Friday, January 28, 2022

डायरी मई २०२१

 1 मई

Environment is stronger than will power. If you want to be spiritual, seek good company and don’t mix with those whose bad habits may wrongly influence you. Be always with people who inspire you; surround yourself with people who lift you up.

~ Paramahansa Yogananda

मरा हुआ व्यक्ति जीवित व्यक्तियों में शेष रहता है, इसलिए दिवंगत व्यक्ति का मूल्यांकन जीवित व्यक्तियों के आचरण से किया जाना चाहिए।
2/5/21
बृहद भागवतम में गोपकुमार की कथा आयी है। गोपकुमार गुरुजी के दिए मंत्र के प्रति निष्ठा रखते हुए सप्त लोको की यात्रा करते हैं। उन्हें बैकुंठ में भी अच्छा नहीं लगता, क्योंकि वहां उन्हें नन्दनन्दन की सेवा का कार्य सुलभ नहीं। वे अंतके गोलोक वृंदावन आ जाते हैं और तब परम् प्रसन्नं होते हैं।
ध्यान में आया कि हमसे सेवा तो कुछ अलग से नही हो रही। नौकरी नैत्यिक सेवा है, परिवार सेवा भी नैत्यिक ही है, फिर क्या हो रहा है। तब लगा ध्यान के दौरान जो मच्छर, चींटी, चींटे, कीड़े इत्यादि शरीर से रक्त चूसते हैं, क्या यह उन प्राणियों की सेवा नहीं! सदा ऐसा नहीं हो पाता, पर जब होता है तो क्या यह संतोष नही किया जा सकता। यद्यपि यह सेवा नहीं। भगवान हमे जो कार्य दे और हम उससे कर्तव्यच्युत हों, तब ही दोषी होंगे न।
धर्म कैसे बना। प्रकृति में एक प्राणी दूसरे प्राणी का आहार करता है। मत्स्य न्याय यही है। भागवत में आया है जीवो जीवस्य जीवनं। दूसरी तरफ समर्थ जीव निरीह जीवो की रक्षा भी करते हुए इसी प्रकृति में देखे जाते हैं। आदि शंकराचार्य ने जब श्रृंगेरी में देखा एक गर्भवती मेढकी को देखकर सर्प उसकी रक्षा कर रहा है, उसी जगह उन्होंने पहला मठ स्थापित किया। भगवान के विग्रहो में यह विरुद्धों का सामंजस्य  खूब मिलता है। विष्णु शेषनाग पर लेटे है, पर गरुड़ पर सवारी करते हैं। गरुड़ सर्प का भोजन है।  शिव परिवार में तो यह उनके सभी परिजनों में मिलता है। धर्म का जन्म यहीं से होता है।  हम समर्थ बने और निरीह की रक्षा करें। जैन धर्म मे बाघ और बकरी का प्रतीक प्रचलित है। बुद्ध ने धम्म चक्क पवत्तन किया। चक्रीय क्रम सतत चलता रहता है। धर्म चक्र यही है।  निरीहों और समर्थों की दशा बदलती रहती है। धर्मो रक्षति रक्षितः इसीलिए कहा गया।  यही क्रम अर्थशास्त्र में होना चाहिए। धन पैदा हो और उसका वितरण हो, तब एक अच्छी अर्थव्यवस्था बनेगी। केवल धन उत्पन्न होने से बात नहीं बनेगी, और केवल वितरण से भी नहीं, तब धन कहाँ से आएगा। 
भरत मुनि ने ऋग्वेद से संवाद, यजुर्वेद से उन सम्वादों की अदायगी, सामवेद से संगीत और अथर्ववेद से साज सज्जा लेकर पंचम वेद नाट्यशास्त्र लिखा। 
किसी गुरु को श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ होना चाहिए। श्रुति यानी वेद पुराण के ज्ञान से वह शिष्य की जिज्ञासाओं का शमन कर सकता है।
स्त्रियां सद्योबधू और ब्रह्मवादिनी दो प्रकार की होती है। ब्रह्मवादिनी स्त्रियों की संख्या अत्यल्प है, जिनका वरना  वेदों में प्राप्त होता है। 
3/5/21
देवदत्त पटनायक से गोरखनाथ की कहानी सुनी। एक निसंतान महिला को मछेन्द्रनाथ ने पुत्र कामना पर राख देकर कहा इसे खा लेना। महिला ने उसे खाया नही और गाय के गोबर के घूरे पर फेंक दिया। 12 वर्ष बाद मछेन्द्रनाथ पुनः उसी स्थान पर आए और महिला से पूछा बालक कहाँ है। उसने बताया वह राख तो मैने खाई नहीं, राख को पूछा कहाँ है, तो बोली गाय के गोबर में। वहां देखा तो 12 वर्ष का बालक खेल रहा हैं। इन्ही गोरखनाथ ने कदलीवन से गुरु मछेन्द्रनाथ को निकाला। 
आगम और निगम दो शास्त्र हैं। शिवजी ने जो पार्वती से कहे वे निगम है और वेद, उपनिषद, पुराण आदि निगम। शिवजीने पार्वती से जो कहा और उसे सर्प, मीन और शुक्र ने सुना तो वही पतंजलि,मछेन्द्रनाथ और शुकदेव हो गए। 
योग घोड़े की जैसे लगाम है। साफ कागज जैसे मुड़ जाता है, चित्त में वृत्तियों के कारण वह भी दुआहित हो जाता है। योग उसे साफ करता है। मन को त्राण दे वह मंत्र, तन के माध्यम से त्राण मिले वह तंत्र और यंत्र मंदिर और मंडल को बोलते हैं। जो कुछ सृष्टि में रूपः है, वह यंत्र हुआ। मंदिर और यंत्र उस के प्रतीक हैं। 
ब्रह्मांड, संस्कृति और प्रकृति ये मिलकर तीन पुर बनते हैं। 
4/5/21
ब्रह्म में बृह पद है, बृह का अर्थ विस्तार होता है। जिसका मन विस्तार पा गया, वही तो ब्रह्म हुआ न! इतना व्यापक कि जिसमें कुछ बाहर न हो। 

औरों को हंसते देखो मनु, हंसों और सुख पाओ। अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ। कामायनी
5/5/21
मरणासन्न व्यक्ति अस्वीकृति, क्रोध, समझौता, अवसाद और स्वीकृति इन अवस्थाओं से होकर निकलता है। मरणासन्न व्यक्ति को प्राण त्यागने के सम्बंध में संवेदनशीलता और कौशल के साथ बताया जाना चाहिए। अधिकतर ऐसे व्यक्ति जान ही लेते हैं, परन्तु वे चाहते हैं डॉक्टर या सम्बन्धियों से इस बारे में पता चले। अगर सम्बन्धी नहीं बताते तो मरणासन्न व्यक्ति को लग सकता है उनके सम्बन्धी इस समाचार का सामना नही कर सकते। फिर वे भी इस विषय को नहीं उठाते। इससे वे अकेला और व्यथित अनुभव करते हैं।
मरणासन्न व्यक्ति के साथ काम करने का अर्थ है कि हम अपनी वास्तविकता को दर्पण में देख रहे हैं। मरणासन्न व्यक्ति द्वारा सजग, सचेत व प्रशांत अवस्था के बीच अंतिम सांस लेना बहुत महत्वपूर्ण है। मरणासन्न व्यक्ति को पूरी शांति व मौन के बीच जाने दिया जाए। मरणासन्न व्यक्ति के पास एक सच्ची बुद्ध प्रकृति है, भले उसे इसका अहसास हो या न हो, पर वह सम्पूर्ण प्रबोध पाने की सम्भावना रखता है।
मरणासन्न व्यक्ति को दाईं करवट लेटते हुए निद्रालीन सिंह की मुद्रा अपनानी चाहिए।
अगर आपने मरना सीख लिया तो अपने जीना सीख लिया और जीना सीख लिया तो इस जन्म के साथ साथ अगले जन्मों के लिए भी जीना सीख लिया।

उक्त विवरण जीवन और मरण की एक पुस्तक में दिया गया है। इस पुस्तक में मरण की प्रक्रिया और अन्य बातों का सविस्तार वर्णन दिया गया है।

