Tuesday, October 27, 2015

राही के उपन्यासों में चित्रित साझा संस्कृति

राही के उपन्यासों में चित्रित साझा संस्कृति

डा राकेश नारायण द्विवेदी

भारतीय संस्कृति की विचारमुद्रा सहिष्णुता और सद्भाव को महत्व देते हुए कट्टरता या घृणा को अस्वीकारने की रही है । धर्म, संप्रदाय आदि के नाम पर किसी मानवता विरोधी कृत्य को भारतीय मनीषियों ने समर्थन नहीं दिया है ।

डॉ राही मासूम रज़ा की दृष्टि धर्म के उपर्युक्त प्रगतिशील स्वरूप को मान्यता देने वाली रही है । उनके सभी उपन्यास इस चेतना से ओत-प्रोत हैं । कुछ समय पूर्व गांव की संस्कृति में त्योहार और उत्सव भिन्न संप्रदाय के लोगों को निकट लाने और भाईचारे के निमित्त थे । ‘आधा गॉंव’ में मोहर्रम मात्र मुसलमानों का पर्व नहीं है । मोहर्रम के ताजिया के साथ अहीरों का लट्ठबंद गिरोह चलता था, जो उलतियां गिराकर रास्ता बनाया करता था । एक विधवा ब्राह्मणी की उलती को बिना गिराए बड़ा ताजिया आगे बढ़ जाता है, तो वह आने वाली मुसीबत के भय से कॉंप उठती है ‘‘जरूर कोई मुसीबत आने वाली है; नही ंतो भला ऐसा हो सकता था कि बड़ा ताजिया उसकी उलती गिराए बिना चला जाता ।’’

हिन्दुओं के अनेक देवी-देवता मुसलमानों में भी प्रचलित हो गए थे । ‘टोपी शुक्ला’ में इफ्फन की दादी नमाज़-रोज़े की पाबंद थी । जब इकलौते बेटे को चेचक तो वे चारपाई के पास एक टांग पर खड़ी होकर हिन्दू स्त्रियों के से विश्वास से कहती हैं ‘‘माता मेरे बच्चे को माफ कर दो ।’’ राही के उपन्यासों में मुसलमानों के पीर-फकीर हिन्दुओं के श्रद्धास्पद थे तो इमाम साहब से हिन्दू स्त्रियां भी मनौती मानती थीं । ‘ओस की बूॅंद’ में वजीर हसन कुएं से बड़ी कठिनाई से शंख निकालकर सुबह की नमाज़ अता करने के बाद आदरपूर्वक शंख बजाता है ।

लेकिन भारत में एक ओर असांप्रदायिक आस्तिकता का यह भाव है तो दूसरी तरफ सांप्रदायिक कट्टरता का भयावह विष भी फैला हुआ है । यहां कट्टर लोगों के अपने-अपने भगवान या खु़दा निश्चित हो गए । ऐसे लोगों के कारण धर्म और धार्मिक पर्व मेल-जोल के बजाय द्वेष और हिंसा के आलंबन बन गए । इसीलिए ‘ओस की बूॅंद’ में बीवी के कटरेे में बने मंदिर में उसका शंख फेंक दिए जाने से उपजे सांप्रदायिक दंगे को मुसलमान अपने पूर्वजों को वास्ता देते हैं तो दूसरी तरफ वज़ीर हसन के लंगोटिया यार दीनदयाल को भी अपने मित्र और वतन से बढ़कर धर्म दिखाई देने लगता है ।

