Wednesday, January 31, 2024

दिसंबर २३

१/१२/२३ श्री हरिवंश गुसांई भजन की रीति सकृत कोऊ जानि है।
श्री राधाचरण प्रधान हृदै अति सहृद उपासी।
कुंज केलि दंपति तहाँकी करत खबासी॥
सर्व सुमहा प्रसाद प्रसिधिता के अधिकारी।
विधि निषेध नहिं दास अनन्य उत्कट व्रतधारी॥
श्री व्यास सुवन पथ अनुसरै सोई भलैं पहिचानि है।
श्री हरिवंश गुसांई भजन की रीति सकृत कोउ जानि है॥ २/१२/२३ मथुरा को ऐसी प्रसिद्धि न मिली होती अगर वृंदावन न हुआ होता और वृंदावन को भी हम नहीं जान पाते अगर वहाँ ऐसे महात्मा न हुए होते। यह आश्चर्यजनक बात ही है कि भाष्य आदि की रचना न करने पर भी महाप्रभु चैतन्य को एक बड़े भारी सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना गया। समय समय पर उनके रचे मात्र आठ श्लोक शिक्षाष्टकम् नाम से प्रसिद्ध हैं। चैतन्य चरितामृतम जैसी रचनाएँ तो उनके कृष्णदास जैसे शिष्यों ने की हैं। १५१५ ई में चैतन्य महाप्रभु वृंदावन आये और इसे पुनर्स्थापित किया। इसी समय देवबंद निवासी महात्मा हितहरिवंश भी यहाँ हुए, हितहरिवंश ने ८४ वैष्णवों की वार्ता लिखी, हित चौरासी नाम से यह प्रकाशित है। इसे गोकुलनाथ की रचना भी कहा जाता है। सनातन धर्म में चौरासी एक विशिष्ट संख्या है। इसका प्रयोग और निदर्शन कई जगह और बार बार होता आया है। ब्रज भाषा में यह हिंदी गद्य की पहली रचनाओं में गिनी जाती है। राधावल्लभ सम्प्रदाय के आकर ग्रंथ हित चौरासी के इस पद से उसकी रीति-नीति का पता चलता है - श्री हरिवंश गुसांई भजन की रीति सकृत कोऊ जानि है।
श्री राधाचरण प्रधान हृदै अति सहृद उपासी।
कुंज केलि दंपति तहाँकी करत खबासी॥
सर्व सुमहा प्रसाद प्रसिधिता के अधिकारी।
विधि निषेध नहिं दास अनन्य उत्कट व्रतधारी॥
श्री व्यास सुवन पथ अनुसरै सोई भलैं पहिचानि है।
श्री हरिवंश गुसांई भजन की रीति सकृत कोउ जानि है॥ एक अन्य पद दृष्टव्य है- "जोई जोई प्यारों करे सोई मोहि भावे, भावे मोहि जोई, सोई सोई प्यारे।“ वृंदावन में हरित्रयी नाम के तीन बड़े महात्मा हुए हैं, राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रवर्तक श्रीहितहरिवंश जी, इसी संप्रदाय के ओरछा का राज़दरबार छोड़कर गए पंडित हरिराम व्यास और तानसेन के गुरु स्वामी हरिदास। आजकल इसी संप्रदाय के स्वामी प्रेमानंद जी के दर्शन और प्रवचन हम सबको मिल रहे हैं। पीले वस्त्रों में रहने वाले, सदा प्रसन्नचित्त और ऊर्जस्वित इन बाबा की विगत सत्रह अठारह वर्षों से दोनों किडनी ख़राब हैं। हर दो दिन या नियमित अंतराल पर उनका डायलिसिस किया जाता है। बाबा की दिनचर्या रात दो बजे से प्रारंभ हो जाती है। यह एक प्रत्यक्ष चमत्कार है। बाबा जी लंबी कथा और आख्यान नहीं सुनाते, न भजन और गीत ही। साधारण और विशेष हर तरह के व्यक्तियों के प्रश्नों और टिप्पणियों को सुनते और उन पर अपना बेलाग होकर उत्तर देकर मार्गदर्शन करते हैं। उनकी एकांतिक वार्ता में विभिन्न शास्त्रों और ग्रंथों के संदर्भ एवं कथाओं की झलक आती है। वे कोई लंबी चौड़ी साधना और उपासना करने को नहीं कहते, किसी भौतिक दुःख दर्द निवारण करने का दावा नहीं करते। नाम जप एकमात्र उनका मंत्र है। सभी धर्मों के लोग उनकी बातों को ध्यान से आत्मसात् करते हैं। रीति रिवाजों का विधि निषेध - यह करना, यह न करना - उनके यहाँ नहीं पाया जाता। नशा और व्यसन से दूर रहने का निर्देश रहता है। उनकी बातों से युवा प्रभावित हो रहे हैं। यह देखना आश्वस्तिदायक है। सोशल मीडिया पर उनकी जो छोटी छोटी रील चलती हैं, उनकी आवृत्ति और पसंद व टिप्पणियों को देखकर हमें लगता है वर्तमान में आध्यात्मिक नेताओं में वे सबसे अधिक देखी जाने वाली रीलें होंगी। इन्द्रियों के माध्यम से की जाने वाली भक्ति जीव के हृदय में भगवत प्रेम को जागृत करती है। इसीलिए इसको साधन भक्ति कहा जाता है। भाव प्रेम की प्रथम अवस्था का नाम है, अत: भक्ति मार्ग की प्रक्रिया में भाव भक्ति का दूसरा स्थान है। जब भाव घनीभूत हो जाता है, तब वह प्रेम कहलाने लगता है। साधन भक्ति के दो भेद हैं- वैधी और रागानुगा। शास्त्रीय विधियों द्वारा प्रवर्तित भक्ति वैधी और भक्त के हृदय में स्वाभाविक रूप से जागृत भक्ति रागानुगा कहलाती है। Yoga is the art of doing everything with the consciousness of God. Not only when you are meditating, but also when you are working, your thoughts should be constantly anchored in Him...If you think of God while you perform your duties in this world, you will be mentally united with Him. Cease to think that you are working for yourself. Find God by striving to make your daily activities less identified with "me" and "mine" and more identified with God. Paramahansa Yogananda ३/१२/२३ लक्ष्मी के साथ स्वाभाविक क्रम में बहकर उन्हें आने दो, सरस्वती को अर्जित करते हुए बहाकर उन्हे जाने दो और काली के साथ काल अबाधित रहकर उन्हे आने और जाने दो। हमारी हर वृत्ति ब्रह्माकार हो जाये। ब्रह्म में स्थित हो जाना ब्रह्मचर्य कहलाता है। मात्र जननेंद्रिय के निग्रह को ब्रह्मचर्य नहीं माना जा सकता, निग्रह या संयम तो पाँचों कर्मेन्द्रियों - वाक्, हाथ, पैर, उपस्थ या जननेंद्रिय और पायु या मलोत्सर्गेंद्रिय का हो, परंतु पाँचों ज्ञान इंद्रियों श्रोत्र, नेत्र, नासा, जिह्वा और त्वक् का प्रत्याहार हो जाए, वे ब्रह्म में तद्रूप हो जाएँ, तब सच्चा ब्रह्मचर्य होता है। अखंड ब्रह्मचर्य का अर्थ है ज्ञानेंद्रियों का सदा के लिए ब्रह्म में स्थित हो जाना। पाँच कर्मेन्द्रियों का संयम होगा, वे कर्मशील रहेगी, पर अपने लिए नहीं, ज्ञानेद्रियों की तद्रूपता के बाद ब्रह्मचारी होकर वे बस ईश्वर के काम में लग जायेंगी। कर्मेन्द्रियाँ कर्म से पृथक् नहीं रह सकती, पर वे ब्रह्मचर्य के बाद अकर्म दशा को उपलब्ध हो जायेंगी। उपस्थ का अर्थ लिंग ही नहीं, योनि भी है। यह शब्द देते समय किसी लिंग विशेष का अर्थ नहीं ग्रहण किया गया है। प्रेम आत्मा में छिपी परमात्मा की ऊर्जा है। जैसे शरीर और आत्मा को श्वाँस जोड़ती है, वैसे ही बल्कि उससे भी गहरे प्रेम आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है। प्रेम दूसरे की आँख में दिखायी देता है, यह अपने आपको दर्पण में देखने जैसा है। बृहदारण्यक उपनिषद् 6.2.13 योषा वा अग्निर्गौतम; तस्या उपस्थ एव समित्, लोमनि धूमः, योनिरार्चिः, यदन्तः करोति तेंगाराः, अभिनन्द विस्फुल्लिङ्गाः; तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्वति; तस्या आहुत्यै पुरुषः संभवति; स जीवति यावज्जीवति, अथ यदा मृयते ॥ 13 ॥ 13. हे गौतम, नारी अग्नि है। इस अग्नि में देवता बीज अर्पित करते हैं। उस प्रसाद से मनुष्य का जन्म होता है। वह तब तक जीवित रहता है जब तक उसका जीना नियत है। फिर, वह मर जाता है। ५/१२/२३ क्रिया योग अर्थात् योग में क्रिया और क्रिया में योग हो जाना। जीवन की हर क्रिया योग से हो और योगसंवित होकर सारे कर्म संपन्न होते रहें। योग में आरूढ़ होकर किए गए कर्म ही यज्ञ हैं। इसलिए सच्चा यज्ञ क्रियायोग ही है। जब हम सृष्टि के कण कण को यज्ञमय देखते हैं तो परमात्मा का साक्षात होने लगता है। इस यज्ञ की अग्नि को समझना होता है और ध्यान से अपने विचारों में आत्मसात् करता होता है। गीता 4:23-24 पर कहा गया है :
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयतेII
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥
अर्थ : जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है- केवल यज्ञसम्पादन के लिए कर्म करने वाले ऐसे मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं।
जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है- उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही हैं। पंचाग्नि का वर्णन उपनिषदों में आया है, उसी से यह सृष्टि यज्ञ की क्रिया चल रही है। इस पंचाग्नि में अलग अलग स्तरों पर कोई समिधा है, कोई ज्वाला है, कोई आग है तो कुछ धुंआ है। बृहदारण्यक उपनिषद में आया है- श्लोक 6.2.9: असौ वै लोकोऽग्निर्गौतम; तस्यादित्य एव समित्, रश्मयो धूमः, अहरचिर, दिशोङ्गाराः, अवन्तरदिशो विस्फुल्लिङ्गास्; तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः, श्रद्धां जुह्वति; तस्या आहुत्यै सोमो राजा संभवति॥ 9 ॥ 9.हे गौतम, वह संसार (स्वर्ग) अग्नि है, सूर्य उसका ईंधन है, किरणें उसका धुआं है, दिन उसकी ज्वाला है, चारों ओर उसकी भस्म है, और मध्यवर्ती उसकी चिंगारी है। इस अग्नि में देवता श्रद्धा (सूक्ष्म रूप में द्रव्य आहुतियां) देते हैं। उस तर्पण से राजा चंद्रमा का जन्म होता है (बलिदान करने वाले के लिए चंद्रमा में एक पिंड बनाया जाता है)। पर्जन्यो वा अग्निर्गौतम; तस्य संवत्सर एव समित्, अभ्राणि धूमः, विद्युदर्चिः, अशनिरङ्गाराः, ह्रदयोयो विस्फुलिंगाः; तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः सोमं राजानं जुह्वति; तस्या आहुत्यै विष्टिः सम्भवति ॥ दस ॥  10. हे गौतम, पर्जन्य (वर्षा के देवता), अग्नि हैं, वर्ष इसका ईंधन है, बादल इसका धुआं है, बिजली इसकी लौ है, गरज इसकी राख है, और गड़गड़ाहट इसकी चिंगारी है। इस अग्नि में देवताओं ने राजा चंद्रमा का तर्पण किया। उस प्रसाद से वर्षा उत्पन्न होती है। अयं वै लोकोऽग्निर्गौतम; तस्य पृथिव्येव समित्, अग्निर्धुमः, रात्रिरार्चिः, चन्द्रमा अंगाराः, नक्षत्राणि विषफुलिङ्गाः; तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा वृष्टिं जुह्वति; तस्या आहुत्या अन्नं संभवति ॥ ॥ 11. हे गौतम, यह संसार अग्नि है, पृथ्वी इसका ईंधन है, अग्नि इसका धुआं है, रात्रि इसकी ज्वाला है, चंद्रमा इसकी राख है, और तारे इसकी चिंगारी हैं। इस अग्नि में देवता वर्षा करते हैं। उस प्रसाद से अन्न उत्पन्न होता है। पुरुषो वा अग्निर्गौतम; तस्य व्यत्तमेव समित्, प्राणो धूमः, वागर्चिः, चक्षुरङ्गाराः, श्रोत्रं विस्फुल्लिङ्गाः; तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा अन्नं जुह्वति; तस्या आहुत्यै रेतः संभवति ॥ 12 ॥ 12. हे गौतम, मनुष्य अग्नि है, खुला मुख उसका ईंधन है, प्राण उसका धुआं है, वाणी उसकी ज्वाला है, आंख उसकी भस्म है और कान उसकी चिंगारी है। इस अग्नि में देवता भोजन अर्पित करते हैं। उस प्रसाद से बीज उत्पन्न होता है। नारी अग्नि है, यज्ञ के पात्र के रूप में काम करने वाली यह पांचवीं अग्नि है। उस अग्नि में देवताबीज अर्पित करें. उस प्रसाद से मनुष्य का जन्म होता है। इस प्रकार पानी (तरल पदार्थ), जिसे 'विश्वास' के रूप में नामित किया गया है, क्रमशः स्वर्ग, वर्षा-देवता, इस दुनिया, पुरुष और महिला की अग्नि में अर्पित किया जाता है, जो क्रमशः विश्वास, चंद्रमा, बारिश, भोजन और बीज के अधिक से अधिक स्थूल रूपों में होता है। जिसे हम आदमी कहते हैं. चौथा प्रश्न, 'क्या आप जानते हैं कि कितनी आहुति देने के बाद जल मनुष्य की आवाज के साथ ऊपर उठता है और बोलता है?' इस प्रकार उत्तर दिया गया है, अर्थात कि जब पाँचवीं आहुति स्त्री की अग्नि में अर्पित की जाती है, तो जल, बीज में परिवर्तित होकर, एक मानवीय आवाज़ से युक्त हो जाता है। वह , वह आदमी, इसी क्रम में पैदा हुआ, रहता है। कितनी देर? जब तक उसका जीवित रहना नियत है , अर्थात् जब तक उसके पिछले कर्मों का फल, जिसके कारण वह इस शरीर में रहता है, जीवित रहता है। फिर , उस थकावट पर, जब वह मर जाता है। छाँदोग्य उपनिषद में भी ऐसा ही निरूपण मिलता है- योषा वाव गौतमाग्निस्तस्या उपस्थ एव समिद्यदुपमन्त्रयते स धूमो योनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेऽङ्गारा अभिनन्दा विस्फुलिङ्गाः॥१॥ (छान्दोग्य).
अर्थ : हे गौतम ! स्त्री ही अग्नि है। उसका उपस्थ(गुप्तांग) ही समिध्(यज्ञ की लकड़ी) है, पुरुष जो उपमंत्रण(आमंत्रण) करता है वह धूम(धूंआ) हैं, योनि ज्वाला है, जो भीतर की ओर काम क्रिया है वह अंगार हैं और उससे जो आनन्द होता है वह विस्फुलिंग(चिंगारी) हैं।
तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्वति तस्या आहुतेर्गर्भः संभवति॥२॥ (छान्दोग्य). अर्थ : उस इस अग्नि में देवगण वीर्य का हवन करते हैं । उस आहुति से गर्भ उत्पन्न होता है एषां वै भूतानां पृथिवी रसः पृथिव्या आपोऽपामोषधयः ओषधीनां पुष्पाणि, पुष्पाणां फलानि फलाना पुरुषः, पुरुषस्य रेतः।
~ बृहदारण्यक उपनिषद (६ । ४ । १)
भूतों का रस पृथ्वी है। पृथिवी का रस जल है। जल का रस औषधियाँ हैं। औषधियों का रस पुष्प है। पुष्प का रस फल है। फल (अन्न) का रस पुरुष है। पुरुष का रस रेत (वीर्य) है। शुक्र के दो रूप हैं :
१. रेत
२. रज
रेत पुरुष में होता है। रज स्त्री में होता है। रेत में तेज होता है। रज में ज्योति होती है।
रेत के कारण पुरुष तेजस्वी होता है। रज के कारण स्त्री ज्योतिर्मयी होती है। शुक्र (वीर्य) का रज (अण्ड) से मिलने पर प्रजा की उत्पत्ति होती है। जब तक गृहस्थ पांच अग्नि या सत्य-ब्राह्मण का ध्यान नहीं जानते, तब तक वे स्त्री की अग्नि से पैदा होते हैं जब आस्था से शुरू होने वाली पांचवीं आहुति (तरल पदार्थ) क्रम से दी जाती है, और फिर से परलोक प्राप्ति की दृष्टि से अग्निहोत्र आदि संस्कार करें। उन संस्कारों के माध्यम से वे फिर से पितरों की दुनिया में जाते हैं, धुएं आदि के देवता को पार करते हुए, औरफिर से लौटें, वर्षा-देवता इत्यादि के क्रम में गुजरें। फिर वे फिर से स्त्री की अग्नि से जन्म लेते हैं, फिर से संस्कार करते हैं, इत्यादि, इस प्रकार इस दुनिया और अगले दुनिया के बीच अपने आगमन और प्रस्थान द्वारा एक रहट की भाँति लगातार घूमते रहते हैं। जो लोग यज्ञ, दान और तपस्या के माध्यम से संसारों को जीतते हैं, वे धुएँ के देवता तक पहुँचते हैं, उनसे रात्रि के देवता, और उनसे पखवाड़े के देवता तक पहुँचते हैं।जिसमें चंद्रमा क्षीण होता है, उससे छह महीने के देवता, जिसमें सूर्य दक्षिण की ओर यात्रा करता है, उनसे पितरों की दुनिया के देवता, और उससे चंद्रमा। चंद्रमा पर पहुंचकर वे भोजन बन जाते हैं। वहां देवता उनका आनंद लेते हैं, जैसे पुजारी चमकदार सोम रस पीते हैं (धीरे-धीरे, कहते हैं, जैसे कि), 'फूलो, क्षीण हो जाओ।' और जब उनका पिछला कार्य समाप्त हो जाता है, तो वे आकाश से वायु, वायु से वर्षा और वर्षा से पृथ्वी तक पहुँचते हैं। पृथ्वी पर पहुँचकर वे भोजन बन जाते हैं। फिर उन्हें फिर से पुरुष की अग्नि में अर्पित किया जाता है, फिर स्त्री की अग्नि में, जहां से वे दूसरी दुनिया में जाने के उद्देश्य से जन्म लेते हैं (और संस्कार करते हैं)। इस प्रकार वे घूमते हैं। जबकि दूसरे जो इन दोनों तरीकों को नहीं जानते वे कीट-पतंगे और बार-बार काटने वाली चीजें (कीट-मच्छर) बन जाते हैं। शरीर छोड़ने के बाद अर्चि मार्ग और धूम्र मार्ग से गमन की प्रक्रिया को पंचाग्नि क्रम से समझा जा सकता है। ब्राह्मण वही है, जो इस पंचाग्नि को तपे या जाने, ऐसे ब्राह्मणों को अग्निहोत्र कहा गया है। ऐसे व्यक्ति पुनर्जन्म को जानते हैं, जीवों के निर्माण, संवहन और ध्वंस की प्रक्रिया से अवगत रहते हैं, इस अर्थ में वे त्रिकालज्ञ होते हैं और समाज की सर्वविधि भलाई करते हैं। शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा *शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा*
     *यस्तु क्रियावान् पुरूष: स विद्वान् ।*
*सुचिन्तितं चौषधमातुराणां*
