Sunday, July 31, 2022

डायरी जुलाई २०२२

२/७/२२ जीव के अग्नि तत्व से जल तत्व में गमन करने की यात्रा का नाम नर है...इसका पति ही नृपति और ईश्वर नरेश है. राजा भी यही है. गाय ज्ञान स्वरूप चेतना की प्रतीक है तो अश्व बलस्वरूप चेतना का. गु और गो वेदों में बहुत बार आता है, जिसका अर्थ चेतना से ही है. 3/7/22 
नि दुरोणे अमृतो मर्त्यानां राजा ससाद विदथानि साधन् । घृतप्रतीक उर्विया व्यद्यौदग्निर्विश्वानि काव्यानि विद्वान् ॥ऋग्वेद ३/१/१८ "The immortal nature of the universe takes its place, In the hearts of mortal humans, And it also blesses them, In all their sacred aspirations. With its spiritual radiance, Reflecting by intense love, And knowing all secrets of wisdom, It shines extensively." श्वास -प्रश्वास में मन रखने से क्या होता है ? मन - प्राण में ऐक्य होता है । प्राण की अंत में स्थिति है ,अपान की भी अंत में स्थिति । अर्थात प्राण और अपान की सन्धि = स्थिति या शून्य । मन जब प्राण के साथ साथ चलेगा तब प्रत्येक श्वास प्रश्वास में उस शून्य को स्पर्श करेगा । साधारणतः श्वास प्रश्वास चुपचाप चलता है ; क्योंकि मन विषय में है, प्राण का चलाचल वह लक्ष्य नहीं करता । किन्तु मन के प्राण का अनुगामी होने से प्राण की क्रिया Consciously होती है । यह निरन्तर होती है । इसलिए self - consciousness निरन्तर जगा रहता है । उस शून्य को स्पर्श करने से मन भी क्रमशः शून्य या निष्क्रिय हो जाता है ,सूक्ष्म या शुद्ध हो जाता है ,मन का आवरण या स्थूलाभिनिवेश कट जाता है ,कर्तृत्व कट जाता है । इस स्थिति में अद्वैत होता है : स्वभाव ही चालक होता है । जो भी होता है ,वह स्वभाव का खेल होता है । स्व संवेदन पृष्ठ 288 4/7/22 "I salute Lord Hanuman, Lord of Breath, Son of the Wind God- who bears five faces and dwells within us in the form of five winds or energies pervading our body, mind and soul. Who reunited Prakriti (Sita) and purusha (Rama) - May He bless me By uniting his vital energy ~ prana~ with the Divine Spirit within." 5/7/22 ॐ गायत्री का चतुर्थपाद गृहस्थों के लिए नहीं है । यहाँ कुछ गुह्य तथ्यों की सूचना दे रहा हूँ । अनुसंधान करते हुए समझने का प्रयत्न करना चाहिए । महासन्यास और महाज्ञान आदि उपासक के निकट समय होने पर आविर्भूत होते हैं । वर्णश्रेष्ठ ब्राह्मण है । आश्रम श्रेष्ठ सन्यास है । किन्तु दोनों ही चरमावस्था में आक्रांत हो जाते हैं --यद्यपि दोनों के चर्मोत्कर्ष सिद्ध होने के बाद । एक गुह्य बात बता रहा हूँ । गायत्री वेदमाता और छंद जननी है । समग्र वेद और छंदों का मूल गायत्री है । वेद में है देवताओं ने मृत्यु से भीत होकर छंदों का आश्रय लिया था । छंदों की प्रसूति एवं शुद्धतम स्वरूप ही गायत्री है । फलतः गायत्री का आश्रय लेते ही दिव्य और द्वितीय जन्म प्राप्त होता है । यह जन्म शुद्ध देह प्राप्ति का नामान्तर है । इसे विद्या जन्म कहते हैं । स्पष्ट है कि गायत्री संस्कार विशिष्ट ब्राह्मण जन्म वस्तुतः वैन्दव देह है । वेदों के अनुसार गायत्री के छंद से ब्राह्मण का देह उत्पन्न होता है ,इसे स्मरण रखना होगा । अर्थात जिस देह का गठन गायत्री छंद से हुआ है तथा जो गायत्री छंद से शोधित हुआ है , वही शब्द ब्रह्म के अनुशीलन के लिए उपयोगी देह है । शब्द ब्रह्म का अनुशीलन ही वेदों का अनुशीलन है -- स्वाध्याय वैदिक कर्म इसके अंतर्गत हैं । कर्मकांड के बाद ज्ञानकाण्ड का अनुशीलन भी वेदों का अनुशीलन है । इतना होने पर तपस्या और ब्रह्मविद्या का चरम विकास सम्पन्न होता है । तब समना भेद होकर विन्दु - राज्य का लंघन होता है । यही है महा सन्यास की अवस्था । इसके बाद परमशुद्ध आत्मस्वरूप में चिन्मात्र रूप में या नित्य चिदानंद स्वरूप में स्थिति अथवा भगवत् भाव में उद्बोध दोनों ही हो सकते हैं । गायत्री / पृष्ठ 147 - 149 सनातन साधना की गुप्त धारा भूमि अंतरिक्ष और द्यौ ये आठ अक्षर हैं - आठ अक्षर वाला ही गायत्री का एक चरण है ! ऋचः यन्जूषि सामानि ये आठ अक्षर हैं- आठ अक्षर वाला ही गायत्री का दूसरा चरण है ! प्राण अपान व्यान ये आठ अक्षर हैं -आठ अक्षर वाला ही गायत्री का तीसरा चरण है ! प्रथम को जानकर भूमि द्यौ व अंतरिक्ष में प्राप्त करने योग्य को ,प्राप्त करता है , द्वितीय को जानकर ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद के ज्ञान के समतुल्य, तृतीय को जान प्राण अपान व्यान से समस्त प्राणियों की अनुकूलता