१/१०/२१
सोते समय रात में लगा मांसपेशियो से भी ॐ का गुंजार हो रहा है. गुरुदेव से प्रार्थना है मेरी साधनाकी गहराई और व्यापकता में आकंठ निमग्न रखें. साधना कहने से भी कुछ करने का भाव प्रकट होताहै. बस वे जो कुछ करवाएँ, अपने प्रेम से वंचित न रखें. प्रेम करना मेरा अधिकार है. बस वह होता रहे. प्रेम होने में कोई परिस्थिति या शर्त आड़े न आए, मन की उन्मुखता बनी रहे बस.
२/१०/२१
भारत छोड़ो आंदोलन के समय गांधी जी द्वारा दिए गए करो या मरो के नारे को कुछ लोग उनकेअहिंसा से हिंसा की ओर बढ़े कदम के रूप में देखते हें और इस प्रकार यत्किंचित हिंसा कीआवश्यकता को रेखांकित करते हैं. यह लोग मरने के आह्वान में हिंसा समझते हैं, मरना हिंसा नहीं है, प्राणी प्रत्येक क्षण मरता है. इसे इसी रूप में लिया जाना चाहिए.
व्यक्ति के जीवन के लिए पूर्ण अहिंसा संभव नहीं. अहिंसा का स्वभाव बन जाए तो हिंसा नही होगी. अनजाने की हिंसा हिंसा नही कही जाती, पर हिंसा के प्रति अनजान रहना भी हिंसा ही है.
३/१०/२१
दो तरह की ही धारणाएँ रहने लगी हैं, एक जिसमें कुछ नहीं, दूसरी जिसमें जो कुछ है वह पूर्ण है, परमात्मा है. दोनो महत्वपूर्ण हें, दोनो मेन से किस पर रहना चाहिए, किस पर नहीं, इसका निर्णयपरमात्मा करता है. यह दो धारणाएँ तो रहेगी, सब कुछ शून्य है या कुछ नहीं है की धारणा ध्यान दशामें और संसार दशा में जो कुछ दृश्य-सृष्य है, वह पूरा है, प्रयोजनीय है, परमात्मा है.
४/१०/२१
एक योगी प्रकृति को पूरी तरह आत्मसात् कर लेता है, इसलिए जो वह चाहता है और जो प्रकृतिचाहती है उसमें कोई वैषम्य नहीं रह जाता, उसके मन का होने लग जाता है, इसी को सिद्धि कहते हैं, सिद्धियों के उनके प्रभावों की दृष्टि से आठ प्रकार हैं. किंतु निष्काम योगी यहाँ ठहरता नहीं, उसे यहसिद्धियाँ बच्चों के खिलौनों की भाँति लगती हैं, इतना है कि इनसे उसे अपनी यात्रा का और उसकेपड़ावों का संज्ञान होता रहता है.
अक्सर ऐसा लगने लगा है कि वह हुआ जो चाहे, या शायद यह इसका फलित हो कि जो चाह परमकी है, वही तो अपनी है. यह होने के उदाहरण स्वरूप हम कोई घटनाओं का उल्लेख करना आवश्यकनहीं समझते. छोटी छोटी बातें भी होती हैं, इससे यह अनुभव होता है कि प्रकृति का हर छोटा बड़ाकार्य निष्प्रयोज्य नहीं है.
hong sau विधि में देवनागरी अंक आठ भी निर्मित प्रतीत होता है. आठ की आकृति में अनादि औरअनंत दोनों छिपे हुए हैं. आठ बनाने के प्रारंभिक और अंतिम छोरों से परम तत्व का अनादित्व औरअनंतत्व प्रकट होता है. प्रारंभिक छोर अनादित्व और अंतिम छोर अनंतत्व का द्योतक है. hong sau मेंनासिका से बाहर श्वास का आरम्भिक छोर या बिंदु तय नही किया जा सकता, इसी तरह नासिका केबाहर श्वास का अंत कहाँ हो रहा, यह भी ज्ञातव्य नहीं है. आठ का एक छोर नासिका के बाहर औरदूसरा ब्रह्मरंध्र से बाहर होता है, यह दोनो शिवसमुद्र में एकाकार हुए रहते हैं. इस प्रकार अनादि औरअनंत भी अलग अलग नहीं हैं..इस शिव समुद्र में दोनो एकाकार हुए रहते हैं, हं सः और सोहं का क्रमही एक नही हो जाता, वरन वे दोनो एक ही हो जाते हैं. यहाँ बिंब और प्रतिबिंब भी उपस्थित रहते हैं. हंऔर सः का परस्पर बिंब और प्रतिबिंब भासता है.
पहले श्वास रुकती है, फिर धड़कन. इन दोनो के बीच कितना फ़ासला होता है. धड़कन पहले थमेफिर श्वास यह क्रम तो है नहीं. कुछ सेकंड के अंतराल पर यह शरीर से सम्पर्क तोड़ देते हैं, चाहे pulse चलती भी रहे पर ऐसी दशा रक्तचाप बंद हो जाएगा..
आस्तिक ईश्वर को मानता है, जानता नहीं, नास्तिक ईश्वर को नही मानता, पर जानता नहीं. कोईअगर ईश्वर को किसी अन्य नाम से जान रहा है तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह अनीश्वरवादी है. गोरख कहते हैं बस्ती न शुन्यं शुन्य न बस्ती , अगम अगोचर ऐसा।
गगन सिखर मँहि बालक बोलहि, वाका नाँव धरहुगे कैसा।
असल मे यह जानने या अनुभव करने का विषय है, प्रकृति अगर जड़ है तो कोई चेतन तत्व ही तो उसेसंचालित करेगा.
