Friday, January 28, 2022

डायरी जून २०२१

 


rakesh narayan dwivedi rakeshndwivedi@gmail.com

Thu, Jul 1, 2021, 6:49 AM
to me
1/6/21
पंचीकरण को समझने का प्रयास है। आदि शंकराचार्य ने पांच छ श्लोकों में इसे लिखा है, इसकी वर्तिका उन्ही के शिष्य सुरेश्वराचार्य ने लिखी है। रामकृष्ण मठ से यह प्रकाशित है। पांच महाभूतों में आकाश की उत्पत्ति परमात्मा ने पहले की, उसके बाद क्रमशः वायु तेज जल और पृथ्वी का अस्तित्व आया। हिरण्यगर्भ या सूत्र सृष्टि से पहले आकाश में अन्य कोई महाभूत का मिश्रण नहीं है, पर वायु में वायु और आकाश, इसी तरह तेज या अग्नि में तेज के अलावा आकाश और वायु, जल में जल, आकाश, वायु और अग्नि तथा पृथ्वी में पांचों भूतों का मिश्रण हुआ। इनके ठोस  मिश्रण से हिरण्यगर्भ सृष्टि का निर्माण हुआ। जिसमें आकाश आधा, शेष चार बराबर भाग, वायु आधा शेष चार बराबर। इसी तरह अन्य के साथ मिलकर महाभूतों का पंचीकरण हुआ। मनुष्यकृत व्यवस्था भी कुछ इसी तरह बढ़ी। नामकरण में जिस तत्व की प्रधानता हुई, उसी के आधार पर जातक का नामकरण किया गया। ब्रह्मसूत्र में इसका मार्गदर्शन किया गया है।
शरीर मे पांच ज्ञानेन्द्रियाँ जिसमे कान का शब्द लक्षण और आकाश अधिदेवता है। आंख का रूप  लक्षण और आदित्य अधिदेवता, जिह्वा का रस और वरुण या जल, त्वचा का स्पर्श और वायु नाक का गंध और पृथ्वी का क्रम है। पांच कर्मेन्द्रियाँ है जिसमे वाणी का शब्द और अग्नि, हस्त का आदातव्य और इंद्र, पाद का गंतव्य और विष्णु, पायु का विसर्ग और मृत्यु, उपस्थ का आनंद और प्रजापति, अन्तकरण में मन का मन्तव्य और चंद्र, बुद्धि का बोद्धव्य और वृहस्पति, अहं का अहंकर्तव्य और रुद्र तथा चित का चेतव्य और अधिदेवता क्षेत्रज्ञ या साक्षी होता है। यह स्थूल शरीर के तत्व और उनके अधिदेवता हुए, इसी तरह सूक्ष्म शरीर के  तत्व हैं पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच प्राण, पांच भूत, चार अंतःकरण, अविद्या, काम (desire) और कर्म (एक्शन) यह आठ मिलकर पुर्यष्टक या सूक्ष्म शरीर कहलाता है। कारण शरीर में उक्त के अलावा तम तत्व भी होता है, जिसका अधिदेवता ईश्वर होता है। स्थूल शरीर जाग्रत अवस्था मे, सूक्ष्म शरीर स्वप्नावस्था में और कारण शरीर सुषुप्तावस्था में रहता है।
2/6/21
अपने मन मे इतने प्रसन्न रहें कि कुछ भी आपको दुःखी न कर सके। तब आप जिन वस्तुओं के अभ्यस्त हों चुके हैं, उनके बिना भी रह सकते हैं।
मैं शाश्वत शांति का राजकुमार, अनुभव के रंगमंच पर दुःखद तथा सुखद स्वप्नों का नाटक खेल रहा हूँ। पाठ 6
3/6/21
आज विचित्र स्वप्न आया। कहिना गंगा किनारे पिताजी का देहांत हुआ, वहीं उनका अंतिम संस्कार किया। फिर वही मेरे प्राण भी निकल गए। आश्चर्य यह कि अंत्येष्टि होती रही और हमे उसकी याद भी बनी रही।
4/6/21
ऋणानुबंध के कारण मृतक के घर लोग जाते आते हैं। दुनिया की प्रायः सभी सभ्यताओं में किसी किसी मे तो मरने के 40 दिन तक अपनी अपनी तरह से क्रिया कर्म करते हैं। गरुड़ पुराण का हो, चाहे अन्य कर्मकांड, उनका एक गूढ़ अर्थ है। उनके महत्व से परिचित होना चाहिए, चाहे जिस तरह करें, न करें। मृत्यु भोज जब मृतक के परिवार के नातेदार दूर दूर से आएंगे, तो वैसे ही भोजन तो मिल बैठकर करेंगे ही न। अलग से भोज देने की बाध्यता न रहे, पर जिसे करना है उसे रोकना भी ठीक नहीं है। आखिर साथ बैठकर जितने भी लोग भोजन करते हैं उसमे नुकसान क्या है। जबरदस्ती कतई उचित नहीं, न इसे देखा देखी किया जाना चाहिए। देखा देखी तो अपने यहां बहुत से कार्य किये जाते हैं, वे सब गलत हैं। किसी से हम पार्टी मांगकर अगर ले तो वह भी तो ठीक नही, पर वह भी होता है। मृत्यु भोज शोक उत्सव का एक माध्यम है जो यह बताता है कि मृत्यु सदा मातमी नहीं होती। कोरोना आपदा बनकर आया है, इसमे तो स्वयमेव सब सिकुड़ रहा है।

राजनीति के अग्निपथ पर योगी आदित्यनाथ विषयक डॉ उदय प्रताप सिंह का लेख आदित्यनाथ योगी के व्यक्तित्व को निरूपित करता है, पर उनका शासन चलाने के कौशल और दर्शन को भली-भांति व्याख्यायित नहीं करता है। आदित्यनाथ योगी की सरकार केबिनेट की सामूहिक चेतना का दर्शन कराने में सक्षम सिध्द नहीं हो पाई है। जिस सरकार में दो-दो उपमुख्यमंत्री थे, वहां केवल अपने मन की सरकार चलाना संचालन सामर्थ्य दिखाती है, पर उसमें लोकमन का दर्शन नहीं हो पाता, जो एक लोकतंत्र के लिए और एक बड़े राज्य के मुखिया के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसी प्रदेश में कितने मुख्यमंत्री हुए जो इससे बड़े भूभाग और विविध भाषा, क्षेत्र और समूह के जन सरोकारों की पूर्ति करते हुए सत्ता संचालन किये हैं। हर मुख्यमंत्री के कार्यकाल के कोई न कोई गिनने और स्मरण करने योग्य काम हुआ है। लेख में योगीजी के ऐसे काम व्यवस्थित क्रम में नहीं गिनाए गए हैं। एक्सप्रेस वे निर्माण की शुरुवात अखिलेश सरकार में हो चुकी थी। मायावती के कार्यकाल की भी सुदृढ कानून व्यवस्था के अलावा कांशीराम आवास निर्माण के रूप में एक शानदार उपलब्धि रही है।
कानून व्यवस्था के प्रश्न पर योगी जी बार-बार बुरी तरह असफल हुए और जनता को भरोसा देने में समर्थ नही हो सके। बिकरु कांड में इतने पुलिस कर्मियों की जान जाना, उसके बाद उसके अपराधियों को न्यायालय से सजा दिलवाने की जगह क़बीलाई न्याय से मामले को सुलटाना, कुलदीप सेंगर और चिन्मयानंद प्रकरण पर शिथिल रहना, कुलदीप सेंगर से पीड़ित पक्ष के लोगो का मारा जाना, हाथरस दुष्कर्म मामले को हैंडल न करना और फिर मामले को दबाना, कोरोना महामारी के बीच चुनाव, सभाएं और अस्पताल की ढहती चिकित्सा व्यवस्था, महामारी में कवलित जन के सैकड़ो शवों का गंगा यमुना में बहाया जाना और शवों को कुत्तों द्वारा नोचा जाना, फिर शवो की चादर को हटवाना, विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति प्रकरण की शिकायतों को दूर न करना आदि ऐसे प्रकरण हैं, जो उनकी शासन व्यवस्था की असफलता के स्थायी स्मारक बनकर खड़े हैं। 
इन प्रश्नों को उठाये बिना आदित्यनाथ योगी पर की गयी बात पूरी नहीं मानी जा सकती। 
मित्रगण अपने प्रश्न भी उठा सकते हैं। 