       *न नाममात्रेण करोत्यरोगम् ॥* *भावार्थ -* *वास्तव में विद्वान् और सफलतम् व्यक्ति बनने के लिये  अच्छी पुस्तकों और शास्त्रों का केवल अध्ययन करना पर्याप्त नहीं, अपितु जीवन में उनका अनुकरण करना आवश्यक होता है, जैसे रोग दूर करने के लिए दवा की अच्छी जानकारी होना या दवा का नाम ले लेना पर्याप्त नही अपितु दवा का नियमित सेवन करना आवश्यक एवम् लाभदायक होता है।* ६/१२/२३ अगर व्यक्ति आध्यात्मिक हुए तो वे सच्चे अर्थों में धार्मिक होंगे। ऐसा धार्मिक व्यक्ति नैतिक भी होगा। यह धार्मिकता और नैतिकता जीवन और समाज के उन्नयन के लिए अपरिहार्य है। नैतिकता तो धार्मिक हुए बिना भी प्राप्त हो सकती है, पर वह स्खलित या दिशा विहीन हो सकती है। अगर व्यक्ति नैतिक बना रहा तो वह भी अंततः धार्मिक ही होगा। धर्मनिरपेक्ष होने का अर्थ है, उसकी संकीर्णताओं से दूर रहना। यद्यपि धर्म है तो संकीर्णता कैसी! परंतु अपनी रीति और नीति का दुराग्रह संकीर्णता ही मानी जाएगी। इन रीतियों को ही तो अज्ञानी व्यक्ति धार्मिकता समझ लेते हैं। कोई अच्छी रीति है, वह नीति हो गई तो भी उसका आग्रह करना आवश्यक नहीं। वही नीति वह अपनी रीति से प्राप्त कर लेगा, ऐसा भरोसा करना चाहिए। हम अपनी रीति को नीति में परिणत होते हुए तो देखें। व्यक्ति यदि आध्यात्मिक होकर धार्मिक है तो उसमें संकीर्णता का लेश नहीं होगा। इसे अधिक से अधिक अपनाया जाना श्रेयस्कर है। तब जीवन और राजकाज में शुचिता का उदय होगा। व्यक्ति नाहक होड़ लगाने से बचेंगे। वे आलसी नहीं बनेंगे। जीवन में संतुष्टि तो होगी, पर अकर्मण्यता नहीं होगी। ऐसी स्थिति देश के आध्यात्मिक होने से अवश्य आएगी। आध्यात्मिकता में कोई पाखंड और दिखावा नहीं है, जो है, वह हृदय से है। ऐसी दशा में व्यक्ति का चरित्र धवल बनता है, फिर समाज में कदाचार कम होते हैं और राष्ट्र सर्वतोभावेन उन्नति करता है। स्वामी रामतीर्थ 1902-03 में अमेरिका में रहे, उन्होंने वेदान्त पर वहाँ अनेक भाषण दिये। वे कहा करते थे, तुम सब वेदांत के परिपोषक हो, बिना वेदान्त को ग्रहण किए हुए इतनी उन्नति कर ही नहीं सकते। जो कुछ और ज़रूरी है या कमी है, वह भी वेदान्त के ही आराधन से प्राप्त हो जाएगा। पश्चिम ने थोड़े समय में ही भौतिक संसाधनों का अपूर्व उत्थान कर लिया है, आध्यात्मिकता की गहराइयों तक भी वे पहुँच सकते हैं। दुर्भाग्य से, भारत ने वेदान्त को जन्म देकर भी उसे भुला दिया। उसके अवशेष स्पष्ट रूप में यहाँ उपस्थित हैं। एक समय भारत अपने सर्वविध उत्कर्ष पर था, इसी कारण तो उसने दुनिया को वेदान्त या ऐसे दर्शन दिये जो मनुष्य की अंतिम खोज सिद्ध हुए, पर उसने उन्हें स्वयं धारण करना छोड़ दिया, और लौकिक और पारलौकिक दोनों तरह के विकास से वह दूर होता गया, जितने जल्दी भारत सच्चे अर्थों में वेदान्त या आध्यात्मिकता को धारण कर ले, उतने जल्दी वह आगे बढ़ता जाएगा। यहाँ वेदान्त का अर्थ किसी संप्रदाय विशेष से ग्रहण नहीं करना चाहिए, वरन जिस सीढ़ी से व्यक्ति तत्व की छत पर पहुँच जायें, वह सीढ़ी ही वेदान्त समझी जा सकती है। इस दर्शन में परम् का समाहार हो जाता है। Don't joke all the time with each other. Be happy and cheerful inside. Why dissipate in useless talk the perceptions you have gained? Words are like bullets: when you spend their force in idle conversation, your supply of inner ammunition is wasted. Your consciousness is like a milk pail: when you fill it with the peace of meditation you ought to keep it that way. Joking is often false fun that drives holes in the sides of your bucket and allows all the milk of your peace to run out. - Sri Paramahansa Yogananda, in a talk to disciples 8/12/23 दीयते ज्ञान सद्भावः क्षीयते पशुभावना। दानक्षपण संयुक्ता दीक्षा तेनेह कीर्तिता॥ जिसके द्वारा ज्ञान दिया जाता है और पशु भावना का क्षय होता है। इस प्रकार के दान और क्षपणयुक्त क्रिया का नाम दीक्षा है। यह आत्मसंस्कार का ही दूसरा रूप है। एको नादात्मको वर्णः सर्ववर्णाविभागवान। सोsनस्तमित रूपत्वात् अनाहत इवोदित॥ ९/१२/२३ शक्ति को शैवीमुख करना होगा, अन्यथा वह जैवीमुख रहने से ख़ुद को ही ग्रस लेगी। १४/१२/२३ 'Croatia' has numerous lakes and rivers and waterfalls and one such river is the 'Drava' a name possessing 'Dra' a root in Sanskrit meaning to 'run' and this expands as 'Drava' meaning to 'flow' to 'trickle' to 'stream' and the source of this Croatian river. james robinson cooper १५/१२/२३ सुख दूर दिखाई देता है, उस तथाकथित सुख के जितने भीतर प्रवेश करते जाते हैं, उसकी परत दर परत से सामना होता जाता है। उसकी वास्तविकता ज्ञात होती जाती है कि वास्तव में यह सुख नहीं था। जैसे अमेरिका में रह रहे एशियन प्रायद्वीप के सभी निवासी अपने लगने लगते हैं, फिर जब उनसे उनके देशों में मिलते हैं तो वही सुख दुःख में परिणत होने लगता है। जितना समीप आते जाते हैं प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, प्रतिशोध और हड़पकर या येन केन प्रकारैन उसे पीछे करने, उसके जैसे होने या उससे आगे जाने की कामना बलवती होती जाती है। और समीप जाते हैं तो रक्त संबंधियों में भी यह भावना घर करती जाती है। और भीतर और गहरे, गहनतम जाने पर पता लगता है कि यह अपने मन में ही उठ रही हिलोरें हैं। जैसे दूर से देखने पर माना गया सुख दुःख हो गया, वैसे ही निकट से देखने पर वह दुःख भी सुख हो जाता है, जब हम उसे परम गहराई से देखने लग जाते हैं। परम गहराई से देखने पर उस यथार्थ से सामना हो जाता है कि न वह था, न यह है। एक के होने पर दूसरा है और दूसरे के होने पर पहला है, वास्तव में वे एक भी नहीं हैं। संसार की दृष्टि से देखें तो उससे दूर होने पर सुख है और निकट जाने पर दुःख है। इसका विपरीत भी उतना ही वास्तविक लग सकता है। दूर बैठे व्यक्ति को निकट जाने में और निकट बैठे व्यक्ति को दूर जाने में सुख प्रतीत होता है। इसी तरह निकट के व्यक्ति को दूर जाने पर और दूर के व्यक्ति को पास आने पर दुःख लगता है। एक छोर को फैला देना और उसका संकोच कर लेने जैसा यह खेल है। परमार्थ में दोनों कुछ नहीं हैं, संसार में दोनों का आभास तो होता है, पर वे एक सूत्र से गुँथे हुए हैं। वास्तव में उनका अस्तित्व नहीं है। हम यदि संसार के सुख को पाने का प्रयत्न करेंगे तो दुःख भी या तो पहले मिलेगा या बाद में, बिना दुःख के सुख की संभावना नहीं है। यह केवल दूर से या निकट से देखने भर की क्रिया है। क्रिया एक ही है, उसकी दृष्टि के परिणाम दो हैं। क्रिया का सूत्रपात जहां से हो रहा है, वहाँ अवस्थित रहना आ जाए तो शीशे की तरह सुख और दुःख पारदर्शी लगने लगेंगे। सुख और दुःख ही जीवन हैं। जब जीवन है तो मृत्यु अवश्यंभावी है। प्रकृति का मूल स्वभाव देना है, छीनना भी उसका एक परिणाम है। हम बिना दिये रह नहीं सकेंगे। कुछ नहीं तो स्वस्थ होने की मंगलकामना करेंगे ही। क्या यह शुभकामनाएँ काम नहीं करती हैं? क्या शरीर वाक् से बाहर है? भावना बड़ी है, शरीर उसके सामने अति लघु है। स्वास्थ्य कामना किसके लिए नहीं करेंगे, जो पथच्युत हैं, क्या उनके लिए सन्मार्ग की कामना नहीं करेंगे, नहीं रह पायेंगे आदरणीय! रामेश्वर मिश्र पंकज की पोस्ट पर १६/१२/२३ किसी तत्व को स्वीकार कर लेने से उस पर ध्यान नहीं जाता। ध्यान नहीं जाने का अर्थ है वर्तमान में अवस्थित हो जाना। ध्यान न होने का ही नाम है। न होना में होना भी है और न भी। युगपत्। अंतर्लक्ष्यो बहिर्दृष्टि निमेषोन्मेष वर्जिता। इयं सा भैरवीमुद्रा सर्व तंत्रेषु गोपिता। तस्यै नमः कल्पितसृष्टिमुक्त्यै नक्तं दिवं मोहविवेकधात्र्यै। सुखप्रदायै ह्यसुखप्रहत्र्यै देव्यै च काल्यै कलनात्मिकायै।। महामहोपाध्याय आचार्य रामेश्वर झा विरचितः उस परम शक्ति को नमस्कार अर्पित हो, जिसने सृष्टि तथा मुक्ति दोनों की कल्पना की है, जो दिन - रात (सर्वदा) मोह और विवेक को धारण करने वाली है, सुखदायिनी तथा दुःखहारिणी है और जो अपनी ही कलना रूप काली है। I praise the Shakti (cosmic energy) that imagined creation and liberation; that night and day (constantly) bears ignorance (delusion, inaccurate knowledge) and wisdom (True knowledge, discernment); who is