सांप्रदायिकता की मनोवृत्ति मानवीय मूल्य एवं धर्मनिरपेक्षता के विपरीत पड़ती है । सांप्रदायिक शक्तियां अपने निहित स्वार्थों के लिए जन-साधारण के आपसी सद्भाव, मेल-जोल एवं सहकार भाव को दांव पर लगा देती हैं । ‘आधा गॉंव’ में मुस्लिम सांप्रदायिकता हिन्दुओं की ‘‘सिंसियारिटी को मशकूक" मानती है । हिन्दू सांप्रदायिकता के पास सबसे बड़ा उदाहरण औरंगज़ेब का है, जिसने बहुत से मंदिरों को ढहा दिया था । जिसके लिए राही ने सवाल पूछा है कि यदि एक औरंगज़ेब गुनहगार तो क्या सारी मुस्लिम बिरादरी इसके लिए दोषी है? ‘आधा गॉंव’ का निरक्षर छिकुरिया इस सब पर विश्वास नहीं कर पाता क्योंकि गंगौली में तो मुसलमान जमींदार न केवल दशहरे का चंदा देते थे, बल्कि मठ के बाबा को भी जमींदारों ने कुछ बीघों की माफ़ी दे रखी थी । वह मास्टर साहब की बात नही मानता । रहा औरंगज़ब, वह जरूर कोई बदमाश होगा ।

इस समस्या को राही के उपन्यासों में कुछ इस तरह उभारा गया है कि यदि ग़लती कोलकाता के मुसलमानों ने की है तो उसका दण्ड गंगौली या अन्य जगहों के मुसलमानों को क्यों? या पूर्वजों ने गुनाह किए हैं तो आज के मुसलमान को उनकी सजा़ क्यों दी जाए? जिन मुसलमान बच्चियों ने छुटपन में उनकी गोद में पेशाब किया है, उनके साथ ज़िना (व्यभिचार) क्यों और कैसे की जाए? उन मुल्ला जी को कोई कैसे मारे, जो नमाज़ पढ़कर मस्जिद से निकलते हैं तो हिन्दू-मुसलमान सभी को फूंकते हैं । धर्म के आधार पर परस्पर लड़ने की बात राही जी के सदाशयी पात्र नहीं जानते । ‘आधा गॉंव’ का छिकुरिया उस समूचे जनसाधारण का प्रतिनिधि है; जो धर्म एवं संप्रदाय की दीवारों को जानता है । वह जानता है कि कुछ तथाकथित पढ़े-लिखे लोग कोंच-कोंच कर लोगों को एक-दूसरेे से घृणा करने के लिए तैयार करते हैं । व्यक्तियों के माध्यम से यह दो तरह के मूल्यों का जबर्दस्त संघर्ष है । एक ओर मास्टर साहब, फारुक (आधा गॉंव)आदि प्रतिक्रियावादी व्यक्ति हैं जो क़ौम का वास्ता देकर स्वजातीय बंधुओं को उकसाते हैं तो दूसरी ओर सर्वपंथ समादर, राष्ट्र शक्ति और परस्पर आत्मीयता जैसे मानव मूल्यों के संवाहक छिकुरिया, फुन्नन मियां, तन्नू (आधा गॉंव) वजीर हसन, वहशत अंसारी (ओस की बूॅंद) आदि भारतीयता के प्रतिनिधि चरित्र हैं जो आदमी-आदमी को लड़ाने वाले हर षडयंत्र के घोर विरोधी हैं ।

राही जी की दृष्टि में भारतीय संस्कृति के कई अनावृत पहलुओं की ओर गई है । उन्होंने अपने साहित्य केशोध का विषय भी इसी प्रकार का रखा था । जिसमें मुसलमानों में प्रचलित कहानियों में भारतीय संस्कृति का वर्णन आया है । स्वाभाविक है कि उनके उपन्यासों में इसकी प्रतिध्वनि दिखाई देगी । दो ध्रुवांतों पर खड़ी मानी जाने वाली संस्कृति की एकता एवं समन्वय को राही के खोजपूर्ण उदाहरणों द्वारा प्रोत्साहन मिलना चाहिए । ‘असन्तोष के दिन’ के उस मर्सिये की वह पंक्ति उद्धरणीय हैै, जिसमें गाया जाता है ‘‘फूल वह जो महेसर चढ़े’’ । राही ने अपने औपन्यासिक पात्रों की धार्मिक एकता पर यह कहते हुए बल दिया है कि यहां के मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू ही थे । ज़र्रीक़लम सैयद अली अहमद जौनपुरी (असन्तोष के दिन) नाम से मुसलमान थे । इनके पुरखे मराठे और धर्म कट्टर हिन्दू था । वजीर हसन (ओस की बूॅंद) के पुरखों ने भी इस्लाम स्वीकार किया था ।