लखीमपुर कांड पर आज विपक्ष के नेताओं को वहाँ जाना ही था. इन सबमें प्रियंका गांधी के दृश्य परमुझे लगता है लोगों की रुचि अधिक रही होगी. उन्होंने अपनी हिरासत के समय का अच्छा उपयोगकिया. झाड़ू लगाकर अपना कमरा साफ़ किया. कई समाचार चेनलों के लिए बोलती रही. उनकाशांत रहकर शालीन और कम किंतु सधी हुयी शब्दावली में संवाद बनाना भाता है. उनकी बातचीत सेहम सबको crpc की बहुप्रचलित धारा १५१ के बारे में जानकारी भी हुयी. उन्होंने महिलासशक्तिकरण के कारण और लक्षणों पर बात की.
ऐसी वीभत्स घटनाओं पर नेताओं के वहाँ जाने को राजनीतिक पर्यटन की संज्ञा देना ग़लत है.... अगरनेता और समाज घटनाओं पर अपनी निगाह नहीं रखेगा तो न्याय पता नहीं, किस करवट बैठा दियाजाएगा...
६/१०/२१
शासन और प्रशासन भय दिखाकर उसका दोहन करके सत्ता का कामकाज चलाते देखे जाते हैं. नेतागण संस्कृत की उक्तियाँ राजकाज चलाने के लिए आदर्श बना लेते हैं, जैसे शठे शाठ्यं समाचरेत, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, धर्मों रक्षति रक्षितः इत्यादि, इसी तरह के कई मुहावरे भी प्रचलित हैं. इनसबका संदर्भ अपना-अपना है, उन्हें समझे बिना व्यक्ति चलकर अतियों में पहुँच जाता है. कहा गया हैगद्यं कवीनां निकषं वदंति अर्थात् कवियों की कसौटी गद्य है. कविता किसी प्रसंग में तीव्रता कीउद्भावना उत्पन्न कर देती है, इसलिए उसका महत्व है और बना रहेगा, पर अपनी पूरी बात कहने केलिए गद्य जैसी विधा कोई और नही है.
ज्यों ज्यों मानव वितान बढ़ता गया, व्यक्ति कविता से गद्य मेन आता गया, आदिम मानव को बहुतकहने सुनने की आवश्यकता नहीं रही होगी, इसलिए कविता या पद्य में अभिव्यक्ति होती रही, जैसेजैसे सभ्यता विस्तार पाती गयी उसे स्थिति और परिस्थिति को व्यक्त करने के लिए गद्य का सहारालेना पड़ा.
बहरहाल, बात शुरू हुयी थी भयादोहन से. नागरिक जितने अधिक भय से बाहर हो जाएँगे, शासनऔर प्रशासन की उतनी कम आवश्यकता रह जाएगी. अपने नागरिकों को भय से मुक्त रखने मेसरकार को सहायक बनना चाहिए.
१०७, ११६, १५१ जैसी धाराओं के मुक़दमे भय दोहन की ही प्रतीक हैं.
आज डाक्टर वीरेंद्र निर्झर की दो पुस्तकें प्राप्त हुयीं. एक राजकवि ग्यानी जू की बीर बिलास (ग्यानीरासो), निर्झर जी ने इस कृति का पाठालोचन एवं अर्थ किया है. जगनिक शोध संस्थान महोबा से यहपुस्तक २०२० मे प्रकाशित हुयी है. पुस्तक में ३८ पृष्ठों मे अध्यवसाय पूर्वक लम्बी भूमिका निर्झर जीने लिखी है. पुस्तक के दो बिलास हैं. मेरा ध्यान द्वितीय बिलास में आल्हा को गुरु गोरखनाथ काउपदेश पर सबसे पहले गया. बाक़ी प्रसंगों में युद्धों का वर्णन है, यह लड़ाइयाँ परमाल रासो की हीतरह हैं, पर गोरखनाथ प्रसंग में योग मार्ग का सुंदर विवरण मिलता है, योग की दुरूह शब्दावली काआसान अर्थ निर्झर जी ने पुस्तक के अंत मे किया है. एक पद देना चाहते हैं सोवत सोवै जागत जागेनिर्भय होई सकल भय भागे! आनंद मगन रहै मन माहीं, भयौ अचाहि चाह कछु नाहीं!! यह शब्दावलीकबीर के पदों मे विभिन्न रूपकों में मिलती है, पर यहाँ यह आसान शैली में उपलब्ध है.
निर्झर जी की दूसरी पुस्तक संघर्षो की धूप मे उनके मुक्तक दोहों का संग्रह है. इन दोहों मे जीवन कीनिराशा और थकान के बीच रहने का सौंदर्य बोध विकसित हुआ मिलता है. मुक्तको के विषय विविधहैं, कोरोना सम्बंधी भी दोहे मिलते हैं, क्यों नहीं होंगे, इसी कालखंड मे यह कृति प्रकाशित जो हुयी है. इस कृति मे उनका आत्म भी झांकता है और उस झांकी मे पाठक का जीवन भी प्रतिबिम्बित हो जाताहै. यह कृतियाँ हिंदी पाठक का ध्यान खींचेगी, ऐसा मुझे विश्वास है. आदरणीय निर्झर जी को बहुतधन्यवाद कि उन्होंने मुझे अपनी इन महत्वपूर्ण पुस्तकों से परिचित कराया. मेरी उन्हें खूब बधाई औरशुभकामनाएँ,,
7/10/21
परम सत्ता ही जैसे चला रही हो मेरी एक एक गतिविधि. कई छोटे बडे घटनाक्रम इसके साक्षी हैं. कल प्रिंसिपल के रिज़ल्ट संशोधित सूची आयी जिसमें मेरा नाम वेटिंग लिस्ट मे ११ नम्बर पर आगया. पहले की सूची मेन नाम ३१ वे नम्बर पर था. अब मुझे विश्वास हो चला है कि अगर यह भर्तीआगे और मुक़दमों मे न फँसी तो हमें भी प्राचार्य के रूप में नया दायित्व प्राप्त होगा.
