Tuesday, February 2, 2016

पर्यावरणीय चिंता : नहीं अतिभोग, मात्र सदुपयोग

पर्यावरणीय चिंता : नहीं अतिभोग, मात्र सदुपयोग
                                                                             डाराकेश नारायण द्विवेदी
भूमि, जन और संस्कृति से मिलकर ही किसी राष्ट्र काअस्तित्व रहता है। भूमि किसी भी देश का अपरिहार्यआवश्यक उपादान है। इसके बाद ही अन्य तत्वों का योगदानआता है। देश और उसमें निवसित नागरिकों का विकासउसके भौगोलिक संसाधन-जल, हवा, पर्यावरण, खनिजसंपदा, मृदा इत्यादि पर निर्भर करता है। कोई व्यक्ति या उसकेद्वारा विकसित नव्यतम प्रौद्योगिकी भी इस संपदा को निर्मितनहीं कर सकता है। यह पूरी तरह प्राकृतिक है। हम जानते हैंकि पानी केअभाव में मानव जीवन ही नहीं प्राणी मात्र परसंकट हो जाता है। मनुष्य पेयजल का आविष्कार या उसकाविकल्प नहीं खोज सकता है। यह प्रकृति पर विजय करनेजैसा होगा। यही स्थिति वायु, मिट्टी, पेड़-पौधे, अन्न औरहर्बलों के साथ है।
वर्तमान में व्यक्ति ने अपनी महत्वाकांक्षा के कारण दुनिया केइन प्रकृति प्रदत्त अनमोल उपहारों का उपभोग किया है,लेकिन इस क्रम में वह इतना आगे बढ़ गया कि उसे अंदाजाही न रहा कि वह इनका उपभोग कर रहा है या उनको निचोड़रहा है। महत्वाकांक्षा और सब कुछ अपने भर के लिए जुटानेकी कोशिश में उसने प्रकृति को रौंद डाला है। हमें स्थिति कीभयावहता को समझना होगा और तत्काल इसके निवारण केलिए कदम उठाने होंगे। समस्या को चिन्हित करने कीआवश्यकता सर्वप्रथम है, तत्पश्चात समाधान के लिए बढ़नाआवश्यक होगा।
भारतीय रहन-सहन के मूल तरीक़ों में इस समस्या कासमाधान सन्निहित है। हमारे पूर्वज-ऋषि प्रकृति के सबसेअधिक समीप रहे। उन्होंने समझा था कि प्रकृति के करीबरहना मानव की विवशता है। अथर्ववेद कहता है 'माता भूमि:पुत्रोहम् पृथिव्या:' पृथ्वी हमारी माता है और हम इसके पुत्र हैं।हमने प्रकृति पूजा को धर्म और नैतिकता से सहयुक्त कर दियाथा, जिससे प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति का सम्मान करे, उसकाअतिक्रमण न करे। अपने धर्मऔर संस्कृति की यह बड़ीविशेषता है।
1890 ई में एक अंग्रेज महिला के आस्ट्रेलिया भ्रमण के दौरानसर्वथा निरुपयोगी एवं हानिकर जलकुंभी नामक लता कीकथित शोभा से मोहित होकर भारत में उसे तत्कालीन ब्रिटिशसरकार ने लगवा दिया। इस जलकुंभी को निर्मूल करने कीसमस्या अलग से बन गई है। हम पश्चिम की हर वस्तु को प्रेयरूप में देखकर उसे पाने के लिए लालायित होने लगते हैं, यहहमारी हीनभावना को दर्शाता है। दुनिया के विकसित देशकभी न गलने वाला सबसे अधिक कचड़ा एशिया तथाअफ्रीका के समुद्री किनारों पर जाल जाते हैं और पर्यावरण केसम्मेलनों में बड़े-बड़े उपदेश देते हैं किभारत को गाय भैंसजैसे गोबर करने वाले जानवर बंद करने चाहिए, क्योंकि इनसेनिकली मीथेन गैस कथित रूप से ओजोन परत को क्षतिपहुंचाती है। इन बातों को देखते हुए लगता है कि पर्यावरणीयप्रदूषण की समस्या समझने के स्तर पर ही विकराल बन गई हैऔर न सुलझाने पर कदाचित् प्रलय संबंधी पौराणिकभविष्यवाणी सच होने में तनिक भी संदेह नहीं रह जाएगा।