उपन्यासकार अपने पात्रों के माध्यम से उनके समन्वय एवं एकता को अनेक घटनाओं एवं स्थितियों द्वारा प्रस्तुत करता है । ‘आधा गॉंव में पड़ोस के गॉंव के एक जमींदार ठाकुर जैपाल सिंह अतिवादी हिन्दुओं से बफ़ाती चा नामक कुंजड़े मुस्लिम को एक हमले में बचाते हैं । वह गॉंव की समस्त मुस्लिम प्रजा को संरक्षण प्रदान करते हैं जैपाल सिंह हिन्दुओं की उत्तेजित भीड़ को ललकारते हुए कहते हैं ‘‘बड़ बहादुर हव्वा लाग । अउर हिन्दू मरियादा के ढेर ख्याल बाए तुहरे लोगन के, कलकत्ते-लौहउर जाए के चाही ।’’  इसी प्रकार सैयदा (असन्तोष के दिन) हिन्दुओं को गाली देती है, पर अपने हिन्दू नौकर राममोहन से अपने परिवार को उसकी झोपड़ पट्टी से उठा लाने को कहती है । वह अपने हिन्दू मित्र गोपीनाथ की भी मौत पर रोती है ।  

राही जी ने उज्ज्वल चरित्रों के पात्रों को उभारने के लिए अपने उपन्यासों में कुछ पात्रों को धार्मिक ढकोसलापन, अलगाववाद, ऊॅंच-नीच के भेद-भाव को मानने वाले, झूठ-फ़रेव और चोरी इत्यादि अधार्मिक-अनुचित प्रवृत्तियों से भी संपृक्त किया है राही के पात्रों की धार्मिक  चेतना में बाह्याचारों की अतिशय व्याप्ति है । इनका मूल अज्ञान और अशिक्षा में है । धर्म के नाम का ढकोसलापन अधिक है । धार्मिक मठ-मंदिर बाह्याचार, व्यभिचार, जादू-टोने और जड़ता के अड्डे बन चुके हैं । राही के पात्र एक ओर अपनी कुलीनता और रक्त शुद्धता का आडंबर रचते हैं तो दूसरी ओर ‘क़लमी औलादें’ पैदा करते नहीं थकते । विवाह में रंडी नचवाने वालों पर ताने कसते हैं और घर हरामज़ादी संतानों से भरते रहते हैं । शिया और सैयद होने का घमण्ड करते हैं और मुसलमानों में ही सुन्नियों को हेय मानते हैं । ज़रा सी बात पर आपस में फौजदारी करते हैं; कचहरी में झूठे मुक़दमेे बनाते हैं । धर्म के नाम पर साल में ढाई माह तक हंसना भी गुनाह मानते हैं, परंतु अनुसूचित जाति के एक निर्दोष व्यक्ति कोमिला को झूठे मुकदमें में फंसाकर फांसी की सज़ा दिलाते हैं ।

शियाओं की उपर्युक्त धार्मिक कट्टरता का परिहास और विडंबनाजनक स्थिति पर डॉ इन्दु प्रकाश पाण्डेय लिखते हैं वे ‘एक ओर तो तेरह सौ साल पहले हुए क़त्ल का विरोध करते हैं और दूसरी ओर केवल अपनी दक्षिण पट्टी के ताजिए की शोहरत के लिए एक ब्राह्मण विधवा के जवान पुत्र का कानूनन क़त्ल करवाते हैं । चमार औरत को घर में पत्नी के रूप में रखते हैं, बच्चे पैदा करते हैं; परंतु उसके हाथ का बनाया खाना तक नहीं खाते । इस प्रकार कथावाचक ने बड़ी निर्ममता से अपने समाज की झूठी एवं खोखली धार्मिकता का पर्दाफाश करते हुए उसके अंधविश्वास अशिक्षा एवं अज्ञान को विस्तार से चित्रित किया है ।’

