Wednesday, January 31, 2024

जनवरी २४

नववर्ष के आगमन के साथ सीमितताओं के सभी बंद द्वार खोल दिये जाएँगे, और उनसे होकर मैं और विशाल क्षेत्रों में जाऊँगा, जहां मेरे जीवन के सार्थक स्वप्न पूरे होंगे। श्री श्री परमहंस योगानंद अंग्रेज़ी नववर्ष प्रारंभ होने के समय कैलेंडर बदलने का उत्साह देखा जाता है। दिनांक तो हर दिन बदल रहा है, पर नये वर्ष का दिनांक पूरी तरह बदल जाता है। नया कैलेंडर टाँगना और पुराना हटाना प्रतीक है पुराने दुःस्वप्नों से बाहर आने का और नये संकल्प ग्रहण करने का। पुराने से बाहर आने का अर्थ यह नहीं कि वह दूषित था और नये संकल्प के उत्साह का अर्थ भी यह नहीं कि जीवन में सब मनोनुकूल होने वाला है। नए वर्ष में प्रवेश के समय हम अच्छा और सुंदर होने की उम्मीद करने के सुख से जुड़ जाते हैं। अच्छा का अर्थ है, अ इच्छा। इच्छा न होना इसका आशय नहीं। इच्छा न होने का अर्थ है उनका संपूर्ण हो जाना अथवा उनका होना और न होना ; बराबर हो जाना। अच्छा हुए बिना नया कुछ नहीं घटित होता, फिर वह मात्र उम्मीद बनकर रह जाता है। उम्मीद इस नाते संतोषजनक मानी जा सकती है कि उसके बाद कुछ अच्छा घटेगा, उसमें इस विश्वास के उदय की संभावना रहती है। अच्छा घटना ही मुख्य है, वह चाहे नाउम्मीदी में ही क्यों न घटित हो जाए। जो अच्छा है, वह सुंदर है। नया वर्ष हर क्षण है। यह आंग्ल पद्धति का नया वर्ष है, मार्च या अप्रैल में विक्रम वर्ष होता है, जिसे हम संवत्सर कहते हैं, इससे हिंदू त्योहारों का निर्णय होता है, विक्रम संवत् की मान्यता नेपाल में भी है। ९ अप्रैल २०२४ से यह प्रारंभ होगा। पौराणिक काल गणना वैवस्वत मनु के कल्प आधार पर सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग - इन चार भागों में विभाजित है। इसके पश्चात ऐतिहासिक दृष्टि से काल गणना का विभाजन हुआ। युधिष्ठिर संवत्, कलिसंवत्, कृष्ण संवत्, विक्रम संवत, शक संवत, महावीर संवत, बौद्ध संवत, तदुपरान्त हर्ष संवत, बंगला, हिजरी, फसली और ईसा सन भारत में चलते रहे। आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय कैलंडर 'शक संवत' कहलाता है। 1957 में भारत सरकार ने शक संवत् को देश के राष्ट्रीय पंचांग के रूप में मान्यता प्रदान की थी। इसीलिए राजपत्र (गजट) , आकाशवाणी और सरकारी कैलेंडरों में ग्रेगेरियन कैलेंडर के साथ इसका भी प्रयोग किया जाता है। शक संवत को शालिवाहन संवत भी कहा जाता है। कालखंड की अपनी-अपनी माप हैं। सब अनुसंधान ही हैं। क्षण की नवता को जब जिसने समझा, उसके लिए वह नया वर्ष हो गया। हम संधि जोड़ को समझते हैं, पर कश्मीर में इसका अर्थ है खोज, जो संध शब्द में झांक रहा है, संधान जैसे शब्दों में स्पष्ट ही। पहले से बाद के बीच का जो क्षण या अंतराल है, उसकी खोज ही संध है। वह सदा नूतन है। नूतन आंग्लवर्ष २०२४ की शुभकामनाएँ। ३/१/२४ अद्वैत जब कहा जाता है तब इसका आशय होता है दो नहीं। इसका अर्थ हुआ दो देखने तक साधक गया है। बिना दो को देखे समझे एक या शून्य का बोध प्राप्त नहीं कर सकता। दो का अर्थ संसार है और एक का अर्थ परमात्मा है। शून्य ब्रह्म को कहेंगे। वैसे शून्य का कोई नाम देंगे वह एक में ही आ जाएगा। शून्य अंक को गिनती में एक ही कहा जाएगा। शून्य का कोई नाम नहीं, कोई रूप नहीं, कोई गुण नहीं, लीला और धाम भी नहीं। उसे नहीं नहीं में ही कहा जा सकेगा, क्योंकि जो है वह एक से आगे की गिनती बनाएगा। सुख पदार्थों के अधीन रहने में नहीं है, उन्हें अधीन कर लेने में है। इसी तरह दुःख विषयों या पदार्थों के अधीन रहने में है। इस प्रकार पदार्थों को मन के भीतर रखा जाये, पदार्थ मन पर हावी न रहें तो व्यक्ति सदा सुखी रह सकता है। सुखी होने की यह कला अर्जित की जाती है। इस कला को विद्या कहते हैं। संसारमोहनाशाय शब्दबोधो नहि क्षमः। न निवर्तेत तिमिरं कदाचिद्दीपवार्तया।। (कुलार्णव तंत्र) संसार रूपी मोह को नष्ट करने में शब्द बोध अर्थात शास्त्र समर्थ नहीं हो सकता। क्या भला दीपक की वार्ता करने से कभी अन्धकार भी नष्ट हो सकता है। Mere knowledge by words [ शब्द बोध ] or shastras are not in a position to destroy this worldly attachments of a person . Can darkness be removed by mere talking [ discussion ] about a lamp ? Jai gurudev. उद्दालको हारुणिः श्वेतकेतुं पुत्रमुवाच स्वप्नान्तं मे सोम्य विजानीहीति यत्रैतत्पुरुषः स्वपिति नाम सता सोम्य तदा सम्पन्नो भवति स्वमपीतो भवति तस्मादेनं स्वपितीत्याचक्षते स्वंह्यपीतो भवति ॥ ६.८.१ ॥chhandogya upanishad 1. Uddālaka Āruṇi said to his son Śvetaketu: ‘O Somya, let me explain to you the concept of deep sleep. When a person is said to be sleeping, O Somya, he becomes one with Sat [Existence], and he attains his real Self. That is why people say about him, “He is sleeping.” He is then in his Self’. छाँदोग्य के उक्त श्लोक में निद्रा की महिमा गाई गई है। स्वप्न रहित निद्रा भली प्रकार श्रम करने के बाद आती है। इस श्लोक से प्रकारांतर से श्रम का महत्व प्रतिपादित होता है। सोने के समय हम स्व में विलीन हो जाते हैं। श्रम परिहार का यह प्राकृतिक साधन है। निद्रा की प्राप्ति के लिए शरीर और मन के द्वारा समुचित श्रम किया ही जाना चाहिए। जाग्रत अवस्था में शरीर और मन काम करते हैं, स्वप्न दशा में शरीर नहीं, केवल मन कार्य करता है। स्वप्न रहित निद्रा के समय शरीर और मन कोई काम नहीं करते और तब व्यक्ति अपनी आत्मा तक जा पहुँचता है। अतः निद्रा लेना गंगा नहाने जैसा पवित्र कार्य है। परंतु जैसा रामकृष्ण परमहंस कहते हैं गंगा स्नान के समय अज्ञानी व्यक्ति के दोष निकलकर पास के पेड़ पर बैठ जाते हैं, स्नान करने के बाद वे पुनः उसी व्यक्ति पर कपड़ों की भाँति आ बैठते हैं। ज्ञान रहित निद्रा के साथ भी बिलकुल ऐसा ही है। वास्तव में जो प्राणी सत् से तदाकार हो गया है, उसे ही उक्त श्लोक में पुरुष कहा गया है, पुरुष यानी प्योर, शुद्ध दशा का आत्म। पुर में जो शयन करता हो। पुर यानि हृदय। हृदय हार्ट को या उस स्थान भर को नहीं मानना चाहिए। हृदय का अर्थ है जिसमें सब कुछ घटित हो रहा हो। वहाँ यह पुरुष निवास करता है, इसलिए इसे पुरुष कहा गया है। इस पुरुष में मेल या केवल पुल्लिंग व्यक्ति नहीं आता, वरन उसका अर्थ mindfulness से लगाया जाता है। mindfulness व्यक्ति की निद्रा हो, गंगा स्नान हो, या जो भी कार्य हो, वह सब पुण्य ही है। तभी श्रम करना सार्थक है और गंगा स्नान करना भी। ४/१/२४ बल दिखता है, शक्ति छिपी रहती है। बल से ही बैल बना। यद्यपि बैल केवल बोझा ढोने के अर्थ में एक मुहावरा भी बन गया, पर वह बल का ही द्योतक है। अंग्रेज़ी शब्द भी कैसे अपनी ध्वनियों में सत्य धारण करते