Thursday, May 25, 2017

व्यक्ति नाम चयन के विविध परिप्रेक्ष्य

व्यक्ति नाम चयन के विविध परिप्रेक्ष्य
राकेश नारायण द्विवेदी
व्यक्ति नाम का चयन विभिन्न जातियों और संस्कृतियों में अपने-अपने स्रोतों और पद्धतियों से किया जाता है। इन पद्धतियों और स्रोतों में कहीं थोड़ा तो कहीं बहुत अंतर मिलता है। आर्य परंपरा में नाम चयन और उसके कारणों का अध्ययन हम इन बिंदुओं के अंतर्गत कर सकते हैं-
ऐतिहासिक प्ररिप्रेक्ष्य
जातक के नाम चयन के आधार समय-समय पर बदलते रहे हैं। मोटे तौर पर इन्हें तीन भागों में बांटा जा सकता है-
क) वैदिक तथा महाकाव्य काल
इस युग के व्यक्ति नामों को जानने के लिए हमें न कोई मार्ग निर्देश मिलता है ंऔर न अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त होते है। आर्यों के देव-देवी जैसे, इं्रद्र, वरुण, अग्नि, सूर्य, सोम, उषा, सावित्री, दिति, अदिति, दनु इत्यादि के कोई पूर्वोदाहरण नहीं मिलते हैं और न अनार्यो के वृत्त, शंबर, नमुचि इत्यादि व्यक्ति नामों का पूर्व साक्ष्य मिलता है। यहां तक कि महाकाव्य चरित्रों के नामो का भी कोई पूर्व इतिहास नहीं प्राप्त होता। यद्यपि महाकाव्यों के चरित्र नामों, ऋषियों तथा देवयोनिकों के अर्थतात्विक विश्लेषण से ज्ञात होता है कि उस समय नामों के चयन का आधार शारीरिक तथा आचारगत विशेषताएं ही थीं।
बाद में सूत्र काल में जातक के नाम चयन के बहुत से ध्वनिसंबंधी, पदसंबंधी तथा अर्थसंबंधी परिवर्तन हुए। तत्पश्चात् स्मृतिकाल में वर्ण (जाति) संबंधी परिवर्तन भी संयुक्त कर लिए गए। संक्षेप में यह धर्मशास्त्रीय समादेश नाम चयन के लिए आवश्यक माने गए-
1. ध्वन्यात्मक, जिसमें मधुर ध्वनि युक्त नाम हो
2. अर्थतात्विक, जिसमें अच्छा और मंगलसूचक अर्थ प्रकट हो
3. सामाजशास्त्रीय, जिसमें नाम धारक का सामाजिक स्तर (वर्ण) प्रकट होता हो
4. रूपात्मक नाम, जिसमें लिंग भेद स्पष्ट होता हो और
5. नाम का एक स्वनिमिक तथा रूपात्मक ढांचा हो (यह विशेषता नामोच्चारण में ही दिखती है)
सूत्र और स्मृति काल में व्यक्ति नामों के चयन को मुख्य रूप से निम्नलिखित भाषा वैज्ञानिक तथा सामाजिक अर्थतात्विक विधानों से विनियमित किया गया।
1. भाषा वैज्ञानिक विचार
लगभग सभी सूत्रों में व्यक्ति नामों के विभिन्न मानक निर्धारित किए गए हैं गृहसूत्र में व्यक्ति नाम रखने के कुछ प्रमुख नियम इस प्रकार हैं-
1. लगभग सभी गृह्य सूत्रों में बताया गया है कि पुरुष जातक का नाम दो अथवा चार अक्षरों का अथवा समसंख्या के अक्षरों से बनता हो। यह नियम वैदिक पाठ से निकला होगा, जहां अधिकांश ऋषियों के नाम इसी प्रकार मिलते हैं जैसे भृगु, कुत्स, त्रित इत्यादि (दो अक्षर), त्रसदस्यु, पुरुकुत्स, मेधातिथि आदि (चार अक्षर) यद्यपि इसी युग में च्यवन, भरत, हिरण्यस्तूप जैसे नाम भी मिलते हैं जो समसंख्यक अक्षरों के नहीं है।