‘आधा गॉंव’ में सर्वत्र शियाओं का सर्वप्रमुख एवं दुनिया का एकमात्र शोकपर्व मोहर्रम के छाए रहने पर आलोचक सुरेन्द्रनाथ तिवारी कहते हैं ‘‘आधा गॉंव’ पढ़ने के बाद याद रहता है मोहर्रम; जो कामू के ‘प्लेग’ की तरह व्याप्त है ।’ श्री तिवारी ने इस उपन्यास में मोहर्रम की कथा की प्रमुखता देखते हुए मोहर्रम को उपन्यास का नायक माना है । आधा गॉंव की कुछ इसी प्रकार की कमियों की ओर डॉ इन्दु प्रकाश पाण्डेय ने संकेत किया है । उन्होंने लिखा है ‘इस मोहर्रम की भीड़ में कथावाचक ने लगभग 100 पात्र गंगौली की दक्षिण और उत्तर पट्टी में एकत्र कर दिए हैं, जो या तो साधारण नित्य-प्रति की घरेलू समस्याओं में व्यस्त हैं या मोहर्रम की बैठकों में मातम कर रहे होते हैं । कुछ पात्र तो केवल नाममात्र हैं, जिनके अस्तित्व का कोई भी रूप प्रकट नहीं होता है और कुछ जो मोटी रेखाओं में व्यक्त भी हुए हैं, वे कुछ विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति करके भीड़ में खो जाते हैं ं याहं तक कि प्रारंभिक कथा का वाचाल एवं उत्साही कथावाचक मासूम भी ग़ायब हो जाता है । लगभग एक ही प्रकार के विचार वाले पात्रों की भीड़ में से ‘नौहा’ के स्वरों में रोने-सिसकने की आर्द्रता तो बहती दिखाई देती है लेकिन स्वतंत्र पात्रों के रूप में भीड़ से ऊपर उठने वाले पात्रों की संख्या स्वल्प ही है ।’ यहां कहना होगा कि आंचलिक वर्णनों में पात्रों की ऐसी भीड़ का होना स्वाभाविक हो जाता है । फिर, उपन्यासों मेें कुछ पात्रों का तृृण-पत्रवत् अस्तित्व भी रहा करता है, जो उपन्यास में कथा का मात्र उपकरण बने होते हैं । मोहर्रम वर्णन की अतिशयता के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि राही को धार्मिकता के बाह्याडंबरों और ढकोसलों को दिखाना था जिससे उन्हें शिया मुसलमानों के इस सर्वोच्च पर्व को माध्यम बनाया । इससे उनका विद्रोही और बेबाक तेवर मुखरित हुआ कि उन्होंने अपने ही समाज और धर्म और उसके लोगों के अतिचारों का बड़ी निर्ममता से पोस्टमार्टम किया ।

राही की धार्मिक सजगता एवं तेवर मे ढली सर्वधर्म ग्राह्यता उनके घनिष्ठ मित्र डॉ धर्मवीर भारती द्वारा दिए गए इस प्रसंग में देखी जा सकती है । जब राही से ‘दुनिया का सबसे ज्यादा आदरणीय महाकाव्य’ महाभारत के बारेे में यह पूछा गया कि उन्हें मुसलमान होने के बावजूद महाभारत लिखना कैसा लग रहा है । उनका उत्तर था कि जैसे मुसलमान होने की वजह से हिन्दुस्तानी विरासत पर मेरा कोई हक़ ही न रह गया हो । जैसे कि मैं भी कोई मंदिर गिराकर उसकी जगह पर बनाई हुई कोई मस्जिद हूं । इन बातों से मुझे दुख पहुंचा है ।

