Saturday, May 27, 2017

नाम परिभाषा और स्वरुप

नाम परिभाषा एवं स्वरूप
राकेश नारायण द्विवेदी
मनुष्य की वाक् शक्ति के विकास में सर्वप्रथम वस्तुओं का नामकरण हुआ। ऋग्वेद में उल्लेख है बर्हस्पते प्रथम वाचो अग्रं यत परैरत नामधेयंदधानाः। नाम ही वह माध्यम बने जिनसे व्यक्ति ने अज्ञात और अप्रकट को प्रकट किया। नाम के बिना रूप का कोई महत्व नहीं है।
‘नाम’ की व्युत्पत्ति नम् $ णिच् $ ड से की गई है। नाम- म्ना $ मनिन। म्ना धातु अभ्यास करने के अर्थ में होती है। अतएव ऐसा शब्द जो किसी को पुकारने के लिए पुनः-पुनः प्रयुक्त हो, नाम कहलाता हैं। म्ना और मैन की रिश्तेदारी बनती है। इससे प्रतीत होता है व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त शब्द ही सर्वप्रथम नाम कहलाए। किसी शब्द विशेष से जब वस्तु, व्यक्ति या समूह का निर्देशात्मक ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसे नाम कहते हैं। नाम से हम सूचना या निर्देश ही प्राप्त करते हैं। वेदांतियों के मत से पूर्ण सत्य किसी शब्द में व्यक्त नही हो सकता। इसीलिए भगवान से अधिक उनका नाम महत्वपूर्ण कहा गया। नाम महामंत्र है। नाम का जतन’ करने से वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है‘, जैसे रत्न के जानने से उसका मूल्य। वहीं आगमिक मत के अनुसार कहा गया कि जब कोई नाम बोला जाता है तब यह निश्चित ही किसी सत्ता को व्यंजित करता है। यह पूर्ण सत्य का प्रत्यक्षीकरण है। वस्तु और समूह नामों को जब सामाजिक स्वीकृति मिलती है, तब वह रूढ़ हो जाते है फिर कोई यदि गुलाब को किसी अन्य नाम से पुकारेगा भी तो उसकी पहचान अन्य नाम से तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि वह अन्य नाम रूढ़ न हो जाए। अर्थात् जनसामान्य में प्रचलित होकर सर्वमान्य होने पर ही वस्तु, स्थान और समूह नाम स्वीकृत होते हैं। व्यक्ति नाम माता-पिता अथवा परिवेश द्वारा रखे जाते है, लेकिन उनमें ‘म्नायते अभ्यस्यते नम्यते अर्थोऽनेन वा’ के अनुरूप बार-बार दोहराने की क्रिया सम्मिलित रहती है। अर्थात् जिससे किसी को पुकारा जाए या अर्थ ग्रहण किया जाए। नम्यते यानि प्रवृत होना, झुकना या डूबना। अभ्यस्यते यानि ध्यानाकर्षण, अभ्यास (नम यानि पुकारना)। नाम का तात्पर्य व्यक्तिवाचक संज्ञा से है, जिसे अंग्रेजी में प्रोपर नाम कहा गया है। व्यक्ति ‘एक’ का वाचक है, जो व्यक्ति, स्थान अथवा वस्तु सभी को समाविष्ट करता है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में दी गई परिभाषा के अनुसार नाम वह शब्द अथवा लघु शब्द समूह है जो किसी समूह में एक विशेष और समूचे अस्तित्व अथवा सत्ता की ओर संकेत करता है। यह आवश्यक नहीं कि वह उसके गुण विशेष को भी इंगित करें।
