Monday, January 30, 2017

स्त्री पुरुष सम्बन्ध और आदिवासी कबीले

स्त्री पुरुष संबंध और आदिवासी कबीले
डॉ राकेश नारायण द्विवेदी

सामान्यतः पुरुष एक स्त्री को या तो बेचारी मानता है या उपभोग्या। पुरुष स्त्री को देवी कहता है और लतरौंदा भी समझता है। पुरुष स्त्री से या तो डरता है या उससे दूर भागता है। इस प्रकार के और भी द्विधु्रवीय बिंब स्त्री के प्रति पुरुष के मन में चलते रहते हैं। पुरुष उसे बराबर का या अपने जैसा नहीं समझता। कभी वह मनु स्मृति के उस श्लोक को संपुट की तरह व्यवहृत करेगा, जिसे इसी आलेख में उद्धृत किया गया है और कभी वह यह भी कहेगा धीरज धर्म मित्र अरु नारी और परखने के लिए सदैव आपातकाल बनाए रखता है। पुरुष स्त्री को पराधीन मानता है तो अधम ते अधम अधम अति भी।
हिंदू परंपरा में जो कथाएं कही जाती हैं, उनमें स्त्री पुरुष की सहायक है। इन कथाओं में पुरुष को वरेण्यता प्राप्त है। भगवान कृष्ण निर्वस्त्र स्नान कर रहीं गोपियों के यमुना किनारे रखे हुए वस्त्र उठा लेते हैं। इस कथा के पीछे के अनेक भावों का दर्शन कथावाचक कराते हैं। एक भाव यह कि नदी में निर्वस्त्र स्नान नहीं करना चाहिए और कहते हैं कृष्ण ने इसीलिए स्त्रियों के वस्त्र चुराए। किंतु ऐसे प्रसंगों को ठीक से न समझने वाले लोग यह सीख ले जाते हैं कि पुरुष को तो स्त्रियों के प्रति ठेकेदारी मिल गयी। वे नाना प्रकार की हिदायतें और नसीहतें स्त्रियों को देने लगते हैं कि तुम यह पहनो, वह न पहनो, यहां जाओ वहां न जाओ, कब जाओ कब लौटो, इससे मिलो उससे न मिलो इत्यादि। हिंदू परंपरा में पुरुष को स्त्रियों का संरक्षक मान लिया गया है। यद्यपि वैदिक कालीन साहित्य में ऐसे संदर्भ नहीं मिलते हैं। बाद में स्मृति काल में कहा गया कि विवाह होने तक पिता, विवाहोत्तर समय में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र उसकी रक्षा करता है। स्त्री अपने भाई से आजीवन रक्षा सूत्र बांधकर रक्षा करने की कामना करती है।
हिंदू सनातन परंपरा में सीता, कौशल्या, मंदोदरी आदि स्त्रियां पुरुष अनुगामिनी हैं तो सती  अपने पति शंकर का कहा नहीं मानती और बिना बुलाए अपने पिता के यहां यज्ञ में चली जाती हैं। वहां पति के हिस्से का सम्मान न देखकर अपना शरीर भस्म कर देती हैं। भस्म शरीर से दस महाविद्या के अलग-अलग भयंकर स्त्री रूप बनते हैं।
युगीन चेतना के फलस्वरूप समाज के एक वर्ग में स्त्री के प्रति सतर्क भाव जाग्रत हो गया है, जो स्त्री को निम्न दर्जा मानने के परंपरावादी पाठ की समसामयिक संदर्भो में समालोचना करता है। जो कथावाचक या शास्त्रज्ञ स्त्री को हेय बता बता कर विद्वान कहे जाते थे, वह अपनी दृष्टि को विस्तार देने लगे हैं और कहने लगे हैं कि अब पुत्र और पुत्री में अंतर नहीं। इस तरह का स्वर अभी मद्धिम होगा, लेकिन वह चर्चा और प्रभाव के स्तर तक जा चुका है। घूंघट की स्त्री अब बीते ज़माने की बात हो चली है। आंख से आंख मिलाकर जब एक युवती चलती है तो परंपरावादी कसमसाकर अपनी ही आंखें नीचे कर लेते हैं। संस्कृत साहित्य और रामचरितमानस जैसी रचनाओं का पाठ स्त्रीवादी दृष्टिकोण से होने लगा है। मानस की ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी’ जैसी चौपाइयों के अनेक अर्थ किए जा रहे हैं और सभी अर्थों में स्त्री की प्रतिष्ठा को सुरक्षित किया जा रहा है।
