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Tuesday, September 13, 2016

क्षेत्रीय भाषाएँ और उनका न्यायालयों में प्रयोग



क्षेत्रीय भाषायें और उनका जिला/उच्च न्यायालयों में प्रयोग
डा राकेश नारायण द्विवेदी

भारत के संविधान के अनुच्छेद 348(2) में कहा गया है, राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति लेकर हिंदी भाषा या राज्य के सरकारी प्रयोजनों के लिये प्रयुक्त हो रही अन्य भाषा को उच्च न्यायालय की भाषा के रूप में प्राधिकृत कर सकता है। यद्यपि यह प्रावधान ऐसे उच्च न्यायालय द्वारा पारित किसी निर्णय, डिक्री या आदेश पर लागू नहीं होंगे।
किंतु इस संवैधानिक प्रावधान की उपधारा (3) के आधार पर राजभाषा अधिनियम की धारा 7 के अनुसार एक राज्य का राज्यपाल निर्धारित किये गये दिनांक से राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से अंग्रेजी के अतिरिक्त हिंदी या राज्य की राजभाषा को राज्य के उच्च न्यायालय में पारित होने वाले निर्णय, डिक्री या आदेश के लिये प्राधिकृत कर सकता है। इस प्रावधान के अंतर्गत हिंदी या अन्य राजभाषाओं में पारित निर्णय, डिक्री या आदेश उच्च न्यायालय प्राधिकारी द्वारा कराये गये अंग्रेजी अनुवाद के साथ जारी किये जायेंगे।
इन प्रावधानों के आधार पर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान ने अपने-अपने उच्च न्यायालयों की भाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग की अनुमति दी हुई है, जो न्यायालयों की प्रक्रिया के लिये ही नहीं, आदेश और निर्णयों को पारित करने में भी प्रयुक्त की जाती है। 'ऐसी ही स्थिति जिला स्तर तक के न्यायालयों की भी है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, छत्तीसगढ और झारखंड राज्यों में विधानमंडल और जिला स्तर तक न्यायालयों की भाषा हिंदी है। मध्य प्रदेश और राजस्थान राज्यों में विधि के क्षेत्र में स्थिति यह है कि जिला स्तर पर केवल हिंदी में ही निर्णय दिये जा सकते हैं, लेकिन हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली जैसे अन्य हिंदी भाषी क्षेत्रों में विधानमंडल और न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी ही बनी हुई है।' 1(स्मारिका विश्व हिंदी सम्मेलन, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार हरीश कुमार सेठी का आलेख विधि न्याय के क्षेत्र में हिंदी पृ 185)इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त आजीवन अपने निर्णय हिंदी में देते रहे। न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू अपने कार्यकाल में हिंदी का अधिकतम संभव प्रयोग करते रहे। 2(न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की दनांक 20 सितंबर 2015 कीफेसबुक पोस्ट  से) बहुत से और न्यायाधीश निर्णय लिखते समय हिंदी और भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों की उक्तियां उद्धृत कर निर्णय की बात को स्पष्ट करते हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के ही दयाशंकर मिश्र, प्रमोद कुमार जैसे अधिवक्ता न्यायालयों में हिंदी का ही प्रयोग करते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व उप महाधिवक्ता महेश चंद्र चतुर्वेदी ने दिनांक 14 सितंबर 2015 कोव्हाट्सऐप पर बताया कि यहां अधिवक्ता तीन चौथाई से अधिक बहस हिंदी भाषा के माध्यम से ही पूरी करते हैं। वास्तव में जब हम अपनी बात को यथारूप कहना चाहते हैं तो अपनी ही भाषा में उसे अभिव्यक्त कर पाते हैं। कौन व्यक्ति होगा, जिसका मुकदमा जीवन मृत्यु के लिये चल रहा हो, क्योंकि जब प्रशासन और शासन के सब अंगों की तरफ से न्याय पाने में वह निराश हो चुका होता है, तब वह न्यायालय की शरण जाता है। वह अपनी पूरी बात न्यायाधीश तक पहुंचाना चाहता है। अदिवक्ताओं की भी भाषाई सीमा होती है। जीवन के घात-प्रतिघातों को विदेशी भाषा में यथारूप व्यक्त कर पाना सर्वदा दुष्कर होता है। पेड की शाखा चर्र-चर्र करके नीचे आ गिरी जैसे वाक्यांशों को अंग्रेजी भाषा में कह पाना मुश्किल होता है।
न्यायालयों की भाषा अपने राज्य की भाषा हो, इसमें किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है। जब तमिलनाडु में सितंबर माह में वहां के अधिवक्ताओं द्वारा उच्च न्यायालय की भाषा तमिल बनाने की मांग की गई तो अनेक बुद्धिजीवियों ने उनकी इस मांग से अपने को संबद्ध किया। मेरी सहमति भी इस मांग के साथ कतिपय शर्तों सहित है कि किसी अधिवक्ता को अपनी बहस तमिल अथवा अंग्रेजी में करने की अनुमति हो, जिससे जो न्यायाधीश बाहर से आते हैं और तमिल नहीं जानते, उन्हें असुविधा न हो। उच्च न्यायालयों की नीति के अनुसार किसी उच्च न्यायालय का प्रधान न्यायाधीश उस राज्य का निवासी नहीं होगा। अस्तु, सभी प्रधान न्यायाधीश उस राज्य से बाहर के ही होते हैं। स्वाभाविक है कि वे उस राज्य की भाषा को अनिवार्यत: समझते-जानते हो, ऐसा आवश्यक नहीं है। आदर्श स्थिति तो यह है कि न्यायालयों ही नहीं संसद और विधानमंडलों में भी हिंदी को अंग्रेजी के स्थान पर प्रमुख भाषा के रूप में स्थापित किया जाये, इससे राज्य की भाषा को लागू करने में भी समस्या उपस्थित नहीं होगी। हिंदी कम से कम समझने के स्तर पर पूरे देश में ग्राह्य बन सकती है , विडंबना है कि जो अपने देश की भाषा है, अपने संस्कारों में रची बसी है और जिसने अपने देशवासियों के जीवन संघर्ष को अभिव्यक्ति दी है, जिस भाषा में देश का स्वाधीनता संग्राम लडा गया। देश के चारों कोनों के स्वातंत्र्य  योद्धा हिंदी भाषा के माध्यम से एकजुट हुये, उन्होंने हिंदी को देश की प्रतिनिधि भाषा बनाने की आवश्यकता बताई, किंतु कतिपय भयाक्रांत या स्वार्थी तत्वों द्वाराउस भाषा को सरकारी या न्यायालयों की प्रमुख भाषा के रूप में रखने का तो पुरजोर विरोध किया जाता है, जबकि अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को सीखने में अपने नौनिहालों की ऊर्जा खर्च करा देते हैं।
अंग्रेजी भाषा का विरोध नहीं, पर इसे सीखने की मजबूरी न रखी जाये। स्वेच्छया किसी भी भाषा को सीखने की अनुमति और सुविधा दी जाये। पंजाब उच्च न्यायालय की भाषा क्यों नहीं पंजाबी हो सकती है। यह उच्च न्यायालय हरियाणा का भी क्षेत्राधिकार रखता है, जो हिंदी भाषी राज्य है। अत: समुचित होगा कि इसकी भाषा पंजाबी और हिंदी रखी जाये। असम उच्च न्यायालय की कामकाजी भाषा असमी है, किंतु सहभाषा के रूप में यहां अंग्रेजी, बोडो और बंगाली भी चलती है। पुडुचेरी में तमिल, मलयालम, तेलुगु तो दादरा और नगर हवेली जैसे संघ शासित राज्यों में मराठी, गुजराती और हिंदी में कामकाज चलता है। देश के सभी उच्च न्यायालयों - ओडिशा में उडिया, गोवा में कोंकणी, महाराष्ट्र में मराठी, गुजरात में गुजराती, पश्चिम बंगाल में बंगाली, आंध्र और तेलंगाना में तेलुगु, कर्नाटक में कन्न्ड, केरल में मलयालम-में उस राज्य की राजभाषा में कमोबेश कामकाज होता है तो पंजाब में ऐसा क्यों नहीं हो सकता!
सामाजिक सरोकार का सबसे बडा माध्यम भाषा है। भाषा का महत्व लोक-व्यवहार में अप्रतिम है। लोक-व्यवहार को नियंत्रित करने वाली संस्था 'न्यायपालिका' ही है। भारत एक विविधताओं वाला बडे भूभाग को समेटा हुआ राष्ट्र है, जहां कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी। 'भाषाई न्यायिक व्यवस्था में गतिरोध मुगलों द्वारा फारसी और अंग्रेजी को लागू करने से हुआ। फारसी तो धीरे-धीरे हिंदी में घुल-मिलकर पहले उर्दू और फिर हिंदुस्तानी में बदलने लगी, जिस कारण आम हिंदुस्तानी इस भाषा के निकट आने लगा। सन 1833 तक अंग्रेजों ने भी इसे ही शासन के समस्त निकायों में प्रयोग किया, लेकिन लार्ड मैकाले ने फारसी के स्थान पर अंगरेजी भाषा को राजभाषा के स्थान पर आरूढ करा दिया। नतीजा, न्यायिक क्षेत्र में एक ऐसी भाषा का प्रवेश हुआ, जिसकी जानकारी प्राय: पक्षकारों को भी नहीं होती। वादी और प्रतिवादी दोनों ही अंग्रेजी के जानकार वकीलों और न्यायाधीशों की समझ पर आश्रित हो गये।' 3 (स्मारिका विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल 2015 में विमल कुमार दुबे का आलेख न्यायालयों में हिंदी कार्रवाई की सार्थकता एवं उपयोगिता, पृ 187-188) न्यायिक प्रक्रिया के तीन मुख्य चरण होते हैं- न्यायालयों तक पहुंच, प्रभावी निर्णयात्मक शक्ति तथा निर्णय का क्रियान्वयन। यदि न्यायालय किसी ऐसी भाषा में कार्य करता है, जिससे वादी अनभिज्ञ हैतो वह अदालत में जाने से कतरयेगा। यदि निर्णय किसी ऐसी भाषा में लिखा गया है जो पक्षों के लिये अनभिज्ञ हैतो निर्णय की व्याख्या के लिये दूसरों पर आश्रित रहेगा। जब निर्णय ही समझ में नहीं आया तो उसका क्रियान्वयन भी किसी दूसरे की व्याख्या के अधीन रहेगा। इस प्रकार न्याय की पूरी प्रकिया ही दूषित एवं निरर्थिक हो जायेगी। इसीलिये हंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी में और अन्य राज्यों में न्यायिक प्रक्रिया उन राज्यों की भाषाओं में ही चलनी चाहिये।
