Friday, July 18, 2025
कृष्ण और अर्जुन के नामो की प्रतीकात्मकता
श्रीमद्भगवद्गीता को हमारी युवा पीढ़ी अपने दिवंगतजन की तेरहवीं संस्कार में वितरित करते हुए पुस्तक परिचय के रूप में जान पाती है। प्राण छूटते समय व्यक्ति के परिजन गीता के कुछ श्लोक पढ़कर जाते हुए व्यक्ति को सुनाते हैं। गीता एक महान रचना है, इसलिए इसके कतिपय शब्दों की भनक कान में पड़ जाएगी तो उसका भी प्रभाव हमारे जीवन पर अवश्य होगा, परंतु गीता केवल इतने भर के लिए नहीं है। जब हम वयस्क हो जाते हैं तो सर्वप्रथम गीता के अर्थ को जानकर आजीविका में प्रवेश करना चाहिये। गीता का अर्थ विशेष तभी जान सकते हैं जब हम उसमें ही दी हुई विधि के अनुसार उसे जानने का यत्न करें। प्राणायाम और योग गीता में ही दिया गया है, किंतु यह उसमें सूत्र रूप में मिलता है। उसे डिकोड करके ही जाना जा सकता है, इसके लिए हमें गुरु की आवश्यकता होती है। इस रहस्य को समझने की चेष्टा के कारण ही गीता की सैकड़ों व्याख्याएँ मूर्धन्य मनीषियों द्वारा की गई है। हम कितनी ही और किन्हीं की गीता व्याख्या को पढ़ लें, ज्ञानार्जन तो होगा, अनुभववर्धन नहीं हो पाता। अनुभव स्वयं करने पर होता है, कैसे करना है, उसके लिए महान गुरुजन ने गीता में आए शब्दों और पात्रों की प्रतीकात्मक विवेचना की है, हमें उसे समझना होगा। इस समझ को धारण करते हुए ध्यान में उतरने के बाद जो अनुभव होंगे, वे गीता और उसके ज्ञान को समझने में सहायक होंगे। गीता को समझने का यही उपाय है। श्लोकों को याद करके उनके दिये गये अर्थ सुनने सुनाने से उसका बाहरी रूप ही ज्ञात होता है। इतने से हमारा भ्रम दूर नहीं हो पाता है। अनुभवों को जानने के लिए गीता के पात्रों की प्रतीकात्मकता जानेंगे, यह योग का मार्ग प्रशस्त करेगा। धृतराष्ट्र का अर्थ है अंधा मन। जो अपना राष्ट्र पकड़कर रखे हुए है। इंद्रियों के राज्य को धारण करने के कारण यह धृतराष्ट्र हैं।
संजय- निष्पक्ष अंतर्निरीक्षण, जिन्होंने पूर्ण रूप से विजय प्राप्त कर ली हो। ऐसे ही व्यक्तियों को वह दैवी अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है। जिससे वह अपने भीतर और दूर का देख सकें।
कौरव- अनैतिक और मानसिक ऐंद्रिक वृत्तियों का समूह है।
पांडव- शुद्ध विवेकवान वृत्तियाँ है।
धर्मक्षेत्र- पवित्र मैदान है, जिस पर कुरुक्षेत्र अवस्थित है। कुरुक्षेत्र कर्म संपादन के लिए विहित मैदान है। कुरुक्षेत्र पर कौरव और पाण्डव अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए संघर्ष करते हैं।
कुरु संस्कृत क्रि से निष्पन्न शब्द है, जिसका अर्थ है कार्य या भौतिक क्रिया। क्षेत्र उस मैदान को कहते हैं, जिस पर यह क्रिया या कार्य किए जाते हैं। सांसारिक चेतना कुरुक्षेत्र पर कार्य करती है तो आध्यात्मिक चेतना धर्मक्षेत्र में कार्यरत रहती है।
बुद्धि विवेकवान प्रज्ञा का नाम है, यह रूपक में पांडु से जुड़ती है, पांडु की पत्नी कुंती हैं, जो नैतिक सिद्धांतों को धारण करती हैं। पांडु पंड से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है श्वेत । श्वेत रंग शुद्ध दशा का द्योतन करता है। बुद्धि पांडु का प्रतिनिधित्व करती है। पांडु निवृत्ति सूचक हैं। बुद्धि अधिचेतन से प्रेरित होकर सन्मार्ग की ओर ले जाती है। बुद्धि शाश्वत वास्तविकता अर्थात् सत्य की ओर ले जाती है।
मन अंधे राजा धृतराष्ट्र का प्रतिनिधि है, जिसके एक सौ पुत्र हैं। यह प्रवृत्ति सूचक हैं। मन इंद्रियों के माध्यम से कार्य करता है, इंद्रियाँ भौतिक सुखों को खोजती रहती हैं।
मन इंद्रिय चेतना है। यह ऐसी लगाम है जो इंद्रिय रूपी घोड़ों को चलाती है। शरीर रथ है। आत्मा इस रथ की मालिक है। मन को अंधा कहा गया है, क्योंकि यह बिना इंद्रिय और बुद्धि के देख नहीं पाता। अगर हम विवेकी बुद्धि से परिचालित हुए तो इंद्रियाँ नियंत्रित रहती हैं किंतु यदि बुद्धिमत्ता सांसारिक इच्छाओं से शासित हुई तो इंद्रियाँ अनियंत्रित हो जाती हैं और वे विनाशकारी आदतों का निर्माण करती हैं। मन एक सूक्ष्म चुंबकीय पोल है, जो सदा इंद्रियों को अपनी खुराक देता रहता है। शरीर रचना विज्ञान में आता है कि मेडुला ओब्लांगटा और मध्य मस्तिष्क के बीच एक पोंस वरोली (pons varolii) होती है। यह सेतु का काम करती है, जो अनुमस्तिष्क को प्रमस्तिष्क से जोड़ती है और मस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्रों और मेरुमज्जा के बीच संकेतों का संचार करती है। पोंस श्वास और नींद जैसे महत्वपूर्ण कार्यों के नियमन में भी शामिल है।यह मन ही है।
गीता में कृष्ण और अर्जुन अर्थात् गुरु और शिष्य का संवाद व्यक्त हुआ है। इस ग्रंथ में कृष्ण और अर्जुन के अलग अलग अनेक नामों से उन्हें अभिहित किया गया है। उन सब अलग अलग नामों के अपने अपने विशिष्ट अर्थ हैं। उन्हें यहाँ जान लेना उपयुक्त होगा...
