Thursday, November 25, 2021

भारत की संत परम्परा और परमहंस योगानंद भारत की संत परंपरा और परमहंस योगानंद राकेश नारायण द्विवेदी ​भारत की संत परंपरा विषयक पुस्तक में आलेख देने के लिए जब मेरे मित्र डाॅ जयशंकर तिवारी ने मुझसे कहा तो अन्य दिनो से अधिक व्यस्तता में रहने के बाद भी इसके लिए परमहंस योगानंद पर कुछ लिखने का विचार कौधा। इस विषय पर आलेख लिखने में अपूर्व उत्साह का संचार हुआ। ​परमहंस योगानंद के जीवन और दर्शन पर लिखने का निश्चय अवश्य किया, पर उनके वैविध्य और विस्तार को देखते हुए मेरी वाणी उनके अवदान को रेखांकित करने में समर्थ नहीं हैं। मुझे विश्वास है पाठक अपनी समझ और परंपरा के सूत्र के सहारे इस विषय का अवगाहन कर लेंगे। भारत की संत परंपरा वैदिक काल से अप्रतिहत अद्यावधि प्रवहमान है। वेद के अंतिम काल भाग, जिसे वेदांत कहा जाता है, उसका निदर्शन करने वाले उपनिषद हमारी संत परंपरा के जाज्वल्यमान नक्षत्र की भांति दुनिया भर में अपना प्रकाश बिखेर रहे हैं। उपनिषदों के कारण भारत जगतगुरु जैसी उपाधि को प्राप्त हुआ। उपनिषदों में संतो ने साक्षात्कार प्राप्त करके जो तत्वदर्शन वर्णन किया। जीवन, जगत, ईश्वर और प्रकृति के बारे में जो निर्वचन किया, वह संतों ने अपने अनुभव की प्रयोगशाला में उद्घाटित किया। इससे वह मात्र उनका अनुभव नहीं रह गया, अपितु वह मनुष्य मात्र की परमोपलब्धि बन गया। ​उपनिषदों का ज्ञान विश्व मानव की धरोहर बन गया। संसार की रेलमपेल में त्राण पाने के लिए यह ग्रंथ ऐसी खिडकी बनकर हमारे सम्मुख उपस्थित हैं, जहां से निकली निर्मल वायु हमारा परिष्कार कर देती है। उपनिषदों का ही ज्ञान समेकित रूप में श्रीमद्भगवद्गीता में मिलता है। प्रस्थानत्रयी में उपनिषद और गीता के अतिरिक्त ब्रह्मसूत्र आता है। ब्रह्मसूत्र की व्याख्या के आधार पर ही भारत के अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत इत्यादि विभिन्न संप्रदाय बने। इन संप्रदायों के आचार्यों ने जीवन और जगत के शाश्वत प्रश्नों पर ब्रह्मसूत्र का भाष्य करते हुए उसकी व्याख्या की है। भारत की एक परंपरा वैदिक है, जो वेदों में वर्णित पद्धति को अपना पाथेय मानती है, दूसरी परंपरा आगमशास्त्र की है। आगम को ही तंत्र कहा जाता है, तांत्रिक परंपरा को वर्तमान में कतिपय हेय दृष्टि से देखा जाता है। किंतु भारत के जनमानस के आचार-व्यवहार में वैदिक और तांत्रिक दोनों पद्धतियों का मिश्रण मिलता है। पुराण, स्मृतियां और सूत्र ग्रंथों में और पूजा पद्धतियों में यह दोनों पद्धतियां इस प्रकार एकमेक हो जाती हैं कि उन्हें पृथक कर पाना दुष्कर हैं। कौंन पद्धति तंत्र भी है और कौंन वेद की, इस प्रकार भी दोनों पक्षों के दावे देखने में आते हैं। वेदों का शास्त्रीय और साहित्यिक महत्व अन्यतम है, जबकि तंत्र का महत्व उसके विश्वव्यापी अवबोध के कारण है, जिससे वह विश्व की विभिन्न उपासना पद्धतियों में गति करने का सामथ्र्य रखता है। योगशास्त्र में इन दोनों पद्धतियों का समाहार विद्यमान है। वेद और तंत्र दोनों के लिए योग शास्त्र अपरिहार्य है। गीता में योगशास्त्र के अनुरूप वर्णन हुआ है। योग का मूल ग्रंथ पतंजलि का योगसूत्र है, जिसके सूत्रों में विज्ञान और धर्म का अंतर्भाव हुआ है। परस्पर विरोधी समझे जाने वाले विज्ञान और धर्म योगसूत्र में एक दूसरे को संपुष्ट