इस भर्ती के शुरुआती दिन याद आते हैं, जब २०१९ में विज्ञापन ४९ निकला तो १५ वर्ष का मेराशिक्षण अनुभव पूरा नही हुआ था. फिर ६ पद जोड़कर संशोधित विज्ञापन तीन चार माह बाद निकलगया, तब तक मेरा अनुभव पूरा हो गया था, यह सब गुरुदेव की प्रत्यक्ष कृपा का प्रसाद है, नवम्बर२०१८ मे क्रिया मिल चुकी थी. कभी पूरे तो कभी अधूरे मन से प्राचार्य भर्ती की लिखित परीक्षा दी, इंटेरव्यू दिया. अब जो हो, पर सोचते हैं कि कभी इस दायित्व को पाने की आकांक्षा थी, अब वैसीउत्कंठा नहीं रही, अब जो कुछ काम मिले, उसका निर्वाह होता रहे, गुरुदेव से यही प्रार्थना है.
८/१०/२१
शब्दब्रह्ममयि! स्वच्छे देवि त्रिपुरसुंदरि!
यथाशक्ति जपं पूजां गृहाण परमेश्वरि!! पंचस्तवी ३/२०
परमेश्वरी परावाक़ की प्रतीक है. शब्द ब्रह्ममयी पश्यंती वाक् की प्रतीक है. स्वच्छे मध्यमा वाक् कीप्रतीक है. त्रिपुरसुंदरि वैखरी से सम्बद्ध है. शैव मत मे परमशिव तत्वातीत है, शाक्त मत में वही स्थानत्रिपुरसुंदरी का है. त्रिपुरा के उपासक चंद्ररूप से उपासना करते हैं. चंद्रमा की षोडशीकला अमा हैजिसका उदयास्त नहीं होता है, इसे नित्य षोडशिका कहते हैं. इसी को अखंडा, अमृतस्वरूपामहात्रिपुरसुंदरी कहते हैं
शब्दब्रह्म
शब्दजातं अशेषं तु धत्ते शर्वस्य वल्लभा!
अर्थस्वरूपा अखिलं धत्ते मुग्धेंदुशेखरः!!
अर्थात् शब्दजाल वाहिका महात्रिपुरसुंदरी है और समस्त अर्थ स्वरूप का वाहक चंद्रशेखर है. दोनो कायामल रूप शब्दब्रह्म है.
आचार्य अभिनवगुप्त सबसे बडे शैव आचार्य मान्य हैं, उन्हें महामाहेश्वर की उपाधि किसी अन्य केलिए प्रदत्त नहीं है. अभिनवगुप्त जी शाक्तों में भी ऐसी ही प्रतिष्ठा रखते हैं. उन्होंने देवीप्रार्थना में कहाहै...
तव च का किल न स्तुतिरंबिके सकल शब्दमयी किल ते तनु:।
निखिलमूर्तिषु मे भवदन्वयोमनसिजासु बहि: प्रसरासु च।।
इति विचिंत्य शिवे! शमिताशिवे! जगति जातमयत्नवशादिदिम्।
स्तुतिजपार्चनचिंतनवर्जिता न खलु काचन कालकलास्ति मे।।
‘हे जगदम्बिके! संसार मे कौन-सा वाङ्मय ऐसा है, जो तुम्हारी स्तुति नहीं है; क्योकि तुम्हारा शरीर तोसकलशब्दमय है। है देवि! अब मेरे मन मे संकल्पविकल्पात्मक रुप उदित होने वाली एवं संसार मेदृश्य रुप से सामने आने वाली सम्पूर्ण आकृतियों मे आपके स्वरुप का दर्शन होने लगा है। हे समस्तअमंगलध्वंसकारिणि कल्याणस्वरुपे शिवे! इस बात को सोचकर अब बिना किसी प्रयत्न के हीसम्पूर्ण चराचर जगत मे मेरी यह स्थिति हो गयी है कि मेरे समय का क्षुद्रतम अंश भी तुम्हारी स्तुति, जप, पूजा अथवा ध्यान से रहित नहीं है। अर्थात मेरे सम्पूर्ण जागतिक आचार-व्यवहार तुम्हारे हीभिन्न-भिन्न रुपों के प्रति यथोचितरूप से व्यवहृत होने के कारण तुम्हारी पूजा के रुप में परिणत होगये है।
भावानुवाद
किस ध्वनिस्तवन में न माँ, सकल शब्दमय देह।
मन-अंदर-बाहर तुम्हीं, निखिल मूर्ति भव गेह।।
सोच-असोचे भी रहे, शिवे तुम्हारा ध्यान।
स्तुति-जप पूजारहित, पल न एक भी मान।।
*
कौन वांग्मय जो नहीं, करे तुम्हारा गान।
सकल शब्दमय मातु तुम, तुम्हीं तान सुर गान।।
हर संकल्प-विकल्प में, मातु मिले दीदार।
हो भीतर-बाहर तुम्हीं, तुम ही बिंदु प्रसार।।
बिन प्रयास चिंतन बिना, शिवे! तुम्हारा ध्यान।
करे अमंगल ध्वंस हर, हो कल्याण सुजान।।
बिन प्रयास पल-पल रहे, मातु! तुम्हारा ध्यान।
पूजन चिंतन-मनन जप, स्तवन सतत तव गान।।
***
९/१०/२१
मनोदृश्यमिदं द्वैतं यत्किंचित्सचराचरम् ।
मनसो ह्यमनीभावे द्वैतं नैवोपलभ्यते ॥ ३/३१ ॥गौडपाद कारिका
This world, with all its animate beings and inanimate objects, is nothing but the creation of the mind, When the activities of mind cease, there is no world, no duality.
१०/९/२१
भूलोक माया अर्थात् अंधकार का लोक है. यह कलियुग अवस्था है. ब्रह्मा के द्वितीय चरण में सूक्ष्मअंतर्जगत के ज्ञान की अवस्था को द्वापर अवस्था कहा जाता है. इस अवस्था के मनुष्य को द्विज कहाजता है. स्वर्लोक में मनुष्य विप्र या लगभग परिपूर्ण बन जता है. यह त्रेता युग की अवस्था है. इसमेंमनुष्य चित्त के रहस्य को समझने योग्य बन जाता है. चित्त के निरुद्ध होने पर मनुष्य महर्लोक पहुँचताहै. माया का प्रभाव हट जाता है और मनुष्य ब्राह्मणों की जाति का हो जाता है. यह अवस्था सतयुगकी है.
