Friday, January 28, 2022

डायरी फ़रवरी २०२१

 1/2/21

उरई! आज से अपने अनुभव लिखना प्रारंभ कर रहे हैं। एक क्रियावान मित्र ने बताया कि यह लिखने का निर्देश गुरुदेव ने भी दिया है, अस्तु!
जून 2018 से योगदा सत्संग सोसाइटी से मुझे जोड़कर असीम अनुकंपा की है। भागवतम का पाठ करने के उपरांत मन विगलित हो गया। प्रार्थना होने लगी कि अब परमात्मा संभाल ले। घर पर एकांत था, ये लोग झांसी में थे। एक दिन श्रद्धेय डॉ रामशंकर द्विवेदी ने प्रसंगवश योगी कथामृत की चर्चा की। उन्होंने गुरुदेव परमहंस योगानंद एवं परमगुरुओं का भी परिचय दिया। आगे कुछ नहीं बताया। उनके जाने के बाद गूगल से योगदा की वेबसाइट से जानकर पंजीकरण कराते हुए सितंबर 2018 में संगम में द्वाराहाट पहुच गए।  योगदा की पाठमाला जून के बाद मंगानी शुरू कर ही दी थी। पांच दिन के संगम और एक दिन तीन घंटे का लंबा ध्यान करने से अपूर्व अनुभूति हुई। भागवतम पाठ के बाद से ही जो अश्रुपात होना शुरू हुआ था, वह अब बढ़ गया। महावतार बाबाजी की गुफा का दर्शन 29 सितंबर को करके परम् आह्लाद हुआ। द्वाराहाट से लौटने के बाद लगने लगा कि सब मनुष्य और मनुष्येतर प्राणी अपने ही हैं। 
द्वाराहाट जाने के समय ही नवम्बर 2018 में रांची शरद संगम के लिए पंजीकरण करा लिया।
रांची संगम में जाने के लिए कानपुर से राजधानी एक्सप्रेस में बैठे। सीट वाले कूपे में ही एक और परिवार (पति पत्नी) रांची ही जा रहा था। जब सुबह उन्होंने अखबार और आसन बिछाकर ध्यान और क्रिया की, तब मुझे विदित हुआ कि वे अपनी पत्नी के साथ रांची योगदा आश्रम जा रहे हैं।
कुशवाहा जी उरई के ही निवासी निकले। वे फर्रुखाबाद में कार्यस्थ और कानपुर में निवास।
रांची संगम में केवल भाग लेने के उद्देश्य से गया था। अभी केवल 24 पाठ ही पढ़ पाए थे, वहां क्रिया पर कौन्सिलिंग होते हुए देखी तो मैंने भी क्रिया लेने के लिए आवेदन भर दिया। 
काउंसलिंग के समय ब्रह्मचारी आद्यानंद जी ने ॐ प्रविधि कैसे करते हैं, यह पूछा। होंग sau और ॐ प्रविधि पर व्याख्यान और प्रदर्शन द्वाराहाट में सुन लिए थे। ब्रह्मचारी जी को मैंने ॐ प्रविधि के लिए हाथ, कान, आंख का प्रयोग करके दिखाया, उन्होंने पूछा पहले क्या सुनते हैं, उन्होंने मेरे दिए उत्तर में सुधार किया। उन्हें मैंने द्वाराहाट संगम में भाग लेने की जानकारी दी। ब्रह्मचारी जी ने मेरा क्रिया दीक्षा का आवेदन अनुमोदित कर दिया। गुरुजी की कृपा का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ।
इससे पहले 4 अक्टूबर 2018 को ध्यान करने के बाद  जार जार आंसू गिराते हुए सो गए, उसी रात दो बजे के आसपास महावतार बाबाजी का दर्शन साक्षात्कार हुआ। बाबाजी का मुखमंडल योगी कथामृत में डिये चित्र से मिल रहा था। उनके मुख पर परम शांति और प्रसन्नता विद्यमान थी। वे मेरी आँखों को देख रहे थे। बाबाजी के चरण छूने और बात करने के आशय से आगे झुके, तब तक बाबाजी अदृश्य हो गए।
इसके बाद नवरात्र में चंडी पाठ के समय भी एक ग्रामीण पृष्ठभूमि की लड़की दिखने की अनुभूति हुई, जिसने पीछे से सिर में धौल मारी और मैं चंडी पाठ करने लगा।
22 नवम्बर 2018 को क्रिया दीक्षा स्वामी स्मरणानंद जी द्वारा प्राप्त हुई। अब हम द्विज हुए। कुर्ता धोती पहनकर दीक्षा लेते समय भी अश्रुपात होता रहा। कबीर के पद याद आते रहे। 
नोएडा आश्रम में 2019 में रहने का सुअवसर मिला, फिर फरवरी 2020 में दक्षिणेश्वर कोलकाता आश्रम में रहने का सौभाग्य भी मिला। स्वामी अमरानंद ने यहां क्रिया में सुधार करवाया।
एक वर्ष बाद क्रिया की संख्या छत्तीस हो गयी। क्रियावान मित्र प्रिया मिश्र से हुई बातचीत के बाद नए क्रिया पाठ पढ़े तो ज्ञात हुआ 36 क्रिया करने के बाद दूसरी उच्च क्रिया मिल सकती है। रांची फोन पर सम्पर्क किया, उन्होंने ईमेल से विवरण भेजने को कहा। ब्रह्मचारी आलोकानंद जी का नंबर उन्होंने मेल से दिया और उनसे संपर्क करने के लिए कहा। ब्रह्मचारी आलोकानंद जी ने इसके लिए क्रिया पाठों के साथ मिले फॉर्म को भरने का निर्देश दिया। उसी दिन फॉर्म भरकर स्कैन करके भेजा, पर वह पठनीय नहीं था, उन्होंने सहायक से पूछकर एडोबी से स्कैन करके भेजने को कहा। 13 जनवरी 2021 से होते होते 20 जनवरी को हायर क्रिया अनुमोदित हो गयी। गुरुजी की कृपा और आशीर्वाद मिलती ही जा रही है। ब्रह्मचारी जी ने 26 जनवरी को अनुमोदन की सूचना दी।
हायर क्रिया लेते समय हुई कॉउंसलिंग में ब्रह्मचारी जी ने क्रिया के बाद के अनुभवों के बारे में पूछा।
ऐसी चर्चा के बाद प्रिया मिश्रा/घोष  ने कहा कि एक डायरी की तरह अपने अनुभव लिखें। इस प्रकार यह यात्रा आज से इस प्रकार शुरू होती है।

ध्यान गहरा होता जा रहा है। ध्यान करते समय कई विचार भी आते हैं और विचारों से क्षण क्षण ही सही पार भी होते हैं। यह भी दिखता है कि कुछ भी मौलिक नहीं, सब दोहराव है। वेद उपनिषद से लेकर सारे ज्ञान विज्ञान फिर फिर हमारे सामने आते जाते हैं। कभी यह भी ज़रूरी लगता है कि जितनी पुस्तके मई जून 2018 में भागवतम पाठ के बाद से पढ़ी जा रही हैं, उनकी सूची बनाई जाए। उन पुस्तको में महत्वपूर्ण या स्मरणीय क्या मेरी स्मृति में रहा, उसे भी लिखा जाए।
आजकल योग वासिष्ठ के बाद स्वामी तपोवनं की हिमगिरि विहार पढ़ रहे हैं। यह महात्मा  हिमालय में ही सांस लेते रहे। इतना हिमालय दर्शन और निवास करना दुर्लभ है। स्वामी जी वेदांती थे, इसलिए कहीं इस पुस्तक से ऐसा लगा, जैसे वे योग और ध्यान को कमतर समझ रहे हैं। किसी वेदान्ती को ईश दर्शन करने के लिए प्रकृति या ब्रह्मांड दर्शन करना होगा, पर एक योगी तो परब्रह्म की अनुभूति अपने भीतर कर लेता है, उसके लिए हिमालय भी भीतर है तो विशाल महासागर भी उससे बाहर नहीं।
ऐसा भी होता है जब ध्यान के समय आये विचार बिंदु उससे बाहर आने पर गायब हो जाते हैं। इसीलिए गुरुजी ने डायरी लेखन के लिए कहा है। 
कुछ बातचीत जो 28 जनवरी से 2 फरवरी 2021 के बीच एक क्रियाबान मित्र से हुई, उसे यहां दे रहे हैं--[1/28, 13:17] Rakesh Narayan Dwivedi: सुंदर। यस्तु क्रियाबान पुरुषः स विद्वान🙏
[1/28, 13:29] Rakesh Narayan Dwivedi: लाहिरी महाशय और स्वामी श्री युक्तेश्वर जी के बारे में प्रज्ञानानंद जी के यहां और जानकारी मिलती है🙏
[1/28, 15:10] Rakesh Narayan Dwivedi: योगनिद्रा तुरीयावस्था में होती है
[1/28, 16:31] PrKriyaban: Ye vedant ke anusaar hai
[1/28, 16:32] PrKriyaban: Mujhe yaad aata hai ki gurudev ne ek jagah likha hai ki sote samay khud ko watch karna hai..
[1/28, 16:44] Rakesh Narayan Dwivedi: kahi kewal letne wala video dekha, itna nahi dekha tha. kya kah rahe isme guruji. vyakhya bhi kijiyega
[1/28, 16:44] Rakesh Narayan Dwivedi: ji ha
[1/28, 16:45] Rakesh Narayan Dwivedi: ye hota he kabhi kabhi mere sath
[1/28, 16:45] Rakesh Narayan Dwivedi: taqiya nahi lagate ham bhi, guruji bhi nahi lagaye na
[1/28, 17:13] PrKriyaban: Bina taqiye ke hi sona chahiye
[1/28, 17:13] PrKriyaban: Mere saath bhi kabhi kabhi hota
[1/28, 17:13] PrKriyaban: Apne aap ko sote samay dekhna yog nidra hai
[1/28, 17:14] PrKriyaban: Aur kyunki nidra bhi ek vritti hai isliye ispar bhi niyantran karna hota hai
[1/28, 17:14] Rakesh Narayan Dwivedi: ji. saral bhasha me apne kah diya
[1/28, 17:14] PrKriyaban: Shayad 2nd ya baki ke kriya mei iska detail hoga
[1/28, 17:14] Rakesh Narayan Dwivedi: hmm
[1/28, 17:15] Rakesh Narayan Dwivedi: ahar, nidra aur asan bandhna ana chahiye ek yogi ko
[1/28, 17:15] PrKriyaban: Yog nidra ka practice karna to hoga hi nahi to yogi ki sadhna poori nahi ho sakti
[1/28, 17:16] Rakesh Narayan Dwivedi: yog nidra swatah nahi lag jayegi jab nirantar apne swarup me pratishthit rahhege
[1/28, 17:16] PrKriyaban: Haan ye to sambhav hai hi
[1/28, 17:16] PrKriyaban: Lekin iska thoda practice zarur karna hoga
[1/28, 17:16] PrKriyaban: Hame sote samay  bas so jane ki adat hai
[1/28, 17:17] Rakesh Narayan Dwivedi: practice ki alag vidhiya he kya
[1/28, 17:17] PrKriyaban: Sote samay mann mei khud ko dekhte rehne ka practice karna hoga
[1/28, 17:17] Rakesh Narayan Dwivedi: ji
[1/28, 17:18] PrKriyaban: Maine iske bare mei padha hai.. shayad purane lesson mei tha.. Bas itna likha tha ki sote samay khud ko dekna hai
[1/28, 17:18] PrKriyaban: Shayad higher kriya mei iski vidihi hogi
[1/28, 17:18] PrKriyaban: Vidhi nahi batayee hai 1st kriya mei
[1/28, 17:18] Rakesh Narayan Dwivedi: yah hame bhi dhyan he ki kahi guruji ne kaha he
[1/28, 17:19] PrKriyaban: Aur baki kisi lesson mei
[1/28, 17:19] PrKriyaban: Ji
[1/28, 17:19] Rakesh Narayan Dwivedi: purane lesson me higher kriya ka ziqr nhi
[1/28, 17:19] Rakesh Narayan Dwivedi: ya he?
[1/28, 17:19] PrKriyaban: Nahi nahi hai
[1/28, 17:20] Rakesh Narayan Dwivedi: kriya ke char charan he, aisa bhi kya kahi likha he pahle ke lesson me
[1/28, 17:20] PrKriyaban: Nahi
[1/28, 17:21] PrKriyaban: First kriya kafi hai realisation ke liye, ye kahin likha hai
[1/28, 17:21] Rakesh Narayan Dwivedi: sone ke turant bad dhyan karti na
[1/28, 17:21] Rakesh Narayan Dwivedi: ji bilkul
[1/28, 17:22] Rakesh Narayan Dwivedi: swapna me bhi atmswarup kabhi kabhi najar ata he
[1/28, 17:22] PrKriyaban: Swapna mei apne aap ko dekh sakti hoon kabhi kabhi
[1/28, 17:23] PrKriyaban: Aisa hota hai kabhi kabhi ki mujhe pata hai ki mai swapna dekh rahi hoon
[1/28, 17:23] Rakesh Narayan Dwivedi: asal me to jagrat awastha jise ham log kahte he, wah bhi swapn he
[1/28, 17:23] Rakesh Narayan Dwivedi: ji
[1/28, 17:24] PrKriyaban: Isi se dhyan aaya ki gurudev ne kahin bataya tha ki sote samay khud ko dekhne ka abhyas karna hai.. yog sutra mei nidra ko bhi vritta bataya hai
[1/28, 17:24] PrKriyaban: Ji bilkul
[1/28, 17:24] Rakesh Narayan Dwivedi: aur vritti ya
[1/28, 17:24] Rakesh Narayan Dwivedi: kaun kaun he
[1/28, 17:25] PrKriyaban: Swa ke alawa sab vritti hi hai
[1/28, 17:25] Rakesh Narayan Dwivedi: prakrti ke gun teen jo he
[1/28, 17:25] Rakesh Narayan Dwivedi: wah vritti hi to he
[1/28, 17:26] Rakesh Narayan Dwivedi: sharir ki vrittiyan kuch to rahegi na
[1/28, 17:26] PrKriyaban: Jisme movement hai wo vritti hai.. thoughts ya vibration se lekar sab
[1/28, 17:26] Rakesh Narayan Dwivedi: gun guno me baratate he, gita
[1/28, 17:27] Rakesh Narayan Dwivedi: गुणा गुणेषु वर्तन्ते
[1/28, 17:27] PrKriyaban: Haan wo to rahengi lekin mann aur sharir se alag hone ke baad gyan aa jata hai samadhi mei
[1/28, 17:27] Rakesh Narayan Dwivedi: देवी स्तुति में आता है गुणाश्रयी गुणमयी
[1/28, 17:28] PrKriyaban: Ji
[1/28, 17:28] Rakesh Narayan Dwivedi: यही तो परमानंद है, लेकिन यह सदा संभव है क्या शरीर के रहते
[1/28, 17:31] Rakesh Narayan Dwivedi: साक्षी भाव तो बना ही रहेगा
[1/28, 17:32] Rakesh Narayan Dwivedi: इसके बाद सा काष्ठा सा परागतिः
[1/28, 17:34] PrKriyaban: Ji bilkul
[1/28, 17:35] PrKriyaban: Kitni Sundar vyakhya hai ye
[1/28, 17:35] Rakesh Narayan Dwivedi: yog vasishth he
[1/28, 17:36] Rakesh Narayan Dwivedi: kal ayi pustak, padhe bina chhodne ka man nahi ho raha
[1/28, 17:38] Rakesh Narayan Dwivedi: padarth aur kriya ka jo sambandh he, wah chalega. karma nahi rahega. akarmata aa jayegi
[1/28, 17:38] Rakesh Narayan Dwivedi: patthar bhi to badalte hi he apne swabhawik vikas me
[1/28, 18:09] Rakesh Narayan Dwivedi: ध्यान अर्पण है। ध्यान वह जल है जो देवताओं को हाथ पांव धोने के लिए दिया जाता है। ध्यान के द्वारा प्राप्त किया हुआ आत्मज्ञान पुष्प है। यही ध्यान की ओर ले जाने वाले साधन हैं। आत्मा का बोध ध्यान के अतिरिक्त और किसी साधन से नहीं हो सकता। यदि कोई तेरह सेकंड भी ध्यान लगाता, तो यदि वह अज्ञानी भी है तो भी उसे गोदान का पुण्य प्राप्त होता है। यदि कोई एक सौ एक सेकंड ध्यान लगाता है तो उसे यज्ञ करने का फल मिलता है। यदि यह अवधि बारह मिनट होती है तो पुण्य हजार गुना होता है। यदि यह अवधि एक दिन की हो तो व्यक्ति सर्वोच्च लोक में पहुच जाता है। यही परम योग है, यही परम क्रिया है। स्वामी venktesanand
[1/28, 18:37] PrKriyaban: In swami ji be bare mei pehli baar sun rahi hoon
[1/28, 18:38] PrKriyaban: Yog vashishth padhne ke baad aur kuch baki nahi rehta.. mai kuch ek sutra padhti hoon yog vashishth ke.. lekin poora to nahi padha.. ye advait ka ucchatam gyan hai
[1/28, 20:38] Rakesh Narayan Dwivedi: bilkul
[1/28, 20:38] Rakesh Narayan Dwivedi: swami shivananda divine life society ke shishya the
[1/28, 20:39] Rakesh Narayan Dwivedi: supreme yoga nam se yog vasiahtha ke shloko ka sangrah aur commentry ki he
[1/28, 20:40] Rakesh Narayan Dwivedi: hindi me badrinath kapur ne is pustak ka anuwad kiya
[1/28, 20:55] PrKriyaban: Oh accha. Shivanand Saraswati ki kayee kitabein padhi hain maine
[1/28, 20:56] PrKriyaban: Kundalini ke bare mei detail unke shishya Satyananad Saraswati ki kitab mei padha tha..
[1/28, 20:57] Rakesh Narayan Dwivedi: bangal ka hi janm tha shivanand sarswati ka
[1/28, 20:57] Rakesh Narayan Dwivedi: dharna aur dhyan ek qitab dekhi inki hamne
[1/28, 21:03] PrKriyaban: Accha.. ye mujhe nahi pata tha
[1/28, 21:03] PrKriyaban: Wo to south ke the
[1/28, 21:04] PrKriyaban: British ke time par doctor the.. fir sab chhod diya aur sanyas le liya
[1/28, 21:04] Rakesh Narayan Dwivedi: sw venkatesh ji south ke the
[1/28, 21:04] PrKriyaban: Unki jeevni Bahut pasand hai mujhe
[1/28, 21:04] Rakesh Narayan Dwivedi: kinki, shivanand ji ki na
[1/28, 21:04] PrKriyaban: Unki kitabein ekdam simple language mei hain aur knowledge deep
[1/28, 21:04] PrKriyaban: Ji unhi ki
[1/28, 21:05] Rakesh Narayan Dwivedi: achha
[1/28, 21:05] Rakesh Narayan Dwivedi: chinmay mission bhi ek he
[1/28, 21:09] PrKriyaban: Haan unke hi shishya ka hai
[1/28, 21:09] PrKriyaban: Chinmayanand Saraswati
[1/28, 21:37] Rakesh Narayan Dwivedi: inke shishya tejomayanand he, bhagwat par pravachan he inke
[1/28, 21:38] Rakesh Narayan Dwivedi: chinmay mission ke head rahe, ab chhod diye
[1/28, 21:39] Rakesh Narayan Dwivedi: uttar se dakshin aur purab se pashchim, unche sant aur mahatmao ki kami nahi
[1/28, 23:43] PrKriyaban: Ji bilkul
[1/30, 10:15] PrKriyaban: Zyada samay nahi hai lagta hai self realisation ke liye..
[1/30, 10:16] PrKriyaban: Aap apne experiences diary mei likhte hain na?
[1/30, 10:16] PrKriyaban: Ye sab likh kar rakhna accha hai.. gurudev kehte hain likhne ko.. mai likhti hoon
[1/30, 10:22] Rakesh Narayan Dwivedi: नही लिखते
[1/30, 10:23] Rakesh Narayan Dwivedi: ek aur kriyaban he yaha, we bhi diary likhte
[1/30, 10:47] Rakesh Narayan Dwivedi: facebook par bahut si bhramak chije chal rahi he
[1/30, 10:48] Rakesh Narayan Dwivedi: aoy se udaharan dete huye kah rahe koi kriyaban kriya sikha sakta he
[1/30, 12:25] PrKriyaban: Ye social media ek badi bhram wali jagah hai.. log kuch bhi samajhte hain aur kuch bhi likhte hain
[1/30, 12:27] PrKriyaban: Khair, agar koi itna hi bevakoof hai ki kisi bhi kriyavan se kriya seekhna chahe aur fir soche ki wo bhi yogi ban jaye, to kya kiya ja sakta hai.. baat ye hogi ki is tarah se seekhi hui kriya koi kaam karega hi nahi.. ya agar kuch kaam hua bhi, aur koi pareshani aayee bhi, to koi guru uski responsibility lenge nahi
[1/30, 12:27] PrKriyaban: Dukhad hai.. Yehi log yog bhrashat hain.. inhe apne karmo ka phal bhogna hoga
[1/30, 12:29] PrKriyaban: Mujhe fb par ek Paramhansa Yoganandini mili.. ye kehti hain ki ye Paramhansa Yogananad ka punarjanm hain.. ek baar inki kori bakwas padhi to comment kiya aur likha ki wo kaise jhooth bol rahi hain.. turant  block kar diya unhone mujhe
[1/30, 12:29] PrKriyaban: Maine baad mei YSS mei bataya to wahan ke Swami ji na kaha ki aise log aate jaate rahenge.. aap ignore kariye
[1/30, 12:31] Rakesh Narayan Dwivedi: हम्म
[1/30, 12:31] Rakesh Narayan Dwivedi: priya
[1/30, 12:32] Rakesh Narayan Dwivedi: sharir se dakar aur apan vayu ek sath nikalti he, kab apko
[1/30, 12:33] Rakesh Narayan Dwivedi: pran aur apan ke milan ka hi to mahtwa he yoga sadhna me
[1/30, 12:33] PrKriyaban: Kuch galat khati hoon.. tali bhuni cheez zyada khane se
[1/30, 12:34] Rakesh Narayan Dwivedi: dhyan karte samay ye vikar bahar ho jate
[1/30, 12:34] PrKriyaban: Jab mann poori tarah shaant ho jayega, pran gati dheemi hogi aur fir wo sushumna se upar jayegi.. tab samadhi lagegi..
[1/30, 12:34] Rakesh Narayan Dwivedi: jab kumbhak karte he hong sau techniq me
[1/30, 12:35] Rakesh Narayan Dwivedi: sans bahar jab rokte
[1/30, 12:35] Rakesh Narayan Dwivedi: iske alawa dekha ki kriya me koi anuchit khady lene par khansi se wah nikal jata
[1/30, 12:36] PrKriyaban: Accha
[1/30, 12:36] Rakesh Narayan Dwivedi: yaha tak ki jaivik kriyaye bhi niruddg hone lagti
[1/30, 12:36] PrKriyaban: Jaivik kriya jaise?
[1/30, 12:36] Rakesh Narayan Dwivedi: jaise urinal ki ichha huyi to apan vayu se nikal kar wah ichha nahi rah jati
[1/30, 12:37] PrKriyaban: Oh accha
[1/30, 12:37] Rakesh Narayan Dwivedi: pancho tatwa jaise ekmek ho jate
[1/30, 12:37] PrKriyaban: Bade acche experience ho rahe hain aapko
[1/30, 12:38] PrKriyaban: Aap likh rahe hain na ye sab kisi copy ya diary mei?
[1/30, 12:38] Rakesh Narayan Dwivedi: bhukh aur nind kam huyi hi he
[1/30, 12:38] Rakesh Narayan Dwivedi: ab likhenge priya
[1/30, 12:38] Rakesh Narayan Dwivedi: waise ye kise padhna aur kyo padhna
[1/30, 12:39] PrKriyaban: Ye kisi aur ke liye nahi hai.. sirf apne aap ke liye hai
[1/30, 12:39] Rakesh Narayan Dwivedi: apna dipak to logo ko khud jalana hota he na
[1/30, 12:39] PrKriyaban: Baad mei kisi kaam aa sakta hai
[1/30, 12:39] Rakesh Narayan Dwivedi: upwas rahne se bhi anubhav badhte he
[1/30, 12:40] PrKriyaban: Ji
[1/30, 12:44] PrKriyaban: Ji bilkul
[1/30, 12:45] PrKriyaban: Kya aapko aisa anubhav hua hai ki prana lagbhag ruk ki gaye ho aur sushumna se upar jane ki koshish kar raha ho?
[1/30, 12:46] Rakesh Narayan Dwivedi: ha bahut bar
[1/30, 12:46] Rakesh Narayan Dwivedi: na sharir n man n shwas kuch nahi
[1/30, 12:46] Rakesh Narayan Dwivedi: kshanik anubhav
[1/30, 12:46] PrKriyaban: Fir to aapki Samadhi lag rahi hai
[1/30, 12:47] Rakesh Narayan Dwivedi: fir hota jaise kan kan srishti me vilin ho gaya
[1/30, 12:47] Rakesh Narayan Dwivedi: sharir shuny ban gaya
[1/30, 12:47] PrKriyaban: Ye Samadhi ka anubhav hai
[1/30, 12:47] PrKriyaban: Ek baat bataiye, aapko lagta hai ki aapko second kriya ki zarurat hai?
[1/30, 12:47] Rakesh Narayan Dwivedi: achha, par hosh rahta he
[1/30, 12:48] PrKriyaban: Haan to Samadhi mei poora hosh rahega na
[1/30, 12:48] Rakesh Narayan Dwivedi: ye jo he, wahi paryapt he
[1/30, 12:48] PrKriyaban: Aap ashram mei bataiye apne anubhav.. janiye ki aapko zarurat hai kya second kriya ki?
[1/30, 12:49] Rakesh Narayan Dwivedi: bas gurudev age kuch aur batate he kya, yah janne ke liye awedan kar diya tha, ialiye bhi ki arhata puri ho rahi thi
[1/30, 12:50] Rakesh Narayan Dwivedi: councilling ke samay bataya to ek vaky unhone jab suna to usse age kuch nahi sunna chahe aur bole apka approve karke bhej rahe he
[1/30, 12:50] PrKriyaban: Gurudev ne kriya lesson mei bataya hai ki bas kriya nahi karte jana hai.. Kriya to ek tool hai Samadhi tak pahunchne ke liye
[1/30, 12:50] PrKriyaban: Agar aap first kriya se wo hasil kar lete hai  to aur ki kya zarurat?
[1/30, 12:51] PrKriyaban: Kaun sa vakya?
[1/30, 12:51] Rakesh Narayan Dwivedi: kriya ke bad ka anubhav dhyan na karte samay bhi kriya jaisa hi bana rahe, tab tak to banta he na
[1/30, 12:52] PrKriyaban: Ji theek hai ye
[1/30, 12:52] Rakesh Narayan Dwivedi: kriya ke bad kya hota unhone puchha
[1/30, 12:52] PrKriyaban: Ji
[1/30, 12:52] Rakesh Narayan Dwivedi: sharir khtm ho jata, kewal ek chhadi si lagti, bataya
[1/30, 12:53] Rakesh Narayan Dwivedi: jhuka gua bent janti hogi
[1/30, 12:53] Rakesh Narayan Dwivedi: kuch usi tarah
[1/30, 12:53] Rakesh Narayan Dwivedi: kuch achha nahi lagta,  aur sab achha lagta
[1/30, 12:53] PrKriyaban: Ji
[1/30, 12:54] PrKriyaban: Fir aap keejiye doosri kriya
[1/30, 12:54] PrKriyaban: Ye kafi hoga aapke liye
[1/30, 12:54] Rakesh Narayan Dwivedi: achha
[1/30, 12:54] PrKriyaban: Matlab shayad.. mai nahi janti., Hona chahiye
[1/30, 12:55] PrKriyaban: Aapke anubhav perfect hain
[1/30, 12:55] Rakesh Narayan Dwivedi: sare anubhav to amne samne sunayege swami ji ko, jab mauqa lage
[1/30, 12:55] Rakesh Narayan Dwivedi: waise abhi unhone kaha, jab jarurat samjhe, puchh/jan le
[1/30, 13:09] Rakesh Narayan Dwivedi: sab sahi aur pura mankar bhrashtata na aa jaye, isliye guru chrana sharan hi gantavy he priya
[1/30, 13:35] PrKriyaban: Ek prashna hai.. Isme confusion hai mujhe
[1/30, 13:36] PrKriyaban: Jo silver 5 star hai use har kriyavan ko chhedna hai..wo hum sabhi ka main goal hai..
[1/30, 13:36] PrKriyaban: Aur iske liye dhyan mei kaise visualise karna hai ye bataya gaya hai
[1/30, 13:37] PrKriyaban: To kya ye anubhav jab prana sushumna mei jayega tabhi hoga ya ye alag se ho sakta hai?
[1/30, 14:39] Rakesh Narayan Dwivedi: anubhav alag alag ho sakte he
[1/30, 14:40] Rakesh Narayan Dwivedi: sushumna khulni chahiye bas
[1/30, 14:40] Rakesh Narayan Dwivedi: shushumna me pran pahuchege to pata lag jayega, bhitar se bhi bahar se bhi
[1/30, 14:41] Rakesh Narayan Dwivedi: light dikhi hame, par spasht nahi ya us spashtata ko samjh nahi paye
[1/30, 14:41] Rakesh Narayan Dwivedi: par gudgudi hoti he bhrikuti me brahmrandhra me bhi
[1/30, 15:06] PrKriyaban: Wo light mujhe bhi dikhti.. silver dot hota hai.. dhyan mei use chhua bhi...
[1/30, 15:07] PrKriyaban: Lekin mujhe dono anubhav alag alag samay hote.. pran shant hokar sushumna mei jane ki koshish ek alag anubhav
[1/30, 15:07] PrKriyaban: Aur star ka bindu ki tarah dikhna alag..
[1/30, 15:08] PrKriyaban: Jab us bindu ko chhu leti hoon kabhi kabhi.. poora mann mantisk ek alag energy se bhar jata
[1/30, 15:09] Rakesh Narayan Dwivedi: bahar ke anubhavo se sangati dekh leni chahiye, jo guru ji ne kahe, aap unnat dasha me he priya
[1/30, 15:10] Rakesh Narayan Dwivedi: mukt kahna achha nahi lagta, isliue use nahi kah rahe, lekin apki wah dasha he
[1/30, 15:12] Rakesh Narayan Dwivedi: kriya karte samay lar girne diya karo
[1/30, 15:12] Rakesh Narayan Dwivedi: sametna nahi use
[1/30, 15:13] Rakesh Narayan Dwivedi: kapde bhigne do, ap to waise bhi band kamre me dhyan karti
[1/30, 15:33] PrKriyaban: Kya kahoon.. bura laga sun kar.. kya beti bhi nahi samajhti aapko?
[1/30, 15:33] PrKriyaban: Ji
[1/30, 15:34] Rakesh Narayan Dwivedi: beti kahti nahi, hans deti uski ma jab kuch kahti
[1/30, 15:34] PrKriyaban: Hhmm
[1/30, 15:35] PrKriyaban: Mai unnat shayd hoon ya shayad nahi..
[1/30, 15:35] PrKriyaban: Kriya jab karm jalati hai to pata nahi kya kya saamne aaye
[1/30, 15:37] PrKriyaban: Pichle kayee mahino mei mera concentration level neeche chala gaya.. dhyan ki ucch avasta jo maine deeksha ek saal mei hasil kiya.. wo chhot sa gaya
[1/30, 15:37] PrKriyaban: Deekhsa ke ek saal mei jaise sab kuch hi jaan liya.. khechri lagne lagi apne aap.. Fir brahmarandra khul gaya
[1/30, 15:38] PrKriyaban: Khechri ab bhi lagti rehti jab tab.. Brahmarandra ka khula marg jab chahu anubhav kar sakti
[1/30, 15:38] PrKriyaban: Lekin pichle ek saal mei mere pichle jeevan ki parte khulne lag gayee
[1/30, 15:38] PrKriyaban: Apne pichle janm ke kuch vishisht logon ko pehchan liya
[1/30, 15:39] PrKriyaban: Bas yehi ek bohot badi mushkil ban gayee hai
[1/30, 15:39] PrKriyaban: Maine aisa kuch dekha jana jiske bare mei kisi se kuch bo l bhi nahi sakti
[1/30, 15:40] PrKriyaban: Ye samajhti hoon ki pichla janm.. ye sab maaya hi hai.. wo khahm ho chuka hai aur ise badha nahi banne dena
[1/30, 15:40] PrKriyaban: Lekin.. mai khuch aur logon ko pehchan rahi hoon jo mere jeevan ka abhinn hissa the lekin ab door hain..
[1/30, 15:41] Rakesh Narayan Dwivedi: kya pichhla janm yad aa gaya aur wah badha ban raha
[1/30, 15:41] Rakesh Narayan Dwivedi: bhed drishti hi nahi rahne deni priya
[1/30, 15:41] PrKriyaban: Khud ka janm badi baat nahi mere liye.. wo doosre log jinhe pechana unke wajah se ulajh gayee
[1/30, 15:42] Rakesh Narayan Dwivedi: koi mata, pita, pati patni beta beti ho fir kya antar padta
[1/30, 15:42] PrKriyaban: Haan ye theek hai.. lekin emotional ho jaati hoon bohot zyada
[1/30, 15:43] Rakesh Narayan Dwivedi: emotion rahega use divert karna he towards God
[1/30, 16:05] PrKriyaban: 🙏🙏🙏🙏
[1/30, 22:15] Rakesh Narayan Dwivedi: apki vritti vali baat dimag me chalti rahi
[1/30, 22:16] Rakesh Narayan Dwivedi: abhi yog sutra me dekha, nidra bhi vritti he
[1/30, 22:17] Rakesh Narayan Dwivedi: yani nidrawastha me hame connect to God rahna he, usi ko yognidra kah rahi thi na
[1/30, 22:22] Rakesh Narayan Dwivedi: Yoga nidra results in conscious awareness of the deep sleep state, which is called prajna in the Mandukya Upanishad.
[1/30, 23:26] PrKriyaban: Ji
[1/30, 23:27] PrKriyaban: Lekin ye mandukya mei hai.. iski vidhi alag hai
[1/30, 23:27] PrKriyaban: Yog mei yog nidra ki vidhi alag hai
[1/31, 12:31] Rakesh Narayan Dwivedi: manduky me warnit turiyawastha hi yognidra he. turiyawastha jagrat swapna aur sushupti teeno se pare he aur teeno ke bhitar bhi he. yoga me yognidra ka demonstration guru ji ke video me he hi
[1/31, 13:13] Rakesh Narayan Dwivedi: vidhi nahi jante
[1/31, 15:08] Rakesh Narayan Dwivedi: gahan nidra ka maun- yog vasishtha
[1/31, 15:10] Rakesh Narayan Dwivedi: jo isme sthit ho jata he, wah dhyan dhare ya na dhare
[1/31, 15:41] PrKriyaban: Isi ko sthitpragya kehte hain na
[1/31, 15:48] Rakesh Narayan Dwivedi: ji, bilkul..geeta me kai bar shlok ka akhir me aya he tasya pragya pratishthita
[1/31, 19:27] PrKriyaban: Ji
[1/31, 20:36] Rakesh Narayan Dwivedi: yog vasishth padha he priya
[1/31, 20:37] Rakesh Narayan Dwivedi: kis ki commentry he apke pas
[1/31, 23:21] PrKriyaban: Nahi.. unka page hai fb par to sutra log share karte hain wohi padha hai
[1/31, 23:22] PrKriyaban: Baki maine advait ka gyan sun kar sekha hai.. shavan kehne hain vedant mei jise
[1/31, 23:24] PrKriyaban: Kayee advait ki pustak, Upanishads ka gyaan jaan liya hai.. 

