Tuesday, September 13, 2016

क्षेत्रीय भाषाएँ और उनका न्यायालयों में प्रयोग



क्षेत्रीय भाषायें और उनका जिला/उच्च न्यायालयों में प्रयोग
डा राकेश नारायण द्विवेदी

भारत के संविधान के अनुच्छेद 348(2) में कहा गया है, राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति लेकर हिंदी भाषा या राज्य के सरकारी प्रयोजनों के लिये प्रयुक्त हो रही अन्य भाषा को उच्च न्यायालय की भाषा के रूप में प्राधिकृत कर सकता है। यद्यपि यह प्रावधान ऐसे उच्च न्यायालय द्वारा पारित किसी निर्णय, डिक्री या आदेश पर लागू नहीं होंगे।
किंतु इस संवैधानिक प्रावधान की उपधारा (3) के आधार पर राजभाषा अधिनियम की धारा 7 के अनुसार एक राज्य का राज्यपाल निर्धारित किये गये दिनांक से राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से अंग्रेजी के अतिरिक्त हिंदी या राज्य की राजभाषा को राज्य के उच्च न्यायालय में पारित होने वाले निर्णय, डिक्री या आदेश के लिये प्राधिकृत कर सकता है। इस प्रावधान के अंतर्गत हिंदी या अन्य राजभाषाओं में पारित निर्णय, डिक्री या आदेश उच्च न्यायालय प्राधिकारी द्वारा कराये गये अंग्रेजी अनुवाद के साथ जारी किये जायेंगे।
इन प्रावधानों के आधार पर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान ने अपने-अपने उच्च न्यायालयों की भाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग की अनुमति दी हुई है, जो न्यायालयों की प्रक्रिया के लिये ही नहीं, आदेश और निर्णयों को पारित करने में भी प्रयुक्त की जाती है। 'ऐसी ही स्थिति जिला स्तर तक के न्यायालयों की भी है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, छत्तीसगढ और झारखंड राज्यों में विधानमंडल और जिला स्तर तक न्यायालयों की भाषा हिंदी है। मध्य प्रदेश और राजस्थान राज्यों में विधि के क्षेत्र में स्थिति यह है कि जिला स्तर पर केवल हिंदी में ही निर्णय दिये जा सकते हैं, लेकिन हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली जैसे अन्य हिंदी भाषी क्षेत्रों में विधानमंडल और न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी ही बनी हुई है।' 1(स्मारिका विश्व हिंदी सम्मेलन, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार हरीश कुमार सेठी का आलेख विधि न्याय के क्षेत्र में हिंदी पृ 185)इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त आजीवन अपने निर्णय हिंदी में देते रहे। न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू अपने कार्यकाल में हिंदी का अधिकतम संभव प्रयोग करते रहे। 2(न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की दनांक 20 सितंबर 2015 कीफेसबुक पोस्ट  से) बहुत से और न्यायाधीश निर्णय लिखते समय हिंदी और भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों की उक्तियां उद्धृत कर निर्णय की बात को स्पष्ट करते हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के ही दयाशंकर मिश्र, प्रमोद कुमार जैसे अधिवक्ता न्यायालयों में हिंदी का ही प्रयोग करते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व उप महाधिवक्ता महेश चंद्र चतुर्वेदी ने दिनांक 14 सितंबर 2015 कोव्हाट्सऐप पर बताया कि यहां अधिवक्ता तीन चौथाई से अधिक बहस हिंदी भाषा के माध्यम से ही पूरी करते हैं। वास्तव में जब हम अपनी बात को यथारूप कहना चाहते हैं तो अपनी ही भाषा में उसे अभिव्यक्त कर पाते हैं। कौन