Thursday, May 25, 2017

व्यक्ति नाम चयन के विविध परिप्रेक्ष्य

व्यक्ति नाम चयन के विविध परिप्रेक्ष्य
राकेश नारायण द्विवेदी
व्यक्ति नाम का चयन विभिन्न जातियों और संस्कृतियों में अपने-अपने स्रोतों और पद्धतियों से किया जाता है। इन पद्धतियों और स्रोतों में कहीं थोड़ा तो कहीं बहुत अंतर मिलता है। आर्य परंपरा में नाम चयन और उसके कारणों का अध्ययन हम इन बिंदुओं के अंतर्गत कर सकते हैं-
ऐतिहासिक प्ररिप्रेक्ष्य
जातक के नाम चयन के आधार समय-समय पर बदलते रहे हैं। मोटे तौर पर इन्हें तीन भागों में बांटा जा सकता है-
क) वैदिक तथा महाकाव्य काल
इस युग के व्यक्ति नामों को जानने के लिए हमें न कोई मार्ग निर्देश मिलता है ंऔर न अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त होते है। आर्यों के देव-देवी जैसे, इं्रद्र, वरुण, अग्नि, सूर्य, सोम, उषा, सावित्री, दिति, अदिति, दनु इत्यादि के कोई पूर्वोदाहरण नहीं मिलते हैं और न अनार्यो के वृत्त, शंबर, नमुचि इत्यादि व्यक्ति नामों का पूर्व साक्ष्य मिलता है। यहां तक कि महाकाव्य चरित्रों के नामो का भी कोई पूर्व इतिहास नहीं प्राप्त होता। यद्यपि महाकाव्यों के चरित्र नामों, ऋषियों तथा देवयोनिकों के अर्थतात्विक विश्लेषण से ज्ञात होता है कि उस समय नामों के चयन का आधार शारीरिक तथा आचारगत विशेषताएं ही थीं।
बाद में सूत्र काल में जातक के नाम चयन के बहुत से ध्वनिसंबंधी, पदसंबंधी तथा अर्थसंबंधी परिवर्तन हुए। तत्पश्चात् स्मृतिकाल में वर्ण (जाति) संबंधी परिवर्तन भी संयुक्त कर लिए गए। संक्षेप में यह धर्मशास्त्रीय समादेश नाम चयन के लिए आवश्यक माने गए-
1. ध्वन्यात्मक, जिसमें मधुर ध्वनि युक्त नाम हो
2. अर्थतात्विक, जिसमें अच्छा और मंगलसूचक अर्थ प्रकट हो
3. सामाजशास्त्रीय, जिसमें नाम धारक का सामाजिक स्तर (वर्ण) प्रकट होता हो
4. रूपात्मक नाम, जिसमें लिंग भेद स्पष्ट होता हो और
5. नाम का एक स्वनिमिक तथा रूपात्मक ढांचा हो (यह विशेषता नामोच्चारण में ही दिखती है)
सूत्र और स्मृति काल में व्यक्ति नामों के चयन को मुख्य रूप से निम्नलिखित भाषा वैज्ञानिक तथा सामाजिक अर्थतात्विक विधानों से विनियमित किया गया।
1. भाषा वैज्ञानिक विचार
लगभग सभी सूत्रों में व्यक्ति नामों के विभिन्न मानक निर्धारित किए गए हैं गृहसूत्र में व्यक्ति नाम रखने के कुछ प्रमुख नियम इस प्रकार हैं-
1. लगभग सभी गृह्य सूत्रों में बताया गया है कि पुरुष जातक का नाम दो अथवा चार अक्षरों का अथवा समसंख्या के अक्षरों से बनता हो। यह नियम वैदिक पाठ से निकला होगा, जहां अधिकांश ऋषियों के नाम इसी प्रकार मिलते हैं जैसे भृगु, कुत्स, त्रित इत्यादि (दो अक्षर), त्रसदस्यु, पुरुकुत्स, मेधातिथि आदि (चार अक्षर) यद्यपि इसी युग में च्यवन, भरत, हिरण्यस्तूप जैसे नाम भी मिलते हैं जो समसंख्यक अक्षरों के नहीं है।
2. यह ध्वन्यात्मक नियम भी सभी गृह्य सूत्रों में विहित है कि बच्चे का नाम घोष अक्षर से प्रारम्भ होना चाहिए और नाम के मध्य में अंतस्थ (अर्ध स्वर) अक्षर आता हो। कुछ सूत्रों (आश्वलायन) के अनुसार नाम का अंत विसर्ग से होता हो, जिसके पूर्व में दीर्घस्वर आए। वैखानस एवं गोभिल ने विसर्ग या दीर्घ स्वर के साथ अंत होना स्वीकार किया है। संभवतः ये नियम सुदास, दीर्घतमा, पृथुश्रवाः आदि ऋग्वेदीय नामों के आधार पर बने हैं। रूपात्मक दृष्टि से नाम के दो पद होने चाहिए, पहला पद संज्ञा और दूसरा क्रियात्मक (कृदंत) जैसे ब्रह्मदत्त, यज्ञदत्त आदि।
पारस्कर, गोभिल, शांखायन, वैजवाप, वाराह आदि गृह्यसूत्र लिखते हैं कि नाम प्राथमिक प्रत्यय (कृत) से बनना चाहिए न कि द्वितीयक प्रत्यय (तद्धित) से। कृत$अंत=कृदंत शब्द वे हैं, जो धातु में कृत प्रत्यय जुड़ने से बनते हैं, जबकि तद्धित प्रत्यय धातु को छोड़कर अन्य शब्दों जैसे संज्ञा, सर्वनाम व विशेषण में जुड़ते हैं। आपस्तंब तथा हिरण्यकेशि का कहना है कि नाम में ‘सु’ उपसर्ग होना चाहिए जैसे- सुजात, सुदर्शन, सुकेत आदि। बौधायन, पारस्कर गोभिल एवं महाभाष्य द्वारा उद्घृत याज्ञिकों के नियम के अनुसार बच्चे का नाम पिता के किसी पूर्वज का ही होना चाहिए, किंतु पिता का नाम पुत्र का नाम नहीं होना चाहिए (मानव गृह्यसूत्र 1/18)
स्त्री नामों के लिए ध्वन्यात्मक नियम गृह्यसूत्रों में निर्धारित हैं कि लड़की का नाम विषम अक्षर संख्या में होना चाहिएं। मानव गृह्यसूत्र में दिया गया है कि लड़की का नाम तीन अक्षर की संख्या में होना चाहिए। पारस्कर तथा वाराह इसमें जोड़ते हैं कि नाम के अंतिम अक्षर में ‘आ’ होना चाहिए लेकिन मानव तथा गोभिल गृह्य सूत्र कहते हैं कि अंतिम अक्षर ‘दा’ हो जैसे वसुदा, सत्यदा, यशोदा, नर्मदा इत्यादि। शांखायन कहते हैं कि अंतिम दीर्घ स्वर ‘ई’ होना चाहिए जबकि बौधायन गृह्यसूत्र में कहा गया कि नाम का अंत दीर्घस्वर के साथ होना चाहिए। दीर्घस्वर आ, ई, ऊ हैं। मनु (2/33) के मत से अंत लंबे स्वर (दीर्घ) में होना चाहिए, इस संबंध में उनकी बौधायन से सहमति है कि नाम का उच्चारण आसान होना चाहिए और इसका अर्थ कठोर अथवा सुनने में कर्णकटु न हो, अपितु नाम से कोई आशीर्वाद प्रकट होता हो जैसे यशोदा। इस मत का समर्थन पुराणों में भी मिलता है।
