Friday, January 28, 2022

डायरी नवंबर २०२१

१/११/२१


ब्रह्मांड व्यापी पदार्थ और ऊर्जा का जब अखंड चेतना मे रूपांतरण होता है, तब प्रकाश का उदय होता है. यह चेतना उजाले और अंधेरे सब में भास्वर होती है. यह प्रकाश चेतना ध्वनि में है और श्वास प्रश्वास में भी. प्राणन में जो चेतना प्रवाहित हो रही है, उसी को उपलब्ध होना प्रकाशित होना है. इस उपलब्धि या अयोध्या में ही राम वापस आकर बसते हैं. चमकती हुयी रोशनी उसका स्थूल रूप है. स्थूलता में चमकती रोशनी में ही पदार्थ गतिमान दिखायी पड़ते हैं. 

२/११/२१

सूर्य, चंद्र और तारे प्रकाश देते हैं, सदा अस्तित्वमान रहते हैं. पर दीपक अनथक प्रकाश देता है और स्वयं को प्रकाश देते हुए अर्पित कर देता है. यह जलता हुआ दीपक जीवन का प्रतीक है. जलते दिए की अस्थिरता की भाँति जीवन चलता है. 
दीपक का तेल/घी प्रेम और भक्ति का प्रतीक है, इसकी बाती इच्छा का प्रतीक है. दीपक की लौ का शीर्ष भाग ज्ञान का तो उसका ऊष्म भाग प्रेम और भक्ति का प्रतीक है. ज्ञान भाग में ही हमारे गुरुदेव निवास करते हैं.

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।।गीता 6.19।।
जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, योगका अभ्यास करते हुए यतचित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है।।

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥कठोपनिषद २/२/१५, मुंडक और श्वेताश्वतर में भी है..
वहां न सूर्य प्रकाशित होता है और चन्द्र आभाहीन हो जाता है तथा तारे बुझ जाते हैं; वहां ये विद्युत् भी नहीं चमकतीं, तब यह पार्थिव अग्नि भी कैसे जल पायेगी? जो कुछ भी चमकता है, वह उसकी आभा से अनुभासित होता है, यह सम्पूर्ण विश्व उसी के प्रकाश से प्रकाशित एवं भासित हो रहा है।

गीता में यह इस प्रकार आया है..
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।15.6।।
उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन: (संसार को) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है।।

३/११/२१
अति आहार या विरुद्ध आहार लेने पर शरीर कैसे प्रतिक्रिया करता है कि उसे देखते जाने का मन करता है. पेट की हलचल, अपान वायु का निर्गम और खांसी इन मार्गों से ऐसे आहार के विकार बाहर निकलते हैं. फिर शरीर अपनी सामान्य स्थिति मे आ जाता है. यह विकार शरीर के हैं जो अनुभूत हो जाते हैं, मन के विकार इसी प्रकार ध्यान करते हुए बाहर होते जाते हैं. पाँच तन्मात्राएँ भी इसी प्रकार निकल जाती हैं. संसार और उसके विषयों के प्रभाव से यह तन्मात्राएँ हमारे भीतर फिर प्रवेश करती हैं, पर उनसे पार पाने मे ध्यान का असर काम करता है.

४/११/२१

जिह्वा में रस तन्मात्रा का निवास है, रस तन्मात्रा का संबंध उपस्थ इंद्रिय मे होता है. जिह्वा और उपस्थ का उसी तरह संबंध है, जैसे नाक और मूलाधार में निवसित घ्राण कर्मेंद्रिय का होता है. श्रोत्र का संबंध शब्द तन्मात्रा और वाक् ज्ञानेंद्रिय से, त्वचा का संबंध स्पर्श तन्मात्रा और हाथ कर्मेंद्रिय से, आँख का संबंध रूप तन्मात्रा से और पैर कर्मेंद्रिय से, जिह्वा का संबंध रस तन्मात्रा से और उपस्थ कर्मेंद्रिय से तथा नासिका का संबंध गंध तन्मात्रा और पायू या गुदा कर्मेंद्रिय से होता है. पाँच महाभूत भी यथा क्रम इनमे बसते हैं यथा पृथ्वी मूलाधार में, जल स्वाधिष्ठान में, अग्नि मणिपूर में, वायु अनहद में और आकाश विशुद्धि चक्र में निवास करते है..