5/6/21
आज पर्यावरण दिवस है। हमें कुछ संरक्षित या सुरक्षित करने के भाव में नहीं जाना, अपितु हम ही प्रकृति या पर्यावरण हैं, यह सीख लेना है।  पेड़-पौधे तभी काटे जाते हैं, जब उन्हें अपना नहीं मानते। जब उनसे बढ़कर हम दूसरे लाभ मानने लगते है, तब प्रकृति की उपेक्षा करने लगते हैं।
स्वस्थ पर्यावरण में लाभ का गणित और लोभ की चतुराई नहीं चल सकती।
6/6/21
भाजपा को अगर विधान सभा चुनाव 2022 में अपना नुकसान कुछ कम करना है तो बिना और विलंब किए बहुत अधिक एन्टी इनकंबेंसी से घिरे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की जगह किसी अन्य चेहरे को लाया जाना चाहिए, जो बचे हुए समय मे शीघ्रता से अपनी छाप छोड़ सके...
किसी अन्य को उपमुख्यमंत्री बनाने से विवाद बढेंगे, काम नहीं दिख पाएंगे।
मैं शाश्वत शांति का राजकुमार, अनुभव के रंगमंच पर, दुःखद तथा सुखद स्वप्नों का नाटक खेल रहा हूं। गुरुदेव
मैं विश्वास नहीं करता कि कोई मनुष्य वास्तव में बुरा बनना चाहता है। अपराधी गलत काम इसलिए करता है कि उसकी चेतना की गहराई में नैतिक जीवन जीने के सच्चे आनंद का बोध ही नहीं होता। पाठ 7
7/6/21
गुरु जी कहते हैं मेरे गुरुदेव ने मुझे बताया था कि कभी भी अपनी तर्क बुद्धि की आंखों को बंद न करूं, उन्हें खुला रखूं, क्योंकि तब वे ज्ञान का एक और चक्षु मुझे दे सकेंगे।
क्रोध को प्रेम से निष्क्रिय किया जा सकता है। प्रबल चंचल विचारों को शांतिमयी स्मृतियों के निर्मल जल में विलीन कर सकते हैं। पाठ 8
8/6/21
ध्यान एकाग्रता का वह विशिष्ट रूप है जिसका उपयोग केवल भगवान को जानने के लिए ही किया जाता है।
एकाग्रता की कला जाने बिना किसी का ध्यान करना सम्भव नही है। पाठ 9
[6/7, 21:28] Rakesh Narayan Dwivedi: प्रिया। एक जिज्ञासा का समाधान कीजियेगा...जीवात्मा संस्कारवश और इच्छाशक्तिं के कारण अपने कर्म करता है,  गुरु कृपा और साधना से अपने ही कर्मो को जीवात्मा भुने बीजो की भांति निष्क्रिय कर सकता है। कर्मो के अनुरूप उसे फल मिलता है, फिर इसमे ईश्वर उन कर्मफलों को दूर करने की  कृपा किस अवस्था मे करते हैं।
[6/8, 00:51] PrKriyaban: Guru toh wo hain jo khud brahma gyani hain.. ya, wo khud hi Brahma hain.. 

Aur jab jeevatma ko Brahma gyan hota hai to wo khud ishwar ka roop ya khud hi Brahma ho jata hai.. to ye prashna ki ishwar ki kripa kis avastha mei hota hai, ye prashna apne aap samapt ho jata hai.
[6/8, 06:08] Rakesh Narayan Dwivedi: जी।  
वैसे भी मनुष्य का अधिकार कर्म करने का है, फल ईश्वर ही देते हैं। जब मनुष्य का कर्तापन चला गया तो फल भी चला गया। सादरं प्रणाम🙏
9/6/21
सामान्यतः हृदय 72000 लीटर यानी 18 टन रक्त पंप करता है। चिंता और मनोवेगों या अशांति में हृदय परेशान होकर अधिक गति से धड़कता है। बच्चों की धड़कन उनकी चंचलता के कारण टाइज होती है। पाठ 10
10/6/21
आज नन्दलाल दशोरा की व्याख्या की हुई ब्रह्मसूत्र पढ़ ली। 11 उपनिषद संग्रह इनका पहले ही पढ़ चुके थे। उपनिषदों की व्याख्या देखकर ही इनके ब्रह्मसूत्र पढ़ने का मन हुआ। रामकृष्ण मठ का ब्रह्मसूत्र भाष्य अंग्रेजी में है, पर यह हिंदी में होने से जल्दी पढा गया। दशोरा जी की पुस्तकों के प्रकाशन रणधीर प्रकाशन हरिद्वार ने एक पुस्तक मृत्यु और परलोक यात्रा निशुल्क ब्रह्मसूत्र के साथ भेज दी थी। दिलचस्प यह कि इस तरह की पुस्तक को मैंने कई बार पहले खोजा, और कई लेखकों की पढ़ी भी, स्वामी अभेदानन्द की योगदर्शन पुस्तक के पीछे मृत्यु के पार करके एक पुस्तक का चित्र छपा है। उसे पढ़ने का लोभ हो रहा था कि दशोरा जी की यह पुस्तक आ गयी। ऐसा कई घटनाओं में मेरे साथ हो रहा है। जो इच्छा होती है, उसे गुरुवर पूरा कर देते हैं। मैं बार-बार प्रार्थना करता हूं कि मुझे उनके चरणों की धूल से अविच्छिन्न प्रेम के अतिरिक्त कुछ नही चाहिए। और अगर वह चाह है तो वह भी नहीं।  चाह रखने और उसे पूरा करने से हम प्रभु और गुरुदेव को कष्ट क्यों पहुचाएं। गुरुदेव जो जैसा जब जितना जहाँ कराएं, वही होता जाए। गले राम की जेन्वड़ी जित खींचे तिंत जाऊं। दशोरा जी की मृत्यु पर यह पुस्तक पढ़कर अब रामकृष्ण मठ की पुस्तक पढ़ने की आवश्यकता नही लग रही है। वस्तुतः अब किसी नई पुस्तक की आवश्यकता नहीं लग रही। अब गुरुजी के पाठ ही पुनरावलोकन करने हैं, वही कर रहे हैं। उसी में करणीय है, बाकी जानकारी भर है। 