बाहर के देशों की जो समस्या है, वह तो है ही विकट; अपनेदेश में लोग कई तरह से मिट्टी, जल, वायु, पेड़-पौधों तथाखनिज संपदा को अपार क्षति पहुंचा रहे हैं। यह जो अध्यात्मऔर आध्यात्मिक प्रवचनों का विस्फोट हो रहा है, उससे यहगलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि शहर के लोग धार्मिक  याआध्यात्मिक वृत्ति के बन रहे हैं। हमने गंगा जैसी नदी कीपवित्रता कोभी बख्शा नहीं है। रासायनिक उर्वरकों के प्रयोगसे मृदा की मृदुता जाती रही है। मिट्टी को व्यक्ति किसीकारखाने में बना नहीं सकता है। हम कह सकते हैं-
वस्तु सकल उपभोग हों, पर न करें तमाम।
वक्त परे पै ना मिलै माटी खरचै दाम।।
पानी के बारे में कविवर रहीम का दोहा प्रसिद्ध ही है-
रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे मोती मानुस चून।।
अब हमारी पीढ़ी के लोग भी पुराने अनाज, सब्जी तथा फलोंके स्वाद को तरस गए है। जैविक खाद को हरित क्रांति ने 'हर'लिया है। अभूतपूर्व रूप से फरवरी मार्च में भी अब बर्फ गिरनेलगी है। गर्मी के मौसम में अनेकों बार मौसम संबंधीकीर्तिमान बनते टूटते हैं। सरकारी स्तर पर पारंपरिक पेड़ों कीबजाय यूकेलिप्टस जैसे हानिकारक विदेशी पेड़ों का रोपणकमीशन प्राप्ति का साधक जो है। विदेश में जाकर कुछ लोगवहां की हर चीज में देवत्व का वास समझते हैं, यही नहीं वेअपने यहां के संसाधनों को कूड़ा भी मानते हैं। ऐसे लोगों कीमानसिकता को कैसे बदला जाये?
केचुआ मिट्टी की नाड़ी है, जिसका खेतों में दर्शन ही दुर्लभ होगया है। हम गांव से जुड़े रहने वाले लोग अपने बचपन केसमय को जब याद करते हैं तो पाते हैं बहुत से जीव-जंतु जोमिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाते है, अब दिखते नहीं। गीध पक्षीजो दूषित पर्यावरण की सफाई करने में महती योगदान करताहै, गायब हो गया। धरती पर तो जैसे पर्यावरण बिगड़ने सेअत्याचार हो रहा है। धरती की कराह सुनकर अब तो ऐसे रामकी तलाश है, जो खर, दूषण, ताड़का और रावण जैसेपर्यावरण की क्षति कर रहे दानवों का संहार कर सकें। यहराम अकेले होने से भी काम न चलेगा। घर-घर राम हो, जोसबसे पहले अपने ही अंदर के रावण को मारे। हम स्वयं अपनेदोषों को दूर करें। प्रकृति की सुषमा का सम्मान करें औरन्यूनतम वांछित उपयोग करते हुए उसे भावी पीढ़ी के लिएसुरक्षित रखे, तभी 'मनभावतो धेनु पय स्रवहीं' संभव होपाएगा। गांधी नामक उस दूरदर्शी महात्मा का वाक्य बार-बारदोहराने योग्य है कि 'पृथ्वी हरेक की जरूरत पूरी कर सकतीहै, लालच एक का भी नहीं' तमिल कहावत है, हमें 'मक्खन हैघी चाहिए'। इस लालच से दूर रहना ही होगा, कोई और चारानहीं दुनिया के पास। हमारे पूर्वज भोग की नियति को बहुतपहले समझ लिए थे, जिसे दुनिया अब समझ रही है।ईशावास्योपनिषद का पहला मंत्र है लालच मत करो, यह धनकिसका हुआ। अत: त्यागपूर्वक उपभोग करो। हम जितनाअपने देश और समाज से ग्रहण करें, उससे अधिक उसेलौटाएं भी, तभी यह दुनिया बच पाएगी। हमारे पुरखों ने इसेअगर न बचाया होता तो हमें भी यह इस रूप में न मिलती।
