Tuesday, October 27, 2015

कबीलाई समाज में मातृसत्ता

कबीलाई समाज में मातृसत्ता
डॉ राकेश नारायण द्विवेदी

स्त्री के समर्थन में हमारे यहां इस लोक को संपुट की तरह व्यवहृत किया जाता है
 ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रभंते तत्र देवता।
 यत्रैतास्तु न पूज्यंते सर्वास्तत्राऽफला क्रिया।।’’
अर्थात् जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं और जहां ऐसा नहीं होता, वहां किए गए सारे कार्य निफल हो जाते हैं। मनुस्मृति का यह पद वस्तुतः देा के कबीलाई या आदिम संस्कृति के मनुयों को देखकर रचा गया होगा। आदिम संस्कृति आदिवासियों या गिरिजनों की संस्कृति है जो कबीले के रूप में रहते रहे, जिन्हें जनजातीय समाज भी कहा जाता है। इस आदिवासी संस्कृति में स्त्री दुर्दाा उस रूप में नहीं पाई जाती, जिस रूप में यह ोा समाज में विद्यमान है।
भारतीय वाङमय में पाए जाने वाले अनेक उदाहरण यह साफ करते है कि ाुरूआत के मानव समाज में जब ग्राम-नगरों आदि का गठन नहीं हुआ था मानव समूह कबीलों में रह रहे थे तब उनमें मातृसत्ता का पूर्ण प्रभाव था।
आज भी हम देखते हैं कि प्रत्येक गांव में कम से कम एक मातृदेवी की पूजा प्रचलित है। अक्सर ऐसी देवी का कोई ख़ास नाम नहीं होता, इन देवियों के निराले नाम देखकर ऐसा लगता है कि इनका संबंध छोटे-मोटे जनजातीय समूह से रहा है जो अब या तो निःोा है या सामान्य देहाती आबादी मेंे इस कदर घुलमिल गया है कि उसका कोई चिन्ह ोा नहीं है। इन देवियों की पुरातनता इस बात से प्रमाणित होती है कि इनमें से किसी के कोई पुरुा संगी या पति नहीं है। ये देवियां हैं तो माताएं (मात्देवियां) किंतु अविवाहित हैं। जिस समाज में इनका उद्भव था, उसकी दृटि में किसी पिता का होना आवयक नहीं था। आगे चलकर इनका ब्याह किसी पुरुा देवता से होने लगा। मातृदेवियों की पूजा पद्धतियां उस ज़माने की हैं, जब घर बनाने का चलन नहीं था और जब गांव चलते-फिरते हुआ करते थे। प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक ने अपनी पुस्तक ‘स्थान-नाम समय के साक्षी’ में स्थान-नामों के उत्स पर विचार करते समय यह रेखांकित किया है कि आदिवासी लोकमाताओं के नाम पर ही प्रारंभ में स्थानों का नामकरण किया गया।
कबीलाई या आदिवासी समाज में दो ऐसी परंपराएं हजारों र्वाों से चली आ रही हैं, जिन्हें विव में आज के उत्तरोत्तर आधुनिकतावादी समाजों में प्रचलित देखकर अचरज होता है कि यह तो हमारे आदिवासियों में प्रारंभ से ही विद्यमान है। भारत की सभ्यता और संस्कृति को निर्मित और विकसित करने में आदिवासियों का प्रस्थानिक योगदान है। डॉ सुनीति कुमार चाटुर्ज्या मानते थे कि ‘निााद लोगों ने भारत की ग्रामीण सभ्यता की नींव डाली थी। आदिवासियों ने साहित्य-संगीत के ाुद्ध स्वरूप को प्रस्तुत कर आदिमानव के उर्त्का को बहुरूपों में प्रस्तुत किया।