कुछ अंग्रेजी परस्त लोगों के चलते व्यवधान आते हैं, इनका समाधान भी समय के साथ-साथ होता जायेगा। मसलन, जब कोई याचिका हिंदी में दाखिल की जाती है तो न्यायाधीश विवशता व्यक्त करते हैं कि अगर आप अपनी भाषा में याचिका देंगे और उसी भाषा में निर्णय देनें को कहेंगे तो हमें अंग्रेजी में अनुवाद कराना पडेगा, क्योंकि अंग्रेजी का ही पाठ प्रामाणिक माना जाता है। अनुवादकों की कमी का रोडा बताया जाता है, अनुवाद में समय लगने का बहाना बनाया जाता है। अधिवक्ता और पक्षकार को न्याय पाने की त्वरा होती है, जो स्वाभाविक ही है। वह मजबूरी में अपनी याचिका दाखिल कर देता है। इस समस्या को आधुनिक तकनीकी दूर कर सकती है। हमारे इंजीनियरों को क्षेत्रीय भाषाओं से अंग्रेजी में और अंग्रेजी से विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में अच्छा अनुवाद करने की तकनीकी विकसित करनी होगी, जिससे अनुवाद की समस्या का निराकरण हो सके। इस बात को भी रेखांकित किया जाना चाहिये कि हम अपनी भाषा में कामकाज शुरू तो करें, व्यवधान दूर होते जायेंगे। हमें विश्वास है कि हम ऐसी दिशा में आगे बढ चले हैं कि अवश्य एक दिन सार्थक नतीजे देखने को मिलेंगे।
एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रभारी, हिंदी विभाग गांधी महाविद्यालय, उरई
संबद्ध बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झांसी
मोबाइल 9236114604

डा राकेश नारायण िद्ववेदी
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पाठालोचन की विविध प्रविधियां

पाठालोचन की विविध प्रविधियां
डॉ राकेश नारायण द्विवेदी
आजकल साहित्यिक क्षेत्र में इस बात का वैज्ञानिक अनुसंधान या विवेचन कि किसी साहित्यिक कृति के संदिग्ध अंश का मूलपाठ वास्तव में क्या और कैसा रहा होगा, पाठालोचन या टैक्स्चुअल क्रिटिसिज्म कहलाता है। इसमें किसी ग्रंथ के मूल और वास्तविक पाठ का छानबीन करके निर्धारण किया जाता है। पाठालोचन मुख्यतः प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों की अनेक प्रतिलिपियों अथवा ऐसी साहित्यिक कृतियों के संबंध में होता है, जिनका प्रकाशन तथा मुद्रण स्वयं लेखक के संज्ञान में न हुआ हो। इसे अंग्रेजी में इस तरह कहा जाता है कंपैरिजन आफ ए पार्टिकुलर टेक्स्ट विद रिलेटिड मैटेरियल्स इन आर्डर टु इस्टेब्लिश आथेंटिसिटी।
पाठालोचन तथा साहित्यालोचन को कभी-कभी एक ही समझने की भूल कर दी जाती है, किंतु लोकभारती प्रकाशन से सितंबर 2008 में प्रकाशित डॉ कन्हैया सिंह ने अपनी पुस्तक ‘पाठ संपादन के सिद्धांत’ में लिखा है पाठालोचक जहां प्राचीन लेखकों एवं कवियों के मूल पाठ के निर्धारण मात्र का प्रयास करते हैं, वहीं साहित्यालोचक उस निर्धारित पाठ के आधार पर उस लेखक या कवि का मूल्यांकन करते हैं तथा उसकी विशेषताओं, उसके गुणों एवं दोषों का उद्घाटन करते हैं। इस प्रकार जहां पाठालोचन का कार्य समाप्त होता है, वहां से साहित्यालोचन का कार्य प्रारंभ होता है। पाठालोचन के पूर्व साहित्यालोचन का कार्य उस विशेष कवि या लेखक के संदर्भ में असंभव होता है। जब तक कवि या लेखक की रचनाओं का मूल पाठ निर्धारित नहीं हो जाता, तब तक उसकी कृति के संबंध में किस आधार पर मत व्यक्त किया जा सकता है।
ग्रंथों की भूमिकाओं में पाठ तय करने के लिए प्रयुक्त साधनों, सामग्रियों, सिद्धांतों एवं विधियों आदि का विवरण दिया जाता है। पाठालोचन के दो स्तर हैं। पहले स्तर पर त्रुटियों का पता लगाया जाता है, जबकि दूसरे स्तर पर समानता के आधार पर मूल पाठ का निर्धारण किया जाता है। शोध प्रमाण पर आधारित होता है, इसलिए पाठालोचन शोध प्रविधि का महत्वपूर्ण हिस्सा है। डॉ सत्यकेतु सांकृत ने कहा है कि मूल पाठ से प्रतिलिपि करने पर लगभग तीन प्रतिशत तक अशुद्धि रहने की संभावना रहती है। इस प्रकार जब प्रतिलिपियों से प्रतिलिपियां तैयार की जाती हैं तो अशुद्धियों के बढ़ते रहने की संभावना बनी रहती है। वरिष्ठ आलोचक नलिन विलोचन शर्मा ने इसे तात्विक शोध की संज्ञा दी है।
पाठालोचन की समस्या उन्हीं कृतियों को लेकर होती है, जिनके लेखकों ने अपने सामने कृति का प्रकाशन नहीं करा पाया है। ऐसी कृतियां, जिनका प्रकाशन लेखक या कवि के उत्तरवर्तियों द्वारा कराया गया है, उनमें पाठ का अंतर हो जाता है। सबसे अधिक समस्या प्राचीन कृतियों को लेकर है, विशेषतः जिनसे समाज वैज्ञानिक विश्लेषण करने की दिशाएं खुलती हों। प्रायः हिंदी साहित्य की आदिकालीन और मध्यकालीन साहित्यकारों की कृतियां इस परिधि में आती हैं। संस्कृत ही नहीं सभी साहित्यिक भाषाओं की बहुत सी कृतियां पाठालोचन की समस्या से अंतर्ग्रस्त हैं। मनुस्मृति के बहुत से पाठ मिलते हैं। इसमें कुछ लोगों ने अतिशय और आपत्तिजनक उक्तियां एवं श्लोक जोड़कर विवादित कर दिया है। जो प्राचीन कृति जितनी अधिक चर्चित और समादृत होती है, वह पाठभेद से उतनी अधिक ग्रस्त रहती है। इस दृष्टि से  रामचरितमानस पाठालोचन की समस्या से बहुत अधिक घिरी हुई है। रामचरितमानस को पाठालोचन और साहित्यालोचन दोनों कसौटियों पर कसा गया है। अब भी इसकी अनेक चौपाइयों का अर्थ अपने-अपने ढंग से किया जा रहा है। पाठभेद व मानस व्याकरण सहित श्री रामचरितमानस के निवेदन में हनुमानप्रसाद पोद्दार ने लिखा है ‘जितने पाठभेद इस ग्रंथ के मिलते हैं, उतने कदाचित् किसी प्राचीन ग्रंथ के नहीं मिलते। इससे इसकी सर्वोपरि लोकप्रियता सिद्ध होती है।’ कारण स्वरूप इस निवेदन में ही श्री पोद्दार लिखते हैं ‘पूज्य गोस्वामीजी के हाथ की लिखी हुई पूरी प्रामाणिक प्रति प्रयास करने पर भी न मिल सकने के कारण शुद्ध पाठ का दावा हम लोग नहीं कर सकते...........पाठ के संबंध में हमें केवल इतना ही निवेदन करना है कि जो कुछ सामग्री हमें प्राप्त हो सकी, उसका हम लोगों ने अपनी समझ से ईमानदारी के साथ उपयोग किया है। हमारा यह आग्रह नहीं है कि भूल समझ में आने पर भी आगे यही पाठ रखा जाय।’ ध्यातव्य है कि ऐसी कृतियों के प्रक्षिप्त पाठ उसकी भाषा शैली और कथ्य की तारतम्यता के कारण अलग आभास कराते हैं, किंतु यह पहचान सबके बस की भी तो नहीं। जो बहुश्रुत और बहुज्ञ पाठक होगा, वही इन प्रक्षेपांशों की पहचान कर पाएगा।
वर्तमान में लेखन कार्य को प्रकाशित कराने के लिए बहुत सुगमता हो गई है। तकनीकी के आविष्कार और उसके क्रमशः विकास के बाद थोड़े समय में ही अल्प श्रम में भाषा लिपि बद्ध होने लगी है। कभी कृतिकारों ने अपने हाथ से अपना ग्रंथ लिखा और कभी बोलकर लिखवाया। प्रतिलिपि निर्माण के क्रम में प्रमादवश भूलें होती रहीं, होती भी हैं। अगले प्रतिलिपिकार ने पिछली भूल को यथावत अपनी प्रति में जोड़ दिया। कभी-कभी जानबूझकर प्रति में प्रक्षेप हुए। मूल प्रति जब नष्ट हो गई और उसकी निकटवर्ती प्रतिलिपियां भी अनुपलब्ध हो गई तो प्राप्त प्रतियों के पाठों में इतना वैषम्य और विरोध मिलने लगता कि रचनाकार के मूलपाठ की कल्पना भी दूभर हो गई। आजकल फेसबुक पर अपनी पोस्ट का संशोधन करने की सुविधा हो गई है, यही नहीं, उस संशोधित रूप से पहले की पोस्ट देखने की भी सुविधा यहां मिलती है। किसी मुद्रित रूप में यह सुविधा नहीं मिल सकती। वहां परिष्कृत रूप ही प्राप्त होता है और अगली बार फिर अनुसंधाता का परिष्कृत या संशोधित रूप जुड़ जाता है। यह स्थिति सभी भाषाओं के मुद्रित रूपों के साथ हुई, किंतु विभिन्न प्रतियों के पाठों में मिलने वाले अंतर एक सरणि के नहीं होते। अलग-अलग रचनाओं की पाठ-परंपराओं का अपना वैशिष्ट्य होता है। यह पुनः कहना अनुपयुक्त न होगा कि जो रचना जितनी लोकप्रिय होती है, उसकी उतनी ही अधिक प्रतिलिपियां होती हैं और उनके पाठ उतने ही अधिक उलझन भरे होते हैं।
पाठानुसंधान की विविध प्रविधियां कार्ल लकमैन से लेकर डीयरिंग तक एक ही मूल सिद्धांत पर विकसित हुई हैं, जो स्वविवेक एवं तर्कों तथा अनुभवों पर आधारित हैं। इन विद्वानों में परस्पर विरोध नहीं, प्रत्युत एक विकास क्रम दृष्टिगोचर होता है। इनका संक्षिप्त पर्यावलोकन करना इस आलेख की विषय वस्तु का अंश ही है।
