Monday, January 30, 2017

बुन्देली का संस्कृत से अंतःसंबंध

बुन्देली और संस्कृत का अंतःसंबंध
डॉ राकेश नारायण द्विवेदी
बुंदेली एक प्राचीन और व्यापक भूभाग की लोकभाषा है। यह शौरसेनी अपभ्रंश से निःसृत है। सितंबर 2012 के नया ज्ञानोदय’ में श्री भगवान सिंह ने भाषाशास्त्रीय अध्ययन परंपरा के संबंध में कहा है कि हमारी लोकभाषाएं संस्कृत से नहीं निकली हैं, वे तो वैदिक भाषा से भी पुरानी हैं। ‘भाषा और समाज’ के लेखक डॉ रामविलास शर्मा ने भी कहा है कि कोई भाषा किसी दूसरी भाषा की मां नहीं होती, अलबत्ता वह बहिन या मौसी हो सकती है। यह स्थापना इस रूप में अनोखी है कि अभी तक आमधारणा संस्कृत से ही हिंदी बोलियों  का उद्गम बताती आयी है। भगवान सिंह ने यह भी कहा है कि लोकभाषाएं संस्कृत से भी अधिक समृद्ध हैं और सभी बोलियां अनगिनत बोलियों के विपाक से बनी हैं। इस प्रकार जनभाषा या लोकभाषा के अध्ययन से हम वेद तक की भाषा ही नहीं, वेद के मूल तक भी पहुंच सकते हैं।
कुछ विद्वान बुंदेली को ब्रज का ही एक रूप मानते हैं, पर वे यह भूल जाते हैं कि किसी बोली का वैशिष्ट्य उसकी शब्दावली से अधिक क्रिया और क्रियाविशेषण रूपों से बनता है। जॉर्ज ग्रियर्सन के सर्वेक्षण से लेकर अधिकांश भाषाविज्ञानी बुंदेली को एक स्वतंत्र बोली मानते हैं। फिर जब शौरसेनी अपभ्रंश से ही ब्रज भी निकली है तो कुछ समानताएं होना अस्वाभाविक नहीं है।
आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल का बुंदेली शब्दों का व्युत्पत्ति कोश सन् 2015 में प्रकाशित होकर आया है, जिसमें उन्होंने अनेक ऐसे बुंदेली शब्दों की खोज की है जो आज भी शुद्ध तत्सम और वेदकालीन स्वरूप में यथावत विद्यमान हैं जबकि उनके समानार्थी हिंदी के शब्द तद्भव रूप में व्यवहृत हो रहे हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि बुदेली भाषा अति प्राचीन है। भाषा की स्वयं की सत्ता अपरिसीम है और उसे इतिहास, भूगोल, समाज, राज्य या संप्रदाय की हथकड़ियां और सीमाएं कभी स्वीकार नहीं रही हैं।
यहां बुंदेली के कतिपय उन शब्दों का अनुशीलन किया जा रहा है, जो संस्कृत से संबंधित हैं, किंतु हिंदी में उनका प्रतिस्थापित शब्द नहीं मिलता है, यथा-
बुंदेली संस्कृत हिंदी अर्थ
सपरबो सपर्या नहाना
अंगोछा अंगप्रोंछनम्् पतली तौलिया
अंगा-पिच्छू अग्रे-पृष्ठे एक के पीछे एक
अंगरखा       अंगरक्षक, अंगवस्त्रम््  शरीर के ऊपरी भाग का वस्त्र जो घुटने के थोड़े ऊपर तक होता है।
उसनींदौ              उन्निद्र जिसे नींद के झांके आ रहे हों
ओंदबौ                अधोञ्चम्् किसी वस्तु पर झुककर देखना
कराव                 कटाह बड़ी कड़ाही
हिट््ट हेडः लात मारना
हड़सबौ प्रेमपूर्वक, विनोदेन वा हठकरणम्् प्रेमपूर्वक हठ करना
लेट लेष्टु, लोष्टु, लोष्टम्् संलग्नशील मृदा
ऐसे बुंदेली शब्द भी मिलते हैं, जिनकी व्युत्पत्ति संस्कृत में नहीं दिखती और हिंदी में भी
प्रचलित नहीं हैं, जैसे-
कसेंड़िया धात्वादि लघुघट धातु का छोटे आकार का घड़ा
उचला चालौ क्रमभंग उथल-पुथल, उठा-पटक
उखटैलया उपकारकथनकारी एहसान जताने वाला
करवा मध्यमाकार घट मिट््टी का मझोल आकार का घड़ा
गिचरयाबौ व्यर्थालाप निरर्थक अथवा अनावश्यक बातें करना
चटा चाटुकारी नियतखोर
चगन-मगन गत्याधिक्यात्स्थिर इव भानम्् घूमने की इतनी तीव्र गति कि स्थिर दिखने लगे
हुब्ब उत्साह उत्साह
गांतरया अतिथि अतिथि
हबोकबौ शीघ्रभक्षणम्् शीघ्र भोजन करना
हमल गर्भस्थ शिशु गर्भ का शिशु
लुलखरौ उषापूर्वकाल उषापूर्व का समय