गुरु, रूप ब्रह्म,
उतारो पार भव सागर के।
6/5/21
जब एक पार्टी के लोगों की पिटाई होती है तब उन्हें बुद्धिजीवियों या प्रेशर ग्रुप की याद आने लगती है। अन्यथा सत्ता के नशे में चूर रहकर वे इन्हें कोसते रहते हैं। इन्हें सुविधाभोगी और जाने क्या-क्या समझते-कहते हैं। 
मित्रो! भ्रांतिमूलक दशा मे सत्ता का चरित्र दमनकारी होता है। बोध होने पर यह सत्ता शक्ति हो जाती है। इसलिए सत्ता के साथ नहीं सत्य के साथ चलना श्रेयस्कर है। सत्य का आग्रह नहीं होता, वाद भी नहीं, पर वह खिले हुए सुगन्धित फूल की भांति सर्वत्र अपनी खुशबू बिखेरता है। 
सत्ता निरपेक्ष एक ग्रुप अवश्य ऐसा होना चाहिए जो सत्ता के उन्मादियों को टोक सके। इस ग्रुप को सत्ता से ही संरक्षण भी मिलना चाहिए।
7/5/21
व्याकुल मेरी आत्मा रहती है दिन और रात।
कल से पता नहीं कैसे दिमाग प्राण और अपान के अंतर की गुत्थी पर अटका हुआ था। संस्कृत साहित्य में अपान गुदा मार्ग से निकली वायु को कहते हैं, इसी से भ्रम हुआ। स्वामी गम्भीरानन्द की गीता पढ़ रहे थे, तब इस पर ध्यान गया। गुरु जी का मार्गदर्शन देखा, उसमे प्राण श्वास लेने को और अपान श्वास छोड़ने के लिए कहा गया है। भ्रम इसलिए हुआ कि बचपन से ही अपान वायु को मलद्वार से निकलने वाली वायु को समझा जाता रहा। इंटरनेट पर देखा तो भी भ्रांति दूर नहीं हुई। परमहंस प्रज्ञानानंद का पतंजलि योगसूत्र देखा तो उसमे दिखा कि जब प्राण और अपान एक साथ प्रयुक्त हों तो उनका आशय श्वास लेने और छोड़ने से है, अपान का अर्थ मलद्वार वायु उसमे भी दिया है। 
8/5/21
गरुड़ एक पौराणिक पक्षी है। भगवान विष्णु इस पर यूं ही सवारी नहीं करते हैं। नाग की मां और गरुड़ की मां दोनो के एक ही पति थे। गरुड़ अमृत पीकर अमर्त्य हो गए। उन्होंने नाग माता को भी अमृत दे दिया। इस सेवा से प्रसन्न भगवान विष्णु ने इन्हें सवारी करने के लिए चुना। यद्यपि गरुड़ और नाग बालकों में सौतिया डाह रहता है।   गरुड़ पूरे आकार के साथ जन्म लेता है। इसके पंख अंडे में रहने के दौरान ही तैयार होते हैं, पर बाहर आने तक उड़ नहीं सकता। अंडा फूटने पर यह उड़ जाता है। इसका प्रतीकार्थ है कि शरीर मे आबद्ध बुद्धत्व शरीर नष्ट होने पर दीप्तिमान हो जाता है। गरुड़ पुराण का नाम और उद्देश्य भी यही है। 
आगम, निगम और बौद्ध इत्यादि शास्त्रों में यह पक्षी पवित्र माना गया है।
इंडोनेशिया में यह राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में मान्य है। गरुड़ भारत का धार्मिक और अमेरिका का राष्ट्रीय पक्षी है।
9/5/21
ध्यान के साथ कर्म को जोड़ना योगदा शिक्षा का उद्देश्य।xxx शरीर त्यागने के बाद भी गुरु अपने शिष्यों की सहायता करना जारी रखते हैं।xxxकोई किसी का नहीं है। हम सब ईश्वर से आये हैं। धरती पर एक दूसरे से अपरिचित प्रतीत होते हैं। केवल जब हम ईश्वर से प्रेम करते हैं, तभी हम वास्तव में सभी के भाई और बहन बनते हैं।
पद्मासन सर्वश्रेष्ठ आसन है।
ईश्वर चंद्रमा की भांति हैं और भक्त का मन एक झील के समान।
ध्यान का समय कम से कम  30 मिनट प्रातः और 30 मिनट सायंकाल होना चाहिए।
जितना गुड़ डालेंगे, उतना मीठा होगा।
ईश्वर के प्रति प्रेम का अर्थ है उनके प्रति उत्कट ललक। योगदा सत्संग पाठ 1
10/5/21
आज परम् गुरुदेव स्वामी श्री युक्तेश्वर जी का आविर्भाव दिवस है। कल 6 घंटे का ध्यान हुआ, आज गुरुदेव की याद में विशेष ध्यान हुआ। 
हे ईश्वर! हम आपकी सृष्टि की लहरों पर झूमते और नृत्य करते हैं।
अपने शरीर की प्रत्येक कोशिका में आपके आनंद और ध्यानजनित शांति को अनुभव करें। 
यह भौतिक देह गतियों का एक समूह है।
अहंभाव आत्मा की वह भ्रांत स्थिति है जिनमे वह इस भौतिक शरीर से अभिन्नता स्थापित किये रहती है।
प्राण दो प्रकार के होते हैं ब्रह्मांडीय स्पंदनशील ऊर्जा दूसरा प्रत्येक मानव में व्याप्त विशिष्ट प्राण।
केवल आहार पर जीवन आधारित नहीं, ऐसा होता तो मृत व्यक्ति को धूप में रख देते और जीवित होने की अपेक्षा करते।
ब्रह्मांडीय ऊर्जा मेरुशीर्ष के माध्यम से शरीर मे प्रवाहित होती है। मेरुशीर्ष की शल्यक्रिया सम्भव नहीं, क्योंकि यह प्राण के सभी केंद्रों का केंद्र है। सिर पर प्रहार होने के समय प्रकाश दिखता है। पाठ 2
11/5/21
मृत्युरूपा काली
स्वामी विवेकानंद

तारागण हो गए लुप्त हैं, नील गगन से,
मेघ सभी आच्छन्न हो गए हैं, मेघों से;
घूर्णिमान झंझा में भीषण पवन गरजता, 
घोर अंधेरा - स्पंदन और प्रतिध्वनि करता।।

ऐसा लगता कोटि-कोटि उन्मादी जन के,
प्राण निकल आये हों, मानो कारागृह से;
बड़े-बड़े वृक्षों को जड़ से ही उखाड़ती,
चली जा रही वह, सब कुछ पथ से ही बुहारती।।

काले नभ को छू लेने, आकर सागर भी,
उठा रहा उत्ताल तरंगें, गिरि-सम ऊंची;
परम् घोर आतंक मृत्यु छायाएं अगणित,
विकट दामिनी चमक-चमककर करे प्रकाशित।।

मृत्युरुपिणी काली, तुम धर रूप भयंकर,
विखराती हो दुःख व्याधियां, सारे जग पर;
हो आनंदोन्मत्त नृत्य करती तुम अंबे,
आओ मेरे जीवन में, आओ जगदम्बे।।

'विकराली' है नाम, मृत्युभय तेरी सांसें,
तेरा हर पदचाप, एक ब्रह्मांड विनाशे;
'काल' रूप में मां, तू ही है सर्व-नाशिनी,
आओ मेरे जीवन में, आ जाओ जननी।।

परम साहसी है, दुःखों से प्रेम करे जो,
और मृत्यु से आलिंगन को है प्रस्तुत जो;
काल-नृत्य में भी जो अभय नाचता-गाता,
उसके ही जीवन मे आतीं काली-माता।।

