Saturday, September 23, 2017

चुनौतियों के समाधान में साहित्य की भूमिका

चुनौतियों के समाधान में भारतीय साहित्य की भूमिका
      राकेश नारायण द्विवेदी
मनुष्य को मनुष्य बनाना साहित्य का स्वाभाविक कार्य है। साहित्य यह कार्य संवेदना जगाकर करता है। साहित्य संवेदना जगाकर उसका दंभ नहीं भरता। साहित्य उपदेश नहीं है, मनोरंजन भी नहीं है। वह राजनीति की तरह नेतृत्व भी नहीं करता, पर राजनीति के आगे चलने वाली मशाल अवश्य है। साहित्य नारे नहीं लगाता, पर व्यक्ति को उस नारे के भीतर की यात्रा कराता है। व्यक्ति के अंतर में पैठकर साहित्य का सामथ्र्य अन्य ज्ञानानुशासनों से कहीं विशिष्ट है। यह सामथ्र्य स्थायी होता है और बहुत आगे तक ले जाने वाला होता है।
साहित्य में हित की भावना समाहित ही रहती है, इसीलिए वह साहित्य है। साहित्य ऐसे रस के सहित होता है जो निरतिशय प्रिय होता है, पर दूसरे की इच्छा के अधीन नहीं होता। वह शुद्ध रूप से अपने मन का अभीष्ट होता है। साहित्य में बहुत कुछ गृहीत होता है तो कुछ अगृहीत भी रह जाता है, इसीलिए वह निरंतर उत्कंठित करता है और कृति को हर बार पढ़ने और नए सिरे से जानने की व्याकुलता और उद्भावना भरता है। गोस्वामी तुलसीदास ने मुख और दर्पण की उपमा देते हुए कहा है-
ज्यों मुख मुकुर मुकर निज पानी। गहि न जाइ अस अद्भुद बानी।। श्रीरामचरितमानस
साहित्य में अपने साथ ले चलने की क्षमता होती है और हित की चिंता भी। वह ब्रह्मानंद सहोदर और वाक्य रसात्मक है। आचार्य मम्मट कहते हैं कि वह यश एवं अर्थ प्राप्त कराने वाला, व्यवहार ज्ञान कराने वाला, शिवेतर (जो कल्याणकारी नहीं है) से रक्षा करने वाला, विपŸिा से निवृŸिा का मार्ग तुरंत सुझाने वाला, शीघ्र ही परमानंद की प्राप्ति कराने वाला तथा पे्रमिका के समान हितकर एवं प्रिय उपदेश देने वाला होता है।
साहित्य प्रश्न छेड़ता है कि मनुष्य के लिए अधिक काम्य कल्याण पथ क्या है? वह किसी भी दिए हुए कल्याण के मार्ग से संतुष्ट नहीं रहता। सामाजिक मान्यता बदलने का काम साहित्य नहीं करता, वह केवल मन में उद्वेग पैदा करता है। बदलाव जिस सामाजिक संकल्प से आता है, उसके लिए कुछ और प्रयत्न आवश्यक होते हैं। कबीर, नानक, चैतन्य, शंकरदेव आदि ने साहित्य रचा ही नहीं, सामाजिक जागरूकता के लिए यात्राएं भी कीं।
साहित्य मूल्यों की प्रासंगिकता की जांच केवल अपने युग की दृष्टि से ही नहीं करता, वरन् वह आगे की संभावना को भी दृष्टि में रखता है। साहित्य के बने बनाए मूल्य कभी नहीं होते, जब कभी होते हैं तो वह इतिहास या राजनीति का पिछलग्गू बन जाता है, इनका झंडाबरदार हो जाता है। साहित्य की स्वायŸाता ही इस माने में है कि वह बंधे-बंधाए मूल्यों को अस्वीकार करने का अपना विशेषाधिकार रखता है।