Atman, brahman, consciousness.. itna samajh le to bas kafi hai

Yog vashishth bhi advait ka gyan hai
[2/1, 07:03] Rakesh Narayan Dwivedi: हम्म
[2/1, 07:04] Rakesh Narayan Dwivedi: chudala aur shikhidhwaj ki ek kahani isme ati he
[2/1, 12:49] PrKriyaban: Ye kahani nahi padhi kabhi
[2/1, 12:49] PrKriyaban: Padhungi khoj kar zarur
[2/1, 12:50] Rakesh Narayan Dwivedi: zist jo yad he, kahte he
[2/1, 12:52] PrKriyaban: Ji kahiye
[2/1, 12:55] Rakesh Narayan Dwivedi: raja shikhidhwaj aur rani chudala huye
[2/1, 12:56] Rakesh Narayan Dwivedi: dono atmgyan prapt karne ke liye badhte he
[2/1, 12:56] Rakesh Narayan Dwivedi: rani ne bodh pa liya, par raja ka gyan pusht nahi hua
[2/1, 12:57] Rakesh Narayan Dwivedi: tab wah jangal me chala jata
[2/1, 12:58] Rakesh Narayan Dwivedi: kahta hamne sab tyag kar diya, chidala uski sadhu ke wesh me akar pariksha leti he, ek ek karke tyag ke udaharan batata he
[2/1, 13:02] Rakesh Narayan Dwivedi: sharir ko samapt karne ke liye taiyar ho jata
[2/1, 13:03] Rakesh Narayan Dwivedi: rani kahti tum abhi paripakwa nahi huye
[2/1, 13:03] Rakesh Narayan Dwivedi: tyag man ka hona
[2/1, 13:04] Rakesh Narayan Dwivedi: fir raja tapsya karta, rani atmbodhi hokar rajkaj sambhalti
[2/1, 13:49] Rakesh Narayan Dwivedi: rani raja ke pas sadhu kumbh ke vesh me jati, rat me stri ban jati
[2/1, 13:51] Rakesh Narayan Dwivedi: stri ke rup me ane par raja se daihik sambandh banati, chudala apna bhed bata deti, fir raja use apna mitra kahne lagta
[2/1, 13:52] Rakesh Narayan Dwivedi: chudala iske bad ek any purush se sambandh banati, raja use dekh leta, wah kahta are ham ap dono ke ramane badhak to ban gaye , ise sweekar kar leta
[2/1, 13:54] Rakesh Narayan Dwivedi: rani ab raja ko rajpat saunp deti..
[2/1, 13:55] Rakesh Narayan Dwivedi: dono me koi gila shikwa nahi, sambhav  aur prakrit bhav me jiwan yapan karte
[2/1, 16:34] PrKriyaban: Haan
[2/1, 16:35] PrKriyaban: Upay mere to nahi hai.. mai prarthana zarur kar sakti hoon
[2/1, 16:46] Rakesh Narayan Dwivedi: jiv tathata ya kashthwat ho jaye to kya vyapega
[2/1, 22:28] Rakesh Narayan Dwivedi: kahani par koi pratikriya nahi di
[2/1, 22:29] Rakesh Narayan Dwivedi: lagta he kya is kahani se hi yog vasishtha granth jan samany me nahi aa paya, jabki yah adbhut he
[2/1, 22:59] PrKriyaban: Kahani bilkul alag hai.. baki granto mei aisi kahani nahi milti
[2/1, 23:00] PrKriyaban: Ji.. ye kahani adbhut hai
[2/1, 23:01] PrKriyaban: Meri kuch bhranti thi .. darasal vashishtha Sri Ram ke guru the to mujhe lagta tha ki is granth ki kahani Sri ram se kahin judi hogi..
[2/1, 23:02] PrKriyaban: Aaj pata chala ki isme kahani bilkul alag hai
[2/2, 05:13] Rakesh Narayan Dwivedi: anek kahaniyan he, kuch raja ya sadhu kis kis janm se hokar nikle he, par unme ruchi nahi
[2/2, 05:18] Rakesh Narayan Dwivedi: achar samhita aur dharanaye samaj ne nirmit ki he, warna kuch sahi nahi kuch galat nahi
[2/2, 06:04] Rakesh Narayan Dwivedi: yah samaj bhi man ki rachna he
[2/2, 08:56] PrKriyaban: Dhyan se
[2/2, 08:58] PrKriyaban: Ye kitni badi baat hai lekin iski samajh kitne logon ko aata hai
[2/2, 08:59] PrKriyaban: Yog vashishtha padhungi kisi din
[2/2, 10:02] Rakesh Narayan Dwivedi: dukh hi sukh lata he aur sukh usi par sawar hokar aur dukh lata he..
[2/2, 10:02] Rakesh Narayan Dwivedi: isliye dukh sukh ke lihaj se se sochna gurudeva band karwa de, aisi prarthna
[2/2, 10:03] PrKriyaban: Ji bilkul
[2/2, 10:04] Rakesh Narayan Dwivedi: har kshan ek chunauti hi he priya
[2/2, 10:04] PrKriyaban: Wo to hai
[2/2, 10:05] Rakesh Narayan Dwivedi: isi qitab me he
[2/2, 10:06] Rakesh Narayan Dwivedi: drishta rupi atma aur darshan rupi sansar ke madhya me tum drishy ho
[2/2, 10:06] Rakesh Narayan Dwivedi: gyata aur gyan ke bich me gyey
[2/2, 16:07] Rakesh Narayan Dwivedi: hame unhi ki sangati karni chahiye, jinhone atmgyan prapt kar liya ho. any logo se nahi. yog vasishtha
[2/2, 16:08] Rakesh Narayan Dwivedi: atmgyan rupi amrit jo pi leta he use indriyajany bhogo ke anand se pida hone lagti he
[2/2, 20:02] Rakesh Narayan Dwivedi: bilkul
[2/2, 20:02] Rakesh Narayan Dwivedi: khana pina  sharir chalane ke liye karta he bas
[2/2, 20:03] Rakesh Narayan Dwivedi: atmgyani itni tapshcharya me rahkar bhi ek raja ki mansikta me jita he
[2/2, 20:04] Rakesh Narayan Dwivedi: diary likhna shuru kar diya, apne jab bataya to
[2/2, 20:05] Rakesh Narayan Dwivedi: bad me ise type karane ki zarurat to na hogi, isliye behtar rahe ki koi app ho notebook ka us par likha jaye
[2/2, 20:57] PrKriyaban: Aap apne email id mei likh kar khud ko hi mail kar sakte hain.. wahaan saved rahega
[2/2, 21:12] Rakesh Narayan Dwivedi: yah thik he
[2/2, 21:24] PrKriyaban: Aaj ek alag gehrai hai
[2/2, 21:24] Rakesh Narayan Dwivedi: guru kripa hi kewalam🙏
[2/2, 21:25] PrKriyaban: 🙏
[2/2, 21:37] PrKriyaban: Swami ji, Brahmacharion ka
[2/2, 21:45] Rakesh Narayan Dwivedi: ham logo ko yah awsar nahi sulabh kya
[2/2, 21:46] Rakesh Narayan Dwivedi: sanyas lene par hi sambhav hoga
[2/2, 21:46] Rakesh Narayan Dwivedi: sanyas diksha ki kya eligibility he
[2/2, 22:42] PrKriyaban: Nahi
[2/2, 22:42] PrKriyaban: Aapki shaadi ho chuki hai, aapko sanyas nahi milega neeyam anusar
[2/2, 22:43] PrKriyaban: Aur Sanays ko mann se sanyas le lene ko bhi samjhaya gaya hai.. aap mann se sanyas le leejiye
[2/2, 22:43] PrKriyaban: Aapse kuch poochna tha... aap kya 3 jyoti mudra karte hain ya adhik?
[2/2, 22:44] PrKriyaban: Darasal, mai jab 24 kriya karti thi, tab bhi 3 hi jyoti mudra karti thi.. mai ashram mei poochna bhool gayee ki jyoti mudra ki sankhya kitni hogi
[2/3, 04:06] Rakesh Narayan Dwivedi: lesson me diya he 3 jyoti mudra do bar yani subah sham se adhik nhi karni. 3-3 hi karte. mahamudra kar sakte he subah sham ke alawa, 3.3 ki sankhya me hi🙏
[2/3, 04:07] Rakesh Narayan Dwivedi: ji. abhyas aur vairagya    ke bina sadhana puri nahi ho sakti, yahi sanyas he
[2/3, 06:03] Rakesh Narayan Dwivedi: देहबुद्‍ध्या त्वद्दासोऽहं जीवबुद्‍ध्या त्वदंशकः।
आत्मबुद्‍ध्या त्वमेवाहम् इति मे निश्चिता मतिः॥
dehabuddhyā tvaddāso’haṁ jīvabuddhyā tvadaṁśakaḥ |
ātmabuddhyā tvamevāham iti me niścitā matiḥ ||