११/१०/२१
केरियर निर्माण मात्र आजीविका चयन नही है. हर व्यक्ति अपना केरियर बनाने के लिए अहर्निशगतिशील है. इसके लिए उसके परिवेश के मनुष्यों में से उसे प्रत्यक्ष और परोक्ष सहायता मिलती है, परिवेश बदलने पर पहले के आशीर्वाद और कृपा प्रदान करने वाले सुहृदों के बाद नए सुहृदों कापरिवेश बन जाता है. इस प्रकार अलग-अलग समय में कितने ही लोग उसके अपने होते जाते हैं, इनसबके प्रति उसे कृतज्ञ रहना ही चाहिए. यह अहोभाव है जो अंततः परमात्मा तक पहुँचता है. पीछेमुड़कर देखने पर यह कृतज्ञता पूर्वापर क्रम मालूम पड़ती है, जैसे सब कुछ सुनियोजित ढंग से चलरहा हो....
12/10/21
जब ध्यान के दौरान विचारों का आलोड़न चलता है, वह प्रवाह बंद होने पर सब कुछभूल जाते हैं. इसका सीधा मतलब है कि संसार दर्पण में देखने की भाँति ही मौजूदहै, उसकी वास्तविक सत्ता नहीं है.
सांसारिक कार्यों को करते समय हमें केवल अपने काम या संसार याद रहता है, सत्तायाद नहीं रहती. सत्ता याद न रहे वह होती अवश्य है, बिना उसके कार्य संपादनसंभव ही नहीं है. सांसारिक कार्यों में प्रवृत रहते हुए भी विगत कार्य भूलते जाते हैं, बहुत से तो सायास स्मरण करने पर भी याद नही रह पाते. स्वयं मनुष्य की निर्मितरचनायें भी रहस्यपूर्ण लगती हैं, मिस्र के पिरामिड और महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्मारकअपनी रहस्यमयता से हमें चकित करते हैं. मनुष्य का ही किया हुआ अलौकिक होजाता है.
१३/१०/२१
संसार या उसके पदार्थों की वातविकता ज्ञात होती है जब हम गहरे ध्यान में होते हैं. शरीर पर बैठे मक्खी, मच्छर, चींटी, कीट, पतंगे पहले रेंगेगे या हल्के काटेंगे. ऐसीदशा में वे हौले से ही काटते हैं, इस तरह काटने से कुच भी क्षति नही पहुँचती, बल्कि ऐसे में प्राणन क्रिया हो रही होती है. थोड़ी देर में उस काटने का संवेदन नहीरह जाता. उन जीव जंतुओं का पता भी मही चलता कहाँ चले जाते. उनके शरीरोंकी भाँति मनुष्य के शरीरों की दशा है. सर्वत्र मात्र चेतन तत्व है, पदार्थ इस चेतनके कारण सतत परिवर्तनशील है.
कभी कभी प्राणियों का अकस्मात् प्राकट्य दिखता है. कहाँ कहाँ से वे प्रकट हो जाएँजान नहीं पाते, गोबर में, बालों में, मिट्टी में, पानी में, हवा में सब जगह प्राणियोंका उदय और अस्त देखा जाता है.इन प्राणियों को ध्यान में अपने शरीर पर भीउदयास्त हुआ पाते हैं और तब स्पष्ट होता है कि चेतना रहित शरीर पदार्थ मात्र हैऔर यह चेतना कभी समाप्त नही होती.
१४/१०/२१
दुर्गा सप्तशती का महत्व...
दुर्गा सप्तशती मार्कण्डेय पुराण में आए सात सौ श्लोकों का संग्रह है. इसे चंडी नाम से भी जानाजाता है.
दुर्गा सप्तशती या चंडी की कथा में एक राजा सुरथ और एक वैश्य समाधि होते हैं. शत्रुओं ने सुरथ कादेशनिकाला कर दिया. समाधि वैश्य भी अपने बच्चों और संपत्ति के साथ उस राज्य से बाहर चले गए. सुरथ और समाधि दोनो ऋषि मेधा के पास पहुँचे. मेधा ऋषि ने उन दोनो को माँ दुर्गा की उपासनाकरने का निर्देश दिया.
हम सब सुरथ हैं, जिन्हें यह अच्छे रथ का शरीर मिला है. यह सुरथ महिषासुर, रक्तबीज रूपी वृत्तियोंके कारण अपनी आत्मा के साम्राज्य से बाहर हो जाता है. समाधि मन का संतुलन है, उसकी पूँजीश्वासचार है.
मेधा उत्कृष्ट बुद्धि का नाम है, मेधा के बताए उपाय पर जब सुरथ और समाधि चल पड़ते हैं और अपनेभीतर गुफ़ा मे बैठी माँ दुर्गा की उपासना करते हैं, तभी उन राक्षसी विकृतियों से पार पाते हैं, जिनकेकारण वे अपने साम्राज्य से बाहर जाने को विवश हुए थे...
प्रत्येक निवासी का अंतर्मन प्रसन्न हो, उस व्यवस्था को रामराज्य कह सकते हैं. रामराज्य जैसे उत्कृष्टआदर्श को यूँ हल्का नही किया जाना चाहिए....बेहतर है इस पद का प्रयोग बंद हो. इस तरह इस पदका अर्थापकर्ष हो जाता है🙏
१५/१०/२१
नौ दिन के साधना पर्व के बाद दशम के आरोह का उल्लास दशहरा आता है. दसवें का आरोहण बिनानवसाधना के संभव कैसे!