नबदा श्रेष्ठता बड़प्पन
बुंदेली में ऐसे बहुत से शब्द हैं जो हिंदी में भी प्रचलित है किंतु संस्कृत में उनकी व्युत्पत्ति चाहे न मिलती हो, ऐसे शब्दों में आगत और विदेशी शब्द भी हैं जैसे-
तिल्ली प्लीहा तिल्ली
नबाब शासक नवाब
ब्लाउस चोली ब्लाउज
मोची चर्मकारः मोची
आजाद स्वतंत्र आजाद
उपर्युक्त बुंदेली शब्दों के उदाहरण बुंदेली संस्कृत शब्दकोश (संपादक प्रो आजाद मिश्र) से लिए गए हैं। यह कोश राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान से प्रकाशित हुआ है, किंतु सपर्या शब्द की संस्कृत व्युत्पत्ति दुर्गाचरण शुक्ल कृत बुंदेली शब्दों का व्युत्पत्ति कोश से गृहीत है, क्योंक सपर्या (पूजा) संपन्न करने के पूर्व आवश्यक रूप से स्नान की क्रिया संपन्न करनी होती है। सपर्या के संकेतित अर्थ ‘स्नान’ को बुंदेली में अब तक लिया हुआ है। बुंदेली काव्य ‘भइया अपने गांव में’ (पं बाबूलाल द्विवेदी) का जब संपादन कर रहा था, तब उसमें एक क्रिया रोटी पैबो पढ़ने में आयी। रोटी बनाना कहने से रोटी पैबो का भाव प्रकट नहीं होता, क्योंकि रोटी बनाने में बेलने में और फिर सेंकने की क्रिया है, जबकि रोटी पैबे में हाथों से थपकी मारते हुए रोटी को आकार देने और फिर सेंकने से है। वस्तुतः यह क्रियाएं ही बुंदेली को ब्रज से तो अलग करती ही हैं, संस्कृत से भी यह अपना संबंध स्थापित करती हैं और हिंदी से पृथक इनका स्वातं़त्र््य और वैशिष्ट्य दिखता है। कई क्रिया विशेषणों का मूल संस्कृत में भी नहीं दिखाई देता, जिससे भगवान सिंह की उस स्थापना को बल मिलता है कि हमारी लोकभाषाएं वैदिक काल से भी पुरानी हैं।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शब्दों की आवाजाही संस्कृत और हिंदी बोलियों में ही परस्पर नहीं हुई है, वरन्् अन्य भारतीय भाषाओं यहां तक कि द्रविड़ भाषाओं से लोकभाषाओं में शब्द आए हैं और गए भी हैं। आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल के व्युत्पत्ति कोश में लगभग 64 प्रतिशत शब्दों की व्युत्पत्ति में कर्नाटक के काशकृत्स्ण और उनके टीकाकार कर्नाटक के प्रसिद्ध कवि चन्नवीर का आधार लिया गया है। कई बार तो शब्द देश की सरहदों को भी लांघ गए हैं। शब्दों की यात्रा अनंत की यात्रा है, जिसमें कोई विराम नहीं है। जैसा सुरेश कुमार वर्मा ‘शब्दों का सफर’ (अजित वडनेरकर) की भूमिका में लिखते हैं ‘शब्द विश्व के सबसे बड़े यायावर हैं। वे मनुष्य की अभिव्यक्ति के घोड़े पर सवार होकर यात्रा करते हैं।’ शब्दों की यह यायावरी मानव सभ्यता के लिए अग्राह््य और अस्वाभाविक नहीं है। इससे तो विभिन्न भाषाओं के बीच एकता स्थापित होती है। शब्दों की यायावरी करते समय अजित वडनेरकर ने पाया कि ‘लखपति’ शब्द जो बुंदेलखंड में भी बहुत समृद्ध, धनवान व्यक्ति के अर्थ में प्रयुक्त होता है, पर इसका भावार्थ है भगवान विष्णु जो लक्ष्मीपति हैं। विष्णु जैसी दयालुता, तेज और पौरुष का भाव इसमें समाहित है। बुंदेलखंड में ऐसे भाषा परिवर्तन खूब दिखाई पड़ते हैं। सास बहू का मंदिर वास्तव में शेषशायी विष्णु का मंदिर है। इसी तरह मौड़ा शब्द मुंडकः≥ मोंड़अं≥मौड़ा होकर निकला है। बडनेरकर जी इस शब्द के निहितार्थ का दिलचस्प अर्थ बताते हैं। आमतौर पर बच्चों का सिर के बालों का मुंडन एक धार्मिक संस्कार होता है। घुटे हुए सिर वाले बच्चे को मुंडकः कहा गया। हिंदुओं की कई शाखाओं में कन्याशिशु का मुंडन नहीं होता है। मगर ऐसा लगता है कि प्राचीनकाल में सभी शिशुओं का मुंडन होता रहा होगा। इसलिए इससे बने मौड़ा शब्द का स्त्रीवाची मौड़ी भी प्रचलित है। मुन्ना, मुन्नी, मुन्नू, मुनिया, मन्नू, मुनमुन जैसे लोकप्रिय और स्नेहिल संबोधनों के पीछे भी यही मुं़ड होने का अनुमान लगाया गया है।