बुखार होने पर हम क्या करते हैं, पहला पट्टी करते है, जिससेबुखार बढ़कर कोई अंग क्षतिग्रस्त न कर दे। दूसरा तरीका है,जांच कराते हैं, दवा लेते हैं, इंजेक्शन लगवाते हैं आदि। तीसरातरीका हैशरीर काशोधन करते हैं, शोधन करने के लिए आधाउपवास करते हैं यानि जो अति इस शरीर के साथ हुई है,उसका त्याग करते हैं। जितनाशरीर को जिंदा रखने के लिएजरूरी है, उतना और वैसा भोजन लेते हैं। जो ऐसा नहीं करतेहैं, वे अपनी पीडा को दूर नहीं कर पाते या जो इस पथ्यापथ्यको भुला देते, उन्हैं रोग फिर जकड़ लेता और अगली बार कईगुने वेग से और असाध्य बीमारियों तक से दो चार होना पड़ताहै। पृथ्वी के साथ भी कुछ ऐसा ही है। कार्बन उत्सर्जन रोकनेकी बात करना, पट्टी करने जैसा काम है। दवा लेने, जांचकराने जैसे दूसरे सारे उपाय वैकल्पिकसमाधान हैं, यह स्थायीइलाज नहीं। उपभोग की अति की जगह, दुपयोग को हमेशाकी आदत बना लेना, आधे उपवास पर रहने जैसा काम है।जब तक यह शोधन कार्य चलता रहेगा, शरीर शोधित होतारहेगा। यह सर्वश्रेष्ठ समाधान है।
सौ वर्ष से अधिक हुए, तब गांधी जी ने मशीनों की बुराई कोसमझ लिया था, क्योंकि वह भारत की मूल सभ्यता से जुड़ेथे। उन्होंने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' सभ्यता को असाध्यरोग कहा। मशीनों को जहर मिटाने की जहरीली दवा जैसामाना। बड़े-बड़े ढांचों की बजाय, छोटे-छोटे ढांचे और बड़ी-बड़ी मशीनों की बजाय, छोटे से चरखे और कुटीर उद्योगों कोबेहतर माना। अपने लिए छोटे-छोटे काम चुने। एकादश व्रततय किए, गांव को अपने आप में गणतंत्रऔर संयम, सादगीऔर स्वावलंबन को स्वतंतत्रता और प्रकृति दोनों के संरक्षणका औजार माना।
अपव्यय और कंजूसी में अंतर होता है। जूठन न छोड़नाकंजूसी नहीं, अपव्यय रोकना है। गांव में यह जूठन मवेशियोंके काम आ जाता हैअथवा खाद बनता है। शहरों में ऐसाभोजन कचरा बढ़ाता है। हमें चाहिए कि जिस चीज काअधिक प्रयोग करते हों, उसके अनुशासितउपयोग का संकल्पलें।
यदि हम यह सब नहीं करेंगे तो मजबूर प्रकृति तो मानव कृत्योंका नियमन करेगी ही। जलवायु परिवर्तन के इस दौर को हमेंइसी रूप में लेना चाहिए। हमें जानना चाहिए कि प्रकृति अपनेही सिद्धांतों को मानती है और दूसरों से उनका नियमन करानेकी क्षमता भी रखती है।
एसोसिएट प्रोफेसर, शोध एवं स्नातकोत्तर हिंदी विभाग,
गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन)
मो 9236114604

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