१/१/२२
योगयुक्त न होने के पूर्व किसी का प्रणाम स्वीकार करना वर्जित है. जो योग्युक्त न हो (पिता माताऔर गुरुजनों को छोड़कर) उसे प्रणाम करना भी नहीं चाहिए, अन्यथा कर्म संस्कार का परस्परसमागम सम्भावित है. जो प्रणाम करता है, उसका अपना तेज मस्तक की ओर गतिशील होना चाहिए. वहाँ से वह प्रणम्य के चरणों में संचरण करता है. जो प्रणाम लेता है, उसका तेज चरणोन्मुख होनाआवश्यक है. यदि प्रणम्य का तेज ऊर्ध्वगामी है, उस स्थिति में प्रणाम करने पर प्रणामकारी तत्क्षणसमाधि में प्रवेश कर सकता है(इससे प्रणामकारी का दैहिक अहित भी संभव है, कारण अभी उसकाआधारबल न्यून है) अनंत की ओर गोपीनाथ कविराज
२/१/२२
अ अव्यक्तावस्था का अंतिम क्षण और व्यक्तावस्था का पूर्व क्षण होता है. इसलिए अ के दो विरोधीअर्थ प्रचलित हैं.
महामुद्रा में सिर घुटनों से मिलने लगा है. वह स्थिति जो गुरुजी के आश्रम में ब्रह्मचारी जी करके बतातेहैं. करते समय वे नोट देते हैं कि साधक के हाथ जहां तक पहुँचे पर्याप्त है. सिर घुटनों से लगना कईवर्षों के अभ्यास के बाद ही सम्भव है. तीन वर्ष हो गए, अचानक सिर घुटनों से लग गया, तीन चारदिनों से ऐसे ही हो रहा है. यह बिल्कुल सच है कि साधना भी बिना कृपा के पूरी होना संभव नहीं. यद्यपि कृपा हो जाए तो फिर साधना का उद्देश्य ही फलीभूत हो गया.
३/१/२२
अ अव्यक्त की अंतिम और व्यक्त की प्रारम्भिक दशा है. इसलिए अ के दोनों अर्थ हैं हैं और नहीं. यहपूर्ण है और शून्य भी. अ को अधिकांशतः नहीं के अर्थ में व्यक्त किया गया है. व्यंजन या स्पर्श वर्णों मेंसर्वत्र यह विद्यमान है. बिना अव्यक्त अ के कोई ध्वनि कैसे व्यक्त हो सकती है. इस अ की महिमा हीगोचरित हो रही है और इसी अ में अंततः सभी मातृकाओं को लय होना है. अ शिव है, ह शक्ति औरअनुस्वार नर है. अ प्रारंभिक वर्ण है और ह अंतिम. इन दो से ही नर शक्ति गतिमान है. इस एक वर्ण केभीतर प्रवेश करने से ही आवरण हट जाता है. यज्ञ कार्यों में एक चक्र बनता है जिसमें ४९ गोलाकारआकृतियाँ बनती हैं. ४८ पूरी आकृतियाँ होती हैं, पर ४९वीं का विभाजन हुआ रहता है, यह अ है. इससेयह चक्र मिलकर ५० का हो जाता है. वर्णमाला में ५० अक्षर होते हैं. नित्या और षोडशी इत्यादि नामोंसे जिसे जाना गया वह इसी अव्यक्त को मिलाकर बनती है.
पूर्णिमा और अमावस्या १५-१५ दिनों में आते हैं. यह भी काल की गणना को ठीक से नही व्यक्त करपाते. एकाध दिन कम अधिक होते रहते हैं. अंग्रेज़ी कैलेंडर को काल गणना के लिए सर्व स्वीकार्यमाना गया है, पर यह भी एक समय के बाद समायोजित किया जाता है. दुनिया का कोई कैलेंडरकाल को बाँट नहीं सका है. उसकी कोई कला अलग रह जाती है, इसे हाई षोडशी और योगिकशब्दावली में शिव समुद्र कहा गया है. यह अव्यक्त है. अव्यक्त है पर यह व्यक्त भी होती है. परमात्माद्वारा श्वास और प्रश्वास से दो अलग अलग गतियों को व्यक्त किया है. इन्हीं से काल का विभाजनकिया जाता है, पर द्वादशांत में उपस्थित उस अव्यक्त की स्थिति को मापा नहीं जा सकता.
अत एव विसर्गोंsयमव्यक्तहकलात्मकः.
काम तत्वमितिश्रीकुल गुह्वर उच्यते. तंत्रालोक ३/१४६
विसर्ग अव्यक्त \"ह\" कलात्मक माना गया है. श्रीमतकुल गुह्वर शास्त्र में इसे कामतत्व भी कहते हैं. हकला हकार के आधे का भी आधा भाग होती है. उस समय यह अव्यक्त रहती है. उसमें स्वर वर्ण कीपृथकता का लेश मात्र नहीं होता.
हंस शून्य प्राण ये संज्ञाएँ हकार की कही गयी हैं. हकार वह अक्षर है, जिसका कभी क्षोभ नहीं होता.
सः में हकार है और अकार भी.
काम तत्व का उठान होता है जबकि इच्छा उदित(produced) होती है.
क़ेवलं शास्त्रमाश्रित्य न कर्तव्यों विनिर्णयः.
आज्ञा गुरुणामविचारणीया
४/१/२२
नाम और रूप शब्द और अर्थ ही हैं. दोनों में अनिवार्य पारस्परिक संबंध है. शब्द आयत्त होने पर उसकेअर्थ की प्राप्ति होती है.. इसी प्रकार अर्थ प्राप्त हो जाने पर उसके शब्द का प्रकटीकरण हो जाता है. दोनों में भेदाभेद संबंध होने के कारण एक के अभाव में दूसरा नहीं रह सकता.
शब्दोदय के साथ ही उसके वाच्य अर्थ का आविर्भाव होने लगता है.
वर्णभाव गलित होते ही नादरूपता का उन्मेष होता है. यही उर्ध्वगति है.
क्रिया भाव अथवा शब्द में से किसी एक का परिवर्तन कर देने पर संपूर्ण अस्तित्व का परिवर्तन होजाता है.
चिन्मय गुलाब सर्वप्रथम हृदय में उद्भूत होता है. सूक्ष्माकृति रूप में. इसका बहिर्जगत में, महाकाश मेंआनयन होने से, पंचभूत सम्पृक्त गुलाब पुष्प का आकार गठित होता है. यही है वह स्थूल गुलाब जिसेहम देखते हैं. किंतु चिन्मय गुलाब (गुलाब पुष्प सृष्टि की इच्छा) वास्तव में शक्तिरूपा है. जगत मेंप्रत्यक्षीभूत पांचभौतिक गुलाब में से पंचभूत एवं सत्वांश खींच लेने पर अवशिष्ट बचता है चिन्मयगुलाब. वह इस स्थिति में विविक्त न रहकर चैतन्य समुद्र में विलीन सा प्रतीत होता है. उसे गुलाब कीसंज्ञा से पहचान सकना संभव नहीं रहता. ब्रह्मसमुद्र में डूबने से यही अवस्था हो जाती है. अनंत कीओर पृष्ठ १२१-१२२ गोपीनाथ कविराज
जगत की शेष सीमा रंग है, उसके पश्चात वस्तु की सत्ता मिलती है. हम वस्तु को देख नही सकते. रंगही देखते हैं. प्रत्येक वस्तु का एक एक वर्ण होता है. वस्तु का आविर्भाव अर्थात् साथ साथ रंग काप्राकट्य. वस्तु अथवा रूप की प्रभा ही रंग है. रंग का भेदन करने से ही रूप का प्रतिभासन हो सकेगा. जिस प्रकार ईश्वर योगमाया से समावृत रहते हैं, उसी प्रकार देवता, जीव तथा सभी वस्तु अपनीअपनी वर्णात्मक प्रभा से आच्छन्न हैं. यह प्रभा योगमाया अथवा वर्णमय प्रकृति का क्षेत्र है. इसमेंचिदबीज का वर्णन करने पर रूप का आविर्भाव संभव हो जाता है.
स्थूल चक्षु द्वारा दृश्य दर्शन में स्थूल प्रकाश सहायक है. यह आग्नेयवर्ण का प्रकाश है. सूर्य किरणऔर चंद्र किरण आग्नेय किरण हैं. स्थूल आँखें बंद करने पर अंधकारादि का दर्शन मन द्वारा होता है. सूक्ष्म प्रकाश विशुद्ध चंद्र का प्रकाश है. चित्ताकाशस्थ वर्ण की अनुभूति इसमें होती है. मन रूपी चक्षुको बंद करने पर बुद्धि अथवा प्रज्ञा का नेत्र कारण जगत को देखता है. इसके दृश्य में अंतःसूर्य काप्रकाश कार्यकारी है. बुद्धि के नेत्र को बंद करने पर बोध के नेत्र खुलते हैं. इसके मूल में ब्रह्मज्योतिकार्यकारी है. यह प्रकृत, साक्षी और महती शक्तिरूपा है.
प्रत्येक आलोक में प्रत्येक वस्तु का दर्शन असंभव है. समजातीय आलोक में समजातीय दृश्य कादर्शन संभव है. जहां ब्रह्मज्योति क्रीड़ा करती है, वहाँ जगत नहीं है.
५/१/२२
एक पूरा शब्द भी हम एक क्षण में नहीं बोल पाते. उसे कोई जान सकता है, बोल नहीं सकता.
शब्द हो नाम हो सब मन से पैदा होते हैं, सारी सृष्टि मन की है. मन ही निर्मित करता है और बनाता है
नाम देते ही वस्तु का जन्म होता है, जब तक हम उस अनाम को नाम न दे तब तक वह समस्त अस्तित्वका स्रोत है. शब्द हमारे ठोस है अपने से इतर या विपरीत को जगह नहीं दे पाते हैं. नाम देना खंड खंडप्रक्रिया है और नाम छोड़ देना है अखंड को जानना. जिस चीज़ को भी अब नाम देते हैं वह वस्तु बनजाती है. भाषा में सत्य डालते ही विकिरण या रेडिएशन हो जाता हूँ एक बताने वाला शब्द भी तत्कालदो की सूचना देने लगता है.
एक व्यक्ति शेख फ़रीद के पास गया और उनसे पूछा कि उसे वही सुनाएँ जिसमें असत्य न हो. फ़रीदने कहा ज़रूर बताऊँगा तुम अपने प्रश्न को इस भाँति बनाकर लाओ उस में शब्द न हो. तुम शब्दों मेंपूछ रहे तो उसका उत्तर शब्दों में कैसे दिया जा सकता है.
शब्द और अर्थ एक न होने पर शाब्दिक माया का जन्म होता है. हर वस्तु, भावना अथवा विचार शब्दमें प्रकट है. आध्यात्मिक दुनिया में शब्द अनंत, सर्वकालिक, सार्वत्रिक, अमर्त्य एवं शाश्वत होते हैं. वस्तुओं व्यक्तियों या विचार को दिए शब्द आध्यात्मिक अर्थ को धारण नहीं कर पाते, वे केवलविकल्पात्मक ज्ञान प्रस्तुत कर पाते हैं. जब हम आलू कहते हैं तो आलू एक वस्तु के रूप में जानने परही बोधगम्य हो पाता है. शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः योगसूत्र १/९। मन की तीसरी वृत्तिविकल्प है, यह एक तरह का मतिभ्रम है, जैसे कोई कुछ कल्पना कर ले कि दुनिया समाप्त होने वालीहै। वास्तविकता में ऐसा कुछ भी होता नहीं है बस कुछ मन के भीतर शब्द चलते हैं। ऐसे सभी व्यर्थडर, कपोल कल्पना और निराधार शब्द जिनका कोई अर्थ नहीं है, ऐसे विचार और ऐसी वृत्ति कोविकल्प कहते हैं।
गहन ध्यान में शब्द तिरोहित हो जाते हैं. तब शब्दों से बनी भाषा के विलीन होने पर संसार भी चलाजाता है. शब्द और संसार परस्पर संबंधी हैं. शब्दों के द्वारा अपनी धारणा या कल्पना ही व्यक्त होतीहै. ध्यान कोई बनी बनाई धारणा या विचार नहीं होता यह तो आत्म साक्षात्कार कराने का माध्यम है.
शब्दार्थ प्रत्ययानामितरेतराध्यासात्...योगसूत्र ३/१७
शब्द, वस्तु और विचार एक साथ एक मतिभ्रम की दशा में एक साथ मौजूद रहते हैं. जब संयम काअभ्यास किया जाता है तब किसी भी प्राणी की ध्वनि का अर्थज्ञान प्राप्त किया जा सकता है.
नाद से ही सृष्टि का उद्गम हुआ है. विचार भी शब्द और ध्वनि का मिश्रण है. शब्द ध्वनि है. प्रत्येकशब्द और ध्वनि का अर्थ होता है. दुनिया की सारी भाषाएँ अध्यारोपित विचारों का ज्ञान ही है. यहभाषाएँ भ्रमात्मक और सीमित प्रकृति की हैं.