उपनिषदों में ब्रह्म की ज्ञान शक्ति को गायत्री कहा गया है और क्रिया शक्ति को सावित्री। 
 जड़ चेतनमय सृष्टि में ज्ञान और क्रिया दोनो की अनिवार्यता है और ब्रह्म में ही दोनो शक्तियां निहित हैं।  व्रतों और त्योहारों में कहीं वेद और उपनिषदों की उक्तियाँ झांकती अवश्य हैं, रूप चाहे जितने बदल गए हों। आज वट सावित्री अमावस्या का दिन है।
11/6/21
उस व्यक्ति पर हंस लें जो बताता है कि सभी श्वसन अभ्यास खतरनाक हैं। प्रत्येक मनुष्य निरन्तर प्रकृति के एक मूलभूत श्वसन अभ्यास को करने के लिए मजबूर है, चाहे उसके फेंफड़े अच्छे हो या बुरे। पाठ 10
राष्ट्रीय मीडिया में विगत कई महीनों से उत्तर प्रदेश में विभिन्न जातियों के बीच सरकार प्रायोजित संघर्ष की चर्चा हो रही है। एक राष्ट्रीय पार्टी जो इस सबसे अपने को ऊपर बताती आई है, उसकी सरकार की यह घोर असफलता है।  इसी पार्टी के राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्ता की भी सरकारें रहीं। कभी ऐसा विमर्श केंद्र में नहीं रहा। अब इस नुकसान की भरपाई करने का समय भी पार्टी के पास बचा नहीं है, कितनी मंत्रणा कर लें और चाहे जो उपाय अपना लें। आने वाला इतिहास जब लिखा जाएगा, तब यह दर्ज होगा कि इन सुनहरे पांच वर्षों को पार्टी ने किस तरह गंवा दिया, क्योंकि भविष्य में पता नहीं सत्ता में यह पार्टी कब और किन परिस्थितियों में वापस हो पाएगी!

12/6/21
Pavan Rawat तंत्र शास्त्र में बगला पद है, वेद में यही वलगा व्यत्यय नाम से कहा जाता है। उब्बट ने इसका अर्थ किया है शत्रु के विनाश के लिए कृत्या विशेष भूमि में जो गाड़ देते है, उन्हें नाश करने वाली वैष्णवी महाशक्ति को बलगहा कहते हैं। पीताम्बरा पीठ के स्वामीजी महाराज ने यही अर्थ बगलामुखी का बताया है। मुख में गए पदार्थ का चर्वण या विनाश इसका कार्य है।  तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी इसे वलगा कहा है। अथर्ववेद में बगला सूक्त है। इस सूक्त में वर्णित कृत्या का भागवत में भी उल्लेख है।  विस्तृत विवरण के लिए स्वामी जी महाराज का लेख श्री बगला महाविद्या देखें। अस्तु! शत्रुओं द्वारा किये हुए अभिचार को नष्ट करने वाली इस महाशक्ति के श्रीचरणों में इस अकिंचन का साष्टांग प्रणिपात।
निम्नलिखित मंत्र छान्दोग्य उपनिषद में आज पढ़ने को मिला। यह पढ़ने को तब मिल पाया, जब ब्रह्मसूत्र का नन्दलाल दशोरा के हिंदी अनुवाद और व्याख्या के साथ साथ रामकृष्ण मठ के स्वामी गम्भीरानन्द जी का अंग्रेजी में अनुवादित शांकर भाष्य पढ़ा, अन्यथा छान्दोग्य तो पहले ही पढ़ चुके थे। आज गुरुदेव ने उस जिज्ञासा का समाधान कर दिया जिसमे नोएडा आश्रम में जब स्वामी ईश्वरानंद जी से कई आत्मन ने पूछा कि मृत्यु के बाद के शव संस्कार पर गुरुजी का क्या निर्देश है। उन्होंने बताया था कुछ करने सोचने की जरूरत नहीं। गुरु जी का साहित्य पढा, उसमे तो मिला नही, लेकिन गुरुजी ने जो ग्रन्थ पढवाये, उनमे से आज इसका उत्तर मिल गया। ब्रह्मवेत्ता के लिए शव संस्कारो की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।  प्रमाण पढ़ें।

 
अथ यदु चैवास्मिञ्छव्यं कुर्वन्ति यदि च नार्चिषमेवाभिसंभवन्त्यर्चिषोऽहरह्न आपूर्यमाणपक्षमापूर्यमाणपक्षाद्यान्षडुदङ्ङेति मासांस्तान्मासेभ्यः संवत्सरं संवत्सरादादित्यमादित्याच्चन्द्रमसं चन्द्रमसो विद्युतं तत् पुरुषोऽमानवः स एनान्ब्रह्म गमयत्येष देवपथो ब्रह्मपथ एतेन प्रतिपद्यमाना इमं मानवमावर्तं नावर्तन्ते नावर्तन्ते ॥ ४.१५.५ ॥
॥ इति पञ्चदशः खण्डः ॥
अब (श्रुति पूर्वोक्त ब्रह्मवेत्ता की गति बतलाती है) इसके लिए शवकर्म करें अथवा न करें, वह अर्चिरभिमानी देवता से दिवसाभिमानी को, यहाँ से शुक्लपक्षअभिमानी देवता को, इससे उत्तरायण के छः मासों को प्राप्त होता है। मासों से सम्वत्सर को, सम्वत्सर से आदित्य को, आदित्य से चंद्रमा को और चंद्रमा से विद्युत को प्राप्त होता है। वहां से अमानव पुरुष इन्हें ब्रह्म को प्राप्त करा देता है। यह देवमार्ग-ब्रह्ममार्ग है। इससे जाने वाले पुरुष इस मानवमंडल में नहीं लौटते, नही लौटते।