को ,प्राप्त करता है ! चतुर्थ पद तुरीय दर्शत परोरज है ,अर्थात दर्शनीय सबसे परे सूर्यवत है ,गायत्री उसमें ही प्रतिष्ठित है ,वह पद सत्य में प्रतिष्ठित है ,जैसे नेत्र सर्वश्रेष्ठ है -यदि दो पुरुष कहें कि मैंने देखा है ,मैंने सुना है तो देखने वाले का अधिक विश्वास माना जाता है ! वह तुरीय पद का आश्रयभूत सत्य , बल में प्रतिष्ठित है प्राण ही बल है ,वह सत्य , प्राण में प्रतिष्ठित है ,इसी से कहते हैं सत्य की अपेक्षा बल ओजस्वी है ! इस प्रकार वह गायत्री अध्यात्म प्राण में प्रतिष्ठित है ! बृहदारण्यक २अ जैसे मांडूक्य उप में आत्मा के चार पद कहे हैं, ऋग्वेद में त्रिपादस्यामृतंदिवि. कहा गया है, वृहदा उप में उक्तवत कहा ही है, उसी का विस्तार पं गोपीनाथ जी कर रहे हैं. यह अलग नहीं है, न इसमें द्वैत है. यह परम तक पहुँचने के मार्ग का वर्णन हुआ न! एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरुषः। पादोઽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतंदिवि।।3।। त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः। ततो विष्वङ व्यक्रामत्साशनानशनऽअभि।।4।। चार भागों वाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है। इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं।।4।। ७/७/२२ "To speak means to float on the surface; unless the mind remains on the surface, words will not come. So long as one is immersed in the depths, there is not even the possibility to talk; but as soon as one comes up to the surface, speech will issue forth. This is why language cannot always fully express one's feelings and ideas. One can often hear people say: 'I am unable to put into words what I feel'. Does this not show how limited and imperfect human language is? It cannot even convey the little you understand, how much less the enormous amount that lies beyond your ken! Try to learn the science of using and understanding the hidden language of the heart and you will be able to accomplish everything without words." ~ Sri Anandamayi Ma (Her words are from"Sad Vani" #34, page 50) “As we know there have been many invasions upon India to destroy its culture, its language, its religion, its people, all that made India great, but as Sri Aurobindo writes “no adverse situation, not even the time spirit nor the god of death has the power to destroy this country” Dr Sampadananda Misra. शब्द का जन्म प्राण से होता है । प्राण का स्वभाव गति है ।गति ही जीवन है ।इसलिए शब्दों में भी जीवन होता है ।वे जन्म लेते हैं बढ़ते हैं ,वृद्ध होते हैं और मृत भी होते हैं । वे नये शब्द को जन्म देते हैं ।एक शब्द से उत्पन्न दूसरा शब्द अपना स्वभाव भी बदल लेता है कभी पूर्वज से श्रेष्ठ हो जाता है कभी नालायक भी हो जाता है । शब्दों की इस यात्रा और पुनर्जन्म का कारण अन्य जीवों की तरह शब्द की आत्मा है ।अर्थ ही शब्द का आत्मतत्व है । वेद में प्रयुक्त शब्द के कितने पुनर्जन्म हो गये हैं पर हम निरुक्त लिए बैठे हैं , व्याकरण में तद्धित कृदंत सिद्ध कर रहे हैं ।शब्द तो सिद्ध कर लेंगे पर उसकी आत्मा कहाँ से लायेंगे । अर्थ तो व्याकरण देगा नहीं वह तो लोक में निहित है ।व्युत्पत्ति से हम परिभाषा कर सकते हैं व्यवहार कैसे कर सकते हैं । इसी कारण शब्द की यात्रा में व्याकरण और निरुक्त अनुधावन करते हैं ।लोक शब्द को सिद्ध नहीं करता लोकसिद्ध शब्द व्याकरण के विवेचन का आधार बनते हैं । तमाम अर्थ खो चुके शब्द हमारे बीच विद्यमान हैं ।उन्हें हम प्रयुक्त भी करते हैं पर उनमें अपने आदिम अर्थ के मूर्तन की क्षमता नहीं है ।इन्हें शब्दरूढ़ि कहते हैं । ये ठूँठ हैं , विज्ञविनोद हैं ।परिभाषा और व्यवहार में बहुत अंतर है ।भक्त कहने से अब कौन रूप मूर्तित होता है ।