Friday, July 18, 2025
कृष्ण और अर्जुन के नामो की प्रतीकात्मकता
श्रीमद्भगवद्गीता को हमारी युवा पीढ़ी अपने दिवंगतजन की तेरहवीं संस्कार में वितरित करते हुए पुस्तक परिचय के रूप में जान पाती है। प्राण छूटते समय व्यक्ति के परिजन गीता के कुछ श्लोक पढ़कर जाते हुए व्यक्ति को सुनाते हैं। गीता एक महान रचना है, इसलिए इसके कतिपय शब्दों की भनक कान में पड़ जाएगी तो उसका भी प्रभाव हमारे जीवन पर अवश्य होगा, परंतु गीता केवल इतने भर के लिए नहीं है। जब हम वयस्क हो जाते हैं तो सर्वप्रथम गीता के अर्थ को जानकर आजीविका में प्रवेश करना चाहिये। गीता का अर्थ विशेष तभी जान सकते हैं जब हम उसमें ही दी हुई विधि के अनुसार उसे जानने का यत्न करें। प्राणायाम और योग गीता में ही दिया गया है, किंतु यह उसमें सूत्र रूप में मिलता है। उसे डिकोड करके ही जाना जा सकता है, इसके लिए हमें गुरु की आवश्यकता होती है। इस रहस्य को समझने की चेष्टा के कारण ही गीता की सैकड़ों व्याख्याएँ मूर्धन्य मनीषियों द्वारा की गई है। हम कितनी ही और किन्हीं की गीता व्याख्या को पढ़ लें, ज्ञानार्जन तो होगा, अनुभववर्धन नहीं हो पाता। अनुभव स्वयं करने पर होता है, कैसे करना है, उसके लिए महान गुरुजन ने गीता में आए शब्दों और पात्रों की प्रतीकात्मक विवेचना की है, हमें उसे समझना होगा। इस समझ को धारण करते हुए ध्यान में उतरने के बाद जो अनुभव होंगे, वे गीता और उसके ज्ञान को समझने में सहायक होंगे। गीता को समझने का यही उपाय है। श्लोकों को याद करके उनके दिये गये अर्थ सुनने सुनाने से उसका बाहरी रूप ही ज्ञात होता है। इतने से हमारा भ्रम दूर नहीं हो पाता है। अनुभवों को जानने के लिए गीता के पात्रों की प्रतीकात्मकता जानेंगे, यह योग का मार्ग प्रशस्त करेगा। धृतराष्ट्र का अर्थ है अंधा मन। जो अपना राष्ट्र पकड़कर रखे हुए है। इंद्रियों के राज्य को धारण करने के कारण यह धृतराष्ट्र हैं।
संजय- निष्पक्ष अंतर्निरीक्षण, जिन्होंने पूर्ण रूप से विजय प्राप्त कर ली हो। ऐसे ही व्यक्तियों को वह दैवी अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है। जिससे वह अपने भीतर और दूर का देख सकें।
कौरव- अनैतिक और मानसिक ऐंद्रिक वृत्तियों का समूह है।
पांडव- शुद्ध विवेकवान वृत्तियाँ है।
धर्मक्षेत्र- पवित्र मैदान है, जिस पर कुरुक्षेत्र अवस्थित है। कुरुक्षेत्र कर्म संपादन के लिए विहित मैदान है। कुरुक्षेत्र पर कौरव और पाण्डव अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए संघर्ष करते हैं।
कुरु संस्कृत क्रि से निष्पन्न शब्द है, जिसका अर्थ है कार्य या भौतिक क्रिया। क्षेत्र उस मैदान को कहते हैं, जिस पर यह क्रिया या कार्य किए जाते हैं। सांसारिक चेतना कुरुक्षेत्र पर कार्य करती है तो आध्यात्मिक चेतना धर्मक्षेत्र में कार्यरत रहती है।