12/5/21
आज गुरुदेव की अहैतुकी कृपा हुई। गायत्री के स्वरूप, महत्व और उसकी उपासना के सम्बंध में उन्होंने मेरा भ्रम दूर कर दिया। गायत्री के बारे में बहुत चर्चा होती है। इसकी महिमा तो असंदिग्ध ही है। गायत्री वस्तुतः क्या है, यह समझना मुश्किल रहा है। वेदमंत्र में गायत्री नाम आया है, इसे छंद भी लोगो ने बताया, क्योंकि इस मंत्र में गायत्री के साथ साथ त्रिष्टुप, अनुष्टुप, बृहती ल, जगती आदि का उल्लेख हुआ है। अनुष्टुप छंद सर्वविदित ही है। वेद में वर्णित अनुष्टुप वाक शक्ति के लिए कहा गया है।
असल मे वेद मंत्र का अर्थ शब्दानुवाद से जानना सम्भव नहीं है। वेदों के विभिन्न भाष्यों को यद्यपि मैंने नहीं देखा, पर उसके विभिन अनुवादों को देख है। अनुवादकारो ने वेदमंत्र में वर्णित शब्द के आधार पर अर्थ को पकड़ना चाहा है, पर वेदमंत्रों के अर्थ उपनिषदोंके खुलते हैं। यह बात आज अनायास ही बृहदारण्यक उपनिषद पढ़ने के दौरान स्पष्ट गयी। 
अद्वैत आश्रम से 19 पुस्तके कल मिली हैं।
1. काली माता
2. योग दर्शन एवं योग साधना
3. दृग दृश्य विवेक हिंदी
4.ब्रह्मसूत्र भाष्य ऑफ शंकराचार्य अंग्रेजी
5. पंचीकरणं अंग्रेजी
6.मुंडक उपनिषद की व्याख्या
7.केन उपनिषद हिंदी
8.ईशावास्य उपनिषद
9. उपनिषदों की मनोहारिता और शक्ति
10.उपनिषदों का संदेश
11.बृहदारण्यक उपनिषद अंग्रेजी
12.स्तवनांजलि
13वाक्य वृत्ति तथा लघु वाक्य वृत्ति
14 श्रीमद्भागवत खंड 4 अंग्रेजी
15 राजयोग अंग्रेजी
16 भक्तियोग अंग्रेजी
17 शिव और बुद्ध
18 the general theme of Gita
19 education for character

उक्त पुस्तके चुनने के लिए आधे दिन का समय लगा था। आयी तो कुछ में पुनरुक्ति लगी। बृहदारण्यक  उपनिषदों में सबसे बड़ा है और यह गद्य में है। उसकी भूमिका मात्र पढ़ने का मन बनाया, किंतु भूमिका पढ़ने के बाद भीतर भी बढ़ गया। इसके पांचवे कांड में हृदय और  सत्य की विवृत्ति मिली। हृ यानी क्षण में रहना, द याने (शक्ति) देना और य यानी जाना। सत्य के बीच का शब्द असत्य का द्योतक है जबकि अन्य दोनो का अर्थ सत्य है अर्थात सत्य शब्द ही पूर्ण निर्दोष नहीं है। 
बृहदारण्यक उपनिषद के पांचवें कांड में गायत्री स्वरूप का विस्तृत विवेचन मिलता है। गायत्री के चार पाद हैं। एक द्यौ (स्वर्ग), भूमि और अंतरिक्ष से मिलकर, दूसरा वेदत्रयी से तो तीसरा प्राण, अपान और व्यान से मिलकर बनता है। चौथा पैर सूर्य का है, यह दिखाई नहीं देता। शरीर मे सूर्य आंख का अधिष्ठातृ देवता है। सूर्य आंख पर ही विश्राम करता है। भू सिर को भुवः हाथों को और स्व पैरों को कहा जाता है। 
गया की रक्षा करने के कारण गायत्री नाम हुआ। गया प्राण को कहा गया है।  बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है। प्राणा वै गयाः,  तत्प्राणांस्तवे, तद्यद्गयांस्तवे, तस्माङ्गायत्री नाम।  गया के इस अर्थ से  गया शहर और बोधगया में बुद्ध को प्राप्त बोधि का भी क्या कोई सम्बन्ध है! क्या गो जिसका अर्थ इंद्रियां होता है, गोस्वामी से तो उसका अर्थ प्रकट ही है, गोकुल और गाय से भी क्या कोई अर्थ संगति बनती है!
ऋग्वेद में गायत्री के दो अलग-अलग मंत्र मिलते हैं। एक 3/62/2 में बहुप्रचलित गायत्री मंत्र मिलता है-

 तत्स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि। धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

हे मनुष्यो ! सब हम लोग (यः) जो (नः) हम लोगों की (धियः) बुद्धियों को (प्रचोदयात्) उत्तम गुण-कर्म और स्वभावों में प्रेरित करै उस (सवितुः) सम्पूर्ण संसार के उत्पन्न करनेवाले और सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य से युक्त स्वामी और (देवस्य) सम्पूर्ण ऐश्वर्य के दाता प्रकाशमान सबके प्रकाश करनेवाले सर्वत्र व्यापक अन्तर्यामी के (तत्) उस (वरेण्यम्) सबसे उत्तम प्राप्त होने योग्य (भर्गः) पापरूप दुःखों के मूल को नष्ट करनेवाले प्रभाव को (धीमहि) धारण करैं।

दूसरा मंत्र ऋग्वेद 5/82/1 में दिया गया है- 

तत्स॑वि॒तुर्वृ॑णीमहे व॒यं दे॒वस्य॒ भोज॑नम्। श्रेष्ठं॑ सर्व॒धात॑मं॒ तुरं॒ भग॑स्य धीमहि ॥

हे मनुष्यो ! (वयम्) हम लोग (भगस्य) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य से युक्त (सवितुः) अन्तर्य्यामी (देवस्य) सम्पूर्ण के प्रकाशक जगदीश्वर का जो (श्रेष्ठम्) अतिशय उत्तम और (भोजनम्) पालन वा भोजन करने योग्य (सर्वधातमम्) सब को अत्यन्त धारण करनेवाले (तुरम्) अविद्या आदि दोषों के नाश करनेवाले सामर्थ्य को (वृणीमहे) स्वीकार करते और (धीमहि) धारण करते हैं (तत्) उसको तुम लोग स्वीकार करो। 
इन दोनों मंत्रो के अर्थ यहाँ स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत दिये हुए हैं। इन अर्थों में गायत्री का रहस्य प्रकट नही होता है। 
पूज्यपाद स्वामी जी महाराज दतिया की पुस्तक वैदिक उपदेश में गायत्री मंत्र मूल तो नहीं मिलता है, पर उसका हिंदी अर्थ जो दिया है, वह ऋग्वेद 5/82/1 की व्याख्या प्रतीत होती है, उन्होंने लिखा है सभी वस्तुएं हम सबको प्राप्त हों तथा हे मनुष्यो सब लोग उस अमूल्य ब्रह्मलोक परमात्मा के परम प्रकाश को प्राप्त करो। 
गायत्री का रहस्य खुलता है छान्दोग्य उपनिषद में। जिसमे ऋग्वेद 5/82/1 का मंत्र इस प्रकार दिया गया है। अथ खल्वेतयर्चा पच्छ आचामति तत्सवितुर्वृणीमह इत्याचामति वयं देवस्य भोजनमित्याचामति श्रेष्ठं सर्वधातममित्याचामति तुरं भगस्य धीमहीति सर्वं पिबति निर्णिज्य कंसं चमसं वा पश्चादग्नेः संविशति चर्मणि वा स्थण्डिले वा वाचंयमोऽप्रसाहः स यदि स्त्रियं पश्येत्समृद्धं कर्मेति विद्यात् ॥ 5/2/7॥