करते हैं। भारत में समय-समय पर आततायियों और विदेशी शासकों ने आक्रमण किये। सनातन शास्त्रों का इससे विलुप्तीकरण हुआ और अंग्रेजी शासन के दौरान छापाखाने के आविष्कार के बाद छपी पुस्तको से सनातन धर्म के स्वरूप को लेकर अनेक मतवाद भी फैल गए। तत्वबोध तो प्रत्येक व्यक्ति को ही प्राप्त करना है, पर यदि इसके बाद अपना संप्रदाय फैलाने में कोई संलग्न हो जाए तो संभव है कुछ समय तक उसकी कीर्ति बढती हुए दिख जाए, पर वह अल्पावधि तक ही रहती है और वह वस्तुतः कीर्ति नही, अंततः उसके कृत्य अपकारी ही सिद्ध होते हैं। योग परंपरा के प्रसार में पुस्तको की वैसी आवश्यकता नहीं रहती, क्योकि यह एक व्यावहारिक पद्धति है। सिद्धों और संतो ने सुदूर पहाडों की गुफाओं में रहते हुए विदेशी आक्रमणो के बावजूद इसे अक्षुण्ण और निर्दोष बनाए रखा। योग की विभिन्न प्रविधियों के प्रयोग और अभ्यास से शीघ्रता से स्वास्थ्य और मन में अभूतपूर्व परिवर्तन देखे जाते हैं। परमहंस योगानंद (1893-1952) ने न केवल भारत में अपितु विश्व भर में क्रिया योग का प्रसार किया। यह क्रिया योग योग के भी ग्रंथों में सीधे-सीधे नहीं मिलता। महावतार बाबा जी से यह क्रियायोग 1861 में लाहिरी महाशय (1828-1894) को प्राप्त हुआ। लाहिरी महाशय ने इसे अपने शिष्यों को सिखाया। उन्होनें इसे बिना जाति और धर्म का भेद किए हुए सिखाया। लाहिरी महाशय के शिष्य स्वामी श्रीयुक्तेश्वर हुए। श्री युक्तेश्वर जी ने कैवल्य दर्शन (होली साइंस) पुस्तक लिखी। जिसके सूत्रों में उन्होनें ज्ञानात्मक एकता और उसके महत्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डाला है। श्रीयुक्तेश्वर जी के शिष्य परमहंस योगानंद हुए। योगानंद जी ने अपनी आत्मकथा अंग्रेजी में आटोबायोग्राफी ऑफ़ अ योगी नाम से लिखी, यह आत्मकथा हिंदी में योगी कथामृत नाम से प्रकाशित हुई। 1946 में प्रकाशित इस आत्मकथा में योगानंद जी के जीवन की बहुत कम घटनाएं वर्णित हुई हैं। इस आत्मकथा में उन्होनें अपने समय के बडे-बडे योगियों और संतों से मिलकर उनके बारे में अज्ञात तथ्य प्रस्तुत किए। इस आत्मकथा में विश्व भर की वैज्ञानिक हलचलों का भी संज्ञान लिया गया है। उन वैज्ञानिक खोजों का आध्यात्मिक जगत से संबंध भी निरूपित किया गया है। दुनिया की 95 प्रतिशत जनसंख्या इस आत्मकथा को अपनी हुए अनुवादों के कारण पढ सकती है। बीसवीं शताब्दी की श्रेष्ठ आध्यात्मिक पुस्तकों में इसे सम्मिलित किया गया है। परमहंस योगानंद ने गुरु परंपरा से प्राप्त योग प्रविधियों को तो सिखाया ही, उन्होनें शक्ति संचार व्यायाम के अडतीस अभ्यासों का भी निर्माण और संकलन किया। यह व्यायाम योग परंपरा ग्रंथों में नहीं मिलते, योगानंद जी की यह अपनी खोज है। योगानंद जी ने बाल्यकाल से ही इस मार्ग पर जाने का निश्चय कर लिया था। नौकरी और विवाह के अच्छे प्रस्तावांे पर भी उनका यह संकल्प डिगा नहीं। स्नातक स्तर की पढाई में भी उनका मन नहीं लगा, यह पढाई उनके गुरुदेव श्रीयुक्तेश्वर जी के निर्देशों के बाद पूरी हुई। योगानंद जी ने रांची में उस समय लडकों और लडकियों को एक साथ पढाने के लिए विद्यालय खोला, जब इसकी बात भी करना चुनौती से कम नहीं था। रांची के इस विद्यालय में गांधी जी का आगमन हुआ था। बाद में अमेरिका से लौटकर वर्धा सेवा आश्रम में गांधी जी से परमहंस जी पुन मिले। जहां उन्होनें