सुविधाजनक एवं कारगर हो जाती है, पर जटिल पाठ संबंधों में अनुसंधाता को अपनी स्थापनाओं और तर्कों का सहारा लेकर चलना पड़ता है।
हेनरी क्विण्टन ने इस प्रणाली को आगे बढ़ाया। इन्होंने प्रतियों के शाखा निर्धारण हेतु सिद्धांत दिया कि यदि एक प्रति का पाठ दूसरी से मिलता है, फिर वही पाठ तीसरी प्रति से मिलता है और कुछ अंश तक वह दोनों से मिलता है, पर विपरीत क्रम में वह फलशून्य या अर्द्धशून्य मिलता है तो प्रथम प्रति या तो द्वितीय और तृतीय दोनों की आदर्श प्रति है और ये दोनों एक दूसरे में से किसी की आदर्श प्रतियां नहीं हैं अथवा प्रथम प्रति द्वितीय एवं तृतीय में से एक की प्रतिलिपि और दूसरी की आदर्श प्र्रति होगी।
आगे चलकर सर वाल्टर ग्रेग ने बताया कि एक प्रकार की प्रतियां जो परस्पर समान हैं, पर दूसरे प्रकार की परस्पर समान प्रतियों से भिन्न हैं; उनके अलग-अलग समान पूर्वज होते हैं। अतः पाठों की समानता से पूर्वज प्रतियों के सुनिश्चित हो जाने की कोई नपी-तुली प्रविधि नहीं है।
आर्किबैल्ड हिल ने प्रतिपादित किया कि जहां प्रतियों के पाठ संबंध एकाधिक प्रकार से स्थापित हो सकते हैं, वहां उन संबंधों के महत्व को आकलित करने से पाठ समस्या सरल हो जाती है।
अमरीकी प्रोफेसर विण्टन ए0 डीयरिंग ने अपनी प्रविधि को उपर्युक्त सभी प्रविधियों से विशिष्ट बताते हुए उसे ‘पाठ विश्लेषण’ कहा है। उन्होंने ‘प्रति’ और ‘पाठ’ के अंतर को ध्यान में रखते हुए प्रति-परंपरा और पाठ-परंपरा को दो वस्तुएं प्रतिपादित किया। प्रति द्वारा प्रदत्त पाठ एक मानसिक तथ्य है एवं पाठ प्रदत्त करने वाली प्रति एक शारीरिक क्रिया है। प्रतियों में सुरक्षित पाठ और पाठ का संवहन करने वाली प्रतियां दोनों हीं, रचना की पाठ-परंपरा की स्थिति निर्धारण में सहायक होती है। एक वाक्य को उन्होंने इसके उदाहरण में प्रस्तुत किया है कि यदि एक प्रति में पाठ है- ज्ीम ुनपबा इतवूद विग रनउचमक वअमत जीम सं्रल कवह और दूसरी प्रति में यह पाठ इस रूप में है- ज्ीम ुनपबा इतवूद लोमड़ी का चित्र रनउचमक वअमत जीम सं्रल कवह कुत्ते का चित्र; तो प्रतियों में अंतर होते हुए भी पाठ एक ही है। इस प्रकार डीयरिंग ने पाठ की परंपरा को प्रतियों की परंपरा से भिन्न करते हुए, प्रथम का विशेष महत्व प्रतिपादित किया। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती पाठानुसंधान के आचार्यों की प्रविधियों के प्रति ऋण स्वीकार करते हुए उनकी महत्ता को भी माना है।
प्रोफेसर डीयरिंग की यह प्रविधि वैज्ञानिकता के समीप है, किंतु मेरी राय में प्रति-परंपरा को विशेष महत्व देने की आवश्यकता नहीं है। ंयथास्थान जिसकी आवश्यकता पुष्ट जान पड़ी, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, अन्यथा लोक विश्रुत बहुत सी स्थापनाएं और निष्कर्ष गौड़ हो जाएंगे, जो बहुत बार शास्त्रोक्त परंपरा अर्थात् प्रति-परंपरा को ही पुष्ट करते हैं। यहां रामचरितमानस से एक उदाहरण देना उपयुक्त होगा। किष्किंधाकांड दोहा क्रमांक दो का गीताप्रेस प्रति पाठ है-
एकु मैं मंद मोह बस कुटिल हृदय अज्ञान। पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान।।