5. Then, for those who know this, whether proper funeral rites are performed or not, they go after death to the world of light. From the world of light they go to the world of day; from the world of day to the world of the bright fortnight; from the world of the bright fortnight to the six months when the sun moves northward; from there they go to the year; from the year to the sun; from the sun to the moon; and from the moon to lightning. There someone, not human, receives them and leads them to brahmaloka. This is the way of the gods. This is also the way to Brahman. Those who go by this path never return to this mortal world. They never return.
सत्ता दल अनुयायी बनाते हैं, चाटुकारिता के कारण हो भी जाते हैं। विपक्ष के भी अनुयायी होते हैं, पर वे कम होते हैं। अधिक होते तो सरकार ही बना लेते, पर विपक्ष की आवाज में साथ देने वाले लोग नागरिक भूमिका में भी रहते हैं। अनुयायी सुविधानुसार पाला बदलते रहते हैं। एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए नागरिकों की आवश्यकता है। भक्त शब्द का अर्थ गहरा है। अनुयायी भक्ति क्या होती है, यह समझते नहीं है। जब कोई भक्त हो जाता है तो उसे किसी से बैर नहीं रह जाता। सा भक्तिः परानुरक्तिरीश्वरे के अनुसार भक्ति का आलंबन ईश्वर ही हो सकता है। राजनीति में किसी को ईश्वर नहीं समझा जा सकता है। न ईश्वर का दूत ही, जो निरंकुश होकर शासन करता है। ईश्वर है तो वह प्रजापति जिसे जन गण के मन के रूप में लिया जाना चाहिए। 🙏
13/6/21
आज छः घण्टे का मासिक ध्यान हुआ। श्रीमती जी परेशान हो जाती हैं। सबमर्सिबल पंप चलाया, पानी इतना फैला कि मेरे आसन को गीला कर गया। गुरुजी से बार-बार आज्ञा निर्देश मांगते रहे कि मुझे अपने आश्रम में बुला लें, ध्यान करने में बहुत मुश्किल हो रही है। आक्रोश भी हुआ कि क्या करें। लंबे ध्यान के तीन घण्टे के सत्र पर विराम हुआ, सत्र विराम के बाद सब आक्रोश तिरोहित हो गया। संन्यास लेने की इच्छा तो कई कारणों से होती रही है, वह बीच बीच मे उभर कर आ जाती है। क्रियाबान बहिन प्रिया हर बार कहती है मेरे लिए अनुमति नहीं मिल सकती। गृहस्थ में होने का कारण है और अभी जिम्मेदारियां हैं। पत्नी की जिम्मेदारी भी पहले प्रिया ने बताई कि बेटी की शादी के बाद भी निवृत नही हो पाओगे। योगदा वेबसाइट में दिया है कि गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के अनिच्छुक अथवा पारिवारिक दायित्वो या प्रतिबद्धता से रहित होने पर कोई सामान्य स्वास्थ्य का युवा संन्यास ले सकता है। दायित्व ऐसे कोई बड़े नही हैं। भगवान की कृपा से इतना है कि ये लोग अपना जीवन यापन और बेटी की शादी कर सकते हैं, प्रतिबद्धता फिर कहाँ रही। इस सम्बंध में अब  कभी रांची केंद्र से मार्गदर्शन लूंगा।
14/6/21
सैकड़ो वर्षों से चला आ रहा राम मंदिर का विवाद समाप्त हुआ, इस बात की खुशी है। उसके बाद महिमामंडन की आवश्यकता नहीं है। व्यक्ति को धार्मिक बनने के लिए आस्था की ज़रूरत होती है, जो उसके भीतर एक सहजात प्रवृत्ति के रूप में मौजूद होती है। मन्दिरो के निर्माण का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। सामूहिक चेतना के केंद्रों के रूप में इनकी महत्ता से इनकार नहीं है। इसी कारण इनका निर्माण हुआ किंतु व्यक्ति को पहले स्वयं की चेतना विकसित करनी पड़ेगी। मन्दिर को पहले चैत्य कहा भी जाता रहा है।

ॐ के स्वरूप पर ध्यान के दौरान कौंधा कि ॐ अक्षर की अ और उ रूप दो बाजुएं हमारे दोनो हाथ हैं। गुरुजी उड़ते हुए पक्षी की तरह हाथों को रगड़कर पैदा हुई गर्मी को प्रसारित करने के लिए हाथ उठवाकर आरोग्यकारी अभ्यास कराते हैं। ॐ का चन्द्रबिन्दु मूलाधार से सहस्रार तक उठती हुई ऊर्जा है, जहां बिंदु रूप शिव/शक्ति का मिलन हो रहा है। अर्थात जब हम ॐ सुनते हैं तो ऊर्जा चक्रों से ऊर्जा सहस्रार में जाते हुए अनुभव करते हैं। म कार का गुंजार मूलाधार से चन्द्राकार में ऊपर उठते हुए क्रम में होता है। संस्कृत वर्तनी, ध्वनि, अक्षर और शब्द बनने के पीछे गूढ़ रहस्य है। इन्हें पूरी तरह डिकोड समाधि अवस्था मे जाकर ही किया जा सकता है। 

15/6/21 आज रामपुरा(जालौन) के पास पहूज नदी के किनारे झाड़ियों और टीलों के बियावान में एक ऊंचे टीले पर बने भैरव जी मन्दिर जाना हुआ, भैरव जी की मूर्ति के बारे में शम्भु मिश्र के अध्यापक पिताजी ने बताया था, वे तो अब दिवंगत हो गए, किंतु स्थान पर जाने का स्मरण बना रहा। वहां दो श्वानों ने बड़ा लाड दुलार किया। प्रसन्नता हुई। आधा घण्टे अच्छा ध्यान हुआ।
वैसे मुझे कुत्तों से सदा से अरुचि रही, पर मन्दिर में जाने के आधा घण्टे में काला मादा श्वान आया, फिर तीन चार घण्टे रुकने के बाद फिर नर और मादा दोनों श्वान आये। सूँघते रहे, चाटते रहे। स्पंदन कैसे आकर्षित करते हैं, इसका प्रत्यक्ष अहसास किया। भैरव जी का तो वाहन भी श्वान है। वहीं परिसर में भोजन तैयार करके छका गया। शोध छात्र धर्मेंद्र यादव साथ थे।
16/6/21
ॐ तत सत महिमावान मंत्र है। यह गीता में आया है। इसका अर्थ गुरु जी ने अपने पाठों में भी किया है। ॐ या शब्द परमात्मा का व्यक्त स्वरूप है, सृष्टि के कण कण में ॐ गुंजरित हो रहा है। यह परमात्मा की वाचक ध्वनि है। तत मनुष्य का कूटस्थ है, जहां परमात्मा की प्रतिछवि विराजमान रहती है। कूटस्थ या क्राइस्ट चेतना प्रत्येक अणु में विद्यमान रहती है। सत ब्रह्म का अव्यक्त रूप है। अव्यक्त से ही व्यक्त होता है। असत से सत का निर्गम होता है। तत से ही तात बना है। तात का अर्थ पिता और पुत्र दोनो होता है। तत से पिता और पुत्र दोनो का आगमन हुआ, अस्तु। गुरु जी ने जब हम श्वास को रोकते हैं तब ॐ तत सत का मानसिक जाप करने का निर्देश दिया है। 
गुरुजी के पाठ 35 में दिए गए विवरण में बाइबल के अनुसार पिता (ईश्वर की प्रज्ञा शक्ति, जो सृष्टि के ब्रह्मांडीय स्पंदन से परे शांत रूप में स्थित है, इसे  सत कहा गया है), पुत्र के रूप में ( कूटस्थ चैतन्य अथवा एकमात्र पुत्र- अर्थात ईश्वर की परावर्तित  प्रज्ञाशक्ति जो सृष्टि के ब्रह्मांडीय स्पंदन में शांत रूप से स्थित है इसे तत कहा गया और तीसरी पवित्र आत्मा, स्वयं ब्रह्मांडीय स्पंदन जो सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और लय को जारी रखने के लिए कूटस्थ प्रज्ञा को स्वतंत्र रूप में प्रयोग में लाता है, अर्थात ॐ।
17/6/21
आदम प्रथम मनुष्य है। यह आदम क्यों कहलाया, क्योंकि यह दम यानी श्वास से चलता है। दम मदार बेडा पार एक बाबा हैं। दम प्राण शक्ति है। उसकी उपासना और वंदना सर्वत्र सभी सभ्यताओं और भाषा समूहों में की गई है। 
श्वास, प्राण शक्ति, मन और यौन वृत्ति का संतुलित सामंजस्यपूर्ण विकास आध्यात्मिक जिज्ञासु को शीघ्रतम सफलता और वास्तविक प्रगति प्रदान करता है। पाठ 11
इनमे से किसी एक पर नियंत्रण या संतुलन हो जाये तो शेष तीनो भी उसकी समस्वर हो जाती हैं। 
श्वास के बिना रहने का अर्थ है श्वास लेने की आवश्यकता को अनुभव किये बिना सुविधापूर्वक रह सकना, श्वास के बिना रहने का अर्थ फेंफड़ो में वायु को बलपूर्वक भेजना या रोकना नही है।
जब शरीर मे ह्रास की प्रक्रिया रुक जाती है और कोई अशुद्ध रक्त फेंफड़ों में पंप करने के लिए नहीं रहता तो हृदय स्वाभाविक और पूर्ण रूप से शांत हो जाता है।
18/6/21
जब चिंता रोग और मृत्यु रूपी बाघ आपका पीछा कर रहे हो तो आपका एकमात्र आश्रय स्थल आपके मौन का आंतरिक मन्दिर ही है। 
लोगों से मिलते समय उनकी चेतना की अवस्था से प्रभावित न हों, उन लोगों के साथ संगति रखें जो निरन्तर ईश्वर का गुणगान करते हनन, अवांछनीय गुणों का प्रदर्शन करने वालों से दूर रहें। 
यह कहते हुए शरीर छोड़ें " मैं शांति के सिंहासन पर बैठा अनश्वरता का राजा हूँ। 
दिव्य चक्षु में तीन रंग होते हैं बाहरी सुनहरा, गोलाकार मंडल जो ब्रह्मांडीय ऊर्जा के व्यष्टि रूप का प्रतीक है। यह ॐ या पवित्र आत्मा का प्रतीक है। इस सुनहरे के बीच एक गहरे नीले रंग का गोलक है जो कूटस्थ चैतन्य के व्यष्टि रूप का प्रतीक है यह पुत्र का प्रतीक है और इस अर्धपारदर्शी गहरे नीले गोलक के भीतर एक सफेद चमकदार पंचकोणीय तारा है जो ब्रह्मांडीय चेतना के व्यष्टिरूप का प्रतीक है। यह परमपिता का प्रतीक है। 
आंख ही शरीर का प्रकाश है इसलिए यदि तेरा नेत्र एक हो तो तेरा सम्पूर्ण शरीर प्रकाश से परिपूर्ण हो जाएगा। बाइबल मत्ती प्रकाश अंधेरे में चमक रहा है और अंधेरे को इसका कोई बोध नही है। बाइबल यूहन्ना 
मृत्यु वायु के अभाव में दम घुटना नही है, यह तो श्वास को चंगुल से मुक्त होकर श्वास रहितं परमात्मा में प्रवेश करना है। 
आंखों पर दबाव डालने ऊर्जा अथवा सूक्ष्म प्रकाश दबकर बाहर निकलता है और बंद आंखों के अंधकार में दृष्टिगत होता है। सिर पर आघात लगने से तारे दीखते है क्योंकि सूक्ष्म प्रकाश भौतिक प्रकाश से पृथक होना चाहता है। पाठ 13