भारतीय समाज की चेतना के विभिन्न स्तर हैं। स्त्रियों के प्रति भी इन चेतनाओं का अंतर साफ दिखता है। नवयुवकों में युवतियों के प्रति आकर्षण को परंपरावादी पाठ भी मानता आया है, पर अब युवतियों के युवकों के प्रति आकर्षण को भी व्यक्त किया जाने लगा है। समाज में विभिन्न तरह के व्यक्ति हैं, ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं है। यही नहीं एक व्यक्ति में भी कई तरह के व्यक्ति विद्यमान होते हैं। एक व्यक्ति अगर किसी के मात्र पुत्री संतान हैं तो वह उस परिवार की नाश हुआ मानता है। वह बड़ी निर्ममता से मात्र पुत्री संतानयुक्त परिवार के भाग्य और कर्मों को कोसने लगता है कि उसके यहां कोई है ही नहीं। कोई व्यक्ति उदारता और समझदारी के आवरण में कहता कि उन्हें क्या फिक्र है, कौन कोई आगे पीछे बैठा है। यहीं नहीं ऐसे पुरुषों की स्त्रियां भी पितृसत्ता को मजबूत करने की उपकरण बन जाती हैं और गाली के अंदाज में ताने कसती कि फलां के वंश में अब दिया जलाने वाला भी नहीं बचा। यह कोई नई या विशिष्ट बाते नहीं हैं। यहां इन बातों को रखने से हमें समाज के उस खोखले रूप का दर्शन हो जाता है, जिसे दूर किए बिना हम भारत को उन्नत नहीं बना सकते हैं। विडंबना यह है कि इन बातों को अपने दिल पर लेने वाले व्यक्ति भी बहुतायत में हैं। अन्यथा अगर इन बातों पर ध्यान न दिया जाए तो ऐसा कहने वालों के हौसले स्वतः पस्त हो जाएं। 
अब हम मनुस्मृति के उस श्लोक की परीक्षा करें, जिसमें कहा गया है ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रभंते तत्र देवता। यत्रैतास्तु न पूज्यंते सर्वास्तत्राऽफला क्रिया।।’’
अर्थात् जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं और जहां ऐसा नहीं होता, वहां किए गए सारे कार्य निष्फल हो जाते हैं। मनुस्मृति का यह पद वस्तुतः देश के कबीलाई या आदिम संस्कृति के मनुष्यों को देखकर रचा गया होगा। आदिम संस्कृति आदिवासियों या गिरिजनों की संस्कृति है जो कबीले के रूप में रहते रहे, जिन्हें जनजातीय समाज भी कहा जाता है। इस आदिवासी संस्कृति में स्त्री दुर्दशा उस रूप में नहीं पाई जाती, जिस रूप में यह शेष समाज में विद्यमान है।
भारतीय वाङमय में पाए जाने वाले अनेक उदाहरण यह साफ करते है कि शुरूआत के मानव समाज में जब ग्राम-नगरों आदि का गठन नहीं हुआ था मानव समूह कबीलों में रह रहे थे तब उनमें मातृसत्ता का पूर्ण प्रभाव था।
आज भी हम देखते हैं कि प्रत्येक गांव में कम से कम एक मातृदेवी की पूजा प्रचलित है। अक्सर ऐसी देवी का कोई ख़ास नाम नहीं होता, इन देवियों के निराले नाम देखकर ऐसा लगता है कि इनका संबंध छोटे-मोटे जनजातीय समूह से रहा है जो अब या तो निःशेष है या सामान्य देहाती आबादी में इस कदर घुलमिल गया है कि उसका कोई चिन्ह शेष नहीं है। इन देवियों की पुरातनता इस बात से प्रमाणित होती है कि इनमें से किसी के कोई पुरुष संगी या पति नहीं है। ये देवियां हैं तो माताएं (मात्देवियां) किंतु अविवाहित हैं। जिस समाज में इनका उद्भव था, उसकी दृष्टि में किसी पिता का होना आवश्यक नहीं था। आगे चलकर इनका ब्याह किसी पुरुष देवता से होने लगा। मातृदेवियों की पूजा पद्धतियां उस ज़माने की हैं, जब घर बनाने का चलन नहीं था और जब गांव चलते-फिरते हुआ करते थे। प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक ने अपनी पुस्तक ‘स्थान-नाम समय के साक्षी’ में स्थान-नामों के उत्स पर विचार करते समय यह रेखांकित किया है कि आदिवासी लोकमाताओं के नाम पर ही प्रारंभ में स्थानों का नामकरण किया गया।