बुद्धि विवेकवान प्रज्ञा का नाम है, यह रूपक में पांडु से जुड़ती है, पांडु की पत्नी कुंती हैं, जो नैतिक सिद्धांतों को धारण करती हैं। पांडु पंड से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है श्वेत । श्वेत रंग शुद्ध दशा का द्योतन करता है। बुद्धि पांडु का प्रतिनिधित्व करती है। पांडु निवृत्ति सूचक हैं। बुद्धि अधिचेतन से प्रेरित होकर सन्मार्ग की ओर ले जाती है। बुद्धि शाश्वत वास्तविकता अर्थात् सत्य की ओर ले जाती है।
मन अंधे राजा धृतराष्ट्र का प्रतिनिधि है, जिसके एक सौ पुत्र हैं। यह प्रवृत्ति सूचक हैं। मन इंद्रियों के माध्यम से कार्य करता है, इंद्रियाँ भौतिक सुखों को खोजती रहती हैं।
मन इंद्रिय चेतना है। यह ऐसी लगाम है जो इंद्रिय रूपी घोड़ों को चलाती है। शरीर रथ है। आत्मा इस रथ की मालिक है। मन को अंधा कहा गया है, क्योंकि यह बिना इंद्रिय और बुद्धि के देख नहीं पाता। अगर हम विवेकी बुद्धि से परिचालित हुए तो इंद्रियाँ नियंत्रित रहती हैं किंतु यदि बुद्धिमत्ता सांसारिक इच्छाओं से शासित हुई तो इंद्रियाँ अनियंत्रित हो जाती हैं और वे विनाशकारी आदतों का निर्माण करती हैं। मन एक सूक्ष्म चुंबकीय पोल है, जो सदा इंद्रियों को अपनी खुराक देता रहता है। शरीर रचना विज्ञान में आता है कि मेडुला ओब्लांगटा और मध्य मस्तिष्क के बीच एक पोंस वरोली (pons varolii) होती है। यह सेतु का काम करती है, जो अनुमस्तिष्क को प्रमस्तिष्क से जोड़ती है और मस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्रों और मेरुमज्जा के बीच संकेतों का संचार करती है। पोंस श्वास और नींद जैसे महत्वपूर्ण कार्यों के नियमन में भी शामिल है।यह मन ही है।
गीता में कृष्ण और अर्जुन अर्थात् गुरु और शिष्य का संवाद व्यक्त हुआ है। इस ग्रंथ में कृष्ण और अर्जुन के अलग अलग अनेक नामों से उन्हें अभिहित किया गया है। उन सब अलग अलग नामों के अपने अपने विशिष्ट अर्थ हैं। उन्हें यहाँ जान लेना उपयुक्त होगा...
भगवान कृष्ण:
अच्युत- जो परिवर्तित न हों, जिनका जोड़ न हो।
अनंतरूप- जिनके अलग अलग रूप हैं, और वे कभी समाप्त न हो।
अप्रमेय- जिन्हें मापा न जा सके।
अप्रतिमप्रभाव- जिनकी शक्ति कभी तोली या नापी न जा सके।
अरिसूदन- शत्रु को नष्ट करने वाले।
भगवान- ऐश्वर्यवान
देव- भगवान
देवेश- देवताओं के स्वामी।
गोविंद- चरवाहों के प्रमुख, इंद्रियों रूपी गायों को नियंत्रित करने एवं उन्हें चराने वाले।
हरि- हृदय को चुराने वाले या आकर्षक लगने वाले।
हृषिकेश- इंद्रियों के अधिष्ठाता या भगवान।
ईशम ईद्यम- वंदनीय
जगन्निवास- ब्रह्मांड के संरक्षक। विश्व को जो आकर्षित करें।
जनार्दन- मनुष्य की प्रार्थनाओं को पूरा करने वाले।
कमल पत्राक्ष- कमल के से नेत्रों वाले।
केशव, केशिनिसूदन- केशि राक्षस का संहार करने वाले, दोषों को नष्ट करने वाले।
माधव- भाग्य के भगवान
मधुसूदन- मधु राक्षस का संहार करने वाले अर्थात् अज्ञान को नष्ट करने वाले।
महात्मन्- संप्रभु आत्मा
प्रभु- स्वामी के भगवान
प्रजापति- असंख्य वंशों के दैवी पिता
पुरुषोत्तम- सर्वोच्च स्पिरिट