राही जी की सजग एवं प्रगतिशील धार्मिक चेतना के फलस्वरूप ‘आधा गॉंव’ में पाकिस्तान निर्माण के प्रस्ताव को गंगौली के कुछ शिया मुसलमान पात्रों द्वारा विरोध किया जाता है । राही के अनुसार शियाओं के पूर्वज इमाम हुसैन ने स्वयं हिन्दुस्तान जाने की इच्छा प्रकट की थी । हुसैन के सच्चे अनुयायी होने के नाते धार्मिक दृष्टि से भी शिया मुसलमान पात्र हिन्दुस्तान विरोधी कोई प्रस्ताव स्वीकृत नहीं कर सकते । हिन्दुस्तान का पक्ष लेती हुई सितारा शियाओं की ओर से कहती है ‘‘और यह मुआ जिन्ना कैसा षिया है कि हिन्दुस्तान के खिलाफ है ।’’ ‘आधा गॉंव’ के ऐसे कथ्य को दृष्टिगत रखते हुए डॉ जगदीश नारायण श्रीवास्तव ने राही जी की इस बहुचर्चित कृति को यशपाल के ‘झूठा सच’ के बाद हिन्दुस्तान के सांप्रदायिक विभाजन की कांटेदार खेती को बेबाक ढंग से रखता हुआ माना है ।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राही जी धर्म के बाह्य आडंबरों तथा उनसे उत्पन्न सामाजिक कुरीतियों तथा ऊॅच-नीच के प्रबल विरोधी थे । राही ने विभिन्न सामाजिक वर्गों की सांस्कृतिक रुचि तथा धार्मिक चेतनागत दृष्टिकोण के अंतर को पहचान कर साहित्य में अपने पात्रों का परिकल्पन किया है ।
राही काल और इतिहास संबंधी लौकिक धारणा के अनुसार ही ऐतिहासिक समय की महत्ता को शाश्वत काल की सत्ता के समक्ष खड़ा कर देते हैं । ‘आधा गॉंव’ के प्रथम अध्याय में ही राही ग़ाज़ीपुर शहर के परिचय में एक रूपक देते हुए कहते हैं ‘‘गंगा इस नगर के सिर पर और गालों पर हाथ फेरती रहती है, जैसे कोई मां अपने बीमार बच्चे को प्यार कर रही हो, परंतु जब इस प्यार की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, तो गंगा बिलख-बिलखकर रोने लगती है और यह नगर उसके आंसुओं में डूब जाता है । लोग कहते हैं कि बाढ़ आ गई । मुसलमान अज़ान देने लगते हैं । हिन्दू गंगा पर चढ़ावे चढ़ाने लगते हैं कि रूठी हुई गंगा मैया मान जाय । अपने प्यार की इस हतक पर गंगा झल्ला जाती है और क़िले की दीवार से अपना सिर टकराने लगती है और उसके उजले-सफ़ेद बाल उलझकर दूर-दूर तक फैल जाते हैं । हम उन्हें झाग कहते हैं । गंगा जब यह देखती है कि उसके दुख को कोई नही समझता, तो वह अपने आंसू पोंछ डालती है; तब हम यह कहते हैं कि पानी उतर गया । मुसलमान कहते हैं कि अज़ान का वार कभी ख़ाली नहीं जाता, हिंदू कहते हैं कि गंगा ने उनकी भेंट स्वीकार कर ली । और कोई यह नहीं कहता कि मां के आंसुओं ने ज़मीन को और भी उपजाऊ बना दिया है......   यह षहर इतिहास से बेखबर है । इसे इतनी फुरसत नहीं मिलती कि कभी बरगद की ठंडी छांव में बैठकर अपने इतिहास के विषय में सोचे।’’ इसमें लेखक काल के शाश्वत पक्ष को रामायण से आगे तक फैलाकर दिखाता है, जिसकी पृष्ठभूमि में इतिहास केवल कुछ संदर्भ बदल देता है । इतिहास की शाश्वत प्रतीक गंगा से राही अपने लगाव को अपनी लगभग प्रत्येक कृति में उद्घोषित करते हैं । वे कहते हैं

‘‘मेरा फ़न तो नीला पड़ गया यारो
मैं नीला पड़ गया यारो
मुझे ले जाके गंगा की गोदी में सुला देना ।’’

‘‘लेकिन मेरी नस-नस में गंगा का पानी दौड़ रहा है ।’’

​राही इतिहास पर दृष्टि डालते हुए अपने गॉंव गंगौली के नाम-विश्लेषण को इन षब्दों में व्यक्त करते हैं ‘‘मसऊद ग़ाज़ी के एक लड़के, नूरुद्दीन शहीद ने (यह शहीद कैसे और क्यों हुए, यह मुझे नहीं मालूम और शायद किसी को नहीं मालूम) दो नदियॉं पार करके, ग़ाज़ीपुर से कोई बारह-चौदह मील दूर , गंगौली को फ़तह किया । कहते हैं कि इस गॉंव के राजा का नाम गंग था और उसी के नाम पर इस गॉंव का नाम गंगौली पड़ा । लेकिन इस सैयद-ख़ानदान के पॉंव जमने के बाद भी इस गॉंव का नाम नूरपुर या नूरुद्दीन नगर नहीं हुआ’’  