मठाधीश किसे कहा जाता है ? लक्ष्मीकान्त पांडेय वेद शास्त्र में वर्णित सोम रस को प्रचलित मदिरा के अर्थ में समझ लिया जाता है. किंतु यह दैवी प्रकाश है, जो सभी अस्तित्वमान वस्तुओं में प्रकाशित है. जब यह उदित होता है, तो अमृत बन जाता है। ८/७/२२ कल रात श्रीमती जी को लेकर डॉक्टर के यहाँ बाइक से जा रहे थे. एक दूधिया दूसरी तरफ़ से मुड़कर मेरी गाड़ी से जा टकराया. उसकी बाइक के पीछे की केन की जाली से हाथ पैर छिल गए. सायलेन्सर से पिंडली जल गयी. गाड़ी का अगला हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया. चलने लायक़ नही लगी. इतने में दो लोग आए उन्होंने अगला हिस्सा खींच कर कुछ चलने लायक़ किया. हम लोग वापस घर आ गए. गिराने वाले मेरे कर्म हुए पर बचाने वाला वही है, और बचने वाला भी वही न! ९/७/२२ हमारी हर सांस एक पुनर्जन्म है --- . दो साँसों के मध्य का संधिक्षण वास्तविक संध्याकाल है, जिसमें की गयी साधना सर्वोत्तम होती है। हर सांस पर परमात्मा का स्मरण रहे, क्योंकि हर सांस तो परमात्मा स्वयं ही ले रहे हैं, न कि हम। प्राणायाम में स्वाभाविक रूप से कुंभक की अवधि बढ़नी चाहिए। साँसों का सन्धिकाल कुम्भक है। जब तक कोई गति है, तब तक ध्वनि है। गति नहीं, ध्वनि नहीं। कुम्भक में साँसों की गति नहीं है। कुम्भक ही मौन की अभिव्यक्ति है। हमारा मौन भगवान की अभिव्यक्ति है, इसलिए अधिक से अधिक समय मौन व्रत का पालन करना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं -- "दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्। मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्॥१०:३८॥" अर्थात् - "मैं दमन करने वालों का दण्ड हूँ, और विजयेच्छुओं की नीति हूँ; मैं गुह्यों में मौन हूँ और ज्ञानवानों का ज्ञान हूँ।" "मौनं चैवास्मि गुह्यानां" अर्थात् "गुप्त रखने योग्य भावों में मैं मौन हूँ"। "हं" (प्रकृति) और "सः" (पुरुष) दोनों में कोई भेद नहीं है। प्रणवाक्षर परमात्मा का वाचक है। कोई अन्य नहीं है, सम्पूर्ण अस्तित्व उनकी ही अभिव्यक्ति है। . भारत में जन्म लेकर भी जिसने परमात्मा की उपासना नहीं की, वह बहुत ही अभागा और इस पृथ्वी पर भार है। परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भारत में ही हुई है। भारत में जन्म लेना एक सौभाग्य की बात है। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !! कृपा शंकर ८ जुलाई २०२२ . पुनश्च :-- यह विषय समझने में कठिन है क्योंकि यह एक गुरुमुखी विद्या है जो शिष्य को सामने बैठाकर गुरु द्वारा समझाई जाती है। जो साधक नित्य उपासना करते हैं, वे इसे तुरंत समझ जाएँगे। इससे अधिक सरल भाषा नहीं हो सकती। यह सरलतम भाषा है। विभिन्न धाम और सरकार चमत्कारवाद को बढ़ावा देते हुए दिख रहे हैं. इनमे परस्पर ऊँचा नीचा दिखाने की प्रवृत्ति भी है। मेरा उद्देश्य उनके आस्थावान भक्तों की श्रद्धा को किसी प्रकार चोट पहुँचाना नहीं है. पर कौन घटना हमारे जीवन में कब हुयी या होनी है, इस पर ध्यान देने की अपेक्षा हमें क्या करना है और हम कौन हैं, इस पर सक्रिय होना चाहिए। चमत्कारवाद का भविष्य नहीं होता, इससे लोगों में अंधविश्वास और निराशा फैलती है। ईश्वर के प्रति श्रद्धा चमत्कार दिखाकर नहीं बढ़ानी चाहिए।यह जीवन अपने आप में चमत्कार है। १०/७/२२ अर्थ शब्द या व्याकरण की ओर दौड़ता है। आज पत्नी नहाते समय गायी कृष्णाय नमः हरिहर नमः. दो एक बार ऐसा गाते-गाते उन्होंने स्वतः ठीक किया और हरिहर नमः की जगह हरिहराय नमः बोलने लगी। ध्यातव्य है कि उन्हें संस्कृत नहीं आती। काली माता... काली निराकार परमात्मा की शक्ति, सृजनात्मक शक्ति या ऊर्जा की प्रतीक है। इस शक्ति में सृजन, पालन और संहार सम्मिलित हैं। संहारक गुण नकारात्मक नहीं है। बीज का संहार हुए बिना पौधा नहीं बनता। बाल्यावस्था के बाद ही युवावस्था आती है। काली की चार भुजाएँ हैं। दो दायीं भुजाएँ सृजन शक्ति को और भक्तों को आशीर्वाद देने को दर्शाती हैं। बायीं दो भुजाएँ खड्ग और कटा सिर धारण करती हैं। यह ब्रह्मांड का पालन करने की शक्ति और सृष्टि का नृत्य समाप्त होने पर उसे ब्रह्मा में लीन करने की शक्ति को दर्शाती है। माँ पचास मुंडों की माला धारण करती है। मुंड प्रज्ञा शक्ति और वर्णमाला की ध्वनियों को दर्शाती हैं। इन ध्वनियों से ही संस्कृत भाषा का उद्गम हुआ है। माँ के झूलते हुए केश माया के पर्दे की तरह हैं। माँ का वर्ण काला है- प्रकाशहीन प्रकाश और अंधकारहीन अंधकार के परिमंडल से सृष्टि की उत्पत्ति हुयी है। आदि सृजनात्मक शक्ति होने के कारण माँ का वर्ण काला है। काले वर्ण में सभी रंगों का तिरोभाव हो जाता है। माँ का निर्वस्त्र आकार अनंतता का संकेत करता है।