किंतु पाठ-परंपरा और कई प्रति-परंपराओं में यह दोहा इस प्रकार चलता है-
एक मंद मैं मोहबस कुटिल हृदय अज्ञान। पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान।।
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी
गांधी महाविद्यालय, उरई
मोबाइल 9236114604
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हिंदी और उसकी बोलियों का अन्तर्सम्बन्ध

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हिंदी और उसकी बोलियों का अंतर्संबंध
डा राकेश नारायण द्विवेदी
2001 की जनगणना के अनुसार हिंदी प्रदेश में हिंदी की 48 मातृभाषाएं बोली जाती हैं। इसमें दस हजार से कम प्रयोक्ताओं की बोलियों को शामिल नहीं किया गया है। यह मातृभाषाएं उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा एवं दिल्ली में तो हैं ही, अंडमान तथा निकोबार एवं अरुणाचल जैसे दूरस्थित क्षेत्रों में भी बोली जाती हैं।
पाश्चात्य भाषाशास्त्री जार्ज ग्रियर्सन ने 1927 में भारतीय भाषा सर्वेक्षण में हिंदी प्रदेश में दो बोली समूहों – पश्चिमी हिंदी एवं पूर्वी हिंदी- को ही हिंदी की भाषाएं माना है किंतु डा सुनीति कुमार चटर्जी ने पहाड़ी हिंदी को छोड़कर चारों बोली समूहों को हिंदी के अंतर्गत स्वीकार किया है। बाद में डा धीरेंद्र वर्मा ने पहाड़ी हिंदी की भाषिक विशेषताओं को देखते हुए इसे भी हिंदी में ही माना। डा धीरेंद्र वर्मा का वर्गीकरण हिंदी भाषा विज्ञान में सर्वमान्य है, जिसके अनुसार हिंदी भाषी प्रदेश हिंदी की विभिन्न सत्तरह बोलियों से मिलकर बना है। ये सत्तरह बोलियां हिंदी के पांच बोली समूह – पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, राजस्थानी हिंदी, बिहारी हिंदी तथा पहाड़ी हिंदी – के अंतर्गत सम्मिलित है। पश्चिमी हिंदी में कौरवी या खड़ी बोली, ब्रज, बुंदेली, बांगरू या हरियाणवी तथा कन्नौजी बोलियां आती हैं तो पूर्वी हिंदी में अवधी, बघेली तथा छत्तीसगढ़ी बोलियां सम्मिलित हैं। वहीं राजस्थानी हिंदी में मेवाती, मारवाड़ी, जयपुरी तथा मालवीय बिहारी हिंदी में भोजपुरी, मगही तथा मैथिली एवं पहाड़ी हिंदी में कुमाउंनी तथा गढ़वाली बोलियां शामिल हैं। इन प्रमुख बोलियों के अतिरिक्त नाम भेद से प्रचलित अन्य बोलियां भी हिंदी भाषा की अंग हैं। जो स्थान हिंदी साहित्येतिहास लेखन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का है, वही स्थान हिंदी भाषा विज्ञान में डा धीरेंद्र वर्मा का है।
अभी 2011 की जनगणना के भाषा संबंधी आंकड़े जारी नहीं हुए हैं। अतः 2001 की जनगणना को आधार बनाना होगा, जिसके अनुसार भारत की कुल जनसंख्या के 41.03 प्रतिशत व्यक्ति हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं। इसमें मैथिली भाषा सम्मिलित नहीं है। मैथिली भाषी व्यक्तियों की संख्या 1.18 प्रतिशत है। मैथिली हिंदी की ही बोली है जो बिहारी हिंदी के अंतर्गत आती है। मागधी अपभ्रंश से यह विकसित हुई, जिससे भोजपुरी और मगही बोलियों का भी उद्गम हुआ है। हिंदी और उर्दू में भी मुख्यतरू लिपि का ही अंतर है। इन दोनों भाषाओं में इतनी अधिक भाषिक समानताएं हैं कि बहुधा लोग समझ ही नहीं पाते कि वे उर्दू शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। अतरू यदि हम उर्दू भाषी जनसंख्या- जो 5,15,36,111 व्यक्तियों के साथ 5.01 प्रतिशत है- को मिला दें तो इस प्रकार कुल 47.22 प्रतिशत जनसंख्या की भाषा हिंदी ही है। हिंदी भाषा भाषियों में सर्वाधिक दस बोली प्रयोक्ता व्यकितयों की संख्या इस प्रकार है-