2. यह ध्वन्यात्मक नियम भी सभी गृह्य सूत्रों में विहित है कि बच्चे का नाम घोष अक्षर से प्रारम्भ होना चाहिए और नाम के मध्य में अंतस्थ (अर्ध स्वर) अक्षर आता हो। कुछ सूत्रों (आश्वलायन) के अनुसार नाम का अंत विसर्ग से होता हो, जिसके पूर्व में दीर्घस्वर आए। वैखानस एवं गोभिल ने विसर्ग या दीर्घ स्वर के साथ अंत होना स्वीकार किया है। संभवतः ये नियम सुदास, दीर्घतमा, पृथुश्रवाः आदि ऋग्वेदीय नामों के आधार पर बने हैं। रूपात्मक दृष्टि से नाम के दो पद होने चाहिए, पहला पद संज्ञा और दूसरा क्रियात्मक (कृदंत) जैसे ब्रह्मदत्त, यज्ञदत्त आदि।
पारस्कर, गोभिल, शांखायन, वैजवाप, वाराह आदि गृह्यसूत्र लिखते हैं कि नाम प्राथमिक प्रत्यय (कृत) से बनना चाहिए न कि द्वितीयक प्रत्यय (तद्धित) से। कृत$अंत=कृदंत शब्द वे हैं, जो धातु में कृत प्रत्यय जुड़ने से बनते हैं, जबकि तद्धित प्रत्यय धातु को छोड़कर अन्य शब्दों जैसे संज्ञा, सर्वनाम व विशेषण में जुड़ते हैं। आपस्तंब तथा हिरण्यकेशि का कहना है कि नाम में ‘सु’ उपसर्ग होना चाहिए जैसे- सुजात, सुदर्शन, सुकेत आदि। बौधायन, पारस्कर गोभिल एवं महाभाष्य द्वारा उद्घृत याज्ञिकों के नियम के अनुसार बच्चे का नाम पिता के किसी पूर्वज का ही होना चाहिए, किंतु पिता का नाम पुत्र का नाम नहीं होना चाहिए (मानव गृह्यसूत्र 1/18)
स्त्री नामों के लिए ध्वन्यात्मक नियम गृह्यसूत्रों में निर्धारित हैं कि लड़की का नाम विषम अक्षर संख्या में होना चाहिएं। मानव गृह्यसूत्र में दिया गया है कि लड़की का नाम तीन अक्षर की संख्या में होना चाहिए। पारस्कर तथा वाराह इसमें जोड़ते हैं कि नाम के अंतिम अक्षर में ‘आ’ होना चाहिए लेकिन मानव तथा गोभिल गृह्य सूत्र कहते हैं कि अंतिम अक्षर ‘दा’ हो जैसे वसुदा, सत्यदा, यशोदा, नर्मदा इत्यादि। शांखायन कहते हैं कि अंतिम दीर्घ स्वर ‘ई’ होना चाहिए जबकि बौधायन गृह्यसूत्र में कहा गया कि नाम का अंत दीर्घस्वर के साथ होना चाहिए। दीर्घस्वर आ, ई, ऊ हैं। मनु (2/33) के मत से अंत लंबे स्वर (दीर्घ) में होना चाहिए, इस संबंध में उनकी बौधायन से सहमति है कि नाम का उच्चारण आसान होना चाहिए और इसका अर्थ कठोर अथवा सुनने में कर्णकटु न हो, अपितु नाम से कोई आशीर्वाद प्रकट होता हो जैसे यशोदा। इस मत का समर्थन पुराणों में भी मिलता है।
2. नाक्षत्रिक एवं ज्योतिषीय विचार
वैदिक साहित्य में सैकड़ों नाम मिलते हैं किंतु इनमें कोई भी सीधे ढंग से नक्षत्रों से संबंधित नहीं जंचता। शतपथ ब्राह्मण (6/2/1/37) में आषाढ़ि सौश्रोमतेय (अषाढ़ एवं सुश्रोमता का पुत्र) नाम आया है जो संभवतः अषाढ़ नक्षत्र से संबंधित है। डा0 पी.वी. काणे लिखते हैं कि ब्राह्मण काल में नक्षत्र या ज्योतिषीय नाम गुप्त नाम थे जो कालांतर में गुह्य न रह सके और व्यवहार में आने लगे। बौद्ध लोग भी नक्षत्र नाम रखते थे यथा- मोग्गलिपुत्त तिस्स, स्वातिगुत्त, पुसरखित (सांची अभिलेख)। महाभाष्य में शुंगवंश के संस्थापक पुष्यमित्र का भी नाम लिया गया है।