उनकी कटि का कमरबंद मानव के इच्छाजनित पुनर्जन्मों के चक्रों का संकेत है। काली के तीन नेत्र सूर्य, चंद्र और अग्नि को दर्शाते हैं। माँ के स्तन ब्रह्मांडीय ऊर्जा(प्राण) प्रदान करते हैं। ईश्वर की खोज में लगे बच्चों को वे आनंददायक विद्यमानता का स्वाद देती हैं। सफ़ेद चमकदार दांतों से माँ अपनी रकतजिह्वा को काटती हैं। लाल रंग रजोगुण और प्रकृति में क्रियाशीलता का गुण है। सृष्टि के चक्रवत नृत्य में माँ का एक पैर सोए हुए शिव (परमात्मा) की छाती पर ठोकर मारता है। सृष्टि रचना के समय अपेक्षाकृत परमात्मा स्वयं प्रकृति के अधीन हो जाते है, परंतु जिस क्षण प्रकृति (माँ) परमात्मा का स्पर्श करती है, वह उनके वशीभूत हो जाती है। माँ की पूजा प्रायः श्मशान में की जाती है। मृत्यु काली का रूपांतरक स्पर्श है, जो कष्ट, दुःख और चिंता दूर करता है और मुक्ति एवं शांति प्रदान करता है। काली का स्वरूप डरावना है, क्योंकि उनकी शक्ति बुराई से समझौता नहीं करती। काली की मुस्कुराहट दया का सार है। वे हम सबकी जगन्माता हैं। इसीलिए सब प्राणी हमारे बंधु बांधव हैं। काली को उत्तर दक्षिण और पूरब पश्चिम में स्थूल रूप में इतना ही डीकोड किया गया है। प्रॉपगैंडा करने के लिए कोई कुछ कहे। लोग काली को कहाँ क्या प्रसाद चढाते हैं, यह उनकी रूढ़ि है। पर हम उन्हें पुष्प प्रेम के रूप में और कर्म फल के रूप में अर्पित करते हैं। ११/७/२२ नाम मे क्या रखा है, यह 'पश्चिम' की राय है। यहां तो यथा नाम तथा गुण रखे जाने पर बल दिया गया है। पश्चिम और पूर्व का यह अंतर भाषाओं मे भी दिखता है। पश्चिम की भाषाओं के अधिकांश शब्द यू ही यानि अटकलो से रूढ़ होकर प्रचलित हुए, इसका अंग्रेजी जैसी भाषा को यह लाभ हुआ कि वह सब भाषाओं के शब्दों को अपना ली और उसने विश्व मे धाक जमा ली, जबकि भारतीय भाषाओं की अपनी शब्दावली का निर्माण उसके अर्थ, व्युत्पत्ति और प्रकृति को देखकर हुआ। यहां के शब्दों का सिरा किसी धातु से अवश्य जुड़ता है...११ जुलाई २०१८ की फ़ेसबुक पोस्ट १२/७/२२ चेतन पुरुष से आनन्दरूपा प्रकृति के अलग होने के कारण दोनों एक दूसरे को चाहते हैं , नहीं तो पूर्णता नहीं हो सकती , आनन्द नहीं हो सकता । परन्तु अलग होते हुए भी दोंनो में दोनों का आभास रहता है । पुरुष में प्रकृति का आभास नहीं रहने पर वह प्रकृति को चाह नहीं सकता । उसी प्रकार प्रकृति में पुरूष का आभास नहीं रहने पर वह पुरुष के साथ मिल नहीं सकती । अतएव ,सृष्टि में सर्वत्र यह अभाव बोध विद्यमान है । उसी के परिणाम स्वरूप आकर्षण होता है । कविराज ji💐💐 १३/७/२२ गुरु पूर्णिमा ....तस्मै श्री गुरुवे नमः। चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा । गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ॥ आश्चर्य तो यह है कि वटवृक्षके नीचे शिष्य वृद्ध हैं और गुरु युवा हैं। गुरुका व्याख्यान मौन भाषामें है, किंतु शिष्योंके संशय नष्ट हो गये हैं ॥ ॥ अर्थात शिष्य तो तरह-तरह की शंकाओं में भटकते हुए वृद्ध हो जाता है, तत्व रूप गुरु चिरयुवा हैं। मौन अवस्था में यह सब साफ दिखने लगता है। गुरु और शिक्षक में मोटा अंतर है कि शिक्षक के बाद किसी से सीखने या जानने की आवश्यकता रह सकती है, पर गुरु से सीखने या कृपा पाने के बाद अन्य से सीखने की आवश्यकता नहीं रह जाती। सोइ जानहि जेहि देहु जनाईं। जानत तुम्हहि तुम्हहि होइ जाई। तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥ 'योगी कथामृत' का पहला वाक्य है.... परम सत्य की खोज और उसके साथ जुड़ा गुरु-शिष्य संबंध प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है.... प्रत्येक शब्द केवल ध्वनियों का योग नहीं है ।उसमें हमारे मन और बुद्धि का योग रहता है जिससे भाव और विचार बाहर आते हैं ।शब्द अपने मूल अर्थ में बहुत सरल, सौम्य और स्वाभाविक होता है । वक्रता और लाक्षणिकता उसके प्रयोग में होती है । ऐसा कोई शब्द नहीं है जो अपने अभिधार्थ में अश्लील या वर्ज्य हो ।और ऐसा भी नहीं है कि उसमें लाक्षणिकता या व्यंग्य न हो । अर्थभेदकता हर शब्द के प्रयोग, कहन, लहज़े,तान अनुतान में होती है । ऐसे में अगर हम संसदीय या असंसदीय मानक के नाम पर शब्द हत्या करेंगे तो कोश में कोई शब्द नहीं बचेगा । एक शब्द.हटायेंगे तो दूसरा उससे भी अधिक तीखा मिल जायेगा ।