प्राचीन भारत में मातृसत्ता की विद्यमानता इन आदिवासियों के यहां जिन रूपों में पाई जाती है, उसके चिन्हों को हम आदिवासियों की इन दो परंपराओं में देख सकते हैं-
1-भगोरिया- यह पर्व होली के समानांतर होता है, जो भील आदिवासियों में सामुदायिक रूप से मनाया जाता है। युवा-युवतियों के लिए यह पर्व चयन और चुनौती तथा नई फसल की दृटि से उमंग और उल्लास का प्रतीक है। भीलों के आराध्य भगोरदेव के नाम पर संभवतः इसे भगोरिया कहा गया अथवा यह भगोर-गोती भीलों द्वारा आरंभ किए जाने के कारण अथवा भीलों पर ौव प्रभाव (भग अर्थात् ािव एवं गौर अर्थात् पार्वती) के कारण प्रचलित हुआ है।
इस पर्व में चंद्रमुखी प्रेमिका या बलिठ युवक अपने भाग्य की संपन्नता का परीक्षण करते हैं। स्वकीय सौंदर्य और पराक्रम को निखारकर अपने आमोद-प्रमोद को अधिक वाचाल बनाते हैं, जाति-कुल की मर्यादा को जीवित रखते हैं एवं प्रेम-स्नेह जनित भावनाओं को मूर्त रूप देकर सुखद अनुभूतियों को उल्लसित करते रहते हैं। सांसारिक सुखों में डूबकर एक समय वे ऊबकर विरति की देहरी का र्स्पा करने लगते हैं। यही सुख साम्राज्य की चरम परिणति है, जिसे ‘मोक्ष’ कहा गया है। वन-प्रांतर में दैनिक जीवन-यापन करते हुए युवक-युवती पारस्परिक परिचय के माध्यम से कुल आदि का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। वे गंधर्व विवाह की गहरी रेखाएं अंकित कर मनोनुकूल जीवनसाथी का चयन कर लेते हैं। स्वयंवर का यह मनोहारी रूप बड़ा रोचक और स्मरणीय होता है।
इस तरह पर्व के माध्यम से हम जान सकते हैं कि आदिवासियों का जीवन-र्दान एक खुली हुई क़िताब के समान है, जिसमें न किसी प्रकार का दुराव है और न किसी भांति की दुप्रवृत्ति अंकुरण की गुंजाइा। आदिवासी वैवाहिक जीवन की सफलता का यह एक रहस्य भी है कि इसमें पारस्परिक प्रेम (रति) की पूर्णता रहती है, स्त्री को कामवस्तु नहीं समझा जाता, एक-दूसरे की चिर-पहचान कभी आन बनती है तो कभी सम्मान की सिंदूर-सुामा परिवार-समाज की धरोहर बनती है।
होली के ठीक पहले आदिवासी क्षेत्रों में भगोरिया के मेले लगते हैं। भगोरिया की कल्पना मात्र से आदिवासियों का आदिमन स्वतः नाच उठता है। मेले में युवक द्वारा युवती को गुलाल लगाया जाता है और युवती द्वारा पान खाना स्वीकार किया जाता है। स्वयंवर प्रथा का यह प्रारंभिक चरण है, जिसे स्वयंवर में परिणत होने का सूचक माना जाता हैं। एक-दूसरे को चुनने के बाद यह युग्म घर नहीं लौटते, बल्कि कहीं भाग जाते हैं। कुछ दिन स्वच्छंद घूमने के बाद ये जोड़े जब अपने घर लौटते हैं तो कुछ प्रथाओं की पूर्ति करने के बाद इसे विवाह की मान्यता प्रदान कर दी जाती है। विवाह संपन्न होने पर दावत दी जाती है।
समय परिवर्तन के साथ इस पर्व का रूवरूप बदल गया है। एक समय युवक इस पर्व के माध्यम से अपनी जीवन सहचरी को सुगमता से प्राप्त कर लेता था, किंतु अब वधू-मूल्य इतना बढ़ गया है कि धनाभाव से संत्रस्त आदिवासी नौजवान हजारों रुपए की धनरााि को जुटाने में अपनी जवानी के ओज को यों ही खो देते हैं। पलसूद स्थान का भगोरिया सर्वश्रेठ माना गया है। ध्यातव्य है कि आज ोा समाज में दहेज प्रथा इसके विपरीत रूप में प्रचलित है।
