Saturday, April 1, 2023

मार्च २०२३

5/3/23 if you need to make an effort to go into meditation, you are still very far from being able to live the spiritual life. when it takes an effort to come out of it, then indeed your meditation can be an indication that you are in the spiritual life. says by the mother 6/३/23 होली पर अनेक कहानियाँ मिलती हैं। प्रह्लाद को उनके पिता हिरण्यकशिपु द्वारा अपनी बहिन और प्रह्लाद की बुआ होलिका द्वारा प्रह्लाद को जलाने की कहानी अधिकांश कही सुनी जाती है। होली रंगों का त्योहार है। रंग या वर्ण सृष्टि के व्यक्त होने की प्रारंभिक प्रक्रिया है। सृष्टि का उद्भव रंगों से हुआ है। रूप रंग में प्रकट होता है। आकाश और वायु अरूप है, इसलिए इनका कोई रंग नहीं होता। रूप अग्नितत्व से परिचालित होता है। अग्नि क्रिया होलिका पर्व का स्वरूप ही है। अग्नि से रूप बनते हैं, रूप रंगों में व्यक्त होते हैं। बिना रूप के सृष्टि कैसी? अर्थात् होली संसार का विलीनीकरण है। विभिन्न रंग एक के ऊपर एक डाले जाते हैं, उनका चटकपन तिरोहित होता जाता है। सब रंग बेरंग होकर रंगहीनता की ओर जा बढ़ते हैं। होली पर्व की यही सार्थकता है। होलिका में व्यक्ति का अहं रूप विलीन हो जाता है और इस पर्व के बदरंगी बहुविध हुल्लड़ और मूर्खताओं में से स्नात होकर वह अरूप होते हुए नवीनीकृत हो उठता है। ओशो कहते हैं.... होली जैसा उत्सव पृथ्वी पर खोजने से ना मिलेगा रंग गुलाल है आनंद उत्सव है तल्लीनता का मदहोशी का मस्ती का नृत्य का नाच का बड़ा सतरंगी उत्सव है | ७/३/२३ यू मानता हूँ मैं दौलत नहीं कमा पाया मगर तुम्हारा हर एक ग़म ख़रीद सकता हूँ। विष्णु सक्सेना ११/३/२३ वैदिक मंत्रों में गु (ग्वः) और गौ (गाव़ः) प्रारंभ से लेकर अंत तक बार-बार आते हैं। यह दो अर्थों में वेदों में आये हैं - गाय और प्रकाश की किरण। कर्मकाण्डी के लिए गौ का अर्थ भौतिक गाय मात्र है, परंतु गौ का अलंकार वेद में आने वाले सब प्रतीकों में सबसे अधिक महत्व का है। अश्व का अर्थ भी कर्मकाण्डी के लिए घोड़ा है, पर उसका प्रतीकार्थ है शक्ति। गौएँ प्रकाश की ही चमकती किरणें हैं, सूर्य की 'गौएँ' हैं। वे भौतिक शरीरधारी पशु नहीं हैं। वेद के गुह्य वचनों को 'निण्या वचांसि' कहा गया है। अग्नि की ज्वाला संकल्प की सप्त जिह्वा शक्ति है। यह परमेश्वर की ज्ञान प्रेरित शक्ति है। इंद्र शुद्ध सत् की शक्ति है जो भागवत मन के रूप में अभिव्यक्त है। इंद्र शक्ति से आविष्ट प्रकाश का ध्रुव है जो द्यौ से पृथ्वी पर उतरता है। सूर्य परम सत्य का स्वामी है। सोम आनंद का रस है वरुण एक वृहत् पवित्रता और स्वच्छ विशालता जो समस्त पाप और कुटिल मिथ्यात्व की विनाशक है। मित्र प्रेम और समग्र बोध की एक प्रकाशमय शक्ति है। अर्यमा सुस्पष्ट विवेचनशील अभीप्सा तथा प्रयत्न की एक अमरशक्ति है। भग सब वस्तुओं का उपयोग करने की एक सुखमय सहज अवस्था है। उक्त चारों सूर्य के सत्य की शक्तियां हैं। अश्विनौ हमारे ज्ञान के भागों और कर्म के भागों को अधिष्ठित करते हैं। ये हमारी मानसिक प्राणिक एवं भौतिक सत्ता को एक सुगम और विजयशाली आरोहण के लिए तैयार कर देते हैं। इला सत्य की दृढ़ आदिम वाणी सरस्वती- सत्य की बहती हुई धारा सरमा- अंतर्ज्ञान की देवी शुनी (अंतर्ज्ञान) दक्षिणा - ठीक ठीक विवेचन करना, क्रिया और हवि का विनियोग करना। वायु- प्राण का अधिपति पर्जन्य- द्युलोक की वर्षा देने वाला रुद्र- प्रचंड और दयालु, ऊर्जस्वी देव। विष्णु- विशाल व्यापक गति वाला। वैदिक कण्डिकाएँ और विधि विधान ऊपर से सर्वेश्वरवाद की और प्रकृति पूजा के लिए विहित हुए लगते हैं। वैदिक ऋचाएँ सायणाचार्य के अर्थों में कर्मकांड के लिए तो पाश्चात्य विचारकों के अर्थों में प्रकृति