2. नाक्षत्रिक एवं ज्योतिषीय विचार
वैदिक साहित्य में सैकड़ों नाम मिलते हैं किंतु इनमें कोई भी सीधे ढंग से नक्षत्रों से संबंधित नहीं जंचता। शतपथ ब्राह्मण (6/2/1/37) में आषाढ़ि सौश्रोमतेय (अषाढ़ एवं सुश्रोमता का पुत्र) नाम आया है जो संभवतः अषाढ़ नक्षत्र से संबंधित है। डा0 पी.वी. काणे लिखते हैं कि ब्राह्मण काल में नक्षत्र या ज्योतिषीय नाम गुप्त नाम थे जो कालांतर में गुह्य न रह सके और व्यवहार में आने लगे। बौद्ध लोग भी नक्षत्र नाम रखते थे यथा- मोग्गलिपुत्त तिस्स, स्वातिगुत्त, पुसरखित (सांची अभिलेख)। महाभाष्य में शुंगवंश के संस्थापक पुष्यमित्र का भी नाम लिया गया है।
सूत्रकाल के बाद के धर्मशास्त्र ग्रंथों एंव ज्योतिष ग्रंथों जैसे- होड़ाचक्र, मुहूर्तचिंतामणि, जातकमाला आदि मे ंनक्षत्रों से संबंधित दूसरे प्रकार के नाम आते हैं जिसके अनुसार 27 नक्षत्रों में से प्रत्येक के चार चरणों को एक-एक विशिष्ट अक्षर (यथा चू चे चो ला अश्विनी के लिए) दिया गया है। नक्षत्र के जिस चरण में जातक का जन्म हुआ, उसके अक्षर पर नामकरण किया जाता है। कहीं-कहींं ये आज भी गुह्यनाम हैं। संध्या पूजा इत्यादि अवसरों पर इनका उच्चारण किया जाता है।
3. सामाजिक एवं अर्थतात्विक विचार
स्मृतिकाल में जातक के नाम पर सामाजिक एवं अर्थतात्विक दृष्टि से विचार किया जाने लगा। स्मृतियां सूत्रों के बाद आई। मनुस्मृति का काल 200 ई0पू0 से 100ई0पू0 के बीच का माना गया है। स्मृतियों में यह सबसे प्राचीन है। याज्ञवल्क्य स्मृति का रचनाकाल 100 ई0 से 300 ई0 के बीच का है। जबकि श्रौत सूत्र 800-400 ई0पू0 में तो गृह्यसूत्र 600-300 ई0.पू0 में लिखे गए है। भगवदगीता काल 500-200 ई0पू0 का माना गया है। पुराणों का रचनाकाल 300 ई0 के बाद 900 ई0 तक स्वीकार्य हुआ है। गृह्यसूत्रों में वर्ण अथवा किसी सामाजिक स्तर के आधार पर व्यक्ति नामों को रखने के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। नामों में सामाजिक स्तर के साक्ष्य हमे मात्र पारस्कर एवं बौधायन गृह्यसूत्र में प्राप्त होते हैं।
‘स्मृति’ काल में स्पष्ट रूप से हिंदू समाज के सामाजिक स्तरों का प्रकटीकरण व्यक्ति नामों के माध्यम से होने लगा। मनु ने कहा सभी वर्णों के नाम शुभसूचक, शक्तिबोधक, शांति दायक होना चाहिए (2/31-32)। ब्राह्मणों एवं अन्य वर्णों के नाम के साथ एक उपपद होना चाहिए, जिससे शर्म (प्रसन्नता), रक्षा, पुष्टि एवं प्रेष्य (सेवा) अथवा जुगुप्सा का सकेत मिले।1 पारस्कर को छोड़कर किसी अन्य गृह्यसूत्र में ब्राह्मणों का अन्य लोगो के नामो के आगे शर्मा आदि को जोड़ा जाना नहीं लिखा गया है। पाणिनि (600-300 ई0पू0) की अष्टाध्यायी पर पतंजलि (150 ई0पू0 से 100 ई0 के मध्य, कुछ विद्वानों के अनुसार 250 ई0पू0) की वार्तिका (महाभाष्य) में इंद्रवर्मन तथा इंद्रपालित जैसे नाम राजन्य (क्षत्रिय) तथा विश (वैश्यो) के कहे गए हैं (भो राजन्य विशां वेति वाच्यम्ं- महाभाष्य पाणिनि 8/2/83 पर)।2 यम के अनुसार ब्राह्मणों की नामोपाधि शर्मा या देव, क्षत्रियों की वर्मा या त्रात, वैश्यों की भूति या दत्त तथा शूदों्र की दास है, किंतु इस नियम का पालन सदा नहीं पाया गया। तालगुंड अभिलेख में कदंब वंश का संस्थापक मयूर शर्मा नामक ब्राह्मण था, किंतु उसके वंशजो ने क्षत्रियों की भांति वर्मा नामोपाधि धारण की थी।
मध्यकाल के संस्कृत साहित्य मे ंवर्ण विभेदक नामोपाधि रखे जाने के बहुत से उदाहरण मिलते हैं। अर्थतात्विक महत्व भी नामों को इस काल में दिया गया है। आश्वलायन (1/15) गृह्यसूत्र कहता है (पिता) यदि (अपने बालक की) आध्यात्मिक उन्नति चाहता है तो नाम चार अक्षरों का रखा जाना चाहिए।
जाति संयुक्त व्यक्ति नाम रखने की शुरूआत सूत्रकारों ने कर दी थी, पर यह चलन आम नहीं हुआ था। प्राचीन काल में ही नहीं मध्यकाल में भी भारतीयों के आदर्श नायक और नायिकाएं थे। साहित्यकारों ने नायक और नायिकाओं के  उदाŸा गुणों का वर्णन किया, जिससे ऐसे नाम भी व्यक्ति नामकरण में प्रयुक्त होने लगे। नायकों की वीरता और पराक्रम को युद्ध करने वाले व्यक्तियों ने अपना लिया जैसे वीर/बहादुर सिंह, जंगबहादुर सिंह, वीर विक्रम सिंह, महेंद्र विक्रम सिंह, संग्राम सिंह, समर बहादुर, रणवीर, रणबहादुर, बलवीर, रिपुदमन, सर्वजीत, विजय, दिग्विजय, प्रताप, निर्भय, रणजीत, सुरजीत आदि नाम। सिंह उपाधि सबसे पहले राजा मानसिंह को दी गई, जब उन्होंने निहत्थे ही एक वनराज को मार दिया था। उन्हें मुगलिया सल्तनत ने सिंहारि या नरसिंह उपाधि दी गई।
इसी तरह वैश्यों के नामों में समृद्धि और धन सूचक शब्दों का समाहार किया गया जैसे- वसुमित्र, धनमित्र, श्रीपति, लक्ष्मीचंद्र, लखपत (राय), करोड़ीमल, हजारीलाल, अमीरचंद, दौलत राम आदि।
आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र में (19/30-36) में नामों का महत्व नाटकों में नए नए चरित्रों को गढ़ने और विकास करने के रूप में समझा गया है।