2- गोतुलः- गोतुल सांस्कृतिक दृटिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण संस्था है। इस संस्था से पता चलता है कि आदिवासी अपने युवक-युवतियों की प्रगति के लिए कितने सजग हैं। प्रायः समस्त आदिवासियों में ‘गोतुल’ नामक संस्था की स्थापना का प्रचलन है। बोली की विविधता के कारण विभिन्न आदिवासी समाजों में इस संस्था के भिन्न-भिन्न नाम हैं। मुड़िया (मुरिया) इसे ‘घोटुल’ कहते हैं तो भुइयां समाज में यह ‘धंगर बस्सा’ नाम से पुकारी जाती है। मुंडा एवं हो इसे ‘गतिओरा’ कहकर संबोधित करते हैं। उरांव आदिवासियों में यह संस्था ‘धुमकुरिया’ कही जाती है। इसी प्रकार असम के नागा लोग इसे ‘याकिचुकी’ कहा करते हैं। उत्तर-प्रदेा के वनवासी-समाज ने इस उपयोगी संस्था को ‘रंग-बंग’ नाम से अभिहित किया है। इस संबंध में यह जानना आवयक है कि यह संस्था पूर्णरूपेण अविवाहित कुमारों एवं कुमारियों के लिए ही है। विवाहितों का यहां प्रवेा निािद्ध है। रात में कुमार-कुमारी इस मोहक-गृह में रहकर जीवनोपयोगी कई बातों को सीखते हैं। उन्हें इस गृह में सामाजिक एवं धार्मिक तथ्यों से अवगत कराया जाता है।
कहा जाता है कि यह ‘घोटुल’ आदिवासियों के लिंगो देवता का वरदान है। ‘घोटुल’ डिंडामहल अर्थात् अविवाहितों का राजप्रासाद है।
साधारणतः ‘गोतुल’ गांव के पास हरे-भरे जंगल में बनाए जाते हैं, इन्हें कुमार-कुमारियां बड़े चाव से बनाते हैं। दीवारों पर कई देवी-देवताओं की आकृतियां विविध रंगों में चित्रित की जाती हैं। युवा-गृह में एक बड़ा लंबा कमरा होता है, जो घास-फूस से छाया जाता है। इसमें प्रवेा के लिए एक छोटा सा दरवाजा बनाया जाता है। संध्या होते ही गांव के कुमार एवं कुमारियां इस गृह में जाते हैं और इसकी सफाई करने में लग जाते है। कतिपय आदिवासी जातियों में कुूमारों के लिए पृथक् और कुमारियों के लिए अलग ‘गोतुल’ होते हैं, लेकिन ऐसे भी कई रंगबंग (घोटुल) हैं, जिनमें अविवाहित युवक-युवतियां साथ रहते हैं। यहां नृत्य-गानादि की ािक्षा भी दी जाती है और यौन विायक प्रािक्षण भी इन ‘गोतुलों’ में उपलब्ध होता है। मद्यपान और भोजन के बाद ाीतकाल में युवागृह के प्रांगण में अलाव जलाए जाते हैं, जिनके पास बैठकर कहानियां सुनाकर मनोविनोद किया जाता है। कामाास्त्र की ािक्षा इन गृहों में अनुभवी प्रौढ़-प्रौढ़ाएं ही देती हैं। अपनी इच्छानुसार युवक युवतियों को चुनते हैं और फिर विधिवत् इनका विवाह संपादित किया जाता है। कहा जाता है कि ‘गोतुल’ में गर्भाधान वर्जित है, लेकिन प्रेम स्वातंत्र्य के कारण यहां कभी-कभी चारित्रिक पतन भी हो जाता है।
वरिठ सहायक प्रोफेसर, हिंदी गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन)-285001 मोबाइल 9236114604

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