provider of joy and alleviates suffering and that which manifests itself as Kali Mahamahopadhyaya Acharya Rameshwar Jha १७/१२/२३ ध्यान में जब विचारों की जकड़न हो जाती है तो उसी समय आँख खुलने पर वह जकड़न जाती रहती है। तब हम उस संघर्ष से बाहर हो जाते हैं। इसी तरह आँख खोलने पर विषयाकर्षण बढ़ता है तब उसे आँख बंद करते हुए ध्यान की प्रक्रिया से लुप्त कर दिया जाता है। आँख से दिखाई दे रहे बाहर के विषयों का आकर्षण तीव्र होने पर हाँग सौ ध्यान उसकी निवृत्ति करा देता है और आँखें बंद होने के समय मन की यायावरी और उसके संघर्ष से उपराम आँख खोलते हुए प्राप्त होता है। वह क्षण भी कभी आता है जब चाहे आँख खुली हो या या बंद, मन से पार जाकर आत्मानंद की अनुभूति होती है। वह क्षण अपूर्व और विरल है, वह हर क्षण न भी उपलब्ध रहे, पर उसकी स्मृति बनी रहती है या घटनाओं के घटाटोप के बीच वह स्मृति घटित हो जाती है, तब उस क्षण के समान ही उस समय आनंद प्राप्त होता है। सत्य है वाचा यथार्थ कथितम ऋत है मनसा यथार्थ कल्पितम शिव बिंदु है, शक्ति बीज। दोनों से मिलकर नाद बनता। नाद वाक् में परिणत हुआ। नाद ताल के साथ उतरता है। ताल ही सृष्टि करता है। सुख दुःख के द्वंद्व में उच्छलित न होना तपस है। स्वस्य अध्ययनम् स्वाध्यायः। inner awakening ईश्वर प्रणिधान सीधे संभव नहीं। प्रकृष्ट रूप से जितने कर्म हैं, उनका फल अर्पित करना होता है, फिर जो प्रसाद मिले, उसे पाना ईश्वर प्रणिधान है। आसन अपनी शक्ति में अवस्थित होने का नाम है। आस्यते स्थीयते अस्मिन इति आसनं । ह्रदय प्रतिष्ठा स्थान है, जिसमें सब हो रहा है। हृदयो दीपवत् प्रभु- याज्ञवल्क्य। वक्ता श्रोता बहुत हैं, मथि काढ़े ते और। प्रकाश और विमर्श के सामरस्य का नाम संवित है। प्रकाश शिवावस्था है तो विमर्श शक्तिरूपा है। मध्यविकासाद्चिदानंदलाभः। प्रकाश का स्पंद विमर्श कहलाता है। वर्ण संवित का स्वरूप है, जो नाना रंगों में अभिव्यक्त होता है। सूर्य की कोई रश्मि बादल बनती है तो कोई जल का अवशोषण करती है। अग्निसोमात्मकं जगत्। प्राप्त को पहचानना। यह पहचान एकरूप होती है गुरुतः शास्त्रतः और स्वतः। स्व का बोध गुरु और शास्त्र से होता है। इसका आभास अहंरूप में होगा, अन्यथा निराभास है। हो जाना ही भाव का अर्थ है। यह नोइंग नहीं रेकग्निशन है। चेतना इसे कह सकते हैं- चेतयते इति चेतना। every knowledge is self recognitive in nature. recognition पूरा होता है। नॉलेज की भाँति खंड खंड नहीं। शब्द तो पहचान हैं, उनकी फ्रीक्वेंसी या ट्रांसमिशन को पकड़ना है। शब्दः कश्चन् यो मुखादुदयते मंत्रः। प्राणस्य स्वरसेन यत् प्रवहणं योगस्यादभ्युदयः। जब शब्द लगता है तो वैयाकरण पुत्रोत्सव की भाँति आह्लादित होते हैं। आत्मा का छंद ही पुत्र है। छंद गति है। पुत्र जन्म यानि अपनी आत्मा से एकाकार हो जाना। चित्शक्ति - मन स्वातंत्र्य शक्ति- आनंद (अहंकार- बुद्धि) इच्छा शक्ति - प्राण का आविर्भाव- पाँच ज्ञान- पंच ज्ञानेद्रियाँ कर्म- पंच कर्मेन्द्रियाँ कुल अठारह। यह स्वच्छन्दनाथ का स्वरूप है। सूक्ष्म शरीर में एक साथ चक्र भेदन होता है, स्थूल में क्रमशः। भेदन के बाद देह दिव्य बनेगा, फिर वह चिन्मय होने लगेगा, तब आधार भूमि निर्मित होती है। नामृतं इति अमृतं। नाद के बाद ज्योति का उदय होगा। वृत्ति का अर्थ है वर्तन। नित्य विमर्शन। श्रद्धा योगी की माँ है। आचार्य अग्नि का आधान करते हैं, पुत्रजन्म की भाँति उस समय वे गाते है, फिर उसमें घृत की आहुति करते हैं, कामना करते हैं कि अग्नि हमारी आहुति देवताओं तक पहुँचा दें। अंदर की अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए बाहर की अग्नि जलाई जाती है। श्रद्धा सत्तर्क की जननी है, यह विचलित नहीं होने देगी। विद्याओं का संपूर्ण विकास सत्तर्क में समाहित होता है। योगी की सारी साधना सत्तर्क को उत्पन्न करने के लिए है। संकल्प पूजा का मूल है। संकल्पो भावनाप्रोक्ता। भावैस्तु व्यापार विशेष - भावना। संकल्प मूलाधार में बैठी अग्नि को उत्पन्न करेगा। सही संकल्प कर लेना योग में प्रवेश करना है। संकल्प करते समय जल लेते हैं, जल में रचना तत्व प्रधान है। समं सर्वेषु भूतेषु आधानं - समाधान विषय असुर हैं, वे इंद्रियों या देवताओं को पराजित करते हैं यही देवासुर संग्राम है। असुर भौतिकता है, यह विजयी बनती है। Ek kahu to hai nahi, do kahu to gari Hai jaisa taisa rahe, kahe Kabir vichari "एक कहूँ तो है नहीं, दो कहूँ तो गारी | है जैसा तैसा रहे, कहे कबीर विचारी ||" If I say one, It is not, if I say two, it will be a violation Let 'It' be what 'It' is, says Kabir upon contemplation There is a oneness behind the apparent diversity. But oneness is not seen. Yet if I accept duality, it would be a violation, a false acceptance. Let it be, whatever it is - I'll drop the analyzing. गारी ही ते ऊपजे कलह कष्ट और मीच। हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नीच॥ आवत गारी एक है उलटत होइ अनेक। कह कबीर नहि उलटिये वही एक की एक॥ कर्मी व्यवस्था देता है। वह काल का उत्पादक है। क्रिया कालस्य बोधकः। बलि का अर्थ है जो आपका प्रिय है उसका अर्पण। प्राणायामस्तथाध्यानं प्रत्याहारोsथ धारणा। तर्कश्चैव समाधिश्च षडंगो योग उच्यते॥ तंत्रसार अध्याय ४ प्राप्ते च द्वादशे भागे जीवादित्य स्वबोधके। मोक्षः स एव कथितः प्राणायामो निरर्थकः॥ तंत्रालोक ४/९० सृष्टि के दुःखों का मूल परिवर्तन है। परिवर्तन शिव की क्रिया शक्ति के अधीन है। काली सदा नृत्य कर रही है। क्रिया ही काली है। कलयति कलयते कलते वा इति कालः। जिससे सब कुछ कलित होता है। यं न क्षीयते ते नक्षत्रं। जो क्षीण न हों। गृहीता इति ग्रहाः। जो ग्रहण किए गए हों। यमस्वरूपा सकला निवृत्ति नियमस्वरूपा सकला प्रवृत्ति। सत्य सदा मधुर होता है, अप्रिय सत्य कुछ नहीं। सम्यक् वेदन संवेदन है। अविधेयं विधेयं वा मौनं किं न विधीयते। शौचात् स्वांगजुगुप्सा १८/१२/२३ दो लोगों के बीच नहीं होता प्रेम वह होता है दो लोगों के भीतर अलग-अलग जैसे दो नदियों के बीच नहीं होता पानी वह होता है दो नदियों में अलग-अलग एक जैसे प्रेम को अपने भीतर लिए हुए मिलते हैं दो लोग जब हो जाते एक जैसे घुलमिल जाती हैं नदियाँ समन्दर के अंदर हो जातीं एक चिड़िया के बिना अधूरा नहीं हो जाता पेड़ जन्मा वह धरती की कोख से न चिड़िया अधूरी होती पेड़ के बिना पंखों में उसके आकाश भरा है पाना प्रेम की भाषा नहीं है; देना भी प्रेम की भाषा नहीं कोई बड़ी व्याकरणिक त्रुटि हो गई है प्रेम की कविताई में जिससे बेख़बर गाता है पेड़ और हरी हो जाती चिड़िया चन्द्रमा की बीन पर लहटती हैं समंदर के सीने में नदियाँ और फिर मनुष्य है - इमारतें बनाता है, सड़कें बनाता है ढूँढ़ता है दूसरे ग्रहों में जीवन, कविता लिखता है और मर जाता है _____________ बाबुषा दिसम्बर,२३ बहुत खूब बाबुशा❤️❤️ प्रेम पाना नहीं, यह तो खूब कहा गया, प्रेम देना भी नहीं, यह नयी कहन है। बेख़बर होकर रहना, पूरे होशोहवाश में पेड़ और चिड़िया के मानिंद। दोनों ले रहे हैं, दे रहे हैं, पर दोनों इससे बेख़बर और तारी एक दूसरे में। क्या खूब।लव यू मच बाबुशा। यत्र वाचो निमित्तानि चिह्नानीवाक्षरस्मृतेः। शब्दपूर्वेण योगेन भासंते प्रतिबिंबवत्॥ वाक्यपदीयम १/२० १९/१२/२३ अव्यक्त अन् है और व्यक्त अंत। सत् अव्यक्त है और य उसकी यात्रा, उसे पाने की, जानने की, समझने की। ध्यान भाषा में लिखी कविता या कविता में उतरा ध्यान। क्या कहें। प्यारी। बाबुशा अरणिष्थं यथा ज्योतिः प्रकाशांतरकारणं। तद्वच्छब्दोsपि बुद्धिस्थः श्रुतीनां कारणं पृथक्॥ आत्मरूपं यथा ज्ञाने ज्ञेयरूपं च दृश्यते। अर्थरूपं तथा शब्दे स्वरूपं च प्रकाशते॥ वाक्यपदीयम श्रीमद्भगवद्गीता के पात्रों और उनके शंखों के प्रतीकार्थ DhritRashtra- the blind Mind Sanjay - Impartial Introspection Kurus- the wicked impulsive mental & Sense tendecies Dharmakahetra- holy plain Kurukshetra - "the bodily field of activity Duryodhana - material desire Drona- Samskaras - preceptor of evil & good tendencis. past habits. विपाक Arjun - Self Control मणिपुर चक्र Bhim - Life control Anahata Chakra yuyudhan- Divine devotion. Virata- Samadhi Drupada- Extreme dispassion- तीव्र संवेग Dhrishtaketu- Power of mental Resistence -यम Chekitana- Spiritual Memory Kashisaja- Discriminative Intelligence, Purujit - Mental Interiorization - Pratyahar - प्रत्याहार Kuntibuoja - Right posture ! Asana Shaibya- Power of Mental Adherence - नियम Yudhamanya- Life force Control - Pranayama Ultamaujas- Son of vital Celebacy i-e Abhimanya -- Self Mastery - संयम Sons of Draupadi- five awakened spinal Centres. - कुंडलिनी Sahadera - Power to stay away from evil Nakul Rower to to obey Good Rules. Swadhishthana Yudhishthira- Divine Calmness Vishuddhi chakra Bhishma - Inner Seeking Ego आस्मिता Karna- Attachment राग Kripa - Individual delusion अविद्या Ashwatthama. Latent Desire - आशय Vikarna. Repulsion - द्वेष Somadatti - Bharishrawas_ Son of Somadalta) power of Material action कर्म भूरी बहुलम श्रवः क्षरणंThat flow which frequently. Jayadrath- Body Attachment अभिनिवेश Dhananjaya - winner of wealth- Arjuna- Devdatt conch Bhima-Paundra- anahat chakra Aum that which disintegrates Yudhishthira - Anantvijaya - Conquers infinity Nakul- Sughosha Sounds clearly and sweetly swadhishthan Sahadeva - Manipushpaka- manifest by its sound muladhar Pandava- the soulful powers of descrimination। २०/१२/२३ The great Urdu poet Mirza Ghalib wrote: उम्र भर ग़ालिब यही भूल करता रहा धूल चेहरे पे थी, आईना साफ़ करता रहा। “All through his life Ghalib made this error, The dirt was on his face, And he kept wiping the mirror.” The Upaniṣads say: “The Creator created the senses outward-looking. Hence they see other things and not the Inner Being, the ātman, Self.” - Kaṭhopaniṣad, 2.1.1. In the next verse, he asks, “How may one see the Self? As the Self is without a second, it is impossible to see it. And how may one see God? To see Him is to be consumed by Him.” The scriptures say, ‘īśvaro guru atmeti mūrtibheda vibhāgine’, that is, God, Guru and ātman are one; only the forms are different. - Dakṣiṇāmūrtti Stōtram, Prefatory verse, Adi Sankara. If, therefore, to see God means to become the food of the Divine, we cannot claim to have seen the Satguru till our ego has melted away in the fire of love and knowledge. लोकसाक्षी जगच्चक्षु: पुण्य़चारित्रकीर्तन: । कोटिमन्मथसौन्दर्यो जगन्मोहनविग्रह: ॥101॥ जगन्नाटकवैभव: ॥122॥ २२/१२/२३ सम् में जिसका अंत हो जाए, वह संत है। गुरुप्रदत्त ध्यान से मंगल होना अवश्यंभावी है और मंगलमय होने का लक्षण है ध्यानस्थ होकर रहना। ध्यानमंगलम परस्पर पूर्वापर और उत्तरपूर्व का संबंध रखते हैं। 23/12/23 श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते |
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् || 12-12|| निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा

अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।

द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै

र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।15.5।।
 प्रकाश ही प्रकाश है। प्रकाश का भान कैसे होता है। एक छाया के माध्यम से। देह एक छाया ही है, जैसे दर्पण के पीछे अगर उसका लेप न लगा रहे तो शीशा आरपार हो जाएगा और अपना स्वरूप दर्शन नहीं होगा। देह की उपयोगिता इसीलिए है कि उसमें रहकर हम प्रकाश दर्शन कर सकते हैं। अन्यों के आकर्षण विकर्षण भी साधक के मन पर आघात प्रतिघात करते हैं। साधक का मन साफ़ हो गया, पर उसके मन पर संसार और उसके निवासियों का प्रभाव पड रहा है, यह सब बातें ध्यान में आती हैं, किंतु जब वे निर्मूल होती हैं, उनसे असंगता हो जाती है तो आनंद का सोता झर उठता है। इसलिए ध्यान दशा में बने रहना तब तक अपरिहार्य है, जब तक संसार किसी न किसी रूप में हमारे भीतर मौजूद है। २४/१२/२३ यदि तुम हर हाल में अपने ही विचारों की पूर्ति में जुटे रहोगे तब तुम कभी ख़ुश नहीं रह पाओगे, क्योंकि जीवन तुम्हारे व्यक्तित्व को संतुष्ट करने के लिए नहीं है। बुद्धिमान इस कोशिश की फलहीनता को पहचान कर, गहरे आत्मसमर्पण में लीन हो जाता है और "जो है" उसके साथ मनोहर समक्रमिकता अनुभव करता है। हमें आध्यात्मिक रूप से इतना विकसित होना है जब तक यह हमारा स्वाभाविक अनुभव ना हो जाए। मूजी बाबा 26/12/23 सोकर जागने पर, सोने के लिए जाने पर, स्वप्न में और कार्य करते समय श्वास पर ध्यान बना रहे बस फिर क्या शेष रह जाता है! ध्यानमंगलं.... श्रीमद्भागवतम् में सबसे बड़ा स्कंध या कैंटो दशम स्कंध है। यह स्कंध इतना बड़ा है कि अध्यायों के असंतुलन को दूर करने के लिए इसे पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में विभाजित करना पड़ा। इस स्कंध के पूर्वार्ध के २९वें से ३३वें अध्याय के पाँच अध्यायों को रास पंचाध्यायी कहा गया है। यह रास पंचाध्यायी भागवतम् का प्राण है। श्रीकृष्ण की दिव्य लीला के माध्यम से प्रेम और समर्पण की प्रतिष्ठा इसमें की गई है।रास पंचाध्यायी की व्याख्या संस्कृत परंपरा में तो विस्तार से और लंबे कालखंड में वर्णित हुई ही है, उसके विभिन्न दर्शनो के मूर्धन्य आचार्य इसके रहस्य को अपने अपने ढंग से सुलझाने में प्रवृत हुए हैं। श्री वल्लभाचार्य, श्री श्रीधर स्वामी, श्री जीव गोस्वामी आदि ने इस आध्यात्मिक तत्त्व की व्याख्या बड़े विस्तार से की है। हिंदी में भी श्री सूरदास और अनेक कृष्ण भक्त परंपरा के बड़े कवियों के यहाँ पूरे ठसक के साथ यह विद्यमान है। वृंदावन रस इस रास पंचाध्यायी में समाया हुआ है। गोपी गीत के प्रारंभ में ही कहा गया है- जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि । हे प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा बढ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मीजी अपना निवास स्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य निरंतर निवास करने लगी है , इसकी सेवा करने लगी है। भारत के आध्यात्मिक रहस्य को समझते हुए रास पंचाध्यायी को लिखने पढ़ने के काल के प्रारंभ से ही हमारे महात्मा जन उसमें डुबकी लगाते आ रहे हैं। रास पंचाध्यायी नाम से स्वतंत्र ग्रंथ भी महात्माओं ने लिखे हैं, भागवत् कथावाचक इस प्रसंग को अपने शब्दों में खोलते हैं, कतिपय इसके रहस्य को लेकर बहुत खुलकर न कहते हुए संकोच कर जाते हैं। उनकी अपनी सीमा भी हो सकती है। रास रहस्य का ही अपर रूप है। रहस्य यानि जिसे लिखा या बोला नहीं जा सकता, बल्कि इसे अनुभव में उतरकर मात्र जाना जा सकता है। रहस्य यानि होना या being। आगे इसे देखा जाता है, साक्षी भाव आगे का है। पहले पहल यह या वह मात्र होता ही है। यह कोई प्रश्न नहीं कि इसका उत्तर हो। हाँ प्रश्नोत्तरी इसके अनुभव में उतरने में सहायक अवश्य हो सकती है। अन्य कोई उपाय भी सहायक हो सकता है। वह सब उपायों से जाना जा सकता है, क्योंकि उस रहस्य के सूत्र ही तो वे उपाय हैं। श्रद्धावान व्यक्ति में यह उपाय घटित होते हैं। श्रद्धा तो इन उपायों की माँ है। इस रहस्य को जानने के उपरांत जीवन में जानने, पाने और करने के लिए कुछ शेष नहीं रह जाता। इस रहस्योद्घाटन का एक उपाय भागवतकार ने इसी रासपंचाध्यायी में निरूपित किया है। वह है ध्यानमंगलं। वैसे तो कोई तात्विक निरूपण करता हुआ ग्रंथ एक ही निष्कर्ष पर पहुँचेगा, क्योंकि तत्व एक ही है, जो सर्वांतर्यामी है, विभु है। एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन। अपने रचना काल के बाद से जिस ग्रंथ और उसकी परंपरा की छाप भारतीय समाज पर बहुत गहरे रूप में छूटी है, वह श्रीमद्भागवतम् ही है। इस प्रकार भारतीय परंपरा का प्रधान ग्रंथ अगर देखना हो तो वह भागवतम् ही ठहरेगा। भागवतम् का प्राण जैसा कहा गया कि रास पंचाध्यायी है, और इसी को आगे बढ़ाकर कहा जा सकता है कि रास पंचाध्यायी का प्राण गोपीगीत है और गोपीगीत का प्राण ध्यानमंगलं है। ध्यान में उतरकर गोपियों और कृष्ण के रास के रहस्य को जाना जा सकता है, और तब ही यह हम सबका मंगल करेगा। ध्यान उस रहस्य को अनुभव में लाने का सटीक और शीघ्रगामी उपाय है। भागवतकार ने इसका संकेत निदर्शन रासपंचाध्यायी के ३१वें अध्याय गोपीगीत में इस प्रकार किया है- प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् । रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥ १०॥ (हे प्यारे ! एक दिन वह था , जब तुम्हारे प्रेम भरी हंसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह तरह की क्रीडाओं का ध्यान करके हम आनंद में मग्न हो जाया करती थी । उनका ध्यान भी परम मंगलदायक है , उसके बाद तुम मिले ।....) ध्यानमंगलम् भागवतम् का बीज शब्द है। कामकेलि में दो प्राणियों का मिलन शरीर के स्तर पर होता है। प्रेम में दो का मिलन मन के स्तर पर होता है, प्रार्थना में दोनों होना भर रह रह जाते हैं, अभी भी दो का अस्तित्व उपस्थित है, क्योंकि उन दो को एक होते हुए देखने वाला कोई है। ध्यान में वह देखने वाला भी नहीं रह जाता, इस क्रिया के बाद फिर मंगल ही शेष रहता है। सब मंगलमय हो जाता है। यह आत्यंतिक मिलन है। यहाँ दो नहीं हैं। इसे एक भी नहीं कह सकते, क्योंकि एक को कहने के लिए दूसरे का आसरा लेना पड़ेगा। यहाँ कबीर गाते हैं- एक कहूँ तो है नहीं, दो कहूँ तो गारी | है जैसा तैसा रहे, कहे कबीर विचारी॥ गीता में कहा गया है....ज्ञानाध्यानं विशिष्यते...शास्त्रज्ञानसे ध्यान श्रेष्ठ है। २७/१२/२३ श्रद्धा को योगी की माँ कहा गया है। जिस किसी ने अपनी आत्मा के मंदिर में ईश्वर को स्थापित कर लिया है, वह योगी है। शब्दार्थ:-
श्रद्धा=सत्य का धारण करना
अन्तःज्ञात= हृदय से जाना हुआ
क्षालन=शुद्धता, शुद्ध करने का कार्य। श्रद्धा, मूल रूप से एक संस्कृत शब्द है, जो दो शब्दों का संयोजन है "श्रत्'' जिसका अर्थ है सत्य, हृदय या विश्वास और "धा" जिसका अर्थ है जिसकी ओर मन प्रवृत्त हो। श्रत् के उक्त अर्थ में तीन शब्द अवश्य दे दिये गए हैं, पर यह तीनों भारतीय मेधा के महत्वपूर्ण शब्द हैं। यह वे शब्द भी हैं जो संस्कृत ही नहीं द्रविड भाषाओं में भी पाये जाते हैं। हृदय वह स्थान है, जिसमें सबकुछ घटित होता है, विश्वास उस घटन को देखने वाला होता है; वह साक्षी है। श्रद्धा ही वह जननी है, जिसके उत्पन्न होने पर हम अपने स्रोत को जान पाते हैं। कितने ही उपायों से हम जानना चाहें, हम जान लें तो भी हम वहाँ टिक नहीं सकते, यदि श्रद्धा का उदय न हुआ हो। श्रद्धा का उदय भी श्रद्धा से होता है, उसका उदय हमें श्रद्धावान बनाने के लिए होता है। यह श्रद्धा अंततः श्रद्धा में ही पर्यवसित हो जाती है। श्रद्धा परम् शक्ति है, उसके उदय होने पर वह इतनी तीव्र असरकारी है कि उसमें भक्ति और ज्ञान एकमेक हो जाते हैं, उसके बाद कर्म अकर्म हो जाते हैं। हमारी निष्ठा का जन्म हो जाता है। श्रद्धा कोई अंधे विश्वास का नाम नहीं है, बल्कि वह जाग्रत और प्रमाणित आस्था है, जो हमें प्रेम और करुणा से आप्लावित रखती है। श्रद्धा स्व को समझने का आत्यंतिक लक्ष्य है। श्रद्धा और प्रेम के योग को भक्ति कहा गया है। श्रद्धा का ठीक ठीक समानांतर कोई शब्द अन्य भाषाओं में नहीं मिलता, संस्कृत में भी इसका ठीक ठीक पर्यायवाची शब्द नहीं पाया जाता। यह अनोखा शब्द हमारे ऋषियों ने अवश्य समाधिसुख में रचा होगा। परम् सत्य का जब बोध होगा, श्रद्धा स्वयमेव उदित हो जाएगी, क्योंकि श्रद्धा के बिना परम सत्य का बोध हो ही नहीं सकता। यह दोनों युगपत् घटना हैं। गोस्वामी तुलसीदास एक श्लोक में लिखते हैं- ...श्रद्धा विश्वास रुपिणौ। भवानी और शंकर को क्रमशः श्रद्धा और विश्वास के रूप में समझा गया है। जिनके बिना सिद्ध पुरुष भी अपने हृदय में स्थित ईश्वर का दर्शन नहीं कर पाते। श्रद्धा हम सबके भीतर होती है, पर वह आवरण में रहती है। श्रद्धा मन का निर्देशन मन के पार रहकर करती है। संस्कार और वासना की छिपी गहराइयों से यह आती है। श्रद्धा अगर धारण किए होंगे तो हम मूल स्मृति से जुड़ जाएँगे। जहां श्रद्धा होगी, वहाँ व्यक्ति असफल होने पर निराश नहीं होगा। श्रद्धावान व्यक्ति यह जानेगा कि असफलताओं से उसका उत्साह चुकने वाला नहीं है। श्रद्धा एक अनुभूति या एहसास है, इसे बौद्धिक रूप में व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह एक संपूर्णता है, जिसमें व्यक्ति को व्यक्त होने का अर्थ ज्ञात हो जाता है। श्रद्धा मनुष्य के भीतर सदा आवरण में नहीं रहती, वह बाहर प्रकट होगी ही। श्रद्धा एक आत्मविश्वास है, जो अपने स्रोत से उदय होकर उपलब्ध होती है। श्रद्धा सत्य का विश्वास पूर्वक अनुसरण करने का नाम है। श्रद्धा को पढ़ाया नहीं जा सकता, पर उसे सुलगाया जा सकता है। श्रद्धा से रहित कोई व्यक्ति नहीं होता, अगर कोई अश्रद्धा जता रहा है तो वह उसी श्रद्धा के प्रभाव से ही। यह एक सकारात्मक ऊर्जा है, जो स्वयं के भीतर से ही प्रकट होती है। श्रद्धा अटल और दृढ़ विश्वास है। करुणा और प्रेम इसके लक्षण हैं। अज्ञात को जानने की तत्परता को हम श्रद्धा कहते हैं। अज्ञेय को जानना श्रद्धा के कारण संभव हो पाता है। पुराणों में श्रद्धा के जो वर्णन आये हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं। इन कहानियों से हमारे संस्कारों के अनुसार कुछ सूत्र ग्रहण किए जा सकते हैं। श्रद्धा दक्ष प्रजापति और प्रसूति की चौबीस पुत्रियों में एक है। इन चौबीस पुत्रियों में से तेरह धर्मदेव को ब्याही थी। श्रद्धा भी उन तेरह में से एक हैं। इनसे काम नामक पुत्र हुआ। सूर्य की पुत्री का नाम श्रद्धा है, इसके दूसरे नाम सावित्री, प्रसवित्री, वैवस्वती आदि हैं। सावित्री को गायत्री भी माना गया है। भागवत् के अनुसार - कर्दम प्रजापति और देवहूति की पुत्री श्रद्धा हुई, जो अंगिरस की पत्नी थी। उनके दो पुत्र उतथ्य और वृहस्पति, इनकी चार पुत्रियाँ- सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति हुई। वैवस्वत मनु की पत्नी का नाम श्रद्धा है। मनु स्वायंभुव और शतरूपा की दो पुत्रियों में से एक श्रद्धा है। बौद्ध साहित्य में श्रद्धा एक महिला श्रावक है। हिंदी के सुप्रसिद्ध महाकाव्य कामायनी की प्रमुख पात्र श्रद्धा है। कामायनी का श्रद्धा सर्ग भी विश्रुत ही है। बाईस इंद्रियों में से एक श्रद्धा है। इद या इन्द का अर्थ है नियंत्रण युक्त महान शक्ति। श्रद्धा का अर्थ विश्वास बुद्धकाल से प्रारंभ हुआ। ऋग्वेद में श्रद्धा सूक्त मिलता है, जिसमें पाँच ऋचाएँ हैं। कतिपय देखें- श्रद्धां देवा यजमाना वायुगोपा उपासते । श्रद्धां हृदय्ययाकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु ॥ ऋग्वेद १०/१५१/४ Gods, worshippers, and those who are protected by Vāyu, solicit Śraddhā, (they cherish) Śraddhāwith heartfelt desire, through Śraddhā a man acquires wealth.” श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां मध्यंदिनं परि । श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह नः ॥ १०/१५१/५