विद्वानों का एक वर्ग नामों को सार्थक और स्वगुणार्थक मानता है तो दूसरा वर्ग उन्हें निरर्थक एवं संकेतार्थक। नाम में संकेतार्थकता अवश्य होती है, इसलिए वह सार्थक है। नाम स्वगुणार्थक भले न हो, परंतु ये निरर्थक कदापि नहीं होते। यशवंत नाम का व्यक्ति यशवाला न हो, परंतु उससे एक व्यक्ति का बोध होता है जो एक विशिष्ट संदर्भ में अभिज्ञापित हो सकता है। साथ ही वह अपने नामकर्ता या परिवार अथवा समाज के सांस्कृतिक स्तर की ओर इंगित करता है। यास्क, पतंजलि, भर्तृहरि इत्यादि मनीषी नाम के इस सांदर्भिक अर्थ को स्वीकार करते हैं। किसी काल विशेष के नामों में लोगों की तत्कालीन प्रवृत्तियां, रीति रिवाज, उनकी संस्कृति निहित रहती है। यदि नाम को मात्र कल्पना ही माने तो कल्पना की आधार भूमि तत्कालीन संस्कृति ही होगी। अश्रुत, अज्ञात एवं निरर्थक नाम का प्रयोग मानव की कल्पना में संभव नहीं है। सिगमंड फ्रायड इसीलिए नाम को व्यक्ति के मन का एक भाग मानता है। कुछ लेखक नाम को पावर कहते है। अर्थ प्रायः परिवर्तनशील है किंतु शब्द नित्य माना गया है। शब्द का अर्थ से संबंध अनित्य होता है। शब्द के अर्थ में परिवर्तन होता रहता है। अर्थ से साक्षात् संबंध होने से और उसमें परिवर्तन होने के कारण नाम अनित्य हैं, यद्यपि शब्द के रूप में उसे भी नित्य माना जा सकता है। भद््दे नाम वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व पर भले ही उसका प्रभाव सहजता से न जाना जा सके, परंतु नामोच्चारण के अवसर पर उसे संकुचित होते हुए प्रायः सभी ने देखा होगा।
नामों में स्वगुणार्थकता न होने के कारण उन्हें निरर्थक मानने वाला वर्ग भी है। विलियम शेक्सपियर (1964-1616) ने मानव जीवन की शाश्वत भावनाओं को बड़ी कुशलता से चित्रित किया है। रोमियो एंड जूलियट शेक्सपियर के प्रारंभिक नाटकों में है। नाटक की कथावस्तु का सार यह है- जुलाई का महीना था। बसंत ऋतु अपनी जवानी पर थी। इटली के वेरोना नगर के एक कुलीन परिवार से मांटेग्यू के घर मुखौटा नृत्य का आयोजन हुआ था, यह रोमियों का अपना घर था।
नृत्य के अवसर पर केपुलेट परिवार की जूलियट भी रोमियों के घर आई हुई थी। इसी नृत्य के दौरान दोनो की आंखें चार हो गई और ह्नदय की गहराई में उतर गई। रोमियों अपने को न रोक सका। उसने जूलियट के घर जाकर उसके निजी कक्ष में पहुंचकर अपने प्रेम का इजहार किया। जूलियट भी रोमियो पर फिदा थी। वह उसे पाने के लिए तड़प रही थी, किंतु दोनो परिवारों के बीच वर्षों से चली आ रही शत्रुता से रोमियो और जूलियट की शादी संभव नहीं थी। दोनों ने ऐसे में चुपके से एक गिरजाघर में जाकर शादी कर ली, लेकिन दुर्भाग्य से दोनो परिवारों में जंग छिड़ गई।
लड़ाई में रोमियों के एक करीबी दोस्त की मौत हो गई बदले में रोमियो ने भी जूलियट के चचेरे भाई की हत्या कर दी। रोमियों को देश के बाहर जाने की सजा मिली। इसी बीच जूलियट के पिता ने उसका विवाह पेरिस के काउंट के साथ निश्चित कर दिया। रोमियो नगर से निष्काषित जीवन जी रहा था। वह जगह-जगह जंगल-जंगल भटक रहा था और जूलियट-जूलियट रट रहा था। रोमियो की अनुपस्थिति में जूलियट उदास थी। शादी से बचने के लिए वह नींद वाली दवाई पीकर सो गई ताकि सबको लगे वह मर चुकी है।