जब तक ऐसा न लगे कि कवि ने, कथाकार ने मेरी बात मेरे मुंह से छीन ली, मेरी अव्यक्त व्याकुलता को वाणी दे दी, मेरे सुख-दुःख को पा लिया, तब तक साहित्य सहित का, सन्निहित का भाव नहीं है।
साहित्य न समाधान है, न आह्वान; वह बस चिŸा का उन्मथन है, तुम जहां ठहरे हुए हो, वहां से विचलित हो।
साहित्य राजनीति का उत्स भी है और उसका बैराज (जलरोकी बांध) भी है।1
साहित्य कभी नहीं कहता ऐसे चलो वैसे चलो, वह नीति नहीं है। साहित्य राम के पीछे नहीं चलाता, राम के भीतर चलाता है। इसी अर्थ में वह राजनीति का अंतर्यामी तो है, पर राजनीति का अनुगामी नहीं। वह जब अनुगामी हो जाता है तो स्वयं तो छोटा होता ही है, राजनीति भी छोटी हो जाती है। इसीलिए अच्छा यह है कि साहित्य और राजनीति एक दूसरे के कार्य में रुचि तो लें, पर हस्तक्षेप न करें।
यहां एक बात और ध्यातव्य है कि लिटरेचर और साहित्य में एक मौलिक अंतर होता है। लिखी हुई सामग्री मात्र लिटरेचर है, पर साहित्य एक तो हमारी अवधारणा में मूलतः वाचिक है, दूसरे वह शब्दराशि मात्र नहीं है; उसका एक चुना हुआ, विशेष उद्देश्य से चुना हुआ रूप भी है।2
बाबा तुलसी सुकवियों के हवाले से कहते हैं- ‘उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं’ अर्थात् साहित्य कहीं पैदा होता है तो कहीं अन्यत्र शोभा पाता है, इसीलिए इस अर्थ में साहित्य और उत्सव पर्याय हैं।
ऊपर दिए गए विवरण से न सिर्फ साहित्य का अर्थ, लक्षण और प्रयोजन स्पष्ट होता, यह भी संकेतित होता है कि भारतीय साहित्य और लिटरेचर कितने ‘भिन्न, न भिन्न’ हैं।
हजारों वर्ष पूर्व लिखे रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ आज भी हमारे पथप्रदर्शक बने हुए हैं। रामचरितमानस हमारे गले का हार बना हुआ है।

भारतीय साहित्य का पारायण करने के उपरांत यहां के जनजीवन और उसकी संस्कृति को समझते हुए ही स्वर्गीय रोमां रोलां ने लिखा ‘‘अगर इस धरती पर कोई एक ऐसी जगह है, जहां सभ्यता के आरंभिक दिनों से ही मनुष्यों के सारे सपने आश्रय और पनाह पाते रहे हैं तो वह जगह हिंदुस्तान है।’’ 19वीं सदी में अपनी अपूर्व भारत-भक्ति से सारे यूरोप को चैंका देने वाले मैक्समूलर ने एक जगह लिखा है ‘‘अगर मैं अपने आप से यह पूछूं कि केवल यूनानी, रोमन और यहूदी भावनाओं और विचारों पर पलने वाले हम यूरोपीय लोगों के आंतरिक जीवन को अधिक समृद्ध, अधिक पूर्ण और अधिक विश्वजनीन, संक्षेप में, अधिक मानवीय बनाने का नुस्खा हमें किस जाति के साहित्य में मिलेगा तो बिना किसी हिचकिचाहट के मेरी उंगली हिंदुस्तान की ओर उठ जाएगी।’’3 वर्तमान में भारत में प्रचलित अर्थों में नागरिक चेतना का अभाव दिखता होगा, पर यहां की क़ानून व्यवस्था सदियों से भारतीयों के मन में पैठी धार्मिकता के कारण नियंत्रण के बाहर नहीं होती, अन्यथा यहां की जनसंख्या और अनेकतापूर्ण संस्कृतियों के बरक्स कितनी पुलिसिंग हो सकती है!