पूजा के लिए अस्तित्वमान हुई, परंतु गुप्त तौर से ये पवित्र वचन आध्यात्मिक अनुभूति और ज्ञान के प्रभावोत्पादक प्रतीक चिह्न और आत्मसाधना के आंतरिक नियम थे, जो उस समय मानव जाति का सर्वोच्च उपलब्ध ज्ञान था। यज्ञ का अभिप्राय है कर्म, ये कर्म आंतरिक हों या बाह्य। इस तरह यजमान होना चाहिए आत्मा अथवा व्यक्तित्व जो कर्ता है। यज्ञ संचालक होता, ऋत्विक, पुरोहित, ब्रह्मा, अध्वर्यु आदि कहे जाते हैं। देवता यज्ञ के पुरोहित हैं। एक अमानुषी सत्ता या शक्ति यज्ञ का अधिष्ठान करती है। पुरोहित का अर्थ है पुरः तथा हित यानि आगे रखा हुआ, प्रायः इससे अग्नि देवता का संकेत किया गया है। यह अग्नि ही उस दिव्य संकल्प या दिव्य शक्ति का प्रतीक है जो यज्ञ रूप से किए जाने वाले सब पवित्र कर्मों में क्रिया की संचालिका होती है। १२/३/२३ मन्म या मंत्र का अर्थ है मन के अंदर विचार का व्यक्तीकरण और ब्रह्म का अर्थ है हृदय या आत्मा का व्यक्तीकरण। हृदय में 'पुरुष' केंद्रभूत होकर आसीन हुआ माना गया है। हृदय की शक्ति द्वारा ही मंत्र रचित होता है। खाने वाला (भोक्ता) स्वयं भी खाया जाता है। मनुष्य देवों के पशु हैं। सत्य सत्तात्मक सत्य है ऋतम् गतिमय सत्य है बृहत् विशाल या विस्तृत है भू पृथ्वी द्यौ विशुद्ध मानसिक चेतना स्व द्यौ का ऊर्ध्व प्रदेश है अर्थात् प्रकाशमान मन भुवः वे विविध क्रियामय लोक है जो पृथ्वी के निर्मायक होते हैं। अंतरिक्ष भी इसे कहते हैं अंतराल में दिखाई देने वाला। विप्र यानि प्रकाशमान । सूर्य सत्य के प्रकाशों से मन वि विचारों को आलोकित करता है। सूर्य विप्र है। अग्नि वह दिव्य शक्ति है जो मर्त्य को ऊपर उठाने के लिए यहाँ शरीर में और मन में काम कर रही है। अदिति असीम सत्ता की देवी हैं। सविता का उपभोग सोम जो देवों का भोजन है, परम रस है। सव के दो अर्थ हैं उत्पत्ति, रचना और दूसरा रस का क्षरण। घृतम् अर्थात् मन का वह निर्मल प्रकाश जो सत्य को प्रतिबिंबित करता है। देवता गौ के अंदर जो ऊपर से आने वाले प्रकाश का प्रतीक हैं, इस घृतम् की शुद्ध धाराओं को पाते हैं। प्रकाश और शक्ति गौ और अश्व ये यज्ञ के उद्दिष्ट पदार्थ थे। इंद्र मन का अधिपति है वायु प्राण का। इंद्र के घोड़े भूरे रंग के तो सूर्य के हरित रंग के हैं जो अपेक्षाकृत अधिक गहरे पूर्ण और घने चमकीले सूचित होते हैं। वायु के नियुत है जो इंद्र द्वारा हांके जाते हैं। वसु अर्थात् सत्तत्व ऊर्ज् अर्थात् हमारी सत्ता का प्रचुर बल प्रियम् या मयस् अर्थात् हमारी सत्ता के वास्तविक तत्व के अंदर विद्यमान आनंद और प्रेम। यह वेदों में वेदांत का सच्चिदानंद है। न नूनमस्ति नो श्वः कस्तद् वेद यदद्भुतम्। अन्यस्य चित्तमभि संचरेन्यमुताधीतं वि नश्यति।। ऋग्वेद १/१७०/१ जो न आज है न कल जो देवों की गति से गतिमान होता है पर स्वयं मन जब उसे पकड़ने का प्रयत्न करता है तो उसके सामने से अंतर्धान हो जाता है। यही तत् है, जो तत्व कहा गया है। अतप्ततनूर्न न तदामो अश्नुते। जो व्यक्ति कच्चा है और जिसका शरीर तप्त नहीं हुआ है वह उसका आस्वादन नहीं ले सकता या उसका रस नहीं ले पाता। प्रभु का अर्थ है ऐसा होना कि चेतना के सम्मुख भाग में एक विशेष बिंदु पर किसी विशेष वस्तु या अनुभूति के रूप में अस्तित्व में आना। विभु का अर्थ है होना या व्यापक रूप में अस्तित्व में आना। अव स्पृधि पितरं योधि विद्वान् पुत्रो यस्ते सहसः सून ऊहे। ऋग्वेद ५/३/९ ....