जहां तक स्त्री नामों की बात है तो सूत्रकारों ने स्त्री नामों में अर्थ के साथ-साथ सौंदर्यबोध को भी स्थान दिया। इन नामों में उदारता, कोमलता तथा लालित्य मिलता है जैसे प्रियंवदा, अनसूया, वसंतसेना, मंजरी, मधूलिका, मदनिका, कोकिला, कर्पूरमंजरी, चंद्रलेखा, वसुमति, इरावती, पद्मावती, हंसपादिका, यशोमती, माधवी, मालती, यशोधरा, आम्रपाली, पद्मिनी, कुमुदिनी, मदनिका, मदनमंजरी, इंदुमती, सुरदक्षिणा, चारुचंद्रा, वकुलवालिका, मधुकारिका आदि।
ग. मध्यकाल
इस युग में ब्रिटिश साहित्यकार विलियम शेक्सपियर की उक्ति नाम में क्या रखा है आ गई थी पर आर्य परंपरा में यथा नाम तथा गुण की भावना व्याप्त थी। तत्कालीन आर्य परंपरा के व्यक्ति नामों पर इस भावना का प्रभाव कामना के स्तर पर वह साफ देखा जा सकता है।
भक्ति आंदोलन की लोकप्रियता से धर्म-कर्मरत व्यक्ति अपने बच्चों के नाम देवों और देवियों के नामों और उनके चरित्रों पर रखने लगे। ओरछा नरेश मधुकरशाह भगवान कृष्ण के उपासक थे। शिवाजी का नाम शिवाय माता के आशीर्वाद से उनका जन्म होने के कारण पड़ा था। उस समय के शैव, शक्त, वैष्णव, जैन, बौद्ध इत्यादि संप्रदायों के व्यक्ति नाम उनके देव-देवियों के नामों पर रखे गए हैं।
ऐसा कोई दैव नाम कदाचित ही होगा, जिसे व्यक्ति नामों के रूप में धार्मिक प्रकृति के मनुष्य न अपनाते हों। इस पहलू के पीछे मनोवैज्ञानिक कारण भी है कि यदि व्यक्ति नामों के बहाने वह ईश्वर का उच्चारण स्मरण कर लेता है, तो उसे आसुरी शक्तियों का सामना नहीं करना पड़ेगा और देव कृपा सुलभ हो जाएगी। उसके पापो का मोक्ष नामोल्लेख मात्र से संभव हो जाएगा। हिंदू परंपरा में गजेंद्र, मणिका, अजामिल आदि की अनेक कथाएं प्रचलित है। देवकृपा पाने और आसुरी शक्तियों से मुक्ति की कामना से देवों और देवियों के अनाकर्षित या कठोर प्रकृति के नाम भी व्यक्ति नामों के रूप में प्रयुक्त हुए हैं जैसे विरूपाक्ष, रामवृक्ष, रामसागर, रामनिष्ठुर, रामसहज इत्यादि।
आशीर्वाद प्राप्ति की कामाना व्यक्तियों में इतनी बलबती रही कि एक ही नाम दो अथवा तीन ईश्वर नामों पर रखने लगे जैसे रामकृष्ण, शिवनारायण, रामगोपाल, शिवरामकृष्ण, बिन्दुशंकर, हरिशंकर, रामलखन आदि। कुछ नामों में एक ही ईश्वर का पुनः पुनः स्मरण है जैसे हरिनारायण, शिवशंकर, कृष्णमुरारी आदि।
यही नहीं भगवान दंपति को एक साथ व्यक्ति नामों के रूप मे ंरखा जाने लगा जैसे सीताराम, राधेश्याम, राधाकृष्ण, गौरीशंकर, लक्ष्मीनारायण, उमाशंकर, भवानीशंकर, रामशंकर इत्यादि।
महाकाव्य और पुराणों के चरित्रों और नायक/नायिकाओं के नाम पर भी व्यक्ति नाम रखने का प्रचलन लोकप्रिय हुआ। इसकं पीछे भी माता-पिता अथवा शुभचिंतको की भावना रही कि बच्चों में ऐसे गुणों का विकास हो।
घ) आधुनिक युग-
प्राचीन और मध्ययुग की भांति आधुनिक युग में भी माता-पिता अपने बच्चों में आदर्श और सद्गुणों का विकास करने की कामना से नामकरण करते है।ं वे उनमें विनय, प्रताप, विश्वास, सत्य, अभय, विजय, विवेक, विशाल, मनोहर, यशवंत, अतुल, अनूप, अजय, सौम्य, प्रमोद, विनोद, प्रेम, हर्ष, आनंद, मोहन जैसे गुण चाहते हैं और तदनुसार वही शब्द नाम में रखते हैं।
सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के अतिरिक्त व्यक्ति नामकरण के लिए सामाजिक सांस्कृतिक परिस्थितियों भी महत्वपूर्ण कारक है।
1. पारिवारिक पंरपराएं
कुछ घरानों में व्यक्तियों के नाम उनके स्वर्गीय माता-पिता, प्रमाता-प्रपिता के नामो पर रखने की परंपरा पाई जाती है। ऐसा उनकी स्मृतियों को सुरक्षित करने के उद्देश्य से किया जाता है। ग्वालियर के सिंधिया घराने में ऐसे नाम प्रचलित हैं। मराठों में एक अंधविश्वास है कि नामकरण समारोह के दिन बच्चे का रोना तभी बंद होता है जब उसका नाम उसके परिवार के दिवगंत व्यक्ति के नाम पर रखा जाता हैं। ऐसे बच्चों को मराठी में नवकारी कहा जाता है। यदि नाम पुराने चलन का हुआ तो बच्चे को दो नाम दिए जाते हैं। एक वह जो विधि अभिलेखों में अंकित होता है, दूसरा दिवंगत व्यक्ति के नाम पर जो केवल उच्चारण में प्रयुक्त किया जाता है।
कुलदेवता के नाम पर पहले या आखिरी पुत्र का नाम रखा जाता है। आंध्र और हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में भी कुलदेवता अथवा प्रपिता-माता के नाम पर व्यक्ति नामकरण किया जाता है।3 बुंदेलखंड में भी ऐसे नामकरण उन व्यक्तियों के मिलते हैं, जिनके बारे में मान्यता है कि वे अमुक देव-देवी के प्रसाद से जन्म लिए हैं।
2. अंधविश्वासों की भूमिका
ग्रामीणों और अनपढ़ परिवारों में नाम चयन का एक कारण अंधविश्वास का होना भी है। देश भर में अंधविश्वास के कारण व्यक्ति नाम रखे जाते हैं। दक्षिण भारत में कोई गर्भवती स्त्री तालाब, नदी या किसी जलस्रोत से पानी लाते समय सांप के ऊपर से होकर गुजर जाए तो तो उसके बच्चे का नाम नाग के नाम पर रखा जाता है। तमिलनाडू में नागपंचमी के दिन या उसके ठीक अगले दिन पैदा होने बाले बच्चों को नाम में प्रथम पद नाग होता है। बुंदेलखंड में बच्चे जीवित न रह पाने से उनका नाम कड़ोरा, घसीटा, लटूरा, घूरा इत्यादि रखे जाते है।
3. स्व-तुष्टि के उद्देश्य से