19/6/21
कोई राजनीतिक दल बनाना या व्यापारिक प्रतिष्ठान खड़ा करना आसान है, पर व्यक्ति रूपांतरण का कार्य किसी के लिए अत्यंत दुरूह है। यह कार्य अलौकिक शक्ति की इच्छा और मार्गदर्शन के बिना सम्भव नहीं। व्यक्ति रूपांतरण के महती कार्य के लिए परमहंस योगानंद को तो अपने परिवार का भी भरपूर सहयोग मिला। गोरखपुर में उनका जन्म हुआ, यहां उनका स्मारक बहुत पहले बन जाना चाहिए था। तब से तो और अधिक इसकी आवश्यकता महसूस हो रही थी, जब से विश्व योग दिवस घोषित हुआ। योग के महत्व को न केवल भारत में, अपितु पश्चिमी दुनिया मे स्थापित करने के लिए जब नाम देखे जाएंगे तो उनमे परमहंस योगानंद का नाम शीर्ष पर होगा। गोरखपुर में योगानंद जी के स्मारक बनने का कार्य प्रारंभ हुआ, जानकर खुशी हुई। 🙏

20/6/21
आज अंतरराष्ट्रीय पितृ दिवस है। जिनके पिता जीवित नहीं हैं, उनका स्मरण तो आज वैसा ही हुआ, जैसा श्राद्ध कर्म में किया जाता है। कई व्यक्ति श्राद्ध को व्यर्थ बता देते हैं। कहीं यह कान घूमकर तो नहीं पकड़ा गया है। 

ऋग्वेद की एक ऋचा है..
  ये अग्निदग्धा ये अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते ।
तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व ॥  ॥
हमारे जिन पितरोंको अग्निने पावन किया है और जो अग्निद्वारा भस्मसात किये बिना ही स्वयं पितृभूत हैं तथा जो अपनी इच्छाके अनुसार स्वर्गके मध्यमें आनन्दसे निवास करते हैं । उन सभीकी अनुमतिसे, हे स्वराट् अग्ने ! ( पितृलोकमें इस नूतन मृतजीवके ) प्राण धारण करने योग्य ( उसके ) इस शरीरको उसकी इच्छाके अनुसार ही बना दो और उसे दे दो .

21/6/21

विश्व योग दिवस

योगदान कितना प्यारा शब्द है। योग से मिलकर भारतीय भाषाओं के बहुत से महत्वपूर्ण और आमजन में प्रतिदिन प्रचलित हो रहे शब्द बने हैं योग्य, उपयोग, संयोग, सहयोग इत्यादि।

यह शब्दावली घोषित करती है कि योग हमारे जीवन में कितना आधारभूत स्थान रखता है। 

योग जीवन पद्धति है। यह मन, वचन और कर्म की त्रिवेणी में सतत बहने वाली अजस्र धारा है। यह ऋग्वेद के स धा नो योग आमुवत में है, तो जुगाडू में भी है। आत्मा और परमात्मा के मिलन में है और जोगीरा सा रा रा में भी।  योग लौकिक और पारलौकिक दोनो जीवनों की समृद्धि के लिए अचूक उपाय है। इसके बिना गति नहीं। यह आगम और निगम दोनों शास्त्रों का आधार है।  यह ईश्वरवादियों, निरीश्वरवादियों, वैदिक मान्यताओं का विधि निषेध करने वाले व्यक्तियों, सबके लिए है। योग की इस व्याप्ति और आवश्यकता को हमारे ऋषियों मुनियों ने वर्षों की तपस्या से समझा है, बाद में उसके महत्व और क्रियाविधि से परमहंस योगानंद जैसे योगियों ने अपनी गुरु परम्परा के आदेश से दुनिया को परिचित कराया। तब जाकर यह विश्व योग दिवस के रूप में साकार हुआ। यह अवसर निमित है योग के सर्वांगीण स्वरूप को मन, वचन और कर्म में उतारने का। 