सहस्रबाहो- हज़ार भुजाओं वाले
वार्ष्णेय- वृष्णि गोत्र के वंशज
वासुदेव- विश्व के भगवान, जनक/पालक/संहारक ईश्वर।
विष्णु- सर्वव्यापी रक्षक
विश्वमूर्ते- ब्रह्मांड स्वरूप
यादव- यदुवंश के उत्तराधिकारी
योगेश्वर- योग के भगवान
अर्जुन:
अनघ- पाप रहित
भारत- राजा भरत के उत्तराधिकारी
भरतश्रेष्ठ- भरत राजाओं में श्रेष्ठ
भरतर्षभ- भरत का बैल या बछड़ा अर्थात् भरत राजवंश का महान और श्रेष्ठ उत्तराधिकारी
भरतसत्तम- भरत राजाओं में श्रेष्ठ
देहभृतं वर- देहधारियों में सर्वोच्च।
धनंजय- धन को जीतने वाले। धनविजयी।
गुडाकेश- निद्रा को जीतने वाले(सदा तत्पर, निद्राविजित, माया को पराभूत करने वाले।
कौंतेय- कुंती के पुत्र
किरीटिन- मुकुटधारी
कुरुनंदन- कुरु वंश के चहेते और गौरवशाली पुत्र
कुरुप्रवीर- कुरु वंश के महान नायक
कुरुसत्तम- कुरु श्रेष्ठ
कुरुश्रेष्ठ- कुरु राजकुमारों में श्रेष्ठ
महाबाहो- बलशाली भुजाओं वाले
पांडव- पांडु के उत्तराधिकारी
परंतप- शत्रुओं को भस्मीभूत करने वाले
पार्थ- पृथा पुत्र
पुरुषर्षभ- मनुष्यों में पुष्प( मनुष्यों के प्रमुख या वृषभ)
पुरुष व्याघ्र- मनुष्यों में बाघ। निर्भय और शत्रुंजयी।
सव्यसाचिन- किसी भी हाथ से धनुष वाण चलाने वाले।
महाभारत के पात्रों का योग रहस्य
श्री मद्भगवद्गीता महाभारत के भीष्म पर्व का भाग है। महाभारत दो पक्षों के बीच के भीषण युद्ध का काव्यात्मक चित्रण करता हुआ संस्कृत भाषा में निबद्ध महाकाव्य है। किसी युद्ध में पुरुषों या नर का ही वर्चस्व देखा जाता है। युद्ध की प्रकृति स्त्रियों के अनुकूल नहीं रहती अथवा कहा जाय स्त्री की प्रकृति युद्ध करने की नहीं है, किंतु युद्ध में जिस शक्ति की आवश्यकता होती है, वह स्त्री से ही आती है। उसकी मृदुता में कैसी दृढ़ता का सन्निवेश है। यह हम सबको ज्ञात कर लेना चाहिए। इसके ज्ञान के लिए हमें महाभारत को योग परंपरा से समझना आवश्यक होगा। महाभारत की ऐतिहासिकता से अधिक उसकी प्रतीकात्मकता जानना हमारे लिए अधिक महत्वपूर्ण है। कहानी के रूप में महाभारत को उसकी बोधगम्यता के लिए प्रस्तुत किया गया है। यह कहानी भी बेजोड़ है। इसमें जीवन के सभी संदर्भों को अनुस्यूत कर लिया गया है। महाभारत के पात्रों के निहितार्थ ग्रहण करने के लिए हमें योग परंपरा में उतरना होता है। इस परंपरा में ज्ञान किताबी नहीं होता, यह श्रुति परंपरा भी नहीं है, यह तो स्वयं ज्ञान हो जाने अर्थात् अनुभव में उतर जाने की परंपरा है। योग मनीषियों ने अपनी समाधि दशा में जो कुछ अपने शिष्यों के सामने व्यक्त किया अथवा कुछ संकेत किए या सूत्र दिए, उनकी कृपा से प्राप्त अनुभव से उनके आधार पर हम भारत की ज्ञान परंपरा को उसके वास्तविक रूप में समझ पाने में समर्थ हो सकते हैं। इस दृष्टि से श्रीमद्भगवद्गीता की व्याख्या काशी के जिन क्रियायोगी महापुरुष ने की है, वे श्री परमहंस प्रणबानंद जी हैं, जिनके अनुभवाभाष बंग भाषा के वचनों को सुनकर हिंदी में प्रणब