लकमैन ने पाठालोचन की जिस पद्धति को प्रचलित किया, उसे वंशानुक्रम पद्धति जेनियोलॉजिकल मेथड कहा जाता है। इस प्रणाली ने बड़ी लोकप्रियता प्राप्त की। इस पद्धति का सिद्धांत है कि जिन प्रतियों में एक सी पाठ विकृतियां मिलती हैं, उनकी आदर्श या पूर्वज प्रति एक ही होती है और जहां समान पाठ-विकृतियां न भी मिलें, पर विशेष पाठों की उपलब्धि में प्रतियां समान हों, उनकी पूर्वज प्रति भी एक होती है। जहां विशेष पाठ भी न हां और प्रतियां समान पाठों में ही समान हों, उनकी एक पूर्वज प्रति होती है। इस प्रविधि के अनुगमन द्वारा प्राचीनतम पाठ-परंपरा की प्रतियों का पता लग जाता है और निश्चित हो जाता है कि कौन पूर्ववर्ती पाठ है और कौन परवर्ती। यह कार्य देखने सुनने में आसान लगता है, पर व्यावहारिक स्तर पर पाठानुसंधाता को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यह विधि बड़े सरल पाठ संबंधों की स्थिति में सुविधाजनक एवं कारगर हो जाती है, पर जटिल पाठ संबंधों में अनुसंधाता को अपनी स्थापनाओं और तर्कों का सहारा लेकर चलना पड़ता है।
हेनरी क्विण्टन ने इस प्रणाली को आगे बढ़ाया। इन्होंने प्रतियों के शाखा निर्धारण हेतु सिद्धांत दिया कि यदि एक प्रति का पाठ दूसरी से मिलता है, फिर वही पाठ तीसरी प्रति से मिलता है और कुछ अंश तक वह दोनों से मिलता है, पर विपरीत क्रम में वह फलशून्य या अर्द्धशून्य मिलता है तो प्रथम प्रति या तो द्वितीय और तृतीय दोनों की आदर्श प्रति है और ये दोनों एक दूसरे में से किसी की आदर्श प्रतियां नहीं हैं अथवा प्रथम प्रति द्वितीय एवं तृतीय में से एक की प्रतिलिपि और दूसरी की आदर्श प्र्रति होगी।
आगे चलकर सर वाल्टर ग्रेग ने बताया कि एक प्रकार की प्रतियां जो परस्पर समान हैं, पर दूसरे प्रकार की परस्पर समान प्रतियों से भिन्न हैं; उनके अलग-अलग समान पूर्वज होते हैं। अतः पाठों की समानता से पूर्वज प्रतियों के सुनिश्चित हो जाने की कोई नपी-तुली प्रविधि नहीं है।
आर्किबैल्ड हिल ने प्रतिपादित किया कि जहां प्रतियों के पाठ संबंध एकाधिक प्रकार से स्थापित हो सकते हैं, वहां उन संबंधों के महत्व को आकलित करने से पाठ समस्या सरल हो जाती है।
अमरीकी प्रोफेसर विण्टन ए0 डीयरिंग ने अपनी प्रविधि को उपर्युक्त सभी प्रविधियों से विशिष्ट बताते हुए उसे ‘पाठ विश्लेषण’ कहा है। उन्होंने ‘प्रति’ और ‘पाठ’ के अंतर को ध्यान में रखते हुए प्रति-परंपरा और पाठ-परंपरा को दो वस्तुएं प्रतिपादित किया। प्रति द्वारा प्रदत्त पाठ एक मानसिक तथ्य है एवं पाठ प्रदत्त करने वाली प्रति एक शारीरिक क्रिया है। प्रतियों में सुरक्षित पाठ और पाठ का संवहन करने वाली प्रतियां दोनों हीं, रचना की पाठ-परंपरा की स्थिति निर्धारण में सहायक होती है। एक वाक्य को उन्होंने इसके उदाहरण में प्रस्तुत किया है कि यदि एक प्रति में पाठ है- ज्ीम ुनपबा इतवूद विग रनउचमक वअमत जीम सं्रल कवह और दूसरी प्रति में यह पाठ इस रूप में है- ज्ीम ुनपबा इतवूद लोमड़ी का चित्र रनउचमक वअमत जीम सं्रल कवह कुत्ते का चित्र; तो प्रतियों में अंतर होते हुए भी पाठ एक ही है। इस प्रकार डीयरिंग ने पाठ की परंपरा को प्रतियों की परंपरा से भिन्न करते हुए, प्रथम का विशेष महत्व प्रतिपादित किया। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती पाठानुसंधान के आचार्यों की प्रविधियों के प्रति ऋण स्वीकार करते हुए उनकी महत्ता को भी माना है।
प्रोफेसर डीयरिंग की यह प्रविधि वैज्ञानिकता के समीप है, किंतु मेरी राय में प्रति-परंपरा को विशेष महत्व देने की आवश्यकता नहीं है। ंयथास्थान जिसकी आवश्यकता पुष्ट जान पड़ी, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, अन्यथा लोक विश्रुत बहुत सी स्थापनाएं और निष्कर्ष गौड़ हो जाएंगे, जो बहुत बार शास्त्रोक्त परंपरा अर्थात् प्रति-परंपरा को ही पुष्ट करते हैं। यहां रामचरितमानस से एक उदाहरण देना उपयुक्त होगा। किष्किंधाकांड दोहा क्रमांक दो का गीताप्रेस प्रति पाठ है-
एकु मैं मंद मोह बस कुटिल हृदय अज्ञान। पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान।।
किंतु पाठ-परंपरा और कई प्रति-परंपराओं में यह दोहा इस प्रकार चलता है-
एक मंद मैं मोहबस कुटिल हृदय अज्ञान। पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान।।
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी
गांधी महाविद्यालय, उरई
मोबाइल 9236114604
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हिंदी और उसकी बोलियों का अन्तर्सम्बन्ध

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हिंदी और उसकी बोलियों का अंतर्संबंध
डा राकेश नारायण द्विवेदी
2001 की जनगणना के अनुसार हिंदी प्रदेश में हिंदी की 48 मातृभाषाएं बोली जाती हैं। इसमें दस हजार से कम प्रयोक्ताओं की बोलियों को शामिल नहीं किया गया है। यह मातृभाषाएं उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा एवं दिल्ली में तो हैं ही, अंडमान तथा निकोबार एवं अरुणाचल जैसे दूरस्थित क्षेत्रों में भी बोली जाती हैं।
पाश्चात्य भाषाशास्त्री जार्ज ग्रियर्सन ने 1927 में भारतीय भाषा सर्वेक्षण में हिंदी प्रदेश में दो बोली समूहों – पश्चिमी हिंदी एवं पूर्वी हिंदी- को ही हिंदी की भाषाएं माना है किंतु डा सुनीति कुमार चटर्जी ने पहाड़ी हिंदी को छोड़कर चारों बोली समूहों को हिंदी के अंतर्गत स्वीकार किया है। बाद में डा धीरेंद्र वर्मा ने पहाड़ी हिंदी की भाषिक विशेषताओं को देखते हुए इसे भी हिंदी में ही माना। डा धीरेंद्र वर्मा का वर्गीकरण हिंदी भाषा विज्ञान में सर्वमान्य है, जिसके अनुसार हिंदी भाषी प्रदेश हिंदी की विभिन्न सत्तरह बोलियों से मिलकर बना है। ये सत्तरह बोलियां हिंदी के पांच बोली समूह – पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, राजस्थानी हिंदी, बिहारी हिंदी तथा पहाड़ी हिंदी – के अंतर्गत सम्मिलित है। पश्चिमी हिंदी में कौरवी या खड़ी बोली, ब्रज, बुंदेली, बांगरू या हरियाणवी तथा कन्नौजी बोलियां आती हैं तो पूर्वी हिंदी में अवधी, बघेली तथा छत्तीसगढ़ी बोलियां सम्मिलित हैं। वहीं राजस्थानी हिंदी में मेवाती, मारवाड़ी, जयपुरी तथा मालवीय बिहारी हिंदी में भोजपुरी, मगही तथा मैथिली एवं पहाड़ी हिंदी में कुमाउंनी तथा गढ़वाली बोलियां शामिल हैं। इन प्रमुख बोलियों के अतिरिक्त नाम भेद से प्रचलित अन्य बोलियां भी हिंदी भाषा की अंग हैं। जो स्थान हिंदी साहित्येतिहास लेखन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का है, वही स्थान हिंदी भाषा विज्ञान में डा धीरेंद्र वर्मा का है।
अभी 2011 की जनगणना के भाषा संबंधी आंकड़े जारी नहीं हुए हैं। अतः 2001 की जनगणना को आधार बनाना होगा, जिसके अनुसार भारत की कुल जनसंख्या के 41.03 प्रतिशत व्यक्ति हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं। इसमें मैथिली भाषा सम्मिलित नहीं है। मैथिली भाषी व्यक्तियों की संख्या 1.18 प्रतिशत है। मैथिली हिंदी की ही बोली है जो बिहारी हिंदी के अंतर्गत आती है। मागधी अपभ्रंश से यह विकसित हुई, जिससे भोजपुरी और मगही बोलियों का भी उद्गम हुआ है। हिंदी और उर्दू में भी मुख्यतरू लिपि का ही अंतर है। इन दोनों भाषाओं में इतनी अधिक भाषिक समानताएं हैं कि बहुधा लोग समझ ही नहीं पाते कि वे उर्दू शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। अतरू यदि हम उर्दू भाषी जनसंख्या- जो 5,15,36,111 व्यक्तियों के साथ 5.01 प्रतिशत है- को मिला दें तो इस प्रकार कुल 47.22 प्रतिशत जनसंख्या की भाषा हिंदी ही है। हिंदी भाषा भाषियों में सर्वाधिक दस बोली प्रयोक्ता व्यकितयों की संख्या इस प्रकार है-
1- भोजपुरी 3,30,99,497
2- राजस्थानी 1,83,55,613
3- मगही 1,39,78,565
4- छत्तीसगढ़ी 1,32,60,186
5- हरियाणवी 79,97,192
6- मारवाड़ी 79,36,183
7- मालवी 55,65,167
8- मेवाड़ी 50,91,797
9- खोट्टा/खोरठा 47,25,927
10- बुंदेली 30,72,147
यह सूची 48 की संख्या तक जाती है, जिसमें अवधी, खड़ी बोली और ब्रज जैसी साहित्यिक गरिमा प्राप्त बोलियों का भी नाम है, पर इसके प्रयोक्ता अपेक्षा.त कम रह गए हैं। मातृभाषा में हिंदी के नाम से ही 25,79,19,635 व्यक्ति अंकित हैं। जाहिर है विभिन्न बोलियों के लोगों की भाषा भी हिंदी ही दी गई है। यही नहीं, इसमें मातृभाषा हिंदी के अन्य प्रयोक्ता 1,47,77,266 अलग से हैं। बोलियों की प्रचुरता और वैविध्य को देखते हुए इनका सर्वेक्षण कार्य अलग से किए जाने की आवश्यकता है। अलबत्ता, जनगणना विभाग के इन आंकड़ों से एक मोटा अनुमान लग जाता है। हिंदी की उन्हीं 48 मातृभाषाओं को जनगणना विभाग ने जारी किया, जिनके प्रयोक्ताओं की संख्या दस हजार से अधिक है।