कुछ लोग कहते हैं देश में कुपोषण और बेरोजगारी की भयावहता व्याप्त है, योग तो भरे और अघाये पेट वाले लोगों के लिए है। अगर योग को हम  शारीरिक सौष्ठव मात्र का अभ्यास समझेंगे तो अवश्य यह प्रतीति होगी और इस प्रकार योग  के अर्थ को हम सीमित और सतही कर लेंगे। हमारी गरीबी और अन्य समस्याएं यह जताती हैं कि उन्हें दूर करने के लिए अभी योग साधन को उसके सर्वांगीण स्वरूप में मनोयोग पूर्वक अपनाया जाना शेष है। यह जब होगा तभी हम योग्य बन सकते हैं।
22/6/21
योगदा सत्संग के पाठों को पुनः पढ़ते हुए विदित हो रहा है कि जो कुछ उपनिषदों, गीता और ब्रह्मसूत्र में पढ़े, उसका सार और संक्षेप इनमे दिया है। एक बार पढ़ने से पता नही चल पाता, या जब दूसरे प्रामाणिक ग्रन्थ पढ़ते हैं और फिर पाठ पढ़ते हैं तब पता लगता है कि यह पाठ तो ज्ञान और अनुभव के संचित मधुकोष हैं।
ध्यान में चिड़ियां दिख रही हैं। पक्षी ऊपर मंडराते हुए भी। आज भ्रूमध्य में चकाचौंध कर देने वाले भवन की झांकी दिखी, फिर श्री कृष्ण की दस बारह वर्ष की अवस्था का स्वरूप। झूमते और मुस्कराते हुए।
ऐसा लगता है होंग सौ चेतन प्राणियों की ओंकार है, इसमे ह है, स है और अनुस्वार भी जिसमे ॐ सम्मिलित है। ओंकार समस्त जड़ चेतन जगत की व्यक्त गुंजार है। क्रिया इन्हें समझने का सटीक उपकरण या माध्यम है। 
विभिन्न विवादित विषयो पर गुरुजी का निर्देश या मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए गूगल करते हैं तो स्वामी क्रियानंद जी द्वारा स्थापित संस्था आनंद.org वेबसाइट से गुरुजी के निर्देश प्राप्त होते हैं। गुरु जी का काम इतना वृहत्तर है कि वह किसी एक संस्था में पूरा समा नहीं पाता। ज्योतिष पर गुरुजी की राय देखी। योगी कथामृत में कड़ा पहनने का प्रसंग है। तीन नीलम का एक अध्याय है, गूगल से आनन्द सत्संग वेबसाइट कहती है कि जब हम ध्यान करते हैं तो सारे ग्रह नक्षत्र अनुकूल हो जाते हैं। एक दिन मार्क्सवाद पर प्रिया मिश्रा से बात हो रही थी, उन्होंने भी दो सन्दर्भ जो भेजे थे, वे इसी वेबसाइट से थे। गुरुजी ने किसी विचारधारा विशेष का न समर्थन किया न विरोध। विचारधाराएं एक पहलू का कुछ समय के लिए समाधान है, पर गुरु जी ने स्पिरिचुअल कम्युनिज्म पद का प्रयोग करते हुए बताया है कि ऐसा साम्य जिसमें कभी किसी को छोटा बड़ा नहीं होना।  मुंडक उपनिषद में साम्यता  पर एक मंत्र मिलता है निरंजनः परमं साम्यमुपैति।
योगी कथामृत में ज्योतिष विषयक सन्दर्भ देखते हुए एक और पुरानी शंका का समाधान हुआ। पुत्र उत्पन्न करना हमारे स्मृति और सूत्र ग्रन्थों में आवश्यक बताया गया है। अन्य कई ग्रन्थों में भी पितृ ऋण उतारने के लिए और पुं नामक नरक से रक्षा करने के लिये इसकी आवश्यकता बताई गई है। बृहदारण्यक  उपनिषद में कहा गया है कि पिता पुत्र को जब अपनी सम्पत्ति और कामकाज सौंप कर जाता है तो उससे पिता को तृप्ति मिलती है। जैविक पुत्र की उत्पत्ति की बात सनातन धर्म के गर्न्थो की व्याख्या कब और कैसे बनी, इसकी तो खोज करनी होगी, पर जेनेसिस में आता है, जैसा योगी कथामृत के ग्रह शान्ति अध्याय की पादटिप्पणी में दिया है कि पुत्र क्राइस्ट या कूटस्थ चेतना को कहते हैं, यह ब्रह्मांडीय स्पंदन में शांत रूप में स्थित शक्ति है, व्यक्ति जब इसे जगा लेता है  तब वह अपने पिता यानि ईश्वर की प्रज्ञा शक्ति जो सृष्टि के ब्रह्मांडीय स्पंदन से परे शांत रूप से स्थित है, उसे  प्राप्त कर पाता है, तीसरी शक्ति पवित्र आत्मा है यह ब्रह्मांडीय स्पंदन है, ॐ कार के रूप में यह अभिव्यक्त हो रहा है। गीता में आये मंत्र ॐ तत सत का यही अर्थ है और बाइबल में होली घोस्ट  की ट्रिनिटी या त्रिमूर्ति यही है। आत्मा को घोस्ट या स्पंदन के रूप में वहां माना गया है। होली पवित्र होता ही है। जेनेसिस की यह व्याख्या गुरुजी को उनके गुरुदेव श्रीयुक्तेश्वरजी ने बताई थी, उनसे पहले इस प्रसंग के अर्थ का अनर्थ किया जाता रहा है।
23/6/21
सृष्टि से परे उस निर्गुण ब्रह्म या परमपिता को कोई भी तब तक प्राप्त नही कर सकता जब तक वह पहले सृष्टि में व्याप्त कूटस्थ चैतन्य या पुत्र को अपने मे प्रकट न कर दे। गीता में आये मंत्र ॐ तत सत के अर्थ से इसे समझा जा सकता है।   कूटस्थ चेतना परमपिता का एकमात्र पुत्र है। इसमें लिंग या जेंडर का प्रश्न नहीं है। वैसे तो सब प्राणी परमपिता की संतानें हैं, पर मनुष्य में ही यह पुत्र प्रकट होने की संभावना पाई जाती है। 

पितृ ऋण की अदायगी के नाम पर पुत्र पैदा करने की अभिधात्मक व्याख्या अथवा मैं ही ईश्वर का एकमात्र पुत्र हूँ, ऐसी व्याख्या करने से सनातन, ईसाई और अन्य शास्त्रों को सही रूप में नही समझा गया। एक बार गलत व्याख्या को पकड़कर आगे बढ़ते जाने से वह गलत ही बनी रहती है।
  
लेखिका मैत्रेयी पुष्पा की तीन बेटियां हैं, इस पर एक बार उनसे पूछा कि ऐसा करने के पीछे क्या कारण रहा! उन्होंने स्पष्ट कहा पुत्र के लिए समाज का दबाव था। इससे अधिक हम लोग जोखिम नही ले सकते थे।