गीता नाम से ज्ञानेंद्रनाथ मुखोपाध्याय ने 1917 में पहली बार प्रकाशित कराया। प्रस्तुत आलेख की विषय वस्तु श्री प्रणब गीता पर आधारित जानकारी से ली गई है। महाभारत में कौरव और पांडव पक्षों के जो पात्र वर्णित हुए हैं, वस्तुतः उनका ऐतिहासिक संदर्भ लेने भर से बात नहीं बन पाती है, महाभारत के पात्रों का एक आध्यात्मिक अर्थ है। महाभारत की कथासार कहने की आवश्यकता यहां नहीं है, उससे हमारे आबालवृद्ध सब परिचित ही हैं। महाभारत में आए स्त्री पात्रों के नाम और उनका आध्यात्मिक अर्थ दिया जाना यहां समीचीन होगा-
गंगा- चैतन्या प्रकृति
सत्यवती- जड़ प्रकृति
अंबिका- संशय वृत्ति
अंबालिका- निश्चय वृत्ति
गांधारी- प्रवृत्ति शक्ति
कुंती- निवृत्ति शक्ति
माद्री- निवृत्ति आसक्ति
द्रौपदी- कुलकुंडलिनी
सुभद्रा- अतिशय मंगलशक्ति
स्त्री पात्रों की प्रकृति समझने के लिए हमें महाभारत के पुरुष पात्रों के आध्यात्मिक अर्थ को जानना भी आवश्यक होगा।
गीता के प्रथम श्लोक में धृतराष्ट्र नामक पात्र समुपस्थित हुए हैं। धृतराष्ट्र धृतं राष्ट्रं येन सः धृतराष्ट्रः। धृत का अर्थ है जो पहले से धारण किया हुआ है और राष्ट्र अर्थात् राज्य। जो पहले से किसी राज्य को धारण कर रहे हैं, वे धृतराष्ट्र हैं। इस शरीर रूपी राज्य को सुख-दुःख पूर्वक भोग करने वाला धृतराष्ट्र समझा जाना चाहिए। शरीर के सुख-दुःख का भोक्ता मन होता है।
संजय साधक की क्रियालब्ध मानस दृष्टि, अंतर्दृष्टि या दिव्य दृष्टि का नाम है।
दुर्योधन का अर्थ है दुःख में युद्ध करना। जिसके साथ अतिकष्ट में युद्ध किया जाए, वही दुर्योधन है। कामना या विषय वासना दुर्योधन का लक्षित रूप है। धृतराष्ट्र अर्थात् मन का यह ज्येष्ठ पुत्र है।
द्रोण संस्कारज बुद्धि का नाम है। इसीलिए वह द्विज हैं। जैसे कौआ दो आंखें होते हुए भी एक आंख से ही देखने के लिए विवश होता है। सर्वतोमुखी होने पर भी एक ओर लक्ष्य रखने से यह बुद्धि निर्मल नहीं है।
युयुधान- श्रद्धा है। यह अकेले होते हुए भी अनंत विपक्ष सैन्य समूह के साथ युद्ध करने की क्षमता रखती है। श्रद्धा का फलक विस्तीर्ण है, यह राई से पर्वत और पर्वत से राई करने की क्षमता रखती है।
विराट का आशय समाधि से है। वि- विगत राट्- राज्य। जो अपना राज्य दूसरों के हाथ में देकर सदा अलग रहते हैं।
द्रुपद। द्रु- द्रुत पद- गमने। अंतर्यामीत्व शक्ति, वैद्युतिक शक्ति या तीव्रवान वेग से संपन्न योद्धा।
धृष्टकेतु यम के अर्थ में ग्रहणीय है। सा धृष्टानि- संयतानि, केतनानि- स्थानानि। अर्थात् जिस अवस्था में स्थान समूह यानि छहों चक्रों की क्रियाएं संयत होती हैं।
चेकितान- स्मृति। क्षीण झिंझिट स्वर जो अनहद नाद से पूर्व सुना जाता है।
काशिराज- प्रज्ञा, श्रेष्ठ, प्रकाश शक्ति को कहा गया है।
पुरुजित्- प्रत्याहार, सामान्य विश्राम की अवस्था है।
कुंतिभोज- आसन दशा है। कुन्- कर्षण।
शैव्य- नियम है, यह कल्याण दायिनी शक्ति है।