करवा चौथ या करक चतुर्थी व्रत का वर्णन निर्णय सिंधु में है, उल्लेख भारत रत्न डॉ पी वी काणे की पुस्तक धर्मशास्त्र का इतिहास भाग चार में मिलता है। स्त्रियों द्वारा गणेश गौरी की पूजा का विधान इस व्रत में है। यह कार्तिक कृष्ण चौथ को तो अष्टमी को महाराष्ट्र में प्रसिद्ध करकाष्टमी पर्व के नाम से मनाते हैं, जिसमे वहां कन्या भोज कराया जाता है। स्त्रियों के इस व्रत में पति की दीर्घायु का उद्देश्य और पूजा के अन्य विधान जुड़ते चले गए। पति की दीर्घायु इस व्रत को करने से होती है, ऐसी मान्यता व्रत करने की आवश्यकता को रेखंकित करने के उद्देश्य से जोड़ी गयी होगी। इसमे सच्चाई न भी माने, पर कोई पूजा हो, अगर निष्ठा पूर्वक की जाए तो वह आखिरकार व्यक्ति को realisation की ओर ले जाती है। बाजार का पहलू भी पर्वों और त्योहारों के साथ जुड़ गया। फिल्मों में इस पर्व पर बहुत चित्रण हुआ है। इस पर्व के दिन बाजार की रौनक बढ़ जाती है, लगता है अर्थव्यवस्था ही क्या, संसार की व्यवस्था भी देश विदेश के विभिन्न उत्सवों से ही चल रही है। भूखे प्यासे रहकर यह व्रत होता है, अतः निष्ठा किसी अंश में निर्मित होती ही होगी। किसी दिन भूखा रहकर देखिए, सात्विकता उत्पन्न होने लगेगी। 
चौथ माता के मंदिर जगह-जगह मिलते हैं, वह कदाचित करवा चौथ से ही सम्बद्ध हैं। आज कार्तिक कृष्ण चौथ का चंद्रोदय दर्शन किया जाता है, पर भाद्रपद शुक्ल चौथ का चंद्रमा नही देखा जाता। भगवान कृष्ण ने यह देख लिया था तो उन पर चोरी का इल्जाम लग गया था। तुलसीदास ने मंदोदरी से रावण के प्रति कहलवाया है-
सो परनारि लिलारि गोसाईं।
तजहु चौथ के चंद की नाईं।।
लेकिन सब मिलाकर चन्द्रमा की बहुत महिमा है, अन्य धर्मों और सम्प्रदायों में भी चंद्रमा का महत्व बहुत से महत्वपूर्ण पर्वों से जुड़ा हुआ है। करवा चौथ २०२०

५/११/२१
कई सूक्तियों के अंश हम सबको मुखाग्र हैं, पर उनके आगे पीछे के पद बहुत महत्वपूर्ण हैं...

तत् कर्म यत् न बन्धाय - सा विद्या या विमुक्तये ।
आयासाय अपरं कर्म - विद्यान्या शिल्पनैपुणम् ॥
~विष्णुपुराण~

कर्म वह है जो बंधन में न डाले - विद्या वह है जो मुक्त कर दे।
अन्य कर्म केवल श्रम मात्र हैं - और अन्य विद्याएँ केवल यांत्रिक निपुणता हैं। 

५/११/२०२०

जिसके प्रति श्रद्धा हो उसके लिए इसका प्रयोग किया जा सकता है. प्रेम और भक्ति से मिलकर श्रद्धा बनती है. श्रद्धा विश्वास रूपिnou. श्रद्धा का उदय विश्वास के साथ होता है, इसमें फ़र्जीवाड़ा नहीं चलता🙏

७/११/२१

आत्मा पदार्थों में है और उससे परे भी. ऐसा नही जानने पर अथवा अतमा को शरीर से परे मानने पर प्रकृति आत्मा से भिन्न और समर्थ सत्ता मानना पड़ेगा. फिर आत्मा सीमित हो जाएगी. आत्मा की अनंतता प्रकृति के माध्यम से भी प्रकट होती है. कण कण मे ईश्वर की मान्यता की संगति नही बन पाएगी.