. Then, while saying this Ṛk mantra foot by foot, he eats some of what is in the homa pot. He says, ‘We pray for that food of the shining deity,’ and then eats a little of what is in the homa pot. Saying, ‘We eat the food of that deity,’ he eats a little of what is in the homa pot. Saying, ‘It is the best and the support of all,’ he eats a little of what is in the homa pot. Saying, ‘We quickly meditate on Bhaga,’ he eats the rest and washes the vessel or spoon. Then, with his speech and mind under control, he lies down behind the fire, either on the skin of an animal or directly on the sacrificial ground. If he sees a woman in his dream, he knows that the rite has been successful [and that he will succeed in whatever he does].
छान्दोग्य उपनिषद के साथ बृहदारण्यक उपनिषद का पांचवां कांड देखना चाहिए। इसमे गायत्री मंत्र का स्वरूप स्पष्ट हुआ है। गायत्री की उपासना का संकेत  छान्दोग्य उपनिषद में किया गया है। ऋग्वेद के पांचवे मंडल का ही मंत्र आदि शंकराचार्य पर बनी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म में बोला जाता है। किसी समय देखी इस फ़िल्म में सुने उस मंत्र पर ध्यान तो जाता है, पर बहुप्रचलित गायत्री मंत्र के बरक्स उसका पूरा महत्व नहीं मिलता, जिससे वह जिज्ञासा वही अधूरी रह जाती है। बृहदारण्यक उपनिषद के इस कांड को पढ़ने पर गायत्री मंत्र और उसकी उपासना का रहस्य खुल जाता है। गायत्री प्राण शक्ति है, इसीलिए इसे सूर्य उपासना के तौर पर भी लिया जाता है। उपनिषदों में आये अर्थ के बाद भी उपासना पूरी तरह नहीं खुलती, यह तो गुरुदेव की कृपा के फलस्वरूप ही साधक को प्राप्त होती है। लेकिन गायत्री उपासना पर इतना बल क्यो दिया गया है, यह सुस्पष्ट हो गया है। 
13/5/21
ईश्वरीय इच्छा और हमारी इच्छा मिलकर प्राण शक्ति को संवेदक नसों (sensory nerves)  में प्रवाहित करती है. चालक नसों(motor nerves) में वह हमारी इच्छा के कारण प्रवाहित होती है। जितना अधिक इच्छाशक्ति का प्रयोग होगा, उतना अधिक प्राण शक्ति का प्रवाह भी शरीर के उस विशेष भाग में होगा। पाठ 3
[5/13, 18:16] PrKriyaban: Aapne koi mantra jap karke use use kiya hai? Siddha karne ki koshish ki hai?
[5/13, 18:17] PrKriyaban: Deekha se kuch saal pehle maine mantra shakti par kaam kiya.. mahamrityunjay manta se apne psoriasis ko theek kiya
[5/13, 18:17] PrKriyaban: Ganesh mantra se badhayein door ki..
[5/13, 18:18] PrKriyaban: Mantra ko kaise use karte hain ye seekhna chahiye.. uska paath kar ke dekhna chahiye kya hota hai..
[5/13, 18:20] PrKriyaban: Mantro ke saath kaam karna jaise unki shaktion ko poori tarah khol kar unhe samajh lena hai.. isliye mai hamesha mantra ko use kar ke use samajhti hoon..
[5/13, 19:49] Rakesh Narayan Dwivedi: jo guru pradatt he, wah gayatri hi he priya
[5/13, 19:50] Rakesh Narayan Dwivedi: upar chhandogya upnishad me jo angreji me arth diya he, wah kriya hi to he
[5/13, 19:56] Rakesh Narayan Dwivedi: हमे तो लगता गायत्री मंत्र से प्रार्थना होगी, पर वह एक साधना है, जो हम लोग क्रिया करते हैं वह यही है, छान्दोग्य के अर्थ संकेत से यही लगता है
[5/13, 20:13] PrKriyaban: Ye theek hi hoga fir
[5/13, 20:14] PrKriyaban: Mujhe angreji wala kriya jaisa nahi laga
[5/13, 20:16] Rakesh Narayan Dwivedi: फिर उसका क्या अर्थ है। बृहदारण्यक में भी साफ कहा कि गया का अर्थ प्राण है, उस्की रक्षा करने से गायत्री नाम हुआ
[5/13, 20:24] PrKriyaban: Ji mai fir se padhti hoon
[5/13, 20:24] PrKriyaban: Sab sanketik bhasha hai ye
[5/13, 20:30] Rakesh Narayan Dwivedi: पोस्ट का निहितार्थ है कि प्रचलित गायत्री मंत्र से पृथक मंत्र अधिक सही लग रहा और उसी की मान्यता rk मठ में और दक्षिण में भी है
[5/13, 20:33] PrKriyaban: Ji
[5/13, 20:56] Rakesh Narayan Dwivedi: जहा जप की प्रक्रिया है  वहाँ  श्वास प्रश्वास है वहाँ  क्रिया है पर यह बात बिना क्रिया दीक्षा के नही समझी जा सकती
[5/13, 21:02] Rakesh Narayan Dwivedi: हर साधना मे कुम्भक है पर यह लम्बी  साधना के बाद समझ मे आती है कुम्भक  करने से नही होता इसका भी उदय होता है। जैसे प्राण का उदय होता है। यह बहुत गूढ विषय है मुख्य  चीज अभ्यास है धैर्य और  प्रतीक्षा। डॉ रामशंकर द्विवेदी एक क्रियाबान

14/5/21
परशुराम जयंती/अक्षय तृतीया की शुभकामनाएं...

ऋग्वेद एक सौ दसवें सूक्त के द्रष्टा ऋषि राम- जामदग्न्य (परशुराम) हैं 🎗️🎗️
भगवान परशुराम पर भ्रामक और गलत जानकारियां फैलाई जाती है, सही बातों को रखना आवश्यक है
प्रस्तुति अरविन्द रॉय
ऋग्वेद एक सौ दसवें सूक्त के द्रष्टा ऋषि राम- जामदग्न्य (परशुराम) हैं 
Jamadagni Bhargava or Rama Jamadagnya
Sukta 110
समिद्धो अद्य मनुषो दुरोणे देवो देवान् यजसि जातवेदः ।
आ च वह मित्रमहश्चिकित्वान् त्वं दूतः कविरसि प्रचेताः ॥१॥

1) High-kindled today in the house of the human being, thou doest sacrifice a god to the gods, O knower of all things born; bring them to us as one who has knowledge, O friendly Light; for thou art the messenger, the seer, the thinker.

तनूनपात् पथ ऋतस्य यानान् मध्वा समञ्जन्त्स्वदया सुजिह्व ।
मन्मानि धीभिरुत यज्ञमृन्धन् देवत्रा च कृणुह्यध्वरं नः ॥२॥

2) O son of the body, revealing the paths of our journeyings to the Truth make them sweet with the Wine of Delight, O thou with thy high tongue of flame; enriching with our thoughts the mantras and the sacrifice set our pilgrim-sacrifice in the gods.

आजुह्वान ईड्यो वन्द्यश्चाऽऽ याह्यग्ने वसुभिः सजोषाः ।
त्वं देवानामसि यह्व होता स एनान् यक्षीषितो यजीयान् ॥३॥

3) One prayed and adored, O Fire, calling them to us arrive, companioned by the Shining Ones, O mighty One, thou art the summoner of the gods, so, missioned, strong to sacrifice, do them sacrifice.[p.435]

प्राचीनं बर्हिः प्रदिशा पृथिव्या वस्तोरस्या वृज्यते अग्रे अह्नाम् ।
व्यु प्रथते वितरं वरीयो देवेभ्यो अदितये स्योनम् ॥४॥

4) An ancient seat of sacred grass is plucked this morn, in the direction of this earth, in front of the days, wide it spreads beyond a supernal seat of happy ease for the gods and the mother infinite.

व्यचस्वतीरुर्विया वि श्रयन्तां पतिभ्यो न जनयः शुम्भमानाः ।
देवीर्द्वारो बृहतीर्विश्वमिन्वा देवेभ्यो भवत सुप्रायणाः ॥५॥

5) Widely expanding may they spring apart making themselves beautiful for us as wives for their lords; O divine doors, vast and all-pervading, be easy of approach to the gods.

आ सुष्वयन्ती यजते उपाके उषासानक्ता सवतां नि योनौ ।
दिव्ये योषणे बृहती सुरुक्मे अधि श्रियं शुकपिशं दधाने ॥६॥

6) Let night and day come gliding to us and queens of sacrifice, sit close together in their place of session, the two divine women, great and golden, holding a supreme glory of brilliant form,—

दैव्या होतारा प्रथमा सुवाचा मिमाना यज्ञं मनुषो यजध्यै ।
प्रचोदयन्ता विदथेषु कारु प्राचीनं ज्योतिः प्रदिशा दिशन्ता ॥७॥

7) The two divine priests of the call, also, the first and perfect in speech building the sacrifice of man that he may do worship, doers of the work impelling to the discoveries of knowledge, pointing by their direction to the ancient Light.

आ नो यज्ञं भारती तूयमेत्विळा मनुष्वदिह चेतयन्सी ।
तिस्त्रो देवीर्बर्हिरेदं स्योनं सरस्वती स्वपसः सदन्तु ॥८॥

8) May Bharati come swiftly to our sacrifice, Ila awakening to knowledge here like a human thinker, and Saraswati, the three goddesses,—may they sit, perfect in their works, on this sacred seat of happy ease.[p.436]

य इमे द्यावापृथिवी जनित्री रुपैरपिंशद् भुवनानि विश्वा ।
तमद्य होतरिषितो यजीयान् देवं त्वष्टारमिह यक्षि विद्वान् ॥९॥

9) He who fashioned in their forms this earth and heaven, the Parents, and fashioned all the worlds, him today and here, O missioned Priest of the call, do thou worship, strong for sacrifice, having the knowledge, even the divine maker of forms.