कुछ दिन रहकर गांधी और उनके सहयोगियों को क्रिया योग की दीक्षा दी। योगानंद जी ने क्रिया योग से तत्व जिज्ञासा शीघ्र शमन करने का मार्ग प्रशस्त किया और यह जनमानस को सुलभ कराया, जो पहले गुफाओं में ही सीमित था। संसार और मोक्ष में उन्होनें सुन्दर समन्वय किया, उन्होंने कहां हमें संसार में रहना है, पर संसार का होकर नहीं रह जाना है। शांति पूर्वक सक्रिय रहना है और सक्रियता पूर्वक शांत होना है। शांति, प्रेम और आनंद प्राप्ति के लिए ही मनुष्य धरती पर आया है। यह शांति, प्रेम और आनंद व्यक्ति योग मार्ग पर चलकर शीघ्रता से प्राप्त कर पाता है। यह मार्ग सभी जाति, धर्म और क्षेत्र के लोगो पर समान रूप से उपयोगी हैं। इस मार्ग में न आडंबर है, न पाखण्ड। हम जो कर रहे है, उसी जगह वही काम करते हुए इस मार्ग पर चला जा सकता है, फिर जो व्यग्रताएं हमारे भीतर ज्वार पैदा करती है, उनका समाधान कुछ भी बाह्य परिवर्तन के बिना हो जाता है। परमहंस योगानंद चमत्कार दिखाने के पक्षधर नहीं रहे, न उन्होनें स्वयं इसका प्रदर्शन किया। मनुष्य का मानसिक रूपांतरण अपने आप में एक चामत्कारिक घटना है। संसार में बहुत से तथाकथित गुरु और संतों का चोला धारण किए हुए लोग पाए जाते है। इसका उन्हें पूरा भान था, इसलिए उन्होनें यह व्यवस्था दी कि उनके देह पात के बाद उनकी शिक्षाएं ही गुरु होंगी। स्वामी और संन्यासी इन शिक्षाओं का प्रसार जिज्ञासुओं के लिए करेंगे। आध्यात्मिकता का विज्ञापन करने से परमहंस योगानंद जी परहेेज करते थे। विज्ञापन तो क्रय विक्रय करने के लिए किया जाता है। प्रचार करने की आवश्यकता आध्यात्मिक संस्थाओं को कदापि नहीं है। इसका प्रचार करने से लाभ भी नहीं होता। तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न होने के बाद जब तक व्यक्ति स्वयं रूपांतरित नहीं होगा, समाज और राष्ट्र में वांछनीय परिवर्तन नहीं हो सकते। स्वयं का रूपांतरण उसकी जिज्ञासा और उसकी तीव्रता के फलस्वरूप संभव है, उसके बिना तो वह भी एक एषणा बनकर ही रह जाएगी। स्वयं के रूपांतरण में समाज की सभी बुराइयों का समाधान संनिहित है। इस रूपांतरण के बाद व्यक्ति को समाज सुधारक बनने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। उसका आचरण ही प्रेरक हो जाता है, बिना उद्घोष किए एक कोंपल कब पत्ती में बदल जाती है, इसका पता नहीं लगता। परमहंस योगानंद की बहुश्रुत और बहुपठित आत्मकथा में उनका जीवन उद्घाटित नहीं हुआ है। योगानंद जी का जीवन और दर्शन मेजदा नामक पुस्तक मिलता है। इस पुस्तक को उनके अनुज सनंद लाल घोष ने लिखा हैं। मेजदा बंगाली भाषा में मझले भ्राता के लिए कहां जाता है। योगानंद जी चार भाइयों में दूसरे नंबर के थे। उनके पिता जी भगवती चरण घोष रेलवे गोरखपुर में नौकरी करते थे, जहां योगानंद जी (मूल नाम मुकुंद लाल घोष) का जन्म 5 जनवरी 1893 को हुआ था। चमत्कारों पर योगानंद जी ने कहां है चमत्कार दिखाने से लोग आकर्षित तो होते हैं, परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से उनका कोई लाभ नहीं होता। मनोरंजन के अतिरिक्त उनका कोई प्रयोजन नहीं होता। अतः ईश्वर की यथार्थ खोज से ये साधक को पथच्युत कर देते हैं। परमहंस योगानंद जी के वचनों का संकलन परमहंस योगानंद वचनामृत नाम से प्रकाशित हैं, पर यहां योगी कथामृत से कतिपय सूक्तिपरक अंश पाठकों की सुविधा के लिए दिए जा रहे हैं- ‘‘सत्य कोई सिद्धांत नहीं है, न ही वह दर्शनशास्त्र का कोई तत्व ज्ञान है और न ही वह बौद्धिक अंतर्दृष्टि है। वह तो प्रत्यक्ष वास्तविकता के साथ तदनुरूपता है। मनुष्य के साथ आत्मा के रूप में अपने सच्चे स्वरूप का अटल ज्ञान ही सत्य है।’’ ‘‘ईश्वर की गूढ लिपि को पढना एक ऐसी कला है जो कोई मनुष्य किसी मनुष्य को नहीं पढा सकता, इस मामले में ईश्वर स्वयं ही एक मात्र गुरु होता है।’’ ‘‘राष्ट्रों के अग्रज भारत द्वारा जमा किया ज्ञान सारी मानव जाति की विरासत हैं। सभी सत्यों की भांति वैदिक सत्य भी ईश्वर की संपत्ति है, भारतवर्ष की नहीं।’’’’सत्य के राज्य में जाति या राष्ट्र का भेदभाव निरर्थक है।’’ ​‘‘संसार को देने के लिए भारत के पास और कुछ नहीं होता तो क्रियायोग अकेला ही शाही भेंट माना जाने के लिए पर्याप्त होता।’’ ‘‘संसार (शब्दशः अर्थ प्रवाह के साथ बहना) मनुष्य को सबसे कम प्रतिरोध का मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करता हैं। इसलिए जो भी संसार का मित्र बनेगा, वह ईश्वर का शत्रु है।’’ ‘‘समाज के नाम जो बुराइयां मढ़ दी जाती हैं, उनके लिए वस्तुतः प्रत्येक मनुष्य को दोषी पाया जा सकता है।‘‘ ​‘‘रामराज्य पहले प्रत्येक ह्रदय में प्रकट होना चाहिए, तब वह समाज में फैलेगा, क्योंकि आंतरिक सुधार होने पर बाह्य सुधार अपने आप ही होते हैं। जो मनुष्य अपने आप को सुधार लेगा, वह हजारों को सुधार देगा।’’ परमहंस योगानंद ने भारत की संत परंपरा को विश्व के विभिन्न देशों में प्रसारित किया। सेल्फ रियलाइजेशन फैलोशिंप नामक संस्था का संचालन अमेरिका से किया जाता है। इस संगठन में बहुत पहुंचे हुए संत हुए है। इनमें राजर्षि जनकानंद, ज्ञानमाता, दयामाता, मृणालिनीमाता, स्वामी भक्तानंद इत्यादि प्रमुख हैं। यह देखना महत्वपूर्ण है कि अमेरिका जैसे भौतिकवादी देशों में भारत की संत परंपरा का उन्नयन इतने सुंदर ढंग से योेगानंद जी ने किया कि उससे समूची मानव जाति धन्य हुई है। राजर्षि जनकानंद अमेरिका के एक बडे उद्योगपति रहे हैं, उनका नामकरण योगानंद जी ने राजर्षि जनक के नाम पर किया। दयामाता प्रेम और करुणा की ही मूर्तिमंत रूप थीं। आॅनली लव पुस्तक उनके व्यक्तित्व को समझने के लिए पठनीय है। ज्ञानमाता के विभिन्न पत्र एक पुस्तक, गोड एलोन नामक पुस्तक में छपे है, यह पत्र उन्होनें अथवा उन्हें गुरुदेव परमहंस योगानंद को अथवा ज्ञानमाता को लिखे हैं। ज्ञानमाता द्वारा अन्य व्यक्तियों को लिखे पत्र भी इसमें दिए गए हैं। इन पत्रों को पढकर ज्ञानमाता का नाम चरितार्थ होता है। 4 जुलाई को एक पत्र में परमहंस योगानंद ने ज्ञानमाता को लिखा है- “I have never seen such selfish noble example in the west as in you and St. Lynn.(Rajarshi Janakananda). I never write , but I do write to you ever in my heart and spirit. I don’t talk, but I do ever talk to you in silence.” ज्ञानमाता ने आत्मा और चेतना के विषय पर अपने अनुभव में उतरे रहस्य को कितने सुंदर ढंग से व्यक्त किया है- Soul connected with body is called ego. Xxx consciousness is never tired. He never sleeps. Rest is nothing but a relative state of mind.” 245 नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई जिला जालौन उ0प्र0 मोबाइल 9236114604