10/11/21
प्रिय मोहिनी
तुमसे उस दिन मिलकर प्रभावित हुआ, क्योंकि मुझे कुछ तुमसे अर्जित हुआ. भगवान तुम्हारा मंगल करेंगे, मेरे योग्य जो हो वह प्रभु कराएँ, मेरी अनेकानेक शुभकामनाएँ हैं. कभी कभी harmonium पर बैठते हैं तो कुछ जानने समझने की उत्कंठा हो जाती है. नारायण नारायण. .एक सुर गुनगुनाया पर ठीक ठीक हरमोनीयम पर नहीं आया. कहीं से तो मार्गदर्शित होंगे. सद्भावी..


प्रतिष्ठा सूकरी विष्ठा रौरवेरर्थगौरवं. 
अभिमानं सुरापानं त्रयाँ त्यक्त्वा सुखी भवेत...

१२/११/२१

गुरुनानक कहते हैं सबसे बसिए सबसे रसिए सबसे लीजिए नाम हाँ जी हाँ जी करते रहिए बैठिए अपने ठाम..
हठ योग प्रदीपिका - चले वाते चले चित्तं निश्चले निश्चलो भवेत.

१३/११/२१
सोते समय भी उसे हम देखते रहते हैं. स्वप्न को भी लगता हम देख रहे हैं. सब कुछ तीनो अवस्थाओं में देख रहे हैं. इसलिए संसार से प्रभावित होना क्षीण होता जा रहा है. अपने द्वारा जो कुछ किया जा रहा है, वह हमसे कराया जा रहा है. 

१५/११/२१
यह सही है कि ब्रह्मतत्व धारित करने के कारण ब्राह्मण वर्ण है. यह ब्रह्मत्व ब्राह्मण जाति के यहाँ दिखता आया है, यह मौजूद सबमें होता है, पर इस जाति ने इस पर बहुत श्रम और स्वाध्याय पूर्वक वह हासिल कर लिया है जिसके आगे कुछ शेष नहीं रह जाता. ब्राह्मणों को इसे बचाने की बआवश्यकता है और अन्य जातियों और समूहों को इन ब्राह्मणों को बचाने की आवश्यकता है. स्वाभाविक क्रम विकास में इस ब्रह्मत्व का उदय होने में लाखों वर्ष लगते हैं. जब यह उदय होता है तभी ब्रह्मत्व का महत्व ज्ञात हो पाता है🙏

१६/११/२१

भारत की संत परंपरा पर एक पुस्तक कर्नाटक के dr एस ए मंजुनाथ निकाल रहे हैं, मित्र जयशंकर तिवारी ने इसमें आलेख देने के लिए कहा है. गुरुदेव पर इस बहाने कुछ कहने का अवसर मिल गया है. हम जानते है गुरुदेव के अवदान को कह पाना मेरे वश में नहीं है, पर इस अवसर को क्यों चूका जाए. जैसे बालक अपनी तोतली वाणी में अपनी अभिव्यक्ति कर जाता है, स्वयं भी क्या उस तरह नहीं कुछ कह पाऊँगा.