13वीं सदी से 16वीं सदी तक सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य में ‘भक्ति काव्य’ का प्राधान्य रहा। भारत के हिंदू ही नहीं, यहां आकर बसे सामान्य मुस्लिम भी बार-बार के आक्रमणों से त्रस्त हो गए थे। अतः वे बिना दिल दुखाए शांतिपूर्वक रहना चाहते थे। हिंदी के कबीर तथा मराठी के नामदेव जैसे संत कवियों ने हिंदू और मुसलमानों में ऐक्य स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। इसी काल में जायसी जैसे सूफी कवियों ने ‘प्रेम भक्ति काव्य’ गाकर एक ओर इस्लाम धर्म की कट्टरता दूर की और दूसरी ओर हिंदू और मुसलमानों को अपनी प्रेमाश्रित भक्ति द्वारा एक दूसरे के निकट लाने का प्रयास किया। सिखों के ‘गुरु ग्रंथ साहब’ में पंजाबी के अतिरिक्त अन्य अनेक भारतीय भाषाओं के कवियों की रचनाएं बिना भाषा, धर्म, संप्रदाय और जाति-भेद की भावना के संग्रहीत हैं। काश्मीरी के मुस्लिम साहित्यकारों की संख्या हिंदुओं से न्यून नहीं है। हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार अमीर खुसरो, जायसी, रहीम, रसखान, आलम, शेख, डाॅ राही मासूम रज़ा आदि मुस्लिम थे। मराठी के अनेक कवियों- नामदेव, तुकाराम, रामदास आदि- ने हिंदी भाषा में काव्य रचना की है। संतकवि नामदेव पर ंिहदी और मराठी अपना समान अधिकार बताते हुए गर्व करते हैं।
उड़िया की काव्य रचना सरलादास से आरंभ होती है। असमी के शंकरदेव में वैष्णव काव्य धारा के दर्शन होते हैं। तेलुगु का साहित्य नन्नय के महाभारत से तो मलयालम का उन्नीथादिचरितम् से आरंभ होता है। कन्नड़ भाषा का साहित्यिक विकास जैन विचारधारा को लेकर आरंभ हुआ। ‘बौद्ध गान ओ दोहा’ बंगला की प्रथम काव्य कृति है। काश्मीरी भाषा का प्रथम ग्रंथ ‘महातम प्रकाश’ एक तांत्रिक रचना है। मराठी साहित्य का आरंभ ‘विवेक सिंधु’ नामक धार्मिक रचना से तो उर्दू का साहित्य 14वीं सदी में गेसदराज की रचना से होता है। तमिल के भारतीदासन् एक क्रांतिकारी कवि हुए हैं, उन्होंने दुर्योधन तथा रावण तक की प्रशंसा के गीत गाए हैं। वे ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के प्रबल समर्थक हैं। उनकी संप्रदायवादी रचनाएं अत्यंत उग्र एवं ओजपूर्ण हैं।
भारतीय साहित्य में सब कुछ ईश्वरमय समझा गया है, अतः हमें किसी के धन की इच्छा न करते हुए त्यागपूर्वक अपना कर्तव्य पालन करने की ताक़ीद की गई है। वह सबके सुखी होने, रोगमुक्त रहने, मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनने और किसी को भी दुःख का भागी न बनने की कामना करता है। अंत में इसी प्रकार के एक मंगल श्लोक के माध्यम से हम सबके लिए कल्याण की कामना करते हैं-
सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्।।
वर्तमान में खंडित चेतनाओं का उदय हो गया है। व्यक्ति भौतिकवाद की आंधी में उड़कर भी व्याकुल है। उसकी विश्रांति कहीं खो गयी है। कोरे वाग्जाली तर्कों में वह उलझ गया है। समकालीन खंडित और एकांगी विमर्शों के व्यामोह में वह भ्रमित हो गया है। इन खंडित चेतनाओं से समष्टि का भला नहीं हो सकता है। यह चेतनाएं व्यक्ति में प्रतिशोध, ईष्र्या, हीनता, आक्रोश और उत्तेजना को भर रहीं हैं। इनसे साहित्य का मूल उद्देश्य तिरोहित हो गया है। वंचितों के प्रति संवेदना जाग्रत होने की अपेक्षा अब लिंगगत, जातिगत तथा धर्मगत संकीर्णताओं में आज का पाठक उलझा है। टुकड़ा-टुकड़ा विमर्श त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में रुचिकर प्रतीत होता है, किंतु उसमें एक राष्ट्र का सम्यक् चिंतन परिलक्षित नहीं होता। यही कारण है कि साहित्य की अब कोई ऐसी कृति हमारे सम्मुख नहीं आ पा रही, जिसे देश की गौरवपूर्ण साहित्यिक कृतियों की परंपरा में रखा जा सके। खंडित चिंतन सम्यक् और व्यापक दृष्टि का निर्माण नहीं कर सकता। इसीलिए इसके फलस्वरूप आयी कृतियों का प्रभाव तात्कालिक ही दिख पाता है; चर्चित चाहे जितनी हो जाएं।
खंडित विमर्शों ने हमारे युवाओं के चिंतन को भारी क्षति पहुंचायी है। युवा संकीर्ण सीमाओं में आबद्ध होकर सोचने लगे हैं। समूची मानवता नहीं, अपितु कुछ विशिष्ट वर्ग  के व्यक्ति ही उनके चिंतन का कंेद्र बिंदु बने हैं और यह चिंतन वर्गविशेष के प्रति इतना घनीभूत है कि उसमें देश की एकता और अखंडता का भान भी विलुप्त हो गया दिखता है। क्या हमें रामचरितमानस, भारत भारती या साकेत जैसी कृतियों में वंचित दीन-हीन और हाशिए के व्यक्तियों के प्रति संवेदना नहीं दिखती! कल्पना करें, यदि इन कृतियों के प्रणेताओं ने खूंटीबद्ध होकर लेखन किया होता तो क्या ऐसी कालजयी कृतियां वे हमेें दे पाते!