śraddhām prātar havāmahe śraddhām madhyaṃdinam pari | śraddhāṃ sūryasya nimruci śraddhe śrad dhāpayeha naḥ || English translation: “We invoke Śraddhā at dawn, and again at midday, and also at the setting of the sun; inspire us inthis world, Śraddhā, with faith.” श्रद्धयाग्निः समिध्यते श्रद्धया हूयते हविः । श्रद्धां भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि ॥ १०/१५१/१
śraddhayāgniḥ sam idhyate śraddhayā hūyate haviḥ | śraddhām bhagasya mūrdhani vacasā vedayāmasi || English translation: “Agni is kindled by Śraddhā, by Śraddhā is the oblation offered; with our praise we glorify Faith, of the family of Love; cf. Nirukta 9.31].” श्रद्धा में अग्नि को प्रदीप्त किया जाना संभव होता है। अर्थात् आत्मज्ञान की अग्नि श्रद्धा द्वारा हविष्यान्न का हवन किया जाता है, अर्थात् आत्मा सत्ता को परमात्मा सत्त में विलय कर पाना श्रद्धा द्वारा ही संभव हो पाता है। श्रद्धा भग (ऐश्वर्यादिक) के सिर पर होती है अर्थात् सभी ऐश्वर्यों का परिणाम श्रद्धा का ही सत्परिणाम है। याज्ञिक और योगी सर्वप्रथम श्रद्धा की ही उपासना करते हैं। श्रद्धा अपनी चरम परिणति ईश्वर साक्षात्कार के रूप में प्रकट करती है। श्रद्धा की अग्नि का हवन जब विश्वास में होता है तो हम अपने उत्स तक जा पहुँचते हैं। यहीं सगर्भ या सबीज़ और निर्गर्भ या निर्बीज प्राणायाम का अन्तर ज्ञात होता है। गुरु न हुए, श्रद्धा न हुई, मंत्र न हुआ तो मछली की भाँति श्वास लेना हो जाएगा। षडंग एवं अष्टांग योग से पार सत्तर्क समाधि यह श्रद्धा ही है। यजुर्वेद में है व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यत। 1⁄4यजुर्वेद 19/301⁄2 अर्थात् व्रत धारण करने से मनुष्य को श्रेष्ठ अधिकार व योग्यता की प्राप्ति होती है इससे मनुष्यों का आदर सत्कार बढ़ जाता है।सम्मान प्राप्त होने से सत्य कर्मों के प्रति श्रद्धा और विश्वास उत्पन्न होता है। अतः सत्याचरण ही हमारे चरित्र की प्राण शक्ति है। श्रद्धा की महानता के गुण गीता में भी गाये है - ‘श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति’।। ‘योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना। श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः’।। श्वेताश्वतरोपनिषद् में वर्णित है- यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।  तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।। (श्वेताश्वतरोपनिषद्-6.23)  "सभी प्रकार के वैदिक ज्ञान की महत्ता उन्हीं मनुष्यों के हृदय में प्रकट होती है जिनकी भगवान और गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा होती है।" यह श्रद्धा अपने भीतर ही उपस्थित है, ईश्वर, गुरु और आत्म तीनों में यह श्रद्धा तुरीयवत रहकर इन तीनों को एक रखती है। दुनिया में सब कुछ विश्वास के सहारे ही कार्य संपन्न हो रहा है। रोगी का चिकित्सक के प्रति, विक्रेता का क्रेता के प्रति भरोसा ही उनकी प्रक्रिया को गति देता है। हम कितनी ही अपनी विधियाँ और संहिताएँ तैयार कर लें, बिना विश्वास आगे नहीं बढ़ सकते हैं। विश्वास अगर शब्द है तो श्रद्धा उसका अर्थ है। विश्वास और श्रद्धा का संबंध शब्द और अर्थ की भाँति है, जल और लहर की तरह है। श्रद्धा परिचालिका शक्ति है और विश्वास उसका आधार। श्रद्धा यजमान है, पुरोहित भी और उपास्य ब्रह्म भी। विश्वास की शक्ति से श्रद्धा का अभ्युदय होता है। श्वास की विशिष्ट दशा से होकर जाने का मार्ग ही विश्वास है। श्रद्धा मूलतः सत्व से उत्पन्न होती है। श्रद्धा धर्म का मूल है। Bhagavad Gita: Chapter 17, Verse 3 सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत |
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव स: || 3|| हमारी श्रद्धा का गुण हमारे मन की प्रकृति द्वारा निर्धारित होता है। सभी लोगों में श्रद्धा होती है चाहे उनकी श्रद्धी की प्रकृति कैसी भी हो। यह वैसी होती है जो वे वास्तव में है। सत्त्वं विशुद्धं वसुदेवशब्दितं यदीयते तत्र पुमानपावृत: । सत्त्वे च तस्मिन्भगवान्वासुदेवो ह्यधोक्षजो मे नमसा विधीयते ॥ भागवतम् 4/3/२३ ॥ सत्त्वम् – चेतना; विशुद्धम् – शुद्ध; वासुदेव – वासुदेव; शब्दितम् – जाना जाता है; यत् - क्योंकि; इयते - प्रकट होता है; तत्र – वहाँ; पुमान – परम पुरुष; अपावृत्तः – बिना किसी आवरण के; सत्वे – चेतना में; च- और; तस्मिन – उसमें; भगवान - परम व्यक्तित्व का परम व्यक्तित्व; वासुदेवः – वासुदेव; हाय - क्योंकि; अधोक्षजः - दिव्य; मैं - मेरे द्वारा; नमसा – नमस्कार सहित; विधीयते - पूजा की जाती है । अनुवाद मैं सदैव शुद्ध कृष्णभावनामृत में भगवान वासुदेव को नमस्कार करने में लगा रहता हूँ। कृष्ण चेतना हमेशा शुद्ध चेतना होती है, जिसमें भगवान के परम व्यक्तित्व, जिन्हें वासुदेव के नाम से जाना जाता है, बिना किसी आवरण के प्रकट होते हैं। वासुदेव का अर्थ सर्वव्यापी या स्थानीयकृत भगवान का परम व्यक्तित्व है। सब कुछ पाकर भी हासिल-ए -जिंदगी कुछ भी नहीं मैंने देखे हैं एक से एक सिकंदर खाली हाथ जाते हुए..!! २८/१२/२३ जम्हाई काल की अधिकता का स्वाभाविक समायोजन है। जैसे कैलेंडर सेट किया जाता है, कैलेंडर सेट करना तो कृत्रिम कार्य है, मानवकृत है, चंद्रमा की गति को तिथि की अधिकता या लघुता से नापा जाता है, क्योंकि बनी बनाई नाप में वह गति नहीं समाएगी। जम्हाई भी आती जाती श्वास का समायोजन ही है। राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं॥ यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा॥ काल को समेटा नही जा सकता। वह जंभाई में आकर स्वयं समायोजित होने की अनुभूति कराता है। काल की षोडशी कला यही है। वह पंद्रह के गुणन में भी समाहित नहीं रहता, वह किसी संख्या में नहीं आ पाता। किसी वर्ष में अधिक मास पड़ने का लक्षण है, वह काल निश्चित संख्या में नहीं गिना जा सकता। फरवरी 29 दिन की हर चौथे वर्ष करके भी काल को बराबर भागों में नहीं बांटा जा सका। उसे भी कई वर्षों बाद कोई दिन आगे करके फिर जीवन संचालन के लिए कैलेंडर सेट करना पड़ता है। काल की ऐसी गति को देखते हुए हम महाकाल और महाकाली को मानते हैं, वही इसकी नियंता हैं, मनुष्य इन्हे पूरे रूप में नहीं जान पाता। अधिकमास को पुरुषोत्तम मास कहा गया है, इस मास में शुभ कार्य अधिक होने लगते हैं। जैसे जँभाई आने के बाद आराम मिलता है। वैसे ही अधिकमास में किए गए उपासना कार्य अधिक फलदायी होंगे ही। राशियाँ और नक्षत्रों की गति को शरीर की सूक्ष्म हलचल के माध्यम से बोधगम्य किया गया है। जो बाहर है, वह भीतर ही है। भीतर का ही बाहर सर्वत्र प्रकट होता है। ३०/१२/२३ अंग्रेज़ी नववर्ष प्रारंभ होने के समय कैलेंडर बदलने का उत्साह अवश्य रहता है। दिनांक तो हर दिन बदल रहा है, पर नये वर्ष का दिनांक पूरी तरह बदल जाता है। नया कैलेंडर टाँगना और पुराना हटाना प्रतीक है पुराने दुःस्वप्नों से बाहर आने का और नये संकल्प लेने का। पुराने से बाहर आने का अर्थ यह नहीं कि वह दूषित था, नये संकल्प के उत्साह का अर्थ भी यह नहीं कि जीवन में सब अच्छा होने वाला है। नए वर्ष में हम अच्छा और सुंदर होने की उम्मीद करने के सुख से अवश्य जुड़ जाते हैं। अच्छा का अर्थ है, अ इच्छा। इच्छा न होना इसका आशय नहीं। इच्छा न होने का अर्थ है उनका संपूर्ण हो जाना अथवा उनका होना और न होना ; बराबर हो जाना। जो कार्य हो रहे हैं, वे मात्र पारलौकिक इच्छारूप होने से चल रहे हैं, इसे जीना। अच्छा हुए बिना नया कुछ नहीं घटित होता, वह मात्र उम्मीद बनकर रह जाता है। उम्मीद इस नाते संतोषजनक मानी जा सकती है कि उसके बाद कुछ अच्छा घटेगा। अच्छा घटना ही मुख्य है, वह चाहे नाउम्मीदी में ही क्यों न घटित हो जाए। जो अच्छा है, वह सुंदर है। सुंदर में भी सम् की यात्रा चल रही है। ३१/१२/२३ अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्‌। अन्नाद्‌ध्येव खल्विमानि भुतानि जायन्ते। अन्नेन जातानि जीवन्ति। अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति। तद्विज्ञाय।