1- भोजपुरी 3,30,99,497
2- राजस्थानी 1,83,55,613
3- मगही 1,39,78,565
4- छत्तीसगढ़ी 1,32,60,186
5- हरियाणवी 79,97,192
6- मारवाड़ी 79,36,183
7- मालवी 55,65,167
8- मेवाड़ी 50,91,797
9- खोट्टा/खोरठा 47,25,927
10- बुंदेली 30,72,147
यह सूची 48 की संख्या तक जाती है, जिसमें अवधी, खड़ी बोली और ब्रज जैसी साहित्यिक गरिमा प्राप्त बोलियों का भी नाम है, पर इसके प्रयोक्ता अपेक्षा.त कम रह गए हैं। मातृभाषा में हिंदी के नाम से ही 25,79,19,635 व्यक्ति अंकित हैं। जाहिर है विभिन्न बोलियों के लोगों की भाषा भी हिंदी ही दी गई है। यही नहीं, इसमें मातृभाषा हिंदी के अन्य प्रयोक्ता 1,47,77,266 अलग से हैं। बोलियों की प्रचुरता और वैविध्य को देखते हुए इनका सर्वेक्षण कार्य अलग से किए जाने की आवश्यकता है। अलबत्ता, जनगणना विभाग के इन आंकड़ों से एक मोटा अनुमान लग जाता है। हिंदी की उन्हीं 48 मातृभाषाओं को जनगणना विभाग ने जारी किया, जिनके प्रयोक्ताओं की संख्या दस हजार से अधिक है।
यदि हम संपूर्ण प्रयोक्ताओं की संख्या की दृष्टि से बात करें, जिसमें मातृभाषा वक्ता (पितेज संदहनंहम ेचमांमते) तथा द्वितीय भाषा वक्ता (ेमबवदक संदहनंहम ेचमांमते) दोनों को मिला दें तो हिंदी भाषियों की संख्या एक हजार मिलियन (सौ करोड़) होती है। मातृभाषा को अब मदर टंग पद की अस्पष्टता के कारण पितेज संदहनंहम ेचमांमते कहा जा रहा है। इससे उन बेतुके प्रश्नों से भी बचना संभव हो गया कि अगर मां और पिता अलग-अलग बोलियों के हुए तो उसकी मातृभाषा क्या होगी! जीम संदहनंहम तमहपेजमत जव जीम ूवतसकश्े संदहनंहम ंदक ेचमंबी बवउउनदपजपमे में इसी कारण हिंदी भाषियों की संख्या 960 मिलियन मानी गई है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय के तत्कालीन निदेशक प्रो महावीर सरन जैन द्वारा इसी आशय की जो रिपोर्ट यूनेस्को भेजी गई थी। इसके परिणामस्वरूपय भारतकोश पर दी गई जानकारी के अनुसार यह स्वी.त हो गया है कि संसार की भाषाओं में चीनी भाषा के बाद हिंदी का दूसरा स्थान है। मंदारिन चीनी भाषाओं में सर्वप्रमुख है। यह विश्व की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। 1,36,50,53,177 से ज्यादा लोग इस भाषा का उपयोग क‍रते हैं। चीन में जो स्थिति मंदारिन की है, वही स्थिति भारत में हिंदी की है। जिस प्रकार प्रचलित कहावत- कोस-कोस पर बदले पानी पांच कोस पर बानी- के अनुसार हिंदी भाषा क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं, वैसे ही मंदारिन भाषा क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं। हिंदी क्षेत्र की विविध बोलियों के एक छोर से दूसरे छोर के लोगों की पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत कम अवश्य है किंतु है, पर मंदारिन भाषा के दो चरम छोरों पर बोले जाने वाले