तू ज्ञानी होकर 'पिता' का उद्धार कर, जो हमारे अंदर तेरे 'पुत्र' के रूप में धारित है (पाप तथा अंधकार) को दूर भगा दे 'हे शक्ति के पुत्र' १६/३/२३ काम भावना का उद्दीपन न रहने पर जननांगों की क्रिया भी बाह्य अंगों की भाँति जड़वत हो जाती है। बाह्य अंग क्या क्रिया कर रहे, किस तरह परिचालित हो रहे हैं, बहुधा इसका नोटिस ही नहीं रहता। स्त्री पुरुष के जननागों के मिलने पर भी उद्दीपन नहीं वरन् एक जड़ता हो जाती है। सुप्तावस्था में जैसे गतिविधि शून्य शारीरिक अंग रहते हैं, परंतु यह स्वप्नावस्था का भाँति भी नहीं है, जिसमें मन चलता है, शरीर नहीं चलता। यह अवस्था तो मन और शरीर का जड़वत हो जाना है। जिसमें इच्छा या काम का लेश नहीं रहता और हम चैतन्य काष्ठा हो जाते हैं। १९/३/२३ विश्व धरोहर वेलूर या एलोरा (मूल नाम वेरुल) गुफ़ाएँ मानव सभ्यता के अनथक परिश्रम और कल्पना शक्ति के चामत्कारिक उत्कर्ष की विलक्षण उदाहरण हैं। एक पहाड़ को काटकर पूरा मंदिर बना दिया गया, कैलास मंदिर। एलोरा की ३४ गुफाओं में १७ बौद्ध, १२ हिंदुओं और ५ जैन गुफाओं का निर्माण एक पर्वत शृंखला में क्रम से किया गया है। यहाँ पास में घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग का मंदिर दर्शनीय है। यह संख्या में १२वाँ या अंतिम ज्योतिर्लिंग है, अपना यह नौवें ज्योतिर्लिंग का दर्शन है। यहाँ से १२ किमी दूर दौलताबाद है जो मुहम्मद तुगलक की राजधानी रही है। ३२ किमी औरंगाबाद है, जिसे अब छत्रपति शंभाजी नगर कर दिया गया है। सब मिलाकर देवगिरि की यह अनौखी धरती पौराणिक काल से लेकर सल्तनत और मुग़ल काल से होती हुई प्रसिद्धि को प्राप्त रही है। २०/३/२३ अगर पुरुष सूक्त या ब्राह्मणोस्य मुख मासीद.....ऋचा को बाद की रचना भी मान लिया जाए तो भी ऋग्वेद में अग्नि, इंद्र, मरुत इत्यादि देवताओं का वर्णन बार-बार आया है, यह वर्णोत्पत्ति के ही तो आधार हैं। बाद में वेदांत या उपनिषद ग्रंथों में ब्रह्म और क्षत्र पदो का वर्णन हुआ है। गीता में यह वर्ण विभाजन स्पष्ट हो गया है। गीता उपनिषदों का सार संग्रह जैसा है। यह सही है कि वर्ण विभाजन का आधार गुण कर्म ही रहे होंगे। किंतु इस विभाजन के सूत्र वेद ग्रंथों में भी मिलते हैं। वर्ण व्यवस्था से हम सबको कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, उसमे ऊँच नीच की भावना यदि न रहे। वर्ण का अर्थ रंग है और रंग रूप की अभिव्यक्ति के प्रथम संकेतक हैं। इस प्रकार वर्ण सृष्टि उद्गम के परिचायक हैं, आप इसे कुछ और नाम भी दे सकते हैं, पर यह सृष्टि उद्गम की पहचान हैं, इसे कैसे अस्वीकार कर सकते हैं।🙏 इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रान्त भवन में टिक रहना, किन्तु पहुँचना उस सीमा तक जिसके आगे राह नहीं है। ~ जयशंकर प्रसाद २१/३/२३ ग्यान कहै अग्यान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास। निरगुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास।। २५/३/२३ सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता। हे देवि!ह्रासवृद्धि आदि परिणामों से रहीताप ही (देवताओं को हविर्दान के समय उच्चारित) स्वाहा मंत्र रूपिणी हो, आप ही (पितृ गणों को पिंडादि दान के समय उच्चारित) स्वधा मंत्र रूपिणी हो, आप ही (इंद्र को हविर्दान के समय सोलह विभिन्न धुनों पर आवृत्ति होकर) वषट् मंत्र स्वरूपिणी हो, आप ही स्वारात्मिका ( उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित अथवा अकारादि) हो, आप ही अमृत रूपिणी एवं (ह्रस्व दीर्घ प्लुत मात्रा रूपिणी अथवा अकार उकार मकार लक्षणा) त्रिविध मात्रा रूप में अवस्थित (प्रणवरूपिणी) हो। अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषत:। कालोऽर्ध मात्राः कादीनां त्रयस्त्रिंशत उच्यते। अर्ध मात्रा प्रत्येक अक्षर में अनुस्यूत है। उदाहरण के लिए अ लें, जब यह अर्ध मात्रा हो जाता है, तब यह अनुच्चार्य हो जाता है। यह अ सभी तेतीस वर्णों में मिलता है तब वे वर्ण उच्चार योग्य बन पाते हैं। विशेष रूप से जो पूर्णतया उच्चार्य नहीं, वह वाक्यातीत अर्धमात्रा रूपी निर्गुण या तुरीय आप ही हो। हे द्योतनशीले! आप गायत्री मंत्र रूपिणी अथवा गायत्रीमंत्र की अधिष्ठात्री देवता सविता हो तथा आप ही विकारहीन श्रेष्ठ शक्ति तथा देवगणों की आदिमाता हो। स्वयं राजते इति स्वरः व्यक्ति योगात् व्यंजनः तत् व्हिच is made manifest. चंद्रश्च नाम नैवान्यो भोग्यं भोक्तुश्व नापरम्। भोक्तैव भोग्यभावेन द्वैविध्यात्संव्यवस्थितः। घटस्य न हि मोग्यत्वं स्वं वपुर्मातृगं हि तत्॥ when there are two elements (one is the observer and one is the observed) and they get contact with each other and the creation of the universe takes place. चमत्कार का अर्थ है आनंद, आस्वाद २६/३/२३ कलयति (गति), परामर्शयिति (जानना), सृजिति (निर्माण), क्षिपिति (फेंकना), संकोचायिति (सिकोड़ना) और विकासयिति (फैलाना) संकोचयिति विकासयिति च इति काली तु कालयः इच्छाशक्तिरुमा कुमारी। जगन्माता या परमपिता की इच्छाशक्ति को उमा कहा गया है, कुमारी कहा है। उमा परमात्मा की स्वातंत्र्य शक्ति है। कुमारी वह शक्ति है जो ब्रह्मांड की सृष्टि स्थिति और लय करती है। कुमार का धात्विक अर्थ क्रीड़ा से विकसित हुआ है। कुम् मारयति भी कुमारी को कहा गया - भेद दृष्टि का जो संहार कर दे और अपने स्वरूप में स्थित हो जाये। कुमारी को वर्जिन समझा गया है। वर्जिन का अर्थ है जिस ने किसी अन्य से क्रीड़ा न की हो। वह अपने आनंद स्वरूप में ही स्थित हो। उमा कुमारी पूरी तरह संसार से अनासक्त होती है, उसका आनंद परमुखापेक्षी नहीं होता और जब वह शिव सायुज्य प्राप्त करती है तो वह मात्र शिवमयी होकर रहती है। २८/३/२३ शब्द अंतःप्रेरित वाणी है, जो सत्य के उस विचार प्रकाश को अभिव्यक्त करती है जो आत्मा में से उठता है और मन द्वारा आकृतियुक्त होता है। २९/३/२३ चित्तमेव हि संसारस्तत्प्रयत्नेन शोधयेत्। यच्चित्तस्तन्मयो भाति गुह्यमेतत्सनातनम् ॥ चित्त ही संसार है। हर पुरुष को अभ्यास द्वारा अपने चित्त का शोधन करना चाहिए। जो अपने चित्त को ब्रह्म में लगाता है, वह मनुष्य ब्रह्ममय हो जाता है। यह शाश्वत और परम गोपनीय बात है ॥ या वर्णपदवाक्यार्थस्वरूपेण एव वर्तते. अनादिनिधनानंता सा मां पातु सरस्वती.. जो (क्रमशः उत्तरोत्तर) प्रत्येक वर्ण, पद तथा वाक्य द्वारा प्रतिपादित अर्थ के स्वरूप में विद्यामान हैं, वे आदिअंतहीना एवं अनंत सरस्वती मेरी रक्षा करें. ५/२/२२ की फ़ेसबुक पोस्ट तुलसी की स्त्री चेतना प्रचलित अर्थों में स्त्री द्वारा स्त्री के बारे में स्त्री के लिए किया गया साहित्य सृजन स्त्री विमर्श कहा जाता है। तुलसी साहित्य में स्त्री के बारे में और स्त्री के लिए प्रचुर लेखन हुआ है। तुलसी साहित्य में चित्रित स्त्री संवेदना पर विचार करते हुए डॉ रामकुमार वर्मा कहते हैं- ‘‘तुलसीदासजी ने नारी जाति के प्रति बहुत आदर-भाव प्रकट किया है। पार्वती, अनुसुइया, कौशल्या, सीता तथा ग्रामबधू आदि की चरित्र रेखा पवित्र और धर्मपूर्ण विचारों से निर्मित हुई है। कुछ आलोचकों का कथन है कि तुलसीदास ने नारी-जाति की निंदा की और उन्हें ढोल, गंवार की कोटि में रखा, परंतु मानस पर निष्पक्ष दृष्टि डाली जाए तो विदित होगा कि नारी के प्रति भर्त्सना के ऐसे प्रमाण उसी समय उपस्थित किए गए जब नारी ने धर्म विरोधी आचरण किए।’’ कुछ नवचिंतक स्त्री, ढोल, गंवार आदि को तुलसी द्वारा ताड़ना के अधिकारी कहे जाने की व्याख्या मारने के अर्थ में नहीं, अपितु पहचानने के अर्थ में करते हैं। ऐसी प्रगतिशीलता से यह तो स्पष्ट ही है कि हमारा समाज इन्हें मारने के अर्थ में नहीं ले रहा है। मिश्र बंधुओं की मान्यता है कि राम से संबंधित नारियां तो सुंदर और पवित्र हैं किंतु शेष नारियां जड़, अपावन तथा स्वतंत्रता के अयोग्य हैं। कुछ साहित्यकारों का अनुमान है कि नारी संपर्क के अभाव के कारण ही ऐसा हुआ है। गोस्वामीजी को न तो जननी का वात्सल्य मिला था और न नहीं स्त्री का प्यार। डॉ देवीशरण रस्तोगी ने तुलसी की मूलचेतना का प्रश्न उठाते हुए कहा है कि पात्रों की अच्छाई-बुराई की उनके पास एक ही कसौटी है- रामभक्ति और उस भक्ति का साधन श्रुतिसम्मत होना चाहिए। नारी रूप के चित्रांकन में भी इसी भावना का हाथ रहा है। तुलसी ने नारी के काम से युुक्त लावण्य और आकर्षण शक्ति से भयभीत होने के कारण संतों और ज्ञानियों की भांति निंदा की है। वहीं महात्मा गांधी कहते हैं कि गोस्वामीजी ने स्त्रियों पर अनिच्छा से अन्याय किया है। अन्यथा उनकी दृष्टि तो इतनी व्यापक रही है कि उनके ही शब्दों में- राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी।। एक नारि ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी।। रामचरितमानस की कथा चित्रित करते समय तत्कालीन समाज में स्त्री की ब्यथा का पूरा संज्ञान लिया गया है। परिवार में स्त्री पराधीन थी। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री की दोयम स्थिति पर तुलसी को क्षोभ था। स्त्री की बंदिनी और दयनीय दशा को देखकर ही उन्होंने कहा- कत बिधि सृजी नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं।। और बहुरि-बहुरि भेंटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं।। तुलसी ने मानस में श्रीराम द्वारा बाली के प्रति कहलवाया है कि छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या - ये चारों समान है। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता- अनुजबधू भगिनी सुतनारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी।। इन्हहिं कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधे कछु पाप न होई।। किष्किंधाकांड 8/4 स्त्री पुरुष को किस प्रकार सन्मार्ग दिखाती है और पुरुष उसे कैसे धता बताता है। मानस में इस प्रकार के प्रसंग आते हैं। पत्नी मंदोदरी की सीख रावण नहीं मानता ह। सुग्रीव की पत्नी को रखे जाने पर पत्नी द्वारा मना किए जाने पर भी बाली नहीं मानता है, भगवान राम द्वारा बाली का बध किए जाने के समय बाली के पूछने पर राम स्मरण कराते हैं- मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना।। किष्किंधाकांड 8/5 पिता जनक सीता को तपस्विनी वेश में देखकर विशेष प्रेम और संतोष करते हैं, वे कहते हैं’ पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ।। अयोध्याकांड 286/1 स्त्री और पुरुष के संबंध में उŸारकांड में बहुत सी बातें की गई हैं, जो किसी कथा-पात्र द्वारा नहीं, अपितु मानस के अलग-अलग चार कथावाचकों में एक काकभुशुंडि द्वारा कही गई हैं। कलियुग और उसके प्रभाव वर्णन में स्त्री संबंधी पदों का आशय इस प्रकार है- कलियुग में सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में है और बाजीगर के बंदी की तरह (उनके नचाए) नाचते हैं। सुहागिनी स्त्रियां तो आभूषणों से रहित होती हैं, पर विधवाओं के नित्य नए शृंगार होते हैं। जो पराई स्त्री में आसक्त , कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह और ममता से लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म और जीव को एक बताने वाले) ज्ञानी हैं। कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी चाल को छोड़कर घर में दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक स्त्री का मुंह नहीं दिखाई पड़ता। जब से ससुराल प्यारी लगने लगी, तब से कुटुंबी शत्रु रूप हो गए। स्त्रियों के बाल ही भूषण हैं (उनके शरीर पर कोई आभूषण नहीं रह गया) और उनको भूख बहुत लगती है (अर्थात् वे सदा अतृप्त ही रहती हैं)। वे धनहीन और बहुत प्रकार की ममता होने के कारण दुखी रहती हैं। क्या स्त्री और क्या पुरुष सभी शरीर के पालन-पोषण में ही लगे रहते हैं- तनु पोषक नारि नरा सगरे। वस्तुतः दांपत्य के जिस आदर्श रूप को तुलसी ग्राह्य समझते थे, उसे उनकी ‘कवितावली’ के इस पद में देखा जा सकता है- जल को गए लक्खनु, हैं लरिका/परिखौ पिय! छांह घरीक ह्वै ठाढ़े।