Tuesday, September 13, 2016

पाठालोचन की विविध प्रविधियां

पाठालोचन की विविध प्रविधियां
डॉ राकेश नारायण द्विवेदी
आजकल साहित्यिक क्षेत्र में इस बात का वैज्ञानिक अनुसंधान या विवेचन कि किसी साहित्यिक कृति के संदिग्ध अंश का मूलपाठ वास्तव में क्या और कैसा रहा होगा, पाठालोचन या टैक्स्चुअल क्रिटिसिज्म कहलाता है। इसमें किसी ग्रंथ के मूल और वास्तविक पाठ का छानबीन करके निर्धारण किया जाता है। पाठालोचन मुख्यतः प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों की अनेक प्रतिलिपियों अथवा ऐसी साहित्यिक कृतियों के संबंध में होता है, जिनका प्रकाशन तथा मुद्रण स्वयं लेखक के संज्ञान में न हुआ हो। इसे अंग्रेजी में इस तरह कहा जाता है कंपैरिजन आफ ए पार्टिकुलर टेक्स्ट विद रिलेटिड मैटेरियल्स इन आर्डर टु इस्टेब्लिश आथेंटिसिटी।
पाठालोचन तथा साहित्यालोचन को कभी-कभी एक ही समझने की भूल कर दी जाती है, किंतु लोकभारती प्रकाशन से सितंबर 2008 में प्रकाशित डॉ कन्हैया सिंह ने अपनी पुस्तक ‘पाठ संपादन के सिद्धांत’ में लिखा है पाठालोचक जहां प्राचीन लेखकों एवं कवियों के मूल पाठ के निर्धारण मात्र का प्रयास करते हैं, वहीं साहित्यालोचक उस निर्धारित पाठ के आधार पर उस लेखक या कवि का मूल्यांकन करते हैं तथा उसकी विशेषताओं, उसके गुणों एवं दोषों का उद्घाटन करते हैं। इस प्रकार जहां पाठालोचन का कार्य समाप्त होता है, वहां से साहित्यालोचन का कार्य प्रारंभ होता है। पाठालोचन के पूर्व साहित्यालोचन का कार्य उस विशेष कवि या लेखक के संदर्भ में असंभव होता है। जब तक कवि या लेखक की रचनाओं का मूल पाठ निर्धारित नहीं हो जाता, तब तक उसकी कृति के संबंध में किस आधार पर मत व्यक्त किया जा सकता है।
ग्रंथों की भूमिकाओं में पाठ तय करने के लिए प्रयुक्त साधनों, सामग्रियों, सिद्धांतों एवं विधियों आदि का विवरण दिया जाता है। पाठालोचन के दो स्तर हैं। पहले स्तर पर त्रुटियों का पता लगाया जाता है, जबकि दूसरे स्तर पर समानता के आधार पर मूल पाठ का निर्धारण किया जाता है। शोध प्रमाण पर आधारित होता है, इसलिए पाठालोचन शोध प्रविधि का महत्वपूर्ण हिस्सा है। डॉ सत्यकेतु सांकृत ने कहा है कि मूल पाठ से प्रतिलिपि करने पर लगभग तीन प्रतिशत तक अशुद्धि रहने की संभावना रहती है। इस प्रकार जब प्रतिलिपियों से प्रतिलिपियां तैयार की जाती हैं तो अशुद्धियों के बढ़ते रहने की संभावना बनी रहती है। वरिष्ठ आलोचक नलिन विलोचन शर्मा ने इसे तात्विक शोध की संज्ञा दी है।
पाठालोचन की समस्या उन्हीं कृतियों को लेकर होती है, जिनके लेखकों ने अपने सामने कृति का प्रकाशन नहीं करा पाया है। ऐसी कृतियां, जिनका प्रकाशन लेखक या कवि के उत्तरवर्तियों द्वारा कराया गया है, उनमें पाठ का अंतर हो जाता है। सबसे अधिक समस्या प्राचीन कृतियों को लेकर है, विशेषतः जिनसे समाज वैज्ञानिक विश्लेषण करने की दिशाएं खुलती हों। प्रायः हिंदी साहित्य की आदिकालीन और मध्यकालीन साहित्यकारों की कृतियां इस परिधि में आती हैं। संस्कृत ही नहीं सभी साहित्यिक भाषाओं की बहुत सी कृतियां पाठालोचन की समस्या से अंतर्ग्रस्त हैं। मनुस्मृति के बहुत से पाठ मिलते हैं। इसमें कुछ लोगों ने अतिशय और आपत्तिजनक उक्तियां एवं श्लोक जोड़कर विवादित कर दिया है। जो प्राचीन कृति जितनी अधिक चर्चित और समादृत होती है, वह पाठभेद से उतनी अधिक ग्रस्त रहती है। इस दृष्टि से  रामचरितमानस पाठालोचन की समस्या से बहुत अधिक घिरी हुई है। रामचरितमानस को पाठालोचन और साहित्यालोचन दोनों कसौटियों पर कसा गया है। अब भी इसकी अनेक चौपाइयों का अर्थ अपने-अपने ढंग से किया जा रहा है। पाठभेद व मानस व्याकरण सहित श्री रामचरितमानस के निवेदन में हनुमानप्रसाद पोद्दार ने लिखा है ‘जितने पाठभेद इस ग्रंथ के मिलते हैं, उतने कदाचित् किसी प्राचीन ग्रंथ के नहीं मिलते। इससे इसकी सर्वोपरि लोकप्रियता सिद्ध होती है।’ कारण स्वरूप इस निवेदन में ही श्री पोद्दार लिखते हैं ‘पूज्य गोस्वामीजी के हाथ की लिखी हुई पूरी प्रामाणिक प्रति प्रयास करने पर भी न मिल सकने के कारण शुद्ध पाठ का दावा हम लोग नहीं कर सकते...........पाठ के संबंध में हमें केवल इतना ही निवेदन करना है कि जो कुछ सामग्री हमें प्राप्त हो सकी, उसका हम लोगों ने अपनी समझ से ईमानदारी के साथ उपयोग किया है। हमारा यह आग्रह नहीं है कि भूल समझ में आने पर भी आगे यही पाठ रखा जाय।’ ध्यातव्य है कि ऐसी कृतियों के प्रक्षिप्त पाठ उसकी भाषा शैली और कथ्य की तारतम्यता के कारण अलग आभास कराते हैं, किंतु यह पहचान सबके बस की भी तो नहीं। जो बहुश्रुत और बहुज्ञ पाठक होगा, वही इन प्रक्षेपांशों की पहचान कर पाएगा।
वर्तमान में लेखन कार्य को प्रकाशित कराने के लिए बहुत सुगमता हो गई है। तकनीकी के आविष्कार और उसके क्रमशः विकास के बाद थोड़े समय में ही अल्प श्रम में भाषा लिपि बद्ध होने लगी है। कभी कृतिकारों ने अपने हाथ से अपना ग्रंथ लिखा और कभी बोलकर लिखवाया। प्रतिलिपि निर्माण के क्रम में प्रमादवश भूलें होती रहीं, होती भी हैं। अगले प्रतिलिपिकार ने पिछली भूल को यथावत अपनी प्रति में जोड़ दिया। कभी-कभी जानबूझकर प्रति में प्रक्षेप हुए। मूल प्रति जब नष्ट हो गई और उसकी निकटवर्ती प्रतिलिपियां भी अनुपलब्ध हो गई तो प्राप्त प्रतियों के पाठों में इतना वैषम्य और विरोध मिलने लगता कि रचनाकार के मूलपाठ की कल्पना भी दूभर हो गई। आजकल फेसबुक पर अपनी पोस्ट का संशोधन करने की सुविधा हो गई है, यही नहीं, उस संशोधित रूप से पहले की पोस्ट देखने की भी सुविधा यहां मिलती है। किसी मुद्रित रूप में यह सुविधा नहीं मिल सकती। वहां परिष्कृत रूप ही प्राप्त होता है और अगली बार फिर अनुसंधाता का परिष्कृत या संशोधित रूप जुड़ जाता है। यह स्थिति सभी भाषाओं के मुद्रित रूपों के साथ हुई, किंतु विभिन्न प्रतियों के पाठों में मिलने वाले अंतर एक सरणि के नहीं होते। अलग-अलग रचनाओं की पाठ-परंपराओं का अपना वैशिष्ट्य होता है। यह पुनः कहना अनुपयुक्त न होगा कि जो रचना जितनी लोकप्रिय होती है, उसकी उतनी ही अधिक प्रतिलिपियां होती हैं और उनके पाठ उतने ही अधिक उलझन भरे होते हैं।
पाठानुसंधान की विविध प्रविधियां कार्ल लकमैन से लेकर डीयरिंग तक एक ही मूल सिद्धांत पर विकसित हुई हैं, जो स्वविवेक एवं तर्कों तथा अनुभवों पर आधारित हैं। इन विद्वानों में परस्पर विरोध नहीं, प्रत्युत एक विकास क्रम दृष्टिगोचर होता है। इनका संक्षिप्त पर्यावलोकन करना इस आलेख की विषय वस्तु का अंश ही है।
लकमैन ने पाठालोचन की जिस पद्धति को प्रचलित किया, उसे वंशानुक्रम पद्धति जेनियोलॉजिकल मेथड कहा जाता है। इस प्रणाली ने बड़ी लोकप्रियता प्राप्त की। इस पद्धति का सिद्धांत है कि जिन प्रतियों में एक सी पाठ विकृतियां मिलती हैं, उनकी आदर्श या पूर्वज प्रति एक ही होती है और जहां समान पाठ-विकृतियां न भी मिलें, पर विशेष पाठों की उपलब्धि में प्रतियां समान हों, उनकी पूर्वज प्रति भी एक होती है। जहां विशेष पाठ भी न हां और प्रतियां समान पाठों में ही समान हों, उनकी एक पूर्वज प्रति होती है। इस प्रविधि के अनुगमन द्वारा प्राचीनतम पाठ-परंपरा की प्रतियों का पता लग जाता है और निश्चित हो जाता है कि कौन पूर्ववर्ती पाठ है और कौन परवर्ती। यह कार्य देखने सुनने में आसान लगता है, पर व्यावहारिक स्तर पर पाठानुसंधाता को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यह विधि बड़े सरल पाठ संबंधों की स्थिति में सुविधाजनक एवं कारगर हो जाती है, पर जटिल पाठ संबंधों में अनुसंधाता को अपनी स्थापनाओं और तर्कों का सहारा लेकर चलना पड़ता है।