When I am conscious of my body, I am Thy servant. When aware of myself, I am a part of Thine.
When I know my essence, I am verily Thyself. This is my certain belief.🙏
[2/3, 08:27] PrKriyaban: Ji
[2/3, 14:56] Rakesh Narayan Dwivedi: mahamudra kab karti, kriya ke thik pahle ya dhyan par baithte samay
[2/3, 14:57] Rakesh Narayan Dwivedi: ham dhyan mahamudra ke bad hi shuru karte he, asan nahi uthana padta isse
[2/3, 14:58] PrKriyaban: Kriya ke theek pehle
[2/3, 15:02] Rakesh Narayan Dwivedi: bataya to aisa hi gaya he
[2/3, 15:25] Rakesh Narayan Dwivedi: kuch vedanti dhyan kriya ko kamtar samjhte he priya,
[2/3, 15:26] Rakesh Narayan Dwivedi: yah swabhavik hi he, apne marg ko shreshth sab batayege hi na
[2/3, 15:45] PrKriyaban: Ji maloom hai... kriya lekin vedant se upar hai.. 17th lesson mei samjhaya hai ki kriya kaise vendant se accha hai
[2/3, 15:46] PrKriyaban: Aap agar dhyan dein, vandantin bas sutron ko le kar vyast hue rehte hain...Bahut kam log hi atma darshan kar pate hain
[2/3, 15:46] PrKriyaban: Dhyan karne se vednat ke sutra bhi acchi tarah samajh aate hain
[2/3, 15:47] Rakesh Narayan Dwivedi: bilkul sahi kaha
[2/3, 15:47] PrKriyaban: Ji, ye hamesha hi hota hai... apna marg hi sarvshreshth
[2/3, 15:48] PrKriyaban: Jaise mai vedant acchi tarah se samajh jati hoon lekin experience to dhyan se hi aata hai..
[2/3, 15:48] PrKriyaban: Dhyan se hi andar se sabhi kuch aane lagta hai...
[2/3, 15:49] PrKriyaban: Hum vedant nahi bhi padhe to bhi uska sara ghan hame dhyan karne se mil jayega
[2/3, 15:49] PrKriyaban: Hame nirbhar nahi hona ki vedant ki pustakon par.. padhe to accha nahi padhe to bhi koi baat nahi
[2/3, 15:50] Rakesh Narayan Dwivedi: ji
[2/3, 16:25] Rakesh Narayan Dwivedi: आत्मतत्व की निरंतर भावना निदिध्यासन है, यह किस प्रकार करते हैं फिर वेदांती
[2/3, 18:13] PrKriyaban: Nidhidhyasa hi drashta bhav hai.. isi bhav mei rehne ka practice
[2/3, 19:43] Rakesh Narayan Dwivedi: हम्म
जून 2018 के बाद पढ़ी पुस्तको की सूची लेखक, पुस्तक का नाम और पुस्तक की पृष्ठ संख्या के क्रम में बनाई है। 
इस सूची में 3-4 पुस्तके  बिना पढ़ी भी हैं। सूची में सम्मिलित इसलिए की गई क्योंकि उन्हें पढ़ने के लिए मंगाया गया था। उनसे बेहतर या रुचिकर उस समय दूसरी पुस्तके मिल गयी तो पहले उन्हें पढ़ा गया। किताबो के आने का क्रम इस तरह चलता रहा कि उन्हें फिर पढ़ ही नही पाए। अब समय ऐसा आता लग रहा कि उन्हें पढ़ने की आवश्यकता नहीं। एक समय इस प्रकार की पुस्तकें पढ़ने की गहन रुचि हुई थी, जो पुस्तक जहां से मिली, मंगाते गए। इंटरनेट से ही अधिकांश पुस्तकें मंगाई गईं। यात्राओं के क्रम में खरीदी गई पुस्तके थोड़ी ही हैं। सूची बनने के बाद चुनिंदा पुस्तको का परिचय या उसमे से कुछ महत्वपूर्ण बातों को रखने का प्रयास होगा। जो बातें की जाएगी, उनका स्रोत भी पुस्तकें ही तो हैं, पर पुस्तकीय बातों को ध्यान की अनुभूतियों से पुष्ट किया गया है। पुस्तको में वर्णित ज्ञान ध्यान में आई अनुभूतियों से कमतर ही हैं। कोई सत्य बिना मिश्रण के व्यक्त नहीं हो पाता, इसलिए कोई किताब पूरी नहीं। सब किताबें या ग्रंथ मिलकर भी ईश तत्व को प्रकट नही कर पाते, जब तक उसकी अनुभूति न कर ली जाए। ईश्वर को जितना व्यक्त करते जाते हैं वह जल में पड़े तूम्बे की भांति ऊपर उठता जाता है।
स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरि कैवल्य दर्शनं 168
परमहंस योगानंद
ईश्वर अर्जुन संवाद श्रीमद्भगवद्गीता  दो भाग 1306
योगी कथामृत 690
मानव की निरंतर खोज 550
जहां है प्रकाश 270
परमहंस योगानंद के वचनामृत 126
कॉस्मिक चन्ट्स 70
धर्म विज्ञान 82
मानसिक अशांति कारण एवं निवारण 37
जीने की कला 47
The Divine Romance 487
Journey To Self Realisation 439
Whispers from Eternity 304
Wine of the Mystic The Rubayyat of Omar Khayyam 233
Songs of the Soul 192
Metaphysical Meditations Universal Prayers, Affirmations and Visualisations116
In The Sanctuary of the Soul A guide to effective prayer 125
How can you talk with God 46
Developing Dynamic Will and other lectures from Man's Eternal Quest 43
Scientific Healing Affirmations 84
God First a retreatant's Pocket companion 24
The law of success Using the power of spirit to create Health, Prosperity and Happiness 31
How can you talk with God 39
To Be Victorious in life 83
The Art of Living and other lectures from Man's Eternal Quest 41
Habit your Master or Slave 47
Nervousness Cause and Cure 35
आध्यात्मिक दैनंदिनी 388
Paramahansa Yogananda In Memorium yss 124 
Rajarsi Janakananda A Great Western Yogi 188
Daya Mata 
Finding the JOY within You 318
केवल प्रेम 313
मृणालिनी माता, गुरु शिष्य सम्बन्ध 64
Gyan Mata, God Alone 332
सानंद लाल घोष, मेजदा 365
Swami Rama
Living with the Himalayan Masters 456
Sadhana the Path to Entertainment 296
 Samadhi The highest state of wisdom 242
paramahansa hariharananda Kriya yoga 291
I K Tamini The Science of Yoga 448
David Frawley Mantra Yoga and Primal Sound Secrets of Seed (Bija) Mantra 194
Sri Nisargadatta Maharaj  I Am That 531
paramahansa Prajanananda 
Mahavatar Babaji The Eternal Light of God 88
Akshara Tattwa Sacred Syllables 71
Divine Instructions Shikshashtakam of Shri Chaitanya Mahaprabhu 120
Jnana Sankalini Tantra 247
Lahiri Mahashaya Fountainhead of Kriya Yoga 159
The Yoga Sutra of Patanjali 476
Dancing with Death 337
Nava Durga multiple forms of the mother 32
Mananam reflections 298
The Universe Within A Journey Through The Chakras 135
Swami Shri Yukteshwar Incarnation of Wisdom 160
J Krishnamurti 
This Light in Oneself 133
Meditations selections by Evelyne Blau 145
The Book of Life daily meditattions  403
Commentaries on Living 3, 478
प्रथम और अंतिम मुक्ति 229
बाबूलाल द्विवेदी बूढ़े नर ही नारायण हैं 59
M govindan BABAji and the 18 siddha kriya yoga tradition 270
Jaideva Singh Vijnanabhairava or Divine Conciousness 173
Swami Kriyananda (J Donald Walters) Conversations with Yogananda 450
हजारी प्रसाद द्विवेदी
 मध्यकालीन धर्म साधना 157
कबीर 279
गोरखबानी करुणाशंकर उपाध्याय 85
Arthur Osborne The Teachings of Raman Maharshi 206
Swami Bhaskaranand meditation Mind and Patanjali's Yoga 252
Nicolas Notovitch The Unknown Life of Jesus Christ 144
Sadhguru 
Death an inside story 349
ADIYOGI The source of Yoga 219
भर्तृहरि 
नीतिशतकम 68
वैराग्य शतकं 72
स्वामी रंगनाथानंद आधुनिक युग मे नारी 30
जपु जी साहेब गुरु नानक साहेब का शाहकार  राधास्वामी सत्संग ब्यास 423
Swami Tattwanand Upanishadic Stories and other significance136
स्वामी चिन्मयानंद कठोपनिषद पृष्ठ 254
स्वामी तपोवनम जी महाराज हिमगिरि विहार 330
स्वामी वेंकटेसानन्द योग वासिष्ठ 366
 स्वामी रामसुखदास जी महाराज
 साधक संजीवनी 1296
सहज साधना 62
प्रश्नोत्तरमणिमाला 160
अमृत बिंदु (शिक्षा साहस्री) 126
कर्म रहस्य 78
श्रीमद्भागवतमहापुराण बेड़िया आकार खण्ड 1 1616
खण्ड 2 1536
Bhagwan Sri Raman Maharshi who am I(The Hindu group)166
स्वामी तेजोमयानंद श्रीमद्भागवत प्रवचन 978
श्री रामकृष्ण वचनामृत दो खण्ड निराला अनुदित 1280
The Gospel Of Sri Ramkrishna vol 1 & 2 1063
Parivrajika Vivekaprana
 Death or Immortality  A Dialogue with Death 104
I Am That The Joy Of Inner Awareness 110
Swami Tapasyananda Saundarya Lahari of Sri Shankaracharya 181
Swami Nikhilananda Drig Drishya Viveka an inquiry into the seer and seen 79
A C Swami Prabhupad  Easy Journey to Other Planet 93
Matri Vani vol I Teaching of Sri Anandmayi Ma 172
Vol II 341
Swami Vivekananda
 Six Lessons on Rajayoga 26
ध्यान तथा इसकी पद्धतियां 77
हिन्दू धर्म 146
गीताप्रेस
 योगदर्शन 144
आद्य शंकराचार्य विरचित अपरोक्षानुभूति 30
दत्तात्रेय वज्रकवच 30
शक्तिपीठ दर्शन 144
विवेक चूड़ामणि 158
पंचदेव अथर्वशीर्ष संग्रह  64
जयदयाल गोयन्दका श्रीप्रेमभक्ति प्रकाश तथा ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप 46
स्वामी रामदेव, प्राणायाम रहस्य 124
श्री मंगळ एस वेंक्टरमैया, श्री रमण महर्षि से बातचीत 580
बाबाश्री गुप्तावतार, सार्थ सौंदर्य लहरी 160
आशुतोष राना रामराज्य 320
महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज 
ज्ञानगंज 120
अनंत की ओर 404
श्री साधना 128
श्री एम हिमालयवासी गुरु के साये में एक योगी का आत्मचरित 320
डॉ अशोक कुमार चट्टोपाध्याय पुराण पुरुष योगिराज श्री श्यामाचरण लाहिड़ी 306
ओशो
तांत्रिक शुद्धि का आधार विज्ञान भैरव तंत्र भाग 1, 321
आत्म साधना विज्ञान भैरव तंत्र भाग 4 319
ताओ उपनिषद भाग एक
मैं मृत्यु सिखाता हूं 343
श्री ज्ञानेश्वरी  गीता 832
योगिराज गुरुनाथ सिद्धनाथ बाबाजी अकम्पित विराट वज्र 208
रामधारी सिंह दिनकर संस्कृति के चार अध्याय 698
पू श्री रामचन्द्र डोंगरे जी महाराज गोपीगीत 170
स्वामी श्री अखंडानंद सरस्वती जी गोपीगीत 367
चिन्मयानंद महाराज गोपीगीत
सोग्याल रिनपोचे जीवन और मरण की तिब्बती पुस्तक 494
रामप्रताप त्रिपाठी शास्त्री उपनिषदों की कहानियां 233
Philip Goldberg The Life & Time of YOGANANDA 336
Eckhart Tolle The Power of NOW A guide to spiritual enlightenment 192
Om Swami a million THOUGHTS 334
Robert E Svoboda Aghora I at the left hand of God 318
II  Kundalini 307
III The Law of Karma 278
rabindra nath tagore 
Gitanjali 111
One hundred poems of Kabir 105
Kahlil Zibran, 
The Prophet 128
द प्रोफेट (देवदूत) 111
भाई जी (अनुलेखक ज्योतिषचंद्र राय)श्री श्री मां का आत्मपरिचय (मातृ लीला) 1896 से 1932, 323
Nikos Kazantzakis Zorba The Greek 335
Devdutt Pattanayak 
my Gita 248
Yoga mythology 64 asanas and their stories 326
David Godman Be as you are The Teachings of Raman Maharshi 244
शालिग्राम मिश्र एक और सावित्री 178
Tao Te Ching Lao Tzu 131
मिखाइल नईमी किताब ए मीरदाद 264
स्वामी प्रभुपाद, कृष्ण भावनामृत सर्वोत्तम योग पद्धति 114


वाल्मीकीय रामायण में हनुमान राम के प्रति...
देहबुद्‍ध्या त्वद्दासोऽहं जीवबुद्‍ध्या त्वदंशकः।
आत्मबुद्‍ध्या त्वमेवाहम् इति मे निश्चिता मतिः॥
dehabuddhyā tvaddāso’haṁ jīvabuddhyā tvadaṁśakaḥ |
ātmabuddhyā tvamevāham iti me niścitā matiḥ ||

When I am conscious of my body, I am Thy servant. When aware of myself, I am a part of Thine.
When I know my essence, I am verily Thyself. This is my certain belief.

परम् तत्व विचार से परे और उसके पार है। वह ध्यान में अनुभूत हो जाता है, और कोई साधन तीव्रता और शीघ्रता से यह बोध नहीं करा पाता। ध्यान अगर क्रिया ध्यान हो तो सबसे उपयुक्त। ध्यान में अध्यान की अवस्था, फिर विचारों का आगम होता है। सारे विचार परम् तत्व की आराधना ही हैं, उसी प्रकार जैसे सारे प्राणी और वस्तु जगत उसी की छाया है। ध्यान में आये विचार सामान्य व्यवहार में बहुधा प्रयोग में नहीं आ पाते। जो सोचते हैं वह बोला नहीं जा पाता, जो बोलते हैं वह लिखा नही जा पाता और जो लिखा होता है वह व्यवहार में नहीं आ पाता। यही इच्छा, ज्ञान और क्रिया की एकता न हो पाने की विडंबना है। नॉलेज ज्ञात से ज्ञात की यात्रा है, किंतु लर्निंग ज्ञात से अज्ञात की यात्रा है। गुरुदेव टैगोर की अनुवाद भाषा मे कबीर कहते हैं I have attained the attainable.
कुछ शब्दों के अर्थ हमें परम् तत्व तक ले जाते हैं। जब हम अध्यात्म में गहनतर उतरते जाते हैं तो शास्त्रों और सिद्धों की बानियों में आये पद डिकोड यानी खुलने लगते हैं। नेपाली भाषा मे दीठा शब्द न्यायाधीश के लिए प्रयुक्त होता है, यह जानकर उपनिषदों का दृष्टा याद आ गया। 
इंद्रिय जिसे कहते हैं, उसका भला देवताओं के राजा इंद्र से क्या सम्बन्ध होगा। इंद्र वह खिड़की है, जहाँ से मन के व्यापार खुलते हैं। इंद्रियों के माध्यम से आत्मा दर्शन करती है। अहं में अ  और ह के बीच सारी वर्णमाला विद्यमान रहती है। इस अहं की भी बड़ी सूक्ष्म परतें हैं, यह कही न कहीं से प्रकट हो जाता है। शब्द का उच्चारण मात्र  अहं प्रकट करने में सक्षम है। महात्मा सर्वत्र और सर्वदा ईश्वर की उपस्थिति को आवश्यक कहकर इस अहं का परिहार करते हैं। ॐ की उपासना पर बल देते हैं। अ और म के बीच वर्णमाला का सत्व विद्यमान है। ॐ की महिमा से तो शास्त्र भरे पड़े हैं। ॐ ही को तो गुरु जी ने असल ध्यान बताया है।
डायरी लेखन में बड़ा आनंद मिल रहा है। इसकी प्रेरणा गुरुजी ने दैवीय मित्र प्रिया मिश्र घोष के माध्यम से प्रदान करके मत्प्रति उपकार किया है। सुबह से शाम तक विचारों के आलोडन को इस प्रकार व्यक्त कर पा रहे हैं। फेसबुक एक मंच मिला था, जिस पर लिखते भी आये हैं, पर उसमे इतनी निश्चिंतता कहाँ। वहां उपस्थित समाज का ध्यान कहीं न कहीं रखना पड़ता है। वहां लिखने का लोभ यही है कि प्रतिक्रियाएं मिल जाती हैं। अब हमें समाज को सम्बोधित नही करना, स्व को सामने रखना है। इस स्व में समाज का सर्वस्व भी सन्निहित है।
होंग sau और ॐ में वही अंतर है जो निर्विकल्प और सविकल्प समाधि के अंतर में गुरुजी ने अपनी चांट में रेखांकित किया है कि सविकल्प समाधि में अपनी आत्मा को खोएगा तो निर्विकल्प में उसे पायेगा।