क्षेत्रीय भाषिक रूपों के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता बिल्कुल नहीं है। प्रो महावीर सरन जैन द्वारा दिए गए उदाहरण के अनुसार मंदारिन के एक छोर पर बोली जाने वाली हार्बिन और दूसरे छोर और दूसरे छोर पर बोली जाने वाली शिआनीज के वक्ता एक दूसरे से संवाद स्थापित नहीं कर पाते। वे आपस में मंदारिन के मानक भाषा रूप के माध्यम से ही बातचीत कर पाते हैं। मंदारिन के इन क्षेत्रीय रूपों को लेकर वहां कोई विवाद नहीं है। पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक मंदारिन को लेकर कभी कोई विवाद पैदा भी नहीं कर पाते। सच्चाई यह भी है कि वहां राष्ट्रीय भावना के रूप में भाषा को लिया जाता है।
अपने यहां तो एक जगह जहां सारी प्रमुख भारतीय भाषाओं के विद्वान एकत्रित थे मैंने सुना कि जब अपना देश धर्मनिरपेक्ष है और उसका कोई एक राजकीय या राष्ट्रीय धर्म नहीं है तो एक भाषा का होना क्यों आवश्यक है। संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज बाईस भाषाएं समान रूप में यहां की भाषाएं हैं। उनसे मैंने निवेदन किया कि हमारा काम धर्म के बिना चल सकता है पर भाषा के बिना हम गूंगे हो जाएंगे। जब हम मातृभाषाओं को बढ़ाने के बारे में सोच रहे हैं तो साथ ही देश की राजभाषा मुख्यतः हिंदी को व्यावहारिक स्तर पर बनाने के बारे में भी अग्रगामी होना होगा। अन्यथा बहुत सी भारतीय भाषाएं कालकवलित हो जाएंगी। इस प्रकार के रुझान आलेख में दी गई तालिका में गोचरित हो रहे हैं। पता नहीं कैसे, वहां के कुछ लोगों को लगा कि मैं हिंदी को थोपने की बात कर रहा और उन्होंने जब मुझे कहा कि याद रखिए बांग्लादेश इसीलिए बना और इसे सुनकर मेरा अंतर्मन कांप उठा कि भाषा का प्रश्न अपने देश में किस तरह उलझा दिया गया है। उनका यह आरोप मुझे सही भी लगा कि हिंदी क्षेत्र के लोग एकभाषिक होते हैं, वे हिंदी के अतिरिक्त कोई भारतीय भाषा नहीं सीखते, जबकि हिंदीतर क्षेत्र के लोग द्विभाषी (दो भारतीय भाषाएं जानने वाले) ही नहीं त्रिभाषी (तीन भारतीय भाषाएं जानने वाले) भी होते हैं। यद्यपि यह आरोप उन्हीं के द्वारा लगाए गए एक अन्य आरोप के साथ विरोधाभासी हो जाता है, जब वह कहते हैं कि हिंदी कोई भाषा नहीं, वह तो अनेक बोलियों का समुच्चय है। उनके अनुसार हिंदी अलग है और मातृभाषा अलग तथा दोनों में इतना अंतर है कि एक दूसरे की बात समझ ही नहीं पाते। विरोधाभास ये कि फिर हिंदी का व्यक्ति एकभाषी कैसे रहा, वह अपनी बोली के अलावा हिंदी भी जान रहा होता है। इन विद्वानों को हिंदी पट्टी के वे लोग बड़े प्रिय होते हैं जो कहते कि हमें हमारी मातृभाषा (बोली) में पढ़ने को मिले, हिंदी में न पढ़ना पड़े।
मंदारिन के दो विभिन्न क्षेत्रीय रूपों की पारस्परिक बोधगम्यता के उपर्युक्त उदाहरण से हमारे ऐसे प्रश्न उठाने वाले लोगों को सीख लेनी चाहिए। कुछ लोग पहाड़ी और राजस्थानी एवं हिंदी की अन्य बोलियों के नमूने रखते हुए कहते हैं क्या कोई भोजपुरी या अन्य हिंदी भाषी व्यक्ति इन्हैं समझ सकता है, किंतु क्या हम नहीं देखते कि हिंदी के एक बोली रूप को दूर के हिंदी के ही दूसरे वक्ता किसी न किसी मात्रा में समझ लेते हैं। हमें यह देखना होगा कि प्रत्येक बोली के विशिष्ट संज्ञा और क्रिया रूप होते हैं, उन्हें समझना पड़ोस के वक्ताओं को भी दुष्कर होता है। हिंदी जिस खड़ी बोली का मानक रूप है, उसका यह नमूना यहां रखने से और स्पष्ट हो जाएगा-