रोमियो को इस नाटक के बारे में कुछ पता नहीं था। जूलियट के मरने की खबर पाकर वह वहां पहुंचा। उदास मन से उसने जूलियट को अपना आखिरी चुंबन दिया और जहर पीकर अपनी जान दे दी। जब जूलियट का नशा उतरा तो सामने अपने प्रेमी की लाश देखकर वह सन्न रह गई। उसने रोमियो के छुरे से ही खुद को मार डाला। दोनों ने एक साथ दुनिया को अलविदा कह दिया। दोनो परिवार उस समय एक हुए जब प्रेमी युगल का जोड़ा दुनिया से उठ चुका था।
इस नाटक की ही पंक्ति what's in a name है, जिसे नाम चर्चा के समय बहुत अधिक उद्धृत किया जाता है। इसका संदर्भ जानना आवश्यक है। नाटक के द्वितीय अंक के द्वितीय दृश्य में जूलियट रोमियो के संबंध में कहती है -
जूलियट- आह रोमियो! क्यों हो तुम रोमियों! अपने पिता को अस्वीकृत कर दो, अपना यह नाम त्याग दो। यदि तुम ऐसा नहीं कर सकते तो तुम मेरे प्रेम से प्रतिश्रुत हो और फिर मैं कैपुलेट नहीं रहूंगी। रोमियों (स्वगत)- क्या मै और सुनता रहूं या इसका उत्तर दूं। जूलियट- तुम्हारा नाम ही तो मेरा शत्रु है, तुम तुम ही हो, तुम मांटैग्यू नहीं हो। क्या है मांटैग्यू। न हाथ, न पांव, न बाहु, न आनन मनुष्य का कोई भी तो अंग नहीं। कोई और नाम रख लो न?
नाम में है ही क्या यदि हम गुलाब को किसी और नाम से पुकारते, तो तब भी उसमें इतनी ही सुगंध आती। यदि रोमियो को इस नाम से न पुकारा जाता, तब भी रोमियो तो वही रहता। इस नाम के बिना भी उसकी यह बहुमूल्य पूर्णता तो अभावग्रस्त न होती। रोमियो! छोड़ दो अपना यह नाम। नाम में तुम्हारा कोई भाग नहीं, इस नाम के बदले मुझ संपूर्ण को ले लो।
रोमियो- तुम्हारा वचन ही मेरा प्रमाण हो। प्रेम ही तो मुझे चाहिए। मैं पुनः नामकरण संस्कार कराऊंगा। अब मैं कभी-भी रोमियों नहीं रहूँगा।
‘नाम में क्या रखा है’ कहते समय शेक्सपियर की यह बात भाषा विज्ञान की दृष्टि से बिल्कुल गलत थी कि गुलाब को अगर और नाम से पुकारें तो उसकी खुशबू चली नहीं जाऐगी। और किसी नाम से पुकारने पर गुलाब की पहचान ही नहीं रह पाएगी, क्योंकि गुलाब नाम उस फूल के लिए सामाजिक मान्यता प्राप्त कर चुका है। हम गुलाब को अन्य जो भी कहें, दूसरे व्यक्ति उसे कैसे समझ पाऐंगे।
दूसरी बात वस्तुओं के नाम और व्यक्तियों के नाम एक ही तरह के नहीं होते। वस्तुओं के नामों के लिए सामूहिक स्वीकृति अनिवार्य है, वहीं व्यक्तियों के नाम परिवार की संस्कृति के दिग्दर्शक होते हैं।
शेक्सपियर की यह उक्ति वस्तुतः नाम और शब्द को एक मानने के कारण कही गई। यह ठीक है कि नामों की निर्मिति हमारे चिरपरिचित शब्दों से होती है, परंतु शब्द जब एक बार नाम के रूप में प्रयुक्त होते हैं, तब वे शब्द नहीं रह जाते। आक्सीजन और हाइड्रोजन के संयोग से जल बनता है। जल में उक्त दोनों तत्वों की अवस्थिति तो है परंतु जल बनने के पूर्व जैसी नहीं। अतः जल का परीक्षण विश्लेषण उसके निर्माणक तत्वों के विश्लेषण परीक्षण से भिन्न होगा, इसमें कोई संदेह नहीं। इसीलिए शब्दों का अनुवाद अन्य भाषाओं में हो जाता है किंतु नामों को हमें यथारूप सभी भाषाओं में ग्रहण करना होता है। एक नाम से एक ही व्यक्ति या वस्तु का बोध होता है, परंतु जब वह नाम शब्द ध्वनि मात्र होता है तब वह व्यक्तिवाचक से जातिवाचक बन जाता है।