बच्चे और उनके अभिभावक रावण का पुतला जलाकर या उसे देखकर खुश होते हैं. रावण अपनेभीतर की मनोवृत्ति रूपी राक्षस है, वृत्तयः पंचतय्यः क्लिष्टा अक्लिष्टाः. राम और रावण दोनो हरव्यक्ति के भीतर हैं, इन्हें पुतलों में या राजा में देखने भर से बात नहीं बनेगी. हम किसी को रावण औरराम का निर्णय देने के भी अधिकारी नहीं हैं, हमें अपने रावणत्व को दूर कर रामत्व को उद्बुद्ध करनाहोगा, तभी रामराज्य की स्थापना संभव है.
जहां प्रत्येक निवासी का चित्त प्रसन्न हो, उस व्यवस्था को रामराज्य कह सकते हैं. रामराज्य जैसेउत्कृष्ट आदर्श को यूँ हल्का नही किया जाना चाहिए....बेहतर है राजनीति के लिए इस पद का प्रयोगबंद हो. इस तरह के प्रयोग से पद का अर्थापकर्ष होता है.
राम एक परमात्मावाची शब्द है. राम चेतना है, इस चेतना को उपलब्ध करने के लिए हमारेशास्त्रकारों ने विभिन्न कथाओं की सृष्टि की. किसी कहानी के माध्यम से हम शीघ्र उसे समझ लेते हैं. समय के प्रवाह में कहानी प्रमुख हो गयी, उसके पीछे की भावना गौड़ होती गई.
गतिः स्थानं स्वप्नजाग्रदुन्मेष निमेषणे।
धावनं प्लवनं चैव आयासः शक्तिवेदनम्।।
बुद्धिभेदास्तथा भावाः संज्ञाः कर्माण्यनेकशः।
एष रामो व्यापकोsत्र शिवः परमकारणम्।। 1/87-88 तंत्रालोक
गति, स्थान, विकल्प रूप स्वप्न, ज्ञान रूप जाग्रत, उन्मेषण, निमेषण, धावन, प्लवन, आयास, शक्तिवेदन, बुद्धि और उसके भेद, भाव, सारी संज्ञाएँ और सारे कर्म ये चौदह (शब्दतः और अर्थतःदोनो दृष्टियों से) राम ही हैं।
आप सबको दशहरे की प्रणाम अभिवादन पूर्वक राम-राम...
१७/१०/२१
अपनी धुन में बोलते बोलते ये क्या बोल जाते हैं, एक दिन दयानंद सरस्वती जी पर आर्य समाज केमंच पर संघ से जुड़े पूर्व मंत्री ने बोला दयानंद जी और सावरकर जी गुरु शिष्य थे, उन्हें करेक्ट कियागया कि जिस वर्ष स्वामी जी का निधन हुआ, उसी वर्ष सावरकर जी का जन्म हुआ था. अच्छी बात येरही कि अपनी भूल उन्होंने स्वीकार कर ली. ज़िम्मेदार व्यक्तियों द्वारा तथ्यों को लेकर हल्के अन्दाज़मे बात मही करनी चाहिए. यह मिथकों का विस्तार तो कर सकते हैं, इतिहास का कबाड़ा कर जाएगे🙏
१८/१०/२१
हम संसार को शून्यवत देखें, इसमें अभाव या नकार लग सकता है, दूसरी दृष्टि इसे पूर्ण रूप मे देखनेकी है यह भावात्मक और आनंद दृष्टि है. संसार को पूर्णता में देखते समय यह दो तरह से हमारे सामनेआता है, एक मे जैसा हम चाहते हैं और दूसरे मे जैसा यह है. दोनो मे तत्विक अंतर नहीं है, पर दृष्टिका अंतर हो जाता है. परमात्मा हमसे जैसा और जो काम ले हमें उसके लिए तैयार रहना चाहिए, अपने चाहने से हम इसका विश्लेषण करेंगे और फिर उलझ जाएगे. प्रभु को ऐसे कर्मशील व्यक्तिप्रिय हैं जो उसकी इच्छा को अपना आनंद समझते हों.
"पुरुषों को चाहिए कि वे सभी स्त्रियों को माता के रूप में देखें, जब वे स्त्री को केवल वासना कीसंतुष्टि के लिए एक वस्तु के रूप में देखते हैं, वे नहीं जानते कि वे क्या खो रहे हैं, तब वे केवल एकबुराई को देखते हैं जो उनके अपने अंदर है। स्त्री के मातृ रूप में पवित्रता है। स्त्री को माता की वृत्तिपुरुष को बुराई के गड्ढे में गिरने से बचाने के लिए दी गयी थी। यह उसका प्रधान उद्देश्य है। उसकीरचना कामुकता की वस्तु के रूप में नहीं की गई थी। स्त्री की पुरुष के प्रति अशर्त सहानुभूति सेअधिक पवित्र और कुछ नहीं है। एक सम्मानित न्यायाधीश अपने घर में सहधर्मिणी या गृहिणी केलिए केवल एक बच्चे के समान है। प्रत्येक स्त्री को सम्पूर्ण विश्व के लिए प्रेम का अनुभव करनाचाहिए, यदि वह जगन्माता के प्रेम को व्यक्त करना चाहती है।"
ब्रह्मचारिणी देवी की उपासना का यही स्वरूप है। 18 अक्टूबर २०२० की पोस्ट
परमपिता, जगन्माता, सखा, प्रियतम प्रभु! मैं तर्क करूँगा, मैं इच्छाशक्ति का प्रयोग करूँगा, मैंकार्यरत होऊँगा; परन्तु आप मेरे तर्क, इच्छाशक्ति एवं कार्य को उचित दिशा की ओर निर्देशित करें।गुरुदेव परमहंस योगानंद
१९/१०/२१
जिस क्षण कोई आपसे लडना चाहे, टहलने निकल जाएँ. यदि कोई आपका अपमान करे, बस अपनीआँखों से उत्तर दें...पाठ १६८
२०/१०/२१
मेरे सारे प्रश्नों का और सारी उलझनों व समस्याओं का एक ही उत्तर है -- "भगवान हैं"। यह शब्द मेरीसब आध्यात्मिक समस्याओं का समाधान है। भगवान हैं, इसी समय हैं, सर्वदा हैं, यहीं पर हैं, सर्वत्र हैं, वे मेरे हृदय में और मैं उनके हृदय में नित्य निरंतर बिराजमान हूँ। नारायण नारायण नारायण नारायण!!