​इससे स्पष्ट है कि राही उन ऐतिहासिक घटनाओं को महत्व नहीं देना चाहते, जिन्होंने बाह्य स्थितियों में कुछ परिवर्तन किए हैं, परंतु वे उस जीवन को उभारना चाहते हैं, जो इन ऊपरी परिस्थितियों के बदल जाने पर भी परंपरा, सभ्यता, गीता और कु़रान की तरह निस्सीम और अनंत हो और जो गंगा और मोहर्रम की तरह निरंतर प्रवहमान हो । राही जी बड़े परिश्रम से समय के इस प्राकृतिक प्रवाह को प्रस्तुत करना चाहते हैं, जिसे इतिहास की कोई भी घटना अपने सॉंचे में नहीं बांध सकती । जीवन मोहर्रम के आंसुओं की तरह अबाध गति से बहता चला जाता है ‘‘रोना त हम शीयन की तक़दीर है ।’’ समय के प्रति यह धारणा मात्र शियाओं की ही विशेषता नहीं है, बल्कि यह भारत की लोकमान्य विशेषता है, जो क्रूरतम ऐतिहासिक स्थिति को भाग्य का खेल मानकर संतोष कर लेती है ।

​राही ने अपने उपन्यासों में दिखाया है कि शिया मुसलमान तो प्रारंभ से ही (13 सदियों से) अपने भाग्य की विडंबना पर रोते चले आ रहे हैं । निस्सहाय एवं निरीह और भाग्य पर समर्पित शिया आज भी कर्बला के हत्याकाण्ड और इमाम हुसैन और हसन के निधन पर साल में ढाई माह तक शोक मनाते हैं, रोते हैं और निराशा में छाती कूटते-कूटते बेहोश होने में जीवन की सार्थकता खोजते हैं । यह मोहर्रम; जो इनके जीवन का शाश्वत काल हो गया है; किसी भी अन्य घटना के द्वारा मिटाया नहीं जा सकता और न शिया मुसलमानों में वह इच्छाशक्ति रह गई है, जिससे वे इसे बदल सकें । वे अपरिवर्तनशील प्रारब्ध के शाश्वत प्रवाह में बह रहे हैं, जिसकी दिशा का उन्हें ज्ञान नहीं । यह प्रारब्ध उनकी संपूर्ण व्यवस्था है, जिसके वे एक अनिवार्य अवयव हैं । इस प्रकार राही जी ने बड़ी कुषलता से षिया पात्रों की परिकल्पना से उनकी ऐतिहासिक चेतना के माध्यम से उनके दृष्टिकोण और जीवन-दर्शन को रूपायित किया है ।

​राही अपने उपन्यासों में इतिहास से संदर्भ लेकर अपने पात्रों द्वारा यत्र-तत्र टिप्पणियां करते हैं, किन्तु किसी ऐतिहासिक सूचना को प्रत्यक्ष एवं आरोपित करते हुए राही अपने उपन्यासों में नही ंदिखाई देते । उनके उपन्यासों में ऐतिहासिक घटनाएं उसमें छोटी-मोटी उठने-बैठने वाली लहरों के समान हैं, जो मात्र जीवन के स्पंदन को प्रकट करती हैं । ‘टोपी शुक्ला’ का एक पात्र कहता है ‘‘पता है, अकबर के खिलाफ महाराणा प्रताप के साथ कितने मुसलमान थे?’’ इसी उपन्यास में टोपी कहता है ‘‘मैं हिंदू हूं....क्या यह शेरवानी मुसलमान है? यह तो कनिष्क के साथ आई थी । यह पाज़ामा भी कनिष्क ही का है ।’’ टोपी जायसी को भी हिन्दू मानता है क्योंकि उन्होंने हिन्दुओं की ही कहानियां लिखीं । ग़ालिब और मीर को भी वह हिन्दू मानता है, क्योंकि ग़ालिब बुतों की पूजा करते थे और मीर तिलक लगाते थे ।