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Wednesday, November 3, 2021

प्रकाशोदय पर्व दीपावली

ब्रह्मांड व्यापी पदार्थ और ऊर्जा का जब अखंड चेतना मे रूपांतरण होता है, तब प्रकाश का उदय होता है. यह चेतना उजाले और अंधेरे सब में भास्वर होती है. यह प्रकाश चेतना ध्वनि में है और श्वास प्रश्वास में भी. प्राणन में जो चेतना प्रवाहित हो रही है, उसी को उपलब्ध होना प्रकाशित होना है. इस उपलब्धि या अयोध्या में ही राम वापस आकर बसते हैं. चमकती हुयी रोशनी उसका स्थूल रूप है. स्थूलता में चमकती रोशनी में ही पदार्थ गतिमान दिखायी पड़ते हैं. 


सूर्य, चंद्र और तारे प्रकाश देते हैं, सदा अस्तित्वमान रहते हैं. पर दीपक अनथक प्रकाश देता है और प्रकाश देते हुए स्वयं को अर्पित कर देता है. यह जलता हुआ दीपक जीवन का प्रतीक है. जलते दिए की अस्थिरता की भाँति जीवन चलता है. 

दीपक का तेल/घी प्रेम और भक्ति का प्रतीक है, इसकी बाती इच्छा का प्रतीक है. दीपक की लौ का शीर्ष भाग ज्ञान का तो उसका ऊष्म भाग प्रेम और भक्ति  का प्रतीक है. ज्ञान भाग में ही हमारे गुरुदेव निवास करते हैं.


यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।��योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।।गीता 6.19।।

जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, योगका अभ्यास करते हुए यतचित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है।।


न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।

तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥कठोपनिषद २/२/१५, मुंडक और श्वेताश्वतर में भी है..

वहां न सूर्य प्रकाशित होता है और चन्द्र आभाहीन हो जाता है तथा तारे बुझ जाते हैं; वहां ये विद्युत् भी नहीं चमकतीं, तब यह पार्थिव अग्नि भी कैसे जल पायेगी? जो कुछ भी चमकता है, वह उसकी आभा से अनुभासित होता है, यह सम्पूर्ण विश्व उसी के प्रकाश से प्रकाशित एवं भासित हो रहा है।


गीता में यह इस प्रकार आया है..

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।15.6।।

उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन: (संसार को) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है।। 


शुभ दीपावली🙏