इस उक्ति के समर्थक कहतें है कि मानव मनोविज्ञान नाम को हलका मानता हैं, इसलिए शेक्सपियर ने यह बात कही, लेकिन नामकरण के प्रति व्यक्ति की सजगता किसी से छिपी हुई नहीं है। नामकरण के समय मनुष्य के मन में बहुत सी सांस्कृतिक स्थितियां विद्यमान रहती है। चाहे वह किसी तरह का नाम रखे। शेक्सपियर के इस नाटक में ही नाम बदलने का मनोविज्ञान समझा जा सकता है। रोमियों और जूलियट के परिवारों में परस्पर शत्रुता थी। वे उस समस्यामूलक अतीत से अपना छुटकारा चाहते थे। जूलियट से प्रेम के कारण रोमियो अपना नाम बदलने के लिए तैयार भी हो जाता है। ऊपर के संवाद में दोनों प्रेमियों के परिवार नाम केपुलेट और मांटैग्यू के प्रति ही विरक्ति दिखाई पड़ती है। रोमियो के लिए तो जूलियट रोमियो नाम से ही पुकारती है। इस प्रकार नाम को शेक्सपियर की इस कहानी में भी संवेदनशील ही समझा गया है।
नाम और शब्द को एक मानने का कारण यह भी रहा है कि इन दोनों मूलरूपों का अध्ययन व्युत्पत्ति के माध्यम से किया जाता रहा है। वस्तुतः व्युत्पत्ति के लक्ष्य एवं उसकी प्रणालियों ने दीर्धकाल तक नामों को उन शब्दों के रूप में घटाने का प्रयास किया है, जो वे नाम बनने के पूर्व थे। इस प्रकार नामों के संकेतार्थ एवं वैशिष्ट्य को सर्वथा भुलाने का प्रयास किया गया है। जैसा सैफ अली और करीना कपूर के बच्चे का नाम तैमूर रखे जाने पर अर्थ देखा गया कि अर्थतत्व के रूप में बहुत से लोग तैमूर शब्द का अर्थ लोहा लेते रहे, जबकि देश का बहुत बड़ा वर्ग इसे क्रूर मंगोल शासक तैमूर लंग से अनुकृत मानकर नामकर्ता की मानसिकता को दोषी बता रहा है। फेसबुक पर शबनम शुक्ला कहती है नाम तलवार सिंह है, पर क्या वह आदमी तलवार है। ऐसे भी नाम होते है, जिन्हें हम निरर्थक कह सकते हैं जैसे पप्पू गुड्डू, गोलू, मुन्ना, पुल्लू, सट्टू इत्यादि। परंतु नाम रूप में वे व्यक्तियों की भावना से जुड़कर एक विशिष्ट अर्थ की प्रतीति कराते हैं, जिसे हम नामवैज्ञानिक अर्थ कह सकते हैं। नाम का व्युत्पत्ति मूलक अन्वेषण ही नाम विज्ञानी का कार्य नहीं है, वह तो प्रत्येक नाम वैज्ञानिक अध्ययन का प्रारम्भिक सोपान है। प्रयोगवाद के नामकरण के संबंध में नामवर सिंह ने कहा है कि नामकरण प्रायः औचित्य-अनौचित्य का ध्यान रखे बिना ही हो जाता है। इसलिए प्रयोगवाद नाम निरर्थक और अपर्याप्त होते हुए भी हिंदी साहित्य के इतिहास में अब स्थापित तथ्य है। इससे अब एक निश्चित काल प्रवृत्ति का बोध होता है, प्रचलन से इसमें पर्याप्त अर्थवत्ता आ गई।
नाम के संबंध में डॉ भीमराव अम्बेडकर ने भी यही माना है कि सबसे पहले नाम के अर्थ का प्रश्न उत्पन्न हो।
इसका अर्थ है कि नामी के बारे में पढ़ने-सुनने वाले व्यक्ति पर उसका पहला प्रभाव नाम से ही जाता है। त्रिधा जिज्ञासा में नाम धाम और काम सम्मिलित है। नाम जिज्ञासा सर्वप्रथम है।