युधामन्यु- प्राणायाम के अर्थ से है। युद्ध सुनते ही जिनके क्रोध का उदय होता है।
उत्तमौजा- वीर्य के अर्थ से है।
सौभद्र- संयम। धारणा, ध्यान और समाधि का एकत्र समावेश। अभिमन्यु को यह कहा गया है।
द्रौपदेय- पंचबिंदु। पंचीभूत दशा को उपलब्ध।
पांडु, जिसकी बुद्धि निर्मल है। पांडु ने विषय भोग परित्याग कर एकमा़त्र ईश्वर की आराधना में मन लगाया था। यह निर्मल बुद्धि भी जीव का बंधन है। इसे लय करने के लिए थोड़ी आसक्ति का प्रयोग करना पड़ता है। माद्री में आसक्त होने के कारण पांडु की मृत्यु होने का यही तात्पर्य है। निर्मल बुद्धि में कोई पुरुष होकर भी नपुंसक हो सकता है।
भीष्म- आभास चैतन्य या अस्मिता का नाम है। अविद्या जनित अहंकार बड़ा भीषण होता है।
कर्ण- कर्तव्य कर्म या राग
विकर्ण- अकर्तव्य कर्म या द्वेष
कृप- कल्पना या अविद्या।
अश्वत्थामा- रुद्र, यम, काम और क्रोध इन चारों शक्तियों का एकत्र समावेश या कर्मफल। यह अमर माना गया है, क्योंकि कर्मफल की शृंखला विच्छिन्न नहीं हो पाती। एक के कर्मफल द्वारा दो तीन पुरुष पर्यंत भोग भोगना पड़ता है। विशेषतः पितामह का दोष-गुण पौत्र पर उतरता है।
सौमदत्ति- भूरिश्रवा- भूरिश्रवति यः सः। कर्म अथवा संसार।
जयद्रथ- अभिनिवेश या मृत्युभय।
शल्य- कंटक या शैल, जिसके रहने से क्रमान्वय क्लेश भोगना पड़ता है। कर्म संस्कार चाहे अच्छा हो या बुरा, वह जीव के संसार बंधन का कारण है। इसलिए शल्य जीव का संस्कारज कर्म है।
क्रतवर्मा- शरीर के प्रति मोह अथवा शरीर की रक्षा करने की प्रवृत्ति का अर्थसूचक पात्र है।
युद्धविशारदाः- वह सब वृत्तियां जो सत्कर्म की सिद्धि के पक्ष में कंटक स्वरूप होने से जीव को संसार मार्ग से आबद्ध कर रखने के लिए समर्थ हैं। उन सबमें कोई एक भी रहने से जीव का निस्तार नहीं होता।
धृष्टद्युम्न- द्रोण का शिष्य है। इसका आशय यह है कि चैतन्य ज्योति बुद्धि के द्वारा ही प्रकाश पाती है।
शकुनि - मोह का अर्थद्योतक है।
योग विज्ञान के अनुसार मनुष्य शरीर के प्रत्येक चक्र में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों पक्ष विद्यमान हैं। यही महाभारत के कौरव एवं पांडव हैं। यथा-
स्थानपांडवकौरव
मूलाधार- क्षिति, सहदेव - शमकाम- दुर्योधन
स्वाधिष्ठान- अप्, नकुल- दमक्रोध- दुःशासन और मृत्युभय- जयद्रथ
मणिपूर- तेज, अर्जुन- तितिक्षालोभ- कर्ण-कर्तव्य कर्म और विकर्ण- अकर्तव्य कर्म
अनाहत- महत्, भीम- उपरति मोह- शकुनि, जिसने मोह उत्पन्न करके द्यूतक्रीडा कराई
विशुद्ध- व्योम, युधिष्ठिर- श्रद्धामद- महाराज शल्य
आज्ञा- कूटस्थ चैतन्य, श्री कृष्ण- समाधानमत्सरता- भीष्म, द्रोण और कृप
शमादि बंधु और कामादि रिपु जीवों के कर्मफल का प्रकाश है, इसलिए अश्वत्थामा इन मूलाधारादि छः स्थानों में ही हैं। इनके अतिरिक्त कुछ नाम और हैं, जैसे-
शांतनु- निर्विकार चैतन्य
वेदव्यास- भेदज्ञान
चित्रांगद- ऐश महत्तत्व
विचित्रवीर्य- ऐश अहंकार