हैं। सीक्रेट से क्रियेशन निष्पन्न होता है। क्रिएशन में एस जुड़ जाने से वह सीक्रेट हो गया। secration स्वाभाविक रूप में होने वाले होने वाले रिसाव को कहते हैं तो sacred पवित्रता के अर्थ में चलता है। इन शब्दों से बहने का भाव प्रकट हो रहा है। ५/१/२४ चेतन और प्रकृति दो अलग अलग हैं। कुछ लोग इन्हें मिक्स कर देते हैं और फिर अर्थहीन टिप्पणियां कर देते हैं, उनसे कई बार विवाद उत्पन्न हो जाता है। इससे यह प्रकट हो जाता है कि ऐसे लोग अभी धर्म और अध्यात्म का क ख ग नहीं समझ पाए हैं, जीवन में वे सद्व्यवहार कैसे कर पाएंगे। भगवान कुछ नहीं खाते पीते, न वे कहीं सोते जागते हैं। वस्तुतः उनके बारे में कहा गया कोई कथन संपूर्ण नहीं है, बस उन्हें समझने के लिए वह कथन एक सिरा या माध्यम मात्र हो सकता है। हम अपने जीवन को जैसा देखते सुनते हैं, अपनी बनी बनाई धारणा रखते हैं, उसके अनुरूप सही गलत का निर्णय देने लगते हैं, यही तथ्य भगवान में भी आरोपित कर देते हैं, फिर गड़बड़ शुरू हो जाती है। भक्ति भाव में किया कोई आरोपण ग्राह्य है, क्योंकि वह सही ग़लत से ऊपर चला गया होता है, पर बुद्धि कौशल से किए गये ऐसे आरोपों से कोई निष्कर्ष नहीं निकलता। भगवान प्रकृति के तत्वों या उसकी सामग्री पर आश्रित नहीं है, हां! प्रकृति उनके भीतर अवश्य रहती है। भगवान चिति है, वह चैतन्य दशा में हैं, उस दशा का बोध पहले करना होगा। प्रकृति परिवर्तनशील है, उस परिवर्तनशीलता के चेतन तत्व को हमें पहचानना है। सार सार को गहना है। ६/१/२४ सांख्य बताता है हम इस जीवन की कारागार में कैसे आ फँसे। अद्वैत कहता है इस कारागार से बाहर हमें कहाँ पहुँचना और योग दर्शन बताता है वहाँ पहुँचने का साधन क्या है। योगदा सत्संग सोसाइटी में इन तीनों दर्शनों का समावेश है। ७/१/२४ ध्यान में कोई कीड़ा मकोड़ा चेहरे पर रेंगता रहा, खूब इधर उधर स्वच्छंद घूमा। कूटस्थ पर रहा तो आनंद आया, फिर आँखों और नाक पर चलता रहा, फिर कहाँ गया पता नहीं लगा। अगर व्यक्ति अंतर्मन की गहराइयों से स्वयं को उसी भाँति मसल कर और पकते हुए दूसरे का ग्रास बनने के लिए तैयार है, जैसे वह दूसरे प्राणियों का भक्षण कर लेता है, तो वह क्या खाता है, क्या नहीं, इससे अंतर नहीं पड़ता। यद्यपि गहराई में उतरकर यदि व्यक्ति परम् सत्ता से तदाकार हो गया है तो उसने अन्न प्रक्रिया को समझ लिया है। फिर उसे कुछ खाने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। उसे अपना शरीर चलाने के लिए कुछ भी शाक भाजी मिल जाएगी, उससे उसका काम चल जाएगा। मांसाहार करने वाले जो व्यक्ति विटामिन, वसा, प्रोटीन इत्यादि की आवश्यकता और शौक़ पूरा करने या किसी के प्रभाव के कारण मांस ग्रहण करते हैं, वे यदि ध्यान की अतल गहराइयों में उतर गये तो स्वतः उसे छोड़ देंगे। ऐसा भक्षण आत्यंतिक परिस्थिति में या परमहंसी स्वभाव में ही संभव रह जाएगा। स्वतंत्रता मनोनुकूल किए गए कार्यों के लिए नहीं, अपितु मन के आवेगों से बाहर आकर निर्विकल्प इच्छा के फलस्वरूप किए गए कार्यों के लिए प्राप्त की जाती है। यथा निमीलने काले प्रपञ्चो नैव दृश्यति । तथैवोन्मीलने स्याच्चेदेतद्धयानस्य लक्षणम्।। (श्री कुलार्णव तन्त्र) अर्थात, जैसे व्यक्ति आंखें बंद करने पर बाहर की कोई भी वस्तु देख नहीं पाता,उसी भांति आंख के खुले रहने पर भी साधक को कोई जगत का प्रपञ्च नहीं दिखता। शिव की व्याप्ति ही उसे दिखती है।यही ध्यान का सही लक्षण है। Just as at the time of closing one's eyes the external differentiated world is not seen, so in the same way when,by the Grace of God, while practicing this meditation even though his eyes remain wide open this yogi sees nothing. These are the symptoms of correct meditation. Jai guru dev. मनुष्य अधिकार चाहता है -------------------* जो कुछ भी महान है, उस पर किसी का अधिकार नहीं हो सकता और यह सबसे मूर्ख बातों में से एक है जो मनुष्य करता है - मनुष्य अधिकार चाहता है।ओशो किसी सफलता पर कई दावेदार सामने आ जाते हैं, पर यह तो परम् सत्ता का प्रकटीकरण मात्र है। ११/१/२४ 'इतना अहंकार आदि शंकराचार्य ने भी नहीं किया था' शंकराचार्य परंपरा के प्रति ऐसी अवहेलना सूचक शब्दावली का प्रयोग करना उचित नहीं है। क्या उन्होंने कितना भी अहंकार किया था! क्या कहना चाहते हैं। शकराचार्य परंपरा का योगदान उपनिषद युग के बाद सनातन धर्म के स्वरूप लक्षण निर्धारित करने में सर्वाधिक है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। साधु संतों की विभिन्न परम्पराएँ दशनामी अखाड़ों से आगे बढ़ी हैं। उन्होंने अपने समय में बौद्धों के अतिचारों का सामना किया है। अरुण कुमार उपाध्याय की पोस्ट पर की गई टिप्पणी Desire is the memory of pleasure and fear is the memory of pain. Both make the mind restless. Moments of pleasure are merely gaps in the stream of pain. How can the mind be happy? Nisargadatta, I Am That, Chapter 3 १२/१/२४ जहां शक्ति है, वहाँ इसका दुरुपयोग भी है। लौकिक सुख बिना शक्ति के संभव नहीं। शक्ति के दुरुपयोग की संभाव्यता और सुख की कामना के बीच मनुष्य कभी संतुष्ट नहीं रह सकता, इसलिए आत्यंतिक आनंद की खोज में व्यक्ति जब जानते हुए खो जाये, वह जीवन को प्रश्न और समस्या न समझे, वरन एक रहस्य जानकर उसे जी ले तो उसे प्राप्तव्य उपलब्ध हो सकता है। भगवान के कितने स्वरूपों का पहले प्रकाश और उनके बदलते स्वरूपों का दर्शन हुआ। भगवान विष्णु के स्वरूप का कृष्ण से मिलता जुलता दर्शन हुआ, उसके बाद रूप बनने बंद हो गए। उससे पहले गर्भ में शिशु बनने की प्रक्रिया और बाद में वह मुस्कुराते हुए दिखाई दिया। उसकी छवियों का भी परिवर्तन होता रहा। कल्पना भी है तो ऐसी कल्पना बनी रहे। भृकुटियों के बीच अवधान को स्‍थिर कर विचार को मन के सामने करो। फिर सहस्‍त्रार तक रूप को श्‍वास-तत्‍व से, प्राण से भरने दो। वहां वह प्रकाश की तरह बरसेगा। ******************************************** यह विधि पाइथागोरस को दी गई थी। पाइथागोरस इसे लेकर यूनान वापस गए। और वह पश्‍चिम के समस्‍त रहस्‍यवाद के आधार बन गए। पश्‍चिम में अध्‍यात्‍मवाद के वे पिता है। यह विधि बहुत गहरी विधियों में ऐ एक है। इसे समझने की कोशिश करो। ‘’भृकुटियों के बीच अवधान को स्‍थिर करो।‘’ आधुनिक शरीर-शस्‍त्र कहता है, वैज्ञानिक शोध कहती है कि दो भृकुटियों के बीच में ग्रंथि है वह शरीर का सबसे रहस्‍यपूर्ण भाग है। जिसका नाम पाइनियल ग्रंथि है। यही तिब्‍बतियों की तीसरी आँख है। और यही है शिव का नेत्र। तंत्र के शिव का त्रिनेत्र। दो आंखों के बीच एक तीसरी आँख भी है। लेकिन यह सक्रिय नहीं है। यह है, और यह किसी भी समय सक्रिय हो सकती है। निसर्गत: यह सक्रिय नहीं है। इसको सक्रिय करने के लिए संबंध में तुम को कुछ करना पड़ेगा। यह अंधी नहीं है, सिर्फ बंद है। यह विधि तीसरी आँख को खोलने की विधि है। ‘’भृकुटियों के बीच अवधान को स्‍थिर कर.....।