असंसदीय शब्द नहीं ,भाव या विचार होते हैं । इसलिए शब्दनिषेध से महत्वपूर्ण है संसदीय विवेक होना । लक्ष्मीकान्त पांडेय १६/७/२२ बच्चा जब माँ के गर्भ से निष्क्रमण करता है एवं जिस समय उसका नालच्छेदन होता है ,उसी समय उसके शरीर में श्वास -प्रश्वास की क्रिया दिखाई पड़ती है । माता के गर्भ में रहते समय गर्भ धारण करने वाली माँ से अलग बच्चे की श्वास - प्रश्वास क्रिया नहीं रहती है । गर्भ में बच्चा माँ से भुक्त भोजन से तुष्ट होता है एवं माँ के श्वास- प्रश्वास से ही उसके शरीर का विकास होता है । किन्तु प्रसव के साथ वैष्णवी माया उसके ऊपर आक्रमण करती है ,और तभी से यह कालराज्य में रहना आरम्भ करता है । बच्चे का जो पहला श्वास लेना है उसका नाम जन्म है एवं उस श्वास का अंतिम भाग ही मृत्यु के नाम से प्रसिद्ध है । जन्म से लेकर मृत्यु तक मध्यवर्ती अवस्था उसका जीवन है । इसलिए मनुष्य का सारा का सारा जीवन श्वास -प्रश्वासमय है । मनुष्य आत्मविस्मृत अवस्था में श्वास-प्रश्वास के अधीन रहता है एवं निरन्तर काल की प्रेरणा से इड़ा और पिंगला नामक बांये और दायें मार्ग से संचरण करता है । यदि मूल में अविद्या का आवरणरूप पर्दा न रहे तो विक्षेप रूप श्वास - प्रश्वास की क्रिया नहीं रहती । वास्तव में श्वास -प्रश्वास काल का ही खेल है एवं जिसे हम लोग जीव कहते हैं वह काल अथवा मृत्यु के ही स्वप्रकाश की केवल महिमा है । योगी लोग कहते हैं ,योगमार्ग के नौ मुख्य विघ्न हैं । ये सब चित्त के विक्षेप रूप हैं । चित्त के विक्षेप के साथ साथ ये विद्यमान रहते हैं । नौ मुख्य विघ्नों के नाम हैं -- व्याधि , स्त्यान या चित्त की अकर्मण्यता , संशय , प्रमाद या समाधि साधन के अनुष्ठान का अभाव , देह और चित्त की अलसता , अविरति या विषयतृष्णा , भ्रांति - ज्ञान या मिथ्या- ज्ञान , समाधि की भूमिका की प्राप्ति होने पर भी उस पर प्रतिष्ठित न हो सकना ,दुःख , इच्छा की पूर्ति न हो ने से चित्त में क्षोभ ,देह में कम्पन तथा श्वास- प्रश्वास ये सब पूर्वोक्त मुख्य विघ्नों के आनुषंगिक सहकारी हैं । इस विवरण से समझ में आ जायेगा कि श्वास - प्रश्वास मूल रोग नहीं है ,रोग का केवल उपसर्ग मात्र है । श्वास - प्रश्वास का का कारण चित्त का विक्षेप है ,एवं विक्षेप का कारण है प्रत्यक चैतन्य की अप्राप्ति अर्थात साक्षात्कार रूप ज्ञान का अभाव । जिस उपाय से प्रत्यग आत्मा का साक्षात्कार होता है उसी के प्रभाव से श्वास - प्रश्वास रूप काल का खेल भी निवृत्त हो जाता है । प्रणव जप एवं प्रणव - एवं प्रणव वाच्य ईश्वर की भावना को योगियों ने आत्मज्ञान की प्राप्ति का मुख्य हेतु माना है । प्रणव जप का रहस्य अवगत होने पर यह समझ में आ सकता है कि अजपा - जप ही श्रेष्ठ जप है एवं अन्य जपों की चरम अवस्था का स्वाभाविक जप है । अजपा रहस्य 3 भारतीय संस्कृति और साधना / पृष्ठ 343 एक अहोरात्र में मनुष्य के स्वाभाविक श्वास -प्रश्वास की संख्या 21600मान लेनी चाहिए । विशेष अवस्था में इसमें कुछ तारतम्य होने पर भी यही साधारण नियम है । ' हम् ' ध्वनि करता हुआ जो श्वास बाहर निकलता है ,उसका नाम प्रश्वास है एवं ' सः ' ध्वनि करता हुआ जो भीतर आता है उसका नाम निःश्वास है । योगियों का कहना है कि जीव निरन्तर श्वास- प्रश्वास के बहाने इस हंस -मंत्र या अजपा गायत्री का जप करता है । जीवमात्र ही जब इसे करता है ,तब मनुष्य भी करता है ,यह कहना फज़ूल है । किन्तु अन्य जीवों से मनुष्य का भेद यह है कि मनुष्य अपने पौरुष द्वारा ऐसी सामर्थ्य अर्जित कर सकता है ,जिससे श्वास प्रश्वास की इस स्वाभाविक गति में विपर्यय हो सके ।अर्थात मनुष्य साधना के बल पर 'हंस ' गति को 'सो s हम् ' गति में परिवर्तित कर सकता है । तब आत्मज्ञान का पथ खुल जाता है एवं इड़ा और पिंगला में संचार करने वाले वायु की वक्रगति सुषुम्ना में सरल-गति के रूप में बदल जाती है । सुषुम्ना ब्रह्ममार्ग है । वायु इड़ा और पिंगला के मार्ग से हटकर जितना ही सुषुम्ना में प्रविष्ट होता है ,उतना ही विकल्प का शमन होता है । निर्विकल्प आत्मज्ञान का बन्द मार्ग धीरे धीरे खुलने लगता है ।सुषुम्ना में प्रवेश किये बिना वायु और मन की ऊर्ध्वगति नहीं हो सकती एवं ऊर्ध्वगति के बिना विकार का त्याग कर चित्त साम्यभाव में नहीं पहुंच सकता । योगी लोग जिसे कुम्भक कहते हैं वह इस ऊर्ध्वगति से क्रमशः सिद्ध होता है । वस्तुतः कुम्भक में गति नहीं रहती है ,यह बात नहीं है । किन्तु उससे वक्रगति की निवृत्ति के साथ अंतर्मुखी सरल गति की सूचना होती है । इस सरल गति से अंत में गतिहीन अवस्था का आभास प्राप्त हो जाता है ।जिसे हम लोग सांसारिक भाषा में प्राण -अपान का व्यापार कहते हैं ,उसी को योगी की भाषा में हंसमन्त्र का उच्चारण समझना चाहिए । इस प्रकार विषम गति के कारण की गवेषणा करने पर ज्ञात हो सकता है कि प्रकृति के भीतर ही इस विषमता का बीज निहित है । प्राण अपान को और अपान प्राण को निरन्तर खींचता है ,किन्तु दोनों की स्वाभाविक गति परस्पर विरुद्ध है । प्राण जिस ओर संचार करता है अपान उसकी विपरीत दिशा में संचरण करता है । यदि वे अन्य निरपेक्ष होते तो ऐसी स्थिति में विरोध की कोई संभावना नहीं रहती । किन्तु यह बात नहीं है । अपान के न रहने से प्राण का काम नहीं चलता ,इसीलिए प्राण विरुद्ध दिशा में बहने वाले अपान को चाहता है और उसको खींचता है ।