कोई बादसा था। साब उसके दो राण्याँ थीं। वो एक रोज अपनी रान्नी से केने लगा मेरे समान ओर कोइ बादसा है बी? तो बड़ी बोल्ले के राजा तुम समान ओर कोन होगा। छोटी से पुच्छा तो किह्या कि एक बिजाण सहर हे उसके किल्ले में जितनी तुम्हारी सारी हैसियत है उतनी एक ईंट लगी है। ओ इसने मेरी कुच बात नई रक्खी इसको तग्मार्ती (निर्वासित) करना चाइए। उस्कू तग्मार्ती कर दिया। ओर बड़ी कू सब राज का मालक कर दिया।
उक्त उदाहरण में तग्मार्ती क्रिया का बोध आसान नहीं है।
यहां उल्लेखनीय है कि प्रयोग का क्षेत्र विस्तृत होने से किसी भाषा या बोली में स्थानीय तत्वों का समावेश होना स्वाभाविक है। चीनी बोलने वाले हिंदी से अधिक हैं, किंतु उसका प्रयोग क्षेत्र हिंदी से सीमित है। वहीं अंगरेजी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिंदी से भी अधिक है, किंतु उसके बोलने वाले हिंदी से अधिक नहीं हैं। पिछले पचास सालों में हिंदी भाषी व्यक्ति 26 करोड़ से बढ़कर 42 करोड़ हो गए जबकि अंगरेजी बोलने वाले 33 करोड़ से 49 करोड़ हुए। इस प्रकार हिंदी की वृद्धि दर अधिक है। भारत में अधिकांश व्यक्ति तीन भाषाएं जानते हैं। 1500 से अधिक मातृभाषाएं भारत में बोली जाती हैं। दस हजार से अधिक व्यक्तियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या 122 है। हिंदी को प्रथम भाषा मानने वाले 42 करोड़ व्यक्ति हैं, वहीं दूसरी और तीसरी भाषा के रूप में हिंदी जानने वाले व्यक्तियों की संख्या 13 करोड़ है। अंगरेजी के दावों में 2.26 लाख लोगों की मातृभाषा अंगरेजी है, वहीं 8.60 करोड़ लोगों की दूसरी भाषा और 3.12 करोड़ लोगों की तीसरी भाषा अंगरेजी बताई गई है। इनका जोड़ लगाकर ये दावेदार अंगरेजी को दूसरे स्थान पर बिठा देते हैं। दूसरी भाषा के रूप में भारतीय राज्यों की स्थिति अगर देखें तो तमिलनाडु में अंगरेजी 14 प्रतिशत तथा हिंदी 1.5 प्रतिशत प्रचलित है किंतु दक्षिण की ही अन्य भाषाओं में अंगरेजी से हिंदी बहुत पीछे नहीं है। केरल में 24.35 प्रतिशत व्यक्ति अंगरेजी जानते हैं तो हिंदी 19.07 प्रतिशत। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में हिंदी से अधिक तीन प्रतिशत व्यक्ति ही अंगरेजी जानते हैं। वहीं पश्चिम बंगाल में 2.40 प्रतिशत अंगरेजी आगे है तो ओडि़शा में हिंदी और अंगरेजी की लगभग समान स्थिति है। असम में हिंदी जानने वाले अंगरेजी से अधिक है। यह रुझान पिछले तीस सालों का है। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि हिंदीतर भाषा क्षेत्रों में जहां अंगरेजी हिंदी से अधिक प्रचलन में है, वहां इन तीस वर्षों में उन्ही की मातृभाषाओं की प्रचलन दर में गिरावट अधिक है। जनगणना विभाग की वेबसाइट पर दिनांक 25 अक्टूबर 2015 को जाने पर स्टेटमेंट पांच से पता लगा कि 1971 से 2001 तक के चार जनगणना वर्षों में हिंदी भाषियों की संख्या दर निरंतर बढ़ी है। आठवीं अनुसूची की भाषाओं के प्रयोक्ताओं की तुलनात्मक तालिका देश की कुल जनसंख्या के प्रतिशत में दृष्टव्य है-