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जब से उन से प्रेम हुआ है, सारे नियम टूट गए हैं। यह जीवन समस्याओं की एक लम्बी शृंखला है, भागकर जाएँ तो जाएँ कहाँ? लेकिन जब से सब समस्याएँ सृष्टिकर्ता को बापस सौंप दी है, जीवन मेंसुख शांति है। अब तो सारे सिद्धान्त, मत-मतान्तर, परम्पराएँ, और सम्प्रदाय, -- जिनका संकेतपरमात्मा की ओर है, वे मेरे ही हैं। मेरा एकमात्र संबंध परमात्मा से है। भगवान का कितना सुंदरआश्वासन है --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे औरयदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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मेरे जैसे अकिंचन से अकिंचन सामान्य व्यक्ति को जब भगवान अपने हृदय में बैठा सकते हैं, तब आपतो सब बहुत बड़े-बड़े अति प्रतिष्ठित और सम्माननीय लोग हो। आपको तो प्राथमिकता मिलेगी।भगवान कहते हैं --
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि स॥९:३०॥"
अर्थात यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है तो वह साधु हीमानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है॥
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उन्हें छोड़ा कर कहाँ जाऊँ? उन्होने तो वाल्मिकी रामायण में आश्वासन दिया है --
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥"
अर्थात् - 'जो एक बार भी मेरी शरण में आकर 'मैं तुम्हारा हूँ' ऐसा कहकर रक्षा की याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ – यह मेरा व्रत है।
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वराह पुराण में भगवान् श्रीहरिः कहते हैं --
"वातादि दोषेण मद्भक्तों मां न च स्मरेत्। अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्॥"
अर्थात् -- यदि वातादि दोष के कारण मृत्यु के समय मेरा भक्त मेरा स्मरण नहीं कर पाता, तो मैंउसका स्मरण कर उसे परम गति प्रदान करवाता हूँ॥
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मेरे में इतनी सामर्थ्य भी नहीं है है कि इस शरीर के अंत समय में भगवान का स्मरण कर सकूँ। भगवानस्वयं ही मेरा स्मरण करेंगे। यह देह तो चिता पर भस्म हो जाएगी, पर वे मुझे निरंतर अपने हृदय मेंरखेंगे।
"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम्।
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर॥"
(ईशावास्योपनिषद मंत्र १७)
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गीता में कितना स्पष्ट आश्वासन है उनका ---
"मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥१२:८॥"
अर्थात् - "तुम अपने मन और बुद्धि को मुझमें ही स्थिर करो, तदुपरान्त तुम मुझमें ही निवास करोगे, इसमें कोई संशय नहीं है॥" कृपाशंकर बावलिया
२१/१०/२१
श्वास भीतर चल रही है, उसे देखना है, श्वास का एक और सिरा दुनिया में हो रही सारी हलचलों केरूप मे जुड़ता है. उसका भी साक्षी बनना है. उन हलचलों से अप्रभावित रहना है, यह हलचल श्वास हीअधिक महत्वपूर्ण है, यह ईश्वर की श्वास है, उसके हम बहुत छोटे से हिस्से हैं. अप्रभावित रहते हुएसेवा भावना से काम करते जाना ही लीला है, परमात्मा लीला कर रहा है, तुम्हें भी वही करना है. यहीआनंद है.
२२/१०/२१
शास्त्रों मे आए स्त्री निंदा के कथन वस्तुतः स्त्री जाति की निंदा नहीं है, आचार्य शंकर के यहाँ भी ऐसीबातें मिलतीं हैं. उनका आशय कतिपय वृत्तियों से है, उन्हें हटाने से शास्त्रों का लालित्य तिरोहित होजाएगा. हाँ उन विवादित उक्तियों की समझ बढ़ाने की आवश्यकता अवश्य है, इन उक्तियों से हमेंस्त्रियों न दलितों या उपेक्षितों के प्रति हीन रवैया नहीं बना लेना चाहिए..
23/10/21
यह शरीर टोर्च है उसका बटन परमात्मा के हाथ में है, उससे जो प्रकाश निकलता है उससे वह स्वयंअपने दर्शन करता है. प्रकाश न निकलने की स्थिति में वह केवल एक पदार्थ है...
२४/१०/२१
I will be calmly active, actively calm. I will not become lazy and mentally ossified. Nor will I be overactive, able to earn money but unable to enjoy life. I will mediate regularly to maintain true balance. - #ParamahansaYogananda
संसार मे रहने के लिए व्यक्ति को संघर्ष करना पड्ता है. आध्यात्मिक व्यक्ति के संघर्ष का स्वरूपअलग होता है. वह जिससे टकराता है उससे थोड़ा ऊपर अपनी चेतना से उठा हुआ रहता है. अगरदूसरे व्यक्ति की भी चेतना उठी हुयी है तो टकराव नहीं होगा क्योंकि वे अपनी अपनी कक्षा मे गतिकर रहे होते हैं.
गरुड़ भगवान विष्णु का वाहन यूँ ही नही, गरुड़ पंख लेकर पैदा होता है, वह उठा हुआ रहता है, उसकेकारण ही विष्णु सर्वव्यापक होते हैं. हमें अपनी चेतना को गरूड़वाही बना लेना चाहिए, जिससे वहऊँची उठी रहकर सबमें समत्व का दर्शन कर सके.