देश की बहुत सी वर्तमान चुनौतियां मुख्यतः इन्हीं खंडित चेतनाओं के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुयी हैं। आतंकवाद के पीछे भयादोहन करके अपने धर्म या समुदाय को आगे बढ़ाने अथवा उसे समूहबद्ध करने की भावना पैदा करना है। नक्सलवाद एक मृतप्राय विचार है जो रक्तहिंसा के बल पर ऐसी क्रांति कर देना चाहता है, जो वस्तुतः संभव नहीं है। दलित, आदिवासी, मुस्लिम और स्त्रीवादी लेखन व्यक्तियों में संकुचित भावना का संचार कर रहे हैं। संकीर्णता से उनकी सकारात्मकता तिरोहित होती जा रही है।
गरीबी, भूख और बेरोजगारी जैसी चुनौतियां भारत में पूंजीवादी भौतिकवाद के बढ़ते प्रसार के परिणामस्वरूप पैदा हुयीं। ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनं’ अर्थात् त्यागपूर्वक उपभोग करो, लालच मत करो, यह धन किसका हुआ। इस जीवन शैली का विलोपन पूंजीवादी भौतिकवाद के आकर्षण से हो गया है। व्यक्ति और दो और दो, मेरा तो मेरा तेरा भी मेरा और मेरा बिल्कुल नहीं तेरा के विवेकांध लालच से भर गया। मिलबांटकर खाने और खिलाने की संस्कृति विलुप्त हो गयी। व्यक्तिवाद के आगे सामाजिकता और सामूहिकता विनष्ट हो गयी।
‘न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः’ की करनी गधे के सिर से सींग की भांति गायब हो गई। चकाचांैध की दुनिया हमारे यहां चर्चा का केंद्र ही नहीं बन गयी, वह अभीष्ट भी हो गयी। हम उसे येन केन प्रकारेण भोग लेने को आतुर हैं। मानव मूल्यों में सेवा, उपकार, त्याग पीछे कर दिये गये। हमें इन मूल्यों की पुनस्र्थापना करनी होगी। हमें निंदा की जगह निदान से, आलोचना की जगह अनुष्ठान से, आक्षेप की जगह प्रक्षेप से, उपालंभ की जगह उपक्रम से, बहस की जगह बहाली से और शिकायत की जगत शिरकत से आगे बढ़ना होगा। वंचित और असहाय का उत्थान दयाभाव से नहीं; कृपापूर्वक भी नहीं, वरन् उसका प्राकृतिक अधिकार मानते हुए करना होगा। मूल्यों की पुनस्र्थापना भारत के गौरवशाली साहित्य की ओर उन्मुख होकर की जा सकती है। उसकी अप्रासंगिक और कालसापेक्ष उक्तियों को छोड़कर हमें उन प्रसंगों को रेखांकित करना होगा, जिनमें भारत की वर्तमान चुनौतियों के समाधान सन्निहित हैं।
भारत जिस भौगोलिक इकाई का नाम है, वहां का जीवन-दर्शन न सिर्फ दुनिया वालों के लिए, स्वयं देशवासियों के लिए भी एक विस्मय है, जहां के कण-कण में विविधता और पूर्णता के दर्शन होेते हैं। 20वीं सदी के अद्भुद चिंतक और विश्व मानवता के अपूर्व उपासक रोमां रोलां ने एक भूमिका में लिखा है ‘‘भारतवर्ष की विशाल आत्मा इस छोर से उस छोर तक एक ही जनाकीर्ण, सुव्यवस्थित, भव्य प्रासाद के परम ऐक्य की उद्घोषणा कर रही है। यहां पर किसी का वर्जन नहीं, सब एक सूत्र में गुथे हुए हैं।’’4 भारत में पूर्णता का दर्शन प्रारंभ से ही परिव्याप्त हो रहा है। वृहदारण्य एवं ईशावास्योपनिषदों में कहा गया है-
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

-245 शब्दार्णव, नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई (जालौन) मो 9236114604

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