यदि हम संपूर्ण प्रयोक्ताओं की संख्या की दृष्टि से बात करें, जिसमें मातृभाषा वक्ता (पितेज संदहनंहम ेचमांमते) तथा द्वितीय भाषा वक्ता (ेमबवदक संदहनंहम ेचमांमते) दोनों को मिला दें तो हिंदी भाषियों की संख्या एक हजार मिलियन (सौ करोड़) होती है। मातृभाषा को अब मदर टंग पद की अस्पष्टता के कारण पितेज संदहनंहम ेचमांमते कहा जा रहा है। इससे उन बेतुके प्रश्नों से भी बचना संभव हो गया कि अगर मां और पिता अलग-अलग बोलियों के हुए तो उसकी मातृभाषा क्या होगी! जीम संदहनंहम तमहपेजमत जव जीम ूवतसकश्े संदहनंहम ंदक ेचमंबी बवउउनदपजपमे में इसी कारण हिंदी भाषियों की संख्या 960 मिलियन मानी गई है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय के तत्कालीन निदेशक प्रो महावीर सरन जैन द्वारा इसी आशय की जो रिपोर्ट यूनेस्को भेजी गई थी। इसके परिणामस्वरूपय भारतकोश पर दी गई जानकारी के अनुसार यह स्वी.त हो गया है कि संसार की भाषाओं में चीनी भाषा के बाद हिंदी का दूसरा स्थान है। मंदारिन चीनी भाषाओं में सर्वप्रमुख है। यह विश्व की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। 1,36,50,53,177 से ज्यादा लोग इस भाषा का उपयोग क‍रते हैं। चीन में जो स्थिति मंदारिन की है, वही स्थिति भारत में हिंदी की है। जिस प्रकार प्रचलित कहावत- कोस-कोस पर बदले पानी पांच कोस पर बानी- के अनुसार हिंदी भाषा क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं, वैसे ही मंदारिन भाषा क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं। हिंदी क्षेत्र की विविध बोलियों के एक छोर से दूसरे छोर के लोगों की पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत कम अवश्य है किंतु है, पर मंदारिन भाषा के दो चरम छोरों पर बोले जाने वाले क्षेत्रीय भाषिक रूपों के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता बिल्कुल नहीं है। प्रो महावीर सरन जैन द्वारा दिए गए उदाहरण के अनुसार मंदारिन के एक छोर पर बोली जाने वाली हार्बिन और दूसरे छोर और दूसरे छोर पर बोली जाने वाली शिआनीज के वक्ता एक दूसरे से संवाद स्थापित नहीं कर पाते। वे आपस में मंदारिन के मानक भाषा रूप के माध्यम से ही बातचीत कर पाते हैं। मंदारिन के इन क्षेत्रीय रूपों को लेकर वहां कोई विवाद नहीं है। पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक मंदारिन को लेकर कभी कोई विवाद पैदा भी नहीं कर पाते। सच्चाई यह भी है कि वहां राष्ट्रीय भावना के रूप में भाषा को लिया जाता है।
अपने यहां तो एक जगह जहां सारी प्रमुख भारतीय भाषाओं के विद्वान एकत्रित थे मैंने सुना कि जब अपना देश धर्मनिरपेक्ष है और उसका कोई एक राजकीय या राष्ट्रीय धर्म नहीं है तो एक भाषा का होना क्यों आवश्यक है। संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज बाईस भाषाएं समान रूप में यहां की भाषाएं हैं। उनसे मैंने निवेदन किया कि हमारा काम धर्म के बिना चल सकता है पर भाषा के बिना हम गूंगे हो जाएंगे। जब हम मातृभाषाओं को बढ़ाने के बारे में सोच रहे हैं तो साथ ही देश की राजभाषा मुख्यतः हिंदी को व्यावहारिक स्तर पर बनाने के बारे में भी अग्रगामी होना होगा। अन्यथा बहुत सी भारतीय भाषाएं कालकवलित हो जाएंगी। इस प्रकार के रुझान आलेख में दी गई तालिका में गोचरित हो रहे हैं। पता नहीं कैसे, वहां के कुछ लोगों को लगा कि मैं हिंदी को थोपने की बात कर रहा और उन्होंने जब मुझे कहा कि याद रखिए बांग्लादेश इसीलिए बना और इसे सुनकर मेरा अंतर्मन कांप उठा कि भाषा का प्रश्न अपने देश में किस तरह उलझा दिया गया है। उनका यह आरोप मुझे सही भी लगा कि हिंदी क्षेत्र के लोग एकभाषिक होते हैं, वे हिंदी के अतिरिक्त कोई भारतीय भाषा नहीं सीखते, जबकि हिंदीतर क्षेत्र के लोग द्विभाषी (दो भारतीय भाषाएं जानने वाले) ही नहीं त्रिभाषी (तीन भारतीय भाषाएं जानने वाले) भी होते हैं। यद्यपि यह आरोप उन्हीं के द्वारा लगाए गए एक अन्य आरोप के साथ विरोधाभासी हो जाता है, जब वह कहते हैं कि हिंदी कोई भाषा नहीं, वह तो अनेक बोलियों का समुच्चय है। उनके अनुसार हिंदी अलग है और मातृभाषा अलग तथा दोनों में इतना अंतर है कि एक दूसरे की बात समझ ही नहीं पाते। विरोधाभास ये कि फिर हिंदी का व्यक्ति एकभाषी कैसे रहा, वह अपनी बोली के अलावा हिंदी भी जान रहा होता है। इन विद्वानों को हिंदी पट्टी के वे लोग बड़े प्रिय होते हैं जो कहते कि हमें हमारी मातृभाषा (बोली) में पढ़ने को मिले, हिंदी में न पढ़ना पड़े।
मंदारिन के दो विभिन्न क्षेत्रीय रूपों की पारस्परिक बोधगम्यता के उपर्युक्त उदाहरण से हमारे ऐसे प्रश्न उठाने वाले लोगों को सीख लेनी चाहिए। कुछ लोग पहाड़ी और राजस्थानी एवं हिंदी की अन्य बोलियों के नमूने रखते हुए कहते हैं क्या कोई भोजपुरी या अन्य हिंदी भाषी व्यक्ति इन्हैं समझ सकता है, किंतु क्या हम नहीं देखते कि हिंदी के एक बोली रूप को दूर के हिंदी के ही दूसरे वक्ता किसी न किसी मात्रा में समझ लेते हैं। हमें यह देखना होगा कि प्रत्येक बोली के विशिष्ट संज्ञा और क्रिया रूप होते हैं, उन्हें समझना पड़ोस के वक्ताओं को भी दुष्कर होता है। हिंदी जिस खड़ी बोली का मानक रूप है, उसका यह नमूना यहां रखने से और स्पष्ट हो जाएगा-
कोई बादसा था। साब उसके दो राण्याँ थीं। वो एक रोज अपनी रान्नी से केने लगा मेरे समान ओर कोइ बादसा है बी? तो बड़ी बोल्ले के राजा तुम समान ओर कोन होगा। छोटी से पुच्छा तो किह्या कि एक बिजाण सहर हे उसके किल्ले में जितनी तुम्हारी सारी हैसियत है उतनी एक ईंट लगी है। ओ इसने मेरी कुच बात नई रक्खी इसको तग्मार्ती (निर्वासित) करना चाइए। उस्कू तग्मार्ती कर दिया। ओर बड़ी कू सब राज का मालक कर दिया।
उक्त उदाहरण में तग्मार्ती क्रिया का बोध आसान नहीं है।
यहां उल्लेखनीय है कि प्रयोग का क्षेत्र विस्तृत होने से किसी भाषा या बोली में स्थानीय तत्वों का समावेश होना स्वाभाविक है। चीनी बोलने वाले हिंदी से अधिक हैं, किंतु उसका प्रयोग क्षेत्र हिंदी से सीमित है। वहीं अंगरेजी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिंदी से भी अधिक है, किंतु उसके बोलने वाले हिंदी से अधिक नहीं हैं। पिछले पचास सालों में हिंदी भाषी व्यक्ति 26 करोड़ से बढ़कर 42 करोड़ हो गए जबकि अंगरेजी बोलने वाले 33 करोड़ से 49 करोड़ हुए। इस प्रकार हिंदी की वृद्धि दर अधिक है। भारत में अधिकांश व्यक्ति तीन भाषाएं जानते हैं। 1500 से अधिक मातृभाषाएं भारत में बोली जाती हैं। दस हजार से अधिक व्यक्तियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या 122 है। हिंदी को प्रथम भाषा मानने वाले 42 करोड़ व्यक्ति हैं, वहीं दूसरी और तीसरी भाषा के रूप में हिंदी जानने वाले व्यक्तियों की संख्या 13 करोड़ है। अंगरेजी के दावों में 2.26 लाख लोगों की मातृभाषा अंगरेजी है, वहीं 8.60 करोड़ लोगों की दूसरी भाषा और 3.12 करोड़ लोगों की तीसरी भाषा अंगरेजी बताई गई है। इनका जोड़ लगाकर ये दावेदार अंगरेजी को दूसरे स्थान पर बिठा देते हैं। दूसरी भाषा के रूप में भारतीय राज्यों की स्थिति अगर देखें तो तमिलनाडु में अंगरेजी 14 प्रतिशत तथा हिंदी 1.5 प्रतिशत प्रचलित है किंतु दक्षिण की ही अन्य भाषाओं में अंगरेजी से हिंदी बहुत पीछे नहीं है। केरल में 24.35 प्रतिशत व्यक्ति अंगरेजी जानते हैं तो हिंदी 19.07 प्रतिशत। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में हिंदी से अधिक तीन प्रतिशत व्यक्ति ही अंगरेजी जानते हैं। वहीं पश्चिम बंगाल में 2.40 प्रतिशत अंगरेजी आगे है तो ओडि़शा में हिंदी और अंगरेजी की लगभग समान स्थिति है। असम में हिंदी जानने वाले अंगरेजी से अधिक है। यह रुझान पिछले तीस सालों का है। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि हिंदीतर भाषा क्षेत्रों में जहां अंगरेजी हिंदी से अधिक प्रचलन में है, वहां इन तीस वर्षों में उन्ही की मातृभाषाओं की प्रचलन दर में गिरावट अधिक है। जनगणना विभाग की वेबसाइट पर दिनांक 25 अक्टूबर 2015 को जाने पर स्टेटमेंट पांच से पता लगा कि 1971 से 2001 तक के चार जनगणना वर्षों में हिंदी भाषियों की संख्या दर निरंतर बढ़ी है। आठवीं अनुसूची की भाषाओं के प्रयोक्ताओं की तुलनात्मक तालिका देश की कुल जनसंख्या के प्रतिशत में दृष्टव्य है-
जनसंख्या 1971 1981 1991 2001
भारत 97.14 89.23 97.05 96.56
1 हिंदी 36.99 38.74 39.29 41.03
2 बंगाली 8.17 7.71 8.30 8.11
3 तेलुगु 8.16 7.61 7.87 7.19
4 मराठी 7.62 7.43 7.45 6.99
5 तमिल 6.88 ’’ 6.32 5.91
6 उर्दू 5.22 5.25 5.18 5.01
7 गुजराती 4.72 4.97 4.85 4.48
8 कन्नड़ 3.96 3.86 3.91 3.69
9 मलयालम 4.00 3.86 3.62 3.21
10 उड़िया 3.62 3.46 3.35 3.21
11 पंजाबी 2.57 2.95 2.79 2.83
12 असमी 1.63 ’’ 1.56 1.28
13 मैथिली 1.12 1.13 0.93 1.18
14 संथाली 0.69 0.65 0.62 0.63
15 कश्मीरी 0.46 0.48 – 0.54
16 नेपाली 0.26 0.20 0.25 0.28
17 सिंधी 0.31 0.31 0.25 0.25
18 कोंकणी 0.28 0.24 0.21 0.24
19 डोंगरी 0.24 0.23 – 0.22
20 मणिपुरी 0.14 0.14 0.15 0.14
21 बोडो 0.10 ’’ 0.15 0.13
22 संस्.त .. .. 0.01 ..