/पोंछि पसेउ, बयारि करौं,/अरु पाय पखारिहौं भूभुरि-डाढ़े।।//तुलसी रघुबीर प्रिया श्रम जानि कै/बैठि विलंब लौं कंटक काढ़े।/जानकी नाह को नेहु लख्यो/ पुलको तनु, बारि बिलोचन बाढ़े।। कवितावली 2/12 ‘‘संसार-साहित्य में पति-पत्नी के पारस्परिक प्रेम, संवेदन एवं तादात्म्य का इतना सुंदर, पावन एवं प्रेरक चित्रण कहीं नहीं प्राप्त होता। कोमलतम-सुंदरतम सीता कठोरतम-अनुपयुक्ततम वनपथ पर चलते-चलते थक गई हैं। कवितावली के ग्यारहवें पद में सीता पर्णकुटी कहां बनाएंगे प्रश्न करती हैं, प्रिया की कठिनाइयों को समझकर भगवान राम की आंखों से आंसू झरने लगते हैं- तिय की लखि आतुरता, पिय की अंखियां अति चारु चलीं जल च्वै। पति को लक्ष्य प्राप्ति में बाधा न पहंुचे। इसीलिए सीता जल लाने गए लक्ष्मण की प्रतीक्षा के मिस विराम का आग्रह करती हैं। ‘लरिका’ की भावशबलता में शालीनता, संवेदन, सहयोग, वात्सल्य, स्नेह इत्यादि भावों की व्यंजना अनायास ही मर्म का स्पर्श कर जाती हैं। राम ने विराम ही नहीं किया , प्राणप्रिया के शरीर में चुभे कंटक निकालने के प्रेम-संपन्न बहाने से बहुत देर तक रुके भी रहे। इसे डॉ रामप्रसाद मिश्र दांपत्य का अपवर्ग कहते है, जहां से पतन संभव नहीं। सीता और राम का प्रेम कोरा और वायवी नहीं, वरन् वे दोनों पूर्ण कर्मपाकी और लोकसंग्रही प्रेम में संलग्न हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है ‘‘राम और सीता के प्रेम का विकास मिथिला या अयोध्या के महलों और बगीचों में न दिखाकर दण्डकारण्य के विस्तृत कर्मक्षेत्र के बीच दिखाया है। उनका प्रेम जीवन यात्रा के मार्ग में माधुर्य फैलाने वाला है, उससे अलग किसी कोने में चौकड़ी या आहें भरने वाला नहीं। ............ सीताहरण होने पर राम का वियोग जो सामने आता है, वह भी चारपाई पर करवटें बदलने वाला नहीं है, समुद्र पार कराकर पृथ्वी का भार उतारने वाला है। स्त्री विमर्श में आज मोटे तौर पर तीन तरह के रूप दिखाई पड़ते हैं। एक; जिसमें स्त्री की अधिकाधिक आर्थिक स्वतंत्रता पर बल दिया जाता है। दूसरे में स्त्री और पुरुष दोनों की सहमति और सहयोग से स्त्री सशक्तीकरण किया जाता है। तीसरा प्रकार ऐसे विमर्शकारों का है जो अपनी दैहिक स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए तदनुसार जीवन जीने की हामी हैं। यह तीसरा प्रकार स्त्री विमर्श का अतिवादी रूप है, जिसकी कुछ व्याख्याओं से तुलसी की यह स्थापनाएं मेल न खाती हों, पर आज समाज का एक बड़ा हिस्सा तुलसी के आदर्श को श्रेयस्कर मानता है। जिस तरह पुरुषवाद समाज के लिए अभीष्ट नहीं, उसी तरह स्त्रीवाद भी किसी समाज के लिए कैसे उपयुक्त हो सकता है? ११/१/१५ की फ़ेसबुक पोस्ट ३०/३/२३ रामनवमी की आप सबको हार्दिक शुभकामनाएँ.... गतिः स्थानं स्वप्नजाग्रदुन्मेष निमेषणे। धावनं प्लवनं चैव आयासः शक्तिवेदनम्।। बुद्धिभेदास्तथा भावाः संज्ञाः कर्माण्यनेकशः। एष रामो.... गति, स्थान, विकल्प रूप स्वप्न, ज्ञान रूप जाग्रत, उन्मेषण, निमेषण, धावन, प्लवन, आयास, शक्तिवेदन, बुद्धि और उसके भेद, भाव, सारी संज्ञाएँ और सारे कर्म ये चौदह (शब्दतः और अर्थतः दोनो दृष्टियों से) राम ही हैं। राम को जानना है तो रामायण के साथ-साथ 'योग वासिष्ठ' से जानना होगा। भक्ति की अंधता को ज्ञान का दीपक दूर करता है। और ज्ञान का अहंकार भक्ति के प्रेम से कटता है। राम को योग वासिष्ठ से, कृष्ण को गीता से और शिव को शिव सूत्र से जानना चाहिए। इन सबको एक साथ जानने के लिए उपनिषदों को समझना