मता-पिता जब अपने बालको को सेना या किसी ऐसी सेवा में भेजना चाहते हैं तो उनका नाम पैदा होते ही उसी तरह रख दिया जाता है। हरियाणा और पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे नाम मिलते हैं।
4. महाकाव्यों ओर पुराणों के कतिपय नामों का परिहार
सामान्यतः हिंदुओं में प्राचीन साहित्य से व्यक्ति नाम रखे जाते हैं, किंतु कुछ पुराणों और महाकाव्यों के कुछ चरित्र ऐसे भी हैं जो आतंक, अत्याचार, क्रूरता तथा अन्य कुख्यात गतिविधियों से संलिप्त रहे वे नाम या चरित्र व्यक्ति नामों के चयन में प्रयुक्त नहीं हुए है।
महाकाव्यों के ऐसे चरित्रों की लंबी सूची हैं जो व्यक्ति नामों का आधार नहीं बन सके हैं जैसे महाभारत के दुर्योधन, दुःशासन, धृतराष्ट्र, पांडु, शकुनि, शल्य, जमदग्नि, गांधारी, सैरंध्री, त्रिशला (दुर्योधन की बहन तथा जयद्रथ की पत्नी), जयद्रथ तथा रामायण के रावण, कुंभकर्ण, मेघनाथ, विभीषण (रावण का भाई जिसने भाई के सारे भेद शत्रु राम को बता दिए थे)
इतिहास प्रसिद्ध ऐसे चरित्र भी है जिनके नाम पर व्यक्ति नाम नहीं मिलते हैं जयचंद (जिसने मुस्लिम आक्रमकारी मोहम्मद गौरी की सहायता राजपूत राजा पृथ्वीराज के विरुद्ध की थी) उरई का चंदेल राजा माहिल जिसने अपने बहनोई राजा परमाल के विरुद्ध पृथ्वीराज चौहान का सहयोग किया था। हाल में तैमूर जैसे क्रूर और आततायी मंगोल शासक के नाम पर एक अभिनेता दंपति के पुत्र का नामकरण किए जाने पर लोगों को अच्छा नहीं लगा। सुग्रीव (बालि का भाई), अंगद (पुत्र बालि), जटायु (विंध्य पर्वत शृंखला का आदिवासी प्रमुख), सुबाहु, मारीच (राक्षस), कंस, जरासंध (पुत्र बृहद्रथ, मगध राजा)
महाकाव्य पुराण प्रसिद्ध कुछस्त्री पात्रों के नाम भी व्यक्ति नामों के आधार नहीं बनते जैसे कैकेयी, मंथरा, सूर्पणखा, मंदोदरी, ताड़का, पूतना।
इसी तरह कुछ ग्रह/उपग्रहों के नामों पर भी व्यक्ति नाम नहीं रखे जाते है जैसे शनि, शुक्र, राहु, केतु। शुक्र का नाम राक्षस के गुरू शुक्राचार्य के कारण नहीं रखा जाता है।
संदर्भ
1. क. मांगल्यं ब्राह्मणस्यस्यात् क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य च जुगुप्सितम्।। 2.31
ख. शर्मवद् ब्राह्मणस्यस्याद्राज्ञों रक्षा समन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्।। 2.32 मनुस्मृति
2. धर्मशास्त्र का इतिहास भाग एक, डॉ पांडुरंग वामन काणे, अनुवाद अर्जुन चौबे काश्यप, पृ0 200, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ 1992
3. पैनोरमा आफ इंडियन एंथ्रोपोनॉमी, डी डी शर्मा, पृ0 97, मित्तल पब्लिकेशन नई दिल्ली 2005
-245 शब्दार्णव, नया पटेल नगर कोंच रोड,
उरई (जालौन) उ0प्र0 मोबाइल 9236114604

बुंदेली व्यक्ति नामों की क्षेत्रीय विशिष्टताएं

बुंदेली व्यक्ति नामों की क्षेत्रीय विशिष्टताएं
राकेश नारायण द्विवेदी
समूचे हिंदी प्रदेश के व्यक्ति नामों में सामान्य विशेषताएं मिलती हैं, पर प्रत्येक अंचल का बोली वैशिष्ट्य भी वहां के व्यक्ति नामों में झांकता है। भाषाविद एफ0 मैक्समूलर ने कहा है जब भाषा रूढ़िवद्ध हो जाती है तब बोलियां  उसे नए अर्थ वाले शब्द प्रदान करती है।1 शब्द वह ध्वनि है, जिसका कुछ अर्थ हो और जो स्वतंत्र रूप से व्यवहार में आ सके। व्याकरण की सीमा में सार्थक शब्द ध्वनियां ही है। इसी से शब्द का अर्थ पद भी होता है।
बुंदेली व्यक्ति नामों की विभिन्न क्षेत्रीय विशेषताएं है जो अर्थतात्विक दृष्टि से भले समूचे हिंदी प्रदेश के समान हो, पर उनमें इतना ध्वन्यात्मक वैशिष्ट्य समाहित हो गया है कि वह अलग ही नाम सौंदर्य प्रदान करते हैं। यह सौदर्य ध्वन्यात्मक स्त्र पर ही नहीं, बुंदेली समाज और संस्कृति के विविध पहलुओं को उजागर करने के रूप में भी दिखाई देता है।
बुंदेलखंड में ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी व्यक्ति नामांे के माध्यम से हिंदू मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध ही नहीं हिंदुओं में भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और निम्नवर्गीय जातियों का वर्गीकरण झलक जाता है। पिछड़े वर्ग की जातियों और अनुसूचित जातियों के व्यक्ति नामों में भी एक तरह की फांक दिखाई देती है। शिक्षा का स्तर सामान होने के बाद भी व्यक्तिनामों में यह भेद सामाजिक पिछडेपन को साफ तौर पर दर्शाता है। पिछड़े वर्ग तथा अनुसूचित जातियों के व्यक्ति नाम यदि अभिजात प्रकृति के हुए भी तो उनके ध्वनि रूप से वर्ग/जाति स्तर उत्पन्न हो जाता है।