उपावसृज त्मन्या समञ्जन् देवानां पाथ ऋतुथा हवींषि ।
वनस्पतिः शमिता देवो अग्निः स्वदन्तु हव्यं मधुना घृतेन ॥१०॥

10) Revealing by thy self-power the goal of the gods, release towards it in the order of the Truth our offerings. Let the tree and the divine accomplisher of the work and the Fire take the taste of the offering with the sweetness and the light.

सद्यो जातो व्यमिमीत यज्ञमग्निर्देवानामभवत् पुरोगाः ।
अस्य होतुः प्रदिश्यृतस्य वाचि स्वाहाकृतं हविरदन्तु देवाः ॥११॥

11) As soon as he was born Fire measured out the shape of the sacrifice and became the leader who goes in front of the gods. In the speech of this Priest of the call which points out by its direction the Truth, may the gods partake of the oblation made svāhā.

(1).वैदिक और पौराणिक इतिहास के सबसे कठिन और व्यापक चरित्र हैं।उनका वर्णन सतयुग के समापन से कलियुग के प्रारंभ तक मिलता हैं। इतना लंबा चरित्र, इतना लंबा जीवन किसी और ऋषि,देवता या अवतार का नहीं मिलता। वे चिरंजीवियों में भी चिंरजीवी है।उनकी तेजस्विता और ओजस्विता के सामने कोई नहीं टिका। न शास्त्रार्थ मे और न शस्त्र-अस्त्र में। उनके आगे चारो वेद चलते थे, और पीछे तीरों से भरा तूणीर रहता था। वे.शाप देने और दंड देने दोनों में समर्थ थे। वे शक्ति और ज्ञान के अद्भुत पुंंज थे। संसार में
ऐसा कोई वंश नहीं, कोई धार्मिक या आध्यात्मिक परंपरा नहीं जिसका सूत्र परशुराम जी तक न जाता हो समस्त परंपराएं और साम्प्रदाय मानों उन्हीं से प्रारंभ होते हैं।
लेकिन परशुराम जी जितने व्यापक है, इतिहास और पुराणो की पुस्तकों में उतने ही दुर्लभ।उनका विवरण कहीं एक साथ नहीं मिलता। वे सब जगह हैं, और कहीं भी नहीं। परशुराम
जी को समझने के लिए अनेक प्रसंगो से
कड़िया जोड़नी पड़ती है। एशिया के सौ से
अधिक स्थानों पर परशुराम जी के जन्मस्थान
होने की मान्यता है। मध्य एशिया में फिलस्तीन
की राजधानी रामल्ला या अफगानिस्तान
का जामदार उन्हीं मे से हैं। कभी संपूर्ण
एशिया कुल चार साम्राज्यों में विभाजित था।
जिसके बारे में कहा जाता है कि इन
साम्राज्यों का सीमांकन परशुरामजी के कहने से
महर्षि कश्यप ने किया था।
इसकी पुष्टि भाषा विज्ञान से
की जा सकती है। संसार का सुप्रसिध्द पारस
साम्राज्य जिसका अस्तित्व ईसा से लगभग चार
सौ वर्ष पूर्व यूनानी विजेता सिंकदर के समय
तक मौजूद था। पारस साम्राय का शब्द
च्पारस और परशुराम जी के नाम में जुड़ा शब्द
च्परशु एक ही धातु के बने शब्द है।
(1) कृष्ण नारायण प्रसाद मघद श्री विष्णु और उनके अवतार page 279)
15/5/21
दशरथ पुत्र राम की पूजा भी सर्वत्र नहीं होती। दशरथ पुत्र हैं भी तो एक रूपक के अर्थ में। राम एक परमात्मवाची नाम है। कृष्ण अपनी अपनी तरह से पूजे जाते हैं। दक्षिण भारत मे इन्हें गोविंदा कहा जाता है। गोविंद विष्णु का भी नाम है। मार्केटिंग की ही बात सही लगती है। भगवान परशुराम मातृ हंता क्षत्रिय हंता बताए गए तो राम पर भी शम्बूक बध और गर्भवती पत्नी को निर्वासित करने के आरोप हैं। कृष्ण पर स्यमन्तक मणि चोरी  करने के आरोप लगे। जनता को जैसा समझा दिया जाए, वह किसी चरित्र को उसी तरह लेने लगती है।

मन्दिर निर्माण का इतिहास ही कितना पुराना है...पहले मंदिरों में दशावतार मन्दिर है। दशावतार में सभी 10 भगवान शामिल हैं, बुद्ध भी।

बुंदेली शब्द सम्पटसौरा कौंधा, जब बीती रात गरजते बादलो के बीच रुक-रुक कर बारिश होती रही। कहते हैं प्रकृति व्यक्ति को उतना ही कष्ट देती है जितना वह सहन कर सकता है। व्यक्ति की सहनशीलता का अंत नहीं, अतः प्रकृति की ताण्डवलीला का भी क्या अंत! अंकुरण के लिए बीज को गलना पड़ता है। हम जितने बीज बोते हैं, सब नहीं उगते, हम जब चाहते हैं तब भी नहीं उगते। जब हमारे चाहने से बीजांकुरण संभव नहीं तो हमारे चाहने से उनका विनाश भी कैसे सम्भव है। जब सुख हमारे चाहने से नहीं मिलना तो दुःख भी चाहने से समाप्त नहीं होना, और जैसे सुख जीवन मे कभी न कभी आता है, उसी तरह दुःख भी कभी जाता है। 

16/5/21
नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च।
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥

मैं नहीं सोचता कि मैं ठीक जानता हूं, और न यह सोचता हूं कि नहीं जानता। हममें से उसे वह जानता है, जो यह जानता है कि ऐसा नहीं कि मैं नही जानता और ऐसा भी नहीं कि जानता हूँ। अर्थात वह ज्ञात और अज्ञात दोनो से भिन्न है। 

I think not that I know It well and yet I know that It is not unknown to me. He of us who knows It, knows That; he knows that It is not unknown to him.

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्‌ ॥

उसे जानता वह है, जो उसे नहीं जानता (कल्पना नहीं करता) और जो उसे जानता है (कल्पना करता है), वह नहीं जानता, जो 'इसका' विवेचन करते हैं उनके लिए (मन तथा इंद्रियों से परे होने के कारण)  ‘यह' अज्ञात है, जो 'इसके' विवेचन का प्रयत्न नहीं करते, उनके लिए 'यह' विज्ञात है।

He by whom It is not thought out, has the thought of It; he by whom It is thought out, knows It not. It is unknown to the discernment of those who discern of It, by those who seek not to discern of It, It is discerned.


17/5/21
नाद और बिंदु योगियों की भाषा मे प्रचलित पद हैं। नाद पहले या बिंदु? नाद पहले की अवस्था है, यह अयक्त है, अंधकार की अवस्था। विमर्श भी इसे कहा गया। प्रकाश दूसरी अवस्था है, बिंदु इसे कहा जाता है, यह व्यक्त दशा है। पर इन दोनों में उतना ही आगा पीछा है जितना श्वास और प्रश्वास में। दोनो एक दूसरे से मिले हुए हैं, शिव और शक्ति की तरह। I
18/5/21
गति ईश्वर से उत्पन्न हुई है, परन्तु ईश्वर गति नही है। ब्रह्म की गति आकाश में प्रक्षेपण किया गया, परन्तु विशुद्ध ब्रह्म गतिरहित है। ब्रह्म वह अपार गतिहीनता है जो प्रत्येक वस्तु से परे है। 
सुकरात ने कहा था मनुष्य पदार्थ और चेतना की गांठ है। एक उलझी हुई गांठ।
जब कोई क्रिया नही रहती तो क्षय भी नही होता। कोषाणु स्थगित चैतन्य(suspended animation) की अवस्था मे रहते हैं. पाठ 5