​ऐतिहासिकता से संदर्भ लेते हुए भयावह सच्चाई को सम्मुख रखने के लिए राही वर्तमान से उसको संबद्ध कर देते हैं ‘‘यह टोपी गाथाकाल ही है । यह टुच्चा युग है । छोटे लोग जन्म ले रहे हैं, सौंदर्य पर रंग-रंग की कीचड़ है । न तो वीरों की गाथा का समय है और न श्रृंगार रस बांटने का । कोई युग कलयुग नहीं होता । परंतु टोपी युग अवश्य प्रारंभ हो गया है ।’’ छुआ-छूत जैसी सामाजिक समस्या पर राही पौराणिक संदर्भ ग्रहण करते हुए टोपी से कहलवाते हैं ‘‘श्री राम तो भीलनी के जूठे बेर खा लें और आप मुझे अपने पास बैठने भी न दें कि मुसलमान हूं ।’’

​स्वार्थी व्यक्तियों द्वारा पौराणिक संदर्भों की की जाने वाली अनुचित और छद्म व्याख्या की समस्या राही ‘आधा गॉंव’ में उठाते हैं । उपन्यास में कोई स्वामी जी इसी प्रकार के पौराणिक संदर्भों को देकर हिन्दुओं की भावनाएं भड़काने के काम में संलग्न हैं । स्वामी जी उपन्यास में कहते है। ‘‘तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, हे अर्जुन ! हूं तो मैं हूं और मेरे सिवाय कोई और नहीं है । आज वह मुरली मनोहर भारत के हर हिन्दू को ललकार रहा है कि उसे तथा गंगा और यमुना के पवित्र तट से इन म्लेच्छ मुसलमानों को हटा दो ।’’ इसी प्रकार के अनुचित एवं मिथ्या ऐतिहासिक-पौराणिक संदर्भों को देकर ‘ओस की बूॅंद’ में एक मौलवी घ्ृणा फैलाने में लगे हैं । वह ‘बिरदाराने-इस्लाम’ की दुहाई देकर मुसलमानों की भावनाएं भुनाना चाहते हैं । कुछ कट्टरवादी मुसलमान पात्रों द्वारा अपने अवैध और घृणित कृत्यों को वैध ठहराने के लिए बिना समझे पौराणिक संदर्भों का आलंबन लिया जाता है । ‘आधा गॉंव’ का कट्टर प्रवृत्ति का मुसलमान पात्र समीउद्दीन खां पाण्डवों की ओर संकेत करता हुआ कहता है ‘‘लेकिन पांच भाइयों में एक बीवी से हमारा काम अब भी नहीं चल सकता, यह भी कोई कमर हुई? उनसे अच्छे तो हमीं हैं । चार भाइयों में कुल मिलाकर सात बीवियां हैं ।’’
​राही ने अपने उपन्यासों के कुछ सद् पात्रों द्वारा पौराणिक आदर्शों को ग्राह्य भी बनाया है । वे ‘आधा गॉंव’ में अपने सच्चे भारतीय मुसलमानों को ‘राम की खड़ाउॅंओं को क़दमे रसूल बनाकर चूमने वाले’ कहते हैं ।

​पौराणिक एवं ऐतिहासिक पात्रों के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राही जी ने भारतीय संस्कृति के धवल स्वरूप को प्रस्तुत करने के लिए इतिहास और पुराणों का आश्रय अपने पात्रों की परिकल्पना में लिया । उन्होंने प्रागैतिहासिक काल से लेकर अंग्रेज युग तक के इतिहास और पुराणों के सामाजिक-सांस्कृतिक और ऐतिहासिक घटनाक्रमों को अपने उपन्यासों की वर्ण्य-वस्तु में स्थान दिया और प्राचीन भारत की स्वर्णिम झांकी प्रस्तुत करके भारतीय संस्कृति के निखरे हुए रूप को उभारा ।
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी
गांधी महाविद्यालय, उरई
मो 9236114604

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