कहते हैं बुद्ध सभी प्राणियों की भाषाओं को समझ लेते थे.
६/१/२२
भारत की वैदिक तांत्रिक तथा अन्य साधनाओं के अन्वेषण से ज्ञात होता है कि ईसाई, मुस्लिम बौद्धआदि साधनाओं में भी शब्द ही मूल है. परम सत्ता ही प्रकाश है प्रकाश एवं विमर्श एक ही हैं अथवाएक होने पर भी दोनों का अनिर्वचनीय वैलक्षण्य है. विमर्श आत्मा की महिमा है. इस विमर्श कानामांतर है अहं भाव.
सृष्टि के पहले नित्यस्वरूप शब्द ही विद्यमान था.यही प्रज्ञा है. कोई वस्तु स्वभावरहित नहीं है.
सृष्टि अवस्था में इसी शब्द से अर्थ आविर्भूत होता है. अनादिनिधनं ब्रह्म ही शब्द का परमतत्व है, इसी से अर्थ आविर्भूत होते हैं. तदनंतर जगत रूप देश और काल का अनंत वैचित्र्य प्रतिफलित होताहै. आचार्य भर्तृहरि ने कहा है..
अनादि निधनं ब्रह्म शब्दतत्वं यदक्षरं.
विवर्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः.
अद्वैत वेदांत के मत से आत्मा सर्वप्रथम पश्यंती रूप से आविर्भूत होता है. परावस्था में वाच्य वाचकभाव तनिक भी नहीं रहता. किंतु में भावद्वय की सत्ता रहती है और अभेद भी रहता है. यही अर्थ एवंशब्द है. शब्द वाचक है अर्थ वाच्य है. मध्यमा भूमि में वाचक और वाच्य का अभेद होने पर भी किंचितभेद हो जाता है. इस अवस्था में शब्द से अर्थ पृथक वस्तु नहीं रहता , तथापि अभिन्न भी नहीं रहता. यह भेदाभेद अवस्था है. इसमें शब्द ही अर्थरूपेण प्रतीत होने लगता है. शब्दोदय के साथ अर्थ काउदय होने लगता है. संहार अवस्था में अर्थ का उपशम शब्द में हो जाता है. मध्यमा अवस्था में शब्दएवं अर्थ एक दूसरे के बिना नहीं रह पाते. शब्द तथा अर्थ ही नाम एवं रूप हैं.
बैखरी भूमि से शब्द से अर्थ की पृथकता संपन्न हो जाती है. यहाँ अर्थ का आरोपण शब्द में और शब्दका प्रक्षेपण अर्थ में होने लगता है. इसी से भाषाएँ बनी हैं. इस आरोपण और प्रक्षेपण से उत्पन्न हुयीविस्मृति के कारण शब्द को अर्थ में और अर्थ को शब्द में लौटाया नहीं जा सकता. दोनो में भेद संबंधसुस्पष्ट होने लगता है. जगत के अधिकांश जीव इसी में प्रतिष्ठित रहते हैं, उन्हें कृत्रिम उपायों संकेत, वस्तु, कल्पना और व्यवहार (convention) इत्यादि के द्वारा शब्द और अर्थ का योजन करना पड़ताहै. मध्यमा में इस convention की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि वहाँ शब्द और अर्थ कास्वाभाविक सम्बन्ध विलुप्त नहीं रहता.
पराभूमि से बैखरी भूमि में अवतरण ही सृष्टि प्रक्रिया है. इस प्रकार मूल परम शब्द ही जागतिक अर्थग्रहण करता है. वह परम शब्द क्रमशः एक एक भूमि का अतिक्रमण करके प्रकाशित होता है. लौटतेसमय वह विपरीत क्रम अनुसरण के द्वारा जागतिक अर्थ से उर्धवारोहण करते करते मूल शब्द के रूपमें परिणत हो जाता है. यह मूल ही जीव का पाथेय है.
वर्ण आवरण है आत्मा का. आत्मा इससे ढँकी है. वर्ण का अर्थ रंग भी होता है. वर्णमाला का अक्षर भीवर्ण होता है. वर्णाश्रम चतुष्ट्य के वर्ण में भी यही वर्ण है. आत्मा के आवरण को चार विभिन्न वर्णों मेंबाँटा गया है. वस्तु सबसे पहले रंग में दिखती है, वही उसका वर्ण है. रूप का प्रथम दर्शन वर्ण या रंगमें होता है. आत्मा अगर शब्द है तो अर्थ उसका वर्ण है.
बिंदु क्षुब्ध होने पर सृष्टि में नाद की धारा प्रवाहित होने लगती है. इस प्रसंग में कला तत्व भुवन, वर्णपद मंत्र यह छह अध्वाओं का आविर्भाव होता है.
अक्षर ब्रह्म शब्दात्मक हाई. ये शब्द ब्रह्म हैं. सभी शक्तियाँ मूल शब्द से पृथक नहीं, स्वरूप से अभिन्नहोने के कारण इन्हें स्वरूपशक्ति कहते हैं. अध्यात्मशास्त्र में इन्हें कला कहा जाता है. पंचदश नित्याआवर्तन में निरंतर परिक्रमण करती रहती है. षोडशी बिंदु रूप में अवस्थान करती है. . पंचदश नित्यात्रिकोण मंडल की तीन भुजाएँ हैं. तीनो भुजाएँ समान हैं. प्रत्येक भुजा में ५ नित्या अथवा कलाएँ स्थितहैं. पंचदश कलाएँ आवर्तनशीला होने से क्षरणधर्मा हैं. षोडशी के आपूरण होने पर यह कलाएँअभिसिंचित होती हैं. अधः प्रवाह से सृष्टि की सूचना मिलती है. षोडशी से एक ऊर्ध्व प्रवाह सप्तदशीकी ओर चलता रहता है. यह कलातीत है. षोडशीकला शब्दरूप में अपनी सृष्टि को स्वयं ही देखतीहै. संहारकाल में अर्थ लीन कर सकने पर यह शब्द क्रमशः पंचदशी में विलीन हो जाता है.
जो सृष्टि काल के अधीन है, उसमें क्रम है. नित्यसृष्टि कालाधीन नहीं है, अतः अकर्म है. दोनों सृष्टिशब्द से उत्थित होती हैं.
वायु की क्रिया प्रारम्भ होने तक ही नाद की गति रहती है.
श्वास और प्रश्वास थमने पर मध्य धाम में गमन करने के समय ध्वनि या वर्ण का उदय होता है.
७/१/२२
शब्द और अर्थ के प्रकृत स्वरूप पर आवरण पड़ जाने से दोनों में पृथकता का आभास मिलने लगताहै. शब्द में अर्थ का और अर्थ में शब्द का संधान नहीं मिलता. वर्ण बैखरी में प्रकाशित होने लगता है. कंठ से ओंठ तक बैखरी का स्थान है. वायु के ४९ स्वाभाविक कम्पन होते हैं. नाद रूपी शब्द ४९ भागोंमें विभक्त हो जाता है. समष्टि से लेकर ५० और समष्टि के साथ ५१. वर्णमाला की यही संख्या है. येसमस्त वर्ण विषदंतहीन सर्प अथवा जलहीन मेघ के समान नाममात्र में शब्द के मूलरूप से युक्त होतेहैं. इन वर्णों का सम्यक् प्रबोधन करके पारस्परिक संगठन करने ऐ इच्छानुरूप पदार्थ की सृष्टि की जासकती है.
भेदज्ञान की समाप्ति के अनंतर प्रत्येक वस्तु के साथ व्यक्तिगत अभेद संबंध अनुभूत होने लगता है. अब समस्त विश्व स्व स्वरूपमय प्रतीत होता है. इसे प्रेम की अभिव्यक्ति कहते हैं.
अतः चाहे मलपाक हो जाने से गुरुकृपा प्राप्त हो अथवा गुरुकृपा प्राप्ति से मल का परिपाक हो, ज्ञानचक्षु खुलने पर महाज्ञान का उदय हो जाता है.
सबदै मारी सबद जिवाई। ऐसा महमद पीर। ताके भरम न भूलौ काज़ी सो बल नहीं सरीर।।गोरखनाथ।
जिस छुरी का प्रयोग मुहम्मद करते थे, वह सूक्ष्म छुरी शब्द की छुरी थी। मुहम्मद ऐसे पीर थे, हेकाज़ियो! उनके भ्रम में न भूलो। तुम उनकी नकल नहीं कर सकते। तुम्हारे शरीर मे वह (आत्मिक) बलही नहीं है, जो मुहम्मद में था। (क्योंकि गोरख के अनुसार जिन बातों को मुहम्मद आध्यात्मिक दृष्टि सेकहते थे, उन्हें उनके अनुयायियों ने भौतिक अर्थ में समझा)
डॉ पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल द्वारा संपादित गोरखबानी से
८/१/२२
सब प्राणी भाषा या बोली अपनी माँ से सीखते हैं. मातृ भाषा या मदर टंग सर्वत्र कही जाती है, पिताभाषा कहीं नहीं कहा जाता. इससे शब्द महिमा और उसके स्रोत का पता लगता है.
९/१/२२
यह जगत् शब्द और अर्थ रूप है। शब्द और अर्थ को नाम और रूप भी कहा गया है। वेदान्त इस जगत्को नाम रूपात्मक मानता है-
\"अस्ति भाति प्रियं नाम रूपं चेत्यंशपञ्चकम् ।
आद्यं त्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपम् ततोद्वयम् ।।\"
[ परम सत्ता के अस्ति = सत्, भाति = चित् , प्रिय = आनन्द, नाम और रूप ये पाँच अंश हैं। इनमें सेप्रथम तीन अंश ब्रह्म का रूप है, शेष दो जगत् का रूप है। ]
परा स्थिति में केवल शब्द या नाद रहता है।
अर्थ उसमें निगूढ़तम स्थिति में रहता है। शनै:-शनै: विकास के क्रम से दोनों पृथक् आभासित होनेलगते हैं। अपनी पृथक् स्थिति में शब्द और अर्थ के तीन-तीन प्रकार होते हैं। शब्द के वर्ण, मन्त्र औरपद तथा अर्थ के कला तत्त्व और भुवन ये छ: प्रकार हैं। इन्हीं को षडध्वा कहा गया है। इन्हें कालअध्वा और देश अध्वा भी कहते हैं।
यह षडध्वा काश्मीरी शैव दर्शन के अनुसार आणवोपाय के अंतर्गत आता है.
आजकल के भाषा वैज्ञानिक भाषा की उत्पत्ति के प्रश्न को भाषाविज्ञान की सीमा में नहीं मानते।
नाम और रूप में पहले कौन आया. वस्तुतः दोनों एक हैं. भौतिक संसार में रूप या पदार्थ की सत्तापहले दिखती है. नाम उस रूप की अंतर्धारा है और रूप उस नाम प्रतिफलन. प्रत्यक्ष जगत में नाम औररूप अलग अलग हो जाते हैं.
अर्थ शब्द की अंतरंग शक्ति का नाम है, शब्द बहिर्भूत होता है, जबकि अर्थ अबहिर्भूत या अपृथकहोता है ।- महर्षि पतंजलि
शब्दऔरअर्थएकहीइकाईके दोरूपहैं।
नाम रूप का प्रकाश है तो रूप नाम का विमर्श. दोनों का कभी अभाव नहीं. अभाव उनके अभेद होने परही है.
किसी कमरे में वस्तुएँ हैं या रूप हैं, जब उन पर रोशनी प्रक्षेपित की जाती है, वे दिखने लगती हैं.
नाम नाद है और रूप बिंदु.
10/1/22
श अंतस्थ वर्ण है. इसका अर्थ है हथियार, रचनात्मक विध्वंसक. उत्साह का योग, शिव, यह आकाशबीज है. शब्द आकाश का गुण है. जो कान से सुनते हैं. शब्दों से वस्तकृत होकर नाम बने हैं.
जबकि रूप अग्नि तत्व का परिणाम है, यह आँखों से बोधगम्य होता है. र अग्निबीज है.
शब्द में श ध्वनि का स्रोत इच्छा से जुड़ता है. इच्छा सृष्टि का पहला उन्मेष है. उसके बाद ज्ञान औरक्रिया होती है. यही श ध्वनि शिव में भी अनुस्यूत है. शिवसूत्र में कहा गया है वर्णमाला के सभी वर्णपरमेश्वर के मूर्त रूप हैं.तंत्र शास्त्र कहते हैं मंत्राः वर्णात्मकाः सर्वे सर्वे वर्ण शिवात्मकाः सभी मंत्र वर्णोंसे बने हैं और सभी वर्ण शिवरूप हैं. वर्णमाला का प्रत्येक अलशर एक विशिष्ट शक्ति है और संयुक्तरूप से इन शक्तियों को मातृका कहा जाता है. वर्णों में निहित नाद शक्ति मातृका ही सीमित ज्ञान कामूल है. मातृका शक्ति के कार्य से ही अक्षरों से शब्द बनते हैं. इनसे वाक्य और फिर समूची द्वैतसृष्टि. हं ध्वनि जो श्वास के साथ अंदर जाती है शिव है शुद्ध अहं विमर्श है, अंतरात्मा है. सः की ध्वनिजो प्रश्वास के साथ बाहर जाती है वह शक्ति है परमेश्वर की सृजनात्मक शक्ति. स्पंदकारिका कहतीहैशक्ति के प्रथम स्पंद प्रथम स्फुरण को सः कहते हैं. श्वास और प्रश्वास शिव और शक्ति का नृत्यहै. सांसारिक जीवन में शब्द किसी वस्तु की जानकारी देता है इसलिए वह शब्द वस्तु के साथएकरूप होता है.