बंुदेली व्यक्ति नामों में संस्कृत, हिन्दी एवं उर्दू भाषा ध्वनियों का इतना घालमेल हो गया कि कई बार उन्हें अलग-कर पाना दुष्कर ही नहीं असंभव हो जाता है जैसे- अच्छन, भइयन, खुशबू, शबनम, गुलाम, गुलाब, नवाज, आजाद, सौरभ, बिट्टो, गुड्डो, मिजाजी, मुन्नी, मुन्ना, पप्पू, राजू छुट्टन बन्नो आदि हजारो व्यक्ति नाम हैं जो हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदायों में रखे जाते हैं। यही नहीं जैन तथा ईसाई धर्म के व्यक्तियों में भी ऐसे नाम चलते हैं। इससे यह प्रकट है कि बुंदेलखंड में सर्वधर्म समभाव किस कदर यहां के जन मन में समाया हुआ है। बंुदेली व्यक्ति नामों की ध्वनियां इतनी अधिक घिस गई हैं कि उनकी मूल धातु और अर्थ का पता लगाना मुश्किल हो गया है, जैसे टिर्रा, दस्सी, चन्ना, टेरवां, टेरुवा, मेड़वां, केता, भुल्लू, निबिया, मीरू, पंचा, पुच्चा, चुखरा, रक्कसी, छितैया, गहरू, रुकिया, मनीवा, चुनबद्दा, दूनी, बक्खा, दिरपाली, सूला, रंची, सगडुवा, गोलीवा, टूरी, बुक्का, होल्ला, भदू, मैका, धपू, फुसिया, मल्थू, घपू, मेरखुवा, गंजू आदि स्त्री पुरूष नामों की लंबी सूची है, जो बुंदेलखंड में किसी वस्तु या सामग्री के भी नाम नहीं है और न यह शब्द किसी भावशबलता के लिए प्रयुक्त होते हैं, किंतु व्यक्तिनामों में इनका ध्वनात्मक वैशिष्ट्य के साथ व्यवहार हो रहा है। इससे यह कहा जा सकता है कि किसी वस्तु या भाव के लिए शब्दों का रूढ़ होना आवश्यक है, वरना गुलाब को यदि नीम कहेंगे तो अन्य व्यक्ति उसे चिन्हित नहीं कर पाएंगे, नीम की जगह कुछ और नाम देंगे तो भी उसे जनसामान्य की स्वीकृति अनिवार्य होगी, किंतु व्यक्ति नामों के साथ ठीक ऐसा नहीं है। उसे जन्म देने के बाद जातक का परिवार जिस शब्द से पुकारे, वह सार्थक हो या निरर्थक, उस व्यक्ति के लिए रूढ़ होकर व्यक्ति नाम बन जाता है। इसीलिए स्थान-नाम से भी अधिक निरर्थक प्रतीत होने वाले शब्द व्यक्ति-नामों के लिए प्रयुक्त होते हैं। यह तो उस व्यक्ति की महनीयता या कर्मठता है जो उसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय बना देता है।
बुंदेलखंड में हिंदी के शब्दों या नामों को बुंदेली ध्वनियों मं ढालकर व्यक्ति नाम चलते हैं जैसे सुभद्रा-सुहद्रा, लक्ष्मीराम-लच्छीराम, कौशल्या-कौंशिया, कस्ूतरचंद-कथूले, चूड़ामणि-चूरामन, रचनाकुमारी-रचकू, फरशू-परशुराम, बेनीप्रसाद-बिनियां, सोहराबखां-सौरभखां, दुर्जनराम-दुजुवा, रामलाल-रमला, भगवतप्रसाद-भगुंता, अयोध्याप्रसाद-अजुद्दी, बालाप्रसाद-बलई, यशोदानंदन-दसईं, गजराज सिंह-गज्जू, फूलसिंह-फुल्ले/फूलू, अहमद खां-इमता, बृजकुवंर-बिचकुंवर
बुंदेली व्यक्ति नामों की ध्वनियों के स्वराधात/बलाघात द्वारा नाम में प्यार/शिष्टाचार, उपेक्षा और तिरस्कार प्रकट किया जाता है-
भैयालाल -भैया-भइयन-भज्जू-भज्जा
राकेशनारायण-राकेश-रकेश-रक्सा
काशीराम-काशी-कासो-कसिया
गुड्डी बाई/देवी-गुड़िया-गुड़ों-गुडिया
कुछ व्यक्ति नामों से ही नहीं; उनके रिश्तों से भी व्यक्ति के संप्रदाय का पता नहीं चल पाता नवाब पुत्र छिद्दी, भुलिया पत्नी फौलाद (मुस्लिम), गुलाम पत्र नवाज (हिंदू) गुड़डी पत्नी अच्छन (मुस्लिम), बिट्टी पत्नी भगोदा (मुस्लिम), सर्वेश खान (मुस्लिम), विट्टो पत्नी सच्चन (मुस्लिम), सुदामा पत्नी हबीब (मुस्लिम)
बुंदेलखंड के मुस्लिम स्त्री नामों में माई, बानो, बेगम एवं खातून, निशां (रात्रि), दिल (हृदय), तथा गुल (फूल) आदि उत्तरपद लगाए जाते हैं। इनमें पहले पांच पद शहरी मुस्लिमों के नामों में बहुत कम मिलते हैं। यह पद निम्न और मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवारों मंें ही मिलते हैं, जैसे शबीना खातून, नसीमा बानो, हसीना बेगम। खातून, बानो, बेगम, माई इत्यादि पद विवाहित मुस्लिम महिलाओं के नामों में ही लगाए जाते हैं। मुस्लिम व्यक्तियों के नामों में नाम के अंत में ‘अन्’ प्रत्यय भी लगा होता है जैसे- सच्चन, अच्छन, गुड्डन, मुट्टन, मकबूलन, भइयन, छुट्टन, रहीशन, किंतु यह नाम संबोधन के लिए ही प्रायः प्रयुक्त होते हैं और इसके बाद कोई अन्य पद संयुक्त नहीं किया जाता है।
बुंदेलखंड में विविध मनोदशाओं और समस्याओं को दर्शाते हुए व्यक्ति नाम मिलते हैं- जैसे मुसीबत खां, टंटा, ठलुवा, कांटी, बुद्धू, झंडु, झल्लू, ऊधम, ठसकरानी, बारीबहू, ठलू, बदलू, फटूले, लुढ़का, झगडू आदि।
यहां व्यक्ति की विकलांगता अथवा शारीरिक विशेषता दर्शाते हुए व्यक्ति नाम भी मिलते हैं। यह परंपरा अति प्राचीन है जब व्यक्ति का तथा नाम यथा गुणः होता था जैसे लूला, घुरका, छिंगा (जिसकी एक हाथ/पैर में छः अंगुलियां हो), छिद्दू (जिसके नाक/कान छिदे हों),  कंछेदी, चिंता,, गदू, घमंडी, बौरू, फितूरे, भोंदुआ, जबरा (मोटा व्यक्ति), भददे (जो जल्दी से गिर जाता हो), लुढ़का, करिया, कलूटा, भूरा, गोराबाई, मठू (जिसकी तोंद निकली हो), भालू, नंगा, हकला, बौरा, सूरा (अंधे व्यक्ति) लबरू, ढूमादेवी, शौकी, घमंडी, कनुवा, लुलुवा, दंगलवा, तुत्तल, ढड़कोला आदि।
खाद्य-पदार्थो के नामों पर व्यक्ति नाम रखे मिलते हैं, जिनसे व्यक्तियों की एतत्संबंधी अभिरुचियों का पता लगता है जैसे- जलेबी, बरफी, कोदूं, कुदउं, पेराबाई, जलीब रानी, इमरती, मलीदा, महरी, बेसनिया आदि।
ध्वन्यात्मक दृष्टि से बुंदेलखंड में पुरुषों की तुलना में स्त्रियों के नाम अधिक तिरस्कारपूर्ण मिलते हैं, जैसे- घसीटी, कड़ोरी, सरसुतिया, सुमरितिया, रजुलिया, गुजरतिया, मोलिया, रतिनियां, मोतिनिया, रुकमिनिया, इंदरनिया, भोंड़ी, कमिनियां, धोखिया, हरमनियां, भदू, कैलासिया, बृजरनिया, झुग्गन बाई, ढुरकीबाई, घुलकीबाई, माकरानी, पनकुरा, सुकरता, लुढ़िया, जहरी, जिरिया आदि। यद्यपि सभी स्त्री नाम उपेक्षित ध्वनियुक्त हों, ऐसा भी नहीं हैं। कतिपय स्त्री नामों में उनकी सराहना, सौंदर्य और सुख झलकता है, जैसे- मालमती, लड़ैती बाई, नौनी बाई, (अच्छा), लज्जा देवी, गुडो/गुड़िया/गुड्डी, सुघर देवी, सुक्कन, सबरानी, लड़ैतियां, प्रेमता (प्रेमलता), सुंदरिया, आरामबाई, शृंगारदुलैया, साहबबहू, प्यारी बहू, अच्छी, फूलकुंवर, छबीली, रानी। एक समय बुंदेलखंड में स्त्रियों को नाम ही नहीं दिए जाते थे। उनकी अवस्था के अनुसार उन्हें नाम दिया जाता है जैसे- नन्हींबहू, मझली बहू, बड़ी बहू, नन्हीं, मझली, संजली, हल्की। यह अवस्थाएं बहुत नामों को व्यक्त नहीं कर सकती, इसलिए स्थान नाम से भी स्त्रियों के नाम रखे गए, जैसे- अनौरा वाली, छिल्ला वाली, कोंच वाली आदि स्थानों के नाम पर स्त्रियों के नाम चित्रकूट जिले को छोड़कर खूब मिलते हैं।