वैसे ही प्राण के अभाव में अपान का काम भी नहीं चलता है ,इसीलिए अपान प्राण को खींचता है । इससे स्पष्टतः प्रतीत हो सकता है कि यथार्थ साम्यावस्था से दोनों के च्युत होने में ही दोनों में विरुद्ध गति का उदय हुआ है । इसलिए अनजान में प्राण और अपान विरुद्ध संचारी होकर भी अविरुद्ध साम्यावस्था में फिर प्रतिष्ठित होना चाहते हैं । जब तक वह साम्यावस्था प्राप्त न होगी तब तक शांति की संभावना नहीं है । बद्ध जीव इन दो आकर्षणों के मध्य में पड़कर कभी उठता है और कभी गिरता है । बायें और दाहिने मार्ग में संचार करता है ,उससे छुटकारा नहीं पाता । योगी का लक्ष्य इन दोनों विरुद्ध गतियों में समन्वय स्थापित करना है । सब प्रकारों की अध्यात्म - साधनाओं का यही उद्देश्य है । अजपा रहस्य 4 नाम से बड़ी उपाधि क्या है! नाम रूप दुइ ईश उपाधी। किंतु नाम का अर्थ नम्यते इति = झुकने से है। १७/७/२२ योग्यता को मापने की वस्तुनिष्ठ पद्धति तब तक विकसित नहीं हो सकती, जब तक चतुर्दिक उत्तम चरित्र और कर्तव्य परायणता विकसित न हो जाएँ। फिर व्यवस्था को इनमे से चयन करना होगा। पर इसे कैसे व्यवस्थित किया जाए, प्रश्न तो यही है। १९/७/२२ "जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल, ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल। विषमता की पीडा से व्यक्त हो रहा स्पंदित विश्व महान, यही दुख-सुख विकास का सत्य यही 'भूमा' का मधुमय दान |" जयशंकर प्रसाद 20/7/22 शिवशक्ति की विरहावस्था में आत्मा मन से एवं मन प्रकृति या प्राण से सम्बद्ध रहता है । आत्मा अपने बल से द्रष्टा बनकर यदि मन को दृश्य बनाता है ,तो मन भी तटस्थ होकर प्राण का यह खेल देख सकता है । इसलिए मन को श्वास गति के निरीक्षण कार्य में लगाना चाहिए ,एवं स्वयं मन की पृष्ठभूमि में चुपचाप स्थित रहना चाहिए । साधारण रूप से मन श्वास के साथ और प्राण के साथ संचालित होता है । इसी से श्वास चलता है । किन्तु जिस समय मन श्वास के साथ न चलकर उसकी गति का निरीक्षण करता रहता है ,उस समय 'अहम् ' भी उदासीन हो जाता है ,एवं उसके साथ ही श्वास की गति में भी मन्दता आ जाती है । इसकी एक परम अवस्था है ,वह अद्भुत रहस्य है । जिस समय शिव और शक्ति का मिलन होता है ,जिस समय प्राण और अपान का योग होता है ,जिस समय वायु सम्मिलित होता है ,सारा विश्व स्थगित हो जाता है ,काल की गति रुक जाती है ,परम शांति उत्पन्न होती है ; उस समय उस महास्थिति में भी भीतर ही भीतर एक व्यापार चलता है । यह हंस अवस्था से परमहंस अवस्था में पहुंचना है । इसी को आत्म- रमण कहते हैं । यह अपने ही साथ अपना विहार है । दूसरा तो उस समय कोई नहीं है । शिव और शक्ति उस समय मिल जाते हैं । मिलने पर भी उनके भीतर ही भीतर क्रिया रहती है । शिव और शक्ति का यह परस्पर अनुप्रविष्ट स्वरूप है । यह अति गुप्त है । आगम कहते हैं --यह अनुत्तर अक्षर रूपी परमेश्वर अपने अंगभूत और निखिल प्रपन्चलयात्मक विमर्श शक्ति में अनुप्रविष्ट या प्रतिबिंबित होते हैं ,तदुपरांत वह विमर्श शक्ति अपने भीतर स्थित प्रकाशमय प्रतिबिंब में अनुप्रविष्ट होती है । आत्माराम अवस्था का यही पूर्वाभास है । अजपा रहस्य 9 २३/७/२२ किसी परीक्षा में शत प्रतिशत अंक अवार्ड किया जाना भारत की परंपरा से मेल नहीं खाता। पता नहीं कैसे इस पर नियामकों का ध्यान नहीं जा रहा। जीवन्मुक्त महापुरुष भी पौरुष अज्ञान से ग्रसित होता है। बौद्ध ज्ञानी होने के बाद उसे देह छोड़ने पर पूर्ण मुक्ति उपलब्ध होती है। इसके अतिरिक्त यह मेधावी बच्चे ias ips, प्रोफ़ेसर. डॉक्टर, इंजीनिअर ही क्यों बनना चाहते हैं। कोई अपनी धुन का पियानो बजाने वाला, बिरहा या कजरी गाने वाला, फ़ुटवाल खेलने वाला, मुनाफ़ाख़ोरी के बिना व्यापार चलाने वाला, खुशहाल किसान, कुशल शिल्पी इत्यादि भी तो बनना चाहे न! और इन सबसे बढ़कर कोई उत्तम नागरिक और पूर्ण मनुष्य बनने की कामना करे।असफल और सफल होने के द्वंद्व में पड़कर देखने का अनुभव लेना चाहे। क्या सूचना ज्ञान के लिए नहीं होती! नही तो फिर उनका क्या उपयोग। सूचना संग्रहण से ज्ञान पाने की राह कुछ खुलती तो है ही न! किसी लिखे हुए को अंतिम कैसे कहा जा सकता है! वह गंतव्य तक पहुँचने का मार्ग ही हो सकता है। मित्रता में न दैन्यता है, न स्वामित्व और दासत्व ही। किंतु मित्रता में यह सब हैं भी क्योंकि मित्र से कोई दुराव और सामाजिक कंडिशनिंग नही होती। सत्य, प्रेम और करुणा मित्रता में मूर्तमान हो जाते हैं।🙏 २४/७/२२ तस्यैवैषा परा देवी स्वरूपामर्शनोत्सुका ।