श्वास अन्दर आते समय बारह अंगुल की दूरी तक भीतर आता है और लय हो जाता है. इस लय स्थानको हृदय या अंतः द्वादशांत कहते हैं. इसी को शिव द्वादशांत कहते हैं. श्वास पुनः उदित होकर बारहअंगुल की दूरी तक बाहर जाता है वहाँ लय होने के स्थान बाह्य द्वादशांत शक्ति द्वादशांत या बाह्यहृदय कहलाता है. हृदय का तात्पर्य कोई शारीरिक अंग नहीं है. श्वास के लय स्थान को हृदय कहतेहैं. अंदर और बाहर के लय स्थान वस्तुतः एक ही हैं. देहभाव होने के कारण इनमे द्वैत है. लय होने कावह क्षण सहज कुम्भक का वह क्षण जब हं चला जाता है और सः अभी उदित नही हुआ है, वही सच्चामंत्र है. मंत्र या जप का सच्चा लक्ष्य यह बोध ही है. यह कुम्भक क्षण भर के लिए पा लेना भी बहुत है. सूफ़ी मत में इसे या हू के रूप मे तो तिब्बती बौद्ध मत में हूं सो के रूप में जानते हैं. ताओ का यिन यांगयही है. यहूदियों का या वे भी यही है. अपान के साथ अंदर आने वाला वर्ण हम् आत्मा का बीज मंत्रहै. यह अभ्यास स्वतः हो रहा है. हं और सः के बीच वर्णों का उदय एवं अस्त हो रहा है. हं को हमनेवस्तुओं के साथ जोड़ रखा है. पर जैसे ही हम सः को समझ लेते हैं, वैसे ही हमारा मैं उससे जुड़ी हुयीचीज़ों से मुक्त होकर पूर्णतः शुद्ध हो जाता है. इस दशा में नाम और रूप, शब्द और अर्थ एक हो जातेहैं.
परमहंस योगानंद कहते हैं मानव के शब्द ब्रह्मवाक्य हैं।…सच्चाई, दृढ़धारणा, विश्वास और अन्तर्ज्ञानसे संतृप्त शब्द अत्यधिक विस्फोटक स्पन्दनात्मक बम की तरह हैं जिनको जब विस्फोट किया जाताहै तो वे कठिनाई की चट्टानों को नष्ट कर देते हैं और मनोवांछित परिवर्तन का सृजन करते हैं।
जब साधक शांभव दशा में होता है यानि पूर्णाहंता, शुद्ध अहं स्थिति, तब वह वाक् राज्य में यात्राकरता है. यहाँ वह परावाक़ नाम की सर्वोच्च अवस्था में होता है. यहाँ से वह बैखरी नामक अंतिम याप्रचलित दशा में आवाजाही कर सकता है. परा वाक् में कोई ध्वनि की सत्ता नहीं होती. पश्यंती वाक्निर्विकल्प दशा होती है. कुछ देखने और न देखने की समदशा. यह शिखरस्थ ज्ञान है. ऊपर बैठकरव्यक्ति को दूर का और सब जगह का दिखाई दे जाता है. मध्यमा दशा में व्यक्ति विचारों में जीता है. स्वप्न और सुषुप्ति के दौरान भी व्यक्ति मध्यमा में रहता है. उसके बाद बैखरी दशा में व्यक्ति आता है. बैखरी में ही नाम और रूप पृथक पृथक बंट जाते हैं. आणवोपाय का साधक जपादि साधनों से बैखरीका प्रयोग करके शाक्तोपाय में प्रवेश करता है, जिसमें व्यक्ति अपने स्वरूप में रहने लगता है.
संगीत के क्षेत्र में डूबे कलाकार शब्द की महिमा समझते हैं. उनके लिए flash becomes word होजाता है. राग का अर्थ ही है जो हृदय में रंजित कर दे. काश्मीरी संत लल्लेश्वरी ने कहा है
O lalli!
With right knowledge,
open your ears and hear
how the trees sway to Om Namah Shivaya,
how the wind says Om Namah Shivaya as it blows,
how the water flows with the sound Namah Shivaya.
The entire universe
is singing the name of Shiva.
यहाँ भगवान के कतिपय नामों का अर्थ जानना अच्छा होगा, क्योंकि यह अर्थ ही उन नामों की ताक़तहै. कहानियाँ उन अर्थों का प्रकाशन करने के लिए ही हैं. गोविंद का अर्थ है जो गायों को इकट्ठा करे, उनकी रक्षा करे. यह प्रतीक है. गो का अर्थ प्रकाश किरण भी होता है. हरि वह जो हृदय को मोहितकरे, वह भी जो अज्ञान और दुःख को हरे. राम का अर्थ है जो आनंद प्रदान करे. नारायण का अर्थ हैमनुष्यों का दैवी पथ. नारायण पथ के लक्ष्य का भी नाम है. कृष्ण का अर्थ है गहरा नीला-काला. दूरका दृश्य काला या नीला ही दिखता है. इससे समय और देश के पार होने का अर्थ विदित होता है. शंभो का अर्थ है वह जो प्रसन्नता लाए. दुर्गा जिसे विज़िट करना मुश्किल हो. शिव का अर्थकल्याणकारी विदित ही है. शिव माने कुछ नहीं, शून्यता की पूर्णता शिव है. शिव में जीव और इच्छाकी ध्वनियाँ शामिल हैं. केशव नाम केशि नामक दैत्य को मारने के कारण बताया जाता है. केशवहृषिकेश से अलग कहाँ. हृषिकेश इंद्रियों का स्वामी होने के कारण कहा गया. विट्ठल का अर्थ है वहजो ईंट पर खड़ा रहे. कहते हैं भगवान विट्ठल अपने भक्त पुंडलीक के माता पिता की रक्षा के लिए ईंटपर खड़े रहे. पाण्डुरंग भगवान विट्ठल को उनके पीलेपन के कारण कहा गया.
दक्षिण भारत में वेंकट पहाड़ी का स्वामी होने से भगवान को वेंकटेश कहा गया है. कर्नाटक में अक्कमहादेवी अपने आराध्य को बार बार चन्न मल्लिकार्जुन कहतीं थीं. चन्न का अर्थ सुंदर होता है. मल्लिका जैज़्मिन या चमेली को कहते हैं. अर्जुन श्वेत या धवल को क़हते हैं. अर्जुन को शिव सेमहत्वपूर्ण हथियार पाने के लिए युद्ध लड़ना पड़ा. देवी ने उन सभी बाणों को बदल दिया जो अर्जुन नेचमेली के फूलों में चलाए थे, चमेली के फूलों से शिव ढँके हुए थे. इससे भगवान शिव का नाममल्लिकार्जुन हुआ. मनुष्य और भगवान के बीच हुए युद्ध में देवी के हस्तक्षेप से विनाश टल जाता है. अक्क का अर्थ है बड़ी बहन.
११/१/२२
बाइबिल में वर्ड को गॉड से जोड़कर बताया गया है. That word was God. सृष्टि का उन्मेष यानिर्माण शब्द से ही हुआ है. इसे हम साधारणतः सुन नही पाते, क्योंकि यह शोरगुल में दबा रहता है. हिंदू इसे ॐ, मुस्लिम आमीन क्रिस्चियन और यहूदी आमेन कहते हैं. एक ध्वनि के ये विभिन्न नाम हैं. यह ध्वनि ऊर्जा जब स्थूल हुयी तब सृष्टि का निर्माण हुआ. जैसे ही हम किसी नाम का उच्चार करतेहैं, उससे संबंधित ध्वनि और अर्थ का उदय हो जाता है. शब्द और अर्थ परस्पर संबद्ध हैं. यह संपृक्तहैं. कालिदास ने वागर्थ की तुलना पार्वती व परमेश्वर से की है. गोस्वामी तुलसीदास में गिरा (वाणी) और अर्थ को जल और उसकी लहर की भाँति कहा है, जो भिन्न भी हैं और नहीं भी हैं. प्रत्येक शब्दध्वनि में उतरने से पूर्व मध्यमा भूमि में हृदय या द्वादशांत में अवस्थित रहता है. पश्यंती दशा को व्यक्तकरती हुयी मानस की चौपायी की अर्धाली दृष्टव्य है..
गिरा अनयन नयन बिनु बानी।।।
यानि वाणी बिना नेत्र की है और नेत्रों के वाणी नहीं है। दक्षिणामूर्ति स्तोत्र में आया है-
चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा ।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ॥
(दक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् १२)
‘क्या ही आश्चर्य है ! वटवृक्षके नीचे वृद्ध शिष्य और युवा गुरु चित्रवत विराजमान हैं । गुरुके मौनव्याख्यानसे शिष्योंके सब संशय मिट गये हैं !’ परावाक़ सृष्टि कल्पना में है, पर ईक्षण से पश्यंतीवाक् का आविर्भाव होता है, सूक्ष्म मध्यमा वाक् हिरण्यगर्भ दशा है, यह अवस्था वर्ण से पूर्व कीमातृका स्थिति है. जब शब्द बोले जाने लगते हैं, तब उन्हें वर्ण कहा जाता है.
विचार जब मुख से निसृत होते हैं, तब उसे वैखरी कहा जाता है.
यह वैज्ञानिक प्रयोग है कि यदि निश्चित ध्वनि पर किसी शब्द को उतारा जाय तो एक विशिष्ट रूपका निर्माण हो सकता है. यही मंत्रयोग है.
ग्रीक भाषा में पहला अक्षर अल्फ़ा है और अंतिम ओमेगा. अक्षर से ही सृष्टि हुयी. अक्षर माध्यम हैसृष्टि और सृष्टिकर्ता का. निर्माण एक विचार मात्र है, जो ध्वनि से सम्भव होता है. यह ध्वनि सबप्राणियों का मूल है.संस्कृत का प्रत्येक अक्षर एक बीज या मंत्र है. यही पुरुष तत्व है जो सबमेंविद्यमान है. प्रकृति ऊर्जा है जो सबमें इंद्रियों और उनके विषयों तथा महाभूतों में लास्यमान हो रही है. अक्षर इसे इसलिए कहा गया क्योंकि यह तत्व कभी क्षरित नहीं होता. अक्षर ब्रह्म है. कूटस्थ भीअक्षर है. कूट या निहाई पर सुनार और लुहार औज़ारों और आभूषणों को कूटते हैं, निहाई अपरिवर्त्यरहती है, वस्तुएँ बदलती जाती हैं.
संस्कृत में अक्षर (लेटर) को अक्षर, वर्ण, मातृका और लिपि के रूप में जानते हैं.
अक्षर मात्र एक लेटर नहीं है. अ पहला और क्ष अंतिम अक्षर है इसके बीच अग्नि बीज र है, जिसकाअर्थ पहुँचना या जाना होता है. अक्ष का अर्थ धुरी होता है, जिससे पूरा चक्र घूमता है. पृथ्वी भी धुरी हीहै, जिस पर जीवन चल रहा है. मानव शरीर में यह धुरी रीढ़ कही जाती है. अक्ष का एक और अर्थ हैआँख, यह केवल देखने वाली इंद्रिय का नाम नहीं वरन तृतीय नेत्र का नाम है. र का अर्थ अग्नि है. प्रत्येक शब्द मुख के माध्यम से बाहर आता है. अग्नि का गुण वस्तु को जलाना और चमकाना होताहै.
वर्ण का अर्थ अक्षर के साथ साथ रंग और जाति भी होता है. धान और चावल के बीच जो आवरणहोता है, उसी अर्थ का आवरण अक्षर पर वर्ण का चढ़ा होता है. वर्ण के माध्यम से वस्तुएँ दृश्यमानहोती हैं. यह सब तरह के वर्ण शब्द के अर्थ पर लागू होता है.हर व्यक्ति और प्राणी में चतुर्वर्ण विद्यमानहै. वस्तुएँ रंगीन होती हैं. वर्णन शब्द में भी यह वर्ण शामिल है.