कबीलाई या आदिवासी समाज में दो ऐसी परंपराएं हजारों वर्षों से चली आ रही हैं, जिन्हें विश्व में आज के उत्तरोत्तर आधुनिकतावादी समाजों में प्रचलित देखकर अचरज होता है कि यह तो हमारे आदिवासियों में प्रारंभ से ही विद्यमान है। भारत की सभ्यता और संस्कृति को निर्मित और विकसित करने में आदिवासियों का प्रस्थानिक योगदान है। डॉ सुनीति कुमार चाटुर्ज्या मानते थे कि ‘निषाद लोगों ने भारत की ग्रामीण सभ्यता की नींव डाली थी। आदिवासियों ने साहित्य-संगीत के शुद्ध स्वरूप को प्रस्तुत कर आदिमानव के उत्कर्ष को बहुरूपों में प्रस्तुत किया।
प्राचीन भारत में मातृसत्ता की विद्यमानता इन आदिवासियों के यहां जिन रूपों में पाई जाती है, उसके चिन्हों को हम आदिवासियों की इन दो परंपराओं में देख सकते हैं-
1-भगोरिया- यह पर्व होली के समानांतर होता है, जो भील आदिवासियों में सामुदायिक रूप से मनाया जाता है। युवा-युवतियों के लिए यह पर्व चयन और चुनौती तथा नई फसल की दृष्टि से उमंग और उल्लास का प्रतीक है। भीलों के आराध्य भगोरदेव के नाम पर संभवतः इसे भगोरिया कहा गया अथवा यह भगोर-गोती भीलों द्वारा आरंभ किए जाने के कारण अथवा भीलों पर शैव प्रभाव (भग अर्थात् शिव एवं गौर अर्थात् पार्वती) के कारण प्रचलित हुआ है।
इस पर्व में चंद्रमुखी प्रेमिका या बलिष्ठ युवक अपने भाग्य की संपन्नता का परीक्षण करते हैं। स्वकीय सौंदर्य और पराक्रम को निखारकर अपने आमोद-प्रमोद को अधिक वाचाल बनाते हैं, जाति-कुल की मर्यादा को जीवित रखते हैं एवं प्रेम-स्नेह जनित भावनाओं को मूर्त रूप देकर सुखद अनुभूतियों को उल्लसित करते रहते हैं। सांसारिक सुखों में डूबकर एक समय वे ऊबकर विरति की देहरी का स्पर्श करने लगते हैं। यही सुख साम्राज्य की चरम परिणति है, जिसे ‘मोक्ष’ कहा गया है। वन-प्रांतर में दैनिक जीवन-यापन करते हुए युवक-युवती पारस्परिक परिचय के माध्यम से कुल आदि का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। वे गंधर्व विवाह की गहरी रेखाएं अंकित कर मनोनुकूल जीवनसाथी का चयन कर लेते हैं। स्वयंवर का यह मनोहारी रूप बड़ा रोचक और स्मरणीय होता है।
इस तरह पर्व के माध्यम से हम जान सकते हैं कि आदिवासियों का जीवन-दर्शन एक खुली हुई क़िताब के समान है, जिसमें न किसी प्रकार का दुराव है और न किसी भांति की दुष्प्रवृत्ति अंकुरण की गुंजाइश। आदिवासी वैवाहिक जीवन की सफलता का यह एक रहस्य भी है कि इसमें पारस्परिक प्रेम (रति) की पूर्णता रहती है, स्त्री को कामवस्तु नहीं समझा जाता, एक-दूसरे की चिर-पहचान कभी आन बनती है तो कभी सम्मान की सिंदूर-सुषमा परिवार-समाज की धरोहर बनती है।
होली के ठीक पहले आदिवासी क्षेत्रों में भगोरिया के मेले लगते हैं। भगोरिया की कल्पना मात्र से आदिवासियों का आदिमन स्वतः नाच उठता है। मेले में युवक द्वारा युवती को गुलाल लगाया जाता है और युवती द्वारा पान खाना स्वीकार किया जाता है। स्वयंवर प्रथा का यह प्रारंभिक चरण है, जिसे स्वयंवर में परिणत होने का सूचक माना जाता हैं। एक-दूसरे को चुनने के बाद यह युग्म घर नहीं लौटते, बल्कि कहीं भाग जाते हैं। कुछ दिन स्वच्छंद घूमने के बाद ये जोड़े जब अपने घर लौटते हैं तो कुछ प्रथाओं की पूर्ति करने के बाद इसे विवाह की मान्यता प्रदान कर दी जाती है। विवाह संपन्न होने पर दावत दी जाती है।
