Wednesday, December 2, 2015

पचनदा का शास्त्रीय संदर्भ

पचनदा का शास्त्रीय संदर्भ
                        डा राकेश नारायण द्विवेदी

चंबल, पहूज, सिंध तथा कुंवारी उत्तर प्रदेश के जालौन जनपद में यमुना नदी में जहां मिलती हैं, वह स्थान पचनदा कहलाता है । भौगोलिक दृष्टि से बुंदेलखंड में  यह विश्व का विरल रमणीक स्थान है, जहां पांच नदियों का एक साथ संगम होता हो । यह नदियां जालौन जनपद के सीमांत क्षेत्र में प्रवाहित होती हैं, जहां उत्तर में उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद की सीमा तथा पूर्व में मध्य प्रदेश के भिंड जिले की सीमा संस्पर्श करती है । जालौन के उत्तर में जगम्मनपुर होते हुए कंजौसा गाव के निकट इस स्थान तक पहुंचा जा सकता है । उरई से इसकी दूरी  65 किमी है । पांच नदियों का संगम होने के कारण यहां के बाबासाहब मंदिर की पांच मठियां हैं, जिनमें विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं । स्थानीय लोगों द्वारा  कहा जाता है कि  संवत् 1635 में गोस्वामी तुलसीदास पचनदा पर आये थे । उन्होंने यमुना की बीच धार में बैठकर पीने का पानी मांगा । उस समय यहां दो महात्मा गुरु मंजुमन और उनके शिष्य मुकुंदमन रहते थे । तुलसीदास की आवाज सुनकर गुरु ने शिष्य को कहा कि मेरे कमंडल से जब तक इंकार न करें तब तक जल देते जाना । न उन महात्मा का कमंडल भरा और न इनका कमंडल खाली हुआ । तब तुलसीदास ने कहा, यह स्थान बहुत प्रसिद्ध होगा । तुलसीदासजी ने एक शंख उन महात्मा को भेंट किया । महात्माजी के चरण चिन्ह यहां बने हुये हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रसिद्ध के लिये तुलसीदास के नाम से यह कहानी बना ली गई, पर कोई साधु-महात्मा अवश्य यहां रहे हैं ।नदियों और अरण्यों में जाकर एकांतवास कर साधना करना हमारे देश की संस्कृति का हिस्सा रहा है ।  मंदिर का बाह्य रूप नीचे एक फोटो में दिया गया है, दूसरे फोटो में नदियों का संगम स्थल है । प्रतिवर्ष यहां कार्तिक पूर्णिमा पर चार दिनों तक मेला लगता है । 

भारत के किसी कोने में हम जायें, किसी न किसी नदी का दर्शन सहज सुलभ है । हमारे पूर्वजों ने जब सामुदायिक रूप में रहना प्रारंभ किया तो जल व्यवस्था के लिये यह नदियां ही अवलंब बनीं । सिंधु घाटी हो, मैसोपोटामिया हो या बैबीलोन, कोई न कोई नदी ही इन सभ्यताओं को जीवन देने में सहायक बनीं । नदियां परमार्थ की जीवंत मिसालें हैं, कहा गया है -

वृक्ष कबहुं नहिं फल भखैं, नदी न संचै नीर ।
परमारथ के कारनै साधुन धरा शरीर ।।

नदियों का पराक्रम भी सर्वविदित है । बड़े-बड़े पहाड़ों, गिरि-गह्वर से निकली नदियां चट्टानों के अहंकार को चूर करती हैं, मानो वे पत्थर दिल व्यक्तियों को अहंकारहीन बनने का संदेश दे रहीं हैं । नदियों का सतत प्रवाही जल पत्थरों को घिस-घिसकर शालिग्राम बना देता है, जो घर-घर में पूज्य होते हैं । 

बुंदेलखंड के जालौन जनपद का पचनदा शास्त्रीय संदर्भ में भी विशिष्ट स्थान रखता है । पंचोपचार या षोडशोपचार पूजा-उपासना में पंचामृत स्नान विधि संपन्न कराते समय पांच नदियों का स्मरण किया जाता है । यदि इन पांचों नदियों को एक साथ चिन्हित करना हो तो विश्व में कहीं और नहीं, जालौन जनपद का पचनदा ही है -