मातृका वर्ण रूपी होती है. वर्ण रूप में माँ. वर्णमाला का सिद्धांत मातृकाचक्र में वर्णित हुआ है. चित, आनंद, इच्छा, ज्ञान और क्रिया यह पाँच ऊर्जा संस्कृत के १६ स्वरों से व्यक्त होती हैं. यह शिव तत्व केअंतर्गत हैं. अं स्वर तक शिव अपने स्वभाव में रहते हैं, किंतु विसर्ग से यह सृष्टि प्रतिबिंबित होने लगतीहै. उसके दो बिंदु शिव बिंदु और शक्ति बिंदु हैं. कुल तीन प्रकार के विसर्ग हैं- एक शांभव विसर्गजिसमें चित्तप्रलय हुआ रहता है, जिसमें मन अमन हो जाता है, इसे परा विसर्ग भी कहते हैं, यह आ सेव्यक्त होता है. यह उच्चतम विसर्ग है. दूसरा शाक्त विसर्ग है, यह परापर विसर्ग कहा गया. यह मध्यमविसर्ग है यह अः के माध्यम से व्यक्त होता है, यह चित्तसंबोध की दशा है, जिसमें व्यक्ति एकत्व मेंलीन रहता है. तीसरा और अंतिम विसर्ग आणव विसर्ग है, इसकी स्थिति निम्नतम है, नर विसर्ग है औरयह ह से व्यक्त होता है. यह चित्तविश्रांति की अवस्था है. ह वर्ण सुख-दुःख, हर्ष-शोक जैसीविपरीतार्थक स्थितियों में प्रयुक्त होने वाला इकलौता वर्ण है. अहा में भी यह है और हाय-हाय में भी. समूची सृष्टि में इसकी सत्ता हर समय विद्यमान है. शिव की स्तुति में एक श्लोक में अहो शब्द के हीदो परस्पर विरोधी प्रयोग मिलते हैं, जिसमें संसार और शिव दोनों को अहो कहा गया है-
अहो निसर्ग गंभीरो घोर संसार सागरः
अहो तत्तरणोपायः परः कोsपि मकेश्वरः.
स्तव चिंतामणि ९१
अ और ह के बीच ही सारे वर्ण स्थित हैं. अ एवं ह में अनुस्वार म लगते ही वह अहं बनता है. अ शिव हैऔर ह शक्ति. अं नर है. शिव और शक्ति के बाद नर है, जब नर शक्ति के माध्यम से शिवमय होता हैतब महा बन जाता है.
लिपि ध्वनि की भौतिक अभिव्यक्ति है. पहले ध्वनि फिर रूप आता है. लिपि अक्षर का लिखित रूपहै.
मुँह से निकला प्रत्येक शब्द अहंकार से और भावनाओं से या ज्ञान और भक्ति के कारण आता है. जोव्यक्ति अपनी भावनाओं को नियंत्रित करके उन्हें भक्ति में रूपांतरित करने में समर्थ रहता है, वस्तुतःवही समझदार है. भावनाएँ अनुग्रह, भय, द्वेष, क्रोध और आनंद के रूप में व्यक्त होती हैं. इनमें अंतिमभावना ही वरेण्य है.
यह सृष्टि देवी काम या इच्छा (विल) का परिणाम है. इस काम को भौतिक अर्थ में सेक्स याकामेच्छा से ग्रहण किया जाता है, पर यह काम पाँचों विषयों का पाँचों इंद्रियों से संघट्ट या संभोग कीदशा का नाम है. काम की पुत्री वाक् है. अक्षर दैवी इच्छा का बोला हुआ रूप है. अथर्ववेद में काम कोसभी देवों से ऊँचा स्थान दिया गया है. इसमें काम की पुत्री को वाकविराट कहा गया है.
किसी वस्तु का स्पंदन और मन की वृत्ति या विचार समान होता है. जब एक विषय या अर्थ इंद्रिय कोप्रभावित करता है, तब उस क्रिया को मन और उसके परिणाम को वृत्ति कहते हैं. शब्द स्पंद में व्यक्तहोते हैं. आकाश ध्वनि का स्थूल शरीर है, जो वायु द्वारा गति करती है और कान के माध्यम से ग्रहणहोता है.
ईश्वर प्रत्यय है तो हिरण्यगर्भ शब्द और विराट अर्थ है. किसी मनुष्य, जानवर या प्राणी द्वारा व्यक्तस्फुट या अस्फुट ध्वनि या आवाज़ शब्द है. अर्थ उसका स्थूल शरीर है.
परावाक़ बिंदु है, पश्यंती ईक्षण या सक्रिय विचार की दशा है. शब्द का कारण शरीर परावाक़ बिंदु है, जिससे शब्द का सूक्ष्म शरीर तन्मात्रा एवं मातृका के रूप में उदित होता है, तत्पश्चात् स्थूल शरीर मेंवर्ण की उत्पत्ति होती है, वर्ण से शब्दांश मिलकर पद और पद से मिलकर वाक्य बनते हैं. अतः मंत्रशब्द का स्थूल शरीर है.
शब्द तन्मात्रा या अपंचीकृत आकाश अपंचीकृत तन्मात्रा है. शब्द अकेले आकाश का गुण नहीं है, बल्कि इसमें वायु और अन्य भूत भी शामिल है. इसलिए शब्द स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीर ही नहींहै, वरन यह दैवी इच्छा या काम में भी शामिल है. कामेच्छा जब कान और मन में जाती है तब ध्वनिउत्पन्न करती है और जब यह आँख और मन में जाती है तब रंग और रूप उत्पन्न करती है. इसी तरहवायु, जल और पृथ्वी के संघात से स्पर्श, रस और गंध भी उत्पन्न होते हैं. आकाश और वायु अमूर्तमहाभूत हैं, शेष तीन महाभूत मूर्त हैं. शब्द जब व्यक्त ध्वनि में कान में स्पंदित होते हैं तब नाम बनते हैं. तेजस का विभाजन होकर रूप बनता है. अतः अर्थ आँख और मन के स्पंद का परिणाम है. नाम औररूप ब्रह्मांड के भीतर ही हैं.
तुरीया अशब्द दशा है तो सुषुप्ति परशब्द. अपरशब्द में भाषा संभव नही.
कोई वैदिक शब्द पूर्ण स्वाभाविक नाम नहीं है, पर तंत्र शास्त्र में वर्णित बीज मंत्र स्वाभाविक नामों केनिकट हैं, जो संस्कृत के विभिन्न शास्त्रों में बिखरे हुए हैं. गौ स्वाभाविक शब्द का एक उदाहरण है, शब्द और अर्थ का संबंध शाश्वत है, कुछ शब्द अर्थ का स्वाभाविक नाम होते हैं. इस प्रकार कीस्वाभाविक भाषा तो नही मिलती par कतिपय aise शब्द अवश्य मिलते हैं, गौ ऐसा ही शब्द है. शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है मूल भाषा एकाक्षरी रही होगी. वैदिक भाषा के बारे में दावा कियाजाता है कि उसमें शब्द और अर्थ का शाश्वत संबंध मिलता है. यद्यपि कतिपय शब्दों को छोड़करऐसा प्रमाणित नहीं हो सका है.
शब्द या वाक् वर्ण पद और मंत्र तथा अर्थ कला, तत्त्व एवं भुवन में अभिव्यक्त होते हैं.
१२/१/२२
ज्ञान भक्ति और कर्म के माध्यम से नाम और रूप का सैद्धांतिक दर्शन होता है, पर योग के माध्यम सेवह इंद्रियों में अनुभूत हो जाता है. तब ज्ञान और भक्ति भी उसके लिए हस्तामलकवत हो जाते हैं. कर्मफिर उसके लिए नही रह जाता, वह मात्र प्रकृति में प्रकृति को बरतता है.
नाम और रूप, शब्द और अर्थ जिस तरह एक हैं, कार्य और कारण भी वस्तुतः एक ही हैं. प्रकट होने मेंवे अलग-अलग दिखते हैं. शिव और शक्ति एक ही हैं. एक होने की दशा में शक्ति अनभिव्यक्त रहतीहै. शक्ति जब विकसित होती है तो उसके स्तर भिन्न भिन्न होते जाते हैं. शक्ति जब ब्रह्म से ईश्वर तत्वमें बिंदु रूप व्यक्त हुयी. यह बिंदु कामकला का त्रिकोण हुआ. शब्द ब्रह्म से शब्द और अर्थ अलगअलग हुए. इच्छा मात्र शब्द ब्रह्म है, फिर ज्ञान और क्रिया का आविर्भाव होता है. शब्द और अर्थ कार्यहैं, जो मन और पदार्थ के रूप में दृश्यमान हैं. यह कारण शरीर है. इसके बाद काल के प्रभाव से सूर्यऔर चंद्र अस्तित्व में आते हैं. यह सब कालक्रम में हम लोग देखते हैं, पर सृष्टि और लय क्षण मात्र कीक्रिया है.
परबिंदु जब दो भागों में विभक्त हुआ. दाएँ भाग को बिंदु, पुरुष या हं कहा गया, बाएँ भाग को विसर्ग, प्रकृति या सः कहा गया. दोनों का योग हंसः है. यह ब्रह्मांड हंस स्वरूप है. बिंदु कार्य है और बीजशक्ति. शक्ति में द्वैत है. शक्ति के विस्तार को ही माया जाना गया है. अविद्या में जो माया है, ज्ञानदशा में वह शक्ति है. योग में अद्वैत. इन दोनों को एक साथ देखने की दशा द्वैताद्वैत है. शुद्धाद्वैत में सबकुछ अनंत है और वही एक है. शिव और शक्ति सर्वत्र और सबमें हैं. इदं में अहं और अहं में इदं है. अहमिदं एक होने पर क्या बचता है, उसे अहं कहें या इदं, वह एक ही है. शिव और शक्ति कामैथुनिभूत जगत में यह विलास तिर रहा है. चिदशक्ति विलास यही है. शब्द और अर्थ, कार्य औरकारण या नाम और रूप को मैथुन रूप ही समझना चाहिए.
नाद शब्द का सूक्ष्म स्तर है. सब प्राणियों में श्वास स्वरूप कुंडलिनी विद्यमान है. नाद और बिंदु सबबीज मंत्रों में है. सामान्यतः ऊपर बिंदु और नीचे नाद होता है. चंद्रबिंदु का यही आशय है. पहले ॐ मेंचंद्र के नीचे बिंदु लगाते थे. वैसे भी प्रतिबिंब में दर्शन उल्टा हो जाता है. अनुस्वार चंद्र बिंदु में ही लिखेजाते थे. लिखने की सुविधा के चलते अब यह बिंदु मात्र रह गया. बिना अनुस्वार के कोई बीज मंत्रनहीं होता. ह्रीं में ह आकाश का बीज है, र अग्नि का, ई शिवशक्ति का और अनुस्वार अं नादबिंदु है. अग्नि या रूप के प्रकट होने तक आकाश और वायु तत्व यानि शब्द और स्पर्श का अनुभव नहीं होपाता. आकाश जब अग्नि तत्व के सम्पर्क में आता है, तब रूप यानि र का आविर्भाव होता है. शिवऔर शक्ति इसे धारण करते हैं और नाद बिंदु में व्यक्त होता है.
नाद मंत्र शास्त्र के अंतर्गत है. शक्ति का स्तर बिंदु है, जो त्रिबिंदु में व्यक्त होता है, जिसे शब्द ब्रह्मकहा गया है. यही शब्द और अर्थ का स्रोत है. षट्कोण यंत्र में शिव और शक्ति के त्रिकोण मिल रहेहैं. यह सृष्टि का प्रतीक है.
शब्द की महिमा दुनिया में सब महापुरुषों ne वर्णित की है.
कबीर ने गया है -
साधो, सब्द साधना कीजै।
जेही सब्द ते प्रकट भए सब, सोइ सब्द गहि लीजै।।
सब्द गुरु सब्द सुन सिख भए, सब्द सो बिरला बूझै।
सोई सिष्य सोई गुुरु महातम, जेही अन्तर गति सूझै।।
सब्दै वेद पुरान कहत हैं, सब्दै सब ठहरावै।
सब्दै सुर मुनि संत कहत हैं, सब्द भेद नहिं पावै।।
सब्दै सुन सुन भेष धरत हैं, सब्दै कहै अनुरागी।
खट-दरसन सब सब्द कहत हैं, सब्द कहै वैरागी।।
सब्दै काया जग उतपानी, सब्दै केरि पसारा।
कहै कबीर जहं सब्द होत हैं, भवन भेद है न्यारा।।
कबीर सबद सरीर में, बिन गुण बाजै तंत।
बाहर भीतर भरि रह्या, ताथै छूटि भंरति।।
सब्द सब्द बहु अंतरा सार सब्द चित देय।
जा सब्दै साहब मिलै, सोई सब्द गहि लेय।।
सब्द बराबर धन नहीं, जो कोई जानै बोल
हीरा तो दामों मिलै, सब्दहिं मोल न तोल।।
सीतल सब्द उचारिए। अहम आनिए नाहिं।
तेरा प्रीतम तुज्झमें, सत्रु भी तुझ माहिं।।
नानक, कबीर और अन्य संतों ने सबद संकीर्तन गाया है.