पूर्णत्वं सर्वभावेषु यस्या नाल्पं न चाधिकम् ॥ बोधपंचदशिका 5 Tasyaiva parā devī, this collective state of the universe, which is reflected in the mirror of God consciousness; this whole universe which is reflected in the mirror of God consciousness, is His supreme energy. And why he has created this supreme energy in his own nature? Just to recognize his own nature. This whole universe is just the means to recognize Lord Shiva. You can recognize Lord Shiva through the universe. You cannot recognize Lord Shiva by abandoning the universe. So you have to observe and experience God consciousness in the very activity of the world. If you remain cut off from the universe and try to realize God consciousness it will take centuries. If you remain in universal activity and be attentive to realize God consciousness it will be very easy for you to understand. So this outside universe is created just for the sake of realizing his own nature. That is why it is called Shakti. This whole universal state is called Shakti, this is the means to realize one’s own nature.18 BRUCE P: Why should he want to recognize? SWAMIJI: It is svātantrya. Because if he does not recognize it, what is the fun of the universe? The universe is created just to recognize him. JOHN: Just for fun. SWAMIJI: Just for fun, yes . . . it is svātantrya. This is why in Śaivism this is svātantrya vāda [theory of svātantrya] everywhere. If he were only Shiva . . . he was there, he was in his full splendor of God consciousness . . . ERNIE: There is no lack there? SWAMIJI: No, it is full, it is already full. ERNIE: Yes. SWAMIJI: When fullness is overflowed . . . you know what happens afterward? He wants to remain incomplete, he wants to appear as incomplete, just to achieve completion. So this is the svātantrya. This svātantrya has created this whole universe. So in the universe, there is ignorance, and for ignorance, you want to get rid of that ignorance. And there is a way, there is a way, that in the activity of world you will meditate and bas, reach the state of God consciousness. So this is the fun of svātantrya. SWAMIJI: You leave it. You leave it when it is overjoyed [overflowing]. nijaśaktyā vaibhavabharāt aṇḍacatuṣṭya (paramarthasāra)19 When it is overflowed, when it overflows then you want to disconnect it. ERNIE: So that’s his position? SWAMIJI: That is his position . . . disconnected because of too much of it (joy). You want to get disconnected from that state and then connect yourself, (then) it gives pleasure, that is svātantrya. This is why this whole universe is created. Otherwise, there was no reason to create this universe, when God was there already in his own knowledge, completely. To enjoy his own fullness of God consciousness. Fullness of God consciousness he has enjoyed already, he was enjoying already. It was too much. So he wanted to disconnect it . . , for the time being, and realize it again. So it is unmeṣa and nimeṣa. Unmeṣa is flourishing of that God consciousness and nimeṣa is winding that God consciousness, extract and contract. Expansion and (contraction) i.e. unmeṣa and nimeṣa.20 This is svātantrya. So this is the way, how this universe is created. Otherwise, there was no room for this universe to be created. What for . . . if God consciousness was already full? But it was over, over . . . GANJOO: Overflowing. SWAMIJI: . . . overflowing, and then he wanted to do something else. ERNIE: When it was overflowing, Shakti was still . . . ? SWAMIJI: Shakti was in his own nature at that time. When it overflowed too much then he had to separate Shakti from his nature. And then in Shakti also Shiva is existing; and that Shiva was ignorant, and he