‘’ आंखे बंद कर लो और फिर दोनों आंखों को बंद रखते हुए भौंहों के बीच में दृष्‍टि को स्‍थिर करो—मानो कि दोनों आंखों से तुम देख रहे हो। और समग्र अवधान को वही लगा दो। यह विधि एकाग्र होने की सबसे सरल विधियों में से एक है। शरीर के किसी दूसरे भाग में इतनी आसानी से तुम अवधान को नहीं उपलब्‍ध हो सकते। यह ग्रंथि अवधान को अपने में समाहित करने में कुशल है। यदि तुम इस पर अवधान दोगे तो तुम्‍हारी दोनों आंखे तीसरी आँख से सम्‍मोहित हो जाएंगी। वे थिर हो जाएंगी, वे वहां से नहीं हिल सकेंगी। यदि तुम शरीर के किसी दूसरे हिस्‍से पर अवधान दो तो वहां कठिनाई होगी। तीसरी आँख अवधान को पकड़ लेती है। अवधान को खींच लेती है। अवधान के लिए वह चुंबक का काम करती है। इसलिए दुनिया भी की सभी विधियों में इसका समावेश किया गया है। अवधान को प्रशिक्षित करने में यह सरलतम है, क्‍योंकि इसमे तुम ही चेष्‍टा नही करते, यह ग्रंथि भी तुम्‍हारी मदद करती है। यह चुंबकीय है। तुम्‍हारे अवधान को यह बलपूर्वक खींच लेती है। तंत्र के पुराने ग्रंथों में कहा गया है कि अवधान तीसरी आँख का भोजन है। यह भूखी है; जन्‍मों-जन्‍मों से भूखी है। जब तुम इसे अवधान देते हो यह जीवित हो उठती है। इसे भोजन मिल गया है। और जब तुम जान लोगे कि अवधान इसका भोजन है, जान लोगे कि तुम्‍हारे अवधान को यह चुंबक की तरह खींच लेती है। तब अवधान कठिन नहीं रह जाएगा। सिर्फ सही बिंदु को जानना है। इस लिए आँख बंद कर लो, और अवधान को दोनों आंखों के बीच में घूमने दो और उस बिंदू को अनुभव करो। जब तुम उस बिंदु के करीब होगें। अचानक तुम्‍हारी आंखे थिर हो जाएंगी। और जब उन्‍हें हिलाना कठिन हो जाए तब जानो कि सही बिंदु मिल गया। ‘’भृकुटियों के बीच अवधान को स्‍थिर कर विचार को मन के सामने रखो।‘’ अगर यह अवधान प्राप्‍त हो जाए तो पहली बार एक अद्भुत बात तुम्‍हारे अनुभव में आएगी। पहली बार तुम देखोगें कि तुम्‍हारे विचार तुम्‍हारे सामने चल रहे है, तुम साक्षी हो जाओगे। जैसे कि सिनेमा के पर्दे पर दृश्‍य देखते हो, वैसे ही तुम देखोगें कि विचार आ रहे है, और तुम साक्षी हो। एक बार तुम्‍हारा अवधान त्रिनेत्र-केंद्र पर स्‍थिर हो जाए तुम तुरंत विचारों के साक्षी हो जाओगे। आमतौर से तुम साक्षी नहीं होते, तुम विचारों के साथ तादात्म्य कर लेते हो। यदि क्रोध है तो तुम क्रोध हो जाते हो। यदि एक विचार चलता है तो उसके साक्षी होने की बजाएं तुम विचार के साथ एक हो जाते हो। उससे तादात्‍म्‍य करके साथ-साथ चलने लगते हो। तुम विचार ही बन जाते हो, विचार का रूप ले लेते हो, जब क्रोध उठता है तो तुम क्रोध बन जाते हो। और जब लोभ उठता है तब लोभ बन जाते हो। कोई भी विचार तुम्‍हारे साथ एकात्‍म हो जाता है। और उसके ओर तुम्‍हारे बीच दूरी नहीं रहती। लेकिन तीसरी आँख पर स्‍थिर होते ही तुम एकाएक साक्षी हो जाते हो। तीसरी आँख के जरिए तुम साक्षी बनते हो। इस शिवनेत्र के द्वारा तुम विचारों को वैसे ही चलता देख सकते हो जैसे आसमान पर तैरते बादलों को, या रहा पर चलते लोगो को देखते हो। जब तुम अपनी खिड़की से आकाश कोया रहा चलते लोगों को देखते हो तब तुम उनसे तादात्‍म्‍य नहीं करते। तब तुम अलग होते हो, मात्र दर्शक रहते हो—बिलकुल अलग। वैसे ही अब जब क्रोध आता है तब तुम उसे एक विषय की तरह देखते हो। अब तुम यह नहीं सोचते कि मुझे क्रोध हुआ। तुम यही अनुभव करते हो कि तुम क्रोध से घिरे हो। क्रोध की एक बदली तुम्‍हारे चारो और घिर गई। और जब तुम खुद क्रोध नहीं रहे तब क्रोध नापुंसग हो जाता है। तब वह तुमको नहीं प्रभावित कर सकता। तब तुम अस्‍पर्शित रह जाते हो। क्रोध आता है और चला जाता है। और तुम अपने में केंद्रित रहते हो। यह पाँचवीं विधि साक्षित्‍व को प्राप्‍त करने की विधि है। ‘’भृकुटियों के बीच अवधान को स्‍थिर कर विचार को मन के सामने करो।‘’ अब अपने विचारों को देखो, विचारों का साक्षात्‍कार करो। ‘’फिर सहस्‍त्रार तक रूप को श्‍वास तत्‍व से प्राण से भरने दो। वहां वह प्रकाश की तरह बरसेगा।‘’ जब अवधान भृकुटियों के बीच शिवनेत्र के केंद्र पर स्‍थिर होता है। तब दो चीजें घटित होती है। और यही चीज दो ढंगों से हो सकती है। एक, तुम साक्षी हो जाओ तो तुम तीसरी आँख पर थिर हो जाते हो। साक्षी हो जाओ, जो भी हो रहा हो उसके साक्षी हो जाओ। तुम बीमार हो, शरीर में पीड़ा है, तुम को दुःख और संताप है, जो भी हो, तुम उसके साक्षी रहो, जो भी हो, उससे तादात्‍म्‍य न करो। बस साक्षी रहो—दर्शक भर। और यदि साक्षित्व संभव हो जाए, तो तुम तीसरे नेत्र पर स्‍थिर हो जाओगे। इससे उलटा भी हो सकता है। यदि तुम तीसरी आँख पर स्‍थिर हो जाओ, तो साक्षी हो जाओगे।। ये दोनों एक ही बात है। इसलिए पहली बात: तीसरी आँख पर केंद्रित होते ही साक्षी आत्‍मा का उदय होगा। अब तुम अपने विचारों का सामना कर सकते हो। और दूसरी बात: और अब तुम श्‍वास-प्रश्‍वास की सूक्ष्‍म और कोमल तरंगों को भी अनुभव कर सकते हो। अब तुम श्‍वसन के रूप को ही नहीं, उसके तत्‍व को , सार को, प्राण को भी समझ सकते हो। पहले तो यह समझने की कोशिश करें कि ‘’रूप’’ और ‘’श्‍वास-तत्‍व’’ का क्‍या अर्थ है। जब तुम श्‍वास लेते हो, तब सिर्फ वायु की ही श्‍वास नहीं लेते। वैज्ञानिक तो यही कहते है कि तुम वायु की ही श्‍वास लेते हो। जिसमें आक्‍सीजन, हाइड्रोजन तथा अन्‍य तत्‍व रहते है। वे कहते है कि तुम वायु की श्‍वास लेते हो। लेकिन तंत्र कहता है कि हवा तो मात्र वाहन है, असली चीज नहीं है। असल में तुम प्राण की श्‍वास लेते हो। हवा तो माध्‍यम भर है। प्राण उसका सत्‍व है, सार है। तुम न सिर्फ हवा की, बल्‍कि प्राण की श्‍वास लेते हो। आधुनिक विज्ञान अभी नहीं जान सका है कि प्राण जैसी कोई वस्‍तु भी है। लेकिन कुछ शोधकर्ताओं ने कुछ रहस्‍यमयी चीज का अनुभव किया है। श्‍वास में सिर्फ हवा हम नहीं लेते, वह बहुत से आधुनिक शोधकर्ताओं ने अनुभव किया है। विशेषकर एक नाम उल्‍लेखनीय है। वह है जर्मन मनोवैज्ञानिक विलहेम रेख का। जिसने इसे आर्गन एनर्जी या जैविक ऊर्जा का नाम दिया है। वह प्राण ही है। वह कहता है कि जब आप श्‍वास लेते है, तब हवा तो मात्र आधार है, पात्र है, जिसके भीतर एक रहस्‍यपूर्ण तत्‍व है, जिसे आर्गन या प्राण या एलेन वाइटल कह सकते है। लेकिन वह बहुत सूक्ष्म है। वास्‍तव में वह भौतिक नहीं है। पदार्थ गत नहीं है। हवा भौतिक है, पात्र भौतिक है; लेकिन उसके भीतर से कुछ सूक्ष्‍म, अलौकिक तत्‍व चल रहा है। इसका प्रभाव अनुभव किया जा सकता है। जब तुम किसी प्राणवान व्‍यक्‍ति के पास