संतों ने सत्य को जाना है--कान के माध्यम से। वैज्ञानिकों ने सत्य को जाना है--आंख के माध्यम से। लाओत्सु को मानने वाले फकीरों का चीन में कहना है कि आंख है पुरूष की प्रतीक और कान है स्त्रीका प्रतीक। कान ग्राहक; आंख आक्रामक है। इसलिए तो हमारे पास इस तरह के शब्द हैं, जैसेःलुच्चा। लुच्चा का मतलब होता है--किसी पर आंख से हमला।
लुच्चा शब्द आता है--लोचन से। लोचन याने आंख। लुच्चा हम उस आदमी को कहते हैं, जो किसीको घूर घूरकर देखे।
काल का भक्षण करने के कारण शक्ति को काली कहा गया है. भक्षण करने के बाद वह काले स्वरूपऔर निराकार अवस्था में उदित होती है. उसकी उपासना निर्भय और इच्छा रहित होकर हो सकती है. श्मशान पर काली पूजा इच्छाओं को जलाने का प्रतीक है. वह दिगंबरी है, मन और वाणी से परे. वर्णमाला को वह गले में धारण करती है. बौद्ध डेमचोग तंत्र में हेरुक महान वर्णमाला पहने हैं. यह वर्णही नाम और रूप की प्रतिनिधि हैं. मन जब विषय या तन्मात्रा ज्ञान करता है तब वह शब्द है और जबपदार्थ ज्ञान करता है करता है तब वह अर्थ है.
शब्द ध्वनि और वर्ण में बँटा रहता है. ध्वनि दो वस्तुओं के घात से उत्पन्न होती है. वर्ण मुख और शरीरके विभिन्न अवयवों से उत्पन्न होते हैं . हर ध्वनि का अर्थ है, ज्ञात हो या न हो. एक निश्चित क्रम में रखेअक्षरों से बने वर्णात्मक शब्दों का निश्चित अर्थ है. एक ही वर्ण को भिन्न भिन्न व्यक्तियों अथवा एकही व्यक्ति के के बार बार बोलने पर अलग अलग अर्थ छवियाँ बन जाती हैं. भौतिक विज्ञान भी जगतरचना का कारण ध्वनि या विद्युत तरंग को मानता है.
सामान्यतः इस संसार में ध्वनि बाहर से आकाश में किंतु भीतर से कान में प्रतिबिंबित होती है. इसीतरह स्पर्श बाहर से वायु में भीतर से त्वचा में, रूप बाहर से अग्नि और दर्पण में भीतर से आँख में, स्वाद बाहर से जल में और भीतर से जिह्वा में एवं गंध बाहर से पृथ्वी में, पर भीतर से नासिका मेंबिंबायमान है. यह ब्रह्मांड स्वातंत्र्य शक्ति का दर्पण है, इस बिम्ब और प्रतिबिम्ब को सामान्य रूप मेंकार्य कारण सिद्धांत से समझ लिया जाता है. कुछ भी भगवान के मुखड़े से बाहर नहीं, उसी का दर्पणहै और वही देख रहा है. यह स्वातंत्र्य दर्पण है. स्वातंत्र्य निमित्त कारण है, जो बिंबित हो रहा वहउपादान कारण है. निमित्त कारण शब्द है और उपादान कारण अर्थ है. स्वातंत्र्य सबका बीज है.
काम या सृष्टि निर्माण की सिसृक्षा शिव और शक्ति की होती है, कला उनके उन्मेष का नाम है. इसलिए इसे कामकला कहा जाता है.
हंस को योगी ही जानते हैं. इसकी चोंच तार या प्रणव (ॐ) है. दो पंख आगम और निगम हैं. दो पैरशिव और शक्ति हैं. तीन बिंदु इसके तीन नेत्र हैं. यह अविद्या के सरोवर में रहता है, किंतु जबनिष्प्रपंची हो जाता है, तब उसका पक्षित्व समाप्त हो जाता है और सोहमात्म हो जाता है.
आकाश का गुण शब्द है, आकाश का कोई रंग नहीं होता. काला रंग सभी रंगों का अभाव है, रूप केसाथ रंगों का आविर्भाव होता है. पहले दो रंग हीन महाभूत हैं तो अंतिम तीन भूत रंग संपन्न. सभी तत्वपुरुष की मौज के लिए कार्य करते हैं, उनका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है.
शक्ति-शिव (अः-अं) की पाँच तरह की ऊर्जा उक्त ३६ तत्वों में प्रतिबिंबित हो रही है. यह ऊर्जा स्वरवर्णों में मुखरित होती हैं- क्रिया(ए ऐ ओ औ), ज्ञान(उ ऊ), इच्छा(इ ई), आनंद (आ)और चित(अ). रि, री, ल्रि ल्री (इन्हें लिखा नहीं जा पा रहा है) अनाश्रित वर्ण हैं.
पृथ्वी आदि पाँच महाभूत(क वर्गीय वर्णों से अभिव्यक्त) पाँच तन्मात्रा (च वर्गीय वर्ण)पाँच कर्मेंद्रियाँ(ट वर्ग) पाँच ज्ञानेंद्रियां (त वर्ग) मन (प), अहंकार (फ), बुद्धि(ब), और प्रकृति (भ) तक २४ तत्वअशुद्ध विद्या हैं, पुरुष (म), माया (व) के पाँच कंचुक - नियति (ल) काल (य), राग(ल), विद्या(र) एवंकला (य) नामक ६ तत्व शुद्ध-अशुद्ध तो शुद्धविद्या से शिव तत्व तक शुद्धविद्या (श- अहं अहं इदं इदं), ईश्वर (इदं अहं- ष) सदाशिव (अहं इदं- स), शक्ति (अहं - ह) यह चार वर्ण अपने स्वभाव की ऊष्माके कारण ऊष्मथ वर्ण कहे जाते हैं. शिव और परमशिव मिलकर यह ६ शुद्ध विद्या मानी जाती है. परमशिव को अलग करके कश्मीरी शैव दर्शन में पाँच शुद्ध तत्व माने गए हैं. परमशिव तत्वातीत हैं. कुल यह ३६ तत्व मान्य हैं. प्रकृति में तीन गुण होते हैं पर वे तत्व नहीं हैं. क्योंकि वे प्रकृति द्वारानिर्मित होते हैं. तत्व निर्माता होते हैं, निर्मित नहीं. पुरुष तत्व तक हाई वेदान्तियों की समझ सीमित है. किंतु शैव दर्शन में यहाँ तक कुछ नहीं समझा जाता. पुरुष में अहं भी है. पुरुष और अहं में अंतर है. पुरुष विषयबंध ग्रस्त है, इसे नाम या शब्द कह सकते हैं और अहंकार वस्तुबंध ग्रस्त है, इसे रूप याअर्थ कह सकते हैं. यह पुरुष माया के पाँच कंचुकों से आवृत्त है. नियति तत्व से वह सीमाबद्ध रहता है. काल से वह समय बद्ध हो जाता है, राग से वह अधूरे से ग्रस्त रहता है. विद्या माया से वह ज्ञान कीसीमा में बद्ध हो जाता है. पाँचवीं और अंतिम माया में कला तत्व है, जिसके कारण उसे कुछ अपनेभीतर रचनात्मक प्रतिभा होने का गुमान बना रहता है. माया के यह पाँच तत्व पुरुष के अपने अविद्याजन्य स्वभाव में रहते हैं. अंतस्थ वर्णों में यह विद्यमान हैं. इनके कारण पुरुष अपना मूल स्वभाव नहींजान पाता, इसलिए वह प्रकृति से बंधा रहता है. यह छ कंचुक या आवरण अनिवार्यतः हटाने होते हैं. जो गुरुकृपा से निर्मूल हो जाते हैं, तब यह माया शक्ति में रूपांतरित होती है. यही माया शिव कावैभव बन जाता है. अंतःकरण से माया पर्यंत यह तत्व नाम और रूप या शब्द और अर्थ से बंधे रहतेहैं. इसके बाद पुरुष शुद्ध विद्या में प्रवेश करता है. शुद्ध विद्या बोध प्राप्ति की दशा है. इसमें अर्थशब्द में क्रमशःविलीन होने लगता है. यह अर्थ है यह शब्द यह शुद्धविद्या की दशा है, इसके बाद ईश्वरदशा में अर्थ शब्द में ही है, फिर सदाशिव दशा में शब्द में ही अर्थ है, यह बोध और तब शक्ति औरशिव तत्व में प्रवेश होता है. यह दोनों अंतर्निर्भर होते हैं शक्ति तत्व में पूर्णत्व भाव ( मैं ही यह संसार है) और शिव तत्व में शून्यत्व भाव ( कुछ भी नहीं है)छा जा जाता है. उन्मेष और निमेष मात्र (पलकझपकने भर में) में यह दोनों भाव घटित होते रहते हैं. परमशिव शिव और शक्ति के बाद तत्वातीत दशाहै, इसे तत्वातीत भी नहीं कह सकते, क्योंकि यह सब ३६ तत्वों में भी एक समय में ही विद्यमान भी है. वह वहाँ नहीं भी है और है भी. उसे तत्व कहिए कि क्या कहिए, कुछ न कहिए, सब कहिए, क्योंकिवहाँ शब्द और अर्थ दोनों नहीं और दोनों हैं भी. वह अज्ञेय है कि ज्ञेय है, कि ज्ञेयाज्ञेय अथवाअज्ञेयाज्ञेय, भाषा काम नहीं करती है.
१३/१/२२
हंस में अहं सौ जुड़ा हुआ है. अहं में शिव शक्ति और नर है, सौ में नर चला जाता है शिव और शक्तिरह जाते हैं. हँसः का सोहम ही नहीं होता, वरन उससे आगे हं और सौ दोनों एक एक हो जाते हैं.
१४/१/२२
शब्द और अर्थ विषय पर कोई कही बात पूरी नहीं हो रही है. अंतःकरण से माया के बीच ही अर्थ औरशब्द या नाम और रूप का पृथक् पृथक् अस्तित्व है. मायोत्तीर्ण होने पर शब्द या नाम ही बचता है. उससमय पुरुष शुद्धविद्या में प्रवेश कर जाता है. इसके आगे के भी परमशिव पर्यंत अलग अलग स्तर हैं.
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥ आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥1॥ |
भावार्थ
\"सोऽहमस्मि\" (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत कभी न टूटने वाली) वृत्ति है, वही (उसज्ञानदीपक की) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) है। (इस प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुंदरप्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है,॥1॥
तर्कों के बीच छिपे सत्य का दर्शन करना रहस्य है। रहस्य किसी आग्रह या वाद-विवाद का नाम नहीं।यह भ्रामक कल्पना, आस्था और विश्वास भी नहीं, यह तो एक अनुभूति है। आप इसे कोई भी नाम देसकते हैं, पर उसका नाम कैसे दिया जा सकता है-
बसती न सुण्यम सुण्यम न बसती अगम अगोचर ऐसा।
गिगन शिषर महँ बालक बोले ताका नाम धरहुगे कैसा।।
दमादम मस्त कलंदर
12वीं शताब्दी में एक सूफी कलंदर हुए हैं, उनकी याद में अमीर खुसरो ने यह कलाम लिखा, जिसेबाद में बुल्ले शाह ने संशोधित करके क़व्वाली में ढाला। इसे भारत के वडाली ब्रदर्स और हंसराजहंस, पाकिस्तान के नुसरत फतेह अली खान, बांग्लादेश की रुना लैला जैसे कई गायकों ने गाया है।ईरान तक यह गीत गाया जाता है।
इसका अर्थ सूफियाना है, कोई अश्लीलता इसके अर्थ में नही, जैसा इसे सुनते समय कुछ लोगसमझते होंगे।
मोटामोटी अर्थ है
कलंदर (संत)! मेरी श्वास तेरे लिए है। अली सबसे पहले हुए। सिंध का शाइर कलंदर। चार दिए तेरेजल रहे थे, पांचवां हम लाये हैं। तेरी ही अनुगूंज इस सृष्टि में सुनाई दे रही है।
यूट्यूब से सुन सकते हैं...
आज सूर्य की गति परिवर्तन का पर्व है। यह हर माह एक राशि से दूसरी राशि मे जाता है, पर मकरराशि में प्रवेश करने पर यह दक्षिणायन से उत्तरायण हो जाता है। अलग-अलग नामों से इस पर्व कोमनाते हैं। यह परिवर्तन विभिन्न दिशाओं में या राशियों में घटित होते हैं। इसके फलस्वरूप प्रकृतिबदलती है, पर सूर्य कभी नहीं बदलता। सूर्य की छवि कहीं दिखे, उसका स्वरूप यथावत रहता है।परम् चेतना जिस तरह जीवों में भासित हो रही है, भगवान भास्कर भी पृथ्वी और इस सौरमंडल केअन्य ग्रहों पर उसी तरह प्रकाशित हो रहे हैं। भागवतकार कहते हैं..
न निंदा न च स्तौति लोके चरति सूर्यवत।
आप सबको मकर संक्रांति की शुभकामनाएं।
जिस प्रकार हमारे शरीर में मोटे तौर पर जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाएँ परिवर्त्यमान हैं, उसीतरह बाहर भी तरह-तरह से काल परिवर्तन घटित हो रहे हैं. संक्रांतियां भी ऐसे ही परिवर्तन हैं. हर माहएक संक्रांति होती है, किंतु सूर्य जब मकर राशि में प्रवेश करता है तो यह विशेष हो जाता है. यहकाल स्पंद है. स्पंद क्षण को देखने और जीने का प्रयत्न हर सभ्यता और संस्कृति करती आयी है. इससमय के काल परिवर्तन को कहीं लोहिडी, कहीं पोंगल, कहीं उत्तरायण इत्यादि नामों से जाना जाताहै. आप सबको मकर संक्रांति की शुभकामनाएँ....