यद्यपि मुंड शब्द से निःसृत मुंडन के अर्थ के अलावा बुंदेली में और भी शब्द प्रचलित हैं, जैसे मुड़ेर, मुड़िया। संभव है इनका अर्थ ग्रहण भी प्रतीक रूप में शीर्ष स्थान पर स्थित होने के कारण गृहीत किया गया हो।
बुंदेली में संस्कृत ध्वनि और शब्दों को यथारूप देखा जा सकता है। ‘लांघन’ में वैदिक ध्वनि ‘ल्ह’ सुरक्षित है जो धोबीगीतों में प्रयुक्त होती है किंतु उत्तर भारत में लुप्त हो चुकी है।(व्युत्पत्ति कोश आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल पृ 441)। अमात्य≥अमात्ये≥माते शब्द में बिना परिवर्तन अर्थ सुरक्षित है, जबकि अमात्य पाली भाषा में अमच्य- नौकर हो गया तो मैथिली में अमात शब्द जाति के लिए प्रयुक्त होकर अर्थापकर्ष हो गया, पर बुंदेली में यह माते के रूप में अभी भी प्रधान के ही अर्थ में प्रयुक्त होता है।
बुंदेली ‘भंड़याई’ शब्द में संस्कृत भण्् धातु छिपी हुई है। भण्् का मतलब है कहना, पुकारना, शोर मचाना, ध्वनि करना। इसी भण्् से भंड्र बना, जिसका अर्थ पात्र या बर्तन से है। भांडक से भंडार, हांडक बने और भांडक से ही क्रिया रूप भंड़ैती बना, जिसका लक्ष्यार्थ है हंसी की बातें करना। अपनी बात कहना, हंसना और व्यंग्य करना। किसी की निंदा करना या खूब बढ़ाचढ़ाकर तारीफ करना। इसी कारण यह सब करने वाला भांड़ समाज में हंसी का पात्र बन गया। ‘भंड़याई’ भांड में रखी वस्तुओं को छिपाकर ले जाने अर्थात््् स्तेय या चोरी के लिए कहा गया। भांड यानि बर्तन टूटते-फूटते भी हैं, इसलिए भांडा फूटना पोल खुलने के अर्थ में चल पड़ा।
खल्ल औषधि या मसाला कूटने वाला बर्तन है। बुंदेली में यह तत्सम रूप में मौजूद है, हिंदी में इसे खरल कर दिया गया है। इसी तरह खट््ट वृक्ष की छाल है, जिसका हिंदी में प्रतिस्थापित शब्द नहीं है।
यह कुछ शब्दों की अंतर्यात्रा के नमूने हैं, जिनसे बुंदेली बोली का वैशिष्ट््य और बोलीगत स्वातं़़त्र््य प्रकट होता है। इस प्रकार बुंदेली भाषा संस्कृत भाषा से जुड़ती हुई भी अपनी विशिष्टता रखती है। इस गुण के कारण वह हिंदी को पुष्ट करती है।
संदर्भ-
1बुंदेली शब्दों का व्युत्पत्ति कोश, आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल, महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्् भोपाल 2015
2 बुंदेली संस्कृत कोश, प्रो0 आजाद मिश्र, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थानम्् भोपाल 2014
3 शब्दों का सफर पहला एवं दूसरा पड़ाव, अजित बडनेरकर, राजकमल प्रकाशन 2011 एवं 2012
4 बुंदेली शब्दों का व्युत्पत्ति कोश, आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल, प्रभुदयाल मिश्र द्वारा लिखित आमुख से
245 शब्दार्णव, नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई उ0प्र0 मो 9236114604

3 comments:

  1. Devtao ke amatya(senapati/rajan) k vansaj h #amat/amatya jaati jo ki wo suryavanshi sumant k wanshaj h.

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    1. आप ठीक कह रहे हैं। पोस्ट में भी ग़लत नही लिखा। माते महतो यानि हेड ऑफ द सोसाइटी होता है। व्युत्पति के अनुसार "अमात्य" का अर्थ है - 'सर्वदा साथ रहनेवाला व्यक्ति' (अमा=साथ)। राजा इसे काउंसिलर के तौर पर चुनता था।

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