Tuesday, October 27, 2015

सोनी सिंह का कहानी संग्रह 'क्लियोपेट्रा' और स्त्री प्रश्न

युवा लेखिका सोनी सिंह का कहानी संग्रह 'क्लियोपेट्रा' सामयिक प्रकाशन से वर्ष २०१४ में आया है। १७६ पृष्ठ के इस संग्रह में आठ कहानियां हैं।  कहानियों को बहुत ही बोल्ड और बेबाक अंदाज में लिखा गया है। इन कहानियों में स्त्री अपनी देह स्वतंत्रता को हासिल करती है किंतु पुरुष सत्ता की दुरभिसंधियां कैसे उसकी उपलब्धियों का दिवाला निकालती है, इसका सुंदर चित्रण हुआ है।
संग्रह की कहानी चक्रव्यूह में दो बहनें अपने अपने क्षेत्र में शीर्ष स्थान पर अपनी योग्यता से बढती हैं किंतु अंत में दोनों को किस तरह निराशा के गर्त में जाना पडता है। इस कहानी से दो बडी महत्वपूर्ण उद्भावनायें प्रकट होती हैं एक तो यह कि पुरुष सत्ता किस तरह उसे आगे जाने से रोकती है, पराभूत करने में मजा लेती है और सदा अपने अधीन रखना चाहती है, दूसरी व्यंजना यह कि अति महत्वाकांक्षा किस तरह हताशा, कुंठा और अवसाद का कारण बनती है।
'खेल' कहानी में स्त्री और पुरुष का पोर्नोग्राफिक विवरण होते हुये भी वह उत्तेजना और सनसनी नहीं दिखाई गयी है, जैसी इस प्रकार के साहित्य या विजुअल्स में पाई जाती है। वर्जित प्रसंगों को कितनी सहजता से सोनी सिंह कथ्य में बुनती हैं, बिना उन शब्दों का प्रयोग किये, कि सारा दृश्य उपस्थित हो जाता है। सारी कहानी स्त्री पुरुष की मैथुन प्रक्रिया में घूमती है किंतु अंत यहां भी स्त्री की अतृप्ति में होता है।
'देहगाथा' वास्तव में योनिकथा है, जिसका यही नाम लेखिका ने रखा था, जिसे बोल्डनेस और बेबाकी के लिये प्रसिद्ध राजेन्द्र यादव चाहते हुये भी इस नाम के साथ हंस में नहीं छाप सके, क्योंकि लेखिका इसी शीर्षक से कहानी छपवाना चाहती थीं। संग्रह में भी यह देहगाथा के नाम से प्रकाशित है, पर है यह योनि की त्रासद गाथा ही, योनि को केन्द्र में रखकर लेखिका ने स्त्री जाति की अंतर्वेदना को प्रस्तुत किया है।  पुस्तक के कवर पर पीछे योनि चित्र भी दिया हुआ है, चित्र में योनि पर बूंद कमल के ऊपर लगा जाला प्रतीकार्थ में स्त्री की त्रासदियों को व्यक्त करता है। सोनीसिंह ने संग्रह की अन्य कहानियां भी ऐसे प्रतीकों के सहारे लिखी हैं। वह अपने एक अन्य लेख में दास कैपिटल की तरह योनि कैपिटल लिखे जाने के पक्ष में हैं, क्योंकि इसे कुछ शुद्धतावादियों ने नासूर बना दिया है।
'गाडफादर का फेमिनिस्ट फार्म' कहानी में स्त्रियों को महत्वाकांक्षी उडान भरने के लिये कैसे छला जाता है। स्त्री लेखिकाओं और उनके आकाओं पर यह कहानी अच्छा तंज कसती है।
अन्य कहानियों में लिव इन रिलेशनशिप के पहलुओं के वर्णन और स्त्री की उन्मुक्तता है, सोनी सिंह अपनी आकांक्षा सिद्धि में देह को एक उपकरण बनाने वाली स्त्रियों को वीरांगनायें कहती हैं उन्हें इसमें कुछ गलत नहीं लगता, क्योंकि लेखिका की नजर में स्त्री का व्यक्तित्व जब तक योनि में कैद रहेगा, उसे आजाद होने के लिये संघर्ष ही करना पडेगा। इस बात को उन्होंने 'क्लियोपेट्रा' कहानी, जो संग्रह की प्रतिनिधि कहानी भी है, में भली भांति व्यक्त किया है। क्लियोपेट्रा, जो इजिप्ट की यौन स्वतंत्रता की प्रतिमूर्ति है, इसके बल पर वह वहां की रानी बन जाती है, इसी के समानांतर भारत की सांवरी का चरित्र लेखिका ने गढा है। सांवरी भी यौन स्वतंत्रता के सहारे धनबल से समृद्ध हो जाती है अब वह चुनाव लडने की तैयारी करती है। कहानी में यहां तक तो स्त्रियां आगे जाती हैं, पर इससे आगे जब बढने लगती हैं तो क्लियोपेट्रा द्वारा स्वतंत्र दरबार लगाने पर वहां के राजा द्वारा जहरीले सर्पों से डसवाकर मरवा दिया जाता है, पुस्तक के आवरण पर सर्पों के बीच क्लियोपेट्रा सुशोभित है। वहीं सांवरी को उसके पति द्वारा ही गुंडों को सुपारी देकर मरवा देते हैं, क्योंकि वह अब राजनीतिक इच्छाशक्ति रखने लगी थी।
स्त्री विमर्श में सबसे अधिक जो विवाद का बिंदु है, उसी पर लेखिका की यह कहानियां केंद्रित हैं। इस विमर्श में यह प्रश्न अभी भी विचारणीय बना हुआ है कि सामाजिक तानाबाना और जो अपने देश की विवाह संस्था है, उसका क्या होगा! क्या यह भी एक तरह का भ्रष्टाचार नहीं, जिसमें देह को उपकरण बनाकर स्त्रियां अपनी महत्वाकांक्षा पूरी कर रही हैं। कौन कितनी ज्यादा बोल्ड, बहस भी इसे करार देते हैं। इस पर मुझे यही कहना समीचीन लगता है कि स्त्रियां स्वयं समाज के आधे और महत्वपूर्ण वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं, उन्होंने भी राष्ट्र और समाज के उन्नयन की दृष्टि से प्रतिमान बनाये होंगे, उन्हें भी उन्ही जिम्मेदारियों का अहसास होगा, जिनका 'ठेका' पुरुष सत्ता उठाती आई है। फिर इसे हम उस प्रतिक्रिया के रूप में भी ले सकते हैं, जिसमें तमाम मर्द उपदेश देते हैं ये करो वो करो न करो। रात में न निकलो, ऐसे कपडे न पहनो, लडकों से गलती हो जाती है, मेरी कोई होती तो गोली मार देता आदि आदि और दम यह कि हम 'मर्द' हैं तो उसकी प्रतिक्रिया स्त्री समाज से इस तरह आती है तो अचरज क्यों हो!  लेखिका स्त्रीपुरुष के अंतरंगतम प्रसंगों के प्रचंड आवेगों को जो शिल्प देती हैं, वह किसी के लिये आसान नहीं है और इस कृति का इस रूप में स्वागत होना चाहिये। जिस तरह हम पुरुष पर विश्वास करते आये हैं, स्त्रियों पर भी करके देखें, जो निराशा और कमी अब तक देखी गयी, शायद अब वह न रहे, मैं नाउम्मीद नहीं हूं।
डा राकेश नारायण द्विवेदी
वरिष्ठ सहायक प्रोफेसर, हिंदी
गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन)
मोबाइल 9236114604

1 comment:

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