बुंदेलखंड  के ग्रामीण क्षेत्रों में भी सुरुचि संपन्न एवं शिक्षित व्यक्तियों के यहां सममितिक व्यक्ति नाम मिलते हैं। ग्राम कैथोकर महाराजपुर जिला छतरपुर में आशाराम के तीन पुत्रों के नाम गोकरन, रविकरन एवं देवकरन हैं। उरई के एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के आठ पुत्रों के सभी नामों के उत्तरपद में ‘कांत’ संयुक्त हुआ है।
पुरुषों की जाति/उपजाति, व्यवसाय, पदवी आदि के आधार पर उनकी स्त्रियों के नाम रूढ़ हो जाते हैं जैसे- ठकरान, मास्टरनी, मेमरानी, कारीगरन, बनियान आदि।
हिंदी प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में सुरुचि संपन्न, मधुर और आकर्षक नामों का चयन बढ़ा है।ं बुंदेलखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी पारंपरिक नाम रखे जा रहे हैं, जिनमें उपेक्षा, कुत्सा, अपमान, अंधविश्वास आदि प्रकट होते हैं जैसे पल्टुवा, बिरजा, चिरौंजिया, जूजा, सुमेरा, मिंदा, कमोदा, माउंसिंह, मडूसिंह, पिरू, भोपतू, लटोरी, ढकेली, खचोरे, गुबरे, नंगा, लूला, लुढ़का, खुंदे, लटकन, दंगलवा, मंगली आदि।
आधुनिक आकर्षण के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ अश्रुतपूर्व तथा विभिन्न क्षेत्रों से आयातित नाम मिलते हैं जैसे- राज्यपाल, अनुष्का, असवेंद्र कुमार, गोल्डी, टाई, हिमाचल, अनिकेश, अजवेंद्र सिंह, साइना, अजमेर सिंह।
पदवी नाम बुंदेलखंड में इस प्रकार चल निकलते हैं, जैसे कोई ग्राम पंचायत इत्यादि का सदस्य निर्वाचित/मनोनीत हुआ या उसके सदस्य रहने की अवधि में उसके कोई संतति हुई तो उस पदवी पर नाम रख लिया गया जैसे- मेमरानी (मेंबर स्त्री), मेमरीका (पुरुष)
पूर्व में अनुसूचित जाति के व्यक्ति अपने नाम में सिंह या जाति सूचक पद नहीं लगाते थे, किंतु अब वे अपनी पहचान प्रकट करने लगे हैं जैसे धर्मेश सिंह अहिरवार, अरुण कुमार गौतम, रामशरण जाटव, विजय चैधरी, महेंद्र कठेरिया, गौरीशंकर वर्मा। वैसे भी सिंह उपाधि सबसे पहले राजा मानसिंह को मुगल सल्तनत ने दी थी क्योंकि मानसिंह ने निहत्थे ही एक वनराज को मार दिया था, इससे उन्हें सिंहारि या नरसिंह की उपाधि मिली। इस प्रकार सिंह उपाधि का किसी समुदाय या जाति से संबंध नहीं था।
दक्षिणी राज्यों एवं महाराष्ट्र की भांति बुंदेलखंड में स्थान के नाम से व्यक्ति की पहचान लिखित रूप में नहीं की जाती थी पर स्थान नाम को अब व्यक्ति नाम में जोड़कर लिखा जाने लगा है, जैसे बृजलाल खाबरी, गिल्लू भिटारी
कुछ व्यक्ति अपनी विशिष्ट पहचान बनाने के उद्देश्य से प्राचीनकाल में प्रयुक्त जाति पद अपने नाम के साथ प्रयुक्त करने लगे हैं जो बहुत से व्यक्तियों के लिए अज्ञात ही रहता है, जैसे रामनाथ कोविंद (कोरी), अरुणा तंतुवाय (बुनकर)।
नाम में हजरत, साहब, श्री और जी/जू सम्मान प्रकट करने के लिए होता है। शिष्टाचार के फलस्वरूप व्यक्ति स्वयं अपने नाम में जी अथवा श्री नहीं लगाते पर  जी और जू/देव का प्रयोग यहां व्यक्ति के नाम में ही अनुस्यूत या संयुक्त होता है जैसे- लालजी, रामजी, श्यामजी, हजरत, साहब, मधुकर शाहजू, करंजू, नौनीजू आदि। जू का प्रयोग कुछ क्षत्रिय परिवारो के सामान्य बोलचाल में बुंदेलखंड की विशिष्टता है जैसे दुलैया जू, नन्ना जू, दायजू, बाइजू, फाजू आदि। गाली भी जू लगाकर देते हैं सारे जू,। प्रश्नाकुलता का संबोधन काए जू द्वारा करते हैं। क्षत्रिय परिवारों में व्यक्त नाम में उत्तर पद राजा/राजे संयुक्त करते हैं नेहा राजा, शीला राजा, प्रीतिराजा, संजू राजा, भगत राजा, यशोधरा राजे, बड़े राजा आदि।
दो लिपि चिन्ह वाले भावपरक नामों को देखकर हरियाणा क्षेत्र के व्यक्ति नामों की याद आ जाती है जैसे- भाव सिंह, भान सिंह, धन सिंह, पक्का, घंटी, दूरी, भोगा।
नाम को संक्षिप्त करने के क्रम में यदि नाम चिढ़ाने वाला बनता है तो ऐसे नामों के प्रयोग के समय वाद-विवाद होने लगता है। कई बार झगड़ा भी हो जाता है जैसे-विजय-बिज्जू, राकेश-रक्सा। पहले से यदि सवर्ण अथवा मान्य परिवारों में कोई नाम उपलब्ध है, फिर यदि किसी अनुसूचित जाति अथवा निकट संबंधी ने यही नाम रख लिया तो मनभेद हो जाता है। परस्पर संवाद होना भी बंद हो जाता है।
बुंदेलखंड में व्यक्ति का स्वभाव या आचरण मनोनुकूल न होने पर गुस्सा और उपेक्षा में नाम दे दिए जाते है जैसे होइशा (निर्लज्जता के लिए), निपोरा (हीन व्यक्तित्व बाला जो दूसरों की हर बात का हंस-हंस कर समर्थन करता है)