तीन घंटे के ध्यान को एक सिटींग में पूरा करना अभी सामान्य नही हो पाया है, आखिरी घण्टे में पैरों और बटक के नीचे कुछ खिंचाव होने लगता है, लेकिन पिछले 5 सप्ताह से यह बिना पैरों को सरकाए हुए संभव हो रहा है। प्रारम्भ में जहां एक घंटा ही बिना खिंचाव के बैठना मुश्किल होता था, अब यह तीन घण्टे का ध्यान एक घण्टे की भांति सामान्य बनने की प्रतीक्षा है। 
देखा गया है कि बैठने के दौरान अगर पेशाब करने की इच्छा हुई तो अपान वायु के माध्यम से निकलकर वह सम्भल जाती है। उस समय अनुभूत होता है कि पांचों तत्व एक दूसरे में किस तरह घुलते मिलते जाते हैं।
सुबह सोकर उठने पर अचल होकर बिस्तर पर ही अच्छा ध्यान लगता है।  ध्यान में कभी कभी भृकुटि में आता है कि विभिन्न भगवान अलग अलग चेहरे, खासकर आंखों की छवियों, से दिखते हैं। कभी कभी संत और साधु दिखते हैं। यमुनोत्री दर्शन में नीचे गढ़वाल मंडल के गेस्ट हाउस में रात में आदि शंकराचार्य का दर्शन हुआ था। 
आज की पोस्ट के साथ पहले की पोस्ट संलग्न की जा रही है, यह लगाने का उद्देश्य है कि इसके बाद हम पहले की अपनी बातों पर यहां नही जा पाएंगे, जिससे सद्यः चिंतन ही प्रस्तुत हो, वैसे कोई बात मौलिक नहीं, वह पहले कभी आयी ही होती है। पोस्ट के साथ तिथि भी अंकित की जा रही है। यह पोस्ट फेसबुक पर कर चुके हैं, कुछ पोस्ट यहां भी नहीं होंगी, किंतु फेसबुक पर होंगी। फेसबुक से कैसे निकाली जाएं, हमे ज्ञात नहीं है और न उन पोस्ट को अभी देखने की ज़रूरत ही है। 
ध्यान अर्पण है। ध्यान वह जल है जो देवताओं को हाथ पांव धोने के लिए दिया जाता है। ध्यान के द्वारा प्राप्त किया हुआ आत्मज्ञान पुष्प है। यही ध्यान की ओर ले जाने वाले साधन हैं। आत्मा का बोध ध्यान के अतिरिक्त और किसी साधन से नहीं हो सकता। यदि कोई तेरह सेकंड भी ध्यान लगाता है, तो यदि वह अज्ञानी भी है तो भी उसे गोदान का पुण्य प्राप्त होता है। यदि कोई एक सौ एक सेकंड ध्यान लगाता है तो उसे यज्ञ करने का फल मिलता है। यदि यह अवधि बारह मिनट होती है तो पुण्य हजार गुना होता है। यदि यह अवधि एक दिन की हो तो व्यक्ति सर्वोच्च लोक में पहुच जाता है। यही परम योग है, यही परम् क्रिया है। योग वासिष्ठ से।  बस इसमे ईश्वर प्राप्त गुरु का आशीर्वाद मिल जाये।
तर्कों के बीच छिपे सत्य का दर्शन करना रहस्य है। रहस्य किसी आग्रह या वाद-विवाद का नाम नहीं। यह भ्रामक कल्पना, आस्था और विश्वास भी नहीं, यह तो एक अनुभूति है। आप कोई भी नाम दे सकते हैं। उसका नाम कैसे दिया जा सकता है-
बसती न सुण्यम सुण्यम न बसती अगम अगोचर ऐसा।
गिगन शिषर महँ बालक बोले ताका नाम धरहुगे कैसा।।
लगभग एक वर्ष के प्रवास के बाद 1936 में परमहंस योगानंद जब अमेरिका वापस गए तो कई उपहार उनके साथ गए। श्री ई ई डिकिंसन को परमहंस जी ने चांदी का गिलास दिया। श्री डिकिन्सन की मुलाक़ात सितंबर 1893 में स्वामी विवेकानंद से 17 वर्ष की आयु में हो चुकी थी। विवेकानंद जी ने डिकिन्सन की जीवन रक्षा की थी, विवेकानंद को गुरु बनाने की इच्छा देखकर डिकिन्सन से उन्होंने कहा था, तुम्हारे गुरु आएंगे और चांदी का गिलास देंगे तो तुम समझ जाओगे। 1925 से डिकिन्सन परमहंस जी के शिष्य थे, जब उन्होंने चांदी का गिलास उपहार में दिया तब उन्हें यह सब स्मरण में आया।  12 जनवरी 21
मन जहां डर से परे है
और सिर जहां ऊंचा है;
ज्ञान जहां मुक्‍त है;
और जहां दुनिया को
संकीर्ण घरेलू दीवारों से
छोटे छोटे टुकड़ों में बांटा नहीं गया है;
जहां शब्‍द सच की गहराइयों से निकलते हैं;
जहां थकी हुई प्रयासरत बांहें
त्रुटि हीनता की तलाश में हैं;
जहां कारण की स्‍पष्‍ट धारा है
जो सुनसान रेतीले मृत आदत के
वीराने में अपना रास्‍ता खो नहीं चुकी है;
जहां मन हमेशा व्‍यापक होते विचार और सक्रियता में
तुम्‍हारे जरिए आगे चलता है
और आजादी के स्‍वर्ग में पहुंच जाता है
ओ पिता
मेरे देश को जागृत बनाओ"
"गीतांजलि"
- रवीन्द्रनाथ टैगोर
Where the mind is without fear and the head is held high;
   Where knowledge is free;
   Where the world has not been broken up into fragments by narrow domestic walls;
   Where words come out from the depth of truth;
   Where tireless striving stretches its arms towards perfection;
   Where the clear stream of reason has not lost its way into the dreary desert sand of dead habit;
   Where the mind is led forward by thee into ever-widening thought and action
   Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake. 26 जनवरी 21
अरी ! कमलिनी तू क्यों मुरझाई हुई है?” तेरे नाल (डंडी) में तो तालाब का जल विद्यमान है। जल मिलते . रहने पर भी तेरे कुम्हलाने का क्या कारण है? हे कमलिनी ! तेरी उत्पत्ति जल में ही हुई है और तू जल में ही सदा से निवास कर रही है। कभी इससे अलग नहीं हुई है, निरंतर जल में रहते हुए भी तेरे मुरझाने का क्या कारण है। न तो तेरा तला तप रहा है न ऊपर से कोई आग तुझे तपा रही है। यह बता कि तेरा किसी से प्रेम तो नहीं हो गया है। जिसके वियोग के दु:ख से तू मुरझा रही है। क्योंकि तेरे ही भले के लिए काई भी लगी हुई है अर्थात् तुझे तो किसी भी रूप में कष्ट नहीं है, क्योंकि तेरे अन्तर्मन में भी ईश्वर है और बाहर भी जिस प्रकार काई पानी को सूखने नहीं देता ठीक वैसे ही ईश्वर भी कभी भी नहीं मरता और न जीवात्मा मरती है। कबीर कहते हैं कि जो ज्ञानी पुरुष अपने भीतर के और बाहर के जल की एकता का ज्ञान रखते हैं। वे हमारे मतानुसार कभी मृत्यु के भय से पीड़ित नहीं होते। आत्मा की और परमात्मा की एकता जानने और मानने वाला कभी मृत्यु से भयभीत नहीं होता।
कबीर कहते हैं कि हे कमलिनी (जोकि आत्मा का प्रतीक है) तू क्यों कुम्हला रही है, मुरझा रही है। तेरा सीधा संबंध जीव (जोकि परमात्मा का प्रतीक है) से है हे कुमुदनी तेरी नाल जल से जुड़ी है। अर्थात् आत्मा अपने अंशी से पतले तार से जुड़ी हुई है। वे कुमुदिनी को समझते हैं कि तेरी उत्पत्ति अर्थात् जन्म जल में हुआ है, तू जल में ही निवास करती है फिर तू क्यों मुरझा रही है ? अर्थात् जीवात्मा मनुष्य के भीतर जो सूक्ष्म ब्रह्म है, उसी से जुड़ी है फिर भी वह अज्ञानतावश चिंता करती है। हे कुमुदिनी न तेरी तली अर्थात् आधार पाता है न ऊपरी भाग भी तप्त नहीं होता है, क्योंकि तेरे ही भले के लिए काई भी लगी हुई है अर्थात् तुझे तो किसी भी रूप में कष्ट नहीं है, क्योंकि तेरे अन्तर्मन में भी ईश्वर है और बाहर भी जिस प्रकार काई पानी को सूखने नहीं देता ठीक वैसे ही ईश्वर भी कभी भी नहीं मरता और न जीवात्मा मरती है। कबीर कहते हैं जो जल के समान होता है अर्थात् जो परमात्मा का ही बिंब है, वह कभी नहीं मरेगा। 12 जनवरी 21
कर्तव्य पालन का बोध किसान कैसे कराते हैं..

एक कहानी में आता है कि एक बार बारिश नही हुई। खेती बाड़ी ठप थी। किसानों ने सोचा वर्षा न हुई तो क्या!  चलकर हम खेत तो जोत सकते हैं। खेती न करने से कही हम उसे भूल न जायें। किसानों को खेती करते देख मोरों ने सोचा बारिश नही हुई तो भी हमे नृत्य करना चाहिए। मोरों को नाचते देखकर मेघो ने सोचा कहीं हमारी घटाएं घिरना न भूल जाएं और जब बादल भी घिर आए तो इंद्र ने सोचा हम ही अपना काम फिर क्यों न करें! और उन्होंने झमाझम वर्षा कर दी। 12 जनवरी 21
संतो भक्ति सतोगुरु आनी।
नारी एक पुरुष दुई जाया बूझयो पंडित ज्ञानी।
पाहन फोरि गंग एक निकसी चहु दिशि पानी पानी।
तेहि पानी दुई पर्वत बूडे दरिया लहर समानी।
उडि माखी तरिवर को लागी बोले एकै बानी।
वह माखी को माखा नाहीं गर्भ रहा बिनु पानी।
नारी सकल पुरुष वे खाये ताते रहे अकेला।
कहहिं कबीर जो अबकी बूझै सोई गुरू हम चेला।।
अर्थात
है संतो! भक्ति का उदय सद्गुरु ही करा सकते हैं। भक्ति रूपी नारी से विवेक और वैराग्य रूपी दो पुरुषों का जन्म हुआ। ज्ञान रूपी गंगा के निकलने पर चारों तरफ पानी पानी हो गया है। उस पानी में अहंता और ममता रूपी दोनो पर्वत डूब गए हैं। नदी लहर में समा गई है। जलाप्लावन के बीच मन रूपी मक्खी ज्ञान मूल रूपी पेड़ पर जा बैठी है और वह अब एक ही सत्य को बोल रही है। बिना नर मक्खी और वीर्य के ही उसका गर्भ ठहर गया, यानि शून्य दशा में मन पहुँच गया है। भक्ति रूपी नारी ने अब ज्ञान और वैराग्य रूपी समस्त पुरुषों को खा लिया है, अब वह अकेली है, यानि अब शोध करने के लिए कुछ शेष नहीं रहा और वह स्वरूप चेतना में स्थित हो गयी। कबीर कहते हैं इस रूपक को जो जानता है, वही गुरु है और हम उसके शिष्य हैं। 6 जन 21
विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाsमृतमश्नुते॥
 

He who knows That as both in one, the Knowledge and the Ignorance, by the Ignorance crosses beyond death and by the Knowledge enjoys Immortality.

जो तत् को इस रूप में जानता है कि वह एक साथ विद्या और अविद्या दोनों है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमरता का आस्वादन करता है।
6 नवम्बर 2020
इलम ना आवे विच शुमार, इको अलफ़ तेरे दरकार,
जांदी उमर नहीं इतबार, इलमों बस्स करीं ओ यार । बुल्ले शाह
राधा कृष्ण की उपासना से पूरा कार्तिक माह आप्लावित रहता है। गीता में महीनों में सर्वश्रेष्ठ तो कार्तिक के बाद आने वाला मार्गशीर्ष यानि अगहन बताया गया है। मासानां मार्गशीर्षोsहम। किंतु कार्तिक की महिमा कई पुराणों में गाई गयी है। वैशाख और माघ के महीनों का भी विशेष महत्व है। चातुर्मास और उसमे हुई वर्षाजनित समस्याओं के बाद कार्तिक महीना आता है। इसमें जलवायु समशीतोष्ण रहती है, जो सबको सुखद लगती है। इस माह में मनुष्यों और मनुष्येतर प्राणियों को जैसे पुनर्जीवन मिल जाता है। वे तरोताजा हो उठते हैं। ब्रज क्षेत्र और  कन्हैया पर विभिन्न लोकगीत गांव और कस्बों में सुबह सुबह सुनाई देते हैं। कृष्ण भक्ति रस में सराबोर कार्तिक स्नान करके आती हुई कतकारियाँ कृष्ण की गोपियों की याद करा देती हैं। 

तुलसी पौधे की पूजा और ऐसे गाये गीत मन को झंकृत कर देते हैं। कार्तिक गीतों में यह स्त्रियां ब्रज की मोर होने की कामना करती हैं, तो कोई दही बेचने के गीत गाती हैं, कोई अपने कान्हा को माखन खिलाने और अनेक तरह से सुश्रुषा करतीं हैं। कोई कहती मोहे ब्रज बिसरत नइयां। दे गए मुरलिया की टेर। सूरदास को वात्सल्य पद सम्राट कहा जाता है, पर प्रेम और भक्ति के इन गीतों का रसलालित्य उन वात्सल्य पदों से कम आह्लादक नहीं। वात्सल्य के वे पद अकादमिक चर्चा के विषय भर हैं, पर यह गीत जन-जन के भीतर पैठे हुए हैं। बुंदेलखंड में उर्मिला पांडेय, लक्ष्मी त्रिपाठी आदि आकाशवाणी कलाकारों ने भी इन गीतों को सुर दिया है। रामलीला हो, रासलीला या अन्य लोकपर्व, उनकी छटा तभी है, जब वे लोक में रमे हों। उनकी नकल या परिष्करण हमें रसाभास ही करा पाते हैं, अवगाहन नहीं। इनका संरक्षण इन पर किताबे लिखने से नहीं, वरन जहां जो संस्कृति स्वाभाविक तरीके से बढ़ रही है, उसे अपने प्रवाह से चलने देने में संभव है। किताबों की उपयोगिता उनका स्वरूप बताने में अवश्य है। 

 प्रातः 4 बजे उठकर इन कतकारियों की दिनचर्या शुरू हो जाती है। एक समय भोजन करती हैं। बिना नमक का भोजन, कुछ निर्धारित दिन बिना भोजन ही, कठोर शय्या अथवा भूमि पर एकल शयन, बिना चप्पल के चलना, पूजा उपासना में तरह तरह की सामग्री की जुटान, भक्ति और उल्लास से परिपूर्ण। भागवत के गोपी गीत में भावशबलता की पराकाष्ठा है, वह गीत ही जैसे इन पर उतर आता है।  14 नवम्बर 2020
पुरयं शेते इति पुरुषः।
सांख्य दर्शन में सबसे पहले पुरुष की अवधारणा स्पष्ट हुई है। पुर यानि शहर शेते यानि निवास करना, रहना। विशुद्ध चेतना का नाम पुरुष है, जो इंद्रियों के शहर में रहती है। शरीर इंद्रियों का नगर ही है। विशुद्ध चेतना यानी पुरुष अपरिवर्तित, कार्यकारण सम्बन्ध रहित और सर्वत्र विद्यमान रहता है। पुरुष दृश्यमान जगत में हो रही घटनाओं का साक्षी है। पुरुष का यही अर्थ चरक और सुश्रुत ने अपने आयुर्वेद गर्न्थो में दिया है। 
इस पुरुष को वर्तमान पुरुष जाति ने प्रभुत्व रखने के कारण भाषा मे अपने लिए संज्ञा के रूप में आरक्षित कर लिया है। Purusha is considered as the first concept of Sankhya philosophy. Pur means 'city'. Sheta means 'dwelling, living, existing'. Purusha is that pure Consciousness that exists, lives, dwells in the city of senses. The body is a city of senses. Purusha can be called pure Consciousness. Purusha is the universal principle that is unchanging, uncaused and present everywhere. Pususha is the witness in which everything is occurring. This conscious energy of Purusha is related to Shiva, the male energy. [Sankaralingam] -- Read more: http://yogananda.com.au/g/g_purusha.html
श्री नारायण गुरु

किं नाम देश का जातिः प्रवृत्ति का कियद्वयः।
इत्यादि वादोपरतिर्यस्य तस्यैव निवृत्ति।।1।।

आगच्छ गच्छ मागच्छ प्रविश कवनु गच्छसि।
इत्यादि वादोपरतिर्यस्य तस्यैव निवृत्ति।।2।।

क्व यस्यसि कदायातः कुत आयासि कोsसि।
इत्यादि वादोपरतिर्यस्य तस्यैव निवृत्ति।।3।।

अहं त्वं सोयं अंतर्हि बहिरस्ति न वा अस्ति वा।
इत्यादि वादोपरतिर्यस्य तस्यैव निवृत्ति।।4।।

ज्ञात अज्ञात समः स्व अन्य भेद शून्यः कुतो भिदः।
इत्यादि वादोपरतिर्यस्य तस्यैव निवृत्ति।।5।। 2 नव 2020
तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम्॥

–श्रीविष्णुपुराण १-१९-४१

कर्म वही है जो बन्धनका कारण न हो और विद्या भी वही है जो मुक्तिकी साधिका हो। इसके अतिरिक्त और कर्म तो परिश्रमरुप तथा अन्य विद्याएँ कला-कौशलमात्र ही हैं॥ 24 अक्टूबर 2020
जब हम आंतरिक दुश्मनों और  काल (समय) के भय से मुक्त हो जाते हैं, तब मां हमारे भीतर असीमित भव्यता के साथ महागौरी के रूप में जन्म लेती है। महा जो माप से बाहर है और गौरी जिसके शांति, तेज और प्रेम बहुत से ऐसे अर्थ हैं। गोरा शरीर के रंग को कहने लगे हैं, क्योंकि उसमें उक्त गुणों की सम्भाव्यता का दर्शन मान लिया गया है।

नौंवी देवी सिद्धिदात्री हैं। यह सफलता और पूर्णता की दात्री है। सिद्धिदात्री तक पहुँचने का क्रम प्रथमं शैलपुत्रीश्च से शुरू होता है। हम सीधे नौंवी देवी को प्राप्त नहीं कर सकते। स्मरण रहे, यह करतब सिद्धि नहीं है, जिसके व्यामोह से जगत आच्छादित है। वह सिद्धि, जिसका आनंद फीका न पड़े। 

नवदुर्गा शरीर के नवद्वारों में है। खाते, पीते, बोलते हर श्वास में  दुर्गा है। नवद्वारी दुर्गा की उपासना से नवग्रह और सत्ताईस नक्षत्रों के कुप्रभाव शून्य हो जाते हैं। नवदुर्गा प्रसन्न होती है तभी दशम द्वार मिलता है। दशहरे का यही अभिप्राय है, जो अगले दिन मनाया जाता है। मां नित्य नवीन आनंद है, उसी मां के हम बच्चे हैं। अस्तु! हम दुर्गा की आराधना करें।

सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोsस्तु ते।।
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोsस्तु ते ।। 24 अक्टूबर 2020

शिक्षा की स्वायत्तता :
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अध्यापक स्वराज्य में रहता है और अमृत हो कर जीता है।
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कालिदास ने शाकुंतल में एक चित्र दिया है ,
उसके आधार पर ,हम उस जमाने में शिक्षा की स्वायत्तता की परिकल्पना को समझ सकते हैं>>

>>>,दुष्यंत आखेट करता हुआ आश्रम के परिसर में जा पंहुचा,एक मृग को लक्ष्य बनाये हुए था ।

>>> ,एक तापस-बालक ने राजा को देखा तो बोला >आश्रमस्य मृगोSयं राजन्‌ ,न हंतव्यो न हंतव्य:।
>>>>> यह आश्रम का मृग है, शिकार के लिये नहीं !

राजा का वाण धनुष पर से नीचे उतर गया

और राजा स्वयं भी रथ से नीचे उतर गया।

दूसरा उदाहरण >> >>>>>गांधार का युवराज आंभीक सिकंदर से जा मिला,
तक्षशिला बगावती हो गयी,आंभीक को मालूम था कि कौटिल्य विद्रोह का स्रोत है,पर आंभीक उसे पकडने का साहस नहीं कर सका।

चंद्रगुप्त नाटक में प्रसादजी का वाक्य है, >>>वह [अध्यापक] न किसी के राज्य में रहता है,न किसी के अन्न से पलता है,वह स्वराज्य में रहता है और अमृत हो कर जीता है। राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी की पोस्ट 6 अगस्त 2020
ब्रह्म की निंदा कोई नहीं कर सकता। उसे नेति नेति कहा गया है। निंदा से कोई वह छुई मुई नहीं कि मुरझा जाएगा। जो निंदा करता है दोष उसका है, बस हमे सुनने का दोष नहीं लेना है, वहां से हट जायेगे और उसी ब्रह्म से उसकी सद्बुद्धि के लिए कामना करेंगे। क़ानून में जो उपाय होगा उसका सहारा लेंगे। इसी फेसबुक पर देव देवियों की कितनी निंदा की जाती है। ब्राह्मणों को यूरेशियन या बाहरी कह दिया जाता है। यह सब प्रतिक्रियाएं हैं इन्हें दूर करने का तरीका ठोका नीति नहीं हो सकता। सबका विश्वास नारा इसीलिए बना है। ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥ 7 अगस्त 2020
भगवान के 'मैं' बीज से मन उत्पन्न हुआ। मैं मन बना और मन तत्व की प्रधानता से मैन, माइंड, मनुष्य, मुनि, मनु, मौन इत्यादि नामरूप बने। इंद्रियाणां मनश्चास्मि अर्थात इंद्रियों में मन ईश्वर की विभूति है।  सप्त ऋषियों और कुल चौदह में से स्वायम्भू आदि चार मनु यानि ग्यारह भाव सृष्टि व्यापार के लिए भगवान के मन से उत्पन्न हुए हैं। ये ग्यारहों  ने लोकपालों को उत्पन्न किया और लोकपालों ने विविध लोको  की रचना की और उन लोकों से सारी प्रजा ने जन्म धारण किया है...

 महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः।। गीता 10.6।।

इस प्रकार मनु पूरी सनातन संस्कृति के केंद्र में हैं, इन्हें कैसे हटाया जा सकता है...29 जून 2020
आज संविधान दिवस है। 1949 में आज के दिन भारत का संविधान अंगीकृत किया गया, जो 26 जनवरी 1950 के दिन से लागू हुआ। 26 जनवरी 1930 को पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में स्वीकृत हुआ था। इसी कारण 26 जनवरी के दिन संविधान लागू करने के लिए चुना गया था। 
1977 से संविधान की उद्देशिका या प्रेअम्बल में दो पद जोड़े गए, जिनमे से सेक्युलर शब्द पर बहुत बहस हुई और यह अब तक होती रहती है। सेक्युलर शब्द की हिंदी धर्मनिरपेक्ष हो या पंथनिरपेक्ष, हिंदी में यह अनुवाद की बहस है तो अंग्रेजी सेक्युलर के अर्थ को लेकर अलग-अलग मत हैं। इस अकेले शब्द के माध्यम से पूरी दुनिया के सभी मतवादों की चर्चा की जा सकती है। मोटे तौर पर दो वर्ग बन सकते हैं।
एक वर्ग के अनुसार कोई व्यक्ति धर्मनिरपेक्ष कैसे हो सकता है! धर्म तो व्यक्ति का गुण या स्वभाव है। जैसे पानी का गुण शीतलता, अग्नि का दाहकता इत्यादि। इसलिए धर्मनिरपेक्ष कोई व्यक्ति नहीं हो सकता शब्द। शब्दकोशों में किसी राज्य को रिलिजन या रिलीजियस क्रियाओं से निरपेक्ष रहने के अर्थ में सेक्युलर लिखा गया है। इस मत में रिलिजन को पंथ कहा गया, धर्म नहीं। यानि कोई व्यक्ति या समूह नॉन रिलीजियस हो सकता है, किंतु अ धर्मी नहीं।
दूसरा वर्ग कहता है, व्यक्ति या वस्तु के गुण धर्म परिस्थिति या परिवेश के कारण बदलते भी रह सकते हैं। जो जल सर्दियों में शीतल होता है, वही गर्मियों में गर्म हो जाता है, गर्मियों की अग्नि दाहक है तो सर्दियों में वही गुरसी यानि गुड़ सी हो जाती है। मनुष्य के बुनियादी स्वभाव का विभाजन भी इस बहस में दिखता है कि मनुष्य का स्वभाव मूलतः क्या है, इसीलिए इस बहस का तिरोभाव तभी संभव है जब व्यक्ति धर्मों से ऊपर उठे। इसका मतलब नास्तिक हो जाना नहीं है। व्यक्ति धार्मिक क्रियाओं के माध्यम से तो बिना उनके भी धर्म का मूल स्वरूप जान सकता है, जितना समय लगे, तभी वह धर्मनिरपेक्ष हो पायेगा। सभी धर्मों का मूल स्वरूप व्यक्ति को द्वंद्व से पार ले जाने में है, जो धर्म परस्पर होड़ लगाए हों कि मेरी संख्याबल ये उसकी ये, वे वस्तुतः धार्मिक नहीं हैं, प्रचारक हो सकते हैं। जब व्यक्ति धार्मिक हो जाता है तब वह किसी धर्म का निंदक नहीं रह सकता है। 26 नव 2020
Love is not the product of thought which is the past. Thought cannot possibly 
cultivate love. Love is not hedged about and caught in jealousy, for jealousy is 
of the past. Love is always active present. It is not ‘I will love’ or ‘I have loved’. 
If you know love you will not follow anybody. Love does not obey. When you 
love there is neither respect nor disrespect. j krishnamurthi
धनतेरस या धनत्रयोदशी के दिन समुद्र मंथन के दौरान निकले भगवान धन्वंतरि का आविर्भाव दिवस भी मनाया जाता है। धन्वंतरि आयुर्वेद के अधिपति हैं, यानी भगवान के वैद्य। 
धनतेरस के दिन गुजरात में दाल भात और मालपुआ बनते हैं। तमिलनाडु में ब्राह्मण स्त्रियां marundhu मरुन्धु बनाती हैं, जिसका अर्थ दवाई ही है। 
धनतेरस पर एक कहानी मिलती है। राजा हिम के 16 वर्षीय पुत्र की जन्मकुंडली में योग था कि शादी के चौथे दिन सांप के काटने से उसकी मृत्यु हो जाएगी। शादी होने पर उसकी पत्नी ने उस निर्धारित दिन की रात में अपने पति को सोने नहीं दिया। उसने जो भी जेवरात पहने थे, जो सोना चांदी था, सब दरवाजे पर रख दिये। यमराज का सांप जब उसे डसने आया तो उन गहनों की चकाचौंध से वह अंदर नहीं जा पाया और इस प्रकार उस स्त्री ने अपने पति की जान बचाई। अगले दिन नरक चतुर्दशी होती है। लगता है इसी कारण धनतेरस के दिन धातुएं खरीदी जाती हैं। 12 नवम्बर 2020
प्रकृति के समक्ष समर्पण मनुष्य का स्वभाव है, यह उसकी परिणति भी है। उत्तराखंड के पवित्र पहाड़ और नदियां प्रकृति के उच्चतर उदाहरण हैं। यहां श्रद्धालु और पर्यटक सब तरह के यात्री आते हैं। जो पर्यटक केवल मौज मस्ती और गर्मी से बचने के लिए यहां आते हैं, वे भी यहां के पोर पोर में बसी आध्यात्मिक चेतना को अनुभव करते हैं। वैसे भी ऊंचे पहाड़ों की यात्रा मनुष्य की चेतना को समस्वर करने के उद्देश्य से धार्मिक रीति-नीति में आवश्यक की गई होगी। पहाड़ और नदियों से जुड़ी कहानियों को कोई गल्प माने, पर भारत की चेतना में इन्हें बड़े गहरे आत्मसात किया गया है। यह भारत की बड़ी विशेषता है, अन्यथा प्रकृति के रोमांच दुनिया भर में बिखरे पड़े हैं, लेकिन भारतीय मनीषा इन्हें स्वयं से अभिन्न मानती है। हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन धर्मों के श्रद्धा केंद्र उत्तराखंड में दर्शनीय हैं।
पहाड़ों की दुर्गम यात्रा यहां के लोग सहजता से सम्पन्न कराते हैं। मैदानी क्षेत्रों के राजमार्गों पर सौ किमी चलने पर भी हमें कोई न कोई दुर्घटना दिख जाएगी, पर यहां के सर्पिल घुमाव में पहाड़-दर-पहाड़ हजारों किमी सँकरी सड़कों पर भी हमें कोई दुर्घटना नहीं दिखी। यह ज़रूर है कि गर्मियों में भीड़ भाड़ बढ़ने से यहां वाहनों के लंबे जाम लग जाते हैं,  जो घण्टों में खुल पाते हैं, पर यहां के ड्राइवर बड़े धैर्य, समझदारी और सहयोग से, बिना झल्लाहट आने जाने वाले वाहनों को पास कराते हैं। अगर अपने वाहन आगे पीछे करने की ज़रूरत हुई तो खुशी खुशी कर लेते हैं।  यहां के वाहन चालको को कोई जल्दी नहीं होती और जाम के कारण देर होने पर कोई नैराश्य भी नहीं। बरसात के दिनों में पहाड़ों में भूस्खलन होता रहता है, पर यहां उसके प्रति भी एक तरह की सहजता है। पर्यटन यहां के लोगो की आय का मुख्य माध्यम है। चार महीने में अर्जित आय से वर्ष भर का गुजारा होता है। कोई टेम्पो या टूरिस्ट मज़बूरी या अनभिज्ञता का लाभ लेते हुए अधिक वसूली भी कर लेता है। लोग पंडों को बदनाम करते थे, पर हमें और न हमारे समूह के लोगों से पंडों ने कोई ज़बरदस्ती नहीं की और न किसी प्रकार ठगा ही। 20 जून2019
हिमालय के बद्रीनाथ क्षेत्र में शंकर और पार्वती निवास करते थे। एक दिन अचानक एक बालक उनके सम्मुख आया। पार्वती ने उसे उठाकर संभालने की इच्छा प्रकट की, पर शंकर ने रोका कि यह साधारण बालक नही है, अन्यथा इसके माता पिता के पदचिह्न बर्फ पर दिखते। पार्वती नही मानी, बालक की सम्भाल करने लगीं। एक दिन जब पार्वती और शंकर बाहर निकले और घर वापस आये तो बालक ने कुंडी लगा दी और खोली नहीं। मजबूरन शंकर पार्वती को अपना स्थान बदलना पड़ा और केदारनाथ जाकर रहने लगे।
हिमालय की यात्रा कुछ पाने के लिए नही की जाती, वरन वहां जाकर संसार के सारे पदार्थ हिमालय के सामने बौने दिखने लगते हैं।  यही इस यात्रा का निहितार्थ है।  बद्रीनाथ और गंगोत्री के लिए अब मोटर वाहन सुलभ हो गए हैं, पर पहले लोग वहां पैदल जाते थे। बद्रीनाथ की यात्रा में वहां से पच्चीस किमी पूर्व गोविद घाट से अद्भुत दृश्य और शांति प्राप्त होती है। इस क्षेत्र को लोग विश्व के सभी क्षेत्रों से विरल मानते हैं। गोविंद घाट से ही सिखों के पवित्र हेमकुंड सरोवर की यात्रा आरम्भ होती है।
आदि जगतगुरु आचार्य शंकर ने हज़ारो वर्ष पहले सुदूर दक्षिण के केरल में जन्म लेकर हिमालय की तीन हज़ार किमी से अधिक की यात्रा तीन बार पूरी की। यही नहीं, उन्होंने पूर्व से पश्चिम की यात्रा भी एक बार पूरी करके देश मे चार पीठें स्थापित की। यह कार्य उन्होंने कोई सम्प्रदाय या धर्म निर्मित करने के लिए नही किया, वरन सनातन धर्म को मौलिकता प्रदान करते हुए पुनर्स्थापित किया। आदि शंकराचार्य द्वारा सर्वप्रथम हिमालय के जोशीमठ (ज्योतिर्मठ) में पीठ स्थापित की गई। दुर्भाग्यवश, यही पीठ आजकल विवादित हो गयी है। इस पीठ पर शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती और वासुदेवानंद सरस्वती के बीच अवर न्यायालय और हाइकोर्ट से होते हुए मुक़दमा सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। वर्तमान में स्वरूपानंद जी ने कुछ ज़मीन लेकर मन्दिर और अन्य स्थापत्य निर्मित कर लिए, इसी से सटे क्षेत्र पर ऊपर पुराने भवन में वासुदेवानंद जी की पीठ चल रही है। स्वरूपानन्द जी पर आरोप है कि वह बद्रीनाथ क्षेत्र की पीठ हथियाने के लिए अपने को गुरु ब्रह्मानंद सरस्वती की जगह बोधाश्रमजी का शिष्य बताने लगे। ब्रह्मानंद जी के बाद शांतानंद और एक अन्य शंकराचार्य इस पीठ को सुशोभित किये और फिर वासुदेवानंद जी आसीन हुए। स्वरूपानन्द जी ब्रह्मानंद जी के बाद बोधाश्रम जी और फिर स्वयं पीठाचार्य बताते हैं। जो हो, लेकिन इस विवाद से नुकसान पहुच रहा है। यही नहीं आदि शंकराचार्य ने भारत की एकता और अखंडता के लिए बद्रीनाथ मंदिर की पूजा के लिए केरल के नंबूदरी ब्राह्मणों को नियुक्त किया। नंबूदरियो कि सहायता के लिए गढ़वाली ब्राह्मण रहते हैं। उनका दावा है कि इन दोनों शंकराचार्यो का दावा झूठा है यह तो नम्बूदरी ब्राह्मणों की पीठ है।
परम्परा में भगवान बद्रीनाथ का स्वरूप जैसा मिलता है, उससे किंचित भिन्न यहां बद्रीनाथ पद्मासन में ध्यान करते हुए बिराजे हैं। हाथ चार ही हैं। दो अलग अलग हाथो में शंख और चक्र पर दो अन्य नीचे के हाथ ध्यान दशा में परस्पर मिले हुए  हैं। इस स्वरूप से यह भी स्पष्ट है कि योग और ध्यान अपनी परम्परा में अति प्राचीन विधियां हैं। कहा जाता है भगवान विष्णु ध्यान करते गए और पत्नी लक्ष्मी ने बदरी पेड़ का रूप धारण कर उन्हें छाया प्रदान की, इससे वह बद्रीनाथ हुए। बद्री को बेर के पेड़ के रुप में जनसामान्य जानता है, पर बदरी बेर से भिन्न एक अन्य पेड़ हैं, यद्यपि वह पेड़ भी आजकल यहां मौजूद नहीं हैं।
उत्तराखंड के चार धामों की यात्रा का क्रम यमुनोत्री से शुरू होता है। यमुना का उद्गम स्थल यमुनोत्री है। यमुना सूर्य की पुत्री हैं, इनका भाई यम है, पर माता अलग अलग हैं। यम के श्राप या दुःख को बहिन यमुना ने दूर किया था। यमी का उल्लेख वेद में भी है। इसलिए व्यक्ति असामयिक मृत्यु और उसके भय को दूर करने यहां आते हैं। गंगोत्री में व्यक्ति के पूर्वजों को भी मुक्त कर दिया जाता है, जैसा भागीरथ के प्रयासों से उनके पूर्वज राजा सगर के साठ हज़ार पुत्रों का उद्धार करने की कथा सर्वविदित है। गंगा का उद्गम स्थल गोमुख है। ग्लेशियरों से नदियां निकलती हैं। गंगा का ग्लेशियर गाय के मुख की आकृति की भांति है। गौमुख गंगोत्री से पैदल 18 किमी है और सरकार की अनुमति के बिना यहां नही जाया जा सकता है। यमुनोत्री और गंगोत्री के बाद केदारनाथ के दर्शन किये जाते हैं। केदारनाथ के पुजारी कर्नाटक के वीर शैव सम्प्रदाय के आचार्य हैं। केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की आकृति भी प्रचलित शिवलिंग से भिन्न है। असल मे भगवान की पूजा उपासना में श्रृंगार इतना अधिक कर दिया जाता है कि उनका मूल स्वरूप ढंक जाता है। इससे लोगों को स्वरूपों की विलक्षणता पता नही लग पाती है। ओरछा में भी रामराजा पद्मासन में बिराजे हुए हैं और उनके दरबार मे दुर्गा माता भी विद्यमान हैं...18 जून 2019
कोई सफल हो और बाकियों को नाकारा समझा जाये, शिक्षा और रोजगार की यह नीति कदापि उचित नहीं। जो शिक्षा नीति लागू हो उसमे गलाकाट प्रतिस्पर्धा न रहे। हर छात्र अपने आप मे विशिष्ट है। जो कोई जो बन गया, जीवन में केवल उतना ही और वही महत्वपूर्ण नहीं....14 जुलाई 2019
गुरु प्रेम और मित्रता का सर्वोच्च आदर्श अभिव्यक्त करते हैं। शिष्य की भलाई ही गुरु की एकमात्र इच्छा होती है और आवश्यकता पड़ने पर जन्मान्तरों तक अपने शिष्य का साथ नही छोड़ते,जब तक शिष्य को परमसुख अथवा परमेश्वर न मिल जाएं। सहजो बाई कहती हैं 

राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ। गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ॥
हरि न जन्म दियो जगमगाहीं। गुरु ने आवागमन छुटाहीं॥
हरि ने पांच चोर दिये साथा। गुरु ने लइ लुटाय अनाथा॥
हरि ने कुटुँब जाल में गेरी। गुरु ने काटी ममता बेरी॥
हरि ने रोग भोग उरझायो। गुरु जोगी कर सबै छुटायो। 
हरि ने कर्म मर्म भरमायो। गुरु ने आतम रूप लखायो॥
फिर हरि बंध मुक्ति गति लाये। गुरु ने सब ही मर्म मिटाये॥
चरन दास पर तन मन वारूँ। गुरु न तजूँ हरि को तजि डारूँ॥

 किसी व्यक्ति के जीवन मे शिक्षक कई होंगे, शिक्षक से विद्यार्थी प्रेरणा पाता है और जब यह प्रेरणा विस्तृत हो जाती है तब गुरु की खोज होती है। गुरु भी शिष्य को खोजते हैं। गुरु एक ही होते हैं। संसार अगर बन्धन देता है तो गुरु उससे मुक्त करता है। संसार से अलग हुए बिना वह ऐसा पथ दिखाता है कि उस पर चलकर कल्याण हो जाता है। गुरुनाम रस में भगवान आते हैं, गुरु गोविंद से बड़े हैं। गुरु महिमा कही नहीं जा सकती जो इसे समझ लेता है, वह ज्यों गूँगे मीठे को रस की भांति भीतर भीतर अनुगत करता है। भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग स्वीकृत किया गया, उसकी हर शाखा के कवि गुरु महिमा गा रहे थे। यह युग हिंदी साहित्य का ही स्वर्ण युग नही, अपितु सम्पूर्ण भारत की भावात्मक एकता को व्यक्त करने वाला युग भी है, जिसकी बानियाँ आज जन जन की जुबान पर हैं। जय गुरु। गुरु पूर्णिमा 2019 
प्रत्येक धर्म में व्यक्ति को मनुष्य बनाने की क्षमता निहित होती है। जब वह मनुष्य बनता है तो उसमें  सभी धर्मों के प्रति आदर का भाव विकसित हो जाता है। धर्म नही आध्यात्म की बात करनी मुनासिब है। धर्म मे बाह्याचार होते है, यह प्रायः यांत्रिक विधियों से संचालित होते हैं, पर आध्यात्म व्यक्ति के भीतर की यात्रा है। इस यात्रा के बिना मनुष्य की गति भी नहीं। आध्यत्मिक होने पर ही धर्म का मर्म ज्ञात होता है, अन्यथा नहीं। इसीलिये यह बात सही लगने लगती है...

 "सभी धर्म भावना में परम्परावादी होते है, उन सबको खुश करते है जो दुनिया मे शक्तिमान होते है" 27 जुलाई 2019

आज शिक्षक दिवस है, पर लोग गुरु वन्दना कर रहे हैं। असल मे प्राचीन भारत मे गुरु और शिक्षक एक ही होते थे। उसी परम्परा से शिक्षकों का सम्मान हमारे यहां होता आया है। गुरु की भूमिका व्यापक है, वह तत्वज्ञान कराने में सक्षम और तत्पर रहता है। वह परा विद्या का अवगाहन कराता है, जबकि शिक्षक अपरा विद्या को प्रस्तुत करता है, जिसे पेट भराऊ विद्या भी व्यंग्य में कह देते हैं, क्योंकि यह केवल आजीविका पर ज़ोर देती है। जो शिक्षक तथ्य ज्ञान और विवेक ज्ञान कराये, वह गुरुतुल्य ही है। ज्ञान प्रस्तुत करने से अधिक किसी को स्फूर्त और प्रेरित करने की विषयवस्तु है। इसलिए अच्छे शिक्षक पढ़ाते हैं, पर उससे ज़्यादा वह छात्र में जिज्ञासा उत्पन्न करने का काम करते हैं। ऐसे शिक्षकों की हमारे समाज को आवश्यकता है। पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन स्कूल शिक्षक थे, पर उन्होंने कर्तव्यपरायणता के साथ साथ भारतीय दर्शन को भी व्याख्यायित किया, इसलिए उनके जन्म दिवस को हम सब शिक्षक दिवस को सहर्ष मनाते हैं. शुभकामनाएँ.. शिक्षक दिवस 2019
श्राद्ध कर्म : आवश्यकता और महत्व

मानव शरीर अपने पूर्वजों के शरीर और स्वभाव की संचित स्मृति के आधार पर बना है। व्यक्ति अपने पूर्वजों का आर्शीवाद प्रत्यक्ष ग्रहण न भी कर पाया हो, तो भी किसी न किसी अंश में पूर्वज उस व्यक्ति के गुण और स्वभाव में उपस्थित रहते हैं। यह बात व्यक्ति स्वयं न समझ पाए, पर पुरखों के साथ के व्यक्ति स्पष्ट रूप में यह जानते और बताते हैं। तन्मात्राओं की गति बहुत सूक्ष्म और व्यापक होती है इन तन्मात्राओं के माध्यम से व्यक्ति स्वयं भी अपने स्वर्गीय पूर्वजों से संवाद ग्रहण करने में समर्थ हैं। तन्मात्राओं की ग्रहणशीलता बढ़ाने के लिये यौगिक विधियां अत्यन्त सफल सिद्ध हुई हैं।
पूर्वजों का श्राद्ध संस्कार करने के पीछे यह ग्रहणशीलता बढ़ाने का उद्देश्य ही है। मृत्यु के बाद विचारों  का तिरोधान हो जाता है। किंतु मृत्यु के समय व्यक्ति के प्रति या उसके मन में जैसा भाव रहेगा वह भाव लाखों गुना बढ़कर आगे जाता है। इस भाव को ही स्वर्ग और नरक से जोड़ा जाता है। स्वर्ग और नरक कोई भौगौलिक क्षेत्र नहीं है। मृत्यु के बाद डेढ़ घण्टे से लेकर चार घण्टे के बीच पार्थिव देह पंचतत्व में विलीन करने का विधान है जब कोई डाॅक्टर किसी व्यक्ति को मृत घोषित कर देता है, उसके बाद पांच प्राणों में से समान वायु 21 से 24 मिनट के भीतर बाहर निकलना शुरु होती है। इसी समय शरीर ठण्डा पड़ना भी शुरु होता है। मृत व्यक्ति की नाक सर्वप्रथम ठण्डी पड़ती है। मृत्यु के 48 से 64 मिनट के बाद प्राणवायु निकलती है। 6 से 12 घंटे बाद उदान प्राण शरीर से बाहर हो जाते हैं। इसके बाद 8 से 18 घंटे के बीच अपान प्राणों का बहिर्गमन होता है, किंतु व्यान प्राण मृत्यु के बाद 11 से लेकर 14 दिनों के बीच निकलते हैं। यह प्रक्रिया सामान्य मौतों के लिये होती है। दुर्घटनावश हुई मृत्यु के बाद 48 से 90 दिनो के बीच प्राण निकलने की प्रक्रिया पूरी होती है।

सामान्य तौर पर मनुष्य जब प्राण छोड़ता है अर्थात मृत्यु को प्राप्त होता है, तब उसका पूरा शरीर सुन्न पड़ जाता है। उसे अपने परिवेश की भी अनुभूति नहीं रहती। मृत्यु आने पर मनुष्य को पैर, हाथ, पेट छाती, सिर इत्यादि अंगों में कोई दर्द नहीं होता, लेकिन जब हृदय सुन्न होने लगता है तो थोड़ी घुटन होती है। हृदय जब निष्क्रिय होता है तो फेंफड़े भी काम करना बंद कर देते हैं। इस स्थिति में लगभग तीन सेकंड तक व्यक्ति को दर्द होता है। इस अति अल्प समय के दर्द के कारण लोगों को मृत्यु से डर लगता है। यह घुटन भी मानसिक ही होती है। यदि व्यक्ति के भीतर यह चेतना रहे कि आत्मा का अस्तित्व सांस की शर्त से नहीं जुड़ा है, तब वह इस मानसिक अशांति से भी छुटकारा पा सकता है। मृत्यु के बाद व्यक्ति अपने कर्मफल के अनुसार स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर में प्रवेश करते हैं। इच्छा व्यक्ति के पुनर्जन्म का मूलभूत कारण है। व्यक्ति की इच्छाओं का भोग परमात्मा कराते हैं, उसी से कर्म निर्मित होते हैं। कहा गया है-
यं यं वापि स्मरन भावं त्यजत्यन्ते कलेवरं।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।। गीता 8/6
जब तक इन कर्मों का फल नहीं भोग लेते, जन्म और मृत्यु का यह चक्र चलता रहता है। 84 लाख योनियों में मनुष्य ही वह प्राणी है, जिसे ईश्वर की अनुभूति हो सकती है। जन्म मृत्यु के चक्र में यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण शरीर है। मृत्यु शरीर के भीतर के बल्ब को बुझा देती है, किंतु इच्छाओं के तारों का सम्पर्क भी मृत्यु से कट जाएगा, यह बहुत कम होता है। अगर हम ईश्वर की इच्छा में अपनी इच्छा जोड़ दें और उन कार्यों को ईश्वर प्रदत्त कार्य समझकर करें तो उन कर्मों को करने का दोष नहीं लगता और उनका कर्मफल भी हमारे खाते में नहीं जुड़ता। जिसे लोग भाग्य कहते हैं, वह भी पिछले कर्मों का फल ही होता है। 