अंत में हमें कहना है कि हिंदी और उसकी बोलियों से मिलकर जो हिंदी की स्थिति बनती है, वह आशा का संचार करती हैय लेकिन जब बात हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में की जाये तो चाहिए कि हिंदी अपने बड़प्पन का परिचय दे और अन्य भारतीय भाषाओं के कालजयी साहित्य को अपने यहां लाए। जबकि हम जब अंगरेजी के सापेक्ष हिंदी को देखते हैं तो लगता है कि अभी ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनने के लिए हिंदी को लंबी यात्रा तय करनी है।
एसोसिएट प्रोफेसर, शोध एवं स्नातकोत्तर हिंदी विभाग
गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन) -285001
मोबाइल 9236114604 ूूण्बमदेनेपदकपंण्हवअण्पदझकंजंऋवदऋसंदह ेमंतबीमक पद क्मबमउइमत 2015
ूूण्ेंपजलांनदरण्दमजध्स्म्ज्ञभ्।ज्ञध्डध्डींंअपतैंतंदश्रंपदऋउंपदण्ीजउ ेमंतबीमक पद कमबमउइमत 2015
ठींतंजकपेबवअमतलण्वतह झपदकपंध्हिंदी-की-उपभाशाएं-एवं-बोलियां ेमंतबीमक पद क्मबमउइमत 2015
हिंदी भाशा स्वरूप शिक्षण वैश्विकता, संपादन डॉ कमल किशोर गोयनका एवं अन्य में विजयदŸा श्रीधर का ूूण्बमदेनेपदकपंण्हवअण्पदझकंजंऋवदऋसंदह ेमंतबीमक पद क्मबमउइमत 2015
Posted onSeptember 14, 2016Leave a commenton Edit
बानपुर और बुंदेलखंड banpur aur bundelkhand
alokrashmi_1_a coolection of quotations by dr rakesh narayan dwivedi
Posted onOctober 31, 2015Leave a commentonEdit
bhaiya-apne-gaon-mein बाबूलाल द्विवेदी राकेश नारायण द्विवेदी
sthan-nam-samay-ke-sakshi राकेश नारायण द्विवेदी
Posted onOctober 31, 2015Leave a commentonEdit
पदमयी हिंदी में श्रीमद्भगवद्गीता geeta in hindi poetry jugul kishore tiwaree ips
Posted onOctober 30, 2015Leave a commentonEdit
rahi masum raza aur unke aupanyasik patr राकेश नारायण द्विवेदी
Posted onOctober 29, 2015Leave a commentonEdit
sahityik shodh me samay राकेश नारायण द्विवेदी
Posted onOctober 29, 2015Leave a commentonEdit
बुंदेली गीतगोविन्द बाबूलाल द्विवेदी संकलन डॉ राकेश नारायण द्विवेदी
Posted onOctober 29, 2015Leave a commentonEdit

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Posted by राकेश नारायण द्विवेदी at 7:54 PM No comments:
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Tuesday, February 23, 2016

बुंदेलखंड की साहित्यिक परंपरा

बंुदेलखंड की साहित्यिक परंपरा के विविध पक्ष
डाॅ राकेश नारायण द्विवेदी
बुंदेलखंड में साहित्यिक परंपरा के दो रूप दिखाई देते हैं, एक को हम मुख्यधारा का साहित्य कह सकते हैं, क्योंकि यह समूचे हिंदी अंचल में पढ़ा-समझा जाता है। यह धारा जगनिक के परमाल रासो से प्रारंभ होती है। इसे आल्हखंड के नाम से भी जानते हैं, जो बुंदेलखंड के जनजीवन से जुड़ा काव्य है। दूसरी परंपरा को यदि हम लोक साहित्य की परंपरा कहें तो प्रश्न उठता है कि फिर क्या कोई साहित्य लोकेतर भी है। सब कुछ लोक का ही तो है, किंतु बुंदेली की जो साहित्य परंपरा बुंदेली बोली में लिखित है और अपनी ही अनुभूति को अभिव्यक्त करती है, भले ही वह साहित्य के अनुशासन को न मानती हो; उसे यहां हम दूसरी परंपरा अभिहित कर रहे हैं। इस परंपरा में यहां बहुत भावपूर्ण साहित्य का सृजन हुआ है। ईसुरी इस परंपरा के प्रतिनिधि कवि हैं।
बुंदेलखंड के मुख्यधारा के साहित्य ने हिंदी की विविध विधाओं को समृद्ध किया है। यहां की साहित्यिक परंपरा एक ओर जहां राष्ट्र की मुख्य चिंताओं और सरोकारों से अपने को संलग्न ही नहीं करती, अपितु दिशा एवं नेतृत्वदायी भी बनती है। जगनिक का 12वीं सदी में रचा आल्हखंड हिंदी साहित्य की प्रारंभिक रचनाओं में अपना स्थान रखता है। जब अपभ्रंश रचनाओं का कालखंड समाप्त होता है और साहित्य की विविध प्रवृŸिायों को हिंदी में अभिव्यक्त किया जाने लगा, तभी से बुंदेलखंड में भी साहित्य की परंपरा प्राप्त होने लगी थी। विभिन्न रासो ग्रंथ बुंदेलखंड की साहित्यिक परंपरा से अविच्छिन्न रूप में जुड़ते हैं। आल्हखंड के गीत उनके घटनाकाल से ही यहां के आमजन में बहुप्रचलित रहे, पर इन्हें सबसे पहले फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर मि0 चाल्र्स इलियट ने संग्रहीत करके छपवाया था। मि चाल्र्स (1895) ने इस ग्रंथ में मात्र बाइस लड़ाइयांे का उल्लेख किया है, जबकि बहुतायत में बावन लड़ाइयों की परंपरा श्रुति से प्राप्त होती है। इतिहास से प्रमाणित होता है कि कालिंजर या महोबा के चंदेल राजा परमर्दिदेव या परमाल से कन्नौज के सम्राट जयचंद का मैत्री संबंध होने के कारण ही पृथ्वीराज ने परिमर्दिदेव चर चढ़ाई की थी। भट्ट केदार ने ‘जयचंदप्रकाश’ नाम का एक महाकाव्य लिखा, जिसमें जयचंद के बल और पराक्रम का विस्तार से वर्णन मिलता है। ‘जयमयंक जसचंद्रिका’ में मधुकर कवि ने भी इसी प्रकार जयचंद का वर्णन किया है। उस समय जिस प्रकार पृथ्वीराज का प्रभाव राजपूत राजाओं पर था, उसी प्रकार जयचंद का प्रभाव बुंदेलखंड के राजाओं पर था। जयचंद की राजधानी कन्नौज थी। जिस प्रकार चंदबरदाई ने पृथ्वीराज के शौर्य वर्णन को महत्व दिया है, उसी प्रकार भट्टकेदार और मधुकरकवि ने जयचंद की प्रशस्ति की है। 13वीं शताब्दी में इन दो राजाओं के बीच सŸााओं का ध्रुवीकरण हुआ था।
हिंदी साहित्य में जब ऐसी रचनाएं की जा रहीं थीं, जिनके कारण उस युग को स्वर्ण युग के रूप मूल्यांकित किया गया; भक्तिकाल। भक्तिकाल के सिरमौर कवि गोस्वामी तुलसीदास (सं0 1589-1680) का संबंध इसी बुंदेलखंड से है। तुलसी के जन्मस्थान के बारे में भले ही विद्वानों के बीच मतभेद हों, क्योंकि इतने बड़े रचनाकार को कोई क्यों न अपना माने! विद्वानों का कोई वर्ग इनका जन्म स्थान गोंडा तो कोई सोरों और बहुत से विद्वान राजापुर चित्रकूट मानते हैं। सबके अपने-अपने तर्क और सम्मतियां हैं, पर एक बात निर्विवाद है कि तुलसी के सर्वप्रधान ग्रंथ श्रीरामचरितमानस और अन्य रचनाओं में बुंदेली के बहुत से ऐसे शब्दों का सन्निवेश हुआ है, जिन्हें कोई बाहर का व्यक्ति समझ न पाता। तुलसी ने चित्रकूट में बहुत समय व्यतीत किया था; इसमें कोई दो राय नहीं है। तुलसी रामायण अपनी उत्कृष्टता के कारण                                                                                                                                 उŸार भारत की जनता के गले का हार बनी। तुलसी कलिकाल के बाल्मीकि और गौतम बुद्ध के बाद सबसे बड़े लोकनायक माने गए।
रीतिकाल में महाकवि केशवदास (सं0 1612-1674) इसी अंचल से हुए। तुलसी का रामचरितमानस सं0 1631 में रचा गया, जबकि केशव की रामचंद्रिका सं0 1658 में आई। तुलसी ने सामान्य जनजीवन के लिए व्यापक लोकमंगलवाद की स्थापना की, तो आचार्य केशवदास में नरभाषा (हिंदी) को अपनी प्रतिभा, सामथ्र्य एवं व्युत्पन्नता द्वारा देवभाषा (संस्कृत जैसी प्रतिष्ठा) दिलाने के लिए प्रतिबद्धता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं ‘केशव की रचना में सूर, तुलसी आदि की सरसता और तन्मयता चाहे न हो पर काव्यांगों का विस्तृत परिचय कराकर उन्होंने आगे के लिए मार्ग खोला। जैसा प्रो योगेंद्र प्रताप सिंह ने कहा है ‘आचार्य केशवदास शास्त्रकवि जबकि गोस्वामी तुलसीदास ऋषि कवि थे। बुंदेलखंड की ऋषि कवि की यह परंपरा तब तक चलती रहेगी, जब तक मानव जाति इस पृथ्वी पर शेष रहेगी। बुंदेलखंड की ऋषि संस्कृति की यह अभूतपूर्व देन सदा-सदा स्मरण की जाती रहेगी।’(गोस्वामी तुलसीदास एवं आचार्य केशवदास- बुंदेलखंड के दो महाकवि, हिंदी अनुशीलन, पृ 186 जनवरी-दिसंबर 2014) आचार्य केशवदास रीतिकाल के उद्भव काल में उपजे हिंदी खड़ी बोली के आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं और उन्हीं के प्रयासों का यह प्रतिफल रहा कि हिंदी में सन् 1600 से 1900 तक ब्रज भाषा रीति कविता हिंदी में अपने शीर्ष स्तर पर स्थित रहीं। हिंदी खड़ी बोली कविता की भाषा को काव्यभाषा बनाने में उसका कुछ-न-कुछ योगदान अवश्य है। रीतिकाल के ही प्रमुख कवि पदमाकर बुंदेलखंड से ही हुए हैं। रीतियुग में ओरछा नरेश मधुकरशाह के राजगुरु हरिराम व्यास का उल्लेख मिलता है, जिन्होंने हितहरिवंश का शिष्यत्व स्वीकार किया था। इनका काव्यकाल 1563 ई माना जाता है। बाद में ये वृंदावन ही बस गए थे और महाराज मधुकरशाह के बुलाने पर भी ओरछा वापस नहीं लौटे।
हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में बुंदेलखंड से अनेक कवि हुए हैं। मैथिलीशरण गुप्त, नाथूराम माहौर, घासीराम व्यास, मुंशी अजमेरी, सियारामशरण गुप्त, मदनेशजी आदि। मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं ने हिंदी साहित्य को व्यापक आधार भूमि प्रदान की। उन्होंने 1912 ई में भारत-भारती लिखकर देशवासियों का ध्यान वर्तमान दुर्दशा की ओर आकृष्ट किया और अतीत की गौरवमयी झांकी प्रस्तुत करके उन्हें पराधीनता की बेडि़यों से मुक्त होने की ओर प्रोत्साहित किया। मैथिलीशरण गुप्त ने अपने साहित्य में इतिहास की सभी प्रमुख युगीन घटनाओं पर अपनी लेखनी चलाई है।