सूत्रकाल के बाद के धर्मशास्त्र ग्रंथों एंव ज्योतिष ग्रंथों जैसे- होड़ाचक्र, मुहूर्तचिंतामणि, जातकमाला आदि मे ंनक्षत्रों से संबंधित दूसरे प्रकार के नाम आते हैं जिसके अनुसार 27 नक्षत्रों में से प्रत्येक के चार चरणों को एक-एक विशिष्ट अक्षर (यथा चू चे चो ला अश्विनी के लिए) दिया गया है। नक्षत्र के जिस चरण में जातक का जन्म हुआ, उसके अक्षर पर नामकरण किया जाता है। कहीं-कहींं ये आज भी गुह्यनाम हैं। संध्या पूजा इत्यादि अवसरों पर इनका उच्चारण किया जाता है।
3. सामाजिक एवं अर्थतात्विक विचार
स्मृतिकाल में जातक के नाम पर सामाजिक एवं अर्थतात्विक दृष्टि से विचार किया जाने लगा। स्मृतियां सूत्रों के बाद आई। मनुस्मृति का काल 200 ई0पू0 से 100ई0पू0 के बीच का माना गया है। स्मृतियों में यह सबसे प्राचीन है। याज्ञवल्क्य स्मृति का रचनाकाल 100 ई0 से 300 ई0 के बीच का है। जबकि श्रौत सूत्र 800-400 ई0पू0 में तो गृह्यसूत्र 600-300 ई0.पू0 में लिखे गए है। भगवदगीता काल 500-200 ई0पू0 का माना गया है। पुराणों का रचनाकाल 300 ई0 के बाद 900 ई0 तक स्वीकार्य हुआ है। गृह्यसूत्रों में वर्ण अथवा किसी सामाजिक स्तर के आधार पर व्यक्ति नामों को रखने के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। नामों में सामाजिक स्तर के साक्ष्य हमे मात्र पारस्कर एवं बौधायन गृह्यसूत्र में प्राप्त होते हैं।
‘स्मृति’ काल में स्पष्ट रूप से हिंदू समाज के सामाजिक स्तरों का प्रकटीकरण व्यक्ति नामों के माध्यम से होने लगा। मनु ने कहा सभी वर्णों के नाम शुभसूचक, शक्तिबोधक, शांति दायक होना चाहिए (2/31-32)। ब्राह्मणों एवं अन्य वर्णों के नाम के साथ एक उपपद होना चाहिए, जिससे शर्म (प्रसन्नता), रक्षा, पुष्टि एवं प्रेष्य (सेवा) अथवा जुगुप्सा का सकेत मिले।1 पारस्कर को छोड़कर किसी अन्य गृह्यसूत्र में ब्राह्मणों का अन्य लोगो के नामो के आगे शर्मा आदि को जोड़ा जाना नहीं लिखा गया है। पाणिनि (600-300 ई0पू0) की अष्टाध्यायी पर पतंजलि (150 ई0पू0 से 100 ई0 के मध्य, कुछ विद्वानों के अनुसार 250 ई0पू0) की वार्तिका (महाभाष्य) में इंद्रवर्मन तथा इंद्रपालित जैसे नाम राजन्य (क्षत्रिय) तथा विश (वैश्यो) के कहे गए हैं (भो राजन्य विशां वेति वाच्यम्ं- महाभाष्य पाणिनि 8/2/83 पर)।2 यम के अनुसार ब्राह्मणों की नामोपाधि शर्मा या देव, क्षत्रियों की वर्मा या त्रात, वैश्यों की भूति या दत्त तथा शूदों्र की दास है, किंतु इस नियम का पालन सदा नहीं पाया गया। तालगुंड अभिलेख में कदंब वंश का संस्थापक मयूर शर्मा नामक ब्राह्मण था, किंतु उसके वंशजो ने क्षत्रियों की भांति वर्मा नामोपाधि धारण की थी।
मध्यकाल के संस्कृत साहित्य मे ंवर्ण विभेदक नामोपाधि रखे जाने के बहुत से उदाहरण मिलते हैं। अर्थतात्विक महत्व भी नामों को इस काल में दिया गया है। आश्वलायन (1/15) गृह्यसूत्र कहता है (पिता) यदि (अपने बालक की) आध्यात्मिक उन्नति चाहता है तो नाम चार अक्षरों का रखा जाना चाहिए।