जनसंख्या के बारे में पापुलेशन ट्रेंड वेबसाइट पर दिये ग्राफ कहते हैं कि आने वाले कुछ दशकों में भारत की जनसंख्या की वृद्धि दर और संख्या वर्तमान दर से कम हो जाएगी, पर जनसंख्या को एक तर्कसंगत स्तर पर उससे पहले अगर आज का समाज ले जाये तो उसमे हर्ज क्या है!
24/6/21
हर खींची गई या गतिमान रेखा वर्तुलाकार बन जाती है। कुछ भी जो हो रहा, वह गति है। अपने स्थान से व्यक्ति आगे बढ़ता है, उसमें विचलन होता है, जाते जाते वह सीधी रेखा नहीं वरन चक्रीय हो जाती है। इसलिए गति पुनरावर्तन है। गतिमानता में व्यक्ति अपने मन और इच्छा शक्ति के परिणामस्वरूप प्रकृति की स्वाभाविक गति से अलग और विशिष्ट हलचल उत्पन्न करता है, वह इस प्रकार भी जो कुछ कर रहा, वह भी प्रकृति की प्रेरणा है। जब सब कुछ प्रकृति की प्रेरणा है तो हम स्वभाव या स्वरूप में क्यों न स्थित रहें। हर्ष-विषाद और अवसाद कैसा! हर व्यक्त ध्वनि ओंकार का अंश है। वह ध्वनि चाहे कृत्रिम मोटर की हो, संगीत वाद्य की हो, और चाहे अनहद की, किसी की।  
25/6/21
ओली का अर्थ गोदी होता है। यब शब्द तंत्र शास्त्र में प्रचलित रहा है। ओली प्रत्ययांत मुद्राएं हैं। इसी तरह मुद्रा योग की विशिष्ट रूप है और यह शब्द धन के अर्थ लिए भी प्रयुक्त होता है।
आजकल दो पुस्तकें पढ़ रहे हैं। बिहार स्कूल ऑफ योग की हठ योग प्रदीपिका और योग विद्या से प्रकाशित शिव संहिता। बिहार स्कूल से ही विज्ञान भैरव तंत्र और हिंदी में घेरण्ड संहिता मंगाई है, जब तक आये। बिहार स्कूल का प्रकाशन और वितरण तंत्र तेज नहीं है और बाजार से प्रतिस्पर्धा करने में भी पीछे है। उनकी जो पुस्तके मंगाई हैं वे अमेज़न पर उनके यहां से बहुत सस्ती हैं और  शीघ्र पहुँच भी जाती हैं। बिहार स्कूल वालो से उनका कैटलॉग मांगा और हठ योग अमेज़न से मंगा लिये तो उन्हें खराब लगा, तब दो पुस्तके उनके यहां से मंगाए हैं।
जिह्वा का अग्र भाग अवश्य कुछ विशेष होता है। योग गर्न्थो में इसके बारे में पढ़ना अभी बाकी है।  
स वा अयं पुरुषः सर्वासु पूरषु पुरिशयः। बृह0 2/5/18 परमात्मा द्विपद और चतुष्पद प्राणियों के सूक्ष्म शरीरों में प्रविष्ट हुए, इससे पुरुष कहलाये।

हर भारतवासी हिंदूमन हो। यह आध्यात्मिक राष्ट्र बने, जिसके चलते यह दुनिया में जाना गया। इस योगदान के कारण विश्व भारत का कृतज्ञ हुआ। भारत को हिंदू राष्ट्र कहने का आग्रह कितना वरेण्य है! हिंदू मन होने पर किसी को हिन्दू कहलवाने का आग्रह ज़रूरी नहीं।  यह तो पहचान के लिए कुछ नाम देने की विवशता है, वरना हिन्दू धर्म से सनातन धर्म अधिक क्या, सर्वाधिक व्याप्ति बोधक शब्द है। धर्म सत्य का धारक होता है। सत्य एक ही है। सत्य को व्यक्त करने के लिए अनेक धर्म या सम्प्रदाय आगे पीछे आये, आगे भी आते जायेगे, वे सब भी उसी सत्य के पुजारी हैं। कोई अंतिम यथार्थ नहीं, न उसे अनुभूत करने का कोई एक तरीका है और न भगवान का कोई एक रूप है। यह बात वास्तविक हिन्दू होने पर समझ में आती है। हम सही अर्थों में हिन्दू बने, हमारा अवदान इतने  भर से बहुत अधिक होगा। वास्तविक हिन्दू वह है जो समस्याओं पर एकांगी ढंग से न सोचता हो, पहले वह हर सोच की कंडीशनिंग से बाहर जाए, फिर अपनी सोच बनाये। 
किसी नारे से बनाई गई व्यवस्था दूसरे नारे से प्रतिस्थापित हो जाती है। इसलिए नारों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। हमें अपने मूल चरित्र की पहचान करनी होगी। 

26/6/21

प्राण और अपान का रहस्य कल खुला। 
प्राण वायु मूलाधार से आज्ञा चक्र और अपान वायु आज्ञा चक्र से मूलाधार की तरफ जाती है
जबकि बाहर निकलती प्रश्वास अपान है और भीतर जाती हुई श्वास प्राण वायु है। क्रिया में यही करवाया जाता है। 

प यानी उदर पोषण और जीवन संघर्ष के लिए किया गया परिश्रम
फ़ फेन, जो घोड़ा गाड़ी में जुतकर झाग निकालता है।
ब यानी बंधन, प्रकृति की भौतिक गुण रूपी रस्सियों का बंधन
भ भय, मृत्यु का भय, जिसे अभिनिवेश कहा गया है।
म मृत्यु है।
इस पवर्ग से रहितं होना अपवर्ग है।

नदी, नाड़ी, नाद यह मिलते हुए से शब्द हैं क्योंकि उनसे नाद प्रकट हो रहा है। यूं हर कण या अणु का अपना नाद है और वह सब मिलकर ओंकार के रूप में व्यक्त हो रहा है। नाद बैल या जानवर जिस हौद में खाते हैं उस हौद को भी कहते हैं।

27/6/21
दूर से दिखाई देने वाली वस्तु नीली या काली ही दिखती है। अपने भगवानों का रंग भी काला है। अंधेरा और प्रकाश दो विपरीत चीजे नही हैं। अंधेरे से निकलकर रचना या प्रकाश प्रकट दिखाई देता है। प्रारंभिक रंग काला ही हुआ फिर।
महाकाल और महाकाली यह प्रथम अभिव्यक्तियाँ हैं। काला तो इन्हें रहना ही था। अंधेरे की उपासना यहूदियों के यहाँ मिलती है। अंधेरा या काला अव्यक्त दशा का व्यंजक भी है।
प्रकाश अंधेरे से प्रकट होता है, पर नाद कहाँ से आता है, इसका अंत कहाँ है। क्या आकाश में! प्रकाश का अंत भी इसी तरह क्या अंधेरे में है, नहीं। प्रकाश में आने पर अंधेरा और प्रकाश दोनो देख सकते हैं। सर्वत्र दुनिया मे प्रकाश का ही खेल है। जब हम कमरे में जाते हैं तो वहां रखी वस्तुएं प्रकाश जलता है तब दिखती हैं। प्रकाश में यह दृश्यमान प्रतीतिमान संसार है, प्रकाश ही वास्तविक है, वस्तुएं     बस प्रकाश में प्रतिबिंबित होती हैं। 
आज नाद स्पष्ट, तेज और दीर्घ अवधि का सुनाई दिया, पहले लगा कोई वायुयान है, पर इसकी ध्वनि उससे दीर्घ थी, वायुयान से मिलती जुलती थी पर अलग थी। 