आधुनिक काल के राष्ट्रीय भाव को केंद्र में रखकर साहित्य सृजन करने वाले बुंदेलखंड से संबद्ध साहित्यकारों में वियोगी हरि (छतरपुर), निबंध एवं एकांकीकार डाॅ रामकुमार वर्मा, उपन्यासकार वृंदावनलाल वर्मा आदि का नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने बुंदेलखंड की संस्कृति और प्रकृति को केंद्र में रखकर साहित्य सृजन किया। समीक्षक एवं लेखक लाला भगवानदीन का प्रारंभिक जीवन बुंदेलखंड में ही बीता था, जो बाद में छतरपुर से काशी चले गए थे। उनकी रचनाओं में बुंदेलखंड की संस्कृति और धरती से मोह प्रतिबिंबित हुआ है। यहां की ऋतुआंे और त्योहारों का चित्रण ‘दीन’ जी के साहित्य में मिलता है। वृंदावनलाल वर्मा हिंदी के उन साहित्यकारों में हैं, जिन्होंने हिंदी साहित्य को उपन्यास, नाटक और कहानी विधा से सतत समृद्ध और गौरवान्वित किया है। वर्माजी का सर्वाधिक प्रसिद्ध उपन्यास ‘झांसी की रानी लक्ष्मीबाई’ 1846 ई में प्रकाशित हुआ। यह ऐतिहासिक उपन्यास है, किंतु इतिहास के साथ-साथ कल्पना, लोकजीवन उसकी आशा, आकांक्षा और भावनाओं का अद्भुद संगम इस उपन्यास में मिलता है। वर्माजी ने इस उपन्यास के परिचय में स्पष्ट लिखा है ‘उपन्यास लिखूंगा ऐसा जो इतिहास के रंग रेशे से सम्मत हो और उसके संदर्भ में हो। इतिहास के कंकाल में मांस और रक्त का संचार करने के लिए मुझको उपन्यास ही अच्छा साधन प्रतीत हुआ।’ वर्माजी ने उपन्यासों में बुंदेलखंड को अमर कर दिया है। उनके अधिकांश उपन्यास बुंदेलखंड से संबंधित हैं। बुंदेलखंड का समस्त वैभव उनके उपन्यासों में स्वाभाविकता के साथ अंकित है। वे यह दिखाना चाहते थे कि यहां की प्रकृति, झीलें, नदियां जैसी मनोहर हैं, यहां के पहाड़ व मैदान भी वैसे ही मनोहर हैं। बुंदेलखंड का इतिहास भी शक्तिशाली और स्फूर्तिदायक है। यहां के जीवन को मूर्त करने के लिए इन्होंने अपनी रचनाओं में बुंदेली शब्दों, लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग किया है।
बुंदेलखंड के समकालीन कथाकारों में मैत्रेयी पुष्पा अग्रगण्य हैं। प्रसिद्ध समीक्षक और ‘हंस’ के संपादक रहे राजेंद्र यादव ने कहा है, अगर मैं कहता हूं कि स्वतंत्रता के बाद रांगेय राघव और फणीश्वरनाथ रेणु के साथ मैत्रेयी तीसरा नाम जो कथा साहित्य में धूमकेतु की तरह आया है, तो न किसी पर अहसान कर रहा हूं, न नए नक्षत्र की खोज का श्रेय लेना चाहता हूं। सिर्फ उस लेखन से जुड़ना चाहता हूं, जो हिंदी के संकुलित कलम का विस्तार कर रहा है।(कस्तूरी कुंडल बसै, मैत्रेयी पुष्पा, पृ 176)
भारत का हृदयस्थल बुंदेलखंड त्याग और बलिदान का क्षेत्र है। यह क्षेत्र अपनी संस्कृति, कला और भाषायी अस्मिता के लिए विशिष्ट महत्व रखता है। संस्कृत साहित्य में श्रेष्ठतम ग्रंथ रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि, अष्टादश पुराण और महाकाव्य के रचनाकार वेदव्यास भी इसी बुंदेली भूमि की देन है। बुंदेलखंड के शासक स्वयं कवि तथा कविता प्रेमी रहे। इसीलिए उनके राजदरबारों में कवियों को सम्मान और आश्रय प्राप्त था। राजा छत्रसाल, इंद्रजीत सिंह, मधुकरशाह, वीरसिंह, जगतसिंह, हिंदूपति, हिम्मत बहादुर तथा पन्ना नरेश इन गुणग्राही शासकों में प्रमुख थे।
बुंदेलखंड की दूसरी साहित्यिक परंपरा को पहचान बाद में मिली। अभी भी यह बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि रीतिकाल में जब ब्रजभाषा साहित्य की मुख्य भाषा के रूप में पूरे हिंदी क्षेत्र में प्रचलित थी और साहित्य मुख्यतः काव्य में रचा जा रहा था, गद्य की भाषा की अभी पड़ताल भी नहीं हो पाई थी और खड़ी बोली का अभ्युदय गद्य भाषा के लिए नहीं हुआ था, उस समय बुंदेली गद्य यहां की राजभाषा थी। इतिहास में राजाओं के अनेकों पत्र सुरक्षित हैं, जिनमें ललित गद्य का प्रयोग मिलता है। बुंदेली लोकगीतों का भी साहित्यिक परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने एक स्थान पर लिखा है ‘ग्राम्य गीत आर्येतर सभ्यता के वेद (श्रुति) हैं। (छŸाीसगढ़ी लोकगीतों का परिचय, भूमिका पृ 5) लोकगीत रचने वाले का नाम भी नहीं प्राप्त होता। लोक ने सामूहिक रूप में ही इन्हें रचा और लोक को ही समर्पित कर दिया। किसी व्यक्ति को अपना नाम आगे करने की लालसा नहीं। यह विशेषता भक्त कवियों में भी मिलती है। इनमें आस्था है, विश्वास है और ईष्र्या-द्वेष नहीं है। लोक की यह बहुत बड़ी विशेषता है, गीत-संगीत ही नहीं, समूची संस्कृति में यह लोक अपना बहुमूल्य योगदान देता है और कोई व्यक्ति इसका श्रेय नहीं लेता। लोकगीतों के प्रखर संप्रेषण के कारण लोक से पृथक विरक्त संन्यासियों के लिए लोकगीत सुनने का निषेध तक किया गया ‘न शृणुयाद् ग्राम्यगीतानि’ लेकिन लोक की जो व्याप्ति और स्वीकार्यता है, उसका महत्व भी शास्त्रकारों ने निरूपित किया है और इसीलिए कहा है ‘यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्ध ना कथनीयम् नाचरणीयम्’ आचार्य चाणक्य ने लोक की महिमा गाई है कि जो शास्त्र को जानता है; लोक को नहीं जानता, वह मूर्खतुुल्य है’ - शास्त्रज्ञोऽप्य लोकज्ञो भवेन्मूर्खतुल्यः।
लोकगीत अपने को कला, काव्य, नृत्य अथवा संगीत के नियमों नहीं बांधता। इनमें कृत्रिमता नहीं होती। लोकजीवन का सुंदर प्रतिबिंब इनमें दिखता है। बुंदेलखंड के लोकगीतों ने प्रकृति को सुकुमार सौंदर्य एवं प्रेम को तो वाणी दी ही है, वे व्यक्ति के विविध संस्कारों और अवसरों को तद्युगीन परिवेश के साथ उपस्थित कर देते हैं। इनमें वेदना के कई रूप प्रकट होते हैं। विदा के समय एक बेटी कहती है-
कच्ची ईंट बाबुल देहरी न धरियो बेटी न दियो परदेस मोरे लाल।
डोला में बैठी बन्नी बिसूरे, का हमने कीने कसूर मोरे लाल।
भइया भाभी खों दीनी चंदन अटरियां, हमखों दई परदेस मोरे लाल।
रोवत रोवत डोला उठा लए, घर सें दए हैं निकार मोरे लाल।
गैला में मिल गए गांव के बरेदी, एक संदेशो लयं जाव मोरे लाल।
जा कइयो तुम हमरी माई सों, करो जिन सोच बिचार मोरे लाल।
हमरे खेलत की धरी हैं पुतरियां, गंगा में दैहें सिराय मोरे लाल।
इतनी सोच बहनी मन मे न ल्याओ, काए देहें गंगा बहाय मोरे लाल।
अपनी पठाई बहनी और की बुलाई, दुनिया की जेई है रीत मोरे लाल।
हर त्योहार और मांगलिक अवसर पर बुंदेली में ऐसे भावप्रवण लोकगीत उपलब्ध हैं, उन्हें आदिवासी लोककला अकादमी भोपाल द्वारा संग्रहीत करके प्रकाशित करा दिया गया है।
ईसुरी की फागों से बुंदेलखंड में भला कौन अपरिचित होगा-
रामायण तुलसी कही तानसेन ज्यों राग।
सोई या कलिकाल में कही ईसुरी फाग।।
ईसुरी की परंपरा को गंगाधर व्यास ने आगे बढ़ाया। इनके अतिरिक्त राठ के ख्यालीराम भी हुए, फागो के क्षेत्र में यह बुंदेली त्रयी के नाम से विख्यात है। ठेठ बुंदेली का पुनर्जागरण रामचरण हयारण ‘मित्र’ की कविता में देखा जा सकता है। ग्यारह वर्ष की अवस्था में रामधारी ंिसंह दिनकर से प्रशंसा प्राप्त कर चुके उरई के शिवानंद मिश्र बुंदेला का बुंदेली लोक साहित्य में विशिष्ट स्थान है। ‘अपनौ देस बुंदेलन वारौ’ नामक कविता में उनका राष्ट्रीय वीर रस का भाव झलकता है। हिंदी के प्रगतिवादी आंदोलन से प्रभावित होकर बुंदेली में रतिभान तिवारी ‘कंज’ ने विषमता के खिलाफ अपनी रचनाएं प्रस्तुत की। बुंदेली मंच के लोकप्रिय कवि जगदीश सहाय ‘जलज’ ने काव्य, नाटक एवं कहानियों के माध्यम से सामंतवादी प्रवृŸिा का जमकर विरोध किया। संतोष सिंह बुंदेला भवानी प्रसाद मिश्र से प्रेरणा पाकर चैकडि़या, फाग, सवैया आदि के माध्यम से बुंदेली गीत परंपरा को समृद्ध किया। अवध किशोर श्रीवास्तव ‘अवधेश’ ने दो दर्जन से अधिक पुस्तकें बुंदेली में लिखी। इन प्रसिद्ध पंक्तियों को इन्हीं ने लिखा है- बुंदेलों की सुनो कहानी आग यहां के पानी में। पानीदार यहां का पानी आग यहां के पानी में। बुदेली रचनाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए अवधेश सम्मान प्रदान करते हैं। डाॅ दुर्गेश दीक्षित, गुणसागर सत्यार्थी, रामरूप स्वर्णकार ‘पंकज’, डाॅ रामस्वरूप खरे, बुंदेली शब्दकोशकार डाॅ कैलाश बिहारी द्विवेदी एवं डाॅ रामनारायण शर्मा, कैलाश मड़वैया, डाॅ कामिनी, बाबूलाल द्विवेदी, आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल इत्यादि रचनाकार अपनी-अपनी तरह से बुंदेली साहित्य की परंपरा को आगे ले जाने के लिए सतत प्रयत्नशील हैं।