19/5/21
कोई भी जीवन ऐसा नही हो सकता जो समस्याओं से भरा न हो। परिस्थितियां वास्तव में न अच्छी होती है और न बुरी, वे सदैव तटस्थ होती हैं, जो उनसे संबंधित व्यक्ति के मन की उदास या प्रसन्न स्थिति के कारण या तो निराशाजनक प्रतीत होती हैं या उत्साहपूर्ण। 
क्रोध जिस बात के लिए आता है, उसके उद्देश्य को ही समाप्त कर देता है।
क्रोध गलतफहमी का एक रूप है। दूसरों को क्रोध द्वारा जितना मूर्खों का तरीका है, क्योंकि क्रोध शत्रु में और अधिक रोष उत्पन्न करता है। 
जो आपको क्रोधित करने में प्रसन्न होते हैं, उनकी ओर उदासीन रहें। 
क्रोध भड़काने वाले व्यक्ति को ईश्वर के एक बच्चे के रूप में देखें, एक नन्हें पांच वर्षीय भाई के रूप में, जिसने सम्भवतः अनजाने में आपको छुरा घोंप दिया है। आपको बदले में इस छोटे भाई को छुरा मारने की इच्छा नही करनी चाहिए। पाठ 5 
20/5/21
कोरोना से 1621 शिक्षकों की मृत्यु हुई, प्राथमिक शिक्षक संघ ने यह सूची अपडेट की। इससे पहले की 706 और उससे पहले 135 की सूची कोर्ट में भी प्रस्तुत की गई। 1621 में से सरकार 3 शिक्षकों की मौत स्वीकार कर रही है।  शिक्षक पंचायत चुनाव में ड्यूटी देने के समय संक्रमित हुए, उनमे से 1621 की कोरोना से मौत हो गयी। चुनाव केवल वोटिंग और उसकी काउंटिंग भर नही होता। उसकी ट्रेनिंग और पूर्व तैयारी में भी ड्यूटी में लगे लोगो को समय देना होता है। फिर कोरोना ऐसी महामारी है, जो चिपकने पर पीछा अगर न छोड़े तो जान ले लेती है। अगर चुनाव के बाद भी संक्रमित शिक्षकों की मृत्यु हुई तो उसका कारण कोरोना ही था। शेष मृत शिक्षकों के प्रति संवेदना के दो शब्द भी सरकार के बेसिक शिक्षा विभाग ने आज अपनी विज्ञप्ति में व्यक्त नहीं किये। यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।  संवेदना तो उनके प्रति भी व्यक्त करनी चाहिए जो चुनाव ड्यूटी में संक्रमित हुए। आखिर सरकार अपने ही हाथ पैरो को सहारा और मजबूती नहीं देगी तो उसकी शक्ति कैसे बची रह सकती है! केवल शिक्षा विभाग ही क्यों, चुनाव के बाद जिन-जिन विभागों के व्यक्ति प्रभावित हुए, उन सबके प्रति संवेदना के दो बोल अगर सरकार बोल दे तो उससे उसकी तौहीन नहीं हो जाएगी, वरन इससे अपनत्व  ही प्रकट होगा। 

अब प्राथमिक शिक्षक संघ को गांव गांव के कोरोना से मृतक व्यक्तियों की संख्या इकट्ठा करके सरकार को एक्सपोज़ करना चाहिए, जिससे वास्तविक आंकड़ा  सबके सम्मुख आ सके। शिक्षक से पंगा नही लेना चाहिए।

[5/20, 17:00] Rakesh Narayan Dwivedi: After-death rituals? If you are with someone who has just died, Paramhansa Yogananda says it is good to chant AUM (Om-m-m) several times in his or her right ear. And pray deeply for the person to let go and go on into the astral world smoothly and without any fears, trying your best not to indulge in too much crying, emotional grief, that sort of thing. It might tend to hold a person down to his or her body, which you really wouldn’t want to do! Though you may be very sad for yourself, try to rejoice in their freedom! See them soaring in Divine Light.
[5/20, 17:00] Rakesh Narayan Dwivedi: Yogananda definitely said that a person’s body should be cremated as soon as possible after death (not buried). That way, the soul can go ahead and leave more quickly, to dwell in better places in the astral world, and not cling to the material body or this material world. स्वामी क्रियानंद
नोएडा संगम में एक साधक ने मृत्यु बाद के क्रिया-कर्म के बारे में स्वामी ईश्वरानंद जी से पूछा। फिर बाद में एक निजी बातचीत में भी उन्होंने बताया कि गुरु जी मृत्यु बाद की क्रियाओं को आवश्यक नहीं मानते थे। यही बात आनंद सत्संग के स्वामी क्रियानंद ने भी उक्तवत कही है। 

धर्म की मूल भावना है वंचितों के प्रति समर्थ व्यक्तियों का प्रेम। सृष्टि क्रम में इसका उदय तब हुआ, जब प्रकृति में हमारे पुरखों ने देखा कि संकट के समय निरीहों की रक्षा सबल अपनी सहजात प्रेरणा से करते हैं, वे वैसे उनका चाहे जीवो जीवस्य जीवनं के अनुसार आहार भी करते हों।
आदि शंकराचार्य ने जब देखा कि गर्भवती मेंढकी बैठी है, और उसकी रक्षा एक सर्प कर रहा है। उसी जगह उन्होंने पहली पीठ बनाई, वह स्थान श्रृंगेरी नाम से विख्यात हुआ। 
इसी तरह सत्य भी शोधित किया जाता है। स और यं के बीच बिना स्वर ध्वनि की सहायता के जो त् है, वह अनृत या मिथ्या का द्योतक है। 
अविद्या की कार्यप्रक्रिया जानकर ही विद्ययामृतमश्नुते तक जा सकते हैं।
धर्म, सत्य, विद्या और प्रेम निर्दोष और विशुद्ध स्वरूप में कहीं नही होते। यह सब एक के घटने पर शेष स्वयमेव घट जाते हैं।
21/5/21
धर्म की मूल भावना है वंचितों के प्रति समर्थ व्यक्तियों का प्रेम। सृष्टि क्रम में इसका उदय तब हुआ, जब प्रकृति में हमारे पुरखों ने देखा कि संकट के समय निरीहों की रक्षा सबल अपनी सहजात प्रेरणा से करते हैं, वे वैसे उनका चाहे जीवो जीवस्य जीवनं के अनुसार आहार भी करते हों।
आदि शंकराचार्य ने जब देखा कि गर्भवती मेंढकी बैठी है, और उसकी रक्षा एक सर्प कर रहा है। उसी जगह उन्होंने पहली पीठ बनाई, वह स्थान श्रृंगेरी नाम से विख्यात हुआ। 
इसी तरह सत्य भी शोधित किया जाता है। स और यं के बीच बिना स्वर ध्वनि की सहायता के जो त् है, वह अनृत या मिथ्या का द्योतक है। 
अविद्या की कार्यप्रक्रिया जानकर ही विद्ययामृतमश्नुते तक जा सकते हैं।
धर्म, सत्य, विद्या और प्रेम निर्दोष और विशुद्ध स्वरूप में कहीं नही होते। यह सब एक के घटने पर शेष स्वयमेव घट जाते हैं।
भावुकता का मूल्य परिवार के भीतर हो सकता है। प्रधानमंत्री भारत के हैं, इस नाते उनकी भावुकता पर कोई कटु टिप्पणी शोभनीय नहीं। पर भावुकता शासन-प्रशासन चलाने के लिए उचित नहीं। भावुकता का एक ही महत्व है कि वह विरेचन करती है। वह अपने किये का पछतावा करके दिशाबोध में सहायक हो सकती है। किंतु सब मिलाकर भावुकता का प्रदर्शन कमज़ोरी का परिचायक है। 

जिस दिन गंगा यमुना में शव तैरते हुए दिखे थे। हमारी सरकारों की आंखों में पानी तो उसी दिन उतरना चाहिए था। कुछ राज्यों में आधिकारिक तौर पर उत्तर प्रदेश से अधिक संख्या में लोग मरे हैं, छोटे-छोटे राज्यों और देश मे कही अन्यत्र   इस प्रकार शवों की दुर्दशा और अपमान देखने मे नहीं आया। सोचकर मन क्षुब्ध होता जाता है। 

एक साल पहले से चल रहे कोरोना की लहर फिर आ जायेगी, इसका पूर्वानुमान न लगा पाना, संक्रमण फैलने के बीच चुनाव को ही एकमात्र एजेंडा बना देना, यह बड़ी भूलें हैं। यह भूलें समाज की नहीं, केंद्र और राज्य सरकार की हैं।  

इलाज करने में एकदम से ऑक्सीजन, अस्पताल और डॉक्टर चाहिए थे। अंतिम संस्कार करने में क्या ऐसा चाहिए था जो सबसे बड़े प्रदेश की सरकार नहीं जुटा पाई।

22/5/21

भाषाओं के आधार पर भारत को समझने की कोशिश करती हई इस पुस्तक में द्रविड़ का प्रभाव वैदिक संस्कृत पर दिखाया गया है। लेखिका peggy mohan कहती हैं पश्चकुंचन (Retroflexion) ध्वनियां द्रविड़ से संस्कृत में आईं है जैसे धोना ढोना, दांत डांट। द्रविड़ का असर उन्होंने पंजाबी, पश्तो, सिंधी और बलूची पर भी बताया है, भात का उच्चारण बात किया जाता है। यानी महाप्राण ध्वनियां उत्तर की इन भाषाओं में द्रविड़ की भांति नहीं हैं। 

अभी इतना ही पढा है...