wanted to have this fullness of his knowledge, as before. This is the way. JOHN: So he contains both of those in himself at the same moment, though. There is not a point where he is separated from the universe and then . . . SWAMIJI: No, at the moment he realizes his nature from ignorance to knowledge, he experiences at that very moment that it was already there. This is the proof, this is the proof of his being already filled with knowledge, in ignorance also. In ignorance also, when this ignorance vanishes from that individual, he experiences and this memory comes in his mind, “that it was already there, it was already there.” (This memory comes) at the time of knowledge at the time of existence of God consciousness. ERNIE: So there was never really any separation at all? SWAMIJI: No, (that) separation seems to be by svātantrya. ______________ 18  “O dear Pārvatī, just like by the light of your torch or candle, or by the rays of sun, all the differentiated points of deśa, or ‘space’ are known, are understood; in the same way Shiva is being understood by Shakti, by his energy. Energy is the means by which you can understand and enter in the state of Lord Shiva.” Swami Lakshmanjoo, Vijñāna Bhairava, Verse 21. In Kashmir Shaivism ‘the showering of grace’ is called ‘Śaktipāta’. There is no such thing as Śivapāta, because for Shiva there is nowhere to go and nothing to realize. Shiva is the realizer! [Editor’s note] 19  “When the glamour of His own energies, cit śakti, ānanda śakti, icchā śakti, jñāna śakti and kṛiyā śakti are overflowing with glamour, he creates this universe. This is the creation because he was overflowing in his way, in his being.” Paramārthasāra, verse 4. Cit śakti, ānanda śakti, icchā śakti, jñāna śakti and kṛiyā śakti, are Shiva’s energies of consciousness, bliss, will, knowledge and action, respectively. These are the five universal energies existing in the state of God consciousness. [Editor’s note] 20  “By whose unmeṣa and nimeṣa, by whose twinkling of eye – unmeṣa is opening of eye, nimeṣa is closing His eyes – you find jagataḥ pralayodayau, the rise and dissolution of one hundred and eighteen worlds. One hundred and eighteen worlds rise when He opens His eyes, and one hundred and eighteen worlds are destroyed when He closes His eyes.” Swami Lakshmanjoo, Spanda Kārika, verse 1. २७/७/२२ प्रेम घृणा का विपरीतार्थी नहीं है। प्रेम करुणा और आनंद का प्रस्थान बिंदु है। प्रोफ़ेसर पदनाम और उसका वेतनमान निर्धारण हुआ। दो एक ऐसे सुखों का भोग भी करना है। पजीवन की कड़ियाँ एक के बाद एक जुड़ती हुयीं सप्रयोजन प्रतीत होने लगी हैं। जितनी इच्छाएँ रही होंगी, वे सब फलीभूत होते हुए दिख रही हैं। गुरुदेव मार्ग पर बढ़ाते रहें🙏🌹🙏 ३०/७/२२ कभी गौर किया होगा कि हम अकस्मात् सारी चीजें भूल जाते हैं। उस क्षण एक अपूर्व आनंद प्राप्त होता है। अगर इसे पकड़े रहे तो यह क्षण ईश्वर से मिला देता है। कुछ न कुछ किए बिना नही रह सकते अतः सत्कर्म करो, यह धर्म है। कुछ जाने बिना नहीं रह सकते अतः अपने आप को जानो, यह ज्ञान है। कुछ माने बिना नहीं रह सकते अतः ईश्वर को मानो, यह भक्ति है। ज्ञान और भक्ति की उपलब्धि पर धर्म स्वतः होने लगेगा। धर्म के रास्ते ज्ञान और भक्ति तक पहुँचने का लक्ष्य प्राप्त होता है। पति का अर्थ अगर मालिक है तो पत्नी का अर्थ हुआ उसे लेकर चलने वाली। 31/7/22 वर्णात्मक शब्द से ध्वन्यात्मक शब्द में प्रवेश न कर सकने पर योगपथ नहीं मिलता। ध्वन्यात्मक शब्द ही नाद है वर्णरूपी शब्द विगलित होकर नादरूपी शब्द की उपलब्धि होती है नाद के बिना बिंदु की उपलब्धि कैसे हो सकती है? जैसे रेखा गतिहीन होने पर बिंदु का रूप धारण करती है, उसी प्रकार नाद भी प्रवाह हीन होकर बिन्दुरुप में परिणत होता है, यह बिंदु ही पूर्व वर्णित आत्म ज्योति है। आत्म स्वरूप का यही अभिव्यंजक है। — जय गुरु 🙏🌹💐🌺 (सनातन साधना की धारा) सायंकाल के ध्यान में महावतार बाबाजी का पीछे का स्वरूप दिखायी दिया, जिसमें उनके बाल कंधे तक शोभायमान हो रहे हैं। इस स्वरूप में पूरा ब्रह्मांड समा गया।