जाति संयुक्त व्यक्ति नाम रखने की शुरूआत सूत्रकारों ने कर दी थी, पर यह चलन आम नहीं हुआ था। प्राचीन काल में ही नहीं मध्यकाल में भी भारतीयों के आदर्श नायक और नायिकाएं थे। साहित्यकारों ने नायक और नायिकाओं के  उदाŸा गुणों का वर्णन किया, जिससे ऐसे नाम भी व्यक्ति नामकरण में प्रयुक्त होने लगे। नायकों की वीरता और पराक्रम को युद्ध करने वाले व्यक्तियों ने अपना लिया जैसे वीर/बहादुर सिंह, जंगबहादुर सिंह, वीर विक्रम सिंह, महेंद्र विक्रम सिंह, संग्राम सिंह, समर बहादुर, रणवीर, रणबहादुर, बलवीर, रिपुदमन, सर्वजीत, विजय, दिग्विजय, प्रताप, निर्भय, रणजीत, सुरजीत आदि नाम। सिंह उपाधि सबसे पहले राजा मानसिंह को दी गई, जब उन्होंने निहत्थे ही एक वनराज को मार दिया था। उन्हें मुगलिया सल्तनत ने सिंहारि या नरसिंह उपाधि दी गई।
इसी तरह वैश्यों के नामों में समृद्धि और धन सूचक शब्दों का समाहार किया गया जैसे- वसुमित्र, धनमित्र, श्रीपति, लक्ष्मीचंद्र, लखपत (राय), करोड़ीमल, हजारीलाल, अमीरचंद, दौलत राम आदि।
आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र में (19/30-36) में नामों का महत्व नाटकों में नए नए चरित्रों को गढ़ने और विकास करने के रूप में समझा गया है।
जहां तक स्त्री नामों की बात है तो सूत्रकारों ने स्त्री नामों में अर्थ के साथ-साथ सौंदर्यबोध को भी स्थान दिया। इन नामों में उदारता, कोमलता तथा लालित्य मिलता है जैसे प्रियंवदा, अनसूया, वसंतसेना, मंजरी, मधूलिका, मदनिका, कोकिला, कर्पूरमंजरी, चंद्रलेखा, वसुमति, इरावती, पद्मावती, हंसपादिका, यशोमती, माधवी, मालती, यशोधरा, आम्रपाली, पद्मिनी, कुमुदिनी, मदनिका, मदनमंजरी, इंदुमती, सुरदक्षिणा, चारुचंद्रा, वकुलवालिका, मधुकारिका आदि।
ग. मध्यकाल
इस युग में ब्रिटिश साहित्यकार विलियम शेक्सपियर की उक्ति नाम में क्या रखा है आ गई थी पर आर्य परंपरा में यथा नाम तथा गुण की भावना व्याप्त थी। तत्कालीन आर्य परंपरा के व्यक्ति नामों पर इस भावना का प्रभाव कामना के स्तर पर वह साफ देखा जा सकता है।
भक्ति आंदोलन की लोकप्रियता से धर्म-कर्मरत व्यक्ति अपने बच्चों के नाम देवों और देवियों के नामों और उनके चरित्रों पर रखने लगे। ओरछा नरेश मधुकरशाह भगवान कृष्ण के उपासक थे। शिवाजी का नाम शिवाय माता के आशीर्वाद से उनका जन्म होने के कारण पड़ा था। उस समय के शैव, शक्त, वैष्णव, जैन, बौद्ध इत्यादि संप्रदायों के व्यक्ति नाम उनके देव-देवियों के नामों पर रखे गए हैं।
ऐसा कोई दैव नाम कदाचित ही होगा, जिसे व्यक्ति नामों के रूप में धार्मिक प्रकृति के मनुष्य न अपनाते हों। इस पहलू के पीछे मनोवैज्ञानिक कारण भी है कि यदि व्यक्ति नामों के बहाने वह ईश्वर का उच्चारण स्मरण कर लेता है, तो उसे आसुरी शक्तियों का सामना नहीं करना पड़ेगा और देव कृपा सुलभ हो जाएगी। उसके पापो का मोक्ष नामोल्लेख मात्र से संभव हो जाएगा। हिंदू परंपरा में गजेंद्र, मणिका, अजामिल आदि की अनेक कथाएं प्रचलित है। देवकृपा पाने और आसुरी शक्तियों से मुक्ति की कामना से देवों और देवियों के अनाकर्षित या कठोर प्रकृति के नाम भी व्यक्ति नामों के रूप में प्रयुक्त हुए हैं जैसे विरूपाक्ष, रामवृक्ष, रामसागर, रामनिष्ठुर, रामसहज इत्यादि।