होते हो, तो तुम अपने भीतर किसी शक्‍ति को उगते देखते हो। और जब किसी बीमार के पास होते हो, तो तुमको लगता है कि तुम चूसे जा रहे हो। तुम्‍हारे भीतर से कुछ निकाला जा रहा है। जब तुम अस्‍पताल जाते हो, तब थके-थके क्‍यों अनुभव करते हो? वहां चारों ओर से तुम चूसे जाते हो। अस्‍पताल का पूरा माहौल बीमार होता है और वहां सब किसी को अधिक प्राण की, अधिक एलेन वाइटल की जरूरत है। इसलिए वहां जाकर अचानक तुम्‍हारा प्राण तुमसे बहने लगता है। जब तुम भीड़ में होते हो, तो तुम घुटन महसूस क्‍यों करते हो। इसलिए कि वहां तुम्‍हारा प्राण चूसा जाने लगता है। और जब तुम प्रात: काल अकेले आकाश के नीचे या वृक्षों के बीच होते हो, तब फिर अचानक तुम अपने में किसी शक्‍ति का, प्राण का उदय अनुभव करते हो। प्रत्‍येक का एक खास स्‍पेस की जरूरत है। और जब वह स्‍पेस नहीं मिलता है तो तुमको घुटन महसूस होती है। विलहेम रेख ने कई प्रयोग किए। लेकिन उसे पागल समझा गया। विज्ञान के भी अपने अंधविश्‍वास है। और विज्ञान बहुत रूढ़िवादी होता है। विज्ञान अभी भी नहीं समझता है कि हवा से बढ़कर कुछ है; वह प्राण है। लेकिन भारत सदियों से उस पर प्रयोग कर रहा है। तुमने सुना होगा—शायद देखा भी हो—कि कोई व्‍यक्‍ति कई दिनों के लिए भूमिगत समाधि में प्रवेश कर गया। जहां हवा का कोई प्रवेश नहीं था। 1880 में मिस्‍त्र में एक आदमी चालीस वर्षों के लिए समाधि में चला गया था। जिन्‍होंने उसे गाड़ा था वे सभी मर गए। क्‍योंकि वह 1920 में समाधि से बहार आने वाला था। 1920 में किसी को भरोसा नहीं था कि वह जीवित मिलेगा। लेकिन वह जीवित था और उसके बाद भी वह दस वर्षों तक जीवित रहा। वह बिलकुल पीला पड़ गया था, परंतु जीवित था। और उसको हवा मिलने की कोई संभावना नहीं थी। डॉक्टरों ने तथा दूसरों ने उससे पूछा कि इसका रहस्‍य क्‍या है? उसने कहां हम नहीं जानते; हम इतना ही जानते है कि प्राण कही भी प्रवेश कर सकता है। और वह है। हवा वहां नहीं प्रवेश कर सकती, लेकिन प्राण कर सकता है। एक बार तुम जान जाओ कि श्‍वास के बिना भी कैसे तुम प्राण को सीधे ग्रहण कर सकते हो, तो तुम सदियों तक के लिए भी समाधि में जा सकते हो। तीसरी आँख पर केंद्रित होकर तुम श्‍वास के सार तत्‍व को, श्‍वास को नहीं, श्‍वास के सार तत्‍व प्राण को देख सकेत हो। और अगर तुम प्राण को देख सके, तो तुम उस बिंदु पर पहुंच गए जहां से छलांग लग सकती है, क्रांति घटित हो सकती है। सूत्र कहता है: ‘’सहस्त्रार तक रूप को प्राण से भरने दो।‘’ और जब तुम को प्राण का एहसास हो, तब कल्‍पना करो कि तुम्‍हारा सिर प्राण से भर गया है। सिर्फ कल्‍पना करो, किसी प्रयत्‍न की जरूरत नहीं है। और मैं बताऊंगा कि कल्‍पना कैसे काम करती है। तब तुम त्रिनेत्र-बिंदु पर स्‍थिर हो जाओ तब कल्‍पना करो, और चीजें आप ही और तुरंत घटित होने लगती है। अभी तुम्‍हारी कल्‍पना भी नपुंसक है। तुम कल्‍पना किए जाते हो और कुछ भी नहीं होता। लेकिन कभी-कभी अनजाने साधारण जिंदगी में भी चीजें घटित होती है। तुम अपने मित्र की सोच रहे हो और अचानक दरवाजे पर दस्‍तक होती है। तुम कहते हो कि सांयोगिक था कि मित्र आ गया। कभी तुम्‍हारी कल्‍पना संयोग की तरह भी काम करती है। लेकिन जब भी ऐसा हो, तो याद रखने की चेष्‍टा करो और पूरी चीज का विश्‍लेषण करो। जब भी लगे कि तुम्‍हारी कल्‍पना सच हुई है। तुम भीतर जाओ और देखो। कहीं न कहीं तुम्‍हारा अवधान तीसरे नेत्र के पास रहा होगा। दरअसल यह संयोग नहीं था। यह वैसा दिखता है; क्‍योंकि गुह्म विज्ञान का तुमको पता नहीं है। अनजाने ही तुम्‍हारा मन त्रिनेत्र केंद्र के पास चला गया होगा। और अवधान यदि तीसरी आँख पर है तो किसी घटना के सृजन के लिए उसकी कल्‍पना काफी है। यह सूत्र कहता है कि जब तुम भृकुटियों के बीच स्‍थिर हो और प्राण को अनुभव करते हो, तब रूप को भरने दो। अब कल्‍पना करो कि प्राण तुम्‍हारे पूरे मस्‍तिष्‍क को भर रहे है। विशेषकर सहस्‍त्रार को जो सर्वोच्‍च मनस केंद्र है। उस क्षण तुम कल्‍पना करो। और वह भर जाएगा। कल्‍पना करो कि वह प्राण तुम्‍हारे सहस्‍त्रार से प्रकाश की तरह बरसेगा। और वह बरसने लगेगा। और उस प्रकाश की वर्षा में तुम ताजा हो जाओगे। तुम्‍हारा पुनर्जन्‍म हो जाएगा। तुम बिलकुल नए हो जाओगे। आंतरिक जन्‍म का यही अर्थ है। यहां दो बातें है। एक, तीसरी आँख पर केंद्रित होकर तुम्‍हारी कल्‍पना पुंसत्‍व को, शुद्धि को उपलब्‍ध हो जाती है। यही कारण है कि शुद्धता पर, पवित्रता पर इतना बल दिया गया है। इस साधना में उतरने के पहले शुद्ध बने। तंत्र के लिए शुद्धि कोई नैतिक धारणा नहीं हे। शुद्धि इसलिए अर्थपूर्ण है कि यदि तुम तीसरी आँख पर स्‍थिर हुए और तुम्‍हारा मन अशुद्ध रहा, तो तुम्‍हारी कल्‍पना खतरनाक सिद्ध हो सकती है—तुम्‍हारे लिए भी और दूसरें के लिए भी। यदि तुम किसी की हत्‍या करने की सोच रहे हो, उसका महज विचार भी मन में है। तो सिर्फ कल्‍पना से उस आदमी की मृत्‍यु घटित हो जाएगी। यही कारण है कि शुद्धता पर इतना जोर दिया जाता है। पाइथागोरस को विशेष उपवास और प्राणायाम से गुजरने को कहा गया; क्‍योंकि यहां बहुत खतरनाक भूमि से यात्री गुजरता है। जहां भी शक्‍ति है, वहां खतरा है। यदि मन अशुद्ध है तो शक्‍ति मिलने पर आपके अशुद्ध विचार शक्‍ति पर हावी हो जाएंगे। कई बार तुमने हत्‍या करने की सोची है; लेकिन भाग्‍य से वहां कल्‍पना न काम नहीं किया। यदि वह काम करे, यदि वह तुरंत वास्तविक हो जाए तो वह दूसरों के लिए ही नहीं तुम्‍हारे लिए भी खतरनाक सिद्ध हो सकती है। क्‍योंकि कितनी ही बार तुमने आत्‍म हत्‍या की सोची है। अगर मन तीसरी आँख पर केंद्रित है तो आत्‍महत्‍या का विचार भी आत्‍महत्‍या बन जाएगा। तुमको विचार बदलने का समय भी नहीं मिलेगा। वह तुरंत घटित हो जाएगी। तुमने किसी को सम्‍मोहित होते देखा है। जब कोई सम्‍मोहित किया जाता है, तब सम्मोहन विद जो भी कहता है, सम्‍मोहित व्‍यक्‍ति तुरंत उसका पालन करता है। आदेश कितना ही बेहूदा हो तर्कहीन हो असंभव ही क्‍या न हो। सम्‍मोहित व्‍यक्‍ति उसका पालन करता है। क्‍या होता है? यह पांचवी विधि सब सम्मोह न की जड़ में है। जब कोई सम्‍मोहित किया जाता है, तब उसे एक विशेष बिंदू पर, किसी प्रकाश पर या दीवार पर लगे किसी चिन्‍ह पर या किसी भी चीज पर या सम्‍मोहक की आँख पर ही अपनी दृष्‍टि केंद्रित करने को कहा जाता है। और जब तुम किसी खास बिंदू पर दृष्‍टि केंद्रित करते हो, उसके तीन मिनट के अंदर तुम्‍हारा आंतरिक अवधान तीसरी आँख की और बहने लगता है। तुम्‍हारे चेहरे की मुद्रा बदलने लगती है। और सम्‍मोहन विद जानता है कि कब तुम्‍हारा चेहरा बदलने लगा। एकाएक चेहरे से सारी शक्‍ति गायब हो जाती है। वह मृत वत हो जाता है। मानों गहरी तंद्रा में पड़े हो। जब ऐसा होता