दाह संस्कार के बाद व्यक्ति की अस्थियां और राख  जब गंगा आदि पवित्र नदियों में विसर्जित की जाती हैं, तब व्यक्ति का दिवंगत आत्मा से ऋणानुबंध कटता है। यह ऋणानुबंध व्यक्ति से व्यक्ति के स्पर्श के कारण और यहां तक कि एक दूसरे के कपड़े पहनने आदि के कारण भी हो जाता है। गंगा में अस्थि विर्सजन से परिजन का ऋणानुबंध कट जाता है। ऋणानुबंध मोचन के लिए ही तेरहवीं के समय तक दिवंगत आत्मा के घर पर जानने वाले लोगो का आवागमन लगा रहता है। यही कारण है कि तेरहवीं के निमंत्रणों में बुलाने का अनुरोध नही, वरन 'सो जानवी' जैसी सूचना भर से लोग दिवंगत आत्मा के घर जाते हैं।
 ऋणानुबंध से मुक्त न होने पर व्यक्ति की स्मृतियां नष्ट नहीं होती।
भौतिक मृत्यु सूक्ष्म जन्म है और सूक्ष्म मृत्यु भौतिक जन्म है। मानव बुद्धि सृष्टि के रहस्य को नहीं समझ सकती। हृदयहीन होकर अपने मित्रों और परिजन की स्मृतियों को भुला देना मानव परम्परा में  नहीं है। केवल शोक और व्यर्थ के विलाप की अविवेकपूर्ण भावनाओं से बचने की शिक्षा हमें अवश्य दी गयी है। सभी मनुष्य ईश्वर का मूर्तिमान विचार हैं। अंततः वह ईश्वर की चेतना में पुनः विलीन हो जाते हैं, उन्हें कभी नष्ट नहीं किया जा सकता। ईश्वर उन प्राणियों को अपनी इच्छानुसार प्रकट कर सकते हैं।
अधिकांश लोग अपने प्रियजन के लिए नहीं, वरन अपनी व्यक्तिगत हानि के लिए शोक करते हैं, किन्तु प्रत्येक मित्र- सम्बन्धी अथवा प्रियजन- ईश्वर की मित्रता का प्रतीक है। वह एक माध्यम है, जिसके द्वारा ईश्वर स्वयं अपनी मित्रता का प्रतीक बनते हैं। इसलिए मित्रता की उपेक्षा अथवा दुरुपयोग करना ईश्वर का अपमान है।
श्राद्ध श्रद्धा से किये गए कर्म विधान का नाम है।  गुरुदेव परमहंस योगानंद ने कहा है "श्रद्धा हृदय की वह स्वाभाविक प्रवृत्ति है जो विश्वास एवं समर्पण के साथ अपने स्रोत (ईश्वर) की ओर मुड़ती है।" हम अपने दिवंगत प्रियजन के लिए श्राद्ध कर्म द्वारा कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। सभी धर्मों में यह अपने अपने तरीक़ों से विद्यमान है।
प्रस्तुत पुस्तिका में श्राद्ध कर्म विधान को सरल भाषा मे समझाया गया है। पाठक इससे परिचित होकर लाभ प्राप्त कर सकते हैं। राकेश नारायण द्विवेदी 15/9/19
मां शब्द से करुणा, ममता, त्राण इत्यादि बहुत से अर्थ विकसित हुए, पर यह शब्द बना कैसे होगा मित्रो! जब हम संतानों ने उसे व्याकुल होकर पुकारा होगा, पुकारने के लिए जिन ध्वनियों का विधान हुआ, उनसे मां अर्थ के अनेक शब्दरूप विभिन्न भाषाओं में निर्मित हुए। उमा ओ मा की पुकार ही है। दुनिया की भाषाओं में मां की ध्वनि उसके वाचक शब्द में अवश्य विद्यमान है। हिंदी में यह मां अनुस्वार से बनता है, यह बोलने के लिए किसी मुखावयव या व्यंजन की आवश्यकता नहीं। ॐ में भी यह मां है ॐ में अ और उ बोलने के बाद म पर ही विश्राम होता है। ॐ ईसाइयों का आमेन है तो इस्लाम का आमीन भी यही है। बौद्धों के हुम् में ॐ समाहित है। ॐ से बाहर कुछ नहीं।
मां की पुकार सृष्टि के आदिकाल से ही होती आयी है, तभी से जब से प्राणियों का उद्भव हुआ। शिव यानि कुछ नहीं, पर शक्ति यानी जिसमे कुछ बाहर नहीं है, पर शिव और शक्ति का अभेद है, वह अलग अलग नहीं। शिव शून्य है तो शक्ति उसके पहले जुड़ने वाली 1, 2, 3 आदि संख्या। शिव तत्व की चेतना शक्ति है।  आप सबको शारदीय नवरात्र की शुभकामनाएं...
खल प्रबोध. जग. सोध मनको निरोध. कुल. सोध | करहिंते फोकट पचि मरहिं सपनेहुँ सुख. न. सुबोध | |  दोहावली

कार्तिक अमावस्या यानि दीपावली के ठीक बाद शुक्ल प्रतिपदा वर्ष की तीन अत्यंत शुभ तिथियों में गिनी जाती है। दशहरा और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा दो और अत्यंत शुभ दिन हैं। दीपावली के समय चतुर्दशी, अमावस्या और प्रतिपदा के तीन दिनों को मिलाकर कौमुदी महोत्सव कहा गया है। कौमुदी की व्युत्पत्ति कु (पृथ्वी) एवं मुद (प्रसन्न होना) से की गई है, जिसमे लोग इस पृथ्वी पर आपस में प्रसन्नता की प्राप्ति करते हैं। सब मिलाकर दीपावली का त्योहार धनतेरस से भाईदूज तक पांच दिन चलता है। यह पर्वों का समुच्चय है, जिसमें लोग हर्षपूर्वक विविध प्रकार से अपने रीति रिवाज निभाते हैं।
दीपावली प्रकाश पर्व है। इस प्रकाश का संघर्ष अंधकार से वैसा नहीं, जैसा स्वयं प्रकाश से है। अंधेरे में प्रकाश ले जाने पर अंधेरा दूर भाग जाता है, किंतु अपने भीतर प्रकाश है और बाहर अंधेरा है तो हमें दिखाई नहीं देता। प्रकाश से प्रकाश को ही चुनौती मिल रही है, क्योंकि उनमें स्वयंप्रकाश या पूर्णप्रकाश उद्भासित नहीं होता। वे अधूरे प्रकाश के कारण पूर्णप्रकाशित होने का भ्रम जो पाले रहते हैं। 
इसीलिए
 *सत्याधारस्तपस्तैलं दयावर्ति: क्षमाशिखा ।*
*अंधकारे प्रवेष्टव्ये दीपो यत्नेन वार्यताम् ॥*
अर्थात्
 घना अंधकार फैल रहा हो, आँधी सिर पर बह रही हो तो हम जो दिया जलाएं, उसकी दीवट सत्य की हो, उसमें तेल तप का हो, उसकी बत्ती दया की हो और लौ क्षमा की हो। आज समाज में फैले अंधकार को नष्ट करने के लिए ऐसा ही दीप प्रज्ज्वलित करने की आवश्यकता है।
       आप सबको दीपावली की मंगलकामनाएं... दीपावली 2019

मैं तर्क करूँगा, मैं संकल्प करूँगा, मैं कार्य करूँगा, परंतु आप मेरे विचार, संकल्प तथा कार्य का मार्गदर्शन करें जिससे मैं प्रत्येक कार्य में जो उचित हो वही करूँ।
हे प्रियतम प्रभु! मुझे मेरे विचार, संकल्प तथा कार्य का मार्गदर्शन करें जिससे मैं प्रत्येक कार्य में जो उचित हो वही करूँ।
 प्रियतम प्रभु! मैं विचार करूँगा, संकल्प करूँगा तथा कार्य करूँगा, पर मेरा मार्गदर्शन करें जिससे मैं प्रत्येक कार्य में जो उचित हो वही करूँ। 14 नवम्बर 2019

रामजन्मभूमि को जैसा मैंने देखा...

प्रयागराज के वर्ष 1986 के कुंभ मेला के समय हम लोगों ने अयोध्या में भगवान रामलला के दर्शन किये थे। अंदर बीच के गुम्बद के नीचे भक्तगण चारों भाइयों के पालनों का दर्शन करते थे। बाहर चबूतरे पर रामनाम का अखंड कीर्तन चलता था। उस समय एक तरह का तनाव वहां के वातावरण में महसूस किया गया, क्योंकि लोग हिंदू मुस्लिम विवाद की वहां चर्चा मद्धिम स्वर में कर रहे थे। पिताजी उस समय बस द्वारा धार्मिक पर्यटन पर श्रद्धालुओं को लेकर गए थे। बाद में 1989 में विश्व हिंदू परिषद ने गांव गांव रामशिला की प्रतीक ईंट यात्रा निकालकर धन इकट्ठा किया, उसके साक्षी हम अपने घर में ही बने, क्योंकि पिताजी अपने आसपास के गाँवों से रसीद कटवाकर धन जुटाकर जिला संयोजक को दिए थे। जब 1992 में विवादित ढांचा गिराया गया तब हम प्रयाग में ही थे। तब वहां वातावरण में जोश दिख रहा था। 

बाद में 2007-08 में टेंट के नीचे रामलला के दर्शन किये। तब पहले से भी अधिक तनाव दिखा, क्योंकि मेरा पेन और कंघा भी वहां जन्मभूमि पुलिस ने निकाल कर रख लिया और लंबी चक्करदार रेलिंग से जाकर दर्शन हो पाए थे। यह दशा मस्ज़िद के नीचे बिराजे भगवान से भी अधिक कष्टकर थी।

तब से धीरे धीरे समय बीता। वैसे तो कण कण में ईश्वर है, पर टेंट में बैठे भगवान की अस्थायी दशा को देखकर बराबर यह लगता रहा कि यह विवाद सुलझ जाए तो अच्छा रहे। हाइकोर्ट से यह विवाद सुलझने की अंतिम उम्मीद नहीं थी, क्योंकि किसी न किसी पक्ष को तब सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी थी और हुई भी। मध्यस्थता पैनल से यह विवाद सुलझने की हल्की सी उम्मीद हुई और जैसा समाधान मौलाना मदनी के हवाले से सुना गया, जिसके लिए उन्हें बहुत खरी खोटी सुनने को मिली, लगभग वही फैसला सुप्रीम कोर्ट ने आज दिया है। 

अब यह मुद्दा समाप्त हो जाएगा, जो लोग इस निर्णय से किंचित असंतुष्टि दिखा रहे हैं, वह भी धीरे धीरे नेपथ्य में चले जायेंगे, लेकिन जो लोग अयोध्या के इस सदियों चले विवाद और उसके समाधान के बाद मथुरा काशी की बारी की बात करते हैं, उनसे मेरी कोई सहमति नहीं है। नया भारत इन विवादों से  अलग रहकर विकास और रोजगार चाहता है... 9 नवम्बर 2019
सबरीमाला मंदिर और अन्य धार्मिक स्थलों में स्त्रियों का प्रवेश अनुमन्य करने सम्बन्धी सुप्रीम कोर्ट के फैसले की पुनर्विचार याचिका को सात जजों की संविधान पीठ को सन्दर्भित किया गया है। 
यह बड़ा पेचीदा मामला है, इसीलिए कोर्ट ने और बड़ी पीठ के विचार के लिए इसे भेजा है। पूजा पाठ के तौर तरीके कोर्ट द्वारा कैसे तय हो सकते हैं। पूजा और उपासना पद्धतियों में महिलाओं के प्रति लैंगिक भेदभाव हो रहा है या नहीं, यह कौन तय करेगा। इसमें क्या कानूनी प्रश्न बनते हैं, यह कोर्ट को ही तय करना है। धार्मिक परम्पराएं अपने स्वरूप में सख्त होती हैं। उन्हें किसी के प्रति विभेदकारी नहीं कहा जा सकता। उन परम्पराओं में ही उन मान्यताओं को मानने वाले व्यक्तियों के लिए समावेशी व्यवस्था भी विहित होती है। जिसका जो धर्म है उसे वह मन से धारण करता है। 
हम जब अपनी तरह की उपासना करते हैं तो उसमें परिवार के किसी व्यक्ति का हस्तक्षेप अनुमन्य नहीं करते। इससे उन्हें कोई परेशानी भी नहीं है, न उनकी पूजा में मेरा दखल होता है। इसमे परस्पर किसी के प्रति कोई हेय भावना नहीं है। ऐसे अवसर भी होते हैं जब सारा परिवार एक साथ बैठकर पूजा विधियों को संपन्न करता है। अपनी उपासनाओं के कारण मध्यकाल के सभी सूफी साधु और संत स्त्रियों से दूर रहने को आवश्यक बताते आये हैं। रामकृष्ण परमहंस कहते हैं किसी आध्यात्मिक व्यक्ति को कांचन और कामिनी का सर्वथा त्याग आवश्यक है। उनका स्वयं का विवाह हुआ था। उनकी धर्मपत्नी, माँ शारदा देवी उनके साथ रहती। मां भी परमहंसजी के इन संकल्पों के साथ रहीं। इस बात से इंकार नहीं कि मन से ही इनकी विरक्ति वरेण्य है, जो संसार मे रहकर भी हो सकती है और होती है। लेकिन हमें स्नातक बनने के लिए प्राथमिक कक्षा उत्तीर्ण करनी पड़ती है। वर्णमाला सीखने के लिए अभ्यास करना पड़ता है। विरले ही बिना अभ्यास के सबकुछ जान पाते हैं। 
मंदिरों और मस्जिदों में पूजा और इबादत के तौर तरीके हैं, उनसे महिलाएं कैसे आहत होती हैं, यह समझना है।  एक ब्रह्मचारी देवता के युवती स्त्रियों से दूर रहने की  उसकी सांस्कृतिक व्यवस्था है। इस में कोई लैंगिक भेदभाव नहीं दिखता, पर ब्रह्म तो शिवशक्ति, लक्ष्मीनारायण, राधाकृष्ण, सीताराम में अभेद और समान रूप में विद्यमान है। ब्रह्मचारी भगवान अयप्पा हों या हनुमान इनकी उपासना अगर स्त्रियां भी करें तो कुछ बहुत आपत्तिजनक भी नहीं लगता। वैसे भी पुरुष केवल परमात्मा है, क्योंकि वह गुणातीत है और शेष सब त्रिगुणात्मिका स्त्री हैं...
अस्तु! हमें कैसे भी समस्या नहीं है... 18 नवम्बर 2019
प्रदूषण कौन कर रहा है!
 हवा का प्रदूषण स्वाभाविक गति से  जल्दी समाप्त जाता है, जल का प्रदूषण समाप्त होने में और समय लगेगा, लेकिन मिट्टी का प्रदूषण समाप्त होने में बहुत अधिक समय लगता है। कभी कभी जब लगता है कि प्रकृति अपना संतुलन स्वयं स्थापित करती है, लेकिन तब क्या होगा जब मनुष्यों और जीव जंतुओं की मृत्यु अधिक हो, उसके बाद की सड़न दूर होने में कितना समय लगेगा। पशु पक्षी जीव जंतुओं का होना इस संसार के लिए अपरिहार्य है, मनुष्यों के बिना यह पृथ्वी चलती रहेगी, पर जीव जंतुओं आदि मनुष्येतर प्रणियों के बिना यह नहीं चलने वाली। मनुष्य चिंतनशील प्राणी है, कदाचित इसी चिंतनशीलता की विकृति के कारण प्रदूषण बढ़ा है। इसलिए मनुष्य ही इसे घटा सकता है, अन्य प्राणी नहीं, प्राणियों का अस्तित्व भी तो संकट में आ गया है। वरना प्रकृति क्या करेगी, कहिये वह हमारी कल्पना में भी न हो। हमारी पृथ्वी हमें स्वतः खाने पीने के लिए अन्न जल दूध देती आयी है। बिना खेती के ही हमें अपने पोषण के लिए अन्न मिलता रहा। अब हमने अधिक पैदावार हो, उसके लिए ज़मीन उर्वर बनाने के नाम पर कितनी छेड़खानी की और क्या क्या कर रहे हैं...एक मनुष्य दूसरे को दोष तब तक देता रह सकता है, जब तक स्वयं उसके ऊपर खतरा उपस्थित न हो जाये! क्या ऐसा ही खतरा हमारे सम्मुख उपस्थित नहीं हो गया है। जनसंख्या धरती के अनुपात में रहनी होगी। वृक्षों की बहुतायत हो। धरती पर खेती करनी है, मकान बनाने हैं, सड़कें बनानी हैं। लगता है, मनुष्य के रहन सहन का चल रहा विकासवादी मॉडल प्रदूषण के लिए अधिक ज़िम्मेदार है...यह मॉडल इतना आकर्षक है कि इससे पार और परे जाना मनुष्य के लिए बड़ी चुनौती है। 21 नवम्बर 2019
फ़िरोज़ खान की नियुक्ति धर्मशास्त्र पढ़ाने के लिए नहीं हो सकती, मुस्लिम संस्कृत साहित्य पढ़ें पढ़ाएं, इसमें समस्या bhu में इस नियुक्ति के विरोधियों को नहीं लगती। अगर ऐसा है तो यह बात उन्हें नियुक्ति से पहले समझनी थी। अब तो हम फ़िरोज़ खान द्वारा पढ़ाये समझाए गए धर्मशास्त्र को ही देखना पसंद करेंगे...बड़े बड़े बौड़म हैं जो क्या का क्या पढा रहे हैं, उस पर किसी का ध्यान नहीं। 
विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रमों की कई विसंगतियां हैं। जो पाठ्यक्रम में दिया गया है, पाठ्यपुस्तकों में वह सामग्री नहीं, जो सामग्री है, वह बड़े बड़े प्रकाशकों द्वारा छापी गई पुस्तकों में भी ग़लत दी गयी है। पाठ्यपुस्तकें भी तैयार नहीं। भाषा की पुस्तकों में वर्तनी की गंभीर त्रुटियां हैं। साहित्य की पुस्तकों में वाक्य विन्यास नहीं, उनमें भाव बोध भी नहीं होता, अपने अपने लोगों की रचना शामिल जो करनी है। प्रश्न पत्रों में भाषा की गंभीर गलतियां मिलती हैं। शिकायत भी किससे करें, प्राधिकारी सुनते नहीं। सम्बंधित स्वजन इसका बुरा मानकर दुश्मनी निभाने लगते हैं, कहीं कोई संरक्षण नहीं। विरोध सुनने सहने की जैसे परम्परा ही हमारे समाज में ग़ायब हो चुकी है। हमारे व्यवस्थापकों और नीति निर्माताओं को इस तरफ ध्यान देना चाहिए...21/11/19
"परम गुरु
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ
और यह अंतहीन सहानुभूति
पाखंड न लगे.

दो तो ऐसा कलेजा दो
कि अपमान, महत्वाकांक्षा और भूख
की गाँठों में मरोड़े हुए
उन लोगों का माथा सहला सकूँ
और इसका डर न लगे
कि कोई हाथ ही काट खाएगा.

दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इसे दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिन्ता न हो
कि इसे बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा.

यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ."
(गुरु कबीर दास के लिए)



विजयदेव नारायण साही   7/12/19
गुरुरात्मवतां शास्ता शास्ता राजा दुरात्मनाम् ।
अथा प्रच्छन्नपापानां शास्ता वैवस्वतो यमः ॥ 
 
आत्मवान् लोगों का शासन गुरु करते हैं; दृष्टों का शासन राजा करता है; और गुप्तरुप से पापाचरण करनेवालों का शासन यम करता है (अर्थात् पापी यमराज के दंड के भागी होंगे) ।
काल अखंड होता है। अतीत वर्तमान और भविष्य जैसा कुछ नहीं होता। केवल क्षण होता है, जो ज्योति की भांति सतत दीप्तिमान है। मनुष्य ने समय को अपनी सुविधा के लिए विभाजित कर लिया है। नया वर्ष नवीनताओं को अहसास कराने का माध्यम है। नित्य नूतनता जीवन मे बनी रहे, अतः नए वर्ष 2020 की आप सब मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएँ...
प्रकृति से हम जितना प्राप्त करें, उससे अधिक इसे देने का भाव हमारे भीतर रहे। व्यक्तियों की समस्या यह है कि उन्हें लगता है मेरे पास यह नहीं, वह नहीं, जबकि उसके पास वह है। स्थायी उसके पास यह वह होना नहीं और न हमारे पास न होना है, किंतु वह दृष्टि और सृष्टि अवश्य स्थायी है जिसमें सबके हित की कामना की जाती हो। जिस व्यक्ति के पास जो जो रहा, उसे कितने लोग कितने समय तक याद रखते हैं और जो जो रहा वह कितने समय तक था। इतिहास से देखें तो सिकंदर, चंद्रगुप्त मौर्य, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, हर्षवर्धन, सल्तनत और मुग़ल, अंग्रेजी वाइसराय और स्वतंत्र भारत के कितने प्रधानमंत्री, दुनिया के राष्ट्राध्यक्ष जो कभी शक्तिशाली और सम्पन्न रहे होंगे, पर क्या आज उनकी पीढियां वैसी हैं, उन्हें क्या याद किया जाता है। पीढियां बची भी हैं कि नहीं यह भी कहा नहीं जा सकता। हमारे पास जो व्यक्ति हैं वे अपने लगते हैं या जिन्हें हम अपना लेते है वे अपने लगने लगते हैं। निराशा रक्त सम्बन्धियो आए होती है तो रक्तबाह्य नातेदारों और व्यक्तियों से भी अथवा इसका उल्टा भी होता है जब रक्तबाह्य व्यक्ति सहायक हो जाते हैं और रक्तसम्बन्धी खबर भी नहीं लेते/ले पाते।
जिसके पास जो कुछ है वह ट्रस्टी की भांति इसे समझे, मालिक नहीं। वैसे भी सरकार ने सम्पत्ति का मौलिक अधिकार 44 वे संशोधन में बहुत पहले 1978 में ही हटा दिया। अब यह केवल अनुच्छेद 300 ए में है, जिसमें सरकार को शक्ति है जब चाहे इसे ले ले। जो काम हमें मिला हुआ है, वह परमात्मा का दिया हुआ है, उसे करें और मनोयोग से करें तो यह हमारी अपनी और समाज की सेवा होगी। इसी से ईश्वर प्रसन्न रहता है। 26 मार्च 2020
हमारे श्रद्धेय फूफा जी ने प्रचलित एक लोरी का अर्थ करते हुए पोस्ट की. उनकी वाल पर जाकर देख सकते हैं  Arvind Nayak इस पर हमें मदालसा की याद आ गयी, जिन्होंने अपने पुत्रों को लोरी गाकर तत्व ज्ञान कराया था..