चाहिए। राम एक परमात्मा वाची शब्द है। राम में जीव और परम का लीला विहार है. निशब्द से शब्द का और शब्द से ओंकार का उद्भव होता है. इस ॐ से रा और म अक्षर उत्पन्न होते हैं. एक विशेष ध्वनि रूपी प्रकंपन (vibration) से (जिसको शास्त्रों में शब्द कहा गया है) पूरी सृष्टि का खेल चल रहा है । इसी से सूर्य, चन्द्रमा, तारे आदि गति करते रहते हैं । इसी प्रकंपन (vibration) से मनुष्य़ का शरीर बालापन, जवानी और बुढ़ापा आदि को प्राप्त होता है । इसी प्रकंपन (vibration) से आज बनी एक मजबूत बिल्डिंग निश्चित समय बाद जर्जर होकर धराशायी हो जाती है । आधुनिक विज्ञान की समस्त क्रियायें इसी प्रकंपन (vibration) पर आश्रित हैं । जैसे मोबायल फ़ोन से बात होना, वायरलेस, इंटरनेट, टी. वी. आदि के सिग्नल । हमारी आपस की बातचीत । यानी हम हाथ भी हिलाते है तो वह भी इसी vibration की वजह से हिल पाता है । इसी को चेतना या करंट भी कह सकते हैं । शुद्ध रूप में यह *र्र्र्र्र्र्र्रर्र्रर्र्रर्र्र र्र्रर्र्रर्र्* इस तरह की धुन होती है । बाद में आदि शक्ति या महामाया द्वारा इसमें *म्म्म्म्म* जोड़ दिया गया । तब यह धुन *र्म्र्म्र्म्र्म र्म्र्म्र्म्र्म* इस तरह हो गई । सरलता से समझने के लिये *रररररर* हो रही धव्नि माया से अलग हो जाती है । लेकिन जब तक *रमरमरम* ऐसी धुनि है तब तक ये माया से संयुक्त हैं । इसीलिये परमपिता परमात्मा (सतपुरुष) को सबसे बडा माना जाता है । यही 'र' और 'म' पहले स्त्री पुरुष हैं । यही असली राम (सतपुरुष) है । संत या योगी इसी राम को पाने की या जानने की लालसा करते हैं । एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट घट में बैठा एक राम का सकल पसारा,एक राम त्रिभुवन से न्यारा . तीन राम को सब कोई ध्यावे, चौथे राम को मर्म न पावे। चौथा छाड़ि जो पंचम ध्यावे.. राम को जानने के लिए नव दुर्गा की उपासना और कृपा प्राप्त करनी होती है। तभी यह रामनवमी का दिन आता है। रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा। श्रीरामनाम श्रीभगवान का एक विशिष्ट नाम है । इसकी महिमा अनन्त है । शास्त्रों ने इसी को तारक ब्रह्म कहा है। यह प्रणव से अभिन्न है ,इस बात को ऋषि मुनियों ने बार बार बतलाया है । कहा जाता है कि परम भागवत श्री गोस्वामी तुलसीदास को देहत्याग के कुछ दिनों पूर्व अलौकिक भाव से श्रीमन महावीर जी ने रामनाम का रहस्य बतलाया था । उन्होंने कहा कि विश्लेषण करने पर रामनाम में पांच अवयव या कलाओं की प्राप्ति होती है । इसमें प्रथम का नाम तारक है और पिछले चारों नाम क्रमशः दण्डक , कुंडल , अर्धचन्द्र , और बिंदु हैं । मनुष्य स्थूल ,सूक्ष्म और कारण शरीर को लेकर इस मायिक जगत् में विचरण करता रहता है । जबतक माया का भेद नहीं होता , तबतक महाकारण देह की प्राप्ति नहीं हो सकती । साधक को गुरूपदिष्ट क्रम के अनुसार स्थूल देह के समस्त तत्वों को नाम के प्रथम अवयव तारक में लीन करना पड़ता है । स्थूल देह एवं अन्यान्य तीनों देह पाञ्चभौतिक हैं । स्थूल में अस्थि , त्वक आदि पाँच पृथ्वी के , भेद , रेत आदि पाँच जल के , क्षुधा , तृष्णा आदि पाँच तेज के , दौड़ना , चलना आदि , पाँच वायु के , और काम , क्रोध , लोभ आदि पाँच आकाश के कार्य हैं । अन्य तीन देहों में भी इस प्रकार पंचभूतों के अंश हैं । प्रत्येक तत्व की पाँच प्रकृति होती हैं । इसी से स्थूल देह में पाँच तत्वों की पच्चीस प्रकृति हैं । इसी प्रकार अन्य देहों में पच्चीस प्रकृति हैं । साधना के प्रभाव से स्थूल देह के पांचों तत्व जब तारक में लीन हो जाते हैं , तब सूक्ष्म देह के पांचों तत्वों को नाम के दूसरे अवयव दण्डक में लीन करना पड़ता है । इधर पूर्वोक्त तारक भी स्थूल तत्वों को लेकर दण्डक में लीन हो जाता है । इसके बाद कारण देह के