है, सम्‍मोहक को उसका पता हो जाता है। उसका अर्थ हुआ कि तीसरी आँख अवधान को पी रही है। आपका चेहरा पीला पड़ गया है। पूरी ऊर्जा त्रिनेत्र केंद्र की और बह रही है। अब सम्मोहित करने वाला तुरंत जान जाता है। कि जो भी कहा जाएगा। वह घटित होगा। वह कहता है कि अब तुम गहरी नींद में जा रहे हो, और तुम तुरंत सो जाते हो। वह कहता है कि अब तुम बेहोश हो रहे हो और तुम बेहोश हो जाते हो। अब कुछ भी किया जा सकता है। अब अगर वह कहे कि तुम नेपोलियन या हिटलर हो गए हो तो तुम हो जाओगे। तुम्‍हारी मुद्रा बदल जायेगी। आदेश पाकर तुम्‍हारा अचेतन उसका वास्‍तविक बना देता है। अगर तुम किसी रोग से पीडित हो तो रोग को हटने का आदेश देगा, और मजेदार बात रोग दूर हो जायेगा। या कोई नया रोग भी पैदा किया जा सकता है। यही नहीं, सड़क पर से एक कंकड़ उठा कर अगर सम्मोहन विद तुम्‍हारी हथेली पर रख दे और कहे कि यह अंगारा है तो तुम तेज गर्मी महसूस करोगे और तुम्‍हारी हथेली जल जाएगी—मानसिक तल पर नहीं, वास्‍तव में ही। वास्‍तव में तुम्‍हारी चमड़ी जब लायेगी और तुम्‍हें जलन महसूस होगी। क्‍या होता है? अंगारा नहीं, बस एक मामूली कंकड़ है वह भी ठंडा, फिर भी जलना ही नहीं हाथ पर फफोले तक उगा देता है। तुम तीसरी आँख पर केंद्रित हो और सम्मोहन विद तुमको सुझाव देता है और वह सुझाव वास्‍तविक हो जाता है। यदि सम्मोहन विद कहे कि अब तुम मर गए, तो तुम तुरंत मर जाओगे। तुम्‍हारी ह्रदय गति रूक जायेगी। रूक ही जाएगी। यह होता है त्रिनेत्र के चलते। त्रिनेत्र के लिए कल्‍पना और वास्‍तविकता दो चीजें नहीं है। कल्‍पना ही तथ्‍य है। कल्‍पना करें और वैसा ही जाएगा। स्‍वप्‍न और यथार्थ में फासला नहीं है। स्‍वप्‍न देखो और सच हो जायेगा। यही कारण है कि शंकर ने कहा कि यह संसार परमात्‍मा के स्‍वप्‍न के सिवाय और कुछ नहीं है—यह परमात्‍मा की माया है। यह इसलिए कि परमात्‍मा तीसरी आँख में बसता है—सदा, सनातन से। इसलिए परमात्‍मा जी स्‍वप्‍न देखता है वह सच हो जाता है। और यदि तुम भी तीसरी आँख में थिर हो जाओ तो तुम्‍हारे स्‍वप्‍न भी सच होने लगेंगे। सारिपुत्र बुद्ध के पास आया। उसने गहरा धान किया। तब बहुत चीजें घटित होने लगीं, बहुत तरह के दृश्‍य उसे दिखाई देने लगे। जो भी ध्‍यान की गहराई में जाता है। उसे यह सब दिखाई देने लगता है। स्‍वर्ग और नरक; देवता और दानव, सब उसे दिखाई देने लगे। और वह ऐसे वास्‍तविक थे कि सारिपुत्र बुद्ध के पास दौड़ा आया। और बोला कि ऐसे-ऐसे दृश्‍य दिखाई देते है। बुद्ध ने कहा, वे कुछ नहीं है। मात्र स्‍वप्‍न है। लेकिन सारिपुत्र ने कहा कि वे इतने वास्‍तविक है कि मैं कैसे उन्‍हें स्‍वप्‍न कहूं? जब एक फूल दिखाई पड़ता है, वह फूल किसी भी फूल से अधिक वास्‍तविक मालूम पड़ता है। उसमे सुगंध है। उसे मैं छू सकता हूं। अभी जो मैं आपको देखता हूं वह उतना वास्‍तविक नहीं है; आप जितना वास्‍तविक मेरे सामने है, वह फूल उससे अधिक वास्‍तविक है। इसलिए कैसे मैं भेद करूं कि कौन सच है, और कौन स्‍वप्‍न। बुद्ध ने कहा, अब चूंकि तुम तीसरी आँख में केंद्रित हो, इसलिए स्‍वप्‍न और यथार्थ एक हो गए है। जो भी स्‍वप्‍न तुम देखोगें सच हो जाएगा। और उससे ठीक उलटा भी घटित हो सकता है। जो त्रिनेत्र पर थिर हो गया, उसके लिए स्‍वप्‍न यथार्थ हो जाएगा। और यथार्थ स्‍वप्‍न हो जाएगा। क्‍योंकि जब तुम्‍हारा स्‍वप्‍न सच हो जाता है तब तुम जानते हो कि स्‍वप्‍न और यथार्थ में बुनियादी भेद नहीं है। इसलिए जब शंकर कहते है कि सब संसार माया है, परमात्‍मा का स्‍वप्‍न है, तब यह कोई सैद्धांतिक प्रस्‍तावना या कोई मीमांसक वक्‍तव्‍य नहीं है। यह उस व्‍यक्‍ति का आंतरिक अनुभव है जो शिवनेत्र में थिर हो गया है। अंत: जब तुम तीसरे नेत्र पर केंद्रित हो जाओ तब कल्‍पना करो कि सहस्‍त्रार से प्राण बरस रहा है; जैसे कि तुम किसी वृक्ष के नीचे बैठे हो और फूल बरस रहे है, या तुम आकाश के नीचे हो और कोई बदली बरसने लगी। या सुबह तुम बैठे हो और सूरज उग रहा है और उसकी किरणें बरसने लगी है। कल्‍पना करो और तुरंत तुम्‍हारे सहस्‍त्रार से प्रकाश की वर्षा होने लगेगी। यह वर्षा मनुष्‍य को पुनर्निर्मित करती है, उसका नया जन्‍म दे जाती है। तब उसका पुनर्जन्‍म हो जाता है। ओशो विज्ञान भैरव तंत्र (तंत्र-सूत्र—भाग-1) प्रवचन-5 तंत्र-सूत्र—विधि-05 धर्मशास्त्र की बारीकियों में हमें नहीं जाना कि क्या सही है, क्या नहीं, किंतु पूज्य शंकराचार्य जी द्वारा हाल में की गई टिप्पणियों से यह तो स्पष्ट हुआ ही कि वह ऐसा पद है जिस पर बैठे धर्मज्ञवर सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्तियों को भी ललकार सकते हैं। व्यवस्था निर्माण की दृष्टि से रामजन्मभूमि मंदिर किसी संप्रदाय विशेष का मान्य हो सकता है, परंतु उसमें सनातन धर्म के सभी संप्रदायों का ही नहीं अपितु विश्व भर की परंपराओं का स्थान बनाया जाना चाहिए। भगवान राम को जानने और मानने वालों की दुनिया में कैसी कैसी परम्परायें चलती हैं, हमें विश्वास है उन सबकी एक झांकी इस मंदिर में मिलेगी। एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट घट में लेटा, एक राम है जगत पसारा, एक राम है जगत से न्यारा। तीन राम को सब कोई ध्यावे, चतुर्थ राम को मर्म न पावे। चौथा छाड़ि जो पंचम ध्यावे, कहे कबीर सो हम को पावे।। इससे लोकमानस की आस्था गहरी और व्यापक होगी। राम सबके हैं और सबमें वे हैं, यह उस मंदिर में मूर्तिमान होना चाहिए। इसलिए सबके अभिमत और उनके सुझावों का स्वागत हो और उनका मंदिर में यथोचित सन्निवेश हो। निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।। पूज्य शंकराचार्य पीठाधीश्वरों की टिप्पणियों से राजसत्ता पर धर्मसत्ता की वरीयता प्रतिष्ठित होती है, होनी भी चाहिए। धर्मसत्ता अध्यात्म की विरोधी नहीं होती, अपितु किसी व्यक्ति की अध्यात्म तक पहुँच उसे अपने धर्म का बोध होने पर ही हो पाती है। १३/१/२४ योग वासिष्ठ वैज्ञानिक ग्रंथ है। सूक्ष्मता से मंथन किया गया है। कर्मों की गति गहन है, इस पर बहुत से भ्रम समाज में फैले हैं। यह ग्रंथ उनका समुचित निवारण करता है। अपनी इंद्रियों और उनकी प्रवृत्तियों के प्रति अनिच्छा ही स्वच्छता है। श्री श्री रविशंकर राम तथा कृष्ण के ब्रह्म रूप विश्व का मूल एक ही ब्रह्म था, जिसने सृष्टि के लिये २ प्रकार की क्रियायें कीं-(१) भृगु (जबर) = गुरुत्व का आकर्षण, संकोच। इस आकर्षण का केन्द्र क्रीं = कृष्ण है। जब प्रकाश भी आकर्षित होता है, तब वस्तु का कोई रंग नहीं होता, अतः कृष्ण = काला। आकर्षण का क्षेत्र क्लीं = काली है। क्रीं, क्लीं को अरबी में करीम, कलीम कहा गया है, क्योंकि उसमें संयुक्ताक्षर नहीं हैं। (२) अङ्गिरा (अंगारा) = तेज का विकिरण, प्रसार। जब यह प्रकाश रूप में गतिशील होता है, तो रं है- ॐ खं ब्रह्मं, खं पुराणं (पुर में गतिशील प्राण) वायु रं इति ह स्माह-बृहदारण्यक उपनिषद् (५/१/१) प्राणो वै रं, प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि रमन्ति। (शतपथ ब्राह्मण १४/८/१३/३, बृहदारण्यक उपनिषद् ५/१२/१) रकारो वह्निः, वचनः प्रकाशः पर्यवसति (रामरहस्योपनिषद् ५/४) रं को भाषा में राम या रहीम (अरबी) कहते हैं। ब्रह्म का ३ प्रकार से निर्देश होता है-ॐ, तत्, सत्-गीता (१७/२३)। ॐ गतिशील होने पर रं है, व्यक्ति के लिये तत् या निर्देश नाम द्वारा है, अतः उसका प्राण बाहर निकलने पर कहते हैं-राम-नाम-सत्। राम और कृष्ण मनुष्य रूप में ही थे, पर उनकी समाधि अवस्था में उनकी और ब्रह्म चेतना में कोई अन्तर नहीं था। उस रूप में उन्होंने अपने को ब्रह्म ही कहा है, उनको सामान्य मनुष्य मानना भूल है- मयाध्यक्षेण प्रकृतिं सूयते सचराचरम्। हेतुनानेन कौन्तेय जगद् विपरिवर्तते॥ अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषी तनुमाश्रितम्। परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥ (गीता ९/१०-११) दोनों के बारे में कई बार सन्देह हुआ है कि वे मनुष्य हैं या ब्रह्म हैं। अर्जुन ने कहा कि कृष्ण भी उनके साथ ही पैदा हुये, फिर उन्होंने बहुत पहले विवस्वान् को कैसे ज्ञान दिया? (गीता ४/४)। रामचरितमानस में भी शंकर प्रिया सती को सन्देह होता है कि राम ईश्वर होने पर सीता के वियोग में कैसे रो रहे थे? लेकिन उनके सीता रूप धरने पर भी राम ने उनको पहचान कर नमस्कार किया। कृष्ण का एक अर्थ है कृत्स्न या सम्पूर्ण विश्व। आकर्षण से ही विश्व स्थित है। आकाश में सौर मण्डल से बड़ी रचना अमृत है, सौरमण्डल के अंश मर्त्य हैं- आकृष्णेन रजसा वर्तमानः निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥ (ऋक्, १/३५/२, वाज. सं. ३३/४३, ३४/३१, तैत्तिरीय सं. ३/४/१/२, मैत्रायणी सं. १९६/१६) पुराण में सौरमण्डल के भू, भुवः स्वः को कृतक (बनने-मिटने वाले) तथा जनः, तपः, सत्य को अकृतक (स्थायी) कहा है। बीच में महर्लोक है। पादगम्यन्तु यत्किञ्चिद्वस्त्वस्ति पृथिवीमयम्। स भूर्लोकः समाख्यातो विस्तरोऽस्य मयोदितः॥१६॥ भूमिसूर्यान्तरं यच्च सिद्धादि मुनिसेवितम्। भुवर्लोकस्तु सोऽप्युक्तो द्वितीयो मुनिसत्तम॥१७॥ ध्रुवसूर्यान्तरं यच्च नियुतानि चतुर्दश। स्वर्लोकः सोऽपु गदितो लोकसम्स्थान चिन्तकैः॥१८॥ त्रैलोक्यमेतत् कृतकं मैत्रेय परिपठ्यते। जनस्तपस्तथा सत्यमिति चाकृतकं त्रयम्॥१९॥ कृतकाकृतकयोर्मध्ये महर्लोक इति स्मृतः। शून्यो भवति कल्पान्ते योऽत्यन्तं न विनश्यति॥२०॥ (विष्णु पुराण, २/८) आकर्षण बल द्वारा सभी ग्रह नक्षत्र शाङ्कव (वृत्त, दीर्घ वृत्त) कक्षाओं में स्थिर हैं। शङ्कु भवत्यह्नो धृत्यै यद्वा अधृतँ शङ्कुना तद्दाधार। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, ११/१०/११) तस्मिन्त्साकं त्रिशता न शङ्कवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचलासः॥ (ऋक्, १/१६४/४८) ध्यान कुछ भी न होना और होने में रहना है। १५/१/२४ मकर संक्रांति गंगा और गायत्री का पर्व है। गायत्री एक छंद का नाम है। छंद का अर्थ गति भी है। गायत्री आत्मा का छंद है। गायत्री में सूर्य उपासना ही होती है। मकर संक्रांति में सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। सूर्य जो सबका पोषण करता है। वह प्रकृति का प्राण है। संक्रांति पर इसी प्रकृति की खाद्य वस्तुओं गुड और तिल आदि लेने का विधान किया गया है। इस दिन हम गंगा स्नान या बुड़की लेते हैं। यह ज्ञान उपासना है। गंगा ज्ञान की प्रतीक है। ज्ञान उपलब्ध होने पर ही स्वयं के साथ साथ पितरों को भी तृप्ति मिलती है। इसलिए आज के दिन ही राजा भगीरथ के साठ हज़ार पूर्वज मुक्त हुए। इस दिन खिचड़ी खाने की परंपरा है, खिचड़ी यानी प्रकृति के उपयोगी तत्वों का समाहार। दान का भी अर्थ है कि यह सबके लिए हैं। यह सब ज्ञान कराने वाले पुरोहित अग्नि रूप हैं। ऋग्वेद का पहला मंत्र है ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।। विश्व की सभी सभ्यताओं में अग्नि की उपासना की गई है। अग्नि मनुष्य के बाहर भी है, अग्नि मनुष्य के अंदर भी है। अग्नि सबसे अच्छी मित्र है। अग्नि सबसे बड़ी शत्रु भी है। अतः मनुष्य ने अग्नि को ही अपना पहला देव माना। प्रकृति के कण कण को जिस समाज ने अपने जीवन में जितना स्थान दिया, वह सभ्यता उतनी उन्नत हुई। सनातन का प्रकृति के पोर पोर के प्रति कृतज्ञता का भाव आदिकाल से रहा है। प्रकृति के प्रति यह सभ्य आचरण ही धर्म है। १६/१/२४ प्रकाश एक लोक का नाम है, आकाश की भाँति। व्यक्ति की प्रकृष्ट या विशिष्ट दशा में वह प्रकाश दर्शन करता है। यह प्रकाश बाह्य प्रकाश नहीं है, परंतु उससे भिन्न भी नहीं है। बाह्य प्रकाश बिखरी हुई श्वासों की भाँति है, मूल श्वास ईश्वर की है, जिसमें मन, वाणी और कर्म की एकता है, सामरस्य है, स्वातंत्र्य है, परंतु श्वास के बिखरने पर यह सब खंड खंड हो जाते हैं और प्राणी भटक जाते हैं। तब वे अपनी मनोवृत्तियों और आदतों के चंगुल में घिरे रहते हैं। प्राण या स्रोत से जुड़े रहना प्रकाश के क्षेत्र में बने रहना है। शंकराचार्यों पर लांछन लगाना सही नहीं है। उनका आशीर्वाद पाने की कामना करते रहना उचित है। शंकराचार्यों से राजनीति के प्रश्नों को हल करने की अपेक्षा नहीं की जाती है, अपितु वे एक समृद्ध और सुदीर्घ परंपरा के प्रतीक हैं, उनका कहा और किया उन्हीं पर छोड़ देना चाहिए। १७/१/२४ उस परम् का साक्षात्कार हो जाने पर जाने माने वैज्ञानिक स्टीफ़न हॉकिंग की बात कि 'ब्रह्मांड प्रकृति के सिद्धांतों पर चलने वाली मशीन है' भी ग़लत नहीं लगेंगी। वे वैज्ञानिक थे, उन्होंने अनुभूत करके कोई बात कही है। ईश्वर मानने के बाद होने वाले साक्षात्कार में पतन की आशंका नहीं रहेगी, अन्यथा वहाँ से गिरने की संभावना रहती है। रमेश पाराशर की पोस्ट पर १९/१/२४ प्रभु श्री राम जन्म भूमि पर उनकी प्रतिष्ठा का आयोजन जारी है। २२ जनवरी को उनके चक्षु खुल जाएँगे। उससे पहले अहंकार, मन, बुद्धि, चित्त और फिर पंच महाभूतों में से आकाश और वायु में प्राण का अधिवास हो रहा है। चक्षु एक ज्ञानेंद्रिय है, जिसकी कर्मेंद्रिय पाद या पैर हैं। चक्षु ज्ञानेंद्रिय की तन्मात्रा रूप है और इसका महाभूत अग्नि है। संसार इसी महाभूत से शुरू होता है, इससे पूर्व तो आकाश और वायु की सत्ता रहती है। अग्नि के बाद जल और फिर पृथ्वी पर आरोहण होता है। अग्नि की तन्मात्रा रूप से ही रस का उद्भव होता है और रस से गंध का। प्राण प्रतिष्ठा का अनुष्ठान सृष्टि रचना का आयोजन है। हम सब इसे आत्मसात् करें, जो नहीं कर पा रहे होंगे, उनके भीतर राम को अव्यक्त रूप में समझना चाहिए। ऐसे भी जन हो सकते हैं जो इसे