भारतीय भाषाओं की शब्दावली में परस्पर विरोधी द्वित्व मिलता है रात दिन, सुबह शाम, अच्छा बुरा। शब्द के साथ एक निरर्थक शब्द जोड़कर भी युग्म मिलते है रोटी सोटी, मकान सकान। यह विशेषता दुनिया की और भाषाओं में नही हैं। यही असर ध्वनियों में भी आया है, जिसका उल्लेख peggy mohan कर रही हैं। इसका कारण है कि उस समय के चिंतकों ने सृष्टि के द्वैत को समझा। तदनुरूप भाषाएं बनती चली गईं। इसीलिए भाषा और ध्वनियों में द्वित्व, आगम और युग्म बन गए हैं। 

निष्कर्षो से सहमत या असहमत हो सकते हैं।

मुस्लिम जनसंख्या प्रबल हो जाने का डर हिंदुओं में दिखाया जाता है। कहा जाता है तब फिर एक देश वे अपने लिए मांगेंगे या उनकी सत्ता के अधीन सबको रहना पड़ेगा।  इस पर कुछ बातें...
1. द्विराष्ट्र सिद्धांत या जिस कारण भी पाकिस्तान नाम का देश भारत से अलग होकर बना, वह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। इसके लिए आवश्यक खाद पानी ब्रिटिश शासन ने दी थी। 
2. क्या अब फिर कोई देश विभाजन की थ्योरी उठ खड़ी हुई, जो इसका डर दिखाया जा रहा है। कल्पित भय किसलिए! निराधार ही! 
3. अगर ऐसे विचार का उदय हुआ तो अब परिस्थितियाँ बहुत अलग हैं। अब हम गुलाम नहीं हैं,  और अगर धर्म के नाम पर देश बांटने की बात आई तो ऐसी फांक हो जाएगी, जिसमे दोनो प्रमुख धर्मो के लोग अलग-अलग होंगे और भारत और उसके आदर्श तिरोहित हो जाएंगे। क्या कोई व्यक्ति वही डाल काटेगा, जिस पर स्वयं बैठा हो। 
4. पाकिस्तान के बाद उसी में से बांग्लादेश अलग देश बन गया, इससे यह स्पष्ट है कि देश बांटने का कारण  केवल धर्म नहीं होता। 
5. लोकतंत्र में कोई किसी के अधीन नहीं होता, क्या जनता के विवेक पर भरोसा नहीं। यह डर दिखाना स्वयं में जनता को कमतर आंकना है। 
6. सैकड़ों वर्षों तक इस्लाम और मुग़ल शासन रहा, क्या सबका धर्मपरिवर्तन करवा दिया गया। 
7. धर्मपरिवर्तन की घटनाएं हुई हैं और यह दुर्भाग्यपूर्ण है, किंतु क्या यह सत्ता द्वारा कारित की गई! रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी नवाब हुसैन शाह (1493-1519ई) के यहां साकर मल्लिक और दबिर खास के नाम से नौकर रहे बाद में वे चैतन्य महाप्रभु के महान शिष्य हुए, जिनसे भक्ति साहित्य और परम्परा समृद्ध हुई। हरिदास ठाकुर भी मुसलमान थे, उन्हें भी महाप्रभु ने नामाचार्य नियुक्त किया। विजयनगर साम्राज्य के हुक्का राय और बुक्का राय के बारे में भी इसी तरह का इतिहास मिलता है।
8. अब शासन सुल्तानों या बादशाहों का नहीं, न ऐसे शासन की दूर-दूर तक आशंका है। शासक लूटने के लिए आये, पर जो जनता आयी, वह कृषि और अर्थव्यवस्था के विभिन्न कार्यों में संलग्न हो गयी। 
9. किसी शासन की गुणवत्ता उसके नागरिकों को खुशहाल बनाने से तय होती है। यह पैमाना सदा से रहा है। 
10. किसी सभ्यता में सांस्कृतिक टकरावों को रोका नहीं जा सकता। यह होते रहे हैं, होते रहेंगे। शासन और प्रशासन का कार्य उन्हें न्यायोचित स्तर तक ले जाने का होता है। 

24/5/21

रहस्य का अर्थ होता है जिसे हम समझ लें तो भी समझ मे नही आता, और जिसे हम न समझें तो भी समझ मे आता हुआ प्रतीत होता है।