शुद्धो sसिं रे तात न तेsस्ति नाम
कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।
पंचात्मकम देहमिदं न तेsस्ति
नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो: ॥
हे तात! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?
यह कल्पित नाम ' विक्रान्त ' तो तुझे अभी मिला है।  तुम्हारा (आत्मा का)  न तो जन्म है, न मृत्यु। तुम भय, शोक, आदि दुःख से परे हो। शरीर के भीतर तुम हो, किन्तु तुम शरीर नहीं हो।  तुम हो मेरे लाल, निरंजन ! अति पावन निष्पाप ! अमित है तेरा प्रताप ! 
न वा भवान् रोदिति वै स्वजन्मा
शब्दोsयमासाद्य महीश सूनुम् ।
विकल्प्यमाना विविधा गुणास्ते-
sगुणाश्च भौता: सकलेन्द्रियेषु ॥
अथवा तू नहीं रोता है, यह शब्द तो राजकुमार के पास पहुँचकर अपने आप ही प्रकट होता है। तेरी संपूर्ण इन्द्रियों में जो भाँति भाँति के गुण-अवगुणों की कल्पना होती है, वे भी पाञ्चभौतिक ही है?
भूतानि भूतै: परि दुर्बलानि
वृद्धिम समायान्ति यथेह पुंस: ।
अन्नाम्बुदानादिभिरेव कस्य
न तेsस्ति वृद्धिर्न च तेsस्ति हानि: ॥
जैसे इस जगत में अत्यंत दुर्बल भूत अन्य भूतों के सहयोग से वृद्धि को प्राप्त होते है, उसी प्रकार अन्न और जल आदि भौतिक पदार्थों को देने से पुरुष के पाञ्चभौतिक शरीर की ही पुष्टि होती है । इससे तुझ शुद्ध आत्मा को न तो वृद्धि होती है और न हानि ही होती है।   तुम्हारा शरीर जैसे एक दिन जन्मा है, उसी प्रकार एकदिन नष्ट भी हो जायेगा। जिस प्रकार पुराने वस्त्र फट जाने पर लोग उसको त्याग देते हैं, शरीर का त्याग भी ठीक वैसा ही है। शरीर नष्ट होने से तुम्हारा कुछ नहीं नष्ट होता।  तुम तो आनन्दमय आत्मा हो; फिर किस लिये रो रहे हो ?

त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेsस्मिं-
स्तस्मिश्च देहे मूढ़तां मा व्रजेथा: ॥
शुभाशुभै: कर्मभिर्दहमेत-
न्मदादि मूढै: कंचुकस्ते पिनद्ध: ॥
तू अपने उस चोले तथा इस देहरुपि चोले के जीर्ण शीर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला (शरीर और मन) षड रिपुओं काम,क्रोध,लोभ, मद,मोह मात्सर्य आदि से बंधा हुआ है (तू तो सर्वथा इससे मुक्त है) ।

तातेति किंचित् तनयेति किंचि-
दम्बेती किंचिद्दवितेति किंचित्
ममेति किंचिन्न ममेति किंचित्
त्वं भूतसंग बहु मानयेथा: ॥
कोई जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है, कोई पुत्र कहलाता है, किसी को माता और किसी को प्यारी स्त्री कहते है, कोई ‘यह मेरा है’ कहकर अपना माना जाता है और कोई ‘मेरा नहीं है’ इस भाव से पराया माना जाता है। किन्तु ये सभी भूतसमुदाय के ही नाना रूप है, ऐसा तुझे मानना चाहिये ।
दु:खानि दु:खापगमाय भोगान्
सुखाय जानाति विमूढ़चेता: ।
तान्येव दु:खानि पुन: सुखानि
जानाति विद्वानविमूढ़चेता: ॥
यद्यपि समस्त भोग दु:खरूप है तथापि मूढ़चित्तमानव उन्हे दु:ख दूर करने वाला तथा सुख की प्राप्ति करानेवाला समझता है, किन्तु जो विद्वान है, जिनका चित्त मोह से आच्छन्न नहीं हुआ है, वे उन भोगजनित सुखों को भी दु:ख ही मानते है।
हासोsस्थिर्सदर्शनमक्षि युग्म-
मत्युज्ज्वलं यत्कलुषम वसाया: ।
कुचादि पीनं पिशितं पनं तत्
स्थानं रते: किं नरकं न योषित् ॥
स्त्रियों की हँसी क्या है, कंकाल के हड्डियों का प्रदर्शन । जिसे हम अत्यंत सुंदर नेत्र कहते है, वह मज्जा की कलुषता है। और मोटे मोटे कुच आदि घने मांस की ग्रंथियाँ है, अतः पुरुष जिस स्त्री शरीर पर अनुराग करता है, उस युवती स्त्री के शरीर में आसक्त होकर पाशविक विचारों से ग्रस्त रहना  क्या नरक की अवस्था में रहने जैसा  नहीं है?
यानं क्षितौ यानगतश्च देहो
देहेsपि चान्य: पुरुषो निविष्ट: ।
ममत्वमुर्व्यां न तथा यथा स्वे
देहेsतिमात्रं च विमूढ़तैषा ॥
    पृथ्वी पर सवारी चलती है, सवारी पर यह शरीर रहता है और इस शरीर में भी एक दूसरा पुरुष बैठा रहता है, किन्तु पृथ्वी और सवारी में वैसी अधिक ममता नहीं देखी जाती, जैसी कि अपने देह में दृष्टिगोचर होती है। यही मूर्खता है ।

मदालसा को कालान्तर में दो पुत्र और हुए और उन दोनों को भी महारानी ने बाल्यकाल से ही ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया ,और वे तीनों ही निवृत्ति मार्गी ( संसारत्यागी) संन्यासी बन गये।  वे तीनों भाई राज्य छोड़कर कठोर साधना करने लगे।
जब चतुर्थ बालक ने जन्म लिया तब महारानी उसे भी बचपन से ही जब निवृत्तिमार्ग की शिक्षा देने लगी। उस समय महाराज ने मदालसा से विनती की कि-देवि! पितृ-पितामह के समय से चले आये मेरे इस राज्य को चलाने के लिये तो एक बालक को राजा बनना ही चाहिये, अतः इसको विरक्त मत बनाइये। मदालसाने महाराजकी बात मान ली, लेकिन मदालसा ने कहा कि उसका नाम मैं रखूंगी। उसने इस पुत्र का नाम "अलर्क" रखा। जिसका अर्थ होता है मदोन्मत्त व्यक्ति या पागल कुत्ता। यह राज्य करेगा इसलिए यह राज के मद में उन्मत्त होगा व प्रजाजनों के कर से प्राप्त होने वाले संसाधनों को अत्यधिक भोगने लगेगा तो उसके पागल कुत्ते की तरह कहीं भोगी हो जाने की संभावना न हो। इसीलिये और अपने चौथे पुत्र को प्रवृत्तिमार्ग के कर्मयोग, भक्तियोग और राजयोग का उपदेश  इस प्रकार दिया:  
धन्योs सि रे यो वसुधामशत्रु-
रेकश्चिरम पालयितासि पुत्र ।
तत्पालनादस्तु सुखोपभोगों
धर्मात फलं प्राप्स्यसि चामरत्वम ॥
धरामरान पर्वसु तर्पयेथा:
समीहितम बंधुषु पूरयेथा: ।
हितं परस्मै हृदि चिन्तयेथा
मनः परस्त्रीषु निवर्तयेथा: ॥
सदा मुरारिम हृदि चिन्तयेथा-
स्तद्धयानतोs न्त:षडरीञ्जयेथा: ॥
मायां प्रबोधेन निवारयेथा
ह्यनित्यतामेव विचिंतयेथा: ॥
अर्थागमाय क्षितिपाञ्जयेथा
यशोsर्जनायार्थमपि व्ययेथा:।
परापवादश्रवणाद्विभीथा
विपत्समुद्राज्जनमुध्दरेथाः॥
 बेटा ! तू धन्य है, जो शत्रुरहित होकर अकेला ही चिरकाल तक इस पृथ्वी का पालन करता रहेगा। पृथ्वी के पालन से तुझे सुखभोगकी प्राप्ति हो और धर्म के फलस्वरूप तुझे अमरत्व मिले। पर्वों के दिन ब्राह्मणों को भोजन द्वारा तृप्त करना, बंधु-बांधवों की इच्छा पूर्ण करना, अपने हृदय में दूसरों की भलाई का ध्यान रखना और परायी स्त्रियों की ओर कभी मन को न जाने देना । अपने मन में सदा श्रीविष्णुभगवान के किसी अवतार का चिंतन करना, उनके ध्यान से अंतःकरण के काम-क्रोध आदि छहों शत्रुओं को जीतना, ज्ञान के द्वारा माया का निवारण करना और जगत की अनित्यता का विचार करते रहना । धन की आय के लिए राजाओं पर विजय प्राप्त करना, यश के लिए धन का सद्व्यय करना, परायी निंदा सुनने से डरते रहना तथा विपत्ति के समुद्र में पड़े हुए लोगों का उद्धार करना ।
अन्ततोगत्वा  मदालसा ने उसे एक उपदेश भी लिखकर अलर्क के हाथ में विराजमान मुद्रिका के भीतर छिपाकर रख दिया, और कहा – “जब कोई बड़ी विपत्ति  पड़े,या संकटों से घिर जाओ तब तुम यह उपदेश पढ़ लेना।” अलर्क राजा हुए और उन्होंने गङ्गा-यमुना के संगम पर अपनी अलर्कपुरी नाम की राजधानी बनायी(जो आजकल अरैल के नाम से प्रसिद्ध है।) किन्तु अलर्क भी राज के मोह में आसक्त हो गया । माता के उपदेश को भूल गया । तीनों भाई आये, खबर कराई कि आपके भ्राता  आये हैं । अलर्क ने नमस्कार किया और कहा ~ ‘‘आज्ञा ।’’ भ्राताओं ने कहा ~ ‘‘माता की प्रतिज्ञा को सत्य करो, अपने पुत्रों को राज देकर हमारे साथ चलो ।’’ वह हँसने लगा और बोला ~ ‘‘तुम तो फकीर हो ही, मुझे भी फकीर बनाना चाहते हो ? चलो, किले से बाहर हो जाओ ।’’ वे तीनों काशीराज मामा के पास गये । सेना लेकर आये और अलर्क के राज को घेऱ लिया । जब अलर्क ने किले के उपर चढ़ कर देखा, तो चारों तरफ सेना है । वह उदास हो गया। तब माता का उपदेश याद आया और यंत्र को खोलकर कागज निकाला । उसमें माता ने लिखा था ~ 
शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि 
संसार माया परिवर्जितोऽसि।
संसार स्वप्नं त्यज मोहनिद्रां ! 
मदालसा वाक्यमुवाच पुत्रम् !! 
हे पुत्र ! तू शुद्ध है, तू बुद्ध है, तू निरंजन है, संसार रूप माया से तू वर्जित अर्थात निर्लिप्त है । संसार स्वप्न के समान प्रतिभासिक सत्ता वाला है । इस मोह रूपी निद्रा से आँखें खोल । यह माता मदालसा के वचन हैं, विचार कर। 
जब अलर्क ने इस श्‍लोक का विचार किया, तो ज्ञान हो गया; अलर्क प्रवृत्ति को छोड़कर निवृत्ति के मार्ग में आ गए। और खुले सिर नंगे पांव जैसे था, वैसे ही उठकर चल पड़ा। और ‘‘अहं शुद्धोऽसि, अहं बुद्धोऽसि, अहं निरंजनोऽसि’’ इस प्रकार बोलते हुए को भ्राताओं ने देखा । सेना ने रास्ता दे दिया । जंगल में दत्तात्रेय महाराज से जाकर मिला । गुरुदेव ने अलर्क को आत्म - ज्ञान का उपदेश दे - देकर शीतल बना दिया । महाराज अलर्क उसी समय राज्य को अपने पुत्र  राजा को सुपुर्द करके वन चले गये। इस प्रकार योग्य माता मदालसा ने अपने चारों पुत्रों को ब्रह्मज्ञानी बना दिया। उसके पुत्रों को राज देकर तीनों भ्राताओं ने भी माता की प्रतिज्ञा को सत्य किया । 1/4/20
हमारा समाज मसीहा की खोज करता है। हम डॉ अम्बेडकर, पटेल, सुभाष बोस, भगत सिंह जैसे नेताओं, समाज सेवियों और क्रांतिकारियों को चाहते हैं। समाज का वांछनीय परिवर्तन मसीहाओ से नहीं, लोगों से होगा। मसीहाओं को हम सम्मान अवश्य देते रहें। हमे उनसे प्रेरणा और साहस मिलता है। आजकल, महापुरुष श्रेणियों और जातियों में बंट गए हैं। ऐसा होने से उनमे अतिशयोक्ति पूर्ण गुणों का आरोपण हो जाता है। ऐसे गुण उनके समकालीन व्यक्तियों के योगदान को अतिक्रमित कर जाते हैं। महापुरुष वायवीयता से भर जाते हैं, जिससे वह केवल प्रतीक बनकर रह जाते हैं। प्रतीको की आवश्यकता है, क्योंकि उनके माध्यम से बात तुरन्त और सटीक रूप में सम्प्रेषित हो जाती है, लेकिन हम ऐसा करके निश्चिंत हो जाते हैं और उनकी आड़ लेने लगते हैं, तब यह गोलबंदी करने का तरीका भर बनकर रह जाता है। यह पुराने समय के क़बीलों से अधिक क्या है!
बाबा साहेब डॉ आंबेडकर का योगदान भारत के संविधान के मुख्य वास्तुकार के रूप में स्मरणीय है। संविधान निर्माण में अन्य विद्वानों का भी योगदान रहा, पर डॉ आंबेडकर संविधान बनाने वाली समिति के अध्यक्ष थे। कितनी अलग अलग  समितियां थी, उन सबके अध्यक्ष डॉ राजेन्द्र प्रसाद थे।  डर अम्बेडकर ने उस समय के असहाय लोगों की पीड़ा को समझा। संविधान निर्माण के समय उन्होंने भारत के नागरिकों की समस्याओं और चिंताओं को दूर करने की कोशिश की है। वे बहुत अध्ययनशील व्यक्ति थे। वे किसी से नफरत नहीं करते थे। आध्यात्मिक चेतना से सम्पन्न व्यक्ति थे। इस चेतना में व्यक्ति को अभेद बोध हो जाता है। आध्यात्मिक व्यक्ति किसी धर्म का होकर रहे, वह किसी का विद्वेषी नहीं हो सकता। वे दलितो के लिए बनाये विशेष क़ानूनों का दुरुपयोग करने के विरुद्ध थे। उन्होंने कहा था संविधान कितना ही अच्छा हो, पर यह अच्छाई उसे लागू किये जाने पर निर्भर है। 14/4/20


395 अनुच्छेदों में 250 अनुच्छेद भारत शासन अधिनियम 1935 से यथावत लिए गए हैं। शेष में कितने अन्य देशों के हैं और फिर जो निर्माण हुआ उसमे समिति के अन्य सदस्यों का भी श्रेय है। डॉ आंबेडकर प्रारूप समिति के अध्यक्ष बाद में बने थे, उसके प्रारम्भिक गठन के समय नहीं। अस्तु! संविधान निर्माण सम्बन्धी श्रेय केवल उन्हें नहीं मिलना चाहिए

बी एन राव द्वारा तैयार किये गए संविधान के प्रारूप पर  विचार विमर्श करने के लिए संविधान सभा द्वारा 29 अगस्त 1947 को एक संकल्प पारित करके प्रारूप समिति का गठन किया गया। अध्यक्ष डॉ आंबेडकर चुने गए। सदस्य थे एन गोपालस्वामी आयंगर, ए के स्वामी अय्यर, के एम मुंशी, सैयद मोहम्मद सादुल्ला, एन माधव राव, डीपी खेतान, इनकी मृत्यु होने पर tt कृष्णामाचारी बने।
na tadasti na yatsatyam
na tadasti na yanmrsha
yadyatha yen nirnitam
tattatha tam prati sthitam .. (uttara.sarga.96,¿l°ka.41)
There is nothing that is not true. There is also nothing that is not untrue. Whoever decides 
in whatever way, it will be like that for him.
There is nothing, that is either real or unreal in the world; but every thing is taken in the same light, as it is displayed unto one by the intellect. 15/4/20
कोई अगर यही तय कर ले कि जिसकी बात हमें अच्छी लगे हम केवल उसकी बात सुनेंगे तो फिर अपनी अपनी बातें ही रह जाएंगी। 16/4/20
द्रौपदी के वस्त्रहरण की कहानी भारत की मनीषा ने क्यों जोड़ी होगी। यह उलझा हुआ प्रश्न है और इसकी सुविधा के अनुसार व्याख्या होती आयी है।  स्त्री को तमाम आवरण पहनाकर छुईमुई कर दिया गया और उसे ऐसी वस्तु समझ लिया गया कि एक पक्ष ने जुए में दांव में लगा दिया तो दूसरा पक्ष उसे वेश्या  मान रहा। महाभारत के लेखक ने इन प्रश्नों पर लेखक ने विचार किया और द्रौपदी द्वारा स्वयं इन प्रश्नों को भरी राजसभा में उठाने का चित्रण किया। गांधारी का द्रौपदी के पक्ष में बोलना भी स्त्री पक्ष में है, पर कुंती ने इस घटना को अपने पुत्रों का अपराध बताया। फिर क्या कारण है कि महाभारत के हज़ारों वर्ष बाद भी स्त्रियों के प्रति विद्वेष और अवमूल्यन का भाव जारी है! 20/4/20
एकोयनोsसौ द्विफलस्त्रिमूलश्चतूरसः पंचविधः षडात्मा। सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः। भागवत 10/2/27 

यह संसार क्या है, एक सनातन वृक्ष। इस वृक्ष का आश्रय है- एक प्रकृति। इसके दो फल हैं- सुख और दुःख; तीन जड़ें हैं-सत्व, रज और तम; चार रस हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसके जानने के पांच प्रकार हैं-श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका। इसके छः स्वभाव हैं- पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना। इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएं- रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र। आठ शाखाएं हैं- पांच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार। इसमें मुख आदि नौ द्वार खोडर यानि गड्ढे हैं। प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय- ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं। इस संसार रूप वृक्ष पर दो पक्षी हैं- जीव और ईश्वर। 

अब मुण्डकोपनिषद का वह प्रसिद्ध श्लोक देखें

 द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।। 

 दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, घनिष्ठ सखा, समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को देखता है। 26/4/20
य आशु ह्र्दयग्रंथिं निर्जिहीर्षु(विसर्ग) परात्मनः। विधिनोपचरेद् देवं तंत्रोक्तेन च केशवम्।।11/3/47
राजन! जो पुरुष चाहता है कि शीघ्र से शीघ्र मेरे ब्रह्मस्वरूप आत्मा की हृदयग्रन्थि- मैं और मेरे की कल्पित गांठ खुल जाए उसे चाहिए कि वह वैदिक और तांत्रिक दोनों ही पद्धतियों से भगवान की आराधना करे। 
भिद्यतेहृदयग्रंथिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि मयि दृष्टेsख़िलात्मनि।।11/20/30
कथं विना रोमहर्षं द्रवता चेतसा विना। विनाssनन्दाश्रुकलया शुध्येद् भक्त्या विनाssशयः।।11/14/23
जब तक सारा शरीर पुलकित नहीं हो जाता, चित्त पिघलकर गद्गद नहीं हो जाता, आनंद के आंसू आंखों से छलकने नहीं लगते तथा अंतरंग और बहिरंग भक्ति की बाढ़ में चित्त डूबने-उतराने नहीं लगता, तब तक इसके शुद्ध होने की कोई संभावना नहीं है।
छूत की यानि संक्रामक बीमारियों और नीरोग शरीर पर महात्मा गांधी-
आत्मा जैसे जैसे पाप से मुक्ति पाती है, शरीर वैसे ही वैसे, नीरोग होता जाता है। किंतु, नीरोग शरीर का अर्थ यहाँ शक्तिशाली शरीर नहीं है। शक्तिशाली आत्मा का वास दुर्बल शरीर में ही होता है। आत्मा की शक्ति ज्यो-ज्यों बढ़ती है, शरीर का बल, त्यों-त्यों घटता जाता है। इसलिए, पूर्ण रूप से नीरोग शरीर दुर्बल और क्षीण हो सकता है। शक्तिशाली शरीर मे तो प्रायः रोग ही बसते हैं। रोग न भी हों, तब भी बली शरीर को रोग की छूत आसानी से लग जाती है। किंतु, नीरोग शरीर को रोगों की छूत नहीं लगती। नवजीवन 5 जून, 1924
ब्रह्म और ईश्वर का जैसा अंतर है शून्य और एक में, अद्वैत और द्वैत में। त्रिपुटी लय की अवस्था शून्यावस्था है, दृष्टा उसके बाद की। सादर 
8/5/2020

महाभारत सीरियल में बहुत ब्रेक आने लगे, इसलिए उसे you tube पर देख लिया। कहने में विरोधाभासी लगता है, पर महाभारत में शांति का ही संदेश है। कहानी का विश्लेषण करने से अपने-अपने पक्ष के तर्क मिल जायेंगे। कहानी का प्रतीकार्थ है कि मनुष्य को अपने भीतर के कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र बनाना है, उसी का तरीक़ा महाभारत ग्रंथ के भीतर आई गीता के माध्यम से दिया गया है।  इस कथा में इतने दांव-पेंच हैं कि अपरिपक्व मस्तिष्क पर कुप्रभाव न हो जाये, इसलिए कहीं महाभारत के बारे में माना जाता रहा कि ग्रंथ को घर में रखने से कलह होता है। अब तो लोग महाभारत काल से भी ज़्यादा षड्यंत्र जानने लग गए हैं, इसलिए ग्रंथ को घर मे रखने वाली बात अप्रासंगिक हो गयी।