जिन्होंने धर्म परिवर्तन किया, उन पर तरस खाना चाहिए। चिंतन इस पर हो कि ये क्यों दूसरे धर्म मे गए। हमे सिखाया गया अपने धर्म मे मरना श्रेयस्कर है। अपने धर्म के जरिये हम इतने उन्नत हो जाएं कि हमे सब धर्म बराबर लगने लगे, फिर धर्मो की कोई ज़रूरत भी नही रह जाती। केवल सांस्कृतिक कर्मकांड अपने धर्म के अनुसार करते हैं। कोई जबरदस्ती और लालच तो नही था, इसकी जांच हो।
28/6/21
योग अभ्यास कराने वालों का भी विश्व बाजार बन गया है। या यह इसलिए मुझे लगता हो कि हम भारत मे हैं, यहां बहुत सी चीजें अभी भी बिना शुल्क के या कम दामो में सुलभ है। किंतु ऐसा भी नहीं लगता, जब हम yss/srf जैसी संस्थाओं को देखते हैं तो विश्व भर में उनका किसी लाभ के दृष्टिगत काम नही चल रहा है। यह तो गुरुजन का निर्देश है और इसके व्यवस्थापक उन निर्देशो के अनुसार संस्था को गतिमान बनाये हैं। योग सम्बन्धी कई पुस्तको की प्रति दसियों हजार कीमत में मिलने पर यह प्रश्न उठा कि कही योग पर भी मुनाफा कमाने वालो की नज़र तो नही गड गई है। खैर, क्रियाबान बहिन प्रिया ने इससे मिलते जुलते प्रश्न के बारे में योगदा से पूछा तो उन्होंने कहा यह आये हैं और चले भी जाएंगे। यह आते जाते रहते हैं। 

आज सुबह के ध्यान में बादल गर्जन के स्वर में दस मिनट करीब नाद सुना, यद्यपि बादल नही घिरे ठें, धूप खिली थी और न वे गरज रहे थे। शाम को सन्यासी के नेतृत्व में ध्यान सत्र चल रहा था। आरोग्यकारी अभ्यास में ॐ गुंजार करते हुए ब्रह्मचारी श्रेयानंद जी बोल रहे थे, भीतर से वही आवाज बाहर नाद के रूप में व्यक्त हो रही थी। तीन बार यह सुना। 
29/6/21
पुस्तकें पढ़ते हुए पिछले लगभग एक वर्ष से सोच रहे हैं कि अब पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। फिर कोई नई और उत्तम पुस्तक हाथ लग जाती है। ऐसा इसलिए हो रहा कि आत्म दर्शन बार बार होते रहने अच्छा लगता है। समय है तो पढ़ भी लिया, अन्यथा ध्यान में तो यह दर्शन अवश्यम्भावी ही है। पढ़ने का लाभ यह भी है कि दर्शन और साक्षात्कार को बोध प्राप्त व्यक्तियों द्वारा भिन्न भिन्न ढंग से व्यक्त किया है। इससे ध्यान में मदद मिलती है और धारणा गहरी होती जाती है। ध्यान के बाद तत्व को पकड़े रहने में आसानी होती है। अक्सर उसी में डूबे रह जाते हैं। अपनी तरह से भी वह प्रकट होता है। वह अनंत जो है। कई तरह से प्रकट होकर भी अप्रकट है। प्रकट रूप ही नही जाने जा सकते, अप्रकट क्या जानेंगे। प्रकट रूप आगे चलकर रहस्य बन जाते हैं।
सेब के पेड़ से सेब समय समय पर फलते हैं, गिर जाते हैं, तोड़ लिए जाते हैं। अगले सत्र में पेड़ में फिर सेब आते हैं। प्रकट होना और तिरोहित होना चलता रहता है, सेब न रहने पर सेब का अनस्तित्व नहीं है।  और उनका अस्तित्व तो हम न होते हुए देखते ही है। सृष्टि भी यही है। 

विभाजन करने के लिए अभाव चाहिए, कोई स्पेस हो तब किसी चीज को बांटा जा सकता है। पूर्ण का विभाजन सम्भव नहीं। हम केक काटते हैं तो कम से  कम चाकू चलाने वाली जगह होगी तभी वह चलेगा। फिर चाकू भी उस पूर्ण में है, उसे पकड़ने वाली अंगुलियां भी पूर्ण हैं। इसीलिए ईशावास्योपनिषद में पूर्णता पर बड़ा सुंदर मंत्र मिलता है।

कामः संकल्पो विचिकित्सा श्रद्धाश्रद्धा धृतिरधृति ह्री धीर्भीरित्येतत्सर्वं मन एव। कामाकर्षण(desire), संकल्प(resolution), संशय (doubt), श्रद्धा(faith), अश्रद्धा(want of faith), धैर्य(patience), अधीरता(impatience), शालीनता(modesty), भय (fear) इत्यादि मन (के विभिन्न रूप) हैं। बृहदारण्यक उपनिषद 1/5/3

30/6/21
 सकाम कर्म और निष्काम कर्म दो मोटे विभाजन हैं। सकाम कर्म के नित्य कर्म, नैमित्तिक कर्म और काम्य यह तीन रूप हैं। नित्य कर्म वे हैं जो प्रतिदिन हम सुबह करते हैं, शारीरिक स्वच्छता और जैविक प्रकृति के कर्म इसमे शामिल हैं। नैमित्तिक कर्म वे हैं जो इच्छा होने न होने पर कर दिए जाते हैं, जैसे शादी, बारात या अन्य निमंत्रणों पर जाना। काम्य कर्मो के सात्विक, राजसिक और तामसिक रूप हैं। चैरिटी में स्कूल अस्पताल खुलवाना सात्विक कर्म हैं, इनसे लाभ कमाना राजसिक तो अहंकार और प्रदर्शन का दिखावा और दूसरे का नुकसान करना तामसिक कर्म है। कर्म में कार्य कारण प्रभाव शामिल होता है, जबकि कार्य  साधारण इच्छा अनिच्छा पूर्वक किये जाते है। उदाहरण स्वरूप अगर   हम दस लाख रुपये बैंक में जमा करें तो यह संचित कर्म की तरह हुआ, इस जमा पर आये ब्याज की तरह कर्म का प्रारब्ध है। क्रियमाण कर्म बैंक के चालू खाते के समान है। केवल इच्छा से कोई कर्म नहीं बनता। इसी तरह किसी सेवा में हैं और उसमे अगर ईश्वर का कार्य समझकर पोजीशन लेने की कामना की जाए तो वह भी कर्मफल से परे होती है। जब तक काम्य कर्म किया न जाये, उसके कर्मफल का गुण दोष नहीं बनता। काम्य कर्म का ही कर्मफल मिलता है, ईश्वर यह फल देते हैं। अगर कर्तापन के भाव से काम्य कर्म किया गया तो उसका फल आगे के जन्मों में भोगना होगा। शुभ और अशुभ दोनो ही कर्म इसके अंतर्गत आते हैं। शुभ कर्मों का भोग करने पर फिर मर्त्य लोक में आकर यात्रा जारी रखनी पड़ती है। अगर इस आवागमन से बचना है तो निष्काम कर्म करते जाने की हमें महती आवश्यकता है। अपने को ईश्वर का चाकर या टूल मानते रहें, कर्ता भाव नहीं रह पाएगा। गहनां कर्मणो गतिः कहा गया है, किंतु कर्म करते हुए इनके रहस्य का जब ज्ञान होता है तो कर्म मार्ग में न केवल सुगमता आती है, वरन उसमे आनंद आने लगता है।

जब आप अपने हृदय में ईश्वर को अनुभव करना प्रारम्भ  करेंगे, तो आप विश्व सभ्यता के प्रति इतना योगदान करेंगे, जितना किसी राजा अथवा किसी राजनीतिज्ञ ने पहले कभी नहीं किया होगा। गुरुदेव

Today I forget all those who have ever offended me, I give my love to both those who lobe me and those who do not love me.

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