व्यक्ति होगा, जिसका मुकदमा जीवन मृत्यु के लिये चल रहा हो, क्योंकि जब प्रशासन और शासन के सब अंगों की तरफ से न्याय पाने में वह निराश हो चुका होता है, तब वह न्यायालय की शरण जाता है। वह अपनी पूरी बात न्यायाधीश तक पहुंचाना चाहता है। अदिवक्ताओं की भी भाषाई सीमा होती है। जीवन के घात-प्रतिघातों को विदेशी भाषा में यथारूप व्यक्त कर पाना सर्वदा दुष्कर होता है। पेड की शाखा चर्र-चर्र करके नीचे आ गिरी जैसे वाक्यांशों को अंग्रेजी भाषा में कह पाना मुश्किल होता है।
न्यायालयों की भाषा अपने राज्य की भाषा हो, इसमें किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है। जब तमिलनाडु में सितंबर माह में वहां के अधिवक्ताओं द्वारा उच्च न्यायालय की भाषा तमिल बनाने की मांग की गई तो अनेक बुद्धिजीवियों ने उनकी इस मांग से अपने को संबद्ध किया। मेरी सहमति भी इस मांग के साथ कतिपय शर्तों सहित है कि किसी अधिवक्ता को अपनी बहस तमिल अथवा अंग्रेजी में करने की अनुमति हो, जिससे जो न्यायाधीश बाहर से आते हैं और तमिल नहीं जानते, उन्हें असुविधा न हो। उच्च न्यायालयों की नीति के अनुसार किसी उच्च न्यायालय का प्रधान न्यायाधीश उस राज्य का निवासी नहीं होगा। अस्तु, सभी प्रधान न्यायाधीश उस राज्य से बाहर के ही होते हैं। स्वाभाविक है कि वे उस राज्य की भाषा को अनिवार्यत: समझते-जानते हो, ऐसा आवश्यक नहीं है। आदर्श स्थिति तो यह है कि न्यायालयों ही नहीं संसद और विधानमंडलों में भी हिंदी को अंग्रेजी के स्थान पर प्रमुख भाषा के रूप में स्थापित किया जाये, इससे राज्य की भाषा को लागू करने में भी समस्या उपस्थित नहीं होगी। हिंदी कम से कम समझने के स्तर पर पूरे देश में ग्राह्य बन सकती है , विडंबना है कि जो अपने देश की भाषा है, अपने संस्कारों में रची बसी है और जिसने अपने देशवासियों के जीवन संघर्ष को अभिव्यक्ति दी है, जिस भाषा में देश का स्वाधीनता संग्राम लडा गया। देश के चारों कोनों के स्वातंत्र्य  योद्धा हिंदी भाषा के माध्यम से एकजुट हुये, उन्होंने हिंदी को देश की प्रतिनिधि भाषा बनाने की आवश्यकता बताई, किंतु कतिपय भयाक्रांत या स्वार्थी तत्वों द्वाराउस भाषा को सरकारी या न्यायालयों की प्रमुख भाषा के रूप में रखने का तो पुरजोर विरोध किया जाता है, जबकि अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को सीखने में अपने नौनिहालों की ऊर्जा खर्च करा देते हैं।
अंग्रेजी भाषा का विरोध नहीं, पर इसे सीखने की मजबूरी न रखी जाये। स्वेच्छया किसी भी भाषा को सीखने की अनुमति और सुविधा दी जाये। पंजाब उच्च न्यायालय की भाषा क्यों नहीं पंजाबी हो सकती है। यह उच्च न्यायालय हरियाणा का भी क्षेत्राधिकार रखता है, जो हिंदी भाषी राज्य है। अत: समुचित होगा कि इसकी भाषा पंजाबी और हिंदी रखी जाये। असम उच्च न्यायालय की कामकाजी भाषा असमी है, किंतु सहभाषा के रूप में यहां अंग्रेजी, बोडो और बंगाली भी चलती है। पुडुचेरी में तमिल, मलयालम, तेलुगु तो दादरा और नगर हवेली जैसे संघ शासित राज्यों में मराठी, गुजराती और हिंदी में कामकाज चलता है। देश के सभी उच्च न्यायालयों - ओडिशा में उडिया, गोवा में कोंकणी, महाराष्ट्र में मराठी, गुजरात में गुजराती, पश्चिम बंगाल में बंगाली, आंध्र और तेलंगाना में तेलुगु, कर्नाटक में कन्न्ड, केरल में मलयालम-में उस राज्य की राजभाषा में कमोबेश कामकाज होता है तो पंजाब में ऐसा क्यों नहीं हो सकता!