आत्मसात् किए हों और व्यक्त न कर रहे हों। २०/१/२४ जगत् प्रभु की लीला है। लीला का संवरण भी तो वही करते हैं। लीला का निर्देशन और व्यवस्थापन उन्हीं के द्वारा हो रहा है। वे स्वयं लीलामय भी हैं और लीला के बाहर उसके नियंता हैं। मनुष्य द्वारा किए जा रहे कार्य प्रभु की लीला के भाग हैं। मनुष्य को यह सदा स्मरण रखना है। लीला का उपराम भी होता है, मनुष्य को भी प्रभु लीला के साथ साथ उसका हिस्सा होने की स्मृति जागती है, वह उस लीला में ऐसा निमग्न भी होता है जिसमें वह एक पार्ट है, यह वह भूल जाता है। उस समय प्रभु उसे नियंत्रित करते हैं। यदि वह प्रभु के घेरे में न रहा तो भटकता रहेगा। २१/१/२४ वैज्ञानिकों ने प्राणियों और विशेषतः मनुष्यों की श्वास पर क्या प्रयोग किये और उनसे क्या निष्कर्ष निकले हैं, हमें ज्ञात नहीं है। इस दिशा में वैज्ञानिकों को उतरना चाहिए। हमारी श्वास के तौर तरीक़ों से बहुत से महत्वपूर्ण और मानवता के लिए सर्वथा उपयोगी निष्कर्ष मिल सकते हैं। यह क्षेत्र ऐसा है, जिससे स्पष्ट तौर पर विज्ञान और अध्यात्म के सिरे जुड़ते हुए मिलेंगे। अग्नि से जल की उत्पत्ति हुई है, जल से पृथ्वी की। यह स्वाभाविक विधान है। अपने भीतर इस क्रम का उदय हो जाए, इसका पता लग जाए, इसके लिए हमें उल्टे क्रम से जाना होता है। पृथ्वी के गुण गंध से, रस और रस से रूप की यात्रा होती है। अग्न्याधान की प्राप्ति सहज नहीं है। एतदर्थ गुरु कृपा और साधना की आवश्यकता है। गोरख – मन का स्वरूप क्या है? श्वांस का आकार क्या है? दस दिशाएं कौनसी हैं और किस उपाय के द्वारा इन्हें नियंत्रित किया जा सकता है?.....हरि ॐ मछेन्द्र – शून्य ही मन का स्वरूप है, श्वांस का आकार निराकार है, दशों दिशाओं का वर्णन नहीं किया जा सकता और दसवां द्वार ही इन्हें नियंत्रित करने का एकमात्र उपाय है।.....हरि ॐ गोरख – मूल (जड़) क्या है और शाखा क्या है? कौन गुरु और कौन शिष्य है, किस तत्व के सहारे साधक अकेला अपने मार्ग पर चल सकता है?......हरि ॐ मछेन्द्र – मस्तिष्क ही मूल है और श्वांस शाखा हैं। शब्द ही गुरु है और ध्यान ही शिष्य है। और खुद को जानना ही वह ज्ञान है जिसके सहारे साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।......हरि ॐ गोरख – बीज क्या है, क्षेत्र क्या है? स्तवन क्या है? दृश्य क्या है? जोग (योग) क्या है और किस उपाय (जुगती) के सहारे किया जाता है? मोक्ष क्या है? और मुक्ति क्या है?.....हरि ॐ मछेन्द्र – मंत्र ही बीज है, मति (भाव) ही भूमि है। ध्यान (सूरति) ही स्तवन है, सबसे अलग होना ही (अर्थात निवृत्ति) ही दृश्य है। सागर (उरम) ही जोग है और पृथ्वी (धरम) ही उपाय है। अखंड ज्योति ही मोक्ष है और ज्योति का प्रकाशपुंज ही मुक्ति है।.......हरि ॐ २२/१/२४ राम में जीव और परम का लीला विहार है. निशब्द से शब्द का और शब्द से ओंकार का उद्भव हुआ है. ॐ से रा और म अक्षर उत्पन्न होते हैं. त्रितत्व हैं जीव, परमात्मा तथा हरे राम कृष्ण अथवा गुरु शिष्य और भगवान। राम का दर्शन मंदिर में कैसे! मन के अंदर जो है, वह मंदिर कहा जाता है। मन के भीतर के तत्व का दर्शन मंदिर में होता है। एक बार दर्शन मन में या मंदिर में हो जाए तो फिर सर्वत्र होता है। ध्यानमंगलम् स्वरूप है भगवान श्री राम का... इसमें सब अंतर्लीन हो जाता है। इसे शांभवी और भैरवी मुद्रा भी कहा गया है... अंतर्लक्ष्यो बहिर्दृष्टि निमेषोन्मेष वर्जिता। इयं सा भैरवी मुद्रा सर्वतंत्रेषु गोपिता।। ध्यानमंगलम् बड़ा मूल्यवान शब्द है, इस पर फिर कभी... 👉 निस्पंद मन की भाषा है ध्यान ध्यान मन का स्नान है, चित्त की शुद्धि व परिष्कृति है, यह आत्मा का भोजन है। ध्यान में हम स्थिर होते हैं, एकाग्र होते हैं। ध्यान के द्वारा अपने अस्थिर व उद्वेलित मन को शांत करके हम उसे ऊर्जावान बना सकते हैं। ध्यान के माध्यम से हम अपनी मानसिक क्षमता को भी बढ़ा सकते हैं। **गहरा ध्यान उस प्रकाश की तरह होता है, जो कुसंस्कार रूपी अंधकार को तिरोहित कर सकता है। संस्कार ही होते हैं.. जो चित्तभूमि में कर्मबीज के रूप दबे होते हैं और समयानुसार परिपक्व होकर अंकुरित होते हैं, उभरते और विकसित होकर अपना प्रभाव दिखाते हैं। **ध्यान में तल्लीन हुए, व्यक्ति का शरीर भले ही निष्क्रिय हो, लेकिन उसका मन होश में रहता है, स्वप्न के सदृश्य वह अपने चित्त का दर्शन करता है, लेकिन वह स्वप्न नहीं होता, बल्कि जाग्रत अवस्था में पूर्ण होश के साथ देखा गया दृश्य होता है। ध्यान वह प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति स्वयं को उनसे मुक्त करता है, जिनसे वह आसक्त है। यदि वह स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रहा तो ध्यान भी नहीं कर सकता। प्रायः हमारी यह प्रवृत्ति है कि उत्तेजक, नकारात्मक भावों पर हमारा अधिक ध्यान जाता है और सुख की अपेक्षा दुःख को हम अधिक याद करते हैं। **हम अपने सुखद मनोभावों को छोड़कर दुःखद मनोभावों से गहराई से चिपके होते हैं और उनके कारण प्रताड़ित रहते हैं, परंतु ध्यान के माध्यम से जब चेतना इन सभी भावों से मुक्त होती है तो व्यक्ति वर्तमान में जीने लगता है और अतीत के बंधनों से मुक्त होने लगता है। इन बंधनों से मुक्त होना ही ध्यान है। सामान्य तौर पर व्यक्ति अपने अतीत और भविष्य से मुक्त नहीं हो पाता और न ही वह अपने वर्तमान का सदुपयोग कर पाता है, क्योंकि अधिकांशतः उसके वर्तमान में या तो अतीत की यादें होती हैं या फिर भविष्य की योजनाएँ। जब भी कोई व्यक्ति योजनाएँ बनाता है तो वे योजनाएँ व्यक्ति को ध्यान की गहराई में डूबने से रोकती हैं। इसी तरह अतीत की यादें भी उन जंजीरों की तरह होती हैं, जो व्यक्ति को ध्यान की गहराई में उतरने नहीं देतीं; जबकि ध्यान तो वर्तमान में जीने, उसे स्वीकारने का नाम है। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने वर्तमान में स्थिर व एकाग्र होता है, अपनी ऊर्जा का संग्रह करता है और उस संगृहीत ऊर्जा के माध्यम से अपना सर्वोत्तम कार्य करता है। ध्यान व्यक्ति के मन को पूर्ण संतुष्टि व बृहत्तर अंतर्ज्ञान की ओर ले जाता है। ध्यान के माध्यम से ब्रह्मांडीय चेतना से एकाकार हुआ जा सकता है और संपूर्ण ब्रह्मांड से स्वयं के तादात्म्य को अनुभव किया जा सकता है। **ध्यान के अभ्यास से, इसकी गहराई में उतरने से हमारे शरीर, मन, प्राण व स्नायुतंत्र का संवर्द्धन होता है। शरीर की प्रत्येक कोशिका में प्राण का संचार होता है, मनः शक्ति का विकास होता है और आत्मिक प्रसन्नता हस्तगत होती है। **ध्यान के समय 'मैं कुछ भी नहीं हूँ (अकिंचन), ' का भाव होना चाहिए, किसी भी चीज की चाहत व्यक्ति के ध्यान को डगमगा सकती है। **ध्यान कभी भी करने से नहीं होता, बल्कि स्वतः हो जाता है। जब व्यक्ति ध्यान में कुछ करने का प्रयास करता है तो वह वास्तविक रूप से ध्यान की गहराई में नहीं उतर सकता। **ध्यान में किसी तरह की सक्रियता के बजाय एक तरह की सजगता और जागरूकता लिए हुए अक्रियता होती है। ध्यान हमारे अंतर्मन की यात्रा है और यह एक ऐसी यात्रा है, जिस पर हमें अकेले ही चलना होता है, **केवल अपना मन ही साथी- सहयोगी की तरह होता है। यदि हमारा यह मन स्थिर, शांत व एकाग्र है तो अपना पूरा सहयोग दे पाता है और यदि मन अस्थिर, अशांत व उद्वेलित है तो एक कदम भी साथ नहीं चल सकता। **मन की अशुद्धि व विकृतियाँ इस मार्ग पर बिछे हुए उन नुकीले काँटों की तरह होती हैं, जो ध्यान में जाने पर चुभती हैं व आगे नहीं बढ़ने देतीं। अतः ध्यान उन व्यक्तियों का सरलता से लगता है, जो सात्त्विक प्रकृति के होते हैं और जिनका अंतःकरण शुद्ध, निर्मल होता है। **ध्यान करने से पूर्व धारणा व अन्य यौगिक प्रक्रियाओं का अभ्यास करना चाहिए। महर्षि पतंजलि ने इसलिए अष्टांग योग में ध्यान को सातवें स्थान पर रखा है, इसके पूर्व में क्रम से- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा को रखा है और ध्यान के बाद समाधि को रखा है, जो कि योग-साधना का शिखर है। यदि ध्यान से पूर्व अन्य क्रमों की उपेक्षा करके ध्यान तक पहुँचने करने का प्रयास किया जाएगा तो असफलता मिलती है और यथेष्ट लाभ भी नहीं मिल पाता। ध्यान करने वाले व्यक्तियों को यौगिक जीवनशैली का अभ्यास करते रहना चाहिए।**सामान्य व्यक्ति भी ध्यान के लाभों को प्राप्त करने के लिए अपने दैनंदिन जीवन में थोड़ी देर के लिए ध्यान का अभ्यास कर सकते हैं। यह अभ्यास किसी भी समय किया जा सकता है, जैसे- सूर्योदय के समय अथवा रात्रिकाल में या किसी भी अन्य समय, जब मन ध्यान में उतरना चाहता हो। यदि ध्यान करने का अभ्यास जीवन में डाला गया तो निश्चित रूप से इसके लाभ हमें अपने जीवन में देखने को मिलते हैं।🙏 ---वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं.श्रीराम शर्मा आचार्य अखण्ड ज्योति : अक्टूबर, २०१५ से साभार संकलित व संपादित!🍂💥🍂💥🍂💥🍂💥 २६/१/२४ गौतमबुद्ध कहते हैं - परमात्मा को . ख़ुद में देखना “ध्यान” है, दूसरों में देखना “प्रेम” और सबमें देखना “ज्ञान” है.. २८/१/२४ "Often man does not cognize even things that his senses are able to perceive. Those persons who have perceptive eyes enjoy beauty everywhere.” - Paramahansa Yogananda इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति। न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः। भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः। प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥केन० २/५ यदि व्यक्ति यहीं (इसी लोक में) उस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है तो व्यक्ति का अस्तित्व सार्थक है, यदि यहीं उस ज्ञान की प्राप्ति नहीं की, तो महाविनाश है। ज्ञानीजन विविध भूत-पदार्थों में 'उस' का विवेचन कर, इस लोक से प्रयाण करके अमर हो जाते हैं। 5. If he knows Him here, then there is good for him. If he knows Him not here, then there is great loss. The wise knowing Him in all beings, going out of this world, after getting full knowledge from Guru, become immortal. योग वासिष्ठ में वसिष्ठ राम से कहते हैं यह सृष्टि 76 बार बनी है और तुम भी 76वे राम हो। योग वासिष्ठ के आधार पर हॉलीवुड में एक फ़िल्म 1999 में The Matrix बनी है। इसमें आता है Let me tell you why you are here. You are here because you know something. What you know you can’t explain, but you feel it. You felt it your entire life. You don’t know what it is, but it is there, like a splinter in your mind. It is this feeling that has brought you to me. Do you know what I’m talking about? The Matrix. Do you want to know what it is? The Matrix is everywhere, all around us, even now in this very room. Unfortunately no one can be told what the Matrix is. You have to see it for yourself.. इच्छाओं के रहते प्राण चले जायें तो मृत्यु है और प्राण के रहते हुए इच्छायें चली जायें तो वह हुयी मुक्ति। ३०/१/२४ कौरव प्रतीक हैं उन दोषों के जो हमें ईश्वर से या आत्मज्ञान से दूर ले जाते हैं, जबकि पांडव प्रतीक हैं उन गुणों के जो हमें आत्मज्ञान कराने के समीप ले जाते हैं। भीष्म अहंकार के प्रतीक हैं, जो गुणों को अपना मानते तो हैं पर वे कौरवों के पक्ष में ही खड़े होते हैं। इन गुणों और दोषों का सतत् युद्ध जहां चलता है, वह कुरुक्षेत्र कहलाता है। इस युद्ध को जीतने के लिए एक आदर्श शिष्य बनना पड़ता है, जिससे कृष्ण जैसे सद्गुरू प्राप्त हों। प्रणवादिसमुच्चारात्
प्लुतान्ते शून्यभावनात् ।
शून्यया परया शक्त्या
शून्यतामेति भैरवि ॥ praṇavādisamuccārāt
plutānte śūnyabhāvanāt /
śūnyayā parayā śaktyā
śūnyatāmeti bhairavi // Bhairavi, O Pārvatī, praṇavādi samuccārāt, . . .
There are three kinds of praṇavas–Vedic praṇava, Śiva praṇava, and Māyā praṇava. Vedic praṇava is “oṁ”; Śiva praṇava is “hūṁ”; Māyā praṇava is “hrīṁ”. Hrīṁ is called Māyā praṇava from our Shaiva point of view; and hūṁ is called Śiva praṇava; and oṁ is called Veda praṇava. Just recite these, any of these. You may recite oṁ, you may recite hūṁ, or you may recite hrīṁ–Veda praṇava, Śiva praṇava, or Māyā praṇava. . . . praṇavādi samuccārāt, you must recite it in this way–plutānte. You must not recite just like “oṁ”; not like that. Plutānte, you must end it in pluta. “Ooooooooooooooṁṁṁ”, like this [Swamiji demonstrates]. In the same way, you must recite hūṁ and you must recite hrīṁ. Any of these mantras you may recite. When you recite it, in the end you must concentrate on the voidness of that sound, where this sound merged in the end. The sound is finished afterwards, and there you must concentrate, there you must contemplate.
Śūnya bhāvanāt parayā śūnyayā śaktyā, and, by that supreme awareness of voidness, he enters in the transcendental void state of Śiva. Śūnyatāmeti bhairavi, he enters in the transcendental state of Lord Śiva, transcendental void state, voidness.
 व्यक्ति की कोई एक इंद्रिय काम न करे तो उसमें कोई अलग कौशल और कार्य करने में एक तीक्ष्णता आ जाती है। सोचिए! अगर पाँचों इंद्रियों का हम प्रत्याहरण कर पाएँ तो कितनी ऊर्जा का संग्रहण और केंद्रीकरण हो जाएगा।

No comments:

Post a Comment