पुनरेव वरुणं पितरमुपससार। अधीहि भगवो ब्रह्मेति।तं होवाच। तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व। तपो ब्रह्मेति।स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा॥ उन्होंने जाना कि अन्न ही 'ब्रह्म ' है। क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि अन्न से ही समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं तथा उत्पन्न होकर ये अन्न के द्वारा ही जीवित रहते हैं तथा अन्न में ही ये पुनः लौटकर समाविष्ट हो जाते हैं। जब उन्होंने यह जान लिया तो वे पुनः अपने पिता वरुण के पास आये और बोले ''हे भगवन् मुझे 'ब्रह्म' की शिक्षा दीजिये।'' उनके पिता ने उनसे कहा, ''तप के द्वारा तुम 'ब्रह्म' को जानने का प्रयास करो, क्योंकि मनन में एकाग्रता ही 'ब्रह्म' है।'' भृगु अपने मनन में एकाग्र हो गये तथा अपने मनन की तपऊर्जा से... अन्नं न निन्द्यात्‌। तद् व्रतम्‌। प्राणो वा अन्नम्‌।शरीरमन्नादम्‌। प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम्‌। शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः। तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम्‌।स य एतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति। अन्नवानन्नादो भवति। महान् भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन। महान्‌ कीर्त्या॥ तुम अन्न की निन्दा नहीं करोगे; कारण, वह तुम्हारे श्रम का व्रत है। वस्तुतः प्राण भी अन्न है, तथा शरीर भोक्ता है। शरीर प्राण पर प्रतिष्ठित है तथा प्राण शरीर पर प्रतिष्ठित है। अतएव यहाँ अन्न पर अन्न प्रतिष्ठित है। जो इस अन्न पर प्रतिष्ठित अन्न को जानता है, वह स्वयं सुदृढ प्रतिष्ठा प्राप्त करता है, वह अन्न का स्वामी (अन्नवान्) एवं उसका भोक्ता बन जाता है। वह प्रजा (सन्तति) से, पशुधन से, ब्रह्मतेज से महान् बन जाता है, वह कीर्ति से महान् बन जाता है। यो मा ददाति स इदेव मा३वाः। अहमन्नमन्नमदन्तमा३द्मि। अहं विश्वं भुवनमभ्यभवा३म्‌।सुवर्न ज्योतीः। य एवं वेद। इत्युपनिषत्‌॥ जो मुझे देता है, वस्तुतः वही मेरी रक्षा करता है क्योंकि मैं ही अन्न हूँ, अतः जो मेरा भक्षण करता है मैं उसी का भक्षण करता हूँ। मैंने इस सम्पूर्ण विश्व को विजित कर लिया है तथा इसे अपने अधीन कर लिया है, सूर्य के ज्योतिर्मय रूप के समान है मेरा प्रकाश।" जो यह जानता है वह इसी प्रकार गान करता है। वस्तुतः यही है उपनिषद् यही है वेद का रहस्य।
वह हम दोनों की एक साथ रक्षा करे, वह हम दोनों को एक साथ अपने अधीन कर ले, हम दोनों एक साथ शक्ति एवं वीर्य अर्जित करें। हमारा अध्ययन हम दोनों के लिए तेजस्वी हो, प्रकाश एवं शक्ति से परिपूर्ण हो। हम कदापि विद्वेष न करें। अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।। गीता 3.14।।
  Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka ।।3.14।।इसलिये भी अधिकारीको कर्म करना चाहिये क्योंकि कर्म जगत्चक्रकी प्रवृत्तिका कारण है। कैसे सो कहते हैं भक्षण किया हुआ अन्न रक्त और वीर्यके रूपमें परिणत होनेपर उससे प्रत्यक्षही प्राणी उत्पन्न होते है। पर्जन्यसे अर्थात् वृष्टिसे अन्नकी उत्पत्ति होती है और यज्ञसे वृष्टि होती है। अग्निमें विधिपूर्वक दी हुई आहुति सूर्यमें स्थित होती है सूर्यसे वृष्टि होती है वृष्टिसे अन्न होता है और अन्नसे प्रजा उत्पन्न होती है इस स्मृतिवाक्यसे भी यही बात पायी जाती है। ऋत्विक् और यजमानके व्यापारका नाम कर्म है और उस कर्मसे जिसकी उत्पत्ति होती है वह अपूर्वरूप यज्ञ कर्मसमुद्भव है अर्थात् वह अपूर्वरूप यज्ञ कर्मसे उत्पन्न होता है। स्वामी तेजोमयानंद द्वारा किया हुआ अर्थ- समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं अन्न की उत्पत्ति पर्जन्य से। पर्जन्य की उत्पत्ति यज्ञ से और यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होता है।। बिना अग्नि उत्पन्न हुए ज्ञान प्राप्ति संभव नहीं। जब तक रगड़ नहीं होगी, चिंगारी उठेगी नहीं। इसलिए तपस् ब्राह्मण के लिए अनिवार्य विधान है। ब्राह्मण को अग्निमुख कहा गया, क्योंकि वह अग्नि को उत्पन्न करता है। वह पुरोहित है क्योंकि अपने शरीर रूपी यजमान का वह अग्न्याधान करके हित करते है। यज्ञ क्रिया में देखा जाता है कि अग्न्याधान होने पर पुरोहित नाच उठते है, वे मानो पुत्रोत्सव मनाते हुए गाने लगते है। ज्ञान अग्नि आधान करना ही पुत्र जन्म है। इसके बिना जीवन की गति नहीं। वरना यह ऋण जातक पर बना ही रहेगा। यजमान वह है जो यज्ञ करे। यज्ञ बड़ा व्याप्तिपूर्ण शब्द है। यजन करने को यज्ञ कहते हैं, यज्ञ का उच्चार यज़्न किया जाता है, इस उच्चार में उसका अर्थ अधिक स्पष्ट रूप में उद्भासित होता है। इज्यते भी यज्ञ का ही शब्द विस्तार है। इज्यते का अर्थ है संपन्न करना। यज़्न कर्मों के समुद्भव का नाम है। सम्यक् कर्म से यज्ञ का उद्भव होता है। कर्म जब अकर्म हो जाए तब वह सम्यक् कर्म बनता है। अकर्म तब बनता है, जब व्यक्ति योग को उपलब्ध हो जाए, योग्य हो जाये। फिर व्यक्ति जो करेगा वह योगदान ही होगा। वह योग फिर दान हो जाएगा। असल दान योग्य होने के बाद, अकर्म दशा प्राप्त करने पर या यज्ञ कर्म समुद्भव होने के बाद किया जाता है। इस प्रकार किए हुए यज्ञ से पर्जन्य बनते हैं, जिनका पर्यायवाची बादल किया गया है, परंतु यह प्रजा का ध्वनिवाची भी है। यजन करने से समुत्पन्न पर्जन्य या प्रजा ही वृष्टि करती हैं। वृष्टि है प्रजा के सामूहिक मन का उद्गार। सामूहिक मन का सूचक ही भौतिक रूप में चंद्र है, जिसका स्रोत सूर्य है। उसके द्वारा की गई वृष्टि से उत्पन्न हुए अन्न से सभी प्राणी जन्म लेते हैं। अन्न है, जिसका प्रवाह कभी रुद्ध न हो। 'न' सतत प्रवाहित होने का नाम है।अ भाव एवं अभाव दोनों का बोधक है। अन्न बनने का क्रम बहुत गूढ़ है। अन्न से हम जन्म लेते है, उसी से पोषित होते हैं और उसी में अन्न ही बन जाते हैं। इसलिए अन्न को ब्रह्म जाना गया है। तैत्तिरीय गाता है- यो मा ददाति स इदेव मा३वाः। अहमन्नमन्नमदन्तमा३द्मि। अहं विश्वं भुवनमभ्यभवा३म्‌।सुवर्न ज्योतीः। य एवं वेद। इत्युपनिषत्‌॥ जो मुझे देता है, वस्तुतः वही मेरी रक्षा करता है क्योंकि मैं ही अन्न हूँ, अतः जो मेरा भक्षण करता है मैं उसी का भक्षण करता हूँ। मैंने इस सम्पूर्ण विश्व को विजित कर लिया है तथा इसे अपने अधीन कर लिया है, सूर्य के ज्योतिर्मय रूप के समान है मेरा प्रकाश।" जो यह जानता है वह इसी प्रकार गान करता है। वस्तुतः यही है उपनिषद्, यही है वेद का रहस्य। वहाँ भाषा काम नहीं करती। भाषा में कहना ही पड़े तो वह उल्टी पुल्टी हो जाती है। फिर भी उनके कोई सूत्र मिल ही जाते हैं। तत्त्वमीमांसा सब भौतिक ज्ञानों का उत्स है, यह वैसे ही न है कि चीनी पानी में घुल गई, अब बताने वाला कौन रहा। हाँ चीनी को पानी में जाते हुए और उसकी मिठास का पहले के पानी से अंतर समझने देखने वाला कोई जो होगा, वही हम सबका सहायक होगा। डी एस मणि त्रिपाठी की पोस्ट पर शिक्षा जीवन की एक सतत् प्रक्रिया है, मार्ग है, वह गंतव्य नहीं है। उम्मीद करें, बेहतर करें, करते जाएँ, और कोई उपाय नहीं है! जीवन को सुंदर बनाने में जो मॉडल उपयुक्त हो, शिक्षा पद्धति में उसका आश्रय लेना श्रेयकर है। अभी उस पूरे मॉडल की खोज शेष है। सबसे पहले शिक्षा के उद्देश्य पर ही हम सब एकमत हो जायें। मनुष्यता के लक्ष्य को पाने के लिए हमें वास्तविक अर्थों में अंदर से भारतीय और बाहर से दुनिया के हो जाना आवश्यक है। जो लोग शिक्षा को केवल यूरोपीय दृष्टि का साधक समझते हैं, वे दुविधा में रहते हैं। यद्यपि यूरोपवासी भी भारतीय मन के हैं, इसमें पूर्वग्रह नहीं रखा जा सकता। पर यह अवश्य है और जैसी आपकी चिंता है कि भारतवासी पूरे रूप में भारत के नहीं रह गए हैं....जयशंकर तिवारी की पोस्ट पर

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