तत्व नाम के तीसरे अवयव कुंडल में लीन हो जाते हैं । कारण देह की निवृत्ति के पश्चात शुद्ध सत्वमय महाकारण देह को नाम के चतुर्थ अवयव अर्धचन्द्र में लीन करना पड़ता है । महाकारण तक जड़ का ही खेल समझना चाहिए । हाँ , महाकारण देह जड़ होने पर भी शुद्ध है , परन्तु स्थूल , सूक्ष्म और कारण जड़ अशुद्ध हैं । महाकारण -देह के अर्धचंद्र में लीन हो जाने के बाद कैवल्य देहमात्र बच रहता है । यह विशुद्ध चित्स्वरूप और जड़ सम्बन्ध से रहित है । अर्धचन्द्र के बाद नाम का पाँचवां अवयव या कला बिंदु रूप से प्रसिद्ध है । बिंदु पराशक्ति श्री जानकी जी का स्वरूप है । बिंदुरूपा श्री जानकी जी का आश्रय लिए बिना कलातीत श्री राघव जी का सन्धान प्राप्त नहीं किया जा सकता । बिंदु के अतीत रेफ ही परब्रह्म श्री रामचंद्र हैं । बिंदु रूपिणी श्री सीता जी और रेफरूपी श्री रामचंद्र जी में दृढ़ अनुराग तब अचल हो जाता है , तब भवबंधन से मुक्ति मिल जाती है । और तभी सिद्ध पंचरसों का आस्वादन हो सकता है , इससे पहले नहीं । शांत रस के रसिक प्रह्लाद आदि , दास्य के हनुमान आदि , सख्य के सुग्रीव , विभीषण , वात्सल्य के दशरथ , और श्रृंगार -रस के मूर्त-स्वरूप जनकपुर की युवतियां ----विशेषतः श्री जानकी जी स्वयं हैं । कैवल्य- देह में चित्त्तव का स्फुरण वर्तमान है ।उसके बाद तत्वातीत ब्रह्मवस्तु है , जो शक्तिरूप में श्री जानकी के नाम से और शक्ति के आश्रय के रूप में श्री राम के नाम से भक्तों के लिए सुपरिचित है । महावीर जी ने जो उपदेश दिया है ,उसका तात्पर्य यही है कि बिंदु का आश्रय लिए बिना निष्कल परब्रह्म की ओर अग्रसर नहीं हुआ जा सकता । वैसे प्रयत्न से बड़े अनर्थ की संभावना है-- तुलसी मेटे रूप निज बिंदु सीय कौ रूप । देख लखै सीता हिये राघव रेफ अनूप ।। तुलसी जो तजि सीय कू बिंदु रेफ में चाहु । तौ कुम्भी में कल्प शत जाहु जाहु पर जाहु ।। अतएव जो रामनाम के रसिक हैं , वे अर्धचंद्र बिंदु और रेफ को एक कर डालते हैं ,पृथक नहीं होने देते । और इस एक में ही उनके आस्वादन के लिए अचिन्त्य विचित्र लीलाएं प्रस्फुटित हो उठती हैं । रामनाम की महिमा श्री साधना // पृष्ठ 110 ३१/३/२३ वेदों में वर्णित आर्य अक्रान्ताओं तथा गुहा निवासी द्रविड़ों के बीच राजनैतिक व सैनिक संघर्ष नहीं, वरन यह तो वह संघर्ष है जो 'प्रकाश' के अन्वेषकों और अंधकार की शक्तियों के बीच होता है। गौएँ हैं सूर्य तथा उषा की ज्योतियां, वे भौतिक गायें नहीं हो सकतीं। गौओं का विशाल भयरहित खेत जिसे इंद्र ने आर्यों के लिए जीता 'स्वः' का विशाल लोक है, सौर 'प्रकाश' का लोक है, द्यौ का त्रिगुण प्रकाशमय प्रदेश है। यदि हम चाहें तो यह भी कल्पना कर सकते हैं कि भारत में दो ऐसे विभिन्न सम्प्रदायों के बीच एक संघर्ष हुआ करता था। इन संप्रदायों के भौतिक संघर्ष को देखकर उससे ही ऋषियों ne इन प्रतीकों को लिया तथा उन्हें आध्यात्मिक संघर्ष में प्रयुक्त kar दिया, वैसे ही जैसे उन्होंने भौतिक जीवन के अन्य अंग उपांगों को आध्यात्मिक यज्ञ, आध्यात्मिक संपदा और आध्यात्मिक युद्ध तथा यात्रा के लिए प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया। यह कल्पना सही हो, न हो, इतना निश्चित है कि ऋग्वेद में जिस युद्ध और विजय का वर्णन हुआ है, वह कोई भौतिक युद्ध और लूटमार नहीं बल्कि एक आध्यात्मिक संघर्ष और आध्यात्मिक विजय है। वैदिक सूक्त वस्तुतः प्रतीकवादियों और रहस्यवादियों की पवित्र धार्मिक कविताएँ हैं, न कि प्रकृति पूजक जंगलियों के गीत और न उन असभ्य आर्य आक्रांताओं के जो कि सभ्य और वैदान्तिक द्रविड़ों से लड़ रहे थे। वर्ण का अर्थ स्वभाव है, क्या बिना स्वभाव कोई व्यक्ति हो सकता है। वर्ण या स्वभाव की व्यवस्था या नियमन मानव समाज के लिए करना अपरिहार्य है।