बुंदेलखंड में साहित्यिक परंपरा को प्रकाशित करने में यहां की पत्र-पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। 1 अक्टूबर 1940 ई से ‘मधुकर’ पाक्षिक पत्रिका बनारसीदास चतुर्वेदी जैसे मूर्धन्य संपादकाचार्य के संपादन में निकली। कृष्णानंद गुप्त ने ‘लोकवार्ता’ त्रैमासिक के संग्रहणीय अंक जून 1944 से निकाले। ‘बुदेली वार्ता’ कन्हैयालाल ‘कलश’ के संपादन में निकली। डाॅ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से ‘ईसुरी’ का प्रकाशन हुआ। वर्तमान में बुंदेली बसंत (छतरपुर), बुंदेली दरसन(हटा दमोह), अथाई की बातें (छतरपुर) जैसी पत्रिकाएं बुंदेली साहित्य और संस्कृति की संवाहिका का सबल माध्यम बनी हुई हैं।
बुंदेली साहित्य की परंपरा को बढ़ाने वाले कुछ उल्लेखनीय नाम इस आलेख में छूट गए होगे, लेकिन प्रवृŸिायों का समाहार स्थूल रूप में किया गया है। आलेख के प्रतिपाद्य में बुंदेली परंपरा का परिचय कराना ही अभीष्ट है।
एसोसिएट प्रोफेसर, शोध एवं स्नातकोŸार हिंदी विभाग
गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन) उप्र
मोबाइल 9236114604
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Tuesday, February 2, 2016

पर्यावरणीय चिंता : नहीं अतिभोग, मात्र सदुपयोग

पर्यावरणीय चिंता : नहीं अतिभोग, मात्र सदुपयोग
                                                                             डाराकेश नारायण द्विवेदी
भूमि, जन और संस्कृति से मिलकर ही किसी राष्ट्र काअस्तित्व रहता है। भूमि किसी भी देश का अपरिहार्यआवश्यक उपादान है। इसके बाद ही अन्य तत्वों का योगदानआता है। देश और उसमें निवसित नागरिकों का विकासउसके भौगोलिक संसाधन-जल, हवा, पर्यावरण, खनिजसंपदा, मृदा इत्यादि पर निर्भर करता है। कोई व्यक्ति या उसकेद्वारा विकसित नव्यतम प्रौद्योगिकी भी इस संपदा को निर्मितनहीं कर सकता है। यह पूरी तरह प्राकृतिक है। हम जानते हैंकि पानी केअभाव में मानव जीवन ही नहीं प्राणी मात्र परसंकट हो जाता है। मनुष्य पेयजल का आविष्कार या उसकाविकल्प नहीं खोज सकता है। यह प्रकृति पर विजय करनेजैसा होगा। यही स्थिति वायु, मिट्टी, पेड़-पौधे, अन्न औरहर्बलों के साथ है।
वर्तमान में व्यक्ति ने अपनी महत्वाकांक्षा के कारण दुनिया केइन प्रकृति प्रदत्त अनमोल उपहारों का उपभोग किया है,लेकिन इस क्रम में वह इतना आगे बढ़ गया कि उसे अंदाजाही न रहा कि वह इनका उपभोग कर रहा है या उनको निचोड़रहा है। महत्वाकांक्षा और सब कुछ अपने भर के लिए जुटानेकी कोशिश में उसने प्रकृति को रौंद डाला है। हमें स्थिति कीभयावहता को समझना होगा और तत्काल इसके निवारण केलिए कदम उठाने होंगे। समस्या को चिन्हित करने कीआवश्यकता सर्वप्रथम है, तत्पश्चात समाधान के लिए बढ़नाआवश्यक होगा।
भारतीय रहन-सहन के मूल तरीक़ों में इस समस्या कासमाधान सन्निहित है। हमारे पूर्वज-ऋषि प्रकृति के सबसेअधिक समीप रहे। उन्होंने समझा था कि प्रकृति के करीबरहना मानव की विवशता है। अथर्ववेद कहता है 'माता भूमि:पुत्रोहम् पृथिव्या:' पृथ्वी हमारी माता है और हम इसके पुत्र हैं।हमने प्रकृति पूजा को धर्म और नैतिकता से सहयुक्त कर दियाथा, जिससे प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति का सम्मान करे, उसकाअतिक्रमण न करे। अपने धर्मऔर संस्कृति की यह बड़ीविशेषता है।
1890 ई में एक अंग्रेज महिला के आस्ट्रेलिया भ्रमण के दौरानसर्वथा निरुपयोगी एवं हानिकर जलकुंभी नामक लता कीकथित शोभा से मोहित होकर भारत में उसे तत्कालीन ब्रिटिशसरकार ने लगवा दिया। इस जलकुंभी को निर्मूल करने कीसमस्या अलग से बन गई है। हम पश्चिम की हर वस्तु को प्रेयरूप में देखकर उसे पाने के लिए लालायित होने लगते हैं, यहहमारी हीनभावना को दर्शाता है। दुनिया के विकसित देशकभी न गलने वाला सबसे अधिक कचड़ा एशिया तथाअफ्रीका के समुद्री किनारों पर जाल जाते हैं और पर्यावरण केसम्मेलनों में बड़े-बड़े उपदेश देते हैं किभारत को गाय भैंसजैसे गोबर करने वाले जानवर बंद करने चाहिए, क्योंकि इनसेनिकली मीथेन गैस कथित रूप से ओजोन परत को क्षतिपहुंचाती है। इन बातों को देखते हुए लगता है कि पर्यावरणीयप्रदूषण की समस्या समझने के स्तर पर ही विकराल बन गई हैऔर न सुलझाने पर कदाचित् प्रलय संबंधी पौराणिकभविष्यवाणी सच होने में तनिक भी संदेह नहीं रह जाएगा।
बाहर के देशों की जो समस्या है, वह तो है ही विकट; अपनेदेश में लोग कई तरह से मिट्टी, जल, वायु, पेड़-पौधों तथाखनिज संपदा को अपार क्षति पहुंचा रहे हैं। यह जो अध्यात्मऔर आध्यात्मिक प्रवचनों का विस्फोट हो रहा है, उससे यहगलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि शहर के लोग धार्मिक  याआध्यात्मिक वृत्ति के बन रहे हैं। हमने गंगा जैसी नदी कीपवित्रता कोभी बख्शा नहीं है। रासायनिक उर्वरकों के प्रयोगसे मृदा की मृदुता जाती रही है। मिट्टी को व्यक्ति किसीकारखाने में बना नहीं सकता है। हम कह सकते हैं-
वस्तु सकल उपभोग हों, पर न करें तमाम।
वक्त परे पै ना मिलै माटी खरचै दाम।।
पानी के बारे में कविवर रहीम का दोहा प्रसिद्ध ही है-
रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे मोती मानुस चून।।
अब हमारी पीढ़ी के लोग भी पुराने अनाज, सब्जी तथा फलोंके स्वाद को तरस गए है। जैविक खाद को हरित क्रांति ने 'हर'लिया है। अभूतपूर्व रूप से फरवरी मार्च में भी अब बर्फ गिरनेलगी है। गर्मी के मौसम में अनेकों बार मौसम संबंधीकीर्तिमान बनते टूटते हैं। सरकारी स्तर पर पारंपरिक पेड़ों कीबजाय यूकेलिप्टस जैसे हानिकारक विदेशी पेड़ों का रोपणकमीशन प्राप्ति का साधक जो है। विदेश में जाकर कुछ लोगवहां की हर चीज में देवत्व का वास समझते हैं, यही नहीं वेअपने यहां के संसाधनों को कूड़ा भी मानते हैं। ऐसे लोगों कीमानसिकता को कैसे बदला जाये?
केचुआ मिट्टी की नाड़ी है, जिसका खेतों में दर्शन ही दुर्लभ होगया है। हम गांव से जुड़े रहने वाले लोग अपने बचपन केसमय को जब याद करते हैं तो पाते हैं बहुत से जीव-जंतु जोमिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाते है, अब दिखते नहीं। गीध पक्षीजो दूषित पर्यावरण की सफाई करने में महती योगदान करताहै, गायब हो गया। धरती पर तो जैसे पर्यावरण बिगड़ने सेअत्याचार हो रहा है। धरती की कराह सुनकर अब तो ऐसे रामकी तलाश है, जो खर, दूषण, ताड़का और रावण जैसेपर्यावरण की क्षति कर रहे दानवों का संहार कर सकें। यहराम अकेले होने से भी काम न चलेगा। घर-घर राम हो, जोसबसे पहले अपने ही अंदर के रावण को मारे। हम स्वयं अपनेदोषों को दूर करें। प्रकृति की सुषमा का सम्मान करें औरन्यूनतम वांछित उपयोग करते हुए उसे भावी पीढ़ी के लिएसुरक्षित रखे, तभी 'मनभावतो धेनु पय स्रवहीं' संभव होपाएगा। गांधी नामक उस दूरदर्शी महात्मा का वाक्य बार-बारदोहराने योग्य है कि 'पृथ्वी हरेक की जरूरत पूरी कर सकतीहै, लालच एक का भी नहीं' तमिल कहावत है, हमें 'मक्खन हैघी चाहिए'। इस लालच से दूर रहना ही होगा, कोई और चारानहीं दुनिया के पास। हमारे पूर्वज भोग की नियति को बहुतपहले समझ लिए थे, जिसे दुनिया अब समझ रही है।ईशावास्योपनिषद का पहला मंत्र है लालच मत करो, यह धनकिसका हुआ। अत: त्यागपूर्वक उपभोग करो। हम जितनाअपने देश और समाज से ग्रहण करें, उससे अधिक उसेलौटाएं भी, तभी यह दुनिया बच पाएगी। हमारे पुरखों ने इसेअगर न बचाया होता तो हमें भी यह इस रूप में न मिलती।
बुखार होने पर हम क्या करते हैं, पहला पट्टी करते है, जिससेबुखार बढ़कर कोई अंग क्षतिग्रस्त न कर दे। दूसरा तरीका है,जांच कराते हैं, दवा लेते हैं, इंजेक्शन लगवाते हैं आदि। तीसरातरीका हैशरीर काशोधन करते हैं, शोधन करने के लिए आधाउपवास करते हैं यानि जो अति इस शरीर के साथ हुई है,उसका त्याग करते हैं। जितनाशरीर को जिंदा रखने के लिएजरूरी है, उतना और वैसा भोजन लेते हैं। जो ऐसा नहीं करतेहैं, वे अपनी पीडा को दूर नहीं कर पाते या जो इस पथ्यापथ्यको भुला देते, उन्हैं रोग फिर जकड़ लेता और अगली बार कईगुने वेग से और असाध्य बीमारियों तक से दो चार होना पड़ताहै। पृथ्वी के साथ भी कुछ ऐसा ही है। कार्बन उत्सर्जन रोकनेकी बात करना, पट्टी करने जैसा काम है। दवा लेने, जांचकराने जैसे दूसरे सारे उपाय वैकल्पिकसमाधान हैं, यह स्थायीइलाज नहीं। उपभोग की अति की जगह, दुपयोग को हमेशाकी आदत बना लेना, आधे उपवास पर रहने जैसा काम है।जब तक यह शोधन कार्य चलता रहेगा, शरीर शोधित होतारहेगा। यह सर्वश्रेष्ठ समाधान है।
सौ वर्ष से अधिक हुए, तब गांधी जी ने मशीनों की बुराई कोसमझ लिया था, क्योंकि वह भारत की मूल सभ्यता से जुड़ेथे। उन्होंने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' सभ्यता को असाध्यरोग कहा। मशीनों को जहर मिटाने की जहरीली दवा जैसामाना। बड़े-बड़े ढांचों की बजाय, छोटे-छोटे ढांचे और बड़ी-बड़ी मशीनों की बजाय, छोटे से चरखे और कुटीर उद्योगों कोबेहतर माना। अपने लिए छोटे-छोटे काम चुने। एकादश व्रततय किए, गांव को अपने आप में गणतंत्रऔर संयम, सादगीऔर स्वावलंबन को स्वतंतत्रता और प्रकृति दोनों के संरक्षणका औजार माना।