सामाजिक सरोकार का सबसे बडा माध्यम भाषा है। भाषा का महत्व लोक-व्यवहार में अप्रतिम है। लोक-व्यवहार को नियंत्रित करने वाली संस्था 'न्यायपालिका' ही है। भारत एक विविधताओं वाला बडे भूभाग को समेटा हुआ राष्ट्र है, जहां कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी। 'भाषाई न्यायिक व्यवस्था में गतिरोध मुगलों द्वारा फारसी और अंग्रेजी को लागू करने से हुआ। फारसी तो धीरे-धीरे हिंदी में घुल-मिलकर पहले उर्दू और फिर हिंदुस्तानी में बदलने लगी, जिस कारण आम हिंदुस्तानी इस भाषा के निकट आने लगा। सन 1833 तक अंग्रेजों ने भी इसे ही शासन के समस्त निकायों में प्रयोग किया, लेकिन लार्ड मैकाले ने फारसी के स्थान पर अंगरेजी भाषा को राजभाषा के स्थान पर आरूढ करा दिया। नतीजा, न्यायिक क्षेत्र में एक ऐसी भाषा का प्रवेश हुआ, जिसकी जानकारी प्राय: पक्षकारों को भी नहीं होती। वादी और प्रतिवादी दोनों ही अंग्रेजी के जानकार वकीलों और न्यायाधीशों की समझ पर आश्रित हो गये।' 3 (स्मारिका विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल 2015 में विमल कुमार दुबे का आलेख न्यायालयों में हिंदी कार्रवाई की सार्थकता एवं उपयोगिता, पृ 187-188) न्यायिक प्रक्रिया के तीन मुख्य चरण होते हैं- न्यायालयों तक पहुंच, प्रभावी निर्णयात्मक शक्ति तथा निर्णय का क्रियान्वयन। यदि न्यायालय किसी ऐसी भाषा में कार्य करता है, जिससे वादी अनभिज्ञ हैतो वह अदालत में जाने से कतरयेगा। यदि निर्णय किसी ऐसी भाषा में लिखा गया है जो पक्षों के लिये अनभिज्ञ हैतो निर्णय की व्याख्या के लिये दूसरों पर आश्रित रहेगा। जब निर्णय ही समझ में नहीं आया तो उसका क्रियान्वयन भी किसी दूसरे की व्याख्या के अधीन रहेगा। इस प्रकार न्याय की पूरी प्रकिया ही दूषित एवं निरर्थिक हो जायेगी। इसीलिये हंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी में और अन्य राज्यों में न्यायिक प्रक्रिया उन राज्यों की भाषाओं में ही चलनी चाहिये।
कुछ अंग्रेजी परस्त लोगों के चलते व्यवधान आते हैं, इनका समाधान भी समय के साथ-साथ होता जायेगा। मसलन, जब कोई याचिका हिंदी में दाखिल की जाती है तो न्यायाधीश विवशता व्यक्त करते हैं कि अगर आप अपनी भाषा में याचिका देंगे और उसी भाषा में निर्णय देनें को कहेंगे तो हमें अंग्रेजी में अनुवाद कराना पडेगा, क्योंकि अंग्रेजी का ही पाठ प्रामाणिक माना जाता है। अनुवादकों की कमी का रोडा बताया जाता है, अनुवाद में समय लगने का बहाना बनाया जाता है। अधिवक्ता और पक्षकार को न्याय पाने की त्वरा होती है, जो स्वाभाविक ही है। वह मजबूरी में अपनी याचिका दाखिल कर देता है। इस समस्या को आधुनिक तकनीकी दूर कर सकती है। हमारे इंजीनियरों को क्षेत्रीय भाषाओं से अंग्रेजी में और अंग्रेजी से विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में अच्छा अनुवाद करने की तकनीकी विकसित करनी होगी, जिससे अनुवाद की समस्या का निराकरण हो सके। इस बात को भी रेखांकित किया जाना चाहिये कि हम अपनी भाषा में कामकाज शुरू तो करें, व्यवधान दूर होते जायेंगे। हमें विश्वास है कि हम ऐसी दिशा में आगे बढ चले हैं कि अवश्य एक दिन सार्थक नतीजे देखने को मिलेंगे।
एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रभारी, हिंदी विभाग गांधी महाविद्यालय, उरई
संबद्ध बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झांसी
मोबाइल 9236114604

डा राकेश नारायण िद्ववेदी

No comments:

Post a Comment