आशीर्वाद प्राप्ति की कामाना व्यक्तियों में इतनी बलबती रही कि एक ही नाम दो अथवा तीन ईश्वर नामों पर रखने लगे जैसे रामकृष्ण, शिवनारायण, रामगोपाल, शिवरामकृष्ण, बिन्दुशंकर, हरिशंकर, रामलखन आदि। कुछ नामों में एक ही ईश्वर का पुनः पुनः स्मरण है जैसे हरिनारायण, शिवशंकर, कृष्णमुरारी आदि।
यही नहीं भगवान दंपति को एक साथ व्यक्ति नामों के रूप मे ंरखा जाने लगा जैसे सीताराम, राधेश्याम, राधाकृष्ण, गौरीशंकर, लक्ष्मीनारायण, उमाशंकर, भवानीशंकर, रामशंकर इत्यादि।
महाकाव्य और पुराणों के चरित्रों और नायक/नायिकाओं के नाम पर भी व्यक्ति नाम रखने का प्रचलन लोकप्रिय हुआ। इसकं पीछे भी माता-पिता अथवा शुभचिंतको की भावना रही कि बच्चों में ऐसे गुणों का विकास हो।
घ) आधुनिक युग-
प्राचीन और मध्ययुग की भांति आधुनिक युग में भी माता-पिता अपने बच्चों में आदर्श और सद्गुणों का विकास करने की कामना से नामकरण करते है।ं वे उनमें विनय, प्रताप, विश्वास, सत्य, अभय, विजय, विवेक, विशाल, मनोहर, यशवंत, अतुल, अनूप, अजय, सौम्य, प्रमोद, विनोद, प्रेम, हर्ष, आनंद, मोहन जैसे गुण चाहते हैं और तदनुसार वही शब्द नाम में रखते हैं।
सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के अतिरिक्त व्यक्ति नामकरण के लिए सामाजिक सांस्कृतिक परिस्थितियों भी महत्वपूर्ण कारक है।
1. पारिवारिक पंरपराएं
कुछ घरानों में व्यक्तियों के नाम उनके स्वर्गीय माता-पिता, प्रमाता-प्रपिता के नामो पर रखने की परंपरा पाई जाती है। ऐसा उनकी स्मृतियों को सुरक्षित करने के उद्देश्य से किया जाता है। ग्वालियर के सिंधिया घराने में ऐसे नाम प्रचलित हैं। मराठों में एक अंधविश्वास है कि नामकरण समारोह के दिन बच्चे का रोना तभी बंद होता है जब उसका नाम उसके परिवार के दिवगंत व्यक्ति के नाम पर रखा जाता हैं। ऐसे बच्चों को मराठी में नवकारी कहा जाता है। यदि नाम पुराने चलन का हुआ तो बच्चे को दो नाम दिए जाते हैं। एक वह जो विधि अभिलेखों में अंकित होता है, दूसरा दिवंगत व्यक्ति के नाम पर जो केवल उच्चारण में प्रयुक्त किया जाता है।
कुलदेवता के नाम पर पहले या आखिरी पुत्र का नाम रखा जाता है। आंध्र और हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में भी कुलदेवता अथवा प्रपिता-माता के नाम पर व्यक्ति नामकरण किया जाता है।3 बुंदेलखंड में भी ऐसे नामकरण उन व्यक्तियों के मिलते हैं, जिनके बारे में मान्यता है कि वे अमुक देव-देवी के प्रसाद से जन्म लिए हैं।
2. अंधविश्वासों की भूमिका
ग्रामीणों और अनपढ़ परिवारों में नाम चयन का एक कारण अंधविश्वास का होना भी है। देश भर में अंधविश्वास के कारण व्यक्ति नाम रखे जाते हैं। दक्षिण भारत में कोई गर्भवती स्त्री तालाब, नदी या किसी जलस्रोत से पानी लाते समय सांप के ऊपर से होकर गुजर जाए तो तो उसके बच्चे का नाम नाग के नाम पर रखा जाता है। तमिलनाडू में नागपंचमी के दिन या उसके ठीक अगले दिन पैदा होने बाले बच्चों को नाम में प्रथम पद नाग होता है। बुंदेलखंड में बच्चे जीवित न रह पाने से उनका नाम कड़ोरा, घसीटा, लटूरा, घूरा इत्यादि रखे जाते है।