ऊँ पंचनद्य: सरस्वतीमपयपिबंति सस्रोतस: सरस्वती तु पंचधा सो देशे भवत्सरित ।

 इसके अतिरिक्त उत्तराखंड के पंचप्रयाग में गढ़वाल हिमालय से निकलने वाली पांच नदियां विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग तथा देवप्रयाग । उत्तराखंड की यह पांच नदियां अलग-अलग और बहुत दूरी पर आमेलित होती हैं, जो रृषिकेश में आकर गंगा कहलाने लगती हैं । पुराण पावन इन नदियों का महत्व शास्त्रीय दृष्टि से अवश्य है, किंतु जालौन के इस पचनदा का भूगोल यदि विकसित हो जाये तो पर्यटन की संभावनाओं से भरपूर है ।

अमीरी की अश्लील चकाचौंध के इस युग में नदियों की चिंता किसे है ? घर का ही नहीं, उद्योग-धंधों का भी कचरा देश की नदियों में बहाया जा रहा है । नदी किनारे बसे शहर नदी को दोनों पाटों से ढंककर ऊंचे भवनों का निर्माण करके 'विकसित' हो रहे हैं । इसी कारण नदी में जब बाढ़ आती है तो यह साफ संकेत है कि अगर तुम हमारी फिक्र नहीं करोगे तो हम तुम्हारे लिये कैसे फिक्रमंद हो सकते हैं । नदी जब अपने उन्मुक्त वेग से बाढ़ के दिनों में बह निकलती है तो शासन-प्रशासन और आपदा नियंत्रक असहाय और लाचार नज़र आते हैं । दूसरी ओर नदियों का का जल सूख रहा है, उनसे अपार जलदोहन जो हो रहा है । हमें याद रखना होगा कि जल सौ प्रतिशत प्राकृतिक है और इसका कोई विकल्प नहीं अर्थात् हम जल के बिना जीवित नहीं रह सकते । नदियां सागर की ओर पर्वतों की पत्रवाहिका की तरह होती हैं । यह हमेशा बहती रहें तभी जीवन बना रह सकता है । 'सूखेंगीं नदियां तो रोयेंगीं सदियां ', अत: नदी और उसका जल संरक्षण आज की महती आवश्यकता है । इस प्रसंग में हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान उत्तरकाशी के अतुल शर्मा की एक कविता पाठकों के साथ बांटना अप्रासंगिक न होगा - 
xxxx
पत्थर नदी की भीतरी सतह के
रेत और शैवाल
मछलियां-जल जंतु 

और यह गर्वीला पहाड़
सब नदी का है

पर नदी है तो किसकी है? 
अपनी ही कहां है वह इसीलिए सबकी है।
सख्त दिखने वाले पर्वतों का भीतरी संसार
बेहद तरल है

उनमें पानी भरा है
स्रोत है अविराम बहते
पेड़ों की जड़ों से घुले स्रोत
कौन जाने
कैसी है नदी की भीतरी दुनिया
कौन जाने
कैसा है पर्वतों का अगम और अचूक संसार
बोलियां अब
लग चुकी हैं नदियों को बेचने की
पर्वत को खरीद चुके हैं लोग
चुप हैं सरकारों के नंगे दलाल कुछ
चुप हैं गांव का आने वाला समय
चुप है बहाव नदियों और समय का बहाव
चुप है हर जुबान
चुप है आने वाले समय की वीरान और सूखी नदी
चुप हैं पुरस्कारों के तमगे पहने मुखौटे
चुप हैं नदी और पहाड़ से कुछ लोग
चुप हैं पृथ्वी के हर संकट के श्वेत पत्र पर
हस्ताक्षर करने वाले बुद्धिजीवियों की
अनर्गल बहसें
बोलती है तो बस नदी
बोलती है तो नदी की आवाज
बोलती है तो लगातार तटों के पास आती

और उनको छोड़ती
चली जाती
नदी

एक नदी है अनेक नदियां
अनेक नदियां हैं अनेक जमीनें
अनेक जमीनें हैं अनेक जंगल
अनेक जंगल हैं बादल अनेक
नदी, नदी के लिए है, जमीन, जमीन के लिए, 
जंगल, जंगल के लिए
ये देते हैं सबको बिन मांगे
इनका कानून सबसे ऊपर
थोपो मत अपने को इन पर
नदी के ऊपर
कोहरे की नदी
कोहरे में डूबा-बोलता जंगल