१५/१/२२
"In the moment of fullness you possess nothing,
Therefore you remain ever pure.
At the touch of your feet,
The dust of earth becomes clean
And death shines forth as life."
~ Rabindranath Tagore
(From "A Flight of Swans", Translated by Aurobindo Bose)
पचास प्रकार की वायु होती है, इनमे ४९ सक्रिय रहती हैं, एक बिल्कुल शांत प्रकार की श्वास होती है. वर्णमाला का अ यही श्वास है. इसे लेने में कोई श्रम नहीं करना होता, फिर भी यह सब वर्णों मेंविद्यमान रहता है.
१७/१/२२
एक ऐसे सार्वभौमिक रूप से आकर्षक धर्म की आवश्यकता है, जिसे संभवतः धर्म का नाम देने की भीआवश्यकता नहीं है. या फिर जो प्रचलित धर्म हैं, वे इसी आवश्यकता की पूर्ति के निमित्त अपने कोप्रस्तुत करें.
धर्म अनिवार्य रूप से दुःख की स्थायी निवृत्ति और परमानंद या ईश्वर की प्राप्ति में निहित है. दुःख कीस्थायी निवृत्ति और परमानंद या ईश्वर प्राप्ति के लिए जिन क्रियाओं को हमें अपनाना चाहिए वेधार्मिक कहलाती हैं. श्री श्री परमहंस योगानंद द्वारा प्रदान की गयी सम्पूर्ण शिक्षा धर्म विज्ञान है.
प्रेम और उसके स्वरूप की तात्विक निष्पत्ति
दुनिया भर में अगर किसी एक शब्द पर हुए चिंतन और लेखन को देखा जाए तो उनमें प्रेम शब्द, पर्याय और उसके स्वरूपगत अर्थ की चर्चा सबसे अधिक परिलक्षित होगी. प्रेम पर प्राचीन काल से हीचिंतन होता आया है. प्रेम और जीवन एक अर्थ में समरूप हैं. इसलिए जब प्रेम पर विचार चलता है तोजीवन भी उसकी परिधि में सम्मिलित रहता है. जीवन के भीतर प्रेम को सीमित नहीं किया जा सकताहै, जब तक जीवन की सर्वव्यापकता का, सर्वं सर्वात्मकं (सबमें सब होना) का अनुभव न कर लियाजाए. प्रेम में जीवन है और जीवन में प्रेम है. यह दोनों पृथक नहीं है.
प्रेम को कबीर ने ढाई आखर कहा है. यह ढाई अक्षर मात्र लिखने के स्तर पर नहीं है. शब्द और अर्थतात्विक रूप में भिन्न नहीं हैं. शिव और शक्ति में भी पार्थक्य नहीं. शव में इ की मात्रा लगने पर शिवहोता है. बिना शक्ति के शिव शव ही हैं, बिना शक्तिमान अर्थात् शिव के शक्ति का भी आश्रय कहाँ! अर्धमात्रा का निरूपण चंडी पाठ में मिलता है. प्रेम में अर्धमात्रा का समावेश है. अर्धमात्रा नित्य होतीहै। ॐ में यह अर्धमात्रा ही है, इसमें अ उ और म इन तीन अक्षरों के अतिरिक्त बिन्दुरूपा नित्यअर्धमात्रा है, जिसका विशेषरूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह शक्ति ही तो है.
भक्ति में श्रद्धा और प्रेम का योग रहता है. बिना प्रेम के भक्ति संभव नहीं. श्रद्धा के बाद प्रेम का उदयहोता है. श्रद्धावान को ही ज्ञान लभ्य होता है. भक्ति की पराकाष्ठा में ज्ञानोदय होना ही है औरज्ञानोदय होने पर कृतकार्यता की उपलब्धि स्वाभाविक है.
ओशो की दृष्टि में प्रेम का सार सूत्र क्या है–
कि जो तुम अपने लिए चाहते हो वही तुम दूसरे के लिए करने लगो और जो तुम अपने लिए नहीं चाहतेवह तुम दूसरे के साथ मत करो।
प्रेम का अर्थ यह है
कि दूसरे को तुम अपने जैसा देखो, आत्मवत। एक व्यक्ति भी तुम्हें अपने जैसा दिखाई पड़ने लगे तोतुम्हारे जीवन में झरोखा खुल गया।फिर यह झरोखा बड़ा होता जाता है। एक ऐसी घड़ी आती है किसारे अस्तित्व के साथ तुम ऐसे ही व्यवहार करते हो जैसे तुम अपने साथ करना चाहोगे।
और जब तुम सारे अस्तित्व के साथ ऐसा व्यवहार करते हो जैसे
अस्तित्व तुम्हारा ही फैलाव है तो सारा अस्तित्व भी तुम्हारे
साथ वैसा ही व्यवहार करता है। तुम जो देते हो वही तुम पर लौट आता है। तुम थोड़ा सा प्रेम देते हो, हजार गुना होकर तुम पर बरस जाता है। तुम थोड़ा सा मुस्कुराते हो, सारा जगत तुम्हारे साथमुस्कुराता है।
कहावत है
कि रोओ तो अकेले रोओगे, हंसो तो सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ हंसता है।बड़ी ठीक कहावत है। रोनेमें कोई साथी नहीं है।
क्योंकि अस्तित्व रोना जानता ही नहीं। अस्तित्व केवल उत्सव जानता है। उसका कसूर भी नहीं है।
जिस मनुष्य के पास प्रेम है उसकी प्रेम की मांग मिट जाती है। और यह भी मैं आपको कहूं: जिसकीप्रेम की मांग मिट जाती है वही केवल प्रेम को दे सकता है। जो खुद मांग रहा है वह दे नहीं सकता है।
इस जगत में केवल वे लोग प्रेम दे सकते हैं जिन्हें आपके प्रेम की कोई अपेक्षा नहीं है—केवल वे हीलोग! महावीर और बुद्ध इस जगत को प्रेम देते हैं। जिनको हम समझ ही नहीं पाते। हम सोचते हैं, वेतो प्रेम से मुक्त हो गए हैं। वे ही केवल प्रेम दे रहे हैं। आप प्रेम से बिलकुल मुक्त हैं। क्योंकि उनकीमांग बिलकुल नहीं है। आपसे कुछ भी नहीं मांग रहे हैं, सिर्फ दे रहे हैं।
प्रेम का अर्थ है: जहां मांग नहीं है और केवल देना है। और जहां मांग है वहां प्रेम नहीं है, वहां सौदा है।जहां मांग है वहां प्रेम बिलकुल नहीं है, वहां लेन-देन है। और अगर लेन-देन जरा ही गलत हो जाए तोजिसे हम प्रेम समझते थे वह घृणा में परिणत हो जाएगा।
प्रेम दो के बीच अपनी छटा बिखेरता है. बीच की इस चमक का अनुभव विलक्षण है. दो स्त्री पुरुष हीनहीं हैं, वरन सब कुछ का द्वैत इस दो में शामिल है. इस द्वैत से परे हो जाने पर प्रेम का उदय होता है. द्वैत से परे hone का अर्थ यह भी नहीं है कि हम संसार se उपराम हो जाएं. संसार में रहना हैsexual ख़ुशी प्रेम के आनंद से हज़ारों गुना फीकी है. सेक्स व्यक्ति के स्वाधिष्ठान चक्र तक ही सीमित रहताहै, जिसमें उपस्थ कर्मेंद्रिय और जिह्वा ज्ञानेंद्रिय की भूमिका होती है. इसका विषय रस अवश्य कहागया, पर रस कौन! बोले रसो वै सः. वह परमानंद ही रस है, परमानंद का रस मात्र स्त्री पुरुष केसेक्शूअल अंगों से प्राप्त नहीं होता, अपितु पाँचों इंद्रियों और उनके विषयों के महाभूतों से हुए संघातसे सृष्टि में यह रस नित्य निरंतर विद्यमान है. इसकी अनुभूति होनी जब शुरू होती है तो जीवन कीप्रत्येक क्रिया में और बाहर की प्रत्येक हलचल में यह दिखायी पड़ती है. पांचों इंद्रियों और पाँचोंमहाभूत का पाँचों विषयों से उत्पन्न रस जिस प्रक्रिया के द्वारा उत्पन्न हो रहा है, उसे कामकला कहागया है. इस काम कला में इच्छा, ज्ञान और क्रिया एक साथ घटित हो रहे हैं.
प्रेम की व्याख्या नारद भक्ति सूत्र में अपनी पराकाष्ठा में व्यक्त हुयी है. इस भक्ति सूत्र की व्याख्याश्री श्री रविशंकर ने सुंदर ढंग से की है. गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानं
अविच्छिन्नं सूक्ष्मतरं अनुभवरुपम्
प्रेम में न कोई गुण है, न कामना, पर प्रतिक्षण उसका प्रस्फुटन हो रहा है. वह अविच्छिन्न या निरंतरप्रकट हो रहा है. हवा यदि पृथ्वी से प्रेम न करती तो वह इसके साथ क्यों घूमती, पृथ्वी सबको अपनीतरफ़ क्यों खींचती है. सूरज और चंद रोशनी या चाँदनी क्यों बिखेरते. यह स्वभाव प्रेम ही तो है. नफ़रत या जो कोई जिससे संबंध है, वह प्रेम के विविध रूप ही हैं. अगर शरीर में दर्द है तो मतलब वहआपका ध्यान खींच रहा है. अभाव भी प्रेम ही है, अप्राप्य वस्तु के प्रति प्रेम. प्रेम अनंतरूप है जैसे सृष्टिका पारावार नहीं प्रेम का भी कोई आर पार नहीं.
प्रेम कोई कृत्य नहीं, प्रेम स्वयं ही प्रमाण है, वह प्रमेय भी है और प्रमाता भी. प्रेम का स्वरूप शांति है, आनंद है. कन्नड़ के कवि ने कहा है जैसे पहाड़ के नीचे घास रहती है, दुनिया में हमें ऐसे ही रहनाचाहिए. सब में एक हो जाने से बेवक़ूफ़ भी ज्ञानी हो जाता है और यदि ज्ञानी सबमें अपने को अलगमानता है तो वह भी बेवक़ूफ़ बन जाता है.
प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है, इसका विवेचन या निर्वचन नहीं हो सकता. इसीलिए गले लगाना, चुंबन लेना, पुष्प भेंट करना, माला पहनाना कितनी चेष्टाएँ की जाती हैं. हज़ारों शब्दों का प्रयोग एकचेष्टा ke बराबर और हज़ारों चेष्टाएँ एक दृष्टि के बराबर होती हैं. फिर भी प्रेम को पूर्ण रूप मेंअभिव्यक्त नहीं किया जा सकता. किंतु वह हर चेष्टा में प्रकट भी हो रहा है. आंसू में प्रेम घनीभूतहोकर गिरता है, किंतु तब भी वह अनभिव्यक्त रह जाता है. ध्यान में, मौन में जब मन को इकट्ठा कियाजाता है, तब प्रेम की अतल गहराई की झलक या उसका प्रवेश द्वारा मिल जाता है. पर वह गूँगे के गुडके समान है. उसे व्यक्त कैसे किया जाए. तुलसी बाबा कहते हैं, वाणी के पास नेत्र नहीं और नेत्रों केपास वाणी नहीं. गिरा अनयन नयन बिनु बानी.
लाओत्से ने कहा है जो जानता है, वह बोलता नहीं है;
जो बोलता है, वह जानता नहीं है।
गर्भस्थ शिशु जो अपनी माँ की श्वास से श्वास ले रहा है, विशुद्ध प्रेम की वही दशा है. उस शिशु कोइससे भी ज्ञात नहीं कि उसके कितने भाई बहन हैं, मेरी माँ है, वह औरों की माँ है या नहीं, उससे कुछमतलब ही नहीं है. बंदर को उसके बच्चे पकड़े रहते हैं तो बिल्ली अपने बच्चों को. क्या अंतर पड़ता है, बच्चे की संभाल करने का दायित्व तो माँ पर ही है. बच्चे जो भी कर रहे हैं, वही तो लीला है, खेल है.
कामना, क्रोध, अभिमान यदि उठे तो \"उसी\" पर करो, कोई कामना, क्रोध और अभिमान फिर शेष नहींरहते. अभिमान यह कि हम उसी के हैं. औरों से करके तनाव होगा, उससे करेंगे तो भक्ति बढ़ेगी. सीमित दृष्टिकोण से कम, क्रोध, अभिमान हमें थका देंगे. दास और सखा भाव से आत्म भाव में जायाजा सकता है. पहले दास भाव, जिससे मर्यादा रहे. बहुत मर्यादा भय का कारण बनती है, तब सखाभाव रखना उत्तम है. दोनों भावों का संतुलन आवश्यक है. प्रार्थना में परमपिता या जगन्माता, सखा, प्रियतम प्रभु का क्रम इसीलिए है. माता और पिता अलग-अलग नहीं, न इनमे छोटे बडे का स्तर होताहै.
नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च।
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च।।
(केनोपनिषद 2/2)
\"मैं तत्त्व को भली भाँति जान गया हूँ - ऐसा मैं नहीं मानता और न ऐसा ही मानता हूँ कि मैं तत्त्व को नहींजानता; क्योंकि जानता भी हूँ। मैं तत्त्व को जानता हूँ अथवा नहीं जानता हूँ- ऐसा सन्देह भी नहीं है।हममें से जो कोई भी उस तत्त्व को जानता है, वही मेरे उक्त वचन के तात्पर्य को जानता है।\"
प्रेम स्वरूप के दर्शन में वासना से दूर rhna होगा. जो वस्तु को प्रधानता दे ऐसे नास्तिक से दूर रहनाहोगा, किसी को वैरी नहीं मानना होगा. अभिमान और दंभ इसके बडे विघ्न हैं. अभिमान में व्यक्ति देहकेंद्रित रहता है. एक पागल और प्रेमी में मूलभूत अंतर उसके अभिमान को लेकर ही होता है, पागलकेंद्र उसका अपना मन है, प्रेमी अ-मन हो जाता है. दंभी व्यक्ति सबको दिखाता है कि मैं कुछ हूँ. प्रेमजोड़ता है, योग का फल प्रेम ही है. प्रतिस्पर्धा तोड़ती है. प्रतिस्पर्धा ख़ाली स्थान भरने में दिखनीचाहिए, किसी को पछाड़ने या किसी से आगे जाने में पड़ना उचित नहीं. प्रेम कार्यं प्रेमैव कार्यं, प्रेम हीकरना है, प्रेम ही करना है और कुछ नहीं करना.
परिवार के प्रति प्रेम रखने का अभ्यास हमें कराया जाता है. हम दास होते हैं तो कई लोगों के दास होजाते हैं, परंतु सखा सबके नहीं होते. पर सबके सखा और सबके दास तभी हो सकते हैं जब हम किसीएक के होकर रहें.
प्रेम के लिए वाद का अवलंबन नहीं करना है. जब दूसरा है ही नहीं तो वाद किससे! द्वितियाद्वै भयंभवति. जागरिते भयं नास्ति. दिमाग़ कभी मिलता नहीं, मिलेगा भी नहीं, पर दिल और दिमाग़ मिलजाते हैं. दिमाग़ का काम दिल को मिलाने का होना चाहिए. दिमाग़ दिल को तोड़ सकता है, दिल दिलको नहीं तोड़ सकता. दिमाग़ ही दिल को तोड़ सकता है और दिमाग़ ही दिल को जोड़ सकता है, जबदिल जुड़ गया तो दिमाग़ का अवलंबन क्यों करना, ऊपर चढ़ गए, अब सीढ़ी से क्या प्रयोजन.
सुख, दुःख, इच्छा, लाभ ये चार परिस्थितियाँ हैं. हर दुःख सूचक है कि तुम सुख के पीछे पड़े हो. सुखको पकडने से वह दुःख में बदल जाता है. सुख के त्याग से झूठ भी छूट जाता है. इन चारों का त्यागकरना है, फिर त्याग का भी त्याग करना. जल्दबाज़ी प्रेम के स्वरूप को व्यक्त होने में रोड़ा बनती है. क्षण भर को भी व्यर्थ नहीं करना.
प्रेम में व्यक्ति भजता है, यानि भागीदार होता है. दास और सखा के रूप में वह उससे एक हो जाता है. प्रेम में व्यक्ति कीर्तन करता है, आर्तन यानि रोना. रोना भी बच्चे को आता है, वह पूरे शरीर से रोता है, केवल आँखों से नहीं.
भक्ति से ज्ञान होता है, ज्ञान से भक्ति होती है, भक्ति या ज्ञान होने पर जो कर्म होता है वह सत्कर्म है. ज्ञान और कर्म का आधार भक्ति है और फल भी भक्ति है.
अक्सर हम समझते हैं रुपासक्ति काम को जगाती है, पर ऐसा नहीं है. रूप को सम्मान नहीं देने सेकाम जागता है. काम वासना माने हड़पना, सम्मान माने पूजा करना समर्पित होना, रूप को देखते हीसमर्पण भाव जगे, वह सत्योपासन है. भगवान ने जन्म देकर हमारी पूजा की है अब हम उसे दोहराते हैंइसीलिए वह पूजा कहलाती है. पूजा यानि पुनः पुनः जन्म लेना. धन्यता महसूस करने पर सच्ची पूजाका उदय होता है. पूजा में नैवेद्य अर्पित किया जाता है. निवेदन करना खुद का निवेदन, अपने कोअर्पित करना नैवेद्य है. जो वह है, सो मैं हूँ, जो मैं हूँ सो वह है. मैं वह हूँ वह मैं हूँ. जो कुछ दृश्य अदृश्यहै वह उसके या मेरे से बाहर नहीं. बाहर में हम हैं और हममें बाहर है, अंदर और बाहर उससे अलग भी. परम विरह भी प्रेम है, प्रेम न हो तो विरह कैसा और विरह नहीं तो प्रेम कैसे, विरह में जलन भी प्रेम है. हिंदी साहित्य में रीति मुक्त कवि घनानंद, बोधा, आलम इत्यादि कवि विरह वेदना के कवि स्वीकृत हैं. राधा विरह की तो कृष्ण प्रेम के सूचक हैं. राधेश्याम यानि विरह और प्रेम की जोड़ी. यही तो योग है. प्रकृति और पुरुष का मिलन है.
ज्ञानी बहुमति होते हैं, प्रेमी एकमति. ज्ञानी तब तक सफल नहीं जब तक वह प्रेमी न बनें.
प्रेमोदय में शब्द और अर्थ, नाम और रूप, दृष्टि और दृश्य दोनों समा जाते हैं, एक हो जाते हैं. और तबजो बचता है या बनता है, वह प्रेम और प्रेम ही है.
18/1/22
From Joy we have come, in Joy we live and have our being, and in that sacred Joy we will one day melt again."[Taittiriya Upanishad 3-6-1] All -- Read more: http://yogananda.com.au/pyr/love1.html
यह संसार प्रेम शब्द का वास्तविक अर्थ भूल गया है. इस शब्द को सबसे अधिक लांछित किया गयाहै. जिस प्रकार तेल के हर भाग में तेल होता है, उसी प्रकार सृष्टि में प्रेम की व्याप्ति है. प्रेम कीपरिभाषा करना अत्यंत कठिन है. जब तक हम फल का स्वाद न चख लें, उसे जान नहीं सकते, यहीस्थिति प्रेम की भी है. प्रेम को विकसित करने का तरीक़ा हममें से बहुतों को ज्ञात नहीं है. चिंगारी तोप्रत्येक आत्मा में है, पर उसे आग में रूपांतरित करना बहुत कम लोगों को ज्ञात है.
प्रेम आनंद देता है, प्रेम से प्रसन्नता प्राप्त होती है, पर प्रेम लक्ष्य नहीं है, लक्ष्य आनंद है. ईश्वरसच्चिदानंद है. आत्मा भी सच्चिदानंद है. हम आनंद से आए हैं, आनंद से रहते हैं और एक दिन इसपवित्र आनंद में मिल जाएँगे. तैत्तिरीय उपनिषद ३-६-१
सभी भावनाएं इस आनंद के आगे तुच्छ हैं. आनंद का उद्गम सहस्रार में होता है, फिर यह हृदय मेंउतरता है.
हम मानवीय रिश्तों में प्रेम देखते हैं, पर प्रेम एक वैश्विक भावना है. इस वैश्विक प्रेम में सभी मानवीयसंबंधों का प्रेम समाया हुआ है. माता और शिशु परस्पर प्रेम क्यों करते हैं, वे नहीं जानते. यह प्रेमपरमात्मा से निःसृत होता है. इस प्रकार मानवीय संबंधों के प्रेम में परमात्मा का दर्शन होता है.
पिता का प्रेम तर्क पर आधारित होता है तो माता का प्रेम भावनाओं पर. माता का प्रेम कुछ अधिकगहरा होता है क्योंकि वह निशर्त होता है. माता अपने पुत्रों का कभी अहित नहीं चाहती.
स्त्री और पुरुष का वैवाहिक प्रेम वास्तविक अर्थों में शरीर, मन और आत्मा की एकता का सूचक है. जब यह अपने उच्चतम स्तर पर विकसित होता है, तब पूर्ण एकत्व का दर्शन संभव हो जाता है. सेक्ससंबंध दैवी संबंधों को विकसित करने में ग्रहण लगाते हैं. यही नहीं, किसी प्रकार का कर्तव्य औरअधिकार भी प्रेम के वास्तविक लक्ष्य तक हमें नहीं पहुँचा सकते हैं कामेच्छा प्राकृतिक है, पर यह मात्रसृष्टि संचालन के लिए है. पशु-पक्षियों का सहवास एक निश्चित अवधि में होता है. मनुष्य का यह हरऋतु में हो जाता है, पर सभी प्राणियों में उसे ही इच्छा शक्ति प्राप्त है, उसका प्रयोग उसे विवेकपूर्वककरना चाहिए.
सेक्स और प्रेम परस्पर उतने ही दूर हैं जितने सूरज और चाँद. सेक्स को हमें अपनी नियामक भावनानहीं बना लेना चाहिए, जो व्यक्ति स्त्री को एक काम वस्तु की तरह देखता है, वह अपने विनाश कोआमंत्रित करता है इस तरह उसकी अंततः शांति और प्रसन्नता तिरोहित हो जाती है. सेक्स कोलांछित करना भी वैसे ही है जैसे बिना ईंधन की कार रखना. रज या वीर्य की एक बूँद आठ बूँद रक्तके बराबर होता है, पर इसे दबाना भी हानिकारक होता है. मन के रूपांतरण के बाद इसे परम ऊर्जा मेंबदलना श्रेयस्कर है.
किसी को वापसी दिखना होगा ग़लत नहीं पर प्रेम का आगमन सबसे पहले होना चाहिए. विवाहसंबंध उसके बाद स्थापित हो. अगर कोई आध्यात्मिक होकर अपने जोड़ीदार से दूर होता है तो वहअति स्वार्थी होता है. स्त्री पुरुष में यदि कोई आध्यात्मिक पथ पर बढ़ने लगा है तो दूसरे को उसकासहयोग करना चाहिए. समझदारी धैर्य और विवेक रखते हुए दोनों को आगे बढ़ना हितकर है. आध्यात्मिक इच्छा को भी बलपूर्वक थोपा नहीं जा सकता.
पुरुष हर स्त्री को माँ की तरह देखे, और हर स्त्री पुरुष को पिता के प्रतीक की तरह ले. जिन्होंने अपनीआत्मा को उद्बुद्ध कर लिया है उन्हें वास्तविक प्रेम में सेक्स की कोई जगह नहीं दीखती. इस प्रेम कोविकसित करने के लिए गुरु और शिष्य के वास्तविक संबंध में उतरना होगा. भगवान कृष्ण ने हज़ारोंस्त्रियों के साथ संबंध रखा, पर राधा जानती थी कि कृष्ण उनके रूप से नहीं वरन आत्मा से जुड़े हैं. इसी तरह कृष्ण को भी राधा से विवाह करने की आवश्यकता नहीं रहती. राधा जैसी कोई स्त्री नहींऔर कृष्ण जैसा कोई पुरुष नहीं.
ध्यान करने के बाद प्रेम उतरता है, तब एक त्याग वृत्ति का उदय होता है, इस त्याग के बाद कर्मक्षेत्र मेंयह वास्तविक प्रेम बनता है. यह वास्तविक प्रेम दैवी हो जाता है. यह दैवी प्रेम ही आनंद है. जितनाअधिक ध्यान करेंगे उतनी ही हमारी इच्छाएं जलती जाएगी और प्रेम विकसित होता जाएगा. तबआनंद प्रेम और प्रेम आनंद हो जाएगा और तब सारे मानवीय प्रेम इसकी जूठन मालूम पड़ने लगेंगे.
साधारण प्रेम स्वार्थी होता है वह इच्छाओं और तृप्ति से सम्बद्ध रहता है, जबकि दैवी प्रेम बिना शर्त, बिना सीमा से और बिना परिवर्तन होता है. ब्रह्मांडीय प्रेमी मात्र ईश्वर है. सूर्य, चंद्र, पृथ्वी आदिमहाभूत और सब ग्रह नक्षत्र ईश्वर प्रेम में व्यवस्थाबद्ध हैं. जीवन का एकमात्र ध्येय ईश्वर को पाना हैप्रेम का उदय तभी संभव है.
प्रेम आत्मा का गीत है. प्रेम ईश्वर से आता है. सभी मानवीय दुखों का यह समाधान है. यह पथ है औरपाथेय भी. प्रेम से बढ़कर कुछ नहीं है. अहं प्रेम, प्रेमी और प्रिय में बंटकर खंड खंड दिखता है. जब यहबात समझ में आती है, तब वही अहं सभी नाम रूपों में प्रेम का दर्शन करने लगता है.
यही प्रेम सभी प्राणियों और प्रकृति मैं क्रीड़ा कर रहा है.
व्यक्ति से प्रेम हो तो वह मोह बन जाता वस्तु से प्रेम हो तो लोभ हो जाता है. अपनी स्थिति से प्रेम होजाए तो उसे ममता, मद या अहंकार कहते हैं. प्रेम न मिले या मिलने में रोड़ा हो तो क्रोध अपने प्राणोंसे प्रेम यदि मात्रा से अधिक हो जाता है तो उसे ईर्ष्या कहते हैं किंतु यदि शुद्ध प्रेम की एक झलक भीमिल जाए तो व्यक्ति के जीवन परिवर्तन की दिशा पर चल पड़ता है. सब कुछ जीवन में यदि मिलताहै और प्रेम नहीं मिलता तो सब निःसार मालूम पड़ता है.
प्रेम व्याख्या की चीज़ नहीं व्याख्या दिमाग़ की होती है, पर प्रेम दिल का होता है व्यक्तिगत जीवनपूर्ण तभी होता है जब दिल और दिमाग़ का योग हो जाए. शुद्ध प्रेम पाने के बाद जीवन में पाना कुछशेष नहीं रह जाता. जोj आवश्यक वस्तु है, वह अपने आप ज़रूरत से अधिक समय से पूर्व प्राप्त होनेलग जाती है.
जहाँ हम हैं वहीं आकाश है यह पृथ्वी भी आकाश में ही तो है. आकाश के बाहर कुछ है क्या? शरीरके भीतर आत्मा नहीं है, आत्मा के भीतर शरीर है. हमारा स्थूल शरीर जितना है उससे दस गुणाअधिक सूक्ष्म शरीर और उससे भी हज़ार गुणा अधिक कारण शरीर है. स्थूल में पृथक पृथक मालूमपड़ता है, सूक्ष्म में जाते जाते लगता है एक ही है. जो हवा इस शरीर में गई वही हवा दूसरों के शरीर केभीतर भी गई. हवा को बाँटा नहीं जा सकता.
कामना उसी वस्तु की होती है जो अपनी नहीं है, अपना हो जाने पर कामना नहीं होती. कहा गया हैकि एक ही पाप है, जब खट्टी डकारें सुबह उठे, इसको पाप कहते है. अंजलि में जितना आए, उतनाभोजन एक समय में हमारा पेट पचा सकता है. जिसमें प्रेम प्रकट हो गया है, वह व्यक्ति सबकासम्मान करता है. तब हर कर्म का फल प्रेम होता है. योग का फल भी प्रेम ही है. प्रेम से दूर होने कानाम अभिमान है और प्रेम से जुड़ना योग है.
शरीर के स्तर पर जो आकर्षण हुआ, वह मन के स्तर पर प्रेम हुआ और मन के स्तर पर जो प्रेम हुआ. आत्मा के स्तर पर आगे चलकर वही भक्ति हो जाती है. इस प्रकार आकर्षण और भक्ति में भेद सिर्फ़मात्रा का रह जाता है.
श्री श्री परमहंस योगानंद ने कहा है-
Those who love Me as only one person, or who imperfectly love Me in one person, do not know what Love is. Only they can know Love who love Me wisely, faultlessly, completely, all-surrenderingly - who love Me perfectly and equally in all, and who love Me perfectly and equally as all. (\"The Divine Romance\" -- Read more: http://yogananda.com.au/pyr/love0.html
२०/१/२२
कोटिन में कोई एक चलत है
कोटिन चलत एक पहुचत है...
२१/१/२२
जे पहुंचे ते कहि गए, तिनकी एकै बात।
सबै सयाने एकमत, उनकी एकै जात।। दादूदयाल
जो नाम है, वही रूप है, जो रूप है वही नाम है. इनमे पूर्वापर संबंध है. शब्द सुरति योग यही है. सुरतियानि सूरत, चेहरा. आत्मा का बाह्य रूप. आत्मा शब्द है तो शरीर रूप है. श्रुति भी सुरति इसलिए हैक्योंकि श्रुति या श्रवण ही पहला लक्षण है किसी के प्रकटीकरण का. हमें ध्वनि से ही सर्वप्रथमअस्तित्व का पता चलता है. धूनी रमाने का अर्थ भी उस परम ध्वनि को सुनने से है, जो इकंकार कहीगयी है, वही सतिनाम है, जिसे गुरु कृपा से उपलब्ध किया जा सकता है. वाहे गुरु इसीलिए हैं, वाहेगुरु जी दी फ़तह और वाहे गुरु जी दा खालसा है.
महा में म का अर्थ माप या सीमा से है, ह का अर्थ उठना, सीमा से ऊपर जाना महा है. अहं सीमित होजाना है.
वर्णमाला में हर वर्ण का अपना अर्थ है, यह मूल अर्थ है, वर्णों के संयोग से अक्षर और फिर उनके अर्थविकसित होते गए हैं.
इस महामोह रूप निद्रा में जो स्वप्न जगत में स्वाप्निक आत्मबोध लेकर जाग्रत हुए , वे प्रणव पुरुषनारायण हैं ।
शब्दब्रह्म इन्हीं का नामान्तर है । प्रणव के पाँच अवयवों में जो पाँच देवता हैं ,वे क्रमशः ब्रह्मा सेसदाशिव पर्यंत पाँच स्तरों के अधिष्ठाता हैं । यह अंधकार रूपी महाशून्य ही है कारणसमुद्र ।शब्दब्रह्म में " मैं ब्रह्म हूँ " इसप्रकार का एक अभिमान उदित हुआ । अ से ह तक समस्त वर्णात्मकजगत ही \" अ \"----- \"ह \" है , बिंदु उसे घेरे रहता है , यही \".अहम् \" का बिंदु है , जो शून्य का नामान्तर है, एवं जिसमें वाच्य वाचक कुछ भी नहीं है । मोह चैतन्य को आच्छन्न कर मात्रा स्वर आदि के द्वाराजिस चित्र का अंकन करता है ,उसीका नाम प्रणव अथवा शब्दब्रह्म है । इसमें नाद ही समग्र विश्व है , नादान्त ज्योति-स्वरूप है ,एवं बिंदु है ज्योति का घेरा ,जो ज्योति को घेरे रहता है । यह बिंदु ही निद्राअथवा मोह है ,जिससे नाद और ज्योति स्फुरित होकर उसी के भीतर अपने को प्रकट करते हैं ।
श्री श्री नवमुण्डी महासन पृष्ठ 316/ क
तांत्रिक वाङ्गमय में शाक्त दृष्टि
24/1/22
क्रियाशक्ति के उन्मेष के साथ- साथ
उपासना का सूत्रपात होता है , क्रियाशक्ति के पूर्ण विकास में ही उपासना की समाप्ति होती है ।
उपासना ही योग है । योग शब्द से ज्ञात होता है कि दो वस्तुएं सम -भावापन्न हुईं । इन दो वस्तुओं मेंएक मुक्त पुरुष है ,जिसमें क्रियाशक्ति का प्रथम उन्मेष हुआ है
और दूसरी वस्तु है परमपुरुष ,जिसमें क्रियाशक्ति का विकास समाप्त हो गया है । इस प्रकारजीवात्मा और परमात्मा का मिलन ही योग कहलाता है । जिस मात्रा में क्रियाशक्ति का विकास होताहै, ठीक उसी मात्रा में योग स्थापित होता है । योगावस्था में जीवात्मा में क्रमशः परमात्म भाव जागनेलगता है । जीवात्मा जब अपने को परमात्मरूप में उपलब्ध करता है ,तभी योग पूर्ण होता है ,
यह याद रखना चाहिए ।
पूर्ण योग ही परमात्मा का सायुज्य है ।
क्रियाशक्ति का उन्मेष होने के साथ -साथ बाहर से शक्ति लेनी पड़ती है ,तथा उसके फलस्वरूपबाहर का आकर्षण क्रमशः कम होता जाता है । बाहर
से ब्राह्यजगत सारभूत रस क्रियाशक्ति के प्रभाव से साक्षिस्वरूप मुक्त आत्मा को प्राप्त होता है ।इसके
फलस्वरूप पहले ज्योतिरूप में और उसके बाद ज्योति के मध्य स्थित आकृति के रूप में रचना होतीरहती है ।
यह रूप की रचना है जो ज्योति की घनीभूत अवस्था है ।
यह रूप जैसे -जैसे पुष्ट होता जाता है , वैसे -वैसे चारों ओर की ज्योति को आकर्षित कर लेता है ।कहना न होगा कि यह ज्योति कर्मशक्ति का ही सार अंश है ।
कर्म का आकर्षण पूर्ण रूप से सिद्ध होने पर बाहर के साथ सम्बंध नहीं रह जाता । अंतिम अवस्था मेंभीतर में भी ज्योति पूर्ण हो जाती है । फलतः , उस समय रूप का पूर्ण विकास होता है । तब फिर वहज्योतिर्मण्डल के बीच का रूप नहीं ,बल्कि शुद्ध रूप होता है । इस अवस्था में हृदय के असंख्य द्वाररुद्ध हो जाते हैं , तथा साथ -साथ ऊर्ध्वमुख एक द्वार उन्मुक्त हो जाता है । हृदय के समस्त द्वारों कोबन्दकर ऊर्ध्वमार्ग से इस द्वार का छेदन कर के निकलने पर एक मूर्ति आविर्भूत होती है । रूप तब तकमूर्त रूप में परिणत नहीं होता ,जबतक वह हृदय से ऊर्ध्वमुख होकर नहीं निकलता । यही एकाग्रताका फल है ।
अद्वयतत्व के प्रकार भेद / पृष्ठ 80
तांत्रिक वाङ्गमय में शाक्त दृष्टि
कर्म मात्र अपने लिए करना बंधन है, संसार के लिए करना सेवा है और भगवान के लिए करना पूजनहै. जगत को जगत रूप से देखना उसकी सेवा है, भगवदरूप से देखना उसका पूजन है...
न जार जातस्य ललाट शृंगं कुलप्रसूतस्य न पादपद्मम. यथा यथा मुंचति वाग्जालं तथा तथा तस्यकुलप्रमानं.
२६/१/२२
गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं...
मन जहां डर से परे है
और सिर जहां ऊंचा है;
ज्ञान जहां मुक्त है;
और जहां दुनिया को
संकीर्ण घरेलू दीवारों से
छोटे छोटे टुकड़ों में बांटा नहीं गया है;
जहां शब्द सच की गहराइयों से निकलते हैं;
जहां थकी हुई प्रयासरत बांहें
त्रुटि हीनता की तलाश में हैं;
जहां अवबोध का स्पष्ट झरना है
जो सुनसान रेतीले मृत आदत के
वीराने में अपना रास्ता खो नहीं चुका है;
जहां मन हमेशा व्यापक होते विचार और सक्रियता में
तुम्हारे जरिए आगे चलता है
और आजादी के स्वर्ग में पहुंच जाता है
ओ पिता
मेरे देश को जागृत बनाओ
गीतांजलि
- रवीन्द्रनाथ टैगोर
२९/१/२२
योग वासिष्ठ में वसिष्ठ राम से कहते हैं यह सृष्टि 76 बार बनी है और तुम भी 76वे राम हो। योगवासिष्ठ के आधार पर हॉलीवुड में एक फ़िल्म 1999 में The Matrix बनी है। इसमें आता है Let me tell you why you are here. You are here because you know something. What you know you can’t explain, but you feel it. You felt it your entire life. You don’t know what it is, but it is there, like a splinter in your mind. It is this feeling that has brought you to me. Do you know what I’m talking about? The Matrix. Do you want to know what it is? The Matrix is everywhere, all around us, even now in this very room. Unfortunately no one can be told what the Matrix is. You have to see it for yourself..
शब्द का कोई अंतिम अर्थ नहीं होता- भर्तृहरि
अर्थ कभी पूरा पकड़ में नहीं आता, कुछ छूटता है, उसे आगे वाले पकड़ते हैं, फिर भी पकड़ नही पाते, वह अनंत रूपों में प्रकट होता है और पकड़ा जाता रहता है.
३०/१/२२
अर्थ शब्द के पसारे को कहते हैं और धन को भी कहते हैं. धन इस जगत का पसारा है. अर्थ को शब्दव्यक्त करते हैं, धन को जगत व्यक्त करता है.
३१/१/२२
ऊर्जा रीढ़ प्रदेश से गुजरते हुए ब्रह्मरंध्र से उठती जाती है. यही अमरता है, जन्म मरण और बंधन रहितदशा है. यह अक्षय है, अपार है, पूर्ण है, कालातीत और दैहिकता से परे और सर्वत्र व्याप्त है. यहाँ सबधर्म और उपाय एकमेक दिखने लगते हैं. यह उच्चतम स्थिति है.
एवं, तथा, और जैसे शब्द वह व्यंजित करते हैं जिसे हमारी भाषाएँ व्यक्त नहीं कर पातीं.