समय परिवर्तन के साथ इस पर्व का रूवरूप बदल गया है। एक समय युवक इस पर्व के माध्यम से अपनी जीवन सहचरी को सुगमता से प्राप्त कर लेता था, किंतु अब वधू-मूल्य इतना बढ़ गया है कि धनाभाव से संत्रस्त आदिवासी नौजवान हजारों रुपए की धनराशि को जुटाने में अपनी जवानी के ओज को यों ही खो देते हैं। पलसूद स्थान का भगोरिया सर्वश्रेष्ठ माना गया है। ध्यातव्य है कि आज शेष समाज में दहेज प्रथा इसके विपरीत रूप में प्रचलित है।
2- गोतुलः- गोतुल सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण संस्था है। इस संस्था से पता चलता है कि आदिवासी अपने युवक-युवतियों की प्रगति के लिए कितने सजग हैं। प्रायः समस्त आदिवासियों में ‘गोतुल’ नामक संस्था की स्थापना का प्रचलन है। बोली की विविधता के कारण विभिन्न आदिवासी समाजों में इस संस्था के भिन्न-भिन्न नाम हैं। मुड़िया (मुरिया) इसे ‘घोटुल’ कहते हैं तो भुइयां समाज में यह ‘धंगर बस्सा’ नाम से पुकारी जाती है। मुंडा एवं हो इसे ‘गतिओरा’ कहकर संबोधित करते हैं। उरांव आदिवासियों में यह संस्था ‘धुमकुरिया’ कही जाती है। इसी प्रकार असम के नागा लोग इसे ‘याकिचुकी’ कहा करते हैं। उत्तर-प्रदेश के वनवासी-समाज ने इस उपयोगी संस्था को ‘रंग-बंग’ नाम से अभिहित किया है। इस संबंध में यह जानना आवश्यक है कि यह संस्था पूर्णरूपेण अविवाहित कुमारों एवं कुमारियों के लिए ही है। विवाहितों का यहां प्रवेश निषिद्ध है। रात में कुमार-कुमारी इस मोहक-गृह में रहकर जीवनोपयोगी कई बातों को सीखते हैं। उन्हें इस गृह में सामाजिक एवं धार्मिक तथ्यों से अवगत कराया जाता है।
कहा जाता है कि यह ‘घोटुल’ आदिवासियों के लिंगो देवता का वरदान है। ‘घोटुल’ डिंडामहल अर्थात् अविवाहितों का राजप्रासाद है।
साधारणतः ‘गोतुल’ गांव के पास हरे-भरे जंगल में बनाए जाते हैं, इन्हें कुमार-कुमारियां बड़े चाव से बनाते हैं। दीवारों पर कई देवी-देवताओं की आकृतियां विविध रंगों में चित्रित की जाती हैं। युवा-गृह में एक बड़ा लंबा कमरा होता है, जो घास-फूस से छाया जाता है। इसमें प्रवेश के लिए एक छोटा सा दरवाजा बनाया जाता है। संध्या होते ही गांव के कुमार एवं कुमारियां इस गृह में जाते हैं और इसकी सफाई करने में लग जाते है। कतिपय आदिवासी जातियों में कुमारों के लिए पृथक् और कुमारियों के लिए अलग ‘गोतुल’ होते हैं, लेकिन ऐसे भी कई रंगबंग (घोटुल) हैं, जिनमें अविवाहित युवक-युवतियां साथ रहते हैं। यहां नृत्य-गानादि की शिक्षा भी दी जाती है और यौन विषयक प्रशिक्षण भी इन ‘गोतुलों’ में उपलब्ध होता है। मद्यपान और भोजन के बाद शीतकाल में युवागृह के प्रांगण में अलाव जलाए जाते हैं, जिनके पास बैठकर कहानियां सुनाकर मनोविनोद किया जाता है। कामशास्त्र की शिक्षा इन गृहों में अनुभवी प्रौढ़-प्रौढ़ाएं ही देती हैं। अपनी इच्छानुसार युवक युवतियों को चुनते हैं और फिर विधिवत् इनका विवाह संपादित किया जाता है। कहा जाता है कि ‘गोतुल’ में गर्भाधान वर्जित है, लेकिन प्रेम स्वातंत्र्य के कारण यहां कभी-कभी चारित्रिक पतन भी हो जाता है।
245 नया पटेल नगर कोंच रोड उरई उ0प्र0 285001 मो 9236114604














प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता, लवली गोस्वामी, पृ0 42 दख़ल प्रकाशन  मिथक और यथार्थ (भारत की सांस्कृति संरचना का अध्ययन), डॉ दामोदर धर्मानंद  आदिवासियों के बीच, श्रीचंद्र जैन, पृष्ठ 40 शिवानी बुक्स दिल्ली प्रथम संस्करण 2007

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