कित्ती ज़रूरी : मानक बुंदेली
डा राकेश नारायण द्विवेदी
मानक कौ आशय है शुद्ध, श्रेष्ठ या नीकी, आदर्श यापरिनिष्ठित। मानक भाषा याने श्रेष्ठ भाषा। पै ईकौ मतलब जौनइयां कै जो भाषाएं मानक नइयां वे अशुद्ध या हेय भाषा होगइं। वास्तव में तौ कौनउं भाषा हेय होतइ नइयां। भाषा खोंसमाज अरजित करत है। ईसें बा हेय कैसें हो सकत। इतैमानक भाषा कौ मतलब एकरूपता सें है। कैउ बोली रूपन मेंसें कौनउं भाषा कौ जब एकरूप बनाकें सर्वस्वीकृत कर लओजाबै, तौ उऐ मानक या स्टेंटर्ड भाषा मानो जान लगत है।भाषा के मानक रूप सें ऊ भाषा के दूसरे कैउ रूपन के प्रयोगकरबे वारन खों आसानी हो जात है।
कौनउं बड़ी बोली या भाषा के भौत से बोली रूप जनसामान्यमें प्रचलित होत हैं। अपनी बुंदेली बोली के सोउ ऐसे कैउ रूपप्रचलित हैं। बुंदेलखंड के जालौन जिला जां सें बुंदेली भाषाकौ प्रयोग होबौ सुरू होत, ऊमें कानपुर जिला सें लगे गांवन की बुंदेली भाषा पै कन्नौजी कौ असर है तो राठ छेत्र कीभाषा लुधयांत बुंदेली कई जात है। आगें बढ़कें पूरब में झांसीऔर ललितपुर, टीकमगढ उर छतरपुर में खांटी या सुद्ध बुंदेलीकौ प्रयोग होत है। खांटी या सुद्ध बुंदेली कैबे कौ आसय है कैऊ पै कौनउं अन्य भाषा कौ असर भौतइ कम हो पाओ है। जातरा सें बुंदेलखंड के बीच के जिलन की भाषा खाटी बुंदेलीआए। महोबा, हमीरपुर, चित्रकूट, बांदा, दतिया, ग्वालियर,विदिशा, सागर, पन्ना, दमोह आदि जो जिले हैं, इतै की बुंदेलीपै उनकी सीमावर्ती बोलियन कौ जादा असर दिखात है।जाहिर है कै जी सब्द कौ जौन रूप इत्ते बड़े बुंदेलखंड में एकजगां होत, ठीक वैसउ रूप दूसरे छेत्र में प्रयोग नइं होत।बल्कि एसो सोउ होत कै एक जगां कोनउं चीज खों कछु कइजात, बेइ चीज खों बुंदेलइखंड की दूसरी जागां कछु औरकओ जा रओ। जेइ से बुंदेली के कैउ रूपन खों भिन्न भिन्ननामन सें भाषा विज्ञानियन ने पुकारो है , जैसें- पवारी,लोधांती, खटोला, बनाफरी, कुंडी, निभट्टा, भदावरी, कोसी,नागपुरी आदि।
भाषा के कैउ अलग अलग रूपन के प्रयोग सें कोनउं बात खोंठीक तरा सें समजबे में कभउं कभउं परेशानी होत है।पत्राचार, शिक्षा, सरकारी कामकाज उर सामाजिकसांसकिरतिक आदान प्रदान में समान स्तर पै प्रयोग करबे केलाने मानक भाषा की जरूरत निस्संदेह है, पै के पैलें हमें कछुबातन पै विचार कर लओ चइए जीमें कछु ऐसी हैं।
खड़ी बोली हिंदी की मानक भाषा बन गइ। भारतेंदु युग सेंहिंदी गद्य कौ प्रारंभ भऔ, ऊ समय की खड़ी बोली में तरातरा के रूपइ नइ दिखात ते, बा अपने सुरूआती दौरउ मेंहती। राजा सिवप्रसाद सितारेहिंद ऊ खड़ी बोली के पक्षधरहते, जीमे अरबी फारसी के भी सब्द खूबइ शामिल रैबें, लेकिनराजा लक्ष्मण सिंह उर इंशाअल्ला खां जैसे लोग सुद्ध उरतत्सम हिंदी के पक्षधर हते। बाद में आचार्य महावीर प्रसादद्विवेदी नें अपनी पत्रिका 'सरस्वती' के संपादन के माध्यम सेंखड़ी बोली खों खूबइ मांजो। उनने नए नए विषयन पे लिखबेखों रचनाकारन खों प्रोत्साहित करो। सिथिल भाषा के सिल्पखों कसो। प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर कौ नाम आचार्यद्विवेदी ने बदलो, पैले ईको नांव पंचों में परमेश्वर रखो गओतो। हमें जा सोउ नइं भूलने के ई समय तक आउत आउतखड़ी बोली पूरे हिंदी छेत्र, जीमें हिंदी की सब बोलियन केसाहित्यकार सामिल हैं, की साहित्यिक भाषा बन गई ती। जोब्रजभाषा साहित्य के केंद्र मेंहती, बा अब नइं रइ। सोउ अवधीभाषा खों भी जो गौरव मलिक मोहम्मद जायसी उर गोस्वामीतुलसीदास ने पोंचाओ, बौ भी नइं रओ। जे भाषाएं गद्य कीमाध्यम कभउं बनइ नइं पाइ तीं। खड़ी बोली गद्य के अनुकूलभाषा समजी गई। आचार्य द्विवेदी और उनके मंडल केरचनाकारन ने खूबइ जादा उर बड़ी बड़ी रचनाएं ई भाषा मेंकरीं। इनसें उनें खुद भी भौत प्रसिद्धि मिली। अपनइ छेत्र केचिरगांव निवासी मैथिली शरण गुप्त बारह बरस याने दो बारराज्यसभा के सदस्य बने। बाद में मध्य प्रदेश के सेठगोविंददास उर बिहार के रामधारीसिंह दिनकर भी जेइ सदनके सदस्य भए। कविता के छेत्र में भारतेंदु मंडल केसाहित्यकारन ने, ऊके बादद्विवेदी युग, छायावाद युग,प्रगतिवाद, प्रयोगवाद उर नई कविता की रचना भाषा कीरचना के रूप खड़ी बोली खूब फली फूली। जेइ नइं पैली बेरनाटक, एकांकी, उपन्यास, कानी, निबंध, आलोचना, पत्र,संस्मरण रिपोर्ताज रेखाचित्र जैसी गद्य विधान की भाषा खड़ीबोलियइ बनी। हमाओ कैबे कौ मतलब है, जब भी कोनउंभाषा में विपुल साहित्य रचना करी जान लगत उर ऊ भाषाखों शासन अपनाउन लगबै तौ उऐ मानक करे जाबेआवस्यकता महसूस होन लगत। अपुन सब जनें सोचो कैअपनी बुंदेली बोली में इत्ती साहित्य रचना का अबै हो रई। ईके संगै संगै बाद में १४ सितंबक १९४९ खों खड़ी बोली केरूप में मानकीकिरत हिंदी भाषा देस की राजभाषा सोउ बनगई, जासें जो भी सरकारी कामकाज हंदी में होबै, बौ सोउ जेईभाषा में निबटाओ जा रओ, बौ चाए अंगरेजी सें अनुवाद केरूप में होए, चाए मौलिक। खड़ी बोली जेइ सें मानक भाषाबन पाई है।
बुंदेली भाषा की जो स्थिति अबै है, ऊके देखत भए चाइए कैजादां सें जादां गद्य पोथियां ई बोली में रची जाबें। जित्तो जादागद्य साहित्य बुंदेली में लिखो जैए, उत्ती तरा की भावभूमि उरसब्द भंडार की बढ़ोत्तरी होत जैए। कोनउं जागां लड़का खोंलरका कई जात, ओइए कउं मोड़ा तौ कउं लला उर कउंटुरका ईसें कौनउं समस्या नइयां। जौ तो और अच्छो आए।बुंदेली की प्रकृति प्रभावित भए बिना कैउ तरा के सब्दन खोंअगर साहित्य की भाषा में प्रयोग करो जाबे तो अपनी भाषाखों पढ़बे समजबे की उतकंठा पाठक के अंदर जगै। ई केअलावा तरा तरा के सब्द प्रयोगन सें भाव वैविध्य कौ विस्तारहोत। कैउ सब्द तौ ऐसे हैं कै ऊके लाने हमें अंगरेजी भाषा पैनिर्भर होने पड़त, जैसें बफे सिस्टम में खाबे के लाने हिंदियउमें सब्द नइ मिलत, लेकिन कोउ ने ई के लाने बड़ो नौनो सब्ददओ है, 'ठड़भोज'। जौ सब्द 'बंदेली दरसन' के कोनउं अंक मेंप्रकासित भओ है। ई तरा सें कैउ सब्द हैं, 'भइया अपने गांवमें' (बाबूलाल द्विवेदी) पोथी के संपादन के समय एक सब्दपड़ो (रोटी) पइं, जौ सब्द बुंदेली में खूब प्रचलित सब्द है। ईकौ उल्था या बदल सब्द हिंदियऊ में नइं मिलत। कैबे कौमतलब है के बोलियन सें भाषउ समृद्ध होत है। ईसें मोरीविनती है के बोलियन के प्रवाह खों रोको ना जाबै, जीखों जोसब्द उर सिल्प नीको लगबै, बौ उए प्रयोग करबै। गद्य या पद्यकौ अनुसासन और भाषा की प्रकृति उर लय ना टूटबे बस।
ईसें हमें लगत है कै बुंदेली भाषा कौ मानक रूप करबे कीअबे जरूरत नइयां, पै बुंदेली लिखबे के लाने ई की वर्तनी खोंमानक बनाबे की जरूरत अवस्य है। कभउं कभउं सब्दन खोंकैउ तरा सें लिखबे पे अर्थ भ्रम हो जात है। बुंदेली की वर्तनीखों एकरूप करबे में हमें हिंदी की वर्तनी के अनुरूप बढ़ोचइए। सबसें बड़ी जरूरत तौ जा बात की है कै हम अपनेमौड़ी मौड़न खों बुंदेली के प्रयोग करबे में हीन भाव पैदा नकरबें। काए सें के विदेसी भाषा तौ व्यापार के लाने जरूरी है,राजभाषा सरकारी कामकाज के लाने, पै मातृभाषा स्वयं केसंस्कारन के लाने जरूरी होत है। ई के प्रयोग करबे में हमेंसरम न आव चइए। हम लोग देखत हैं कै पूरबी लोग चाए देसमें कोनउं जागां रैबें या चाए विदेस में रैबें, जब वे आपस मेंमिलत हैं तौ अपनी भोजपुरी में बोलत-व्यवहारत हैं। जेइस्थिति और बोलियन-भाषन की है। हमने सबसें जादां अपनीबोली के लोगन खों ई बोली के प्रयोग करबे में संकोच करतदेखो, ईसें अपनी संतानें तौ दुर होतइ चले जैंए। हाल मेंओरछा में महाराजा मधुकर शाहजू के सौजन्य सें भऔअखिल भारतीय बुंदेली साहित्य एवं संस्कृति के एक कार्यक्रममें हैदराबाद विश्वविद्यालय में पंजीकृत एक गुजराती दलितशोध छात्र दीपक बरखडे अपने शोध को विषय रखो कैबुंदेली एक पहचान है या भाषा (बुंदेली एन आइडेंटिटी ऑरलेंग्वेज)। ई शोध में वे तमिलनाडु में रैबे वारे बुंदेली भइयाबैनन खों देखकें खोज रए कै कैसें लोग अपनी पहचानइभुलाउत जा रए। जा स्थिति हम बुंदेलखंड वारन के लानेअच्छी नइयां।
कौनउं बड़ी बोली या भाषा के भौत से बोली रूप जनसामान्यमें प्रचलित होत हैं। अपनी बुंदेली बोली के सोउ ऐसे कैउ रूपप्रचलित हैं। बुंदेलखंड के जालौन जिला जां सें बुंदेली भाषाकौ प्रयोग होबौ सुरू होत, ऊमें कानपुर जिला सें लगे गांवन की बुंदेली भाषा पै कन्नौजी कौ असर है तो राठ छेत्र कीभाषा लुधयांत बुंदेली कई जात है। आगें बढ़कें पूरब में झांसीऔर ललितपुर, टीकमगढ उर छतरपुर में खांटी या सुद्ध बुंदेलीकौ प्रयोग होत है। खांटी या सुद्ध बुंदेली कैबे कौ आसय है कैऊ पै कौनउं अन्य भाषा कौ असर भौतइ कम हो पाओ है। जातरा सें बुंदेलखंड के बीच के जिलन की भाषा खाटी बुंदेलीआए। महोबा, हमीरपुर, चित्रकूट, बांदा, दतिया, ग्वालियर,विदिशा, सागर, पन्ना, दमोह आदि जो जिले हैं, इतै की बुंदेलीपै उनकी सीमावर्ती बोलियन कौ जादा असर दिखात है।जाहिर है कै जी सब्द कौ जौन रूप इत्ते बड़े बुंदेलखंड में एकजगां होत, ठीक वैसउ रूप दूसरे छेत्र में प्रयोग नइं होत।बल्कि एसो सोउ होत कै एक जगां कोनउं चीज खों कछु कइजात, बेइ चीज खों बुंदेलइखंड की दूसरी जागां कछु औरकओ जा रओ। जेइ से बुंदेली के कैउ रूपन खों भिन्न भिन्ननामन सें भाषा विज्ञानियन ने पुकारो है , जैसें- पवारी,लोधांती, खटोला, बनाफरी, कुंडी, निभट्टा, भदावरी, कोसी,नागपुरी आदि।
भाषा के कैउ अलग अलग रूपन के प्रयोग सें कोनउं बात खोंठीक तरा सें समजबे में कभउं कभउं परेशानी होत है।पत्राचार, शिक्षा, सरकारी कामकाज उर सामाजिकसांसकिरतिक आदान प्रदान में समान स्तर पै प्रयोग करबे केलाने मानक भाषा की जरूरत निस्संदेह है, पै के पैलें हमें कछुबातन पै विचार कर लओ चइए जीमें कछु ऐसी हैं।
खड़ी बोली हिंदी की मानक भाषा बन गइ। भारतेंदु युग सेंहिंदी गद्य कौ प्रारंभ भऔ, ऊ समय की खड़ी बोली में तरातरा के रूपइ नइ दिखात ते, बा अपने सुरूआती दौरउ मेंहती। राजा सिवप्रसाद सितारेहिंद ऊ खड़ी बोली के पक्षधरहते, जीमे अरबी फारसी के भी सब्द खूबइ शामिल रैबें, लेकिनराजा लक्ष्मण सिंह उर इंशाअल्ला खां जैसे लोग सुद्ध उरतत्सम हिंदी के पक्षधर हते। बाद में आचार्य महावीर प्रसादद्विवेदी नें अपनी पत्रिका 'सरस्वती' के संपादन के माध्यम सेंखड़ी बोली खों खूबइ मांजो। उनने नए नए विषयन पे लिखबेखों रचनाकारन खों प्रोत्साहित करो। सिथिल भाषा के सिल्पखों कसो। प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर कौ नाम आचार्यद्विवेदी ने बदलो, पैले ईको नांव पंचों में परमेश्वर रखो गओतो। हमें जा सोउ नइं भूलने के ई समय तक आउत आउतखड़ी बोली पूरे हिंदी छेत्र, जीमें हिंदी की सब बोलियन केसाहित्यकार सामिल हैं, की साहित्यिक भाषा बन गई ती। जोब्रजभाषा साहित्य के केंद्र मेंहती, बा अब नइं रइ। सोउ अवधीभाषा खों भी जो गौरव मलिक मोहम्मद जायसी उर गोस्वामीतुलसीदास ने पोंचाओ, बौ भी नइं रओ। जे भाषाएं गद्य कीमाध्यम कभउं बनइ नइं पाइ तीं। खड़ी बोली गद्य के अनुकूलभाषा समजी गई। आचार्य द्विवेदी और उनके मंडल केरचनाकारन ने खूबइ जादा उर बड़ी बड़ी रचनाएं ई भाषा मेंकरीं। इनसें उनें खुद भी भौत प्रसिद्धि मिली। अपनइ छेत्र केचिरगांव निवासी मैथिली शरण गुप्त बारह बरस याने दो बारराज्यसभा के सदस्य बने। बाद में मध्य प्रदेश के सेठगोविंददास उर बिहार के रामधारीसिंह दिनकर भी जेइ सदनके सदस्य भए। कविता के छेत्र में भारतेंदु मंडल केसाहित्यकारन ने, ऊके बादद्विवेदी युग, छायावाद युग,प्रगतिवाद, प्रयोगवाद उर नई कविता की रचना भाषा कीरचना के रूप खड़ी बोली खूब फली फूली। जेइ नइं पैली बेरनाटक, एकांकी, उपन्यास, कानी, निबंध, आलोचना, पत्र,संस्मरण रिपोर्ताज रेखाचित्र जैसी गद्य विधान की भाषा खड़ीबोलियइ बनी। हमाओ कैबे कौ मतलब है, जब भी कोनउंभाषा में विपुल साहित्य रचना करी जान लगत उर ऊ भाषाखों शासन अपनाउन लगबै तौ उऐ मानक करे जाबेआवस्यकता महसूस होन लगत। अपुन सब जनें सोचो कैअपनी बुंदेली बोली में इत्ती साहित्य रचना का अबै हो रई। ईके संगै संगै बाद में १४ सितंबक १९४९ खों खड़ी बोली केरूप में मानकीकिरत हिंदी भाषा देस की राजभाषा सोउ बनगई, जासें जो भी सरकारी कामकाज हंदी में होबै, बौ सोउ जेईभाषा में निबटाओ जा रओ, बौ चाए अंगरेजी सें अनुवाद केरूप में होए, चाए मौलिक। खड़ी बोली जेइ सें मानक भाषाबन पाई है।
बुंदेली भाषा की जो स्थिति अबै है, ऊके देखत भए चाइए कैजादां सें जादां गद्य पोथियां ई बोली में रची जाबें। जित्तो जादागद्य साहित्य बुंदेली में लिखो जैए, उत्ती तरा की भावभूमि उरसब्द भंडार की बढ़ोत्तरी होत जैए। कोनउं जागां लड़का खोंलरका कई जात, ओइए कउं मोड़ा तौ कउं लला उर कउंटुरका ईसें कौनउं समस्या नइयां। जौ तो और अच्छो आए।बुंदेली की प्रकृति प्रभावित भए बिना कैउ तरा के सब्दन खोंअगर साहित्य की भाषा में प्रयोग करो जाबे तो अपनी भाषाखों पढ़बे समजबे की उतकंठा पाठक के अंदर जगै। ई केअलावा तरा तरा के सब्द प्रयोगन सें भाव वैविध्य कौ विस्तारहोत। कैउ सब्द तौ ऐसे हैं कै ऊके लाने हमें अंगरेजी भाषा पैनिर्भर होने पड़त, जैसें बफे सिस्टम में खाबे के लाने हिंदियउमें सब्द नइ मिलत, लेकिन कोउ ने ई के लाने बड़ो नौनो सब्ददओ है, 'ठड़भोज'। जौ सब्द 'बंदेली दरसन' के कोनउं अंक मेंप्रकासित भओ है। ई तरा सें कैउ सब्द हैं, 'भइया अपने गांवमें' (बाबूलाल द्विवेदी) पोथी के संपादन के समय एक सब्दपड़ो (रोटी) पइं, जौ सब्द बुंदेली में खूब प्रचलित सब्द है। ईकौ उल्था या बदल सब्द हिंदियऊ में नइं मिलत। कैबे कौमतलब है के बोलियन सें भाषउ समृद्ध होत है। ईसें मोरीविनती है के बोलियन के प्रवाह खों रोको ना जाबै, जीखों जोसब्द उर सिल्प नीको लगबै, बौ उए प्रयोग करबै। गद्य या पद्यकौ अनुसासन और भाषा की प्रकृति उर लय ना टूटबे बस।
ईसें हमें लगत है कै बुंदेली भाषा कौ मानक रूप करबे कीअबे जरूरत नइयां, पै बुंदेली लिखबे के लाने ई की वर्तनी खोंमानक बनाबे की जरूरत अवस्य है। कभउं कभउं सब्दन खोंकैउ तरा सें लिखबे पे अर्थ भ्रम हो जात है। बुंदेली की वर्तनीखों एकरूप करबे में हमें हिंदी की वर्तनी के अनुरूप बढ़ोचइए। सबसें बड़ी जरूरत तौ जा बात की है कै हम अपनेमौड़ी मौड़न खों बुंदेली के प्रयोग करबे में हीन भाव पैदा नकरबें। काए सें के विदेसी भाषा तौ व्यापार के लाने जरूरी है,राजभाषा सरकारी कामकाज के लाने, पै मातृभाषा स्वयं केसंस्कारन के लाने जरूरी होत है। ई के प्रयोग करबे में हमेंसरम न आव चइए। हम लोग देखत हैं कै पूरबी लोग चाए देसमें कोनउं जागां रैबें या चाए विदेस में रैबें, जब वे आपस मेंमिलत हैं तौ अपनी भोजपुरी में बोलत-व्यवहारत हैं। जेइस्थिति और बोलियन-भाषन की है। हमने सबसें जादां अपनीबोली के लोगन खों ई बोली के प्रयोग करबे में संकोच करतदेखो, ईसें अपनी संतानें तौ दुर होतइ चले जैंए। हाल मेंओरछा में महाराजा मधुकर शाहजू के सौजन्य सें भऔअखिल भारतीय बुंदेली साहित्य एवं संस्कृति के एक कार्यक्रममें हैदराबाद विश्वविद्यालय में पंजीकृत एक गुजराती दलितशोध छात्र दीपक बरखडे अपने शोध को विषय रखो कैबुंदेली एक पहचान है या भाषा (बुंदेली एन आइडेंटिटी ऑरलेंग्वेज)। ई शोध में वे तमिलनाडु में रैबे वारे बुंदेली भइयाबैनन खों देखकें खोज रए कै कैसें लोग अपनी पहचानइभुलाउत जा रए। जा स्थिति हम बुंदेलखंड वारन के लानेअच्छी नइयां।
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