हृषीका- इंद्रिय समूह को कहा जाता है। ईश- नियंता है। जो इंद्रियों के नियंता हैं, जिनके तेज से इंद्रिय समूह अपना काम करता है। यह नियंता स्थान कूटस्थ चैतन्य है, आज्ञा चक्र में यह अवस्थित है। शरीर का केंद्र मूलाधार है, मन का केंद्र हृदय है तो आत्मा का केंद्र सहस्रार है। मूलाधारादि पांच चक्रों से उठे हुए पांच स्वर एक साथ मिलकर आज्ञाचक्र के भीतर से अनुभव में आते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण के शंख का नाम पांचजन्य है।
धनंजय- धन या विभूति को जय करने का नाम है। जन्म, मृत्यु, दुःख, क्षुधा एवं तृष्णा यह विभूतियां हैं। तेज तत्व का नाम धनंजय है। इनका स्थान मणिपूर चक्र है, वह यहां वैश्वानर नाम से जीव की जीवनी शक्ति (अन्न पचन रस रूप अमृत) प्रदान करते हैं। यह वैश्वानर देव सब देवताओं के मुख स्वरूप हैं। मणिपूर चक्र से वीणा शब्दवत् शब्द उठता है, उसका नाम देवदत्त शंखध्वनि है।
वृकोदर- वृक् का अर्थ अग्नि है। अग्नि वायु से उत्पन्न होकर फिर वायु में ही लय हो जाती है। वायु का स्थान अनाहत् चक्र है। यहां साधन क्रम से निनादवतृ दीर्घघंटा एक शब्द उठता है, उसी का नाम पौंड्र शंख ध्वनि है, जो भीम द्वारा बजाया गया बताया गया है।
युधिष्ठिर- युद्ध करके जिसको कोई हरा न सके। यह आकाश तत्व है। विशुद्ध चक्र से मेघ गर्जनवत् शब्द जब उठता है, उसे युधिष्ठिर के अनंतविजय शंख ध्वनि कहा जाता है।
नकुल रसतत्व है। जितने रस हैं, उनका कोई भोग करके उन्हैं शेष नहीं कर सकता, इसलिए उसका नाम नकुल है। लिंगमूल स्वाधिष्ठान चक्र से साधन क्रम में वेणुशब्दवत् शब्द जो उत्पन्न करे, उस शंख का नाम सुघोष है।
सहदेव पृथ्वीतत्व है। सह- सहित, देव जो खेलता रहता है। पृथ्वी के साथ ही जीव का खेेल अर्थात् पांच भूतों के भीतर शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध। यह स्थान मूलाधार है, जहां मत्तभृंगशब्दवत् शब्द उठता है, यही मणिपुष्पक शंखध्वनि है।
कपिध्वज- जिह्वा को उलटकर नासारंध्र के ऊपर श्लेष्मा के स्थान को अतिक्रम करके रखने की अवस्था को कपिध्वज कहते हैं। इसे प्रचलित भाषा में खेचरी मुद्रा कहा गया है।
धनुरुद्यम- मेरुदंड अर्थात् पीठ की रीढ़ का नाम धनु है। ध्यान अवस्था में बैठने का नाम धनुरुद्यम है।
अर्जुन- अ$रज्जु$न। जो पाशमुक्त नहीं। संसाराबद्ध जीवावस्था का नाम अर्जुन है।
गुडाका- यानि निद्रा । ईश- नियंता। निद्राजित् अर्थात् अनलस साधक को गुडाकेश कहते हैं।
विषयचिंता करते-करते उनसे उत्पन्न अवसन्नता से अभिभूत होकर रहने का नाम अज्ञानज निद्रा है, परंतु आत्मलक्ष्य करते-करते अपने से विषय वृत्ति मिट जाने पर मन का जो अकंप विश्राम होता है, उसका नाम ज्ञानज निद्रा है।
पार्थ- पृथा का पुत्र जो है। पृथ- विख्यात होना। अ- कर्तृवाचक शब्द। प्रकृति ही स्वनामख्याता है, इससे उत्पन्न जीव पार्थ है। कुंती के सभी पुत्रों को पार्थ कहा गया है।
पीठ की तरफ संकोच होकर समकायशिरोग्रीव होकर बैठने से पीठ डोंगा की भांति बन जाती है। इस अवस्था में स्थित मेरुदंड को गांडीव कहते हैं।