सर, मुझे लगता है- साहित्य भी एक कला है। कलाकार सर्जक होता है। सर्जना नव्यता को तलाशती और तराशती है। यह तलाश आदत में सुमार हो जाने के कारण एक प्रकार के बौद्धिक आवारागर्दी का कारण बन जाती है।
यह बौद्धिक आवारागर्दी ही कलाकारों के वैवाहिक जीवन में अस्थिरता का कारण होती है।
🙏🙏गौरव तिवारी




तटबंधों को पार करना ही होता है किसी यात्री को, तभी उसे तीर्थ मिलता है और तभी वह उत्तीर्ण होगा🙏

17/11/21
बायीं आँख संसार देख रही है, दायीं आँख भीतर देख रही. यह पता लगा दोनो आँखों को दर्पण में देखने के बाद. दायीं आँख की बनावट सौम्य और बायीं आँख कौतूहल जगाती हुयी बन गयी है.
संसार की आँख शक्ति है. और ईश्वर की आँख आनंद है. शक्ति का परिणाम आनंद है, पर आनंद का मार्ग शक्ति से होकर जाता है.

१८/११/२१

पीड़ा ही शक्ति है. हर पीड़ा शक्ति का अंश है. आनंद उस पीड़ा के पार है. उस आनंद में पीड़ा और प्रेम में अंतर नहीं रह जाता. तब सुख दुःख को आते-जाते देखने का जो सुख है वही शांति है. सत से चित पृथक नहीं है, किंतु फिर भी पृथक है वैसे ही चित से आनंद पृथक नहीं है, किंतु उसे पृथक रूप से समझना पदता है. अ अनुत्तर दशा है और आ आनंद अवस्था.

सत ही चित है एवं चित ही सत है स्वातंत्र्य शब्द का तात्पर्य है - अन्य निरपेक्षता. इसका नामांतर है आनंद, सर्वमात्मवशं सुखं. जहां द्वितीय नहीं है और द्वितीय की अपेक्षा भी नहीं है, वहाँ स्वरूप स्वभावतः आनंदमय है, यही सच्चिदानंद है, यही सत्यं शिवं सुंदरं है. 
तांत्रिक वांगमय में शाक्तदृष्टि महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज

२१/११/२१

विद्याविद्ये मम तनू विद्‍धयुद्धव! शरीरिणाम्।
मोक्षबंधकरी आद्ये मायमा में विनिर्‍मिते।।भागवत ११/११/३
विद्या और अविद्या मेरे दो रूप हैं। विद्या है जानना और अविद्या है, न जानना। जो कुछ फरक पड़ता है, वह जानने से या न जानने से पड़ता है, वस्तुस्थिति के कारण नहीं। किसी पिता का एक बेटा अमेरिका गया था। वहाँ वह मर गया। छह महीने बाद उसके मरने की खबर पिता के पास आयी। तब तक पिता आनन्द में था। समझता था कि लड़का अमेरिका में मजे में है, लेकिन लड़का तो मर चुका था। यदि वह जानता कि लड़का मर गया, तो उसे दुःख होता। मतलब, दुःख मृत्यु के ज्ञान से होता है। दूसरी एक मिसाल। लड़का अमेरिका में था और बाप इधर, हिन्दुस्तान में। एक दिन अमेरिका से तार आया कि लड़का मर गया। बाप दुःख करने लगा। वास्तव में लड़का मरा नहीं था, किसी गलती के कारण उस तरह का तार आ गया था। मतलब, लड़का मर गया, यह जानने के कारण पिता को दुःख हुआ। यह विद्या का लक्षण है। यदि मृत्यु के कारण दुःख होता तो उधर लड़का मरते ही इधर बाप को दुःख होना चाहिए था। पर जानने के बाद दुःख हुआ। इसलिए स्पष्ट है कि विद्या और अविद्या के कारण ही सुख-दुःख हुआ करते हैं। फिर ये दोनों प्राणियों को बन्धन और मोक्ष में डालते हैं। यदि आप इन्हें पहचान लेते हैं, तो आपका इनसे छुटकारा हो सकता है। नहीं तो विद्या के कारण मोक्ष और अविद्या के कारण बन्धन में पड़ेगा। वास्तविक आनन्द इसी में है कि ‘मैं हूँ।’ अस्तित्व का हो आनन्द है। उसी को ‘सच्चिदानन्द’ कहते हैं। आद्ये मायया मे विनिर्मिते –माया पुराने जमाने से चली आयी है। दस हजार साल का अन्धेरा क्या कभी एकदम खत्म हो सकता है? फिर भी यदि आप वहाँ दीपक लाते हैं तो उसी क्षण वह खतम हो सकता है, चाहे कितना ही पुराना क्यों न हो। कारण अन्धेरे का अपना अस्तित्व ही नहीं है। वह नाचीज है। लेकिन अन्धेरा कोई चीज नहीं, इसलिए दीपक के बिना जाएँगे तो पत्थर से ठोकर लगेगी। विद्या और अविद्या पुरातनकाल से चली आ रही हैं। जैसा सनातन धर्म होता है, वैसा ही सनातन अधर्म भी होता है। एक है जानने के कारण, तो दूसरा है न जानने के कारण। ज्ञान और अज्ञान केवल बोलने की ही बात है। आत्मा को वह चीज लागू नहीं होती। भगवान् कहना चाहते हैं कि ये ज्ञान और अज्ञान दोनों मिथ्या हैं। एक ज्ञानी है, एक बेवकूफ। एक शेर है तो एक गाय। चारों सो गये तो सभी समान हैं। यदि ज्ञान सही है, तो वह निद्रा में क्यों नहीं टिक पाता? अतः जैसे अज्ञान मिथ्या, वैसे ज्ञान भी मिथ्या है। इसलिए भगवान् कह रहे हैं कि बन्धन, मोक्ष, विद्या, अविद्या ये सारे मिथ्या हैं, माया से निर्मित हैं।
एकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते!
बंधोऽस्याविद्ययानादिर् विद्यया च तथेतरः।।११/११/४
भगवान् कह रहे हैं कि ये सारे जीव मेरे ही अंश हैं और वे सभी एक ही अंश हैं, अलग-अलग नहीं हैं –एकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते। लेकिन यह मानेगा कौन? किसी का चित्त साफ है, तो किसी का नहीं। उसकी आत्मा ढँकी हुई है। यानी ढँका हुआ-सा लगता है – विकारों के कारण। चित्त को साफ करना ही मुख्य जीवन-साधना है। लालटेन का काँच साफ न हो तो अन्दर की ज्योति का प्रकाश नहीं मिलता। काँच साफ रहता है तो प्रकाश मिलता है। इसी तरह आत्म-प्रकाश तब प्रकट होगा जब चित्त साफ होगा। मनुष्य चाहे कितना भी विद्वान् हो, विद्या-अविद्या तो उसे बन्धन और मोक्ष में डालती ही हैं।
विनोबा भावे


अहमन्नमहमन्नमहमन्नम् ।
अहमन्नादोऽ३हमन्नादोऽ३अहमन्नादः। तैत्तिरीय उपनिषद ३/१०/६

22/11/21

हम अन्न हैं और अन्न के भोक्ता भी. अन्न कैसे बनता है. यह खेती के बाद उत्पन्न होता है. कृषि कार्य में देह(खेत/प्रकृति)और देही (किसान/आत्मा) दोनो का योगदान होता है. वीर्य और रज के योग से जिस प्रकार जीव की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार इस सृष्टि में भी संघट्ट चल रहा है. अन्न उस संघट्ट का परिणाम है. इस संघट्ट का लक्षण मनुष्य शरीर में गोचरित हो रहा है. मन में यौनेच्छा का उदय होने पर प्रजनन अंग में सेन्सेशन होने लगता है. खाने की चीज़ दिखने पर मुँह में पानी आता है. जिह्वा ज्ञानेंद्रिय की कर्मेंद्रिय उपस्थ या प्रजनन अंग है. काम इसे इसीलिए कहा जाता है यह सेक्स नही है. उक्तवत निरूपित अन्न के उत्पादन में समूची क्रिया शक्ति जो कार्य करती है, उसे काम कहा गया है. इस काम जनित संसर्ग का परिणाम रस है, मोटे तौर पर जो जिह्वा द्वारा ज्ञात होता है. खाने के स्वाद को रस कहना अपर्याप्त है. यह रस तो समूची सृष्टि में अपनी छटा बिखेर रहा है. जिह्वा ज्ञानेंद्रिय और उपस्थ कर्मेंद्रिय का महाभूत जल है, इस पृथ्वी पर जल का हिस्सा तीन चौथाई है तो देह में भी जल इतना ही हिस्सा रखता है. संघट्ट को संभोग कह सकते हैं.