बुंदेलखंड के नाम के पीछे लोग मरते हैं रोते हैं, तो कुछ नाम भर की भी परवाह नहंी करते कि उसका नाम खो रहा है या गली-गली बिक रहा है। उसका नाम चाहे उड़े या उल्टा हो जाए, खो जाए, डूब जाए, नाम चाहे बाकी न रहे, मिट जाए, वह तो जैसे उसे ढोता रहता है। यहां के समाज में व्यक्ति का नाम रह जाए, चाहे वह नाम मात्र ही हो, नामो निशान छूट जाय बस। रामनाम सत्य होने से पहले नाम वाला हो जाए, नाम से पूजा जाए तो सोने मै सुहागा, नहीं किसी तरह नाम साथ चला जाए।
कोई व्यक्ति यदि किसी का नाम टांक ले अथवा उससे उसे चिढ़ हो जाए तो वह उस नाम से भड़कने लगता है। कोई-कोई तो इतना (कु)नामी होता है कि उसके नाम से लोग कांपने लगते हैं, भागने लगते हैं। कंपाने वाले नामों की अंत में हंसाई ही शेष रहती है उनका नाम लेवा भी कोई नहीं रहता। किसी को किसी व्यक्ति के नाम भर से छींक आने लगती है, उसका वह नाम सुनना भी पसंद नहीं करता। व्यक्ति नाम तो जानना चाहता, धाम और काम जानने की जिज्ञासा भी उसे होती है। यहां किसी का नाम किसी अन्य व्यक्ति के साथ भी जोड़ते हैं, कुछ है कि बस नाम ही बेचते हैं, वह जिस नाम से लाभ हो, उसका नाम रटते रहते हैं। कुछ लोग नाम को दिल में लिख लेते हैं उसका जाप करते रहते हैं, किंतु ऐसा उस व्यक्ति के साथ ही होता है जो अपना नाम छोड़ जाता है या जिसके नाम से उसका काम सधता हो फिर तो उसके नाम पर लोग मिटने को तैयार रहते हैं। यहां नाम बिगाड़ने वाले भी कम नहीं है तो कोई अपना नाम भी दे देता है। कोई अगर नाम धरे तो वह उसे मिटा डालना चाहता है, उसका नाम भी नहीं लेना चाहता और चाहता है कि उसका नाम बाकी भी न रहे। नाम गाने वाले लोग ऐसे भी होते हैं जो उस नाम की जूता पहनने को भी तैयार रहते हैं, पर कोई ही व्यक्ति ऐसा होगा जो अपना नाम उठा देना चाहता हो कटा देना चाहता हो कि कोई उसका नाम काढे कि उसके नाम पर ब्ट्टा ले। व्यक्ति तो नाम करने के लिए और ऊँचा करने के लिए नाम का भूखा बना ही रहता है, वह चाहता है उसका नाम गूंजे और अमर हो जाए। व्यक्ति का प्रत्येक कर्म रोटी कमाने के अलावा नाम कमाने के लिए ही होता है। वह जीवन भर नाम संभालता रहता है कि उसका नाम मरनेे के बाद भी चलता रहे। तुलसी बाबा कह गए है सुत वित लोक नामक तीन एषणाऐ बड़ी प्रबल होती हैं।
इन कामनाओं ने किसका मन मलिन नहीं किया। बुंदेलखंड में सुत कामना इतनी है कि पांच-पांच, सात-सात लड़कियां पैदा होती रहे, लेकिन पुत्र अवश्य हो, अन्यथा घर वाले जीने नहीं देंगे। उसका फिर वंश कैसे चलेगा। पुत्र प्रसाद अगर पहली ही संतति में मिल जाए तो फिर सकल कामनाएपूर्ण  हो जाती हैं। नहीं तो दूसरी संतान के गर्भ को चिन्हित कराया जाएगा। तब तक गर्भ गिराया जाता रहेगा जब तक गर्भ में पुत्र संतान न आ जाए। नवरात्रों में अविवाहित पुत्रियों को देवी मां की तरह पूजा जाएगा। मायके पक्ष के सभी स्त्री पुरुष महिला के पैर छूूते रहेंगे, पर उसे अपने बराबर नहीं मानेंगे। अगर कोई स्वतंत्रचेता और मुखर स्त्री हुई तो उससे किनारा काट कर अलग हो लेंगे, पर स्त्री को सहयोगी और सहकर्मी की भांति नहीं लेगे।
बुंदेली लोकगीतों में बनरा गीतों की संख्या बनरी गीतों की तुलना में कई गुना अधिक है। बनरा पुत्र जन्म पर तथा बनरी पुत्री जन्म पर गाए जाते हैं। बनरी के जन्म पर लोकगीतों में उसके अच्छे विवाह की, सुंदरता की, संपन्न ससुराल की और समृद्धि की कामना की जाती है। पुत्री जन्म पर बुंदेलखंड में जन्म पर के पाप नष्ट हो जाते हैं। एक बनरी की पंक्तियां हैं-
धरम करे खों लाड़ो कन्या जो जन्मी
कटे जनम के पाप भले जू।2
पुत्री जन्म के कारण ही कन्यादान करना संभव होता है। गोदान तो ब्राह्मण के लिए हमेशा होते रहते हैं पर दूल्हा-दामाद के लिए कन्यादान का अवसर सदा नहीं आता-
काए खों बाबुल गंगा खांे जैहो, काए खो तीरथ प्रयाग भले जू
मंड़़़वा भीतर बाबुल गंगा बहत है, उतई है तीरथ-प्रयाग-भले जू।3
वर्चस्ववादी मानसिकता इतनी कि स्वतंत्रता के सत्तर वर्ष बाद बच्चों तक में वह पैठी हुई है। छठीं कक्षा का छात्र अपने चैथी कक्षा के साथी मित्र व पड़ोसी से, अंग्रेजी में वाक्य बोलकर नाम पूछता है। छोटा बच्चा सकषका जाता है और उसका वरिष्ठ इतने में ही श्रेष्ठता बोध का शिकार हो जाता है। वह कहता है इसे तो हम इतने से ही काबू कर लेंगे। मजे की बात यह कि पूछने वाला बच्चा हिंदी माध्यम का छात्र है।
बुंदेलखंड में पहले बीमारी, महामारी अथवा लड़ाई-झगड़ों में लोग मारे जाते थे, इससे भी सात-आठ पुत्र संतान पैदा करते थे। ऐसी भाईगण अपने नाम के आगे सतभइया, अठभइया, पचभइया आदि संयुक्त कर लेते थे, वर्चस्व दिखाने का यह भी एक माध्यम बन जाता था।
संयोगवश पति तथा पत्नी का एक ही नाम बुंदेलखंड में मिला है बस इनकी ध्वनियों में ही अंतर है। सुंदरिया पत्नी सुंदरवा (बीरा-चित्रकूट) चित्रकूट जनपद के सीमांत गांवों के व्यक्ति नामांे पर बघेली बोली एवं व्यक्ति नामों का प्रभाव पड़ा है।
टीकमगढ़ जिला में ऐसे व्यक्ति नाम भी मिले, जिसके पिता एवं पुत्र दोनों के नाम समान है, जैसे- लखन पुत्र लक्ष्मन (भटगोरा-खरगापुर)।
जालौन हमीरपुर, बांदा तथा चित्रकूट जिलों के व्यक्ति नामों में सामान्यत ‘जू’ का प्रयोग नहीं मिलता, बुंदेलखंड के शेष जनपदों में यह प्रयोग-माधुर्य दिखाई पड़ता है।