महाभारत धारावाहिक में कृष्ण का चरित्र विशेष ध्यान खींचता है। वह विचलित करने वाली घटना पर भी सामान्य रहते हैं, घटोत्कच बध के बाद तो वह मुस्कुराते हुए पांडवों को समझा रहे थे कि घटोत्कच का बलिदान कितना महत्वपूर्ण है। इसका कारण क्या है! हमें जब किसी घटना के कारण और परिणाम ज्ञात होते हैं तो फिर हमें वैसी समस्या नहीं रह जाती। यानि अज्ञानता दुःख का कारण है, वही भय का भी कारण है। घटना के कारण और परिणाम जानने के लिए जिस विद्या की आवश्यकता है, वह स्कूलों कॉलेजों में नहीं मिलती। 9/5/2020
मनु तो प्रतीक बना दिये गए। मनु स्मृति में बहुत से क्षेपक हैं। कोई एक व्यक्ति या जाति समूची दुरवस्था के लिए उत्तरदायी कैसे हो सकता है! मनुस्मृति में बहुत सी उपादेय बातें भी हैं।  14/5/2020
विचारधाराओं के द्वंद्व अपने आप मे घोषणा करते हैं कि वे समाज का कल्याण करने के लिए पूरी तरह सक्षम नहीं हैं। एक समय किसी विचारधारा का तो एक समय दूसरी विचारधारा की सत्ता आती और जाती रहती है। व्यक्तियों का उत्थान आवश्यक है। इसलिए जिस सत्ता ने व्यक्तियों का जितना बहुमुखी उत्थान किया, वह उतनी सफल मानी जानी चाहिए। कम्युनिस्ट विचारधारा उथली और छिछली नहीं, जैसी कभी-कभी यूं ही कह दिया जाता है। स्वामी करपात्री जी महाराज ने इसपर रामराज्य से जोड़कर पुस्तक लिखी है। अगर कम्युनिस्ट अप्रासंगिक भी हो गए हैं तो किसी अन्य नाम से कोई विपरीत ध्रुव अवश्य खड़ा होगा, जिसमे इसका भी अंश होगा, उसी तरह जैसे इसमे पूर्ववर्तियों का अंश शामिल है। 

दोनों ध्रुवों की विचारधाराएं अंत मे एक ही हो जाती हैं। आरम्भ और अंत के बीच के दौर में इन पर जो कहते रहें, उसमें सत्यांश जान पड़ेगा। 21/5/2020
पराविज्ञान में भाषा के शब्दों और उनके विपरीतार्थी शब्दों से परे अर्थों में जाना होता है, राग-द्वेष, शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित इत्यादि। भाषा बिना द्वैत के चीजों को नहीं समझा पाती है। वर्णमाला के अ में ठहरिए गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं अक्षराणामकारोस्मि.. अ के बिना शब्द का अस्तित्व नहीं. ॐ की तीन ध्वनियों के पार जाइये..23/5/2020
हमारी परंपरा में पत्थर में भगवान उकेरे गए और करोड़ों देवताओं को स्वीकार किया गया जिससे हम जड़-चेतन सबमे परमात्मा का दर्शन करने की भावना का विकास कर सकें। सम्राट अशोक ने चक्र बनवाये, जो तिरंगे में है। इसका संकेतार्थ है कि हमारी जीवन यात्रा अनवरत चलती रहती है। 7/6/2020
संस्कृत के शब्दों में गूढार्थ छिपा होता है। मनन वस्तुतः मन न होने की दशा है। गंगा में गम्यते के कारण जाने का भाव है। यह वापस भी आती है। असल मे आना और जाना विरोधी नहीं है। 9/6/2020
मनुष्य की सारी यात्रा अहंकार से परे या पार जाने की है। किसी का अहंकार मोटे रूप में तो आसपास के लोगों को भी समझ मे आ जाता है, किंतु इसके इतने महीन स्तर हैं कि स्वयं को भी इसके होने का पता नहीं चल पाता, छाया की भांति यह व्यक्तित्व से चिपका रहता है। इसे कम करने से भी काम नहीं चलता, विसर्जित ही करना पड़ता है। मुश्किल यह है कि इसे चिह्नित करने में ही कितने जन्मों की यात्रा तय कर जाते हैं, जानने के बाद इसे दूर करना भी आसान नहीं होता। मनुष्य की स्वाभाविक गति इससे पार जाने की है, अगर प्रयत्न किया तो कुछ पहले क्या तुरन्त भी पीछा छूट सकता है।  26/6/2020
 ब्रह्मांड को प्रकृति कहें या ईश्वर, उसके प्रति शरणागति के अतिरिक्त आनंद प्राप्त करने का अन्य कोई उपाय नहीं। आनंद प्राप्त करना मनुष्य का स्वभाव है, स्वरूप भी है और गंतव्य भी। ईश्वर  व्यक्ति के रूप में नहीं दिखता, और इसे जानने का सीधा रास्ता नहीं मिलता, जिससे समर्पण में कठिनाई होती है, इसलिए गुरु ईश्वर के प्रतिनिधि बनकर आते हैं।  बोधप्राप्ति के लिए गुरुतत्व प्रधान है, वह ब्रह्म से भिन्न नहीं। ईश्वर से जुड़ने के लिए, गुरु किसी शरीर मे हो सकते हैं, कुछ लोगों की सुविधा जब तक गुरु भौतिक शरीर में न हों तब तक नहीं हो पाती। मूल बात है कि आप समर्पण भाव में कैसे आएं! गुरु मार्ग दिखाते हैं, वे चाहे सूक्ष्म शरीर मे हों या स्थूल शरीर में...27/6/2020
शिखा और तिलक कोई रखे, न रखे, पर ब्राह्मणों ने तपस्यापूर्वक इनका जो स्थान और आधार तय किया है, वह प्रत्येक मानव शरीर में है। इसीलिए इनका महत्व किंचित शब्दभेद से सार्वकालिक और सार्वत्रिक है। जो व्यक्ति बुद्धत्व या कैवल्य प्राप्त करेगा, वह इनके महत्व को समझेगा।  वह ब्राह्मणों की इस देन को निरस्त नहीं कर सकेगा, अन्य जातियों का भी समाज में अपने-अपने रूप में अवश्यमेव महती योगदान हैं, अन्यथा वे होती ही क्यों! लेकिन कुछ हमारे नवबौद्ध बंधु ब्राह्मणों को सोशल मीडिया पर विदेशी और यूरेशियन प्रचारित कर रहे हैं, यह भाईचारे और सद्भाव पर तो आघात है ही;  देश को पीछे धकेलने का षड्यंत्र भी इसमें प्रतीत होता है। कोई कोशिश कर ले, तालिबानीकरण देश मे नहीं हो सकता। कुछ लोगों को बरगलाकर अपनी राजनीति कैसे और कब तक चमक सकती है! प्रोफेसर विलास 28/6/2020
भगवान के 'मैं' बीज से मन उत्पन्न हुआ। मैं मन बना और मन तत्व की प्रधानता से मैन, माइंड, मनुष्य, मुनि, मनु, मौन इत्यादि नामरूप बने। इंद्रियाणां मनश्चास्मि अर्थात इंद्रियों में मन ईश्वर की विभूति है।  सप्त ऋषियों और कुल चौदह में से स्वायम्भू आदि चार मनु यानि ग्यारह भाव सृष्टि व्यापार के लिए भगवान के मन से उत्पन्न हुए हैं। ये ग्यारहों  ने लोकपालों को उत्पन्न किया और लोकपालों ने विविध लोको  की रचना की और उन लोकों से सारी प्रजा ने जन्म धारण किया है...

 महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः।। गीता 10.6।।

इस प्रकार मनु पूरी सनातन संस्कृति के केंद्र में हैं, इन्हें कैसे हटाया जा सकता है...29/6/2020
इंग्लैंड और जर्मनी के बीच युद्ध चल रहा था। केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक प्राध्यापक अपने अध्ययन कक्ष में पढ़ने में तल्लीन थे। एक सैनिक ने आकर कहा सैनिक देश के लिए युद्ध कर रहे हैं और वे यहां बेकार में बैठे हुए हैं।
प्राध्यापक ने शांतभाव से सैनिक से राष्ट्र की सुरक्षा का तात्पर्य पूछा। सैनिक ने उत्तर दिया राष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं की रक्षा करना। प्राध्यापक ने कहा क्या इसका इतना ही तात्पर्य है। सैनिक ने थोड़ी देर बाद सोचकर कहा राष्ट्र के लोगो और सभ्यता संस्कृति की रक्षा करना भी इसका तात्पर्य है। प्राध्यापक ने कहा वह राष्ट्र की सभ्यता-संस्कृति की रक्षा कर रहा था। यह सुनकर सैनिक ने प्राध्यापक को प्रणाम किया और चला गया।

'इंडिया 2020' में डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम लिखते हैं "यदि आप शिक्षक हैं, चाहे आपकी जितनी भी क्षमता है, तो आपकी विशेष भूमिका है।क्योंकि बच्चों के भविष्य निर्माण में अन्य किसी की अपेक्षा आपका योगदान अधिक है।"

श्रेष्ठ शिष्यों ने 
गुरु वंदनाएँ लिखीं,

मूढ़ गुरुओं ने उन्हे अपना हथियार बना लिया !!!
शिक्षक दिवस
भवतारिणी काली/कालरात्रि
काल समय, सीमितता या मृत्यु को कहते हैं, रात्रि अंधेरे को। अधिकांश व्यक्ति इस सीमितता से घबराते हैं। अगर हम काली मां को प्रेम करें, तो काल का डर चला जायेगा। काल एक दर्पण की भांति है, जिसके सामने सब घटता चला जा रहा है। अपनी छवि जैसी बनायेगे, दर्पण उसे वैसा दिखायेगा। कोई रचना निबिड़ अंधकार से या उसके बाद ही संभव होती है। बीज धरती के गर्भ में जब विगलित होता है, तब उसमे अंकुरण होता है, फिर वह वृक्ष बनता है।
कोलकाता का प्रसिद्ध विशाल दक्षिणेश्वर मंदिर मां काली का है, जिसे शूद्र वर्ण की रानी रोसमणि ने बनवाया था। इस मंदिर में द्वादश ज्योतिर्लिंग भी स्थापित हैं। इसी मंदिर के पुजारी रामकृष्ण परमहंस हुए, जो पढ़े लिखे तो नहीं थे, पर इन्हें मां काली की परम कृपा और वात्सल्य प्राप्त था।  रामकृष्ण परमहंस की कृपा से नरेंद्रनाथ स्वामी विवेकानंद के नाम से विख्यात हुए। उनका रामकृष्ण मिशन पूरे संसार मे सनातन धर्म की ध्वजा का प्रमुख वाहक बन गया है।
'मेजदा' (सनन्द लाल घोष) में काली के स्वरूप को डिकोड किया गया है-
काली निराकार परमात्मा की शक्ति, सृजनात्मक शक्ति या ऊर्जा का प्रतीक है। काल से बाहर कुछ नहीं है। इसी में उत्पत्ति, पालन और संहार चलता रहता है। काली की चार भुजाओं में एक दायीं भुजा सृष्टि का सृजन करने की शक्ति तो दूसरी दायीं भुजा भक्तों को आशीर्वाद और मुक्ति प्रदान करती है। बाई भुजाओं में एक मे खड्ग और एक मे कटा सिर धारण करती हैं, जो क्रमशः ब्रह्मांड का पालन करने और ब्रह्म में लीन होने को दर्शाती हैं। पचास मुंड संस्कृत की पचास ध्वनियों को दिखाती हैं। उनके झूलते हुए केश माया के पर्दे की तरह हैं। काला रंग प्रकाशहीन प्रकाश और अंधकारहीन अंधकार का प्रतीक है। काला वर्ण निराकारता और रंगों के अभाव को दर्शाता है। यह विविधता की अनुपस्थिति और एकत्व में लय का वर्ण है। उनका निर्वस्त्र शरीर अनन्तता का संकेत है। उनके तीन नेत्र सूर्य, चन्द्र और अग्नि को दिखाते हैं। मां के स्तन ब्रह्मांडीय पोषण है। सफेद चमकदार दांतो से मां अपनी बाहर निकली रक्त जिह्वा को काटती है। क्रियाशीलता दिखाती हुई। सफेद रंग सतोगुण का प्रतीक है यानी क्रियाशीलता को सतोगुण के विवेक से नियंत्रित करते हुए। सृष्टि के चक्रवत नृत्य में मां का एक पैर शिव यानी परमात्मा की छाती को ठोकर मारता है, शिव उनके कदमो के नीचे लेटे हैं। सृष्टि की रचना के समय परमात्मा स्वयं को प्रकृति के अधीन कर देते हैं। काली मां परम् शासक हैं, पर जिस समय प्रकृति परमात्मा का स्पर्श करती है, वह उनके वशीभूत हो जाती है। मां की पूजा प्रायः श्मशान में की जाती है। यह मृत्यु का रूपांतरकारी स्पर्श की तरह है। काली का स्वरूप डरावना है, पर वे सब प्राणियों की मां हैं। उनकी शक्ति अलंघनीय है, फिर भी उनका प्रेम सभी के लिए पुष्प के समान कोमल है। जब हम सार्वभौम माता के रूप में कल्पना करते हैं तो सभी मानव  भाई बन जाते हैं। क्या यह आज की बड़ी आवश्यकता नहीं!

जब हम आंतरिक दुश्मनों और  काल (समय) के भय से मुक्त हो जाते हैं, तब मां हमारे भीतर असीमित भव्यता के साथ महागौरी के रूप में जन्म लेती है। महा जो माप से बाहर है और गौरी जिसके शांति, तेज और प्रेम बहुत से ऐसे अर्थ हैं। गोरा शरीर के रंग को कहने लगे हैं, क्योंकि उसमें उक्त गुणों की सम्भाव्यता का दर्शन मान लिया गया है।

नौंवी देवी सिद्धिदात्री हैं। यह सफलता और पूर्णता की दात्री है। सिद्धिदात्री तक पहुँचने का क्रम प्रथमं शैलपुत्रीश्च से शुरू होता है। हम सीधे नौंवी देवी को प्राप्त नहीं कर सकते। स्मरण रहे, यह करतब सिद्धि नहीं है, जिसके व्यामोह से जगत आच्छादित है। वह सिद्धि, जिसका आनंद फीका न पड़े। 

नवदुर्गा शरीर के नवद्वारों में है। खाते, पीते, बोलते हर श्वास में  दुर्गा है। नवद्वारी दुर्गा की उपासना से नवग्रह और सत्ताईस नक्षत्रों के कुप्रभाव शून्य हो जाते हैं। नवदुर्गा प्रसन्न होती है तभी दशम द्वार मिलता है। दशहरे का यही अभिप्राय है, जो अगले दिन मनाया जाता है। मां नित्य नवीन आनंद है, उसी मां के हम बच्चे हैं। अस्तु! हम दुर्गा की आराधना करें।

सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोsस्तु ते।।
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोsस्तु ते ।।

शैलपुत्री माता ने जब शिव का ध्यान किया, भोजन भी त्याग दिया, शिव और पार्वती का विवाह हुआ।  जीव जब तक बंधन में है तब तक जीव है। जब वह बंधनमुक्त हो जाता है, तब शिव हो जाता है। शिव और शक्ति से कार्तिकेय का जन्म हुआ। इन्हें देवसेनापति भी कहा गया है, यह देवताओं के सेनापति जो हैं। कार्तिकेय  षडरिपुओं - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर- को मारने के लिए छः मुखों के साथ आते हैं।
दुर्गासप्तशती, जिसे चंडी के नाम से जाना जाता है। इसके 13 अध्याय तीन भागों में विभाजित हैं। यह तीन भाग महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के लिए समर्पित हैं। यह क्रमशः तमस, रजस और सत्व गुण की प्रतिनिधि दुर्गा हैं।
सप्तशती की कथा राजा सुरथ और एक समाधि नामक वैश्य से शुरू होती है, सुरथ और समाधि को दुश्मनों ने राज्य से बाहर निकाल दिया। वे आश्रम में एक ऋषि मेधा से मिलते हैं। मेधा उनसे माँ दुर्गा की आराधना करने के लिए कहते हैं। दुर्गा या चंडी का माहात्म्य सुनाते हैं। सुरथ और समाधि माता की उपासना से उन्हें प्रसन्न करते हैं।
यह सुरथ एक व्यक्ति है। शरीर रूपी अच्छा रथ सुरथ है। समाधि मन के संतुलन को कहते हैं, वह वैश्य हुआ। मेधा उत्कृष्ट बुद्धि है।
दुर्गा ने जिन राक्षसों को मारा, उनका रूपकार्थ भिन्न है 'मधु और कैटभ- दोनों राक्षसों की उत्पत्ति कान के मैल से होती है। केवल अपनी बड़ाई सुनना( मधु), दूसरों के लिए कड़वापन( कैटभ)।मधु और कैटभ..राग और द्वेष के प्रतीक हैं।' इसी तरह शुम्भ, निशुम्भ और महिषासुर के रूपक हैं।

कूष्माण्डेति चतुर्थकम्
राख के रंग जैसा दिखने वाला भूरा कुम्हड़ा, जिससे पेठा बनता है, कूष्माण्ड कहलाता है। एक बेल से यह तैयार होता है। बेल श्वास की भांति है और कुम्हड़ा जीवन की तरह। जीवन की डोर श्वास से ही तो बंधी है।
क का अर्थ सिर, ऊष्मा गर्मी और अंडा उसके आकार का सूचक है। मनुष्य का सिर अंडा की भांति है। उस सिर के भीतर मस्तिष्क है और उसकी ऊष्मा कूष्माण्डा मां की ऊर्जा हैं। 

 चंद्रमा और मन का करीबी सम्बन्ध होता है। चन्द्रमा मन से उत्पन्न हुआ है। मनोविज्ञानी कहते  हैं पूर्ण चंद्र और नए चंद्र के दौरान मन अधिक उद्वेलित होता है। घण्टा दैवीय नाद ध्वनि है। आहत ध्वनि, जिसमे दो या अधिक चीजे टकराकर ध्वनि उत्पन्न होतो है, पर अनाहत ध्वनि बिना किसी पदार्थ के टकराये बजती है, इसे अनहद भी कहते हैं। यह ध्वनि ॐ की तरह गूंजती है। जैसे सागर की समस्त लहरों की ध्वनियां आवाज करती है, ऐसे ही ब्रह्मांड की पुंजीभूत आवाज तैलधारवत ॐ ॐ होती रहती है, जैसे मोटर चलती है। मंदिरों में बजाया जाने वाला घण्टा अनहद नाद का प्रकटीकरण है। कहते हैं, यह  घण्टा नाद मंदिरों से ही चर्च में गया है। 
आज देवी चंद्र घण्टा का दिन है। शुभकामनाएं..

पुरुषों को चाहिए कि वे सभी स्त्रियों को माता के रूप में देखें, जब वे स्त्री को केवल वासना की संतुष्टि के लिए एक वस्तु के रूप में देखते हैं, वे नहीं जानते कि वे क्या खो रहे हैं, तब वे केवल एक बुराई  को देखते हैं जो उनके अपने अंदर है। स्त्री के मातृ रूप में पवित्रता है। स्त्री को माता की वृत्ति पुरुष को बुराई के गड्ढे में गिरने से बचाने के लिए दी गयी थी।  यह उसका प्रधान उद्देश्य है। उसकी रचना कामुकता की वस्तु के रूप में नहीं की गई थी। स्त्री की पुरुष के प्रति अशर्त सहानुभूति से अधिक पवित्र और कुछ नहीं है। एक सम्मानित न्यायाधीश अपने घर में सहधर्मिणी या गृहिणी के लिए केवल एक बच्चे के समान है। प्रत्येक स्त्री को सम्पूर्ण विश्व के लिए प्रेम का अनुभव करना चाहिए, यदि वह जगन्माता के प्रेम को व्यक्त करना चाहती है।

 ब्रह्मचारिणी देवी की उपासना का यही स्वरूप है।

दुर्गा यानि जो हमे सारी कठिनाइयों से बचाये। परम्परानुसार नौ अलग-अलग रूपों में प्रकट होने के कारण यह नौ दुर्गा कही गयी।
दक्ष की कन्या सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध शंकर से स्वयंवर विवाह करने के कारण दक्ष ने यज्ञ में शंकर और सती को नहीं बुलाया। फिर भी सती यज्ञ में अपने पिता के घर गयी, वहां शंकर का हिस्सा न देखकर क्रोध में यज्ञ कुंड में कूदकर प्राण छोड़ दिये। शिव और सती की कहानी के रूपक को अभिधार्थ में ग्रहण करने से सती प्रथा चल पड़ी होगी। उन दिनों तारकासुर देवताओं की नाक में दम किये था। तारकासुर भी कोई और नहीं अंतरिक्ष मे मौजूद तारों का समूह है। यह मनुष्य की विविध इच्छाओं का प्रतीक है। सती और शिव के पुत्र से ही तारक का संहार होना था। तब सती ने पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया और पार्वती कही गयी।
नौ देवियों की कथा में आया हर पात्र रूपक है। दक्ष का अर्थ है निपुण, कुशल। उनकी पुत्री सती आध्यात्मिकता की प्रतिनिधि है। दक्ष भौतिक इच्छाओं की अति से सती पर ध्यान नही दिए। दक्ष यानी होशियार होते हुए भी इस तरह वे अपूर्ण रहे, क्योंकि उन्होंने सती और शिव की पहचान और आवश्यकता नहीं समझी। दक्ष यज्ञ विध्वंस सिखाता है कि जीवन मे भौतिक और आध्यात्मिक पक्षों में संतुलन आवश्यक है।
आज पहले दिन की दुर्गा का नाम शैलपुत्री है। शिला  पुत्री यानि हिमालय की पुत्री। हिम यानी शीतल आलय घर को कहते हैं। जो ब्रह्मांड में है, वही हमारी देह में है। भ्रूमध्य से ऊपर सिर का भाग शीतल रहता है। उसके नीचे दक्षिण प्रदेश में शेष शरीर है। शैलपुत्री हमारा प्रेम और समर्पण चाहती है, अन्यथा केवल भौतिक समृद्धि से मनुष्य की दशा दक्ष की भांति हो जाएगी।
इसी तरह अन्य आठ देवियों के अलग-अलग निहितार्थ हैं। 

नवरात्रि में कन्यापूजन का रूपक है कि हम उस सतीत्व को ग्रहण करें, जिससे इस संसार मे रहने की पात्रता अर्जित हो सके। किसी कर्मकांड को उसके मूल अर्थ के साथ समझें तो ही उसके करने का महत्व है....

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