25/10/21
नवरात्रि में तीन तीन दिन क्रमशः तीनों गुणों तम, रज और सत की प्रकृति का ज्ञान किया जाता है, इनगुणों को जानना इन पर विजय पाना है, इन गुणों से ही दुनिया की सारी उथल-पुथल है। इसलिएअगले दिन विजय पर्व दशहरा आता है। जगज्जननी मां गुणाश्रयी है और गुणमयी भी। क्योंकि यहपर्व नौ दिन की कठिन साधना के बाद आता है, इसलिए यह दिन कई घटनाओं का साक्षी बना। आपसबको दशहरा पर्व की मंगलकामनाएं। 25/10/2020
प्रकृति में प्रकृति अपने मूल रूप में मिल ही नहीं पा रही। कबाड़ में हर वस्तु खरीदी बेची जा रही।प्रोसेस होकर वह फिर नए रूप में आ जाती है। स्त्रियों के बाल भी खरीदे बेचे जाने लगे हैं। यानि यंत्रनिर्मित प्रोसेसिंग अधिक हो गयी और प्रकृति की कार्यशाला में अवरोध उत्पन्न कर दिया गयाहै....25/10/19
राजा रहूगण से जड़भरत -
शोच्यानिमांस्त्वमधिकष्टदीनान् विष्टया निगृहणन्निरनुग्रहोsसि। जनस्य गोप्तास्मि विकत्थमानो नशोभसे वृद्ध सभासु धृष्ट। भागवत 5/12/7
तुमने इन बेचारे दीनदुखिया कहारों को बेगार में पकड़कर पालकी में जोत रखा है और फिर महापुरुषोंकी सभा में बढ़-बढ़कर बातें बनाते हो कि मैं लोकों की रक्षा करने वाला हूँ। यह तुम्हें शोभा नहीं देता।23/10/19
चंद्रमा और मन का करीबी सम्बन्ध होता है। चन्द्रमा मन से उत्पन्न हुआ है। साइकेट्रिस्ट कहते हैं पूर्णचंद्र और नए चंद्र के दौरान मन अधिक उद्वेलित होता है। घण्टा दैवीय नाद ध्वनि है। आहत ध्वनि, जिसमे दो या अधिक चीजे टकराकर ध्वनि उत्पन्न होती है। संगीत में प्रयुक्त वाद्य यंत्र प्रकृति मेंव्याप्त ध्वनियों के चुनिंदा रूपों को संजोकर विकसित किये गए हैं। पर अनाहत ध्वनि बिना किसीपदार्थ के टकराये स्वतः बजती है, इसे अनहद नाद कहते हैं। यह ध्वनि ॐ की तरह गूंजती है। जैसेसागर की समस्त लहरों की ध्वनियां आवाज करती है, ऐसे ही ब्रह्मांड की पुंजीभूत आवाज तैलधारवतॐ ॐ होती रहती है, जैसे मोटर चलती है। मंदिरों में बजाया जाने वाला घण्टा अनहद नाद काप्रकटीकरण है। कहते हैं, यह घण्टा नाद मंदिरों से ही चर्च में गया है।
आज देवी चंद्र घण्टा का दिन है। शुभकामनाएं.. 19/10/2020
ध्यान के समय जल से आपूरित एक थाली मे कलश पर रखे जलते हुए दीपक को देखें, जिसकीपरछाईं जल मे पड़ रही है. क्या क्या निष्कर्ष इससे निकलते प्रतीत होते हैं. ईश्वर जलता हुआ दीपकहै, संसार उस दीपक की जल मे झांकती परछाईं की भाँति है. दीपक की सत्ता है, पर परछाई की सत्तादीपक के कारण है. परछाईं दीपक पर अवलम्बित है. जैसा दीपक जलेगा, परछाईं को वैसे होनापड़ेगा. हमें दीपक बनना है, परछाईं में रहने पर भी दीपक मे मिल जाना है. अगर परछाईं में घुले मिलेतो जल के विचलन में हमें भी दोलायमान रहना पड़ेगा. जल की प्रकृति से पृथक दीपक का कामकेवल जलते जाना है और दोलायमान परछाईं को देखते जाना है.
आज ध्यान मे बाएँ पैर की तीसरी अंगुली में दाहकता का अनुभव हुआ. अंगूठे में दाहकता का आशयतो योगियों ने बताया है कि वह कालाग्नि है, जिसमें कर्म फल भस्मीभूत होते हैं, यह अनुभव पहलेघटित हुआ है, पर यह तीसरी अंगुली में दाहकता पहली बार आज अनुभूत हुयी, यह भी कोई अग्नि हीहै. ध्यान के बाद शरीर में कोई पीड़ा नहीं है.
२६/१०/२१
जाग्रत से ऊँची अवस्था स्वप्न की होती है क्यों उसमें हम अपने अवचेतन को भी ला सकते हैं, इसीप्रकार इन दोनो से बड़ी अवस्था सुषुप्ति है, जिसमें हम जाग्रत और स्वप्न के विकारों से विगतमूलअवस्था में पहुँच जाते हैं. सुषुप्ति में दोष यह है कि हमें उसका उस समय भान नही रहता. तुरीयाइन तीनो से ऊपर की अवस्था है, जो तीनो में मौजूद रहती है. यही वह अवस्था है जो तीनो की सीमाका प्रत्यक्ष अवबोध कराती है. तुरीया अवस्था ही व्यक्ति को एक अवस्था से दूसरी अवस्था मेबोधपूर्वक गमनाग़मन कराती. इन सबके पार एक और अवस्था होती है, जिसे तुरीयातीत कहा गयाहै. यह अव्यक्त अवस्था है, इसी से सारी अवस्थाएँ व्यक्त होती और इसी में सबका लय हो जाता है. डायग्राम से इन्हें इस तरह समझा जा सकता है....
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२७/१०/२१
स्टिलनेस के समय अगर कर्णप्रिय आरती या स्तोत्र सुनाई पड़े तो परम से मिलन और शीघ्र हो जाताहै.
सिर मे सहस्रार से बाहर भी हलचल हुयी. व्यष्टि और समष्टि में जैसे देहबाधा और घट गयी हो.
२८/१०/२१
ध्यान करते करते ही ख़ुशी की खबर काफ़ूर हो गयी. पीड़ादायी समाचारों के साथ भी यही होता है. यह अनुभूत सत्य है कि सुख या दुःख कुछ नही होते.