अपव्यय और कंजूसी में अंतर होता है। जूठन न छोड़नाकंजूसी नहीं, अपव्यय रोकना है। गांव में यह जूठन मवेशियोंके काम आ जाता हैअथवा खाद बनता है। शहरों में ऐसाभोजन कचरा बढ़ाता है। हमें चाहिए कि जिस चीज काअधिक प्रयोग करते हों, उसके अनुशासितउपयोग का संकल्पलें।
यदि हम यह सब नहीं करेंगे तो मजबूर प्रकृति तो मानव कृत्योंका नियमन करेगी ही। जलवायु परिवर्तन के इस दौर को हमेंइसी रूप में लेना चाहिए। हमें जानना चाहिए कि प्रकृति अपनेही सिद्धांतों को मानती है और दूसरों से उनका नियमन करानेकी क्षमता भी रखती है।
एसोसिएट प्रोफेसर, शोध एवं स्नातकोत्तर हिंदी विभाग,
गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन)
मो 9236114604
Posted by राकेश नारायण द्विवेदी at 7:55 PM No comments:
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कित्ती ज़रूरी : मानक बुंदेली


कित्ती ज़रूरी : मानक बुंदेली
डा राकेश नारायण द्विवेदी
मानक कौ आशय है शुद्ध, श्रेष्ठ या नीकी, आदर्श यापरिनिष्ठित। मानक भाषा याने श्रेष्ठ भाषा। पै ईकौ मतलब जौनइयां कै जो भाषाएं मानक नइयां वे अशुद्ध या हेय भाषा होगइं। वास्तव में तौ कौनउं भाषा हेय होतइ नइयां। भाषा खोंसमाज अरजित करत है। ईसें बा हेय कैसें हो सकत। इतैमानक भाषा कौ मतलब एकरूपता सें है। कैउ बोली रूपन मेंसें कौनउं भाषा कौ जब एकरूप बनाकें सर्वस्वीकृत कर लओजाबै, तौ उऐ मानक या स्टेंटर्ड भाषा मानो जान लगत है।भाषा के मानक रूप सें ऊ भाषा के दूसरे कैउ रूपन के प्रयोगकरबे वारन खों आसानी हो जात है।
कौनउं बड़ी बोली या भाषा के भौत से बोली रूप जनसामान्यमें प्रचलित होत हैं। अपनी बुंदेली बोली के सोउ ऐसे कैउ रूपप्रचलित हैं। बुंदेलखंड के जालौन जिला जां सें बुंदेली भाषाकौ प्रयोग होबौ सुरू होत, ऊमें कानपुर जिला सें लगे गांवन की बुंदेली भाषा पै कन्नौजी कौ असर है तो राठ छेत्र कीभाषा लुधयांत बुंदेली कई जात है। आगें बढ़कें पूरब में झांसीऔर ललितपुर, टीकमगढ उर छतरपुर में खांटी या सुद्ध बुंदेलीकौ प्रयोग होत है। खांटी या सुद्ध बुंदेली कैबे कौ आसय है कैऊ पै कौनउं अन्य भाषा कौ असर भौतइ कम हो पाओ है। जातरा सें बुंदेलखंड के बीच के जिलन की भाषा खाटी बुंदेलीआए। महोबा, हमीरपुर, चित्रकूट, बांदा, दतिया, ग्वालियर,विदिशा, सागर, पन्ना, दमोह आदि जो जिले हैं, इतै की बुंदेलीपै उनकी सीमावर्ती बोलियन कौ जादा असर दिखात है।जाहिर है कै जी सब्द कौ जौन रूप इत्ते बड़े बुंदेलखंड में एकजगां होत, ठीक वैसउ रूप दूसरे छेत्र में प्रयोग नइं होत।बल्कि एसो सोउ होत कै एक जगां कोनउं चीज खों कछु कइजात, बेइ चीज खों बुंदेलइखंड की दूसरी जागां कछु औरकओ जा रओ। जेइ से बुंदेली के कैउ रूपन खों भिन्न भिन्ननामन सें भाषा विज्ञानियन ने पुकारो है , जैसें- पवारी,लोधांती, खटोला, बनाफरी, कुंडी, निभट्टा, भदावरी, कोसी,नागपुरी आदि।
भाषा के कैउ अलग अलग रूपन के प्रयोग सें कोनउं बात खोंठीक तरा सें समजबे में कभउं कभउं परेशानी होत है।पत्राचार, शिक्षा, सरकारी कामकाज उर सामाजिकसांसकिरतिक आदान प्रदान में समान स्तर पै प्रयोग करबे केलाने मानक भाषा की जरूरत निस्संदेह है, पै के पैलें हमें कछुबातन पै विचार कर लओ चइए जीमें कछु ऐसी हैं।
खड़ी बोली हिंदी की मानक भाषा बन गइ। भारतेंदु युग सेंहिंदी गद्य कौ प्रारंभ भऔ, ऊ समय की खड़ी बोली में तरातरा के रूपइ नइ दिखात ते, बा अपने सुरूआती दौरउ मेंहती। राजा सिवप्रसाद सितारेहिंद ऊ खड़ी बोली के पक्षधरहते, जीमे अरबी फारसी के भी सब्द खूबइ शामिल रैबें, लेकिनराजा लक्ष्मण सिंह उर इंशाअल्ला खां जैसे लोग सुद्ध उरतत्सम हिंदी के पक्षधर हते। बाद में आचार्य महावीर प्रसादद्विवेदी नें अपनी पत्रिका 'सरस्वती' के संपादन के माध्यम सेंखड़ी बोली खों खूबइ मांजो। उनने नए नए विषयन पे लिखबेखों रचनाकारन खों प्रोत्साहित करो। सिथिल भाषा के सिल्पखों कसो। प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर कौ नाम आचार्यद्विवेदी ने बदलो, पैले ईको नांव पंचों में परमेश्वर रखो गओतो। हमें जा सोउ नइं भूलने के ई समय तक आउत आउतखड़ी बोली पूरे हिंदी छेत्र, जीमें हिंदी की सब बोलियन केसाहित्यकार सामिल हैं, की साहित्यिक भाषा बन गई ती। जोब्रजभाषा साहित्य के केंद्र मेंहती, बा अब नइं रइ। सोउ अवधीभाषा खों भी जो गौरव मलिक मोहम्मद जायसी उर गोस्वामीतुलसीदास ने पोंचाओ, बौ भी नइं रओ। जे भाषाएं गद्य कीमाध्यम कभउं बनइ नइं पाइ तीं। खड़ी बोली गद्य के अनुकूलभाषा समजी गई। आचार्य द्विवेदी और उनके मंडल केरचनाकारन ने खूबइ जादा उर बड़ी बड़ी रचनाएं ई भाषा मेंकरीं। इनसें उनें खुद भी भौत प्रसिद्धि मिली। अपनइ छेत्र केचिरगांव निवासी मैथिली शरण गुप्त बारह बरस याने दो बारराज्यसभा के सदस्य बने। बाद में मध्य प्रदेश के सेठगोविंददास उर बिहार के रामधारीसिंह दिनकर भी जेइ सदनके सदस्य भए। कविता के छेत्र में भारतेंदु मंडल केसाहित्यकारन ने, ऊके बादद्विवेदी युग, छायावाद युग,प्रगतिवाद, प्रयोगवाद उर नई कविता की रचना भाषा कीरचना के रूप खड़ी बोली खूब फली फूली। जेइ नइं पैली बेरनाटक, एकांकी, उपन्यास, कानी, निबंध, आलोचना, पत्र,संस्मरण रिपोर्ताज रेखाचित्र जैसी गद्य विधान की भाषा खड़ीबोलियइ बनी। हमाओ कैबे कौ मतलब है, जब भी कोनउंभाषा में विपुल साहित्य रचना करी जान लगत उर ऊ भाषाखों शासन अपनाउन लगबै तौ उऐ मानक करे जाबेआवस्यकता महसूस होन लगत। अपुन सब जनें सोचो कैअपनी बुंदेली बोली में इत्ती साहित्य रचना का अबै हो रई। ईके संगै संगै बाद में १४ सितंबक १९४९ खों  खड़ी बोली केरूप में मानकीकिरत हिंदी भाषा देस की राजभाषा सोउ बनगई, जासें जो भी सरकारी कामकाज हंदी में होबै, बौ सोउ जेईभाषा में निबटाओ जा रओ, बौ चाए अंगरेजी सें अनुवाद केरूप में होए, चाए मौलिक। खड़ी बोली जेइ सें मानक भाषाबन पाई है।
बुंदेली भाषा की जो स्थिति अबै है, ऊके देखत भए चाइए कैजादां सें जादां गद्य पोथियां ई बोली में रची जाबें। जित्तो जादागद्य साहित्य बुंदेली में लिखो जैए, उत्ती तरा की भावभूमि उरसब्द भंडार की बढ़ोत्तरी होत जैए। कोनउं जागां लड़का खोंलरका कई जात, ओइए कउं मोड़ा तौ कउं लला उर कउंटुरका ईसें कौनउं समस्या नइयां। जौ तो और अच्छो आए।बुंदेली की प्रकृति प्रभावित भए बिना कैउ तरा के सब्दन खोंअगर साहित्य की भाषा में प्रयोग करो जाबे तो अपनी भाषाखों पढ़बे समजबे की उतकंठा पाठक के अंदर जगै। ई केअलावा तरा तरा के सब्द प्रयोगन सें भाव वैविध्य कौ विस्तारहोत। कैउ सब्द तौ ऐसे हैं कै ऊके लाने हमें अंगरेजी भाषा पैनिर्भर होने पड़त, जैसें बफे सिस्टम में खाबे के लाने हिंदियउमें सब्द नइ मिलत, लेकिन कोउ ने ई के लाने बड़ो नौनो सब्ददओ है, 'ठड़भोज'। जौ सब्द 'बंदेली दरसन' के कोनउं अंक मेंप्रकासित भओ है। ई तरा सें कैउ सब्द हैं, 'भइया अपने गांवमें' (बाबूलाल द्विवेदी) पोथी के संपादन के समय एक सब्दपड़ो (रोटी) पइं, जौ सब्द बुंदेली में खूब प्रचलित सब्द है। ईकौ उल्था या बदल सब्द हिंदियऊ में नइं मिलत। कैबे कौमतलब है के बोलियन सें भाषउ समृद्ध होत है। ईसें मोरीविनती है के बोलियन के प्रवाह खों रोको ना जाबै, जीखों जोसब्द उर सिल्प नीको लगबै, बौ उए प्रयोग करबै। गद्य या पद्यकौ अनुसासन और भाषा की प्रकृति उर लय ना टूटबे बस।
ईसें हमें लगत है कै बुंदेली भाषा कौ मानक रूप करबे कीअबे जरूरत नइयां, पै बुंदेली लिखबे के लाने ई की वर्तनी खोंमानक बनाबे की जरूरत अवस्य है। कभउं कभउं सब्दन खोंकैउ तरा सें लिखबे पे अर्थ भ्रम हो जात है। बुंदेली की वर्तनीखों एकरूप करबे में हमें हिंदी की वर्तनी के अनुरूप बढ़ोचइए। सबसें बड़ी जरूरत तौ जा बात की है कै हम अपनेमौड़ी मौड़न खों बुंदेली के प्रयोग करबे में हीन भाव पैदा नकरबें। काए सें के विदेसी भाषा तौ व्यापार के लाने जरूरी है,राजभाषा सरकारी कामकाज के लाने, पै मातृभाषा स्वयं केसंस्कारन के लाने जरूरी होत है। ई के प्रयोग करबे में हमेंसरम न आव चइए। हम लोग देखत हैं कै पूरबी लोग चाए देसमें कोनउं जागां रैबें या चाए विदेस में रैबें, जब वे आपस मेंमिलत हैं तौ अपनी भोजपुरी में बोलत-व्यवहारत हैं। जेइस्थिति और बोलियन-भाषन की है। हमने सबसें जादां अपनीबोली के लोगन खों ई बोली के प्रयोग करबे में संकोच करतदेखो, ईसें अपनी संतानें तौ दुर होतइ चले जैंए। हाल मेंओरछा में महाराजा मधुकर शाहजू के सौजन्य सें भऔअखिल भारतीय बुंदेली साहित्य एवं संस्कृति के एक कार्यक्रममें हैदराबाद विश्वविद्यालय में पंजीकृत एक गुजराती दलितशोध छात्र दीपक बरखडे अपने शोध को विषय रखो कैबुंदेली एक पहचान है या भाषा (बुंदेली एन आइडेंटिटी ऑरलेंग्वेज)। ई शोध में वे तमिलनाडु में रैबे वारे बुंदेली भइयाबैनन खों देखकें खोज रए कै कैसें लोग अपनी पहचानइभुलाउत जा रए। जा स्थिति हम बुंदेलखंड वारन के लानेअच्छी नइयां। 


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