बुंदेलखंड में ग्रामीण क्षेत्रों में में आज भी व्यक्ति नामों के माध्यम से व्यक्तियों के आर्थिक और सामाजिक स्तर ज्ञात किए जा सकते हैं।
अन्य सिखों की ही भांति बुंदेलखंड में भी सिख पुरुषों एवं स्त्रियां के नामों के प्रथम पद समान होते हैं, उत्तर पद में पुरुष नाम में ‘सिंह’ तथा विवाहोत्तर स्त्री नाम में ‘कौर’ संयुक्त हो जाता है।
बुंदेलखंड में व्यक्तियों का संबोधन उनके नामों से अधिक संबंध, पदवी अथवा व्यवसाय नाम द्वारा किया जाता है जैेसे पंडित जी महाराज (ब्राह्मण/पुरोहित के लिए) खवास-खवासन (नाई/नाइन के लिए) मिस्त्री/कारीगर (लोहार/बढ़ई के लिए), माते (गांव का प्रमुख व्यक्ति), मुखिया, लंबरदार, भोई (घरेलू पानी भरने वाले के लिए), प्रधान जी (पूर्व/वर्तमान जनप्रतिनिधि), दद्दा (पिता), दाऊ (पिता), नन्ना जू, कक्काजू, काकी (चाची), बाइजू (ननद), फाजू (बुआ), दुलैया जू (सौभाग्यवती स्त्री), बाई/मताई (माता), भज्जू (भाई जी), बिन्नू (बहिन), दद्दू (पिता/पितामह) दिमान साब (पुत्र/पुत्री के ससुर), पावने/लाला (दामाद), जनी (स्त्री)4 मान्स (पुरुष), जिज्जी/जिया (बड़ी बहिन/जेठानी), स्वामी जी, बाबाजी, साधु-बाबा, कुंवर/लला (पुत्र), लाली/लली (पुत्री), बब्बा जू (पितामह), दउवा (दूध बेचने वाले यादव जाति के व्यक्ति), परजापत (कम्हार), वरेण (धोबी), कटवार (बुनकर), काछी (शाक-सब्जी की खेती करने वाले कुशवाहा) चैकीदार (जो व्यक्ति यह कार्य करे या किया हो)।
यह नाम घर परिवार के किसी व्यक्ति द्वारा रिश्ते या संबंध मे ंदिए जाते है, पर वह सभी आबालवृद्ध व्यक्तियों द्वारा प्रयुक्त किए जाने लगते हैं। मेरे पिता जी हमारे चाचा और बुआओं के ही ‘दाऊ’ नहीं, हम सब भाई-बहिनो के भी ‘दाऊ’ हैं।
दक्षिण के राज्यों के प्रभाव के कारण सागर की ऋतु अपना नाम ऋतु विश्वनाथ त्रिपाठी लिखती है। विश्वनाथ त्रिपाठी उनके पिता का नाम है। यह ऋतु का अविवाहित नाम है। तमिलनाडु में अविवाहित महिला पिता का नाम अपने नाम से पूर्व जोड़ती है। यहां विवाहित महिलाएं अपने नाम में पति का नाम लिखती है। बुंदेलखंड में भी  ऐसे नाम मिल जाते हैं जैसे नीलम मुकेश (उरई) में मुकेश निगम पति का नाम है। यह प्रचलन बुंदेलखंड में आम नहीं हुआ है। स्त्री नाम में पुरुष पक्ष का जाति-उपजाति सूचक पद विवाहोपरांत उसके नाम में जुड़ जाता है, जैसे सारिका तिवारी आनंद, स्मिता तिवारी चैधरी, दिव्या गुप्ता जैन। नौकरी या अन्य कारणों से विवाहोपरांत भी स्त्री अपने नाम में मायके पक्ष की जाति-उपजाति लगाती है, ससुराल पक्ष के ऐसे पद नहीं जोड़ती जैसे वंदना दीक्षित, ऋचा पटैरिया जो क्रमशः पांडेय और दीक्षित परिवारों में विवाहित हैं। सामान्यतः ससुराल पक्ष की जाति-उपजाति नाम में जोड़ने एवं यदि मायके पक्ष की उपजाति जुड़ी भी है तो उसे नहीं लगाने का प्रचलन है जैसे अलका (दुबे) नायक, किरन (रिछारिया) द्विवेदी। यत्किंचित  पुरुष भी अपने नाम में पत्नी का नाम जोड़ते है जैसे माया हरिश्याम पारथ (उरई), कमलेश जान्हवी पंथ (ललितपुर)। माता का नाम पुरुष नाम में रस्मी तौर पर ही जोड़ा गया देखा जाता है। मातृ दिवस (मदर्स डे) पर क्या स्त्री और क्या पुरुष फेसबुक पर देखा देखी अपनी मां का नाम द्वितीय पद के रूप में कई व्यक्तियों ने संयुक्त किया, पर यह स्थाई रूप में नहीं देखा जाता।
नाम और व्यक्ति में कौन बड़ा प्रभावशाली है। यह जानने के लिए बुंदेलखंड में रामायण की एक प्रसिद्ध कहानी को उद्धृत किया जा सकता हैै। समुद्र पार लंका जाने के लिए सेतुबंध किया जा रहा है, हनुमान राम नाम लिखकर पत्थर फेंकते हैं, वे उतराते हैं और पुल बनता जाता है। यह देखकर राम ने भी पत्थर फेंका, पर वह डूब गया। उस पत्थर पर राम का नाम अंकित नहीं था। राम ने से कौतूहल से जब पूछा तो हनुमान ने बताया कि राम का नाम स्वयं राम से भी अधिक प्रभावशाली है।
व्यक्ति से भी अधिक नाम की शक्ति या प्रभाव के उदाहरण दिखते रहते हैं। एक व्यक्ति की पुलिस से उस समय भिडं़त हो गई जब वह अपने शस्त्र लाइसेंस नवीनीकरण के लिए रिश्वत नहीं दे रहा था। पुलिस से उसकी नोंक-झोंक हुई, पुलिस ने हनक में लेने के अनेक यत्न किए उस व्यक्ति पर असर न देख पुलिस ने उससे अभद्रता कर दी। कई बार सूचना का अधिकार अधिनियम का प्रयोग करके भी वह व्यक्ति आर टी आई कार्यकर्ता के रूप में भी ख्यात हो चुका था। इस व्यक्ति के नाम से कई अन्य व्यक्ति अपने मोबाइल इत्यादि की सूचना की रिसीविंग थाने से बिना सुविधा शुल्क ले आते।
संदर्भ
1. भाषा विज्ञान, एफ मैक्समूलर, अनुवाद डाॅ उदयनारायण तिवारी, पृृ0 53 मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली 1970
2. जनपदीय संस्कार गीत, संपादक डाॅ कपिल तिवारी, पृ0 414 आदिवासी लोककला अकादमी भोपाल 2006
3. वही पृ0 341
4. ऋग्वेद में पत्नी को ‘जनी’ कहा गया है (1.71.1, 1.112.15) उद्धृत वर्ण जाति व्यवस्था उद्भव, प्रकार्य और रूपांतरण, सुवीरा जायसवाल, पृ0 167 ग्रंथशिल्पी दिल्ली 2004
-245 शब्दार्णव, नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई(जालौन) मो 9236114604