२९/१०/२१
अपने ही दोनो पैर जब स्वाभाविक रूप मे कदम ताल करते हैं तो क्या वे समान दूरी तय करते हैं, क्याउनमे इंच सूत का अंतर नहीं रह जाता होगा. प्रकृति में ही द्वैत है. मनुष्य समानता की बात करते हैं, वहदृष्टि रखने के स्तर पर है, व्यवहार समान नहीं हो सकता, किसी को देखने का भाव समान अवश्यहोना चाहिए.
प्रज्ञान मिशन की आज पुस्तकें प्राप्त हुयी...
1 songs of the mystics
2 mysticism of religious symbols
3 detatch attach a practical guide
4 krishna katha
5 rama katha
6 daily prayers
7 know your mind
8 lord jagannath through the eyes of a yogi
9 the mystical torah a yogi's perspective
- book freedom from fear.
अब शिक्षकों को अपने नाम में प्रोफ़ेसर और डाक्टर एक साथ, फिर पद और जो-जो हो, वह सबजोड़ने का अवसर मिलेगा.
उनके भार से चाहे नाम ही दब जाए.
नाम भी तो एक उपाधि है....
देश को खुशहाल बनाने की ज़रूरत है. ऊँच नीच की भावना का विनाश होनाचाहिए. फिर जाति की बुराई जाती रहेगी. जाति में भी सब कुछ ग़लत नही है, जिसमें सब कुछ ग़लत होता है, उसे प्रकृति स्वयं मिटा देती है. शोषण तो sc/st का विशेषाधिकार प्राप्त लोगों द्वारा भी होता है. व्यक्ति दुरुस्त हो जाए, समाज बदलजाएगा.
अंतर्जातीय विवाह अभियान चलाकर या क़ानून बनाकर संभव नहीं और न ऐसे हठात् और बलात्संबंध समाज को ऊँचा उठा सकते हैं, यह इनका दिवास्वप्न ही है...
ब्राह्मण बने बिना किसी का गुज़ारा नहीं, उस मनोभूमि को पाना सबका लक्ष्य हो, तभी कल्याण है...
३०/१०/२१
if your intentions are pure, the method will find its way...
असल मे हमारी भाषा का ही गुण है कि बिना सापेक्षता यह व्यक्त नही हो पाती। नेहरू जी औरसरदार पटेल को आमने सामने कर दिया गया, जैसे वे परस्पर बैरी रहे हों। नेहरू जी ने लंबे समय तकभारत को दूरदर्शी नेतृत्व दिया, सरदार पटेल ने रियासतों का विलय कराया। रियासतों का विलयहुआ तो नेहरू जी का भी योगदान कहा जायेगा। किसी विभाग या सरकार का कोई निर्णय कैबिनेटद्वारा ही तो होता है। धारा 370 हटाने के लिए मोदी जी का नाम लेते हैं या अमित शाह का। एकीकृतरियासतों का भूगोल ऐसा था कि वे देश से बाहर रह भी नहीं सकती थीं। जब कोई व्यक्तित्व प्रमुखतासे उभरता है तो कई छोटी छोटी हस्तियों के नाम नहीं आ पाते, पर वे परस्पर विरोधी हों, ऐसाआवश्यक नही। पटेल जी के प्रधानमंत्री बनने के बारे में तमाम बातें की जाती हैं, पर उस समय केउथल पुथल के दौर में देश को लंबे समय तक नेतृत्व देने की ज़रूरत थी, नेहरू जी के माध्यम सेदुनिया में भारत का पक्ष बेहतर ढंग से पेश हुआ, सरदार पटेल देशभक्त थे तो नेहरू जी का त्याग भीउनकी पिछली पीढ़ी से चला आ रहा था।
आज इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि है, उन्होंने देश के लिए कई युगांतरकारी कार्य किये हैं, अस्तु हमअपने महापुरुषों को उनके ही व्यक्तित्व और कृतित्व से निरूपित करे, उनके सामने किसी को ओछाया हल्का दिखाकर नहीं🙏 ३१/१०/२०२० की फ़ेसबुक पोस्ट..
केसव! कहि न जाइ का कहिये।
देखत तव रचना बिचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये॥
सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे।
धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे॥
रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं।
बदन-हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं॥
कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै।
तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै॥
हे केशव! क्या कहूँ? कुछ कहा नहीं जाता! हे हरे! आपकी यह विचित्र रचना देखकर मन-ही-मनआपकी लीला समझकर रह जाता हूँ। कैसी अद्भुत लीला है कि इस संसार-रूपी चित्र को निराकारचित्रकार ने शून्य की दीवार पर बिना रंग के संकल्प से ही बना दिया। यह महामायावी-रचित मायाचित्र किसी प्रकार धोने से नहीं मिटता। (साधारण चित्र जड़ है, उसे मृत्य का डर नहीं लगता परंतु) इसको मरण का भय बना हुआ है। (साधारण चित्र देखने से दुःख होता है परंतु) इस संसार रूपीभयानक चित्र की ओर देखने से दुःख होता है। सूर्य की किरणों में जो जल दिखाई देता है, उस जल मेंएक भयानक मगर रहता है। उस मगर के मुँह नहीं है, तो भी वहाँ जो भी जल पीने जाता है, चाहे वहजड़ हो या चेतन, यह मगर उसे ग्रस लेता है। भाव यह कि यह संसार सूर्य की किरणों में जल केसमान भ्रमजनित है। जैसे सूर्य की किरणों में जल समझकर उनके पीछे दौड़ने वाला मृग जल न पाकरप्यासा ही मर जाता है, उसी प्रकार इस भ्रमात्मक संसार में सुख समझकर उसके पीछे दौड़ने वालों कोभी बिना मुख का मगर यानी निराकार काल खा जाता है। इस संसार को कोई सत्य कहता है, कोईमिथ्या बतलाता है और कोई सत्य—मिथ्या से मिला हुआ मानता है; तुलसीदास के मत से तो जो इनतीनों भ्रमों से निवृत हो जाता है वही अपने असली स्वरूप को पहचान सकता है
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