हेनरी क्विण्टन ने इस प्रणाली को आगे बढ़ाया। इन्होंने प्रतियों के शाखा निर्धारण हेतु सिद्धांत दिया कि यदि एक प्रति का पाठ दूसरी से मिलता है, फिर वही पाठ तीसरी प्रति से मिलता है और कुछ अंश तक वह दोनों से मिलता है, पर विपरीत क्रम में वह फलशून्य या अर्द्धशून्य मिलता है तो प्रथम प्रति या तो द्वितीय और तृतीय दोनों की आदर्श प्रति है और ये दोनों एक दूसरे में से किसी की आदर्श प्रतियां नहीं हैं अथवा प्रथम प्रति द्वितीय एवं तृतीय में से एक की प्रतिलिपि और दूसरी की आदर्श प्र्रति होगी।
आगे चलकर सर वाल्टर ग्रेग ने बताया कि एक प्रकार की प्रतियां जो परस्पर समान हैं, पर दूसरे प्रकार की परस्पर समान प्रतियों से भिन्न हैं; उनके अलग-अलग समान पूर्वज होते हैं। अतः पाठों की समानता से पूर्वज प्रतियों के सुनिश्चित हो जाने की कोई नपी-तुली प्रविधि नहीं है।
आर्किबैल्ड हिल ने प्रतिपादित किया कि जहां प्रतियों के पाठ संबंध एकाधिक प्रकार से स्थापित हो सकते हैं, वहां उन संबंधों के महत्व को आकलित करने से पाठ समस्या सरल हो जाती है।
अमरीकी प्रोफेसर विण्टन ए0 डीयरिंग ने अपनी प्रविधि को उपर्युक्त सभी प्रविधियों से विशिष्ट बताते हुए उसे ‘पाठ विश्लेषण’ कहा है। उन्होंने ‘प्रति’ और ‘पाठ’ के अंतर को ध्यान में रखते हुए प्रति-परंपरा और पाठ-परंपरा को दो वस्तुएं प्रतिपादित किया। प्रति द्वारा प्रदत्त पाठ एक मानसिक तथ्य है एवं पाठ प्रदत्त करने वाली प्रति एक शारीरिक क्रिया है। प्रतियों में सुरक्षित पाठ और पाठ का संवहन करने वाली प्रतियां दोनों हीं, रचना की पाठ-परंपरा की स्थिति निर्धारण में सहायक होती है। एक वाक्य को उन्होंने इसके उदाहरण में प्रस्तुत किया है कि यदि एक प्रति में पाठ है- ज्ीम ुनपबा इतवूद विग रनउचमक वअमत जीम सं्रल कवह और दूसरी प्रति में यह पाठ इस रूप में है- ज्ीम ुनपबा इतवूद लोमड़ी का चित्र रनउचमक वअमत जीम सं्रल कवह कुत्ते का चित्र; तो प्रतियों में अंतर होते हुए भी पाठ एक ही है। इस प्रकार डीयरिंग ने पाठ की परंपरा को प्रतियों की परंपरा से भिन्न करते हुए, प्रथम का विशेष महत्व प्रतिपादित किया। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती पाठानुसंधान के आचार्यों की प्रविधियों के प्रति ऋण स्वीकार करते हुए उनकी महत्ता को भी माना है।
प्रोफेसर डीयरिंग की यह प्रविधि वैज्ञानिकता के समीप है, किंतु मेरी राय में प्रति-परंपरा को विशेष महत्व देने की आवश्यकता नहीं है। ंयथास्थान जिसकी आवश्यकता पुष्ट जान पड़ी, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, अन्यथा लोक विश्रुत बहुत सी स्थापनाएं और निष्कर्ष गौड़ हो जाएंगे, जो बहुत बार शास्त्रोक्त परंपरा अर्थात् प्रति-परंपरा को ही पुष्ट करते हैं। यहां रामचरितमानस से एक उदाहरण देना उपयुक्त होगा। किष्किंधाकांड दोहा क्रमांक दो का गीताप्रेस प्रति पाठ है-
एकु मैं मंद मोह बस कुटिल हृदय अज्ञान। पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान।।
किंतु पाठ-परंपरा और कई प्रति-परंपराओं में यह दोहा इस प्रकार चलता है-
एक मंद मैं मोहबस कुटिल हृदय अज्ञान। पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान।।
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी
गांधी महाविद्यालय, उरई
मोबाइल 9236114604

No comments:

Post a Comment