भारत- आत्मज्योति निविष्टचित्त दशा का नाम है।
जन- अंतःकरणवृत्ति समूह को कहा गया है।
गो- विश्व समूह है, यह पंचकोश समन्वित शरीर का नाम है। विद्- जानना है। इन्हीं शब्दों से मिलकर गोविंद हुआ।
सुर- स ईश्वर। प्राणोहि भगवानीशः। उ- सहस्रार स्थिति पद। र- तेज। प्राण सहस्रार में स्थित होने के पश्चात् जो तेजोराशि प्रकाश पाती है, वही सुर है।
संख्या- सम्यक्, ख- आकाश, या- यान। देहाभिमान त्यागकर संपूर्ण रूप से आकाश यान में स्थित होना।
मधु- मीठा द्रव्य। जीव की संसार भोग वासना। सूदन- नष्ट करने वाले। मधुसूदन- कूटस्थ तारक ब्रह्म। उनमें ज्ञान वैराग्यादि समस्त ऐश्वर्य सर्वदा विराजमान हैं, इसलिए वह भगवान हैं।
विष- व्यापन शक्ति, आ- आसक्ति, द- दान करना। व्याप्ति में आसक्ति देने का नाम विषाद है।
मेरुदंड सीधा न रखने से प्राण (शर) सरल राह की ओर नहीं उठ सकता। वह टेढ़ी-मेढ़ी गति पकड़ लेता है, इसलिए प्रणव या ओंकार की उपासना मेरुदंड सीधा रखकर ही संभव है। प्रणव की उपासना इस प्रकार करने से ही आंेकार को प्रणव कहा जाता है। प्रणवोपासना करने से ही हम रथ में उपस्थापित हो पाते हैं।
जनार्दन- जन- जन्म, अर्दन-पीड़ा। जन्म को जो पीड़ित करते हैं, अर्थात् जातक को जो मुक्ति देते हैं, वे जनार्दन हैं।
दस इंद्रियां, पंच प्राण, मन और बुद्धि- यह सप्तदश कला हैं। वासना, वैराग्य आदि जो कुछ वृत्तियां हैं, वे इन सप्तदशा कला से ही उत्पन्न होती हैं। इसी समुदाय को कुल कहा गया है। कु- शब्द स्पर्शादि विषय, ल- भोग वासना। विषय भोग वासना का नाम कुल है।
जिसके गर्भ से संतान उत्पत्ति होती है, उसी को स्त्री कहते हैं। यह शरीर और इंद्रियां स्त्री ही हैं।
माधव में मा- लक्ष्मी, धव- लक्ष्मी। यह भाग्य के अधिष्ठाता हैं।
कृष्ण- कूटस्थ चैतन्य हैं।
कृषिर्भूर्वाचकः शब्दो णश्च निर्वृत्तिवाचकः
तयोरैक्यं परंब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते।।
कृषि- कर्षणे, भू- वाचक शब्द, ण- निर्वृत्ति वाचक शब्द है। मुक्ति इच्छा न रखने से भी जो महापुरुष खींच कर निर्वाण प्राप्त करा देते हैं, वही कृष्ण हैं।
स्वर्ग में स- सूक्ष्म श्वास है, व- शून्य है, र- तेज है एवं ग- गति है। सूक्ष्म श्वास के शून्य होने के पश्चात् जो तेजोमयगति हो, वही स्वर्ग अर्थात् आत्मज्योति की उपलब्धि है।
कर्म की सिद्धि हो जाने के पश्चात् जो ख्याति होती है, उसी का नाम कीर्ति है।
स्त्री एक शक्ति की प्रतीक है। उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति, संशय और निश्चय, जड़ और चैतन्य, आसक्ति और मंगलशक्ति दोनों प्रकार की शक्ति या वृत्ति विद्यमान रहती है।
आलेख में महाभारत के पात्रों और उनके वैशिष्ट्य को संक्षेप और सूत्ररूप में ही व्यक्त किया गया है। इनके अनुभवमूलक मर्म को समझने के लिए हमें ऐसे ही किसी महापुरुष का सानिध्य प्राप्त करना होगा।
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