3. स्व-तुष्टि के उद्देश्य से
मता-पिता जब अपने बालको को सेना या किसी ऐसी सेवा में भेजना चाहते हैं तो उनका नाम पैदा होते ही उसी तरह रख दिया जाता है। हरियाणा और पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे नाम मिलते हैं।
4. महाकाव्यों ओर पुराणों के कतिपय नामों का परिहार
सामान्यतः हिंदुओं में प्राचीन साहित्य से व्यक्ति नाम रखे जाते हैं, किंतु कुछ पुराणों और महाकाव्यों के कुछ चरित्र ऐसे भी हैं जो आतंक, अत्याचार, क्रूरता तथा अन्य कुख्यात गतिविधियों से संलिप्त रहे वे नाम या चरित्र व्यक्ति नामों के चयन में प्रयुक्त नहीं हुए है।
महाकाव्यों के ऐसे चरित्रों की लंबी सूची हैं जो व्यक्ति नामों का आधार नहीं बन सके हैं जैसे महाभारत के दुर्योधन, दुःशासन, धृतराष्ट्र, पांडु, शकुनि, शल्य, जमदग्नि, गांधारी, सैरंध्री, त्रिशला (दुर्योधन की बहन तथा जयद्रथ की पत्नी), जयद्रथ तथा रामायण के रावण, कुंभकर्ण, मेघनाथ, विभीषण (रावण का भाई जिसने भाई के सारे भेद शत्रु राम को बता दिए थे)
इतिहास प्रसिद्ध ऐसे चरित्र भी है जिनके नाम पर व्यक्ति नाम नहीं मिलते हैं जयचंद (जिसने मुस्लिम आक्रमकारी मोहम्मद गौरी की सहायता राजपूत राजा पृथ्वीराज के विरुद्ध की थी) उरई का चंदेल राजा माहिल जिसने अपने बहनोई राजा परमाल के विरुद्ध पृथ्वीराज चौहान का सहयोग किया था। हाल में तैमूर जैसे क्रूर और आततायी मंगोल शासक के नाम पर एक अभिनेता दंपति के पुत्र का नामकरण किए जाने पर लोगों को अच्छा नहीं लगा। सुग्रीव (बालि का भाई), अंगद (पुत्र बालि), जटायु (विंध्य पर्वत शृंखला का आदिवासी प्रमुख), सुबाहु, मारीच (राक्षस), कंस, जरासंध (पुत्र बृहद्रथ, मगध राजा)
महाकाव्य पुराण प्रसिद्ध कुछस्त्री पात्रों के नाम भी व्यक्ति नामों के आधार नहीं बनते जैसे कैकेयी, मंथरा, सूर्पणखा, मंदोदरी, ताड़का, पूतना।
इसी तरह कुछ ग्रह/उपग्रहों के नामों पर भी व्यक्ति नाम नहीं रखे जाते है जैसे शनि, शुक्र, राहु, केतु। शुक्र का नाम राक्षस के गुरू शुक्राचार्य के कारण नहीं रखा जाता है।
संदर्भ
1. क. मांगल्यं ब्राह्मणस्यस्यात् क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य च जुगुप्सितम्।। 2.31
ख. शर्मवद् ब्राह्मणस्यस्याद्राज्ञों रक्षा समन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्।। 2.32 मनुस्मृति
2. धर्मशास्त्र का इतिहास भाग एक, डॉ पांडुरंग वामन काणे, अनुवाद अर्जुन चौबे काश्यप, पृ0 200, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ 1992
3. पैनोरमा आफ इंडियन एंथ्रोपोनॉमी, डी डी शर्मा, पृ0 97, मित्तल पब्लिकेशन नई दिल्ली 2005
-245 शब्दार्णव, नया पटेल नगर कोंच रोड,
उरई (जालौन) उ0प्र0 मोबाइल 9236114604

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