समस्त ज्ञेय पदार्थों की चिद्भूमि में विश्रांति ही पूजा कहलाती है. गोपीनाथ कविराज 
पूजा ते विषयोपभोग रचना..शिवमानस पूजा 

सृष्टि के भीतर सृष्टि, स्थिति, संहार और तुरीय- ये चार अवस्थाएँ हैं. इसी प्रकार स्थिति और संहार - इनमे भी प्रत्येक में ये चारों अवस्थाएँ रहती हैं. इस प्रकार सब मिलाकर बारह शक्ति या देवी के खेल दिखलाई पड़ते हैं. ये बारह शक्तियाँ जिस महाशक्ति से निकलती हैं तथा जिनमें लीन होती हैं उन्ही को त्रयोदशी कहते हैं. वस्तुतः यह त्रयोदशी सबमें अनुस्यूत तुरीय के साथ सम्मिलित भासा के सिवा और कुछ नहीं है. आलेख तांत्रिक पूजा का परम आदर्श गोपी नाथ कविराज 

२४/११/२१
उन्मना ऊर्ध्व मुख त्रिकोण से तो समना अधोमुख त्रिकोण से सूचित होते हैं. ये दोनो त्रिकोण षट्कोण के रूप में परस्पर जुड़कर सहस्रदल कमल के ऊपर स्थित द्वादश दल कमल के भीतर स्थित होते हैं. द्वादश दल के विकसित होने पर सहस्रदल निष्प्रभ हो जाता है. उन्मना और समना त्रिकोणों के दो मध्य बिंदु परस्पर युक्त और अभिन्न हैं. षट्कोण के बीच में श्रीगुरु का चौकोर आसन विराजमान है. परमशिव हाई गुरु हैं शिव उनकी पादुका हैं, शक्ति भी वही हैं. दोनो का सामरस्य ही परमपादुका है. चित्र दृष्टव्य है...

जाति आयु और भोग ये तीन प्रारब्ध के फल हैंदेह के साथ सम्बन्ध ही जाति या जन्म है एवं इससम्बन्ध का विच्छेद ही मृत्यु हैदोनों का मध्यवर्ती समय उक्त सम्बन्ध का स्थितिकाल हैयहीप्रचलित भाषा में आयु कहा जाता हैदेह और कर्म   गोपीनाथ कविराज


२५/११/२१

 कार्य में प्रेम की शक्ति ही सेवा है..


२६/११/२१

माता मे पार्वतीदेवी पिता देवो महेश्वरः.

बांधवः शिव भक्ताश्च स्वदेश भुवनत्रयम्.


वास्तविक धर्म हमें पीड़ा से मुक्त करता है और आनंद प्रदान करता हैसच्चिदानंद यही हैधर्म ईश्वरको उपलब्ध करा देता है.


ईगोडिज़ायर और टेंडेन्सीज़ से बाहर आने में ही आनंद हैजब हम शरीर के साथ होते हैं तो ईगो मेंमन के साथ रहते हैं तो एमोशंस में रहते हैंपर जब आत्मा या ईश्वरीय चेतना के साथ रहते हैं तबआनंद या प्रेम पाते हैं.


अगर हम अच्छा या बुरा की भाषा ही समझते हैं तो जानना होगा कि पदार्थ मात्र बुरा है और ऊर्जा मात्रअच्छी हैइन्हें क्रमशः सत और असत कह सकते हैंऊर्जा का रूपांतरण चेतना में होता है.


EXPERIENCE CAN NEVER BE EXPLAINED SO TO ACCESS THE SUPREME SOURCE OBSERVE AND ABSORB.🙏







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