नाम और रूप का संबंध निरूपण करते हुए विद्याभूषण विभु ने लिखा है- नाम कल्पित एवं कृत्रिम है तो रूप प्रकृति-प्रदत्त। एक अदृश्य है तो दूसरा प्रत्यक्ष। दोनों में कला-कौशल है। एक में चातुर्य है, दूसरे में सौंदर्य। वाणी नाम का अनुष्ठान करती है, श्रवण उसका अभिनंदन करते हैं। रूप से नेत्रों का रंजन होता है। दोनों अंतकरण के आकर्षण-विकर्षण के कारण होते हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व चिरकाल तक स्थिर नहीं रह सकता। अनामी रूप या अरूपी नाम कहीं न मिलेगा। परंतु नाम में एक विशेषता यह है कि वह गतिवान है।
नाम व्यक्तिगत होते हुये भी सामाजिक अधिक है। अतः नामकरण सामाजिक प्रक्रिया है। मानव जिस समाज में रहता है। उस समाज की संस्कृति (रीति-रिवाज, आचार-विचार, परंपरा आदि) से उसका प्रभावित होना स्वाभाविक है। मानव जीवन के बहुविध पक्षों से ज्ञान की अनेक शाखाएँ आवश्यकतानुसार निर्मित हुई है। जब जिस पक्ष की प्रबलता हुई, मानव मन उसी के अनुरूप कार्य करने का आदी रहा है। नामकरण भी इसका अपवाद नहीं है। नामकरण में प्रभावी तत्व का अध्ययन ही नाम विज्ञान का विषय है। नाम विज्ञान (नामों का वैज्ञानिक अध्ययन) से तात्पर्य है उन महत्वपूर्ण कारकों की खोज, जिनसे नाम निष्पन्न होता है। नाम विज्ञान को अंग्रेजी में Onomastics कहा जाता है, जिसमें सब प्रकार के नामों का अध्ययन किया जाता है। नाम विज्ञान व्युत्पत्ति शास्त्र से संबंधित है, पर उससे अपना पृथक अस्तित्व रखता है। व्यक्ति नामों के वैज्ञानिक अध्ययन को व्यक्ति नाम विज्ञान कहा गया है।
इस अध्ययन को यथासंभव इतिहास, भूगोल, नृतत्व शास्त्र, दर्शन शास्त्र, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, भाषा विज्ञान, लोक साहित्य, साहित्य, राजनीति, अर्थ इत्यादि के परिप्रेक्ष्य में संपन्न किया जाता है। नाम विज्ञान की प्रकृति अंतरविषयी अध्ययन की है।
नामों के पृथक अध्ययन की आवश्यकता अनेक कारणों से प्रतीत होती है। नामों के प्रकृति वैचिन्न्य में प्रयुक्त शब्दों के कारण यह भाषिकी का विषय प्रतीत होता है। परंतु शब्दार्थ से परे नामों का संकेतार्थ होता है, जिसका तात्पर्य है उस शब्द का भाषिक व्यवस्था से बाहर व्यक्तियों, वस्तुओं, स्थानों, गुणों, प्रक्रियाओं एवं क्रियाकलापों के मध्य संबंध। अतः नाम विज्ञान का अध्ययन अतिभाषिक स्तर पर करना इसकी आवश्यकता है। यह अतिभाषिकीय अध्ययन अर्थतात्विक अध्ययन से भिन्न है। अर्थविज्ञान शब्द से प्रारंभ होकर वस्तु का अन्वेषण करता है। नाम विज्ञान वक्ता की उस स्थिति से संबंधित है, जिसमें वक्ता अपने विचारों को भाषा के सुव्यवस्थित शब्द भंडार के माध्यम से व्यक्त करता है। अर्थविज्ञान का संबंध श्रोता की उस स्थिति से है, जब उसे विभिन्न अर्थ वाले शब्दों को सुनकर प्रासंगिक अर्थ का चयन करना होता है। नाम विज्ञान एवं अर्थविज्ञान में परस्पर एक अंतःसूचनात्मक प्रक्रिया चलती रहती है।
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