भगवान कृष्ण:
अच्युत- जो परिवर्तित न हों, जिनका जोड़ न हो।
अनंतरूप- जिनके अलग अलग रूप हैं, और वे कभी समाप्त न हो।
अप्रमेय- जिन्हें मापा न जा सके।
अप्रतिमप्रभाव- जिनकी शक्ति कभी तोली या नापी न जा सके।
अरिसूदन- शत्रु को नष्ट करने वाले।
भगवान- ऐश्वर्यवान
देव- भगवान
देवेश- देवताओं के स्वामी।
गोविंद- चरवाहों के प्रमुख, इंद्रियों रूपी गायों को नियंत्रित करने एवं उन्हें चराने वाले।
हरि- हृदय को चुराने वाले या आकर्षक लगने वाले।
हृषिकेश- इंद्रियों के अधिष्ठाता या भगवान।
ईशम ईद्यम- वंदनीय
जगन्निवास- ब्रह्मांड के संरक्षक। विश्व को जो आकर्षित करें।
जनार्दन- मनुष्य की प्रार्थनाओं को पूरा करने वाले।
कमल पत्राक्ष- कमल के से नेत्रों वाले।
केशव, केशिनिसूदन- केशि राक्षस का संहार करने वाले, दोषों को नष्ट करने वाले।
माधव- भाग्य के भगवान
मधुसूदन- मधु राक्षस का संहार करने वाले अर्थात् अज्ञान को नष्ट करने वाले।
महात्मन्- संप्रभु आत्मा
प्रभु- स्वामी के भगवान
प्रजापति- असंख्य वंशों के दैवी पिता
पुरुषोत्तम- सर्वोच्च स्पिरिट
सहस्रबाहो- हज़ार भुजाओं वाले
वार्ष्णेय- वृष्णि गोत्र के वंशज
वासुदेव- विश्व के भगवान, जनक/पालक/संहारक ईश्वर।
विष्णु- सर्वव्यापी रक्षक
विश्वमूर्ते- ब्रह्मांड स्वरूप
यादव- यदुवंश के उत्तराधिकारी
योगेश्वर- योग के भगवान
अर्जुन:
अनघ- पाप रहित
भारत- राजा भरत के उत्तराधिकारी
भरतश्रेष्ठ- भरत राजाओं में श्रेष्ठ
भरतर्षभ- भरत का बैल या बछड़ा अर्थात् भरत राजवंश का महान और श्रेष्ठ उत्तराधिकारी
भरतसत्तम- भरत राजाओं में श्रेष्ठ
देहभृतं वर- देहधारियों में सर्वोच्च।
धनंजय- धन को जीतने वाले। धनविजयी।
गुडाकेश- निद्रा को जीतने वाले(सदा तत्पर, निद्राविजित, माया को पराभूत करने वाले।
कौंतेय- कुंती के पुत्र
किरीटिन- मुकुटधारी
कुरुनंदन- कुरु वंश के चहेते और गौरवशाली पुत्र
कुरुप्रवीर- कुरु वंश के महान नायक
कुरुसत्तम- कुरु श्रेष्ठ
कुरुश्रेष्ठ- कुरु राजकुमारों में श्रेष्ठ
महाबाहो- बलशाली भुजाओं वाले
पांडव- पांडु के उत्तराधिकारी
परंतप- शत्रुओं को भस्मीभूत करने वाले
पार्थ- पृथा पुत्र
पुरुषर्षभ- मनुष्यों में पुष्प( मनुष्यों के प्रमुख या वृषभ)
पुरुष व्याघ्र- मनुष्यों में बाघ। निर्भय और शत्रुंजयी।
सव्यसाचिन- किसी भी हाथ से धनुष वाण चलाने वाले।
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