जनसंख्या 1971 1981 1991 2001
भारत 97.14 89.23 97.05 96.56
1 हिंदी 36.99 38.74 39.29 41.03
2 बंगाली 8.17 7.71 8.30 8.11
3 तेलुगु 8.16 7.61 7.87 7.19
4 मराठी 7.62 7.43 7.45 6.99
5 तमिल 6.88 ’’ 6.32 5.91
6 उर्दू 5.22 5.25 5.18 5.01
7 गुजराती 4.72 4.97 4.85 4.48
8 कन्नड़ 3.96 3.86 3.91 3.69
9 मलयालम 4.00 3.86 3.62 3.21
10 उड़िया 3.62 3.46 3.35 3.21
11 पंजाबी 2.57 2.95 2.79 2.83
12 असमी 1.63 ’’ 1.56 1.28
13 मैथिली 1.12 1.13 0.93 1.18
14 संथाली 0.69 0.65 0.62 0.63
15 कश्मीरी 0.46 0.48 – 0.54
16 नेपाली 0.26 0.20 0.25 0.28
17 सिंधी 0.31 0.31 0.25 0.25
18 कोंकणी 0.28 0.24 0.21 0.24
19 डोंगरी 0.24 0.23 – 0.22
20 मणिपुरी 0.14 0.14 0.15 0.14
21 बोडो 0.10 ’’ 0.15 0.13
22 संस्.त .. .. 0.01 ..
अंत में हमें कहना है कि हिंदी और उसकी बोलियों से मिलकर जो हिंदी की स्थिति बनती है, वह आशा का संचार करती हैय लेकिन जब बात हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में की जाये तो चाहिए कि हिंदी अपने बड़प्पन का परिचय दे और अन्य भारतीय भाषाओं के कालजयी साहित्य को अपने यहां लाए। जबकि हम जब अंगरेजी के सापेक्ष हिंदी को देखते हैं तो लगता है कि अभी ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनने के लिए हिंदी को लंबी यात्रा तय करनी है।
एसोसिएट प्रोफेसर, शोध एवं स्नातकोत्तर हिंदी विभाग
गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन) -285001
मोबाइल 9236114604 ूूण्बमदेनेपदकपंण्हवअण्पदझकंजंऋवदऋसंदह ेमंतबीमक पद क्मबमउइमत 2015
ूूण्ेंपजलांनदरण्दमजध्स्म्ज्ञभ्।ज्ञध्डध्डींंअपतैंतंदश्रंपदऋउंपदण्ीजउ ेमंतबीमक पद कमबमउइमत 2015
ठींतंजकपेबवअमतलण्वतह झपदकपंध्हिंदी-की-उपभाशाएं-एवं-बोलियां ेमंतबीमक पद क्मबमउइमत 2015
हिंदी भाशा स्वरूप शिक्षण वैश्विकता, संपादन डॉ कमल किशोर गोयनका एवं अन्य में विजयदŸा श्रीधर का ूूण्बमदेनेपदकपंण्हवअण्पदझकंजंऋवदऋसंदह ेमंतबीमक पद क्मबमउइमत 2015
Posted onSeptember 14, 2016Leave a commenton Edit
बानपुर और बुंदेलखंड banpur aur bundelkhand
alokrashmi_1_a coolection of quotations by dr rakesh narayan dwivedi
Posted onOctober 31, 2015Leave a commentonEdit
bhaiya-apne-gaon-mein बाबूलाल द्विवेदी राकेश नारायण द्विवेदी
sthan-nam-samay-ke-sakshi राकेश नारायण द्विवेदी
Posted onOctober 31, 2015Leave a commentonEdit
पदमयी हिंदी में श्रीमद्भगवद्गीता geeta in hindi poetry jugul kishore tiwaree ips
Posted onOctober 30, 2015Leave a commentonEdit
rahi masum raza aur unke aupanyasik patr राकेश नारायण द्विवेदी
Posted onOctober 29, 2015Leave a commentonEdit
sahityik shodh me samay राकेश नारायण द्विवेदी
Posted onOctober 29, 2015Leave a commentonEdit
बुंदेली गीतगोविन्द बाबूलाल द्विवेदी संकलन डॉ राकेश नारायण द्विवेदी
Posted onOctober 29, 2015Leave a commentonEdit

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