25/5/21

वैदिक देवता इंद्र, वरुण, चंद्र, रुद्र, पर्जन्य, यम, मृत्यु, ईशान इन्हें क्षत्रिय माना गया। वसु, रुद्र, आदित्य, विश्वदेव, मरुत देवता वैश्य और पूषन देव शूद्र हुए। अग्नि देव को ब्राह्मण कहा गया। बृहदारण्यक उपनिषद में ऐसा बताया गया है। ऋग्वेद के दशम मंडल में और यजुर्वेद में विराट पुरुष में यह चारों वर्ण अनुस्यूत वर्णित हैं।
अन्य कई (कठ, प्रश्न आदि) उपनिषदों में ब्राह्णण और क्षत्रिय यह दो वर्ण ही वर्णित हैं। इससे लगता है प्रारम्भ में या तो दो ही वर्ण थे, या सृष्टि के द्वैत को देखते हुए इन दो वर्णों में ही समाज को विभक्त किया गया। ब्राह्मणेतर सभी वर्णों को क्षत्रिय कहा गया। आज भी किसी अपरिचित की जाति इस तरह पूछी जाती है कि 'कौन ठाकुर हो'। 
जो ब्राह्मण पूजा, यज्ञ, अनुष्ठान करवाकर किसी को स्वर्ग या उसके ऐश्वर्य प्राप्ति के मार्गदर्शक या पुरोहित बने, वे उनके प्रिय हुए। सामान्यतः यह ऐश्वर्य ही तो व्यक्तियों का लक्ष्य है। ब्राह्मणों के लिए वे लोग भी उनके यजमान हो गए। मोटे तौर पर यही ब्राह्मण ऐश्वर्य अभिलाषी क्षत्रियों के प्रिय हैं।
 ब्रह्म ज्ञान प्राप्त कराने वाले ब्राह्मणो के लिए कोई भेद नहीं, सो जो-जो इस प्रकार ब्राह्मण हुआ, उसे किसी से क्या अप्रियता! ब्रह्म ज्ञानी ब्राह्मण पुरोहिती भी करता आया। जिन्हें वैभव की इच्छा है, उनका ध्यान भी तो रखना था। व्यवहार और परमार्थ में भीतरी और बाहरी आचरण समान नहीं रहता। ऐश्वर्य अभिलाषी व्यक्तियों के लिए ऐसे ब्राह्मण अप्रासंगिक और कही कही तो विरोधी लगने लगे। क्योंकि स्वर्ग भोग करने के बाद फिर मृत्युलोक में उतरना पड़ता है,  गंतव्य सबका ब्रह्मलोक ही है।  ब्राह्मण की सत्ता अविनाशी है, क्योंकि वह ब्रह्म से पृथक ही नहीं।  यही ब्राह्मण और क्षत्रिय की द्वंद्वकथा है। यह सृष्टि के द्वंद्व से अलग नहीं है। 26/5/21
चिकित्सा के लिए एलोपैथी और आयुर्वेदिक पद्धतियां परस्पर विरोधी नहीं, अपितु पूरक हैं। आयुष्य ज्ञान का विषय आयुर्वेद है। आयुर्वेद शास्त्र ने मानव स्वास्थ्य के लिए जो चिकित्सा पद्धति तैयार की, उसी भावना को एलोपैथी चिकित्सा विधि आगे लेकर बढ़ी है। किसी को छोटा बड़ा दिखाने की ज़रूरत नहीं। न कोई किसी पर प्रभुत्व जमाए। 
न आयुर्वेद के पुरस्कर्ता बाबा रामदेव हैं, न एलोपैथी के ima वाले डॉक्टर। इन दोनों विधियों का विकास कितने ऋषियों और वैज्ञानिकों ने श्रम और समर्पणपूर्वक किया है। हमें उन्हें नहीं भूलना चाहिए। 
दुनिया मिलकर बनी है, मिलकर ही चलेगी। अगर कोई यह समझता है कि यह दुनिया हमने बनाई है और हम ही चला रहे हैं, वहीं गड़बड़ कर रहे है।
जब कोई मानवता के हित मे योगदान करता है, तो वह उसका, उसके परिवार और देश भर का नहीं रह जाता।
27/5/21
फेसबुक कहता है व्हाट्स ओन योर माइंड, सोशल मीडिया अपने मन की बात कहने का मंच है। मन की बात जब हम अपने आत्म से करते हैं तो किसी के प्रति खीझ प्रकट करते है, अपने पर भी रिसियाते है। आत्मावलोकन हज़ारों तरह से प्रकट हो सकता है।
किंतु सोशल मीडिया नितान्त एकाकी आलाप भी नहीं है। इसमे हमारे मित्र बात सुन/पढ़ रहे होते हैं। दो या उससे अधिक लोगो के समूह में की गई बातचीत में अगर किसी को कुछ गलत लगता है तो वे टोकाटोकी करते हैं और अपना पक्ष रखते हैं। आपस मे नुक्ताचीनी और बहस होती है। 
अब इसमे तीसरा पक्ष वह मंच है जिस पर लोगो का समूह अपनी बाते कर रहा है। इस मंच को अगर कुछ गाला और नियमविरुद्ध लगे तो उसे हटाने का या चेतावनी देने का अधिकार मिलने में समस्या नहीं है! हम चार लोग किसी के घर पर बात करे तो उसे इतना अधिकार मिलना ही चाहिए। उत्तरदायित्व की दृष्टि से यह आवश्यक भी है
सरकार इसके बाद तब आ सकती है जब उक्त तीन में से कोई उसके पास गया हो या स्पष्ट रूपः से देश विरोधी गतिविधि चल रही हो। इससे पहले उसे सोशल मीडिया पर कही गयी बातों पर कार्रवाई के मूड से हस्तक्षेप करने के बारे में नहीं सोचना चाहिए। हां वह इस बातचीत को अपने नीति और कार्यक्रम तय करने के लिए उपयोग कर सकती है।
सोशल मीडिया पर अगर निजता और उसका सम्मान न रहा तो लोग इससे छिटकते जायेगे। इसे बंद ही करना हो या किताबी बनाना हो तो और बात है...
28/5/21
नन्दलाल दशोरा की उपनिषद संग्रह पढ़ी। उत्तम परिचय और व्याख्या 11 उपनिषदों की। छान्दोग्य और बृहदारण्यक उपनिषद इसमे नही हैं। अध्यात्म और विज्ञान का मतभेद इसी बिंदु पर है कि जड़ वस्तुओं में क्या वह चेतन को सिद्ध कर सकता है। विज्ञान ने पदार्थ और ऊर्जा का अस्तित्व ब्रह्मांड में स्वीकार किया है, अध्यात्म प्रतीक कण में चेतना का दर्शन करता है, यह खोज जिस दिन विज्ञान कर लेगा उसका काम पूरा हो जाएगा।
अंतःकरण शुद्ध होने पर जो कामना करते हैं  वह पूरी हो जाती है। इसलिए अंतःकरण साफ कर रहे और कामनाओं को समाप्त नही किया तो उससे हानि है। जन्म मरण का चक्र चलता रहेगा।
अन्नाद वह है जो अन्न का भोक्ता है। यह भोक्ता भी अन्न बन जाता है। अन्नाद और अन्न का यह सम्बन्ध परब्रह्म तक जाता है। 
शंकर नाद के ईश्वर है। यानी नाद सुनने और फिर उसमे लीन हो जाने के लिए ऋषियों में शंकर महादेव को पाया। 
29/5/21
Pavan Shashtri Tantrik किं प्रजया करिष्यामो येषां नो अयं आत्मा अयं लोकः वृ उ 4/4/22 यह आत्मा रूप आत्मलोक ही अभीष्ट है जिनका, ऐसे हम लोग, पुत्र (आदि) को लेकर क्या करेंगे। 
30/5/21
ध्यान गहरा होता जा रहा है। दिन में सोने के समय भी ईश्वर और गुरु की याद बनी रहती है, पर रात में अगर 6/7 घण्टे से ऊपर सोए तो सुबह के स्वप्नों में वासनाएं और संस्कार प्रकट होते हैं। यह भी रुकना चाहिए या नींद कम हो जाये। 

31/5/21

हिरण्यगर्भ

हिरण्यगर्भ का ध्यान बार बार आता है। ऋग्वेद का वह सूक्त जिसका पहला मंत्र हिरण्यगर्भ समवर्तताग्रे  भूतस्य जातः पतिरेक आसीत स दाधार पृथिवीं द्यामुते मां कस्मै देवाय हविषा विधेम से शुरू होता है। भारत एक खोज धारावाहिक के पहले एक कविता आती थी, वह इस सूक्त का सार है। कस्मै का अनुवाद पश्चिमी विद्वानों ने किस देवता किया, पर सायण मुनि के हवाले से कस्मै में 'का" का अर्थ प्रजापति से लिया गया है। इसलिए "का" के रूप में "कस्मै" भी प्रजापति के लिये ही प्रयुक्त हुआ है। इस सूक्त से यह भी पता चलता है कि जब सारा matter और energy हिरण्यगर्भ से ही आयी है, तो सभी में वह स्वयं ही विद्यमान है, अब कहीं और से तो कुछ आकार नहीं जुड़ा है। इसलिए कहा जाता है हम सभी परमेश्वर या प्रजापति की संतान है, या हमे जन्म देने वाला प्रजापति या हिरण्यगर्भ है। यह सब विज्ञान के big bang theory से भी मिलता जुलता है, और string theory से भी। इस तरह प्रथम मंत्र का अर्थ है ..
जिसके गर्भ में यह सारा संसार बसता है, जो सब प्राणियों का सर्वाधार है और जिसने इस पृथ्वी और द्युलोक आदि को धारण किया है ,हम उस परम शक्तिशाली ईश्वर को छोड़ कर और किसकी उपासना करें ।

पं नेहरू की पुस्तक 'भारत एक खोज' पर 1988 में प्रसारित श्याम बेनेगल निर्देशित धारावाहिक में वसंत देव ने यह शीर्षक कविता लिखी है..

सृष्टि से पहले सत नहीं था
असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं

आकाश भी नहीं था
छिपा था क्या, कहाँ
किसने ढका था
उस पल तो
अगम अतल जल भी कहां था

सृष्टि का कौन है कर्ता?
कर्ता है या विकर्ता?
ऊँचे आकाश में रहता
सदा अध्यक्ष बना रहता
वही सचमुच में जानता
या नहीं भी जानता
है किसी को नहीं पता
नहीं पता
नहीं है पता
नहीं है पता

वो था हिरण्य गर्भ सृष्टि से पहले विद्यमान
वही तो सारे भूत जाति का स्वामी महान
जो है अस्तित्वमान धरती आसमान धारण कर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर

जिस के बल पर तेजोमय है अंबर
पृथ्वी हरी भरी स्थापित स्थिर
स्वर्ग और सूरज भी स्थिर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर

गर्भ में अपने अग्नि धारण कर पैदा कर
व्यापा था जल इधर उधर नीचे ऊपर
जगा जो देवों का एकमेव प्राण बनकर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर

ॐ! सृष्टि निर्माता, स्वर्ग रचयिता पूर्वज रक्षा कर
सत्य धर्म पालक अतुल जल नियामक रक्षा कर
फैली हैं दिशायें बाहु जैसी उसकी सब में सब पर
ऐसे ही देवता की उपासना करें हम हवि देकर
ऐसे ही देवता की उपासना करें हम हवि देकर।

जब आप सांसारिक मोह आसक्ति के प्रलोभनों से लिपट कर उसी बिस्तर पर आराम करने की प्रवृत्ति को ही हिरण्यकश्यपु कहा गया है |

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