हवाओं की तरह
शिराओं में बहता खून

ऑक्सीजन का भंडार
भरा-पूरा संसार

हर नदी का उद्गम यह
बोलियों और गीतों का उद्गम यह
नृत्यों और गाथाओं की अटल गहराई यह

ढोल बजाने वाले 
हाथों से नहीं
दिल से बजाते हैं ढोल
भाषा है उसकी
भाषा ये है उसकी
बोल है अलग-अलग
संदेश है एक उसका

नदियों के किनारे
झरनों के पास
कभी उठाओ गीत
लगाओ आवाज
तो टूट जायेगा भ्रम
बन जायेगी यह प्रकृति की ऊर्जा
हमारा होना – नदी के होने के भीतर है कहीं
हमारा होना – दुनिया की नदियों के इर्द-गिर्द है कहीं
नदी की नमी
बचा रही हैं पर्वत पुत्रियां
मायके को छोड़कर जाती हुई।
जाती हुई
पर्वत पुत्रियों के हाथ
अभी भी पकड़े हुए हैं
मायके की हथेली
रोज-रोज
तोड़ते हैं नदी का मायका जो
तोड़ रहे हैं वे
अपने को

अपने भीतर की नदी को
अपने भीतर की नदियों को

यह कैसा विकास
जो मुझे भी चाहिये और तुम्हे भी
फूल को भी चाहिये और फल को भी
गांव को भी चाहिये और शहर को भी
आकाश को भी चाहिये और पृथ्वी को भी

विकास
चाहिये हमें

पर चाहिये हमें उससे भी पहले
सांस

सांसो की नदी
चाहिये सबसे पहले हमें
सांसों का घना जंगल
सदियों के लिये

नदियों के लिए जंगल
और जंगल के लिये
चाहिये हमें नदियां

समुद्र को 
सबसे ज्यादा चाहिये नदियां

और नदियों को 
सबसे ज्यादा चाहिये
कई समुद्र

समुद्र का भीतरी
अबूझा जंगल

तय करता है
पृथ्वी के जंगल का स्वाभाविक आकार
स्वाभाविक
हां स्वाभाविक भी
और आकार भी

चाहिये
अपनी तरह से जीने वाली पृथ्वी
दूसरों के लिए बनी पृथ्वी
मंदिर की तरह
प्यास का विकल्प बनती बावड़ियां
अमृत है नदी
पहेली की तरह बहती चली दूर तक
उसके भीतर भी लहरें
उसके बाहर भी लहरें
कोई भी नहीं गिन पाया इन्हें

गिनती से बहुत आगे हैं
नदी की लहरें

उत्तरों से परे हैं नदी के सवाल
इतिहास और भूगोल
विज्ञान और भूगर्भीय तथ्य

यह सभी
हां यह सभी तो 
नदी की देन है
न सोचकर भी लगता है भयावह 
कि
कैसा होगा नदी के बिना संसार
शायद अगर मृत्यु है तो
यही है
बिना नदी का संसार
शायद ही नहीं निश्चित है
कि जीवन के बढ़ते चरण अगर बोल रहे हैं
तो नदी के कारण ही बोल रहे हैं
नदी की भाषा की वर्णमाला
पढ़ पायें हैं तो
उसे जीवित रखने वाली गांव की सुबह और
गांव की शाम और गांव की रात
सूर्य प्रणाम है नदी की भाषा
वही है योग का आधार एक
245 शब्दार्णव, नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई (जालौन)
मोबाइल 9236114604
उत्तरप्रदेश में इटावा के बिठौली गांव में स्थित तातरपुर में यमुना, चम्बल, कावेरी, सिंधु और पहुज नदियों का संगम होता है। इस संगम को पचनदा अथवा पचनद भी कहा जाता है। यहां के प्राचीन मन्दिरों में लगे पत्थर आज भी दुनिया के इस आश्चर्य और भारत की श्रेष्ठ धार्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत का बखान